रविवार, 28 अगस्त 2011

हप्पू की बम बम 2

सबने तो सर्कस देख ही लिया - एक एक करके ...| सिर्फ मैं ही रह गया था |

और तो और, एक दिन फेंटा विलास के पीछे की सीट पर अपनी मम्मी के साथ दुबका हुआ शशांक मुस्कुराता हुआ हम लोगों के सामने से गुजरा | जब वह वापिस आया तो उसकी मुस्कान इतनी चौड़ी हो गयी थी कि ओंठ फाड़कर दांत बाहर निकल रहे थे | ख़ुशी चेहरे में समा नहीं पा रही थी |

"मैंने सर्कस देख लिया |" उसने आते आते दस मीटर की दूरी से ही ऐलान कर दिया |

किससे कहूँ ? कैसे कहूँ ? व्यास भैया तो सेक्टर ५ चले गए थे | राम लाल और श्याम लाल मामा भी नौकरी की तलाश कर रहे थे | कभी सायकिल लेकर निकल जाते तो कभी पैदल ही | कौशल भैया तपस्वी की तरह आँगन की कुटिया में जमे हुए थे - विद्यालय की पढाई का आखिरी साल जो था |
 
आशा की एक क्षीण किरण थी | अगर किसी दिन बबलू भैया बिफर कर अपने गुस्से का झंडा ऊँचा कर दें तो तय था कि उनके साथ साथ हमें भी सर्कस देखने मिल जाएगा |

"तूने सर्कस देखा बे ?" २१ सड़क के टीटू के भाई मीटू ने एक दिन पूछा |

"नहीं |" मैंने कहा |

"तेरे पिताजी कंजूस हैं |"
 
मुझे बात चुभ गयी और मैं उस पर पिल पड़ा |

मुझे लड़ते देखकर मुन्ना और बबन अपना अपना चक्का छोड़कर दौड़े दौड़े आये | उधर अंकू , संजीव और राजी भी भागकर मीटू की सहायता के लिए पहुँच गए | देखा जाये तो इक्कीस और बाइस सड़क के बीच घमासान मच जाता ; पर समय रहते समझदार बड़े बच्चों के हस्तक्षेप से मामला किसी तरह टल गया |

हम लोग मैदान के बीच से अपने सड़क की ओर आ रहे थे | हम रह -रह कर पलट कर घुर कर देखते और ये पाते कि वो भी पलट कर देख रहे हैं | मीटू को देखकर मुन्ना बुदबुदाया ," सरदार जी की खोपड़ी में बारह अंडे थे ....|"

*************

शाला क्रमांक आठ से चींटी की कतार की तरह बच्चे निकले | कतार के दोनों ओर हाथ में मोटी मोटी सोटियाँ लिए शिक्षिकाएं चल रही थी | बच्चों की वह कतार सड़क तीन के पीछे वाले मैदान से होती हुई डबल स्टोरी के सामने से गुजरी |

वे चलते ही रहे और रेल पटरी के पार दूसरी दुनिया में खो  हो गए |

उनके आँखों से ओझल होते ही, मानो मेरी आशा भी धूल में मिल गयी | स्कूल की ओर से सर्कस जाने वाले बच्चों में बबलू भी एक था |

माँ से मैंने हिम्मत करके पूछा ," माँ , हम लोग सर्कस कब जायेंगे  ?"

घर में इतने सारे तो लोग आते जाते थे , रहते थे | अधिकतर तो मेहमान ही होते थे | अगर सर्कस जाएँ तो सबको साथ ले जाना पड़ेगा | या पता नहीं, माँ को खुद भी कोई दिलचस्पी नहीं थी | घर के काम से फुर्सत जो मिले |

आज सोचता हूँ तो लगता है  कि माँ के पास उस समय भी ढेरों जवाब हो सकते थे ," तुझे तनी हुई रस्सी पर चलती लड़की देखना है ? मैं चलकर दिखाऊं  ?" या फिर ,"सर्कस में क्या देखना है ? करतब दिखाते लोग ? घर में आने जाने वाले लोगों को देखा नहीं तूने ?" अथवा ," गिनना कौन सी बड़ी बात है ? हाथी हो या बच्चा - कोई भी गिन सकता है | उससे बड़ी बाजीगरी है, हिसाब लगाना और हिसाब रखना | अपने बाबूजी से पूछ ..|"

और गाहे बगाहे, आग में घी डालने , सर्कस के टेम्पो सड़क में चक्कर मारने आ ही जाते थे ," अब देख ही लीजिये | आग उगलती हुई लड़की , दर्पण में देखकर निशाना लगाने वाले निशानेबाज, खूंखार दरिंदों से घिरा रिंग मास्टर  ...... ........ ..... दूध की बोतलें गिनने वाला सबका प्यारा हाथी गनपत ..."

*************

केवल हम दो ही थे - मैं और मुन्ना ....|

शाला नंबर आठ से सर्कस की ओर गए बच्चों के क़दमों के निशान मिटे नहीं थे शायद .. | अगर मिट भी गए हों तो क्या - एक अनजान शक्ति हमें खींच रही थी | हम मंत्रमुग्ध से बस चले ही जा रहे थे |

मुन्ना ने जेब में ढेर सारे कंकड़ भर लिए थे और वह थोड़ी थोड़ी दूर चलने के बाद वह एक एक कंकड़ गिरा देता था | आखिर इतनी दूर जा रहे थे - अकेले | किसी को बिना बताये .... पहली बार ... | मुन्ना का तरीका अच्छा तो था,पर डबल स्टोरी के  पास पहुंचते - पहुँचते सारे कंकड़ ख़तम हो गए |

डबल स्टोरी के सामने की सड़क भी हम लाँघ गए | अब गड्ढों से भरा के छोटा सा मैदान था , फिर रेल पटरी के समानांतर चलती डामर की चौड़ी सड़क | जैसे जैसे हम लोग रेल पटरी के पास पहुँचने लगे , दिल तेजी से धड़कने लगा |

एक सवाल और एक आशंका जो मेरे मन में बहुत दिनों से बैठी थी , जो हर बार जुबान पर आते आते रुक जाती थी | अब अनजानी आशंका से दिल इतनी तेजी से धड़का कि वह सवाल उछलकर बाहर आ ही गया |

"मुन्ना , एक बात बता |"

" हाँ , पूछ | " अब हम रेल पटरी के समानांतर चलती सड़क दौड़ कर पार कर रहे थे | उन दिनों इतने वाहन तो थे नहीं  - सड़क दूर-दूर तक सूनी थी | डामर की सड़क एक मुख्य सड़क मानी जाती थी और ऐसी  सड़क दौड़ कर पार करने की आदत पड़ गयी थी | तेज धूप  से सड़क गरम हो गयी थी और नंगे पाँव जलने लगे थे | शायद ये भी एक वजह थी - दौड़ कर सड़क पार करने की | सड़क पार करते ही मैं एक क्षण के लिए रुका और मैंने सवाल पूछ लिया , "तेरा भाई कैसे मर गया मुन्ना ?"

मुन्ना एक क्षण के लिए उदास हो गया ," रात के सोते समय  बिस्तर से लुढ़क कर नीचे गिर गया |"

"तुझे याद है क्या ?" मैंने पूछा |

"नहीं | मैं तो बहुत छोटा था |"

"मरने के बाद सब लोग कहाँ जाते हैं ?"

"पता नहीं | "

यह तो मुझे भी नहीं मालूम था | आज भी नहीं मालूम है | पता नहीं किसे मालूम है ? लक्ष्मी भैया ने मुझे एक बार स्वर्ग और नरक की कहानी सुनाई थी | मैंने उसका जिक्र मुन्ना से किया |

" मुझे मालूम है | माँ कहती है, मेरा भाई स्वर्ग गया है |" वह कह कर फिर चुप हो गया |

"अगर हम लोग एक बहुत ऊंची सीढ़ी बना लें ,...बहुSSSत ऊँची ... बादल से भी ऊँची | फिर उस पर चढ़ कर हम लोग स्वर्ग जा सकते हैं |"

" वो तो बहुत ऊँची सीढ़ी होगी | उसको टिकाना भी पड़ेगा न |"

अब मैंने वह बचकाना सुझाव पेश कर ही दिया जो उस दिन से मेरे मन में कुलबुला  रहा था |

"अगर हम लोग सर्कस की लाइट पकड़ पकड़ कर चढ़ जाएँ तो स्वर्ग तक पहुँच जायेंगे | पर तेरा भाई तो बड़ा हो गया होगा | तू उसे पहचान लेगा ?"

"पता नहीं | वहां बच्चे तो कम होंगे न ? पर लाईट पकड़ के ऊपर कैसे जायेंगे ?"

"जैसे पेड़ पर चढ़ते हैं |"

"सर्कस वाले ने लाईट बंद कर दी तो ?"

अब रेल पटरी के चढाव पर हम लोग सम्हल सम्हल कर चढ़ रहे थे | दूर दूर तक कोई रेलगाड़ी नहीं दिखाई दे रही थी | अब दो रेल की पातें दिखने लगी - आने और जाने वाली | दोनों पांतों के बीच में थोड़ा फासला था |

... पर्दा उठा और यह  थी  रेल  पटरी  के  पार  की दूसरी  दुनिया  ...

.... और दूर सर्कस का तम्बू दिखने लगा | रेल पटरी के उस पार - दूर तक खाली मैदान था | उसमें ही दूर , कहीं बहुत दूर एक बड़ा सा तम्बू दिखाई दे रहा था | अभी मुश्किल से ग्यारह बजे थे | सर्कस का शो तो तीन बजे से पहले नहीं शुरू होगा | रेल पटरी के दूसरी ओर की ढलान पर हम लोग नीचे उतर गए और चलते दौड़ते, दौड़ते , उछलते चलने लगे |
तभी रेल के इंजन की सीटी की कर्कश आवाज़ सुनाई दी |वैसे भी हम लोग ढलान से नीचे उतर चुके थे | पर आवाज इतनी तेज थी कि हम बिदक कर और दस कदम दूर भागे |

पहली बार मैं  रेल गाड़ी का ईंजन इतने पास से देख रहा था | विशालकाय काले दानव जैसा - फक फक धुआं छोड़ रहा था |  हमारे पास से मंथर गति से चलता हुआ वह निकला | वह एक लम्बी सी रेल गाडी थी | ईंजन की आवाज़ ही ऊँची थी, रफ़्तार तो काफी धीमी थी |  इतनी धीमी कि हमें ईंजन की भट्टी साफ़ दिखाई दे रही थी | इतना ही नहीं, भट्टी के पीछे रखा बड़े बड़े टुकड़ों वाला कोयले का ढेर दिखाई दे रहा था | सर पर लाल रंग का रुमाल बाँधे, पसीने से लथपथ , हाथ में बेलचा लिए दो आदमी दिखाई दे रहे थे | वे रुक रुक कर कोयले के ढेर से कोयला निकाल निकाल कर भट्टी में डाल रहे थे |

आदत से मजबूर, रेलगाड़ी देखते ही हम दोनों ने हाथ हिलाना शुरू किया | एक खलासी ने हमें हाथ हिलाते देख लिया , उसने भी हाथ हिलाया |

गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ी | मुन्ना अभी भी " टा टा "  कर रहा था |

" यार, हम लोग रेलगाड़ी को 'टा टा' क्यों करते हैं ? " मैंने पूछा |

"'टा टा' करना चाहिए | क्या पता उसमें हमारा कोई चाचा या मामा बैठा हो |"

"पर ये तो माल गाड़ी है |"

"उससे क्या हुआ ? ड्राइवर तो रहता है | गार्ड भी रहता है | हो सकता है , गार्ड के डिब्बे में मेरे दादा जी झंडी लेकर बैठे हों |"

बात सच थी | मुन्ना के दादा जी गार्ड थे |

"वो ड्राईवर तुझे जानता था क्या ?"

"नहीं|"

"तो उसने तुझे 'टा टा' क्यों किया ?"

बेतुके सवालों की झड़ी से मुन्ना भन्ना गया |

*************

तो ये रहा सर्कस ....|

चार घंटे बाद, पहले शो के समय भले ही उधर रेलम-पेल मचने वाली हो, पर इस समय ,जबकि मध्यान्ह भी नहीं हुआ था, सब कुछ शांत था | वे इन्सान और जानवर, जिन्होंने शहर में धूम मचा रखी थी ; वे बड़े-बड़े, काफी विशालकाय पोस्टरों पर मुख्य द्वार और उसके आस पास गोलाकार दीवारों के रूप में दूर तक विराजमान थे  ; पर वे मूर्त रूप में थें कहाँ ?

वे थे एस्बेस्टस की उन चादरों के पीछे जो  सर्कस के प्रांगण  की चाहरदीवारी  के रूप में बनी थी | वह गोलाकार घेरा मुख्य तम्बू से कुछ अलग हटकर था | शायद सर्कस के कलाकारों के खानाबदोश जीवन में कुछ दिनों के लिए यही उनका डेरा था | इसके अलावा छोटे छोटे  तीन चार तम्बू और थे | टिकट खिड़की अभी सूनी थी |

और वो लाईट के स्त्रोत कहाँ हैं ? कहीं दिखाई  नहीं दे रहे हैं |

तो वे अजूबे, वो कलाकार, वो आकर्षण , वो जादूगर इन पर्दों के पीछे हैं ... | हमारे जैसे कतिपय और बच्चे भी अपने चहेतों की एक झलक पाने के लिए घूम रहे थे | हालाँकि उस दुनिया के बच्चों की पोशाक थोड़ी सी अलग थी | कई बच्चों ने हाफ पेण्ट पहनी थी तो कमीज़ नदारद थी | कुछ बच्चों ने जरुरत से बहुत ज्यादा लम्बी कमीज पहनी थी और फिर पेण्ट की जरुरत नहीं थी | कुछ ने कमीज और पेण्ट दोनों पहने थी पर इधर उधर से फटी होने के कारण धूप में तपी सांवली त्वचा स्पष्ट दिखाई दे रही थी | बाल बेतरतीब ढंग से एक दूसरे से चिपके हुए थे | 

 उनमें से कुछ ने तो एस्बेस्टस की उन शीटों में दरार या सुराख़ भी खोज ली थी और वे चुपके से अन्दर झाँक रहे थे | बाकी , कुछ दूर खड़े उनके हटने की प्रतीक्षा कर रहे थे |ऐसे ही एक बच्चा हटा और मैं टूट पड़ा | मुन्ना को भी बगल के एक झरोखे में मौका मिल ही गया |

अन्दर क्या था ? सामान्य से लोग ही तो थे वे | लुंगी पहन कर तीन की कुर्सियों में बैठे पता नहीं, किस भाषा में बातें कर रहे थे | शायद छोटा या बड़ा सुरेश या सोगा , मगिन्द्र होते तो समझ सकते थे | चार पांच मोटी मोटी काली कलूटी लड़कियां इधर उधर धूम रही थी | एक आदमी हाथ में डंडा लिए कुत्तों को बॉल पकड़ने की ट्रेनिंग दे रहा था | ओह हो, वो देखो | एक कोने में शेरों के पिंजड़े हैं | शेर अलसाए हुए पाँव पसारे लेटे हुए थे |

और हाथी ? वो उस कोने में - तीन छोटे तम्बुओं में से एक में झुण्ड में थे .. उनके सामने चारा फैला हुआ था | पूँछ हिलाते हुए सामने रखा चारा सूंड से उठाकर मुँह में डाल रहे थे | मक्खियाँ भगाने के लिए पाँव भी हिला रहे थे तो ऐसा लग रहा था मानो संगीत की धुन पर थिरक रहे हों |

"सड़ाक ...., " अचानक मेरा पेंदा गरम हो गया ....| अभी कुछ सम्हल पाता कि 'सड़ाक' - दूसरा सोंटा जांघों में पड़ा | बिना कुछ सोचे समझे मैं वहां से सरपट भागा |  भागते-भागते मैंने देखा , एक छोटा, बेहद छोटा सा आदमी - हाँ , बच्चा नहीं, सफ़ेद कुरता पायजामा पहने नाटा सा आदमी हाथ में मोटा सोंटा लिए इधर उधर भाग रहा था और दरार या सुराख़ से झांकते बच्चों की पिटाई कर रहा था | सिर्फ उन्हें वहां से भगाना ही उसका ध्येय था | पीछा करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी | दर्शनीय दृश्य था | बच्चे इधर उधर , जहाँ मुँह समाया भाग रहे थे | उस नाटे आदमी की तस्वीर दिल में पैठ गयी |

*************

... और हम रास्ता भटक गए |

मुन्ना ने सड़क पर कंकड़ जरुर गिराए थे, पर वे कंकड़ तो कब के ,कहाँ , किस कूचे में ख़तम हो गए थे | अब तो उन कंकडों तक पहुँच पाना ही एक लक्ष्य था |

इतना हमें मालूम था , हमें रेल पटरी के किनारे किनारे चलते जाना है | पर कितनी दूर तक जाना है ? हे भगवान, सड़क के उस पार डबल स्टोरी की कतारें तो ख़तम होने का नाम नहीं ले रही हैं | क्या बातें करते करते हम लोग इतने दूर आ गए थे ? या कहीं हमारा घर पीछे छूट गया था ?

"हमारा घर कहाँ है यार ?" मैं चिंता में डूब गया ," लगता है, हम लोग गुम गए हैं |"

हम खो गए थे |

पहले तो डबल स्टोरी कहीं दिखाई ही नहीं दे रही थी | फिर डबल स्टोरी की कतार शुरू हुई तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी |

"घर कहाँ है यार मुन्ना ?"

"आ जायेगा | रुक मत, चलते रह |"

"हम लोग आगे निकल गए यार | या फिर हम लोग उल्टा चल रहे हैं |"

मुन्ना चौंक गया | फिर बोला ," नहीं, ठीक चल रहे हैं | वो देख, कारखाने की चिमनी दिख रही है ? "

अब हमें महसूस हो रहा था कि चलते चलते हम लोग कितनी दूर आ गए थे | दूसरे  शब्दों में, सर्कस कितना  दूर था ! प्यास लग रही थी | गला सूख गया था | एक और रेलगाड़ी गुजरी | हम लोग जल्दी से ढलान से उतरकर थके हाथों से 'टा,टा'  करने लगे |

"तूने 'बालक' पिक्चर देखी ?" 'बालक' पिक्चर भी करीब-करीब सब ने देख रखी थी - मेरे सिवाय | गाँधी जी की जन्म शताब्दी एक वर्ष पूर्व ही मनाई गयी थी | 
 
"उसमें वो लड़का कैसे रेल पटरी पर लेट जाता है - मरने के लिए ?" फिर वह गुनगुनाने लगा ,

"सुन ले बापू ये पैगाम , मेरी चिट्ठी तेरे नाम... ....
उं.. उं.. उं.. उं.. गुं... गुं.. गुं.. गुं..
तेरी हिंदी के पाँव में अंग्रेजी ने डाली डोर ...
तेरी लाठी ठगों ने ठग ली, तेरी बकरी ले गए चोर |"

गाना तो अच्छा था | मुन्ना तन्मयता से गा भी रहा था | किसी और मौके में मैं भी मुन्ना के सुर में अपना राग जोड़ देता | मगर उस समय -उसके गाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी | मेरी आँखों के सामने माँ का, बाबूजी का चेहरा घूम रहा था | घर आखिर गया तों कहाँ गया ? बच्चे पकड़ने वाले लोग घूमते रहते हैं - बोरा लेकर | कहीं मुझे और मुन्ना को बोरे में भर लिया तों ? कहीं पुलिस मिल गयी और पकड़ कर ले गयी तो ?

तों वही हुआ जिसका डर था | ये रेलवे फाटक तों कहीं आया नहीं था रस्ते में | मुझे अच्छी तरह याद था |

"मुन्ना" ,मैं चिल्लाया ," गाना बंद कर यार | ये रेलवे फाटक कहाँ से आ गया ?"

रेलवे फाटक के पास एक आदमी लाल - हरी झंडी लिए खड़ा था |
 
"हमारा घर कहाँ है भैया ?" भगवान्, उसे हमारा घर मालूम हो ... | काश मालूम हो ...|

"कहाँ रहते हो ?" उसने पूछा |

"घर में |"

उसने सर पीट लिया ,"  मतलब सुपेला में या सेक्टर में ?

"सेक्टर में |"

"कौन से सेक्टर में ?"

"सेक्टर २ |"

उसने दांया  हाथ उठाया , "यहाँ जाओ |"

उस सड़क पर चलते ही सब कुछ याद आ गया | अरे, ये तों बड़ा सा गोल चौक है | कई बार व्यास या रामलाल के साथ सुपेला बाज़ार जाते समय यही तो चौक पड़ता था |

मुन्ना जोर से चिल्लाया ," अपना घर मिल गया | चल मेरे पीछे |"

पर मुझे मालूम था, घर अभी भी दूर है | हम लोग भागते-भागते गोल चक्कर के पास पहुंचे और रेल पटरी के समानांतर चलती डामर की पक्की सड़क पर मुड़ गए |
 
वहीँ एक सीमेंट का छज्जा बना था, जो अक्सर बस स्टॉप पर बना होता है | क्यों बना था - क्या प्रयोजन था - मुझे आज तक समझ में नहीं आया | उस सड़क पर कोई बस तों चलती थी नहीं | शायद बी. एस. पी. क़ी बस कर्मचारियों के लिए चलती हो | जो भी हो, , वह भीषण गर्मी या बारिश के दिनों में राहगीरों , भिखारियों और आवारा कुत्तों को निजात दिलाता था |

जब हमारी निगाह वहां पड़ी तों सब कुछ थम गया |

कौशल भैया, मुन्ने के राजा चाचा , शामलाल मामा और सदा इस्तरी किये कपड़े पहनने वाले और हाथ में छड़ी लेकर चलने वाले दीपक के बब्बा हमारा इंतज़ार कर रहे थे |

*************

ये सवाल जवाबों का ही नतीजा था कि अगले दिन शाम को मुझे और संजीवनी को श्यामलाल मामा साइकिल पर बिठाकर सर्कस ले जा रहे थे |

सारे सवाल एक जैसे थे जो अलग अलग रूप में अलग अलग लोगों ने पूछा था | जवाब भी लगभग वही थे |
 
"कहाँ गए थे ?"
"सर्कस"
 
"क्यों गए थे ?"
"देखने "

"सर्कस देखने ? पैसे कहाँ से आये ?'
"सर्कस देखने नहीं - 'सर्कस 'देखने' गए थे | मतलब कि सर्कस 'देखने' |"

फिर मिली ढेर सारी झिडकियां - कुछ हो जाता तो ? बच्चा पकड़ने वाले बोरे लेकर घूमते रहते हैं | मोटर गाड़ियाँ चलती है - ड्राइवर लोग शराब पीकर ट्रक चलाते हैं | शराब पीने के बाद आदमी को कुछ पता नहीं चलता वो क्या कर रहा है |  रेल गाड़ी का ब्रेक सौ मीटर दूर जाकर लगता है | बंजर मैदान में बड़े बड़े काले साँप रहते हैं | वहां ऐसे ऐसे धतूरे के पौधे उगते हैं कि अगर काँटा चुभ जाए तों सात दिन तक बुखार आता है |
 
... सो ये सब जोखिम अनजाने में उठाकर हम लोग अकेले या बल्कि दुकेले सर्कस गए थे !

*************

मुझे साइकिल के डंडे पर बैठना एक सज़ा से कम नहीं लगता था | संजीवनी पीछे कैरिअर पर बैठी थी | श्यामलाल मामा बीच बीच में पूछते थे , "संजीवनी, नींद तों नहीं आ रही है |"

पर सर्कस के तम्बू में घुसते ही सारे गिले शिकवे धुल गए | भयंकर भीड़ थी | काफी देर तक एक ही लाइन थी, | फिर टिकट के रंग के आधार पर लोगों को अलग अलग कर दिया गया | नीले रंग वाले , जिनकी संख्या उंगली पर गिनी जा सकती थी, सामने क़ी गद्दे वाली कुर्सी पर बैठने चले | उसके पीछे टीने की की कुर्सी वाले हरे टिकट वाले चले गए |
 
हमारी लाल टिकट गैलरी क़ी थी | सर्कस के सबसे पीछे लकड़ी के पटरे एक सीढ़ीनुमा ढंग से एक के पीछे एक काफी ऊंचाई तक लगाये गए थे | वे स्टैंड गोलाकार रूप में तम्बू क़ी दीवार के साथ साथ तीन ओर ठोंके गए थे |एक ओर सर्कस के कलाकारों, जानवरों आदि की आवाजाही का रास्ता था  | अधिकतर लोग तो गैलरी में ही आ रहे थे| ऐसी भयंकर भीड़ थी , फिर भी लोग एक दुसरे का हाथ पकड़ कर , कस कर हाथ पकडे इधर से उधर जा रहे थे | जरा कल्पना कीजिये, सामने पिताजी, बीच में तीन बच्चे और दुसरे छोर पर माताजी - सब एक दूसरे का हाथ पकडे जगह क़ी तलाश में इधर से उधर जा रहे थे | ऐसे में अफरा तफरी ना मचे तो क्या हो ?

अभी पटरे पर टिके ही थे क़ि "किर्र्रर्र्र" क़ी आवाज़ के साथ घंटी बजी और धुन चालू हो गई | यह पहली घंटी थी | रेल पेल और भी बढ़ गयी | शोर थोडा कम जरुर हुआ , पर जिन्हें 'साथ-साथ बैठने क़ी जगह नहीं मिली थी , जिनके बच्चों के सामने कोई टोपी वाला, या पगड़ी वाला सरदार बैठा हो, जिनकी आँखों के सामने खम्बा आ रहा था, या यूँ ही असंतुष्ट लोग या लोगों के ग्रुप अभी भी इधर उधर हो रहे थे |यह घंटी उन लोगों के लिए चेतावनी थी, "जल्दी करो, जल्दी टिको |"

.... "किरर्र" दूसरी घंटी बजी | अब मैंने ध्यान से देखा, मेरीं आँखों के सामने क्या था ?

कहाँ से शुरू करूँ ? ज़मीन से या आसमान से ? आगे से या पीछे से ? बीच के गोलाकार मैदान में दरी बिछी थी | ऊपर छत से बड़ी बड़ी लाइटें लटक रही थी | हमारे देखते ही देखते लाइटों की रस्सी खींचकर उसे और ऊपर उठा दिया गया | पीछे एक बड़े से गेंद के आकर का जालीदार पिजरा था | जानवरों और कलाकारों के प्रवेश द्वार के ऊपर बैठे साजिन्दे धुनें बजा रहे थे |

अचानक धुनों की आवाज़ तेज हो गयी | रौशनी मद्धिम हुई और लाल पीली बत्तियां झिलमिलाने लगी | जोकरों की एक पूरी पूरी जमात बाहर आ गयी |  .... हा ... हा ... हा ... देखो तो कैसे कैसे जोकर हैं ....| नाक में टमाटर लगाए जोकर ... झोले झंगड़ निहायत ढीले रंग बिरंगे पायजामे पहने जोकर .... रंग बिरंगी टोपियाँ पहने जोकर ..... हा.. हां. हा... मोटू जोकर ... हा... हा.. हा... मेरी और संजीवनी की हँसी थम नहीं रही थी ... लम्बू जोकर .... हा ... हा... हा..

अचानक लोगों की हँसी पांच गुना बढ़ गयी , पर मेरी हँसी जम गयी |
 
संजीवनी अभी भी और लोगों के साथ जोर जोर से हँस  रही थी ..... सामने आ गया 'छोटू जोकर'....
.... हा हा .. हा .. लोग अभी भी हँसी के सागर में गोते लगा रहे थे  | छोटू जोकर मटक मटक कर चल रहा था | हा... हा... हा...

पर मेरे गले में कुछ अटक गया था  ...|अरे ये तो वो ही नाटा आदमी है ... | हाँ, वही है ...| लाल पीला पोतने , आड़ी तिरछी दाढ़ी मूंछ लगाने से क्या होता है ? अब लोगों के ठहाके मेरे कानों को चुभने लगे ......|

अब  इधर भटकें, उधर भटकें, विचार सारे जहान में भटकें,  , सर्कस  तो  देखना  ही  था  | उसके  लिए ही तो इतनी दूर से आये थे | भले ही मज़ा मेरे लिए आधा हो गया था, फिर भी बाकी आधा हिस्सा इतना लोमहर्षक था कि चने मूंगफली के लिए आवाज़ लगाते फेरी वालों पर मुझे खीज आने लगी | जब देखो तब,कान के पास आकर गला फाड़कर चिल्लाने लगते थे  | न  तो संजीवनी ने किसी चीज़  के लिए जिद पकड़ी, ना मैंने | पर ढेर सारे इतने नालायक बच्चे थे जिन्हें कभी  मूंगफली चाहिए होती, तो कभी लेमनचूस |

हर खेल के बाद नकलची बन्दर जोकर आकर उस खेल की नक़ल  करने की कोशिश करते | और उसमें कुछ ज्यादा ही मज़ा आता | लड़कियां साइकिल का करतब दिखकर गयी, तो  जोकर अपनी तिपहिया साइकिलें लेकर आ गए जिसका हर पुर्जा अलग हो जाता था | जिमनास्ट अपने करतब  दिखाकर गए तो  जोकर गद्दा  ले आये और उछल कूद मचाने लगे |

जैसे  जैसे सर्कस आगे बढ़ता गया और दिलचस्प खेल  दिखाए जाने लगे | अब मुझे पता चला कि मुख्य द्वार के पास  लकड़ी का इतना बड़ा तिकोना मंच क्यों रखा गया है ? संगीत की लहरियां तेज हो गयी | बाहर  से एक जीप तेजी से चलती हुई आई और ऐन मंच के पास रुक गयी | जीप वाला जीप पीछे ले गया | इस बार वो जीप तेजी से चलाकर आया और मंच के बीचों बीच रुक गया |

वो क्या करना चाहता था ?

मैंने देखा, करतब के मैदान में करीब पचास फीट की दूरी पर, वैसे ही लकड़ी का दूसरा मंच रखा था | दूरी का मुझे अंदाज़ नहीं है भाई| अगर पाँच कारें आगे पीछे  सटाकर रखी जाएँ तो जितने दूरी नपे, उतनी दूरी मान लीजिये | | बीच की सारी जगह खाली थी | तीसरी बार वह दुगनी रफ़्तार से जीप भगाकर लाया | जीप हवा में उछली और दूसरी  तरफ के तिकोने मंच पर जा पहुंची | फर्राटे से वह दूसरी ओर के रास्ते में खो गयी  |

अभी ताली की आवाज़ थमी भी नहीं थी कि जोकर अपनी जीप लेकर आ गए | उनकी जीप देखते ही हंसी आती थी | जिसे कहते हैं न -" 'हॉर्न' के सिवाय सब कुछ बजता था |" उसमें जोकर शलीनता से, कोई आगे, कोई पीछे, कोई इधर मुंह किये , कोई उधर मुंह किये बैठा था |
 
उतरकर लम्बू जोकर ने सारे जोकरों से हाथ मिलाया | सारे के सारे जोकर हाथ हिलाते , सीटी बजाते उसका उत्साह बढाते खड़े हो गए | उसके लिए लकड़ी के दो छोटे छोटे तिकोने रख दिए गए |  अभी जीप ने रफ़्तार पकड़ी ही थी कि जोर का धमाका हुआ और चारों के चारों चक्के बिखर गए | जोकर सर पर पाँव रखकर भागे |

फिर दूसरी तरफ के पिंजरे से एक मोटर साइकिल के चलने की आवाज़ सुनाई दी | सारी बत्तियाँ बुझा दी गयी | सबकी नज़रें पिंज़रे पर टिकी थी | लोग दम साधे देख रहे थे | उद्घोषणा हुई, "कृपया माचिस या लाइटर ना जलाएं | यह कलाकार के लिए घातक हो सकता है|"

पिंजरे के अन्दर मोटर साइकिल की आवाज़ इतनी कर्कश, बल्कि कर्णफाड़ू थी ,मानो रह रहकर छोटे छोटे विस्फोट हो रहे हों | देखते ही देखते मोटर साइकिल पिजरे में घूमने लगी | जब मोटर साइकिल थमी और फिर से रोशनियाँ हुई तो लोगों की जान में जान आई |

इंतज़ार की घड़ियाँ समाप्त हुई |
 
तो बोतलें गिनने वाला गनपत हाथी आया | उसके साथ में उसका रिंग मास्टर भी था | पहले सूंड उठाकर उसने मैदान का एक चक्कर लगाया | एक तरफ नम्बरों की तख्ती रख दी गयी |

फिर  बीच  मैदान  में रिंग मास्टर ने तीन दूध की बोतलें रख दी और वो एक कोने में चुपचाप खड़ा हो गया |
हाथी दूध की बोतलों के पास गया , मानो वो बोतलें गिन रहा हो | उसने सूंड से एक एक बोतलों को छुआ |

"संजीवनी , कितनी बोतलें हैं ?" श्यामलाल मामा ने पूछा |

संजीवनी के कुछ बोलने से पहले ही मैं बोल पड़ा ,"तीन" |

और वाकई हाथी ने तीन नंबर की तख्ती उठाकर करतल ध्वनि के बीच पहले रिंग का एक चक्कर लगाया , फिर वह तख्ती रिंग मास्टर को सौंप दी |

अब रिंग मास्टर ने पाँच दूध की बोतलें रखी  |

श्यामलाल मामा के कुछ पूछने के पहले ही मैं बोल पड़ा," पाँच" |

हाथी ने इस बार पाँच नंबर की तख्ती उठाई | तालियों की गड़गड़ाहटके बीच रिंग का एक चक्कर लगाया और पाँच नंबर की तख्ती रिंग मास्टर को सुपुर्द कर दी |

अगली बार उसने आठ बोतलें ठीक ठीक गिनी | लोगों ने दाँतों तले उंगली दबा ली |

बहुत से लोग, जिनमें मैं भी था , यह चमत्कारी हाथी का शो देखने आये थे | वह हाथी अभी मंच से गया ही था कि जोकर अपना छोटा हाथी लेकर आ गए |

वह छोटा हाथी आखिर था क्या ? जोकरो ने कपडे का बना हाथी का खोल पहन रखा था | साफ़ दिख रहा था - एक जोकर आगे और एक जोकर पीछे | चलते -चलते हाथी की पूँछ गिर पड़ी | शरारत में छोटे जोकर ने लकड़ी की एक स्केल उठाई और हाथी के पेंदे को छुआ | पूँछ की जगह वो स्केल पेंदे से चिपक गया और पूँछ की तरह हिलने लगा |  हँसते - हँसते लोगों के पेट में बल पड़ गये - मुझे छोड़कर | छोटा जोकर मेरे लिए आँख की किरकिरी बन गया था | उसके बाद जोकरों के हाथी ने सीटी  बजाकर सबको  हँसाया | जब वह चले गया तब मुझे थोड़ी राहत मिली |

*************

क्या यह वही मोटी बिल्ली थी ?

मेहतर पूंछ पकड़कर, उस निर्जीव बिल्ली को उठाकर ले जा रहा था | वही मोटी बिल्ली - जिसका आतंक पूरे सड़क में छाया था | जिसे देखते ही माँ बेलन सम्हाल लेती थी और उसके बावजूद वह दुस्साहसी जब तब दूध पी जाती थी | आज वह कितनी निरीह लग रही थी |

"मोटी बिल्ली मर गयी बे |" सोगा बोला |उसके घर की मुर्गियों पर भी मोटी  बिल्ली ने कई बार आक्रमण किया था | किन्तु सोगा और उसका भाई मगिन्दर, पत्थर लेकर हरदम तैयार रहते थे | 

पता नहीं, कैसे मर गयी ? बबन के अनुसार उसने कोई सडा हुआ चूहा खा लिया था | अनिल ने बात और आगे
बढाई- शायद छछूंदर को चूहा समझकर गटक लिया | | मुन्ना ने आशंका जताई कि हो सकता है - बिजली का नंगा तार छू लिया हो | छोटे को लगता था , उसे रात को साँप ने काट लिया हो | जितने मुंह उतनी बातें | पर वह हम लोगों के पडोसी, नाम्बियार के पटरी के नीचे वह मरी पड़ी मिली | लाल चीटियाँ उस पर टूट पड़ी थी और वह उन्हें अपने बदन से हटा पाने में भी असमर्थ थी - मानो गहरी नींद में सो रही हो | कैसी विडम्बना थी ये !

"लेकिन कैसे मर गयी ये ? कल तो इसने मेरा रास्ता काटा था |" छोटे को अब भी हैरानी थी |

"जैसे सब मर जाते हैं | " अनिल बोला |

कितनी बड़ी बात कह दी उसने |

कहाँ जाते हैं मरने के बाद ? कहाँ गयी होगी यह बिल्ली ? अगर हम सर्कस की लाईट पकड़ कर स्वर्ग भी चले जाएँ तो जरुरी नहीं कि वहां मिलेगी | इसने काफी पाप किये हैं | बहुत से घर का अनेकानेक बार चोरी चोरी दूध पिया है | यह भी हो सकता है, इसे नरक भेजा जाये |

नरक कहाँ है ?

"जमीन के नीचे |" छोटा सुरेश बोला ," एक बार हमारे केरल के गाँव का आदमी गड्ढा खोदते गया | खोदते गया | चार दिन तक खोदते गया | फिर उसने क्या देखा - राक्षस इधर उधर दौड़ रहे थे | आग जल रही थी | एक आदमी को रस्सी से बांधकर खींच रहे थे और कोड़े मार रहे थे | जल्दी जल्दी वह बाहर आ गया और फटाफट मिट्टी डालकर गड्ढा भर दिया |

"सच्ची ?"

" हाँ सच्ची |" वह छाती  ठोंककर बोला |

"नरक जमीन के नीचे ही तो होता है | अगर  झूठ  है  तो  शशांक  से  पूछ  लो |"

"...शशांक से पूछ लो ..." . "....शशांक से पूछ लो ...." मेरे कान पक गए थे सुनते सुनते ...|

*************

कलाकारों की नक़ल जोकरों ने उतारी थी और हम सब जोकरों के खेल दुहराने मैदान में इकठ्ठा हुए थे | यह तय था कि मेरी चौपहिया साइकिल  जीप का काम करेगी | ऐसी जीप , जिसके चारों पहिये धमाके के साथ निकल जायेंगे | काम आसान लग रहा था , पर उतना आसान था नहीं | पहियों की धुरी पर जंग लगी मोटी कील थी, जिसे ईंट से ठोंक ठोंक के निकालने में लोगों को उनकी नानी याद आ गयी | तो यह तय था कि मैं लम्बू जोकर बनूँगा और जीप चलाकर मैदान की ढलान से आऊंगा | फिर जब जीप के चार चक्के निकलेंगे, तब निकलेंगे - लोग 'धडाम' तभी चिल्लायेंगे | फ़िलहाल लम्बू जोकर का रोल तो मुझे मिल गया था |

"मैं छोटा जोकर बनूँगा |" शशांक चहका |

कायदे से देखा जाए तो छोटा जोकर , छोटे को बनना चाहिए था, क्योंकि वो कद में सबसे छोटा था | लेकिन छोटे जोकर का ख्याल आते ही मेरे दिमाग में 'टन्न' से घंटी बजी | बाकियों को कोई ख़ास मतलब नहीं था |  मुन्ना और बबन जोकरों के कपड़े  वाले हाथी बनने को तैयार हो गए |

|मुन्ना के घर एक पुरानी दुपहिया  - जावा सुवेगा थी , जो अक्सर पड़े रहती थी | उसे पुरानी चादर से ढँक दिया गया था |  मुन्ना वो चादर उठा लायेगा और उसके अन्दर मुन्ना और बबन छुप जायेंगे और जोकर के हाथी बन जायेंगे |

"...और जब हाथी कि पूँछ गिर जायेगी तो मैं स्केल लटका दूँगा |" शशांक हँसते हुए उछल रहा था |

एक तो छोटा जोकर , ऊपर से शशांक - मेर भेजा वैसे ही गरम हो गया था |

"फिर तो झूले वाला खेल भी खेलेंगे | वही, जिसमें छोटे जोकर का पजामा हवाबाज पकड़ता है और उसका पजामा निकल जाता है | अन्दर वो लड़कियों की स्कर्ट पहने रहता है |" मैंने मनोभाव छुपाकर ये प्रस्ताव रख दिया |

"वो छोटा जोकर नहीं, लम्बू जोकर था |" शशांक ने छूटते ही प्रतिवाद किया |

"नहीं वो छोटा जोकर था |"

"छोटा जोकर इतना छोटू था, वो झूले की सीढ़ी कैसे चढ़ पायेगा ? " उसने तर्क दिया ," वो लम्बू जोकर था |"

"नहीं, वो छोटा जोकर था |" मुझे मालूम था कि वो छोटा जोकर नहीं था , पर एक तो मुझे छोटा जोकर फूटी आँखों नहीं सुहाया था - ऊपर से शशांक ....| मैं साफ- साफ बेइमानी पर उतर आया था | ऊपर से चोरी और सीनाजोरी...

 "अबे तूने सर्कस देखा या सो रहा था ?" 

मुझे लगा था , बबन या मुन्ना , या दोनों मेरा समर्थन करेंगे | दोनों हाथ बाँधे चुपचाप खड़े थे | मैंने मुन्ना से पूछा ," मुन्ना, तू ही बोल, वो छोटा जोकर था न ?"

मुन्ना ने मध्यम रास्ता अपनाया ," याद नहीं | पर लगता है , ना तो वो छोटा जोकर था, ना लम्बा जोकर | कोई और जोकर था | पर झूले वाला खेल कहाँ खेलेंगे ? किसी के घर पेड़ में जाकर लटकना पड़ेगा | किसके घर ? "

बबन का तर्क और भी जोरदार था, "और फिर लड़की की स्कर्ट ? वो कहाँ से लायेंगे ?"

....और मेरी बदकिस्मती कि झूले वाला खेल वहीँ स्थगित हो गया |

*************

 (क्रमशः)







शनिवार, 27 अगस्त 2011

हप्पू की बम बम १

यह बात सोलहों आने सच थी कि मेरे मुंह में बत्तीस दाँत थे | ऐसा नहीं कि नन्ही सी उम्र में ही मैं सयाना हो गया था  और मेरी अक्कल दाढ़ निकल आयी थी |  फिर भी दाँतों की संख्या बत्तीस तो निश्चित तौर पर थी - बल्कि कहीं ज्यादा ...

सेक्टर ९ अस्पताल में दाँतों के वार्ड  के बाहर बेंच पर मैं और माँ बैठे थे | बाबूजी कहाँ थे - पता नहीं | इतने तो दोस्त थे उनके - सेक्टर के अस्पताल में !और नहीं तो पुराने यार डॉक्टर धोटे के केबिन में बैठे गप्प मार रहे होंगे | बीच बीच में जरुर आकर एकाध चक्कर लगा जाते थे ,"क्या ? अभी भी चौथा नंबर ? " जब वो आते, मेरा डर कुछ कम हो जाता था |  फिर वो घडी देखते ," ज़रा पांच मिनट में मदन डॉक्टर से मिल आता हूँ | वो भी क्या बोलेंगे ?" और जब वो जाने के लिए निकलते  , मुझे लगता , मेरा संबल छिन रहा है | इस बार मैं पंजों के बल खड़ा भी हुआ, उनके पीछे जाने के लिए | फिर बैठ गया - आतंक के उस साए में ...|

नहीं नहीं, मैं दाँतों के डॉक्टर के बंद दरवाजे की बात नहीं कर रहा - जो कभी खुलता, लोग अन्दर जाते और अधिकतर मुंह में रुमाल लगाकर बाहर आते | बात कुछ और थी | वो बच्चा मुझे घूर रहा था ...

हाँ वो बच्चा .. जिसके एक हाथ में प्लास्टर बंधा था .. एक आँख से आंसू की एक बूंद अब लुढकी तब लुढकी ...
मैंने नजरें हटाकर दूसरे पोस्टर की ओर देखा | उसमें लिखा था ," दो या तीन बच्चे - बस ..." उसमें एक आदमी, एक औरत , फिर नीचे एक लड़की और एक लड़का और उससे नीचे एक और छोटे लड़के की तस्वीर बनी थी | यानी कि उन दिनों तीन बच्चों वाला परिवार भी आदर्श परिवार माना जाता था | आजकल तो एक ही बच्चा लोगों को महंगा लगने लगता है |

मैं लाख कोशिश करता, पर बार बार मेरी निगाहें परिवार नियोजन के उस उलटे तिकोने से हटकर बगल के उस पोस्टर पर चले जाती थी | बच्चा वाकई सुबक रहा था | उसके नीचे एक भयावह माचिस की तीली की तस्वीर बनी थी |  उसके नीचे जो कुछ लिखा था , मैंने अटक अटक कर पढ़ा ,"कृपया आग से ना खेलें |"

मुझे महसूस हुआ कि मेरे बगल में बेंच में काफी जगह खाली है | हमारा नंबर ही गया | बाबूजी माँ को अन्दर ले जाने से पहले बोले ," यहीं बैठे रहना बेटा |"

मेरी और माँ की समस्या एक ही थी | दोनों को दाँत उखड़वाना था | पर यहीं उस समानता का अंत हो जाता था | कहने का मतलब ये कि ऐसा नहीं कि दाँतों क़ी समस्या मुझे माँ से विरासत में मिली थी | बल्कि हमारी समस्याएँ एकदम विपरीत थी |

माँ को दाँत उखड़वाना था, क्योंकि उनके दाँत कमजोर हो गए थे | माँ नीम क़ी टहनी का दातुन करती थी और हम सब ?

उन दिनों अखबार में दो विज्ञापन प्रतिदिन आते थे - एक टुल्लू वाटर पम्प ( यह संयोग क़ी पराकाष्ठा ही है कि बाद में उसका नामकरण टुल्लू विजय वाटर पम्प हो गया |) और दूसरा ---बन्दर छाप काला दन्त मंजन ... ! उस विज्ञापन में एक बन्दर ढोल बजाकर काले दन्त मंजन का प्रचार करते दिखता था | 

हम सब बन्दर छाप काला दन्त मंजन से दाँत साफ़ करते थे | पर माँ क़ी दाँतों क़ी समस्या के बाद हम सब फोरहंस का उपयोग करने लगे | सब के लिए एक-एक ब्रुश भी गया | मेरे और संजीवनी के लिए भी ...

माँ बाहर रही थी | उनके मुँह से खून निकल रहा था | मुँह में रुई ठुंसी हुई थी | बाबूजी ने अपना रुमाल उन्हें दिया ," अरे भई कितनी बार कहा कि घर से बाहर चलने के समय एक रुमाल साथ लिया करो ..." फिर मुझे बोले ,"चल टुल्लू !"

जब मैं अन्दर गया तो मोटे चश्मे के पीछे से झांकती मुझे दो आँखे दिखी - ओंठों पर कुटिल मुस्कान ... यह दाँतों के डॉक्टर थे | उसने मेरे दोनों गाल पर एक हाथ रखकर जोर से दबाया | जैसे ही मेरा मुँह खुला, दूसरे हाथ से उसने टॉर्च का प्रकाश मुंह में डाला | उधर बाबूजी का वक्तव्य जारी था ,"क्या करें डॉक्टर साहब !दूध पीने वाले बच्चे हैं | दूध के दाँत जल्दी नहीं टूटते |" मुझे लगा , बाबूजी का वक्तव्य सुधारूँ ,"दूध नहीं, चाय.." पर हिम्मत नहीं पड़ी | तो ये मेरी समस्या थी | मेरे दूध के दाँत टूटने से पहले ही नए दाँत उग रहे थे | कुछ मुश्किल तो नहीं थी | कभी-कभी रोटी का टुकड़ा जरुर फंस जाता था | खासकर अंगाकर रोटी का सख्त टुकड़ा जरुर दांतों के बीच फंस जाता था , पर कुल्ला करो तो निकल भी आता था |

बाबूजी की बात सुनकर डॉक्टर की कुटिल मुस्कान और चौड़ी हो गयी | पास की तिपाई पर एक हीटर रखा था, जिसमें पानी उबल रहा था | उस खौलते हुए पानी में डॉक्टर की संड़सी डूबी हुई थी |

"टी " ख़ामोशी तोड़ती हुई एक घंटी बजी | संडसी गरम करने की खानापूरी पूरी हो चुकी थी | डॉक्टर ने फिर एक हाथ से मेरे दोनों गाल दबाये | मुंह खुलते ही उसने संडसी मुँह में डाली | दर्द की एक टीस उठी | उसने संडसी बाहर निकाल कर उसमें फंसा दाँत फेंक दिया और दस्ताने उतार दिए |

"वाश बेसिन में कुल्ला कर लो " उसने कहा | 

थोड़ी देर बाद मैं भी मुंह में रुई ठूँसे बाहर रहा था | कानों में डॉक्टर की आखिरी बात रह - रह कर गूंज रही थी | 

"दूसरा दाँत , ठाकुर साहब , अभी छोटा है | ठीक से पकड़ में नहीं आएगा | तीन महीने बाद इसे फिर से ले आइये |  तब निकाल देंगे ... "
हे भगवान् ! तीन महीने बाद फिर उस बच्चे का सामना करना पड़ेगा .....

बाहर पेड़ों की ठंडी छाया में केले वालों का ठेला एक के बाद एक काफी दूर तक लगा हुआ था | एक ठेले के पास स्कूटर खड़ा करके बाबूजी ने पूछा ,"केला क्या भाव है भैया ?"

मैं बाबूजी से शिकायत करने लगा ,"नहीं बाबूजी , यहाँ नहीं आयेंगे | सेक्टर या सेक्टर के अस्पताल चलेंगे ..."

"तीन महीने बाद देख लेंगे बेटा ..." बाबूजी ने दिलासा दी ," याद है, डॉक्टर ने क्या कहा ? हो सकता है, सामने वाला दाँत अपने आप कमज़ोर पड कर टूट जाए और आने की जरुरत ही ना पड़े | "

****************************

दोपहर का खाना तो दस साढ़े दस बजे तक बन गया था | सिगड़ी करीब करीब बुझ चुकी थी | अचानक बाबूजी गए | आज जल्दी ? क्यों ? पर नहीं वे खाना खाने नहीं आये थे | माँ को "अच्छा खाना " बनाने की हिदायत देने आये थे | कोई मेहमान आज दोपहर का खाना खाने आने वाले थे |

"क्या बनाऊं ?" माँ जो भी सुझाती, बाबूजी ख़ारिज कर देते | अंत में बाबूजी ने सब कुछ माँ पर ही छोड़ दिया ," तुम्हें जो बनाना है बनाओ |" जाते जाते वे बोले , पर एक दुम पीछे जोड़ दी , "पर अच्छा बनाओ |"

बाबूजी के जाने के बाद माँ कुछ देर तक सोचती रही | आपातकालीन परिस्थितियों में स्टोव की याद आती थी, जो इसी काम के लिए घर में था |  माँ ने  हरे काले स्टोव की टंकी में माटी तेल डाला | पर जब माचिस की डिब्बी खोली तो एक ही तीली बची थी और स्टोव जलने के पहले उसने भी दम तोड़ दिया |

झल्ला कर माँ ने माचिस की डिब्बी खिड़की के बाहर फेंक दी |और कोई वक्त होता तो माँ से मैं वो डिब्बी माँग लेता और अगर वो फेंकती भी तो मैं लपक कर उसे उठाने चले जाता | माचिस की डिब्बी से मैं आजकल रेल बना रहा था | चार डिब्बे जुड़ चुके थे | ये पांचवा होता | कोई बार नहीं, रंधनीखड़ (रसोई घर ) की खिड़की आखिर अपने घर के प्रांगण में ही  खुलती थी | कभी भी जाकर उठा लूँगा |

संयोग की बात ये कि घर पर कोई भी नहीं था - जो जिम्मेदारी भरा काम कर सके | सुबह जाने वाले लोग स्कूल में थे |  कौशल भैया ट्यूशन गए थे | संजीवनी से तो मैं बड़ा ही था |

माँ ने साडी के छोर पर बंधी गांठ खोली और मुझे दस पैसे का एक सिक्का दिया ," जा तो बेटा , चंद्राकर की दुकान से माचिस की डब्बी ले  |"

तालाब के किनारे से होते हुए मैं सेक्टर के बाज़ार जा पहुंचा | लेकिन माँ की हिदायत को मानना निहायत मुश्किल काम था |चंद्राकर किराना स्टोर तो मार्केट के दूसरे छोर पर था | पर मेरी हिचकिचाहट का कोई दूसरा ही कारण था | चंद्राकर किराना स्टोर के मालिक बाबूजी के दोस्त थे | अक्सर बाबूजी के साथ मैं भी उनकी दूकान पर जाता था | मुझे तो वे जरुर पहचान लेंगे |और पहचानने के बाद मुस्कुरा दिए तो ? और कहीं पूछ लिया कि तुम्हारे बाबूजी कहाँ हैं , तो ? हे भगवान्, इसका मतलब मुझे तो पहले उन्हें नमस्ते करना पड़ेगा | बाप रे बाप ! और अगर कहीं उन्होंने चॉकलेट और पिपरमेंट पकड़ा दिया तो ? नहीं , नहीं- मैने निश्चय कर लिया | मुझे ये सब झंझट में नहीं पड़ना है |

सरदार की दुकान - बस, तालाब के छोर पर ही है |

"कितने की है ये माचिस ?" चाबी छाप माचिस मैंने हाथ में पकड़ कर गौर से देखते हुए पूछा |
 
"पांच पैसे की " सरदार जी कहा |

"और घोडा छाप माचिस ?"

"वो भी पांच पैसे की |"

मैंने सर हिलाया और थोड़ा सोचते हुए पूछा ,"और कोई माचिस है ?"

"नहीं " सरदार जी ने कहा |

"ठीक है |" छत से लटके सामान के ध्हगे के लट्ठे को देखते हुए मैं ने फिर एक सयाने की तरह सोचने की मुद्रा बनाई और फिर निष्कर्ष पर पहुंचा ,"ठीक है चाबी छाप ही दे दो |"

सामान के धागे के लट्ठे को तो देखो ! कितने करीने से, डिजाईन बनाते हुए लटका था | मुझे उम्मीद थी कि सरदार जी माचिस को कागज़ की पुडिया में बाँध कर देंगे और इस तरह मुझे सामान का धागा मिल जायेगा | थोड़ी निराशा जरूर हुई जब सरदार जी ने माचिस वैसे ही पकड़ा दी | एक बार मन में आया कि मैं सरदार जी से कहूँ , इसे पुडिया में बाँध कर दे दो | पर मैं अपने अनाड़ीपन का परिचय भी नहीं देना चाहता था |

माचिस लेकर जैसे ही मैं सीढ़ी से नीचे उतरा , मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा |

सड़क पर गोल्ड स्पॉट का नया , चमचमाता ढक्कन पड़ा था | शायद किसी धावक को ओलंपिक का स्वर्ण पदक मिलने पर भी उतनी ख़ुशी नहीं होती होगी ....

गोल्ड स्पॉट के टीने के उस ढक्कन से क्या होगा ?

बहुत कुछ ... बहुत कुछ हो सकता था |


*************

उन दिनों माचिस की डिब्बी को कागज की एक छोटी पन्नी चिपका कर सीलबंद नहीं किया जाता जाता था | बाद के कुछ वर्षों में माचिस बनाने वाली कंपनी को अहसास हो गया कि फैक्ट्री से बाहर निकलने और एक उपभोक्ता (जैसे कि माँ ) तक पहुँचने की प्रक्रिया में माचिस को कई हाथों (जैसे कि मेरे) से गुजरना पड़ता है | तो जितनी तीलियाँ माचिस में भरकर फैक्ट्री से निकलती हैं, उतनी उपभोक्ता तक पहुंचती नहीं हैं | अतः उन्होंने कागज के छोटे से टुकड़े से अन्दर की डिब्बी को बाहर के कवर से चिपकाना शुरू कर दिया |

मुझे नहीं मालूम, मेरे उस दिन के परीक्षण ने उनके इस निर्णय को कितना प्रभावित किया था |

तालाब के किनारे पहुँच कर मैंने सावधानी से इधर उधर देखा | सत्यवती के पिताजी ही एक निकले जिन्हें मैं पहचान पाया | पता नहीं , वो मुझे कितना जानते थे , पर मैं थोडा भी जोखिम नहीं लेना चाहता था | जिस पत्थर पर वे ग्राहकों के कपड़ों के गट्ठर से एक एक कपड़ा निकाल कर पछाड़ रहे थे , उस पत्थर से मैं दूर चले गया | इक्का दुक्का लोग नहा भी रहे थे | एक भैंस वाला अपनी भैंस नहला रहा था | बस, इतनी ही गतिविधियाँ थी उस तालाब में | आखिर वो कोई गाँव का तालाब तो था नहीं |

एक सूने से कोने में पहुँच कर मैने कांपते हाथों से माचिस की एक तीली निकाली | ऊपर के खोके की एक साइड की काली पट्टी पर उसे धीरे से पहले रगड़ा | फिर एक क्षण ध्यान किया क़ि माँ कैसे माचिस जलाती है | दिल कड़ा करके एक झटके से तीली पट्टी पर तेजी से रगड़ा |

"भर्र " हलकी सी आवाज के साथ माचिस क़ी तीली जल उठी | तीली की आग धीरे धीरे करके तीली के उस छोर पर पहुंची जो मैंने अंगूठे और उंगली से पकड़ा था | मैंने झटके से तीली छोड़ दी | गीली घास पर वह थोड़ा  धुआं उड़ाकर बुझ गयी |

कितनी बड़ी उपलब्धि थी ये,, मैं बता नहीं सकता  | अब तक केवल बबन और मुन्ना ही उन बच्चों क़ी सूची में थे जो आग जला सकते थे | इस परीक्षण ने मुझे भी उनकी श्रेणी में खड़ा कर दिया था | शायद अनिल और सुरेश - बड़ा सुरेश - यह काम कर पायें } सोगा या मगिन्द्र ? मुश्किल है ....

---और शशांक ? उसे तो शायद बरसों लग जायेंगे - ये उपलब्धि हासिल करने में |

*************

एक चपटे से पत्थर पर गोल्ड स्पॉट के ढक्कन का मैं कचूमर निकाल रहा था और मुन्ना मुझे हिदायत दे रहा था -"अबे साइड से थोडा धीरे मार | ढक्कन टेढ़ा हो जायेगा ... "

उस ईंट के टुकड़े के टूटते टूटते वह ढक्कन चपटा हो ही गया |अब वह एक चकती जैसा बन गया था | बीच में लिखा "गोल्ड स्पॉट " थोडा धुंधला हो गया था और फ़ैल भी गया था |

"तो तूने आज माचिस जलाई ?" बबन ने पूछा |

"हाँ |"

"कितनी देर पकड़े रहा ? जलाया और छोड़ दिया ?"

" नहीं काफी देर तक पकड़े रहा |"

"क्या ? आखिर तक पकड़े रहा ?"

" नहीं बे काफी देर तक पकड़े रहा | आखिर तक पहुँचने के थोड़ा पहले छोड़ दिया |"

" शाबास बहुत सही काम किया |अबे हाथ जल जाता तेरा , अगर और थोड़ी देर पकड़े रहता तो ..."

"गोल्ड स्पॉट " के उस ढक्कन को मैं उलट पलट कर देख रहा था | एक सड़े गले लकड़ी के फट्टे में जंग लगी कील थी | मुन्ना पत्थर से मार मार कर उसे निकलने में सफल हो गया |अब वह उसे ठोंक कर सीधा कर रहा था | तभी दाँत  निकालता हुआ शशांक गया |

"चल बे | ढक्कन के बीच में दो छेद करना है |" बबन ने उसकी उपस्थिति को अनदेखा करते हुए कहा | 

"क्या कर रहे हो ? " शशांक ने पूछा | हम तीनों में से किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया | दो सपाट पत्थरों को पास पास रख कर उसके ऊपर मैंने ढक्कन रख दिया और दोनों तरफ उंगली से दबाकर बैठ गया ढक्कन के बीचों बीच मुन्ना ने कील रखी और पत्थर से एक चोट क़ी |

"क्या कर रहे हो ? " शशांक ने अनुत्तरित प्रश्न दोहराया | 

"हलुआ बना रहे हैं | खाना है ? " बबन ने जवाब दिया |

"चकरी बना रहे हो ? " शशांक ने पूछा ." मैं ठोकूं ? "

" रहने दे | तू किसी का सर फोड़ेगा |" बबन का यह अविश्वास बिला वजह नहीं था |

मुन्ना को थोडा तरस गया ,"ठीक है तू साइड से पकड़ |"

मैं खड़ा हो गया शशांक मेरी जगह बैठ गया | बबन चिल्लाया, " अबे, मुंडी पीछे कर | चश्मा टूटेगा ..."

मुन्ना का अगला प्रहार इतना दमदार था कि "खच्च" क़ी आवाज के साथ कील ढक्कन में घुस गयी और उंगली पकड़ कर शशांक जोर से उछला,"आँ, आँ मर गया ... " | उसके झटकते हाथ क़ी हरकत के बीच हमने देखा, उसकी उंगली से खून निकल आया था |

"अबे , कुछ नहीं हुआ | उंगली चूस ले |" बबन चिल्लाया, "चूस ले | खून बंद हो जायेगा |"

" मैंने जान बुझकर नहीं मारा | सच्ची... " मुन्ना भी थोडा घबरा गया | शशांक क़ी जोर क़ी चीख सुनकर कोई भी घबरा जाता | वह चिल्ला रहा था , "मम्मी, मम्मी, मम्मी ......"

इससे पहले कि कोई बखेड़ा खड़ा होता ,यानी उसकी पुकार सुनकर उसकी मम्मी अवतरित होती, आनन् फानन में हम तीनों वहां से भाग खड़े हुए |

एक दो घंटे बाद, जब तूफान की सारी आशंकाएं शांत हो गयी थी, सूरज डूब चुका था और घर में शिकायत भी नहीं पहुंची थी , घर के एक कोने में बैठकर मैंने ढक्कन के एक छेद में सामान के धागे का एक छोर डाला | दूसरे छेद में दूसरा छोर डालकर गांठ बाँध दी | चकरी तैयार थी | धागे के दोनों ओर एक एक हाथ की एक एक उंगली डालकर मैं उसे धुमाने लगा | धागे की ऐंठन बढ़ते गयी | फिर दोनों उंगलियाँ चकरी के पास ला कर फिर मैने उन्हें दूर किया गोल्ड स्पॉट का ढक्कन घूमने लगा .... ... तेज ... और तेज ..
अब तक तो मैं सब भूल गया था , पर अचानक ढक्कन में शशांक का चेहरा दिखने लगा ... क्या उसे वाकई चोट लगी थी ? या सामान्य धारणा के मुताबिक , ये उसका 'नाज़ुकपन' ही था ?

*************

"अगली शाम को जब स्वर्ग का घोड़ा घास चरकर उड़ा तो उस आदमी ने लपक कर उसकी पूँछ पकड़ ली | दूसरे आदमी ने उसके पाँव पकड़े और तीसरा आदमी दूसरे का पाँव पकड़कर लटक गया | इस तरह सारा का सारा गाँव एक दूसरे से लटक आकर स्वर्ग की ओर चल पड़ा ..."

सेक्टर के एक २४ यूनिट वाले ब्लाक के एक कोने में व्यास ने एक घर किराए में लिया था | वह जमीन पर था - मेरा मतलब, उसके ऊपर एक और मंजिल थी | वहीँ लक्ष्मी भैया मुझे स्वर्ग की सैर की कहानी सुना रहे थे | घर में और कोई भी नहीं था |अगर आप एक वर्ग की कल्पना करें, जिसकी चारों भुजाओं पर एक एक भवन आपस में ऐसे जुड़े हों कि हवा भी प्रवेश कर सके | और हर एक भवन में तीन तीन घर नीचे की मंजिल में और तीन घर ऊपर की मंजिल में हों तो गिनती चौबीस तक पहुँच जाती है | फिर आप सोचेंगे कि अगर वर्ग की भुजाओं पर भवन खड़े हों तो बीच का क्षेत्र भला किस काम आता होगा ? बीच का क्षेत्र एक बहुत बड़ा प्रांगण होता था, जिसमें बच्चे खेल सकें , गृहणियां गप मार सकें, जिन पुरुषों को साइकिल चोरों का भय हो, वे रात में साइकिल खड़ा कर सकें | इस समय वहाँ सिगडियाँ जल रही थी - एक नहीं तीन-तीन ! अजीब बात थी कि तीनों में लोग सिगडियाँ जलाने के लिए माँ की तरह कागज़ नहीं, मिट्टी के तेल से भीगी , शायद भिलाई इस्पात संयंत्र से लायी गई जूट की रस्सियाँ जला रहे थे  | जूट, जो कि किसी भी तेल पीने वाली मशीन का ऑपरेटर खाना खाने से पहले हाथ पोंछने के लिए इस्तेमाल करता होगा | कोई परेशानी नहीं होती उनसे सिगडियाँ जलाने में | वातावरण में जरुर थोड़ी बदबू फैली हुई थी | यही बदबू पूरे सिगड़ी जलने तक व्याप्त रहती थी | इसलिए अगर आप तवे पर सिंकी रोटी से संतुष्ट हों तो सब कुछ सही था | पर अगर आप माँ की तरह पहले तवे पर, और फिर तवा सिगड़ी से उतार कर सीधे कोयले पर रोटियां सेंकने के आदी हों तो ऐसी सिगड़ियों पर आप रोटी जरुर सेंक लेंगे, पर खा नहीं पाएंगे |

सिगड़ियों का धुआं आसमान की ओर बढ़ रहा था | अचानक आकाश में दूर से कहीं एक स्वर लहरीं गूंजी ,"सा रे गा मा पा पा पा पा पा पा पा ....."

वैसे तो इस गाने में ही बार बार "पा पा पा " आता था, पर मुझे लगा कि ये कुछ ज्यादा हो गया है | अभी भी " पा पा पा पा " ही चल रहा था |

"रिकॉर्ड की सुई अटक गयी है |" लक्ष्मी भैया बोले |

रिकॉर्ड की सुई ? क्यों अटक गयी है ? " मैंने पूछा |

"हो सकता है रिकॉर्ड घिस गया हो |"

"रिकॉर्ड क्यों घिस गया ?"

लक्ष्मी भैया कुछ देर तक सोचते रहे | फिर बोले," जैसे ज्यादा चलने पर साइकिल का टायर घिस जाता है, वैसे ही पचास साठ बार चलने के बाद रिकॉर्ड घिस जाता है |"

"घिसे रिकॉर्ड का क्या करते हैं ? " मैंने अटपटा सवाल पूछा, "घिसा साइकिल का टायर तो हम लोग चला लेते हैं |"

"और पंचर बनाने वाले लोग गेटर डालते हैं |" लक्ष्मी भैया बोले |

"पर घिसा रिकॉर्ड किस काम आता है ?"

लक्ष्मी भैया फिर सोच में पड़ गए ," कुछ नहीं | शायद कुछ लोग उसमें पेंटिंग बना लेते हैं |"

"अच्छा ?"

अचानक एक विचार मेरे मन में कौंधा |

मुन्ना के दामू चाचा की शादी थी - करीब एक-आध साल पहले | पता नहीं , हर्ष मामा या कोई और, एक ग्रामोफोन लेकर आये थे | उसमें बड़े से एक भोंपू के अलावा जो बात आकर्षक लगी, वह थी, हवा भरने वाला हँडल | अस्तु , उस समय एक गाना बज रहा था , " महबूबा, महबूबा, बना दे मुझे दूल्हा, जला दे मेरा चूल्हा .." उस रिकॉर्ड से हलकी हलकी "किर्र .. किर्र" की आवाज़ रही थी | उज्ज्वल के पिताजी को मैंने धीमी आवाज में कहते सुना " रिकॉर्ड घिस गया है |"

और हाँ .. उसके बाद मैंने मुन्ना के घर एक गोल चकती पर बनी पेटिंग देखी | समुद्र के किनारे की झोपड़ी ..., एक आदमी सर पर टोकनी लिए जा रहा था | एक नदी समुद्र से मिल रही थी | सूरज निकल रहा था | पंछी आकाश में उड़ रहे थे | दूर से एक जहाज रहा था | क्या नहीं था उस गोल सी चकती वाली पेंटिंग में ! क्या वो दामू चाचा की शादी वाला रिकॉर्ड तो नहीं ?

लक्ष्मी के बड़े भाई व्यास भैया तो दो से दस वाली सेकंड शिफ्ट में गए थे | मुझे याद है, जब भी दो अंकल या भैया या अंकल और भैया मिलते, जो कि भिलाई इस्पात संयंत्र के कर्मचारी थे, पहला सवाल यही करते,"तो ? आजकल कौन सी शिफ्ट चल रही है ?" यहाँ तक कि हम दोस्त - जैसे छोटा , सोंगा मगिंदर या मुन्ना से मिलता तो पूछता," तेरे पिताजी की कौन सी शिफ्ट चल रही है ? " अच्छा ? नाईट शिफ्ट ? फिर तो डर लगता होगा  |" मुझे अनायास ही पता चल गया था , "सुबह छः से दो - फर्स्ट शिफ्ट .. दो से दस -सेकंड शिफ्ट , रात के दस से छः - नाईट शिफ्ट |"

मेरे ज्ञान में शशांक ने और बढ़ोतरी कर दी ,"मेरे पापा हरदम जनरल शिफ्ट जाते हैं |"

"जनरल शिफ्ट ?" मैंने लक्ष्मी भैया से पूछा |

"हाँ, आठ से चार " उन्होंने बताया |

"ऐसा कौन होता है , जो हरदम जनरल शिफ्ट जाता है ?"

"जो लोग ऑफिसर होते हैं वो | या तो फिर ऑफिस में काम करने वाले | वैसे उनकी ड्यूटी नौ से पाँच बजे होती है |"

तभी मुन्ना की माँ सुबह नौ बजे ऑफिस जाती थी | रहमान रोज सुबह आठ बजे रिक्शा लेकर जाता था और सीट पर बैठा, सर झुकाए इंतज़ार करते रहता था |

सुबह के चावल को व्यास ने बघार दिया था | कहानी सुनते-सुनते हम दोनों बैठ कर वही बघारे भात खा रहे थे |
अचानक दो नन्ही लडकियाँ घर में उछलती कूदती घुसी - कटोरा कट बाल वाली बालू और उससे थोड़ी बड़ी - गुड्डी |

"पोहा खा रहे हो ?" बालू ने पूछा |

"हाँ " लक्ष्मी भैया ने संक्षिप्त सा जवाब दिया |

" थिन्गू " गुड्डी अंगूठा दिखा कर बोली ,"ये पोहा कहाँ है ? इसमें फल्ली दाना तो है ही नहीं |"

" फल्ली दाना ख़तम हो गया |" लक्ष्मी भैया ने जवाब दिया |

"तो बाज़ार से ले आना था |" बालू बोली |

"बाज़ार में भी ख़तम हो गया |"
"तो बड़े बाज़ार से आना था | दूऊऊर के बड़े बाज़ार से |"

मैं कहने वाला था - सिविक सेंटर ? तभी बालू की माँ ने किसी दक्षिण भारतीय भाषा में आवाज़ लगाई | आंधी तूफ़ान की तरह जैसी वो दोनों लड़कियां आई थी, वैसे ही वापिस चले गयीं |

अचानक एक घरघराहट गूंजी ऐसे लगा , मानो छत पर एक हवाई जहाज उड़ रहा हो | अरे नहीं , ये मेरा नहीं, व्यास का घर था | मैं तो भूल ही गया था कि ऊपर भी एक मंजिल है , जहाँ कोई और रहता है |

वो घुरघुराहट एक क्षण के लिए शांत हुई, फिर तेज होकर दूसरे कोने में जाकर शांत हो गयी | मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से लक्ष्मी भैया की और देखा |

"शायद ऊपर कोई लट्टू चला रहा है " लक्ष्मी भैया बोले |

*************

लट्टू कहो या भौंरा - एक लोमहर्षक खेल था | अपनी ही विधा, कला और ना जाने क्या क्या - जिसमें पारंगत होने के लिए लगन से कठिन परिश्रम करना पड़ता था | जैसा मुझे ज्ञात हुआ , आग जलाने से भी बढ़कर थी, लट्टू चलाने, नचाने, घुमाने की कला ! अजी उसकी अपनी सम्पूर्ण शब्दावली थी - " लड़का छाप, लड़की छाप, उपरी ऊपर, गूच , हप्पू, कतरी - और खेल की शुरवात होती थी - 'हप्पू की बम बम से ' ....

अब जैसे आपको याद होगा कि मैंने कहा था - गोल्ड स्पॉट के उस ढक्कन से बहुत कुछ हो सकता था | उसका एक उपयोग बहुत ही सामान्य था | लट्टू की रस्सी के एक छोर पर गांठ बांध दी जाती थी | फिर गोल्ड स्पॉट या कोका कोला या फैंटा के टीन के ढक्कन के बीचों बीच एक छेद करके लट्टू की रस्सी में घुसा दिया जाता था | फिर  उसे सरका कर उस छोर तक ले जाया जाता था, जहाँ 'बड़ी' गठान बांधी गयी थी | उसे वहां अटका कर उसके आगे एक और गांठ बांध दी जाती थी , ताकि वह ढक्कन रस्सी पर सरके और अपनी जगह स्थिर रहे | इस तरह रस्सी की पकड़ या 'मूठ' तैयार हो जाती थी |

मगर मेरे पास लट्टू था नहीं | देखते ही देखते मेरे कई दोस्तों ने लट्टू चलाने की उपलब्धि हासिल कर ली | बबन और मुन्ना के अलावा सुरेश ने भी लट्टू चलाना सीख लिया था | सोगा को भी उसके मामा ने एक लट्टू दिया और उसने लड़की छाप चलाना सीख लिया  | आजकल वह लड़का छाप क़ी कोशिश कर रहा था | एक दिन अनिल ने भी दावा ठोंक दिया कि वह भी लट्टू चला सकता है | छोटे का कहना था कि वह 'कतरी' चला सकता है और जल्दी ही वह पूरी तरह चलाना सीख जायेगा |

हे भगवान् लगता है, मेरे और शशांक के सिवाय सब सीख गए हैं या सीखने की प्रक्रिया में अग्रसर हैं | इससे पहले कि एक दिन शशांक चश्मा ठीक करते, बत्तीसी दिखाते हुए उद्घोषणा कर दे ,मुझे कुछ करना पड़ेगा | वरना मैं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहूँगा |

बबलू के पास लट्टू तो था, जिसकी 'नुक्की' काफी बड़ी थी | जब वह स्कूल जाता, तब मैं चोरी छिपे कोशिश कर सकता था , पर हिम्मत ही नहीं पड़ती थी | 

अगर उन्हें जरा भी भनक पड़ती कि किसी ने उसका कोई सामान छुआ है , उसकी लानत-मानत तय थी| |

*************

आशा ने बेबी को चिढ़ाने क़ी कोशिश क़ी ," बेबी जलेबी ..."

बेबी ने करारा जवाब दिया ,"आशा , भाषा ..." और जाते जाते दोहत्थड़ जड़ दिया ,"... तमाशा "

मेरे ज्ञान चक्षु अनायास ही खुल गए !!!

"तो ये बात है .." मैंने मन ही मन सोचा ," अब कोई मुझे बोल कर तो देखे ..."

और अगले ही दिन शंकर के भाई अंकू से मेरी हाथापाई हो गयी उसने मुझे चिढाने क़ी कोशिश क़ी ," छत्तीसगढ़िया , बत्तीस दांत.."

मेरे मुंह से वाक्यांश प्रतिवाद के रूप में बरबस फूट पड़ा ," बंगाली बाबू , सड़ी मच्छी खाबो, हाथ में लोटा, मुंह नहीं धोता |"

नहीं, मैं कोई वाल्मीकि नहीं था , ना ये मेरी कोई सर्वथा अप्रकाशित,अप्रसारित , मौलिक कवितावली थी | बल्कि ऐसे जुमले तो जब देखो तब, सड़क इक्कीस और बाइस के बीच के मैदान में उछलते रहते थे | इतना तो मुझे मालूम चल गया था क़ि सबके ढोल में पोल है | अगर कोई तुम्हारे गले में लटका ढोल पीटना चाहे तो तुम उसके गले में लटका नगाड़ा बजा डालो |

अब मैं शराफत से चक्का चला रहा था | बबन की बहनें , संध्या और सुषमा, पाटिल साहब की लड़कियां छोटी और मधु - रबर के रिंग से "कैच- कैच " खेल रहे थे | अचानक वह रिंग मेरे पीठ से टकराई | छोटी चिल्लाई ,"छत्तीसगढ़िया बत्तीस दांत ..."

मेरा भी गुस्सा बरपा | मैं उसका व्यंग्य काटकर फट पड़ा," ऊपर से गिरी लाठी, सब मर गए मराठी .."

बोलकर, मैं चक्का दोनों हाथों से उठाकर भागा | छोटी सन्न रह गयी | उसे मुझसे इस तरह के प्रतिवाद की उम्मीद नहीं थी |उसकी प्रतिक्रियाएँ मेरा पीछा करती रही ," बदमाश , हरामी ... बद्तमीज़ ... ! जवाब देने लगा है | आंटी जी (मेरी माँ ) को बताएँगे ..."

कई बार मुझे लगा क़ि आक्रमण ही रक्षण का सर्वोत्तम तरीका है |अनिल हरदम मुस्कुराते रहता था | उसकी चाल एक पहलवान की चाल थी |हाथ बाकी शरीर से छह इंच दूर , कोहनी पर समकोण में मुड़े होते  | "चोर पुलिस" खेलते समय हम उसे "पुलिस" ही बनाया करते और वह मान भी जाता | एक दिन मैं एक चोर था और वह पुलिस |  बाकी सबको छोड़कर वह मेरे ही पीछे पड़ गया | मुझे पकड़ भी लिया | सदानंद के घर के सामने का खम्बा पोलिस स्टेशन था | अगर वह मुझे खम्बे से छुआ देता तो मैं "आउट " हो जाता | वह मुझे घसीट कर खम्बे के पास ले जाने लगा | उसकी पकड़ वाकई मजबूत थी | मेरी कलाइयाँ सुन्न हो गयी |

"चुटइय्याधारी नाम बिहारी " मैंने उसे चिढाया |उसका चेहरा लाल हो गया | 

सोगा , मगिंदर , छोटा सुरेश, बड़ा सुरेश -सारे दक्षिण भारतीय एक ही दर्जे में डाल दिए गए | उनकी पहचान के लिए कोई कवितावली नहीं, केवल एक ही शब्द काफी था - "अन्ना" | अब इतनी समझ तो थी नहीं कि दक्षिण भारत में चार - चार एक से बढ़कर एक पूर्ण भाषाएँ या संस्कृतियाँ हैं - जो एक दूसरे से बिलकुल जुदा हैं |

इतना ही नहीं, कई बार तो पहचान के अभाव में जबरन हमने कोई भी ठप्पा उठाकर जड़ दिया |

छोटा क्या है ? पता नहीं नहीं नहीं - वो पंजाबी नहीं है , क्योंकि वो सरदार नहीं है |

"फिर क्या है ?"

"वो लोग पहाड़ी हैं |" बेबी ने कहा ."उस दिन उसके पिताजी कह रहे थे कि हम लोग पहाड़ पर चढ़ने वाली गाड़ी खरीदेंगे |"

पहाड़ी ? वो क्या होता है ? पहाड़ पर चढ़ने वाले लोग पहाड़ी ? बात कुछ जमी नहीं |

"तू क्या है बे ?" बबन ने एक दिन उससे पूछा |

"हिन्दू " उसने जवाब दिया |

"हिन्दू ?"

"हाँ , हिन्दू " उसने गर्व से जवाब दिया |

हम सब निरुत्तर हो गए |

अंततः हमने निष्कर्ष निकाला कि वह सिन्धी है क्योंकि औरों कि माँ क़ी तरह उसकी माँ साडी नहीं पहनती |  शलवार कमीज पहनती है | जब वे पंजाबी नहीं हैं तो जरुर सिन्धी हैं |

निष्कर्ष लिकालने क़ी देरी भर थी कि यह लेबल उसकी पीठ पर चिपका दिया गया | अगले ही दिन सब उसका बेसब्री से मैदान में इंतज़ार कर रहे थे | जैसे ही वह आया , एक सुर में उसका स्वागत किया गया ," चार चवन्नी थाली में , सिन्धी बाबा नाली में ... "

एक और लड़का था, जो क्या था, हम कभी नहीं जान पाए | छोटे की तरह हमने भी उसकी पीठ पर लेबल चिपकाने की कोशिश की |

"चार चवन्नी तेल में , सिन्धी बाबा जेल में ..."

शशांक बत्तीसी फाड़कर हंसा , "मैं सिन्धी नहीं हूँ |"

"बंगाली बाबू सदी मच्छी ..."

"मैं बंगाली नहीं हूँ यार |" उसका ठहाका सुनकर, बल्कि देखकर हम बौरा  से गए | 

"ऊपर से गिरी ...."

"मैं मराठी नहीं हूँ , हा हा हा ..." अब सब बौखला गए  | जरुर वो गधा 'अन्ना' होगा |

"अन्ना ? अन्ना क्या होता है ?" उसकी मासूमियत देखने लायक थी | 

और वो पक्के तौर पर बिहारी नहीं था |  तो फिर था क्या ?

*************

माँ हाथ में बेलन लिए तैयार खड़ी थी ," हाँ , हाँ - रोगहा ( बदमाश) .."

उस मोटी बिल्ली की हिम्मत तो देखो |

और कोई बिल्ली होती तो पहली बात, दबे पांव रसोई घर में घुसती | दूसरी बात , ज़रा सी आहट मिलते ही दुम  दबा कर भाग जाती | पर वो मोती बिल्ली ? वह म्याऊ म्याऊ करती हुई अभी भी रंधनीखड़ (रसोईघर) की खिड़की की सलाख से पंजे रगड़ रही थी | उसकी मूंछें हिल रही थी |

माँ ने तानकर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया | मोटी बिल्ली फुर्ती से खिड़की से नीचे कूदकर भाग गयी |

जब तब बिल्लियाँ चुपके से रसोई घर में घुस जाती थी और दूध की गंजी (पतीले) का ढक्कन हटाकर दूध पी जाती थी | आवारा बिल्लियों की यह कारस्तानी माँ के लिए कोई नयी नहीं थी | ना ही यह बरसों बाद भी कभी पुरानी पड़ी | रसोई घर में खाना बनाना ख़तम होने के बाद माँ खिड़की बंद कर देती थी | रात और दोपहर में तो यह निहायत आवश्यक हो जाता था | दूध ही नहीं, कई बार बिल्लियाँ चीनी मिट्टी की कुण्डी में जमाई गयी दही पर भी मुंह घुसा देती थी | हालाँकि उनका मुख्य आकर्षण दूध ही होता था |

ठीक है,बाकी सब बिल्लियाँ ये सब चुपके चुपके करती थी | मगर वह दुस्साहसी मोटी बिल्ली ? खिड़की गलती से खुली रह गयी और माँ स्टोर रूम , जो कि रसोई घर के बगल का ही कमरा था , चावल निकालने गयी कि मोटी बिल्ली जाने कहाँ से प्रकट हो जाती थी | एक छलांग में वह रसोई घर की खिड़की तक पहुँच जाती थी  | अब यह नियम सा बन गया था कि माँ जब भी रसोई घर में घुसती , पहले जोर से चिल्लाती " छुर !" |उनकी देखा देखी हम लोग भी, जब रसोई घर के बाहर से गुजरते, अपने आप को रोक नहीं पाते |  मुँह से बरबस निकल जाता "छुर...!"

*************

मुझे मालूम था कि आज मुन्ना के स्कूल की छुट्टी होगी | कारण अति सामान्य था - क्योंकि बेबी , बबलू, शशि, कौशल - सबके स्कूल की छुट्टी थी | इसका मतलब हो सकता है, आज रविवार हो | अगर व्यास घर में आयें और माँ से बोलें ,"मामी, सुपेला बाज़ार से कौन सी साग भाजी लाना है - बताओ |" और एक कागज़ में लिस्ट बनाकर ले जाएँ - तो समझो आज सुपेला बाज़ार का दिन है | इसका मतलब आज इतवार है |

इतवार हो या हो - स्कूल की तो छुट्टी है | मुन्ना घर में होगा पर उसके घर तक जाते जाते मेरे कदम की रफ़्तार धीमी पड़ गयी | इसका मतलब है, आज उसकी माँ की भी छुट्टी होगी | जाऊं या नहीं ? या थोड़ी देर रुक जाऊं और रहमान के रिक्शे का इंतज़ार करूँ ? रहमान सुबह रिक्शा लेकर आता था और मुन्ने की माँ रिक्शे में ऑफिस जाती थी |अगर वह नहीं आया तो मुन्ना की माँ की भी छुट्टी होगी |

मैं कुछ देर उहापोह में पड़े रहा | फिर हिम्मत करके मुन्ना के घर की पटरी के पास पहुंचा | मुन्ने की दादी बाहर बरामदे में एक मूर्ति की तरह बैठी थी | पता नहीं, क्या सोचते हुए वो सारा दिन इसी मुद्रा में बैठे रहती थी |
मैंने पटरी पर खड़े होकर आवाज़ लगाईं ,"मुन्ना ...."

जिसका डर था , वही हुआ | मुन्ने की माँ ने दरवाजा खोला और कहा ,"अरे टिल्लू अन्दर जा "

अन्दर जाने में मैं झिझक रहा था | अब कोई चारा भी नहीं था | फिर भी अन्दर जाते जाते मैंने पूछा , "मुन्ना है आंटी ?"
"हाँ है ना | अन्दर जा |"

अन्दर, जो कमरा बैठक होता था , वहीं एक सोफे पर बैठकर मैं इंतज़ार करने लगा | हाँ , मुन्ना की माँ ने मुझे कभी डांटा तो नहीं था |  फिर भी हमेशा उनसे डर लगता था | कारण यह था कि मुन्ने की माँ कभी भी मुन्ना को नहलाये बिना बाहर नहीं जाने देती थी | इतना ही नहीं, वह सुनिश्चित करती थी कि मुन्ने ने नाश्ता कर लिया है | वह उसके "होम वर्क" की कापी देखकर यह तय करती थी कि मुन्ने ने गृह कार्य ख़तम कर लिया है | अगर इतना ही हो तो खैर मना लेते | अगर उसका गृह कार्य पूरा नहीं होता तो वह उसके बाहर जाने के पहले गृह कार्य ख़तम कराती और मुझे भी साथ में बैठा देती |

वह गृह कार्य ज्यादातर ड्राइंग का होता | वह कुछ चित्र बनाता और मैं रंग भरने में उसकी मदद करता |

"सूरज किस रंग का होता है बे ?"

पहले वह पीला रंग रंगता , फिर निराश होकर कहता ,"पीला तो नहीं होता | कौन सा रंग होता है टुल्लू ?"

"पता नहीं |" मैं कहता , "कहना मुश्किल है | सूरज को देख तो नहीं सकते ना |आँख जलने लगती है |"

"फिर क्या करें ? इसे ऐसे ही छोड़ दें ? "

"सुबह का सूरज तो देख सकते हैं उसका रंग तो लाल होता है |"

वह पीले पर लाल रंग मलने लगता ....

... पर आज तो वह सो कर भी नहीं उठा था | उसकी माँ बगल के कमरे से, जो उनका 'पंखा खड़' या 'शयन कक्ष' होता , मुन्ना को उठाने लगी ,"उठ बेटा, सुबह हो गयी देख | टिल्लू  नहा धोकर, नाश्ता करके गया है ..."

यह बात अर्ध सत्य थी |

अस्तु , मैं बैठक में बैठा इंतज़ार कर रहा था | बैठक के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक पलंग के निवाड क़ी रस्सी झूलती हुई लटकी थी, जिसके बीचों बीच पुराने चादर का एक पोटलीनुमा पालना था | उसमें मुन्ना क़ी नन्ही सी बहन पिंकी सो रही थी | मैंने देखा , उसके बैठक में वह रिकॉर्ड एक ओर टंगा हुआ था | वही रिकॉर्ड जिस पर एक चित्र बना हुआ था | वही, जिसमें एक नदी समुद्र से मिल रही थी | एक आदमी सर पर टोकरी लिए जा रहा था | सूरज निकल रहा था | दूर समुद्र में एक जहाज जा रहा था |

पर मेरी निगाह उसके बगल के एक फोटो पर अटक गयी |

एक लड़का हाथ में फूलों का एक गुलदस्ता लिए बैठा था | वह मुस्कुरा रहा था | फोटो पर एक फूलों क़ी माला लटकी थी, जिसके फ़ूल सूख गए थे |

"क्या यह मुन्ना है ? "पर मुन्ना, थोडा अजीब लग रहा था | मैंने फिर पास जाकर देखने क़ी कोशिश क़ी | तभी नींद से जागकर पिंकी रोने लगी |

रेडियो सीलोन से "आप ही के गीत" कार्यक्रम में कोई धीमी आवाज़ में गाना बज रहा था |

"आंटी , पिंकी रो रही है |" मैंने आवाज़ दी |

"हाँ टिल्लू , थोडा, झूला झुला दे |" मुन्ना की माँ मुझे 'टिल्लू' ही कहती थी | 

मैंने झूला हलके से खींचा  और छोड़ दिया | पिंकी थोड़ी देर चुप रही, पर फिर से रोने लगी |

मुन्ने क़ी माँ रसोई घर से आई और उसे उठाकर अपने साथ ले गयी |

थोड़ी देर में ही मुन्ना गया |

"बाहर चलें ?" मैंने धीमे से पूछा |

"माँ मैं खेलने जाऊं ?" मुन्ना ने पूछा |

"ठीक है बेटा | ज्यादा दूर मत जाना नाश्ता बन रहा है |"

"सस्ते में छूट गए आज |" दोनों उछलते हुए बाहर गए |

*************

मुझे तो पूछना था - वो रिकॉर्ड वाला सवाल नहीं  - कि जो रिकार्ड दीवार पर लटका था वो दामू चाचा की शादी वाला रिकार्ड है | मेरी कल्पना शक्ति में रिकार्ड के बगल वाले फोटो का ध्यान गया | एक दूसरा ही सवाल मैंने पूछ डाला |

"मुन्ना, वो दीवार पर टंगी फोटो में फ़ूल क्यों लटका था ?"

"कौन सी फोटो ?"

"वो रिकार्ड के बगल में टंगी तेरी फोटो |"

"मेरी फोटो ? धत, वो तो मेरे भाई की फोटो है |"

"तेरा भाई ? कभी देखा नहीं कहाँ रहता है ?"

" वो मर गया ....."

*************

अभी मुन्ना के घर से बाहर निकले ही थे कि सामने से बबन आता दिखाई दिया | उसके मुंह में हैज़ के पत्ते की एक पूंगी दबी थी |

"पूं, पाऊँ पूं " उसने हमें देखकर पूंगी बजाई |

हम लोग झटपट पाटिल साहब के पास की नाली में कूदे | हैज़ की एक-एक पत्ती तोड़ी , आनन् फानन में उसे मोड़ा , संकरे छोर को दबाकर चपटा किया और शुरू हो गए |

"पूं, पूं पूं "

"पाऊँ, फट, पाऊँ , फट, पूं, पूं, पूं "

"पूं, पूं, पूं" उसने अभिवादन किया |

"पों, पूं, पूं" ,"पूं, पूं, पूं" हमने प्रत्युत्तर दिया |

"पूं, पूं, पूं" " पूं, पूं, पूं" , "पूं, पूं, पूं" हम सुर में सुर मिलाते हुए सड़क पर छोटी पुलिया की ओर चल पड़े |

"पूं पूं पूं" , "पूं, पूं , पूं " , "पूं , पूं, पूं"

"पूंSSS , पूंSSS , पूंSS " जो आवाज़ हमारे पीछे गूंजी वह हमारी पूंगी की सम्मिलित आवाज़ से कम से कम पांच गुनी ज्यादा बुलंद थी |

हमने पीछे मुड़कर देखा, | वह पूंगी, बल्कि तुतरू भी तो कम से कम दस गुना बड़ा था | उसे छोटी शहनाई कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी |

हमें देखकर फेरी वाले की तुतरू कीआवाज़ और तेज हो गयी और उसने दूसरे हाथ से एक झुनझुना भी बजाया
"पूं, पूं, पू, " "झं, झं झं " |

वो झुनझुना नहीं , शायद "घुनघुना" था | मेरा मतलब, अगर आप किसी गुब्बारे में कंकड़ भरकर, उसके एक छोर पर बांस की पतली डंडी बांधकर हिलाएं तो उसे आप क्या कहेंगे ? उसके पास धातु , शायद टीन का बना झुनझुना भी था जो उसके बड़े से बोर्ड में कहीं लटका हुआ था | उस बोर्ड में और ढेर सारी चीजें भी तो थी | सीटी - जो टीन की बनी होती थी और जिसके अन्दर छोटे बेर की हलकी गुठली होती थी , रंग बिरंगे कागज़ की फिरकियाँ - जो हवा के साथ हौले हौले घूम रही थी - कुछ वामावर्त , कुछ दक्षिणावर्त | लड़कियों के लिए पतले प्लास्टिक की, सांचे में ढली गुडिया होती थी, जिसके पांवों की ओर एक गोल, छोटी सी सीटी लगी होती थी | महिलाओं के लिए बालों में लगाने वाले क्लिप और "बाल चोटिया " थी |

"बाल चोटिया " - हाँ. वो ज़माना था - महिलाओं और लड़कियों के लिए लम्बे बालों का ! "उम्र है सत्रह साल कितनी लम्बी चोटी है ..." जिन महिलाओं के बाल रीठा , शिकाकाई और पीली मिट्टी से धोने और आंवला या नारियल तेल के बावजूद लम्बे नहीं होते थे , उनके लिए "बाल चोटिया " या लम्बे बाल थे - जो फेरी वालों के बोर्ड के अभिन्न अंग थे | उनके पास पुरुषों के लिए कुछ नहीं होता था - कुछ भी नहीं | या तो पुरुषों को फेरी वालों पर विश्वास नहीं होता था , या वो घर पर नहीं, बल्कि काम पर जाते थे, या तो वो कोई प्रसाधन उपयोग में नहीं लाते थे |  खिलौनों से खेलते थे , या उनके लिए फेरी वाले कोई सस्ती चीज नहीं बना पाते थे  | राजेश खन्ना या आशा पारेख के फोटो लगे काले बटुए या काले चश्मे , या कड़ा जरुर सुपेला बाज़ार के फेरी वालों के पास दिख जाता था , पर वो एक जगह बैठे रहते थे | सड़कों पर घूमते नहीं थे |

"पों, पूं पूं, घन घन घन " फेरी वाले का सम्मान करते हमने उसे जाने दिया | जब वह सामने से गुजरा तो मैंने देखा ...

  अरे हाँ .. वो तो मैं बताना ही भूल गया था ...

उसके बोर्ड में लट्टू की रस्सियाँ, सफ़ेद रस्सियाँ, जिन पर लाल , नीले धागों की धारियां थीं, झूल रही थी ...

फेरी वाला चलते ही रहा | हम उसे सड़क के अंतिम छोर तक जाते हुए देखते रहे | जब वह छोटी पुलिया भी पार कर गया तो हम वहीँ ठिठक गए |

आखिर उसके पास ऐसा कौन सा खिलौना था जो हमें मन्त्र मुग्ध करता ? झुनझुना ? घुनघुना ? कौन सी बड़ी बात है ? जब कोई तोरई का फल , जो पहुँच के बाहर होता , पक़ कर बेल में ही लटके लटके सूख जाता और गिर जाता उसे हिलाकर देखो - वो झुनझुने से भी अच्छा बजता था | आखिर गुब्बारे में कंकड़ भरकर तुम छोटे बच्चों को उल्लू बना सकते हो , हमें नहीं | वो कागज़ की फिरकी ? हाँ , कितना आसान है उसे बनाना | कैंची , कागज़ , एक आल पिन और गन्ने के फूल का सरकंडा = इतना ही तो चाहिए | यह बात अलग थी कि घर में, किसी के भी घर में , कैंची तो थी, पर हमें कोई हाथ नहीं लगाने देता था | या तो बच्चों के हाथ कट जायेंगे , या , मूँछ या कपडे काटने वाली कैंची की धार खराब हो जाएगी | आल पिन भी मिलना थोडा सा मुश्किल था | गन्ने के सरकंडे की जगह सींक की झाड़ू के तिनके से काम चलाना पड़ता था | वो भी चोरी छिपे - अगर माँ ने देख लिया तो उसी झाड़ू से पिटाई हो जाती थी |

... हाँ, काग़ज़ की कोई कमी नहीं थी .....

..... अचानक सड़क में एक टेम्पो मुड़ा और हम तीनों उसके पीछे पीछे दौड़ पड़े |

टेम्पो के दोनों तरफ बड़े-बड़े पोस्टर लटके हुए थे | ऊपर भोंपू लगा हुआ था | वह किस पिक्चर का प्रचार कर रहा था, हमें कोई सरोकार नहीं था | हम तो बस, 'फोरम' बटोरने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़े | अन्दर से एक आदमी ने हाथ में पांच छः 'फॉर्म' हवा में उछाला और हम टूट पड़े पता ही नहीं चला कि भोंपू क़ी आवाज़ सुनकर, सोगा मगिन्द्र, छोटा , सुरेश - सब घर से भागकर टेम्पो के पीछे हवा में तैर रहे थे | जाहिर है, कुछ 'फॉर्म' छीना झपटी में फट गए , तो कुछ अक्षत हैज़ क़ी झाडी में अटक गए  | पर बबन का दुस्साहस तो देखो - वह टेम्पो के पीछे लटक गया | अन्दर आदमी ने एक बेशरम क़ी डंडी से उस पर वार किया , जिसे उसने झेल लिया | इतना ही नहीं, उसने उसके दूसरे हाथ में पकड़े 'फोरम' पर झपट्टा मारा और अगले ही क्षण उसके हाथ में 'फोरम' का पूरा गट्ठा था ...| उसने फुर्ती से फॉर्म का वह समूचा गट्ठर हवा में उछाल दिया |

... एक , दो , तीन.... दस .., बारह ..., यानि कि जितने तक हमें गिनती आती थी, उतने 'फोरम' हमारे पास थे ...

... तो काग़ज़ क़ी कोई कमी नहीं थी ...

"कौन सी पिक्चर है बे ? देख जरा ?" सोगा बोला |

पर वह पिक्चर का तो 'फोरम' नहीं था | पिक्चर का 'फोरम' तो बहुरंगी और चिकना , मोटे काग़ज़ का होता था } यह तो एक रंगी, या तो लाल या हरा और पतले काग़ज़ का था | हाँ , उसमें आदमी से ज्यादा तो जानवरों क़ी तस्वीरें थी ... !

...... सर्कस ....

*************

'रेमन सरकस ' ने भिलाई में धूम मचा दी थी ... 

जहाँ देखो वहां सर्कस के पोस्टर लगे दिखाई दे जाते थे |रस्सी पर चलती लड़की , झूले में करतब दिखाते जांबाज़, शेरों से घिरा रिंग मास्टर , नाक में टमाटर लगाये जोकर - सब कुछ आकर्षक था | लेकिन इन सबके अलावा एक खेल ऐसा था जिस पर सब की आँखें टिक जाती थी |

"क्या हाथी वाकई में बोतल गिनता है ?" मेरी आँखें उस पोस्टर पर टिकी थी जो छोटी पुलिया के पास और सडक तीन के कोने वाले ट्रांसफोर्मर कक्ष की दीवार पर चिपका था |

"हाँ, हाँ" सोगा उछला |

"ठीक गिनता है ?"मैंने फिर पूछा |

"हाँ, हाँ " उसने सर हिलाया |

बबन को शक हुआ ,"तुझे गिनती आती है बे ?"

सोगा बगलें झाँक रहा था |

"फिर तुझे किसने कहा ? तेरे मामा ने ?" बबन ने फिर पूछा |

" सब लोग ताली बजा रहे थे |" सोगा ने जवाब दिया |

अब बबन निरुत्तर हो गया | आखिर इतने सारे लोग बेवकूफ तो नहीं हो सकते |

छोटी पुलिया पर जितने बच्चे बैठ सकते थे, उससे कहीं ज्यादा , बहुत ज्यादा लोग बैठे थे | मैं, छोटा सुरेश, बड़ा सुरेश, सोंगा , मगिन्द्र, छोटा, मुन्ना, बबन, अनिल और शशांक ... सब की आँखें दूर क्षितिज पर टिकी थी | दूर, बहुत दूर ... रेल पटरी के उस पार , जहाँ एक दूसरी ही दुनिया बसती थी |

अँधेरा हो चुका था और सबको बेसब्री से इंतज़ार था .....

"देख बे, देख ..." अंततः छोटा सुरेश चिल्लाया ,"वो देख ..."

रेल पटरी के उस पार से, पूर्णतः अज्ञात ब्रह्माण्ड से  - प्रकाश का एक पुंज उठा और सारी सीमाओं को लांघते हुए सीधे आकाश की ओर बढ़ गया |

"देख बे देख, वो तो चाँद तक जा रहा है |" अनिल चिल्लाया |

सब की निगाहें उस प्रकाश पुंज पर ही टिकी थी |

"नहीं बे, वो चाँद से भी आगे जा रहा है | शायद सीधे स्वर्ग तक |"

स्वर्ग ? अचानक एक विचार मेरे मन में कौंधा | लेकिन वह जीभ पर आते आते अटक गया |

अच्छा ही हुआ कि वह ख्याल जबान से टपका नहीं | पर ना टपकने का कारण क्या था ?

अचानक एक दूसरा प्रकाश पुंज आकाश में दिखाई दिया | वह भी सर्कस के तम्बू से ही रहा था | वह भी उतना ही शक्तिशाली था | ऐसा लगने लगा, दोनों आकाश में एक दूसरे का पीछा कर रहे हों |

"शशांक " तिलस्मयी संसार का जंजाल भंग करती हुई एक महिला की आवाज़ गूँजी | 

सम्मोहन से बाहर निकल कर शशांक चश्मा सम्हालते हुए भागा | चश्मा लगाए हुए उसकी मम्मी का गंभीर चेहरा देखकर एक पल के लिए हम सब सहम गए | उसकी मम्मी कोई पचास मीटर दूर खड़ी थी | शायद थोड़ी और पास आती तो हम सब लोग पिघल गए होते |

पर यह केवल दो मिनट का अंतराल था | शशांक अंतर्ध्यान हो चुका था | दूर सर्कस के शो शुरू होने के पहले के साज़ बजने लगे | फिर दोनों प्रकाश पुंज गायब हो गए और हमें अहसास हुआ कि अँधेरा हो गया है |

"रात के नौ बजे फिर लाईट दिखेगी |" बड़ा सुरेश बोला ," नाईट शो शुरू होने के टाइम |"

" नौ बजे ? नौ बजे तो मैं सो जाता हूँ |" छोटा बोला |

सबने अपने अपने घर की राह ली | वह सवाल अब भी मेरे मन में कौंध रहा था - एक यक्ष प्रश्न की तरह |

*************
(क्रमशः )