शनिवार, 20 सितंबर 2025

                        रामलाल मामा की 'डेरी' और 'जेवनी'

"इसको तो  मैंने बड़ी मुश्किल से जिलाया   था |" रामलाल मामा ने मेरी ओर इशारा  कर के कहा ."चाहे इसे कुछ भी दो  -'मैं खाऊंगा ही नहीं'| "

बाबूजी की अंतिम क्रिया के लिए हम सब एक तालाब के किनारे खड़े थे | स्मृतियों की पुरानी गांठें खोली जा रही थीं  | 

धुंध पीछे से पचास वर्ष पूर्व का समय ठहरा हुआ था | एक धुंधली सी याद थी | मुझे कुछ भी खाना अच्छा नहीं लगता था - न मीठा, ना नमकीन , न चटपटा - तीखा तो खैर सोच के परे था | जो भी मुझे दिया जाता | मैं मुंह में भर लेता , लेकिंग गले के नीचे नहीं उतरता - कुछ भी नहीं | 

"ये तो चीचोरत  हे " ( ये तो चूस रहा है") - कौशल भैया कहते | 

शायद घंटों कोशिश की जाती | बाकी लोग खाना खाकर उठ जाते | रामलाल और श्यामलाल मामा कोशिश करते रहते | अगर कुछ गले के नीचे उतरता भी, तो कुछ ही मिनटों में पेट में जबरदस्त मरोड़ उठती और मैं उलटी कर देता | 

किसी को कुछ पता नहीं चल रहा था | एक दिन रामलाल  मामा  ने अचानक पहचान लिया की मेरे पेट में कृमियों का जमावड़ा है | खाना खाते - खाते मैंने अचानक उलटी की और रामलाल मामा  ने देखा, उसमें सफ़ेद सफ़ेद कृमियाँ तैर रही थीं | 

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सेक्टर २ के घर के फाटक के दोनों ओर मेहंदी के पेड़ (जी हाँ, पेड़ - झाड़ी नहीं) लगे थे | मैं जब वह घर छोड़कर निकला , उसके बाद जब कभी उस घर में वापिस आता तो मेहंदी के उन पेड़ों को देखकर मुझे रामलाल मामा याद आ जाते थे | बात सीधी और सरल थी | उन पेड़ों को रामलाल मामा ने कांशीराम की मदद से ही रोपा था |  कांशीराम, जो मुन्ना के घर के आँगन में दोनों चाचा लोगों के लिए घर बना रहा था | वह सुबह से सड़क ३ के छोर पर, बिजली के ट्रांसफॉर्मर के सामने के मैदान से पीली मिटटी खोदता, धमेले में सर पर लाद  कर मुन्ना के घर लाता | यह क्रम तब तक चलता, जब धुप कड़ी ना हो जाती | फिर वह घर के निर्माण में जुट जाता | बात वैसे भी वह कम ही करता था और हरदम मुस्कुराते रहता था | हम लोगों के घर में अस्थायी या स्थायी तौर पर रहने वालों से उसका ख़ास लगाव था | 

एक दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी | रामलाल मामा  और काशीराम, दोनों के पास छतरी थी | लेकिन ऐसी घनघोर   बारिश में टेम्पो छाप छतरी भी कोई बचाव करने में असमर्थ थी | वे किसी तरह चौबीस सड़क में एक सुनसान घर में, जहाँ पुराना रहने वाला जा चुका था और नया कोई आया नहीं था, के बरामदे में खड़े हो गए | और वह बारिश का स्वरुप भी कुछ ऐसा कि कुछ ही क्षणों में बारिश मद्धिम हो गयी और धूप भी निकल आयी | वे घर से निकल ही रहे थे क़ि उन्हें मेहंदी के दो पौधे नज़र आये | 

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हर बार जब भी मैं कभी किसी छुट्टी में घर आता था , मेहंदी के उस मेहराब के नीचे से गुजरते हुए, मानो , समय के कई पन्ने  उड़कर आते औए सामने बिखर जाते | 

फिर मैं अपने बांये हाथ को देखता और फिर दाहिने हाथ को ... 

और किसी के लिए हो या न हो, मेरे लिए ये काफी मुश्किल काम था | एक तो वैसे भी मैं बड़ी मुश्किल से खाना खाता  था, ऊपर से लोग टोक देते थे -"उस हाथ से खा .. "

खाने तक तो सब कुछ फिर भी ठीक था - यानी टोका-टाकी पर बात ख़तम हो जाती | असली समस्या तब शुरू हुई , जब मैंने लिखना प्रारम्भ किया  |\ लिखने को तो बबलू भैया भी बांये हाथ से लिखते थे, लेकिन उनके लिए सब क्षम्य था, क्योंकि वे जिद्दी थे | ऊपर से, अब वे चौथी कक्षा में भी पहुँच गए थे | यानी पेन्सिल छोड़ कर पेन पकड़ चुके थे | जबकि मैं अभी स्लेट की सफ़ेद वाली पेन्सिल थामना ही सीख रहा था |  

"अरे, ये भी 'उलटू' है |" श्यामलाल मामा दंग रह गए ,"चल उस हाथ से पेन्सिल पकड़ |"

मैं दूसरे हाथ से पेन्सिल पकड़ कर लिखने की कोशिश जरूर करता | लेकिन अगले दिन जब फिर से स्लेट पर लिखने की कोशिश करता तो बेबी कहती ,"ये तो फिर उलटे हाथ से लिख रहा है |"

भारत में बांये हाथ से लिखना आज भी अच्छा नहीं माना  जाता - तो पचपन साल पहले की तो आप कल्पना ही कर सकते हैं | कारण स्पष्ट है | एक तो गुसलखाने  की संस्कृति  और दूसरे विद्या को देवतुल्य मानना | दोनों ही हाथों के कार्य निर्धारित थे | और खाना भी तो हाथ से ही खाना था | 

 "ये तेरा बांया हाथ है | " शशि दीदी हाथ उठाकर कहती,"और ये दाँया | बोल, बांया कौन सा है ?"

"ये", मैं दुगने उत्साह से हाथ उठाता | 

" शाबास  और लिखने वाला हाथ कौन सा है ?"

उस समय तो सब ठीक रहता | लेकिन रात को सोकर मैं सुबह उठता तो सब गड्ड मड्ड  हो जाता | नतीजा - ढाक के तीन पात | 

समस्या काफी गंभीर थी |  

मुझे चारों दिशाए याद थी - पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण | कोई संशय ही नहीं था, क्योंकि सूरज पूर्व से निकलता था  और पश्चिम में डूब जाता था | जिस तरफ रेल की पटरी और सुपेला थे, वो उत्तर दिशा थी और जो बच गया, वो दक्षिण | नीला, पीला, हरा , लाल , काला , सफ़ेद - सब पता था | बारह कड़ी याद थी | लिखे अक्षर काफी कुछ पढ़ लेता था | दस तक पहाड़ा याद था | लेकिंग बांये और दांये - या यूँ कहें कि उलटे और सीधे हाथ का बन्दर मेरे सर पर बैठ गया था | स्लेट पर लिखने से पहले मैं सोचता - ये सीधा हाथ है या उल्टा ? वार्ना साहू सर आज फिर झिड़केंगे | 

समस्या ने ऐसा विकराल रूप ले लिया कि पांचों को सर जुड़कर बैठना पड़ गया | 

" तुझे उल्टा और सीधा हाथ पता नहीं चलता ? जहाँ से सूरज निकलता है, वहां मुंह करके खड़े हो जा | अब जहाँ रेल की पटरी है , वो हाथ उठा ? ये तेरा उल्टा हाथ हो गया  ..| "

ये एक समाधान जरूर था, किन्तु थोड़ा जटिल था | नहीं, मैंने खारिज नहीं किया (रामलाल, श्यामलाल मामा, कौशल भैया , शशि दीदी , व्यास के सामने मेरी क्या मज़ाल?) मैं उनके बीच आपराधिक भाव ओढ़े खड़ा था | कब मौका मिले और मैं भागूँ | 

अचानक रामलाल मामा ने अपने हाथ में बंधा रक्षा सूत्र देखा, "क्यों न इसके सीधे हाथ में रक्षा सूत्र बाँध दिया जाए ? नहीं, धागा तो पानी में भींग कर कमजोर हो जायेगा | इसको कडा पहना देते हैं | ये ठीक रहेगा |"

और एकमत से  उस सिझाव पर मुहर लग गयी 

इतवार को जब तक कड़ा  नहीं आया , मैं कड़े की परिकल्पना में डूबा रहा | 'कड़ा' याने कोई कठोर वस्तु  | 'कढ़ी' तो खट्टी होती है | लेकिन 'कडा' खाने की चीज़ तो नहीं लगती | 

मैंने लक्ष्मी भैया से पूछ ही लिया। " लक्ष्मी भैया, कड़ा क्या होता है ?"

"कड़ा ? याने सख्त |"

"अरे वो नहीं | जो हाथ में पहनते हैं |"

"अच्छा वो | सरदार लोग कड़ा पहनते हैं |"

मेरा दिल बैठ गया | झालर न उतरने के कारण मेरे बाल वैसे ही लम्बे लम्बे हो गए थे | इक्कीस सड़क में मंजीत का  भाई गोगी सरदार था और वो कड़ा पहनता था | टीटू मीटू  भी सरदार थे और वो भी कड़ा पहनते थे |  रविवार को व्यास भैया हफ्ते भर की साग सब्जी खरीदने सुपेला बाज़ार जा रहे थे | रामलाल मामा ने उनको फिर याद दिलाया ,"टुल्लू के लिए कडा जरूर ले आना |" 

तो साग-सब्जी के साथ व्यास भैया मेरे लिए कड़ा ले ही आये | लोहे का चमचमाता कड़ा | उसमें हाथ घुसाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई | बल्कि मैंने हाथ उठाया तो कड़ा सरककर कोहनी तक जा पहुंचा | रामलाल मामा ने व्यास की ओर देखा | 

"मैंने तो बच्चे के लिए ही कड़ा माँगा था |" व्यास भैया ने सफाई दी |

"कोई बात नहीं |" रामलाल मामा  बोले," दाल, भात, साग रोटी - सब खाओ | खूब खाओ | ये पतले- पतले हाथ मोटे हो जायेंगे |"

अब जब कडा आ ही गया था तो रामलाल मामा  ने उसका प्रयोजन समझाना शुरू किया ,"तेरे जिस हाथ में कडा है, वो तेरा सीधा हाथ है -'जेवनी' | समझा ? और जिस हाथ में कड़ा नहीं है - वो है -'डेरी' हाथ  - उल्टा हाथ | 'जेवनी' से क्या करेगा ?"

" सीधे हाथ से - मैं लिखूंगा |"

"हाँ | और क्या करेगा ?"

"खाना खाऊंगा |"

"और?"

मैं सोच में पड़ गया | 

"मंदिर में जायेगा तो फूल ये कड़े वाले हाथ से चढ़ाना है | ठीक ?"

"हाँ ठीक |"

"और पंडित जी जब प्रसाद देंगे तो कड़े वाला हाथ ऊपर रखना और उल्टा हाथ नीचे | समझे ?"

मैंने सर हिलाया 

"और उलटे हाथ से क्या करेगा ?"

सब मुस्कुराने लग गए | रामलाल मामा मेरे गले में हाथ डालकर मुझे थोड़ी दूर ले गए और बताया - उलटे हाथ से क्या करना है ? 

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ढीले कड़े का ये एक फायदा तो था | उसे जब चाहे निकाला जा सकता था | जैसे पहले दिन मचोली पर सोते रामय वह कड़ा हाथ में गड़  रहा था | मैंने चुपके से निकाल लिया और तकिये के नीचे दबा दिया | लेकिन सुबह जब उठा तो मेरे होश उड़ गए | कड़ा मेरे हाथ में था और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उसे किस हाथ में पहनना है | यानी मेरा सीधा हाथ कौन सा है ? धड़कते दिल से मैंने, एक हाथ में कड़ा पहन लिया | अगर किसी ने पूछा, कि कड़ा  उलटे हाथ में कैसे ? तो मैं कह दूंगा, मुझे कुछ पता नहीं | मैं तो सो रहा था | संयोगवश किसी ने कुछ पूछा नहीं | मतलब यही कि मेरा तुक्का लग गया  | 

मुझे लगा कि मैदान में सब मुझे 'सरदार' कह कर चिढ़ाएँगे | मेरी यह धारणा गलत निकली  किसी ने चिढ़ाया तो नहीं | हाँ, जब 'बॉक्सिंग' कर रहे थे , तो बबन चिल्लाया, "कड़ा उतार दे बे |" मैंने उतार तो दिया लेकिन पहनने के समय फिर भूल गया - दाहिना हाथ कौन सा है | किससे  पूछूं ? जिसे पता न हो उससे पूछने का कोई फायदा नहीं | जैसे -सोगा | और जिसे मालूम होगा वो ठहाका लगाकर हंसेगा |  क्या किया जाये ? अचानक कौशल भैया की बात याद आयी, जिस तरफ सूरज निकलता है, उस ओर मुंह करके खड़े हो जाओ | जिस तरफ रेल पटरी है , वो बांया हाथ है ..... 

ढीला कड़ा एक बेहतरीन खिलौना था  | जब कोई पक्का फर्श दीखता था, मैं उसे हाथ से निकाल कर फर्श पर लुढ़का देता था | वह पहिये की तरह लुढ़कता हुआ दूर चले जाता था और फिर किसी दीवार से टकराकर रुक जाता था | पक्के फर्श पर उसे लट्टू की तरह घुमा दो - अरे वाह ! क्या अद्भुत आकृति बनती थी| जब वह तेजी  से घूमता था, तब एक खाली गोला दिखाई देता था || फिर जब  गति धीमी होने लगती थी, अनेकानेक छल्ले दिखने लगते थे | जैसे जैसे गति धीमी होती थी, छल्लों की संख्या काम होते जाती थी | अंत में केवल एक कड़ा ही बच जाता था जो थक हारकर पक्के फर्श पर पसर जाता था | 

और ऐसे ही एक खेल से हँसते खिलखिलाते हुए ढीले कड़े ने मुझे अलविदा कह दिया | सोगा के घर के बगल में , मैदान से लगकर बेशरम की झाड़ियाँ  थी } वहीँ एक सीमेंट का गटर भी था जिस पर लोहे का आयताकार ढक्कन लगा था | उसी ढक्कन पर मैं सबको बड़े गर्व से कड़ा घुमाकर दिखा रहा था | सब हँस रहे थे, तालियाँ  बजा रहे थे | नाच नाच कर कडा भी खिलखिला रहा था | अचानक , उसे क्या सूझा  , उसने गटर के ढक्कन में वो सूराख़ देख लिया जिसे हमने नज़र अंदाज़ कर दिया था | अठखेलियां खाते हुए उसने उस सूराख़ के रस्ते गटर के अन्धकार में छलांग लगा दी | एक ही क्षण में ज़िन्दगी थम सी गयी और गहन सन्नाटा छा गया | सूराख़ से हमने झाँक कर देखा, जब आँखें अँधेरे में देखने की अभ्यस्त भी हुई, तब भी - एक विशाल फैली हुई रिक्तता के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई दिया | 

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"टुल्लू, तुझे कड़े की जरुरत भी है - अब ?" रामलाल मामा ने सच्ची बात पूछ ली | अब मैं ईमान से कहूं तो शायद नहीं | सीधे हाथ से लिखने की आदत पड  गयी थी | लेकिन एक दूसरी आदत भी तो पड़ गयी थी | कड़े  के  बिना कलाई ही नहीं, सब कुछ सूना-सूना लग रहा था | 

"भइगे (रहने दो) |" माँ  ने कहा , "आठ आने का कड़ा था | अब बहुत हो गया | 'डेरी', 'जेवनी'' समझ तो रहा है | "

ये सच था कि कड़े का मूल उद्देश्य तो वही था | माँ की बात भी खरी ही थी - अब उसकी उतनी आवश्यकता नहीं थी | 

मुझे चुप देखकर रामलाल मामा ने फिर पूछा, "है जरुरत?"

"थोड़ी-थोड़ी" मैंने कहा | 

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मुझे थोड़ा भी अन्देशा नहीं था कि पिछली बार की गलती को रामलाल मामा गंभीरता से लेंगे | 'सही माप' का कडा दिलाने के लिए वे मुझे साइकिल में बिठाकर सुपेला बाजार ले गए | अब भला साइकिल के डंडे पर, भले ही उसमें छोटा तौलिया बिछा हो - बैठकर दूर सुपेला बाजार जाना किसे अच्छा लगेगा | फिर भी, मन में एक उम्मीद थी, कि रास्ते में, अगर रेल पटरी से कोई कोई रेलगाडी गुजर रही हो तो उसे पास से देखने का सुअवसर मिलेगा | हो सकता है, आते समय चौराहे के पास रामलाल मामा  गन्ना रस पिला  दें जो वे अक्सर करते थे | मैं  अपने मुंह से  नहीं बोलूंगा  - अच्छे बालकों के गुण नहीं हैं ये | 

सुपेला बाजार में घूमते हुए, एक बार मुझे लगा, मानो रामलाल  मामा  ये भी भूल गए थे , कि मैं क्यों आया था | आलू और प्याज़ तो सामान्य सी बात थी | चलो, पालक, भिंडी, गोभी बैंगन भी ठीक है | लेकिन मटर, चुकंदर मूली, कच्चे केले ? बात ठीक है | ठण्ड के मौसम में सब्जियां काफी आती हैं | लेकिन तीन बड़े बड़े झोले तो भर ही गए थे  और चौथा झोला भी आधा भर गया था | फिर  भी मटर का ढेर देखकर ठहर गए | 

जब चारों  झोले भर गए, और थोड़ी भी गुंजाईश नहीं बची तो उन्हें मेरी सुध आयी | 

"कड़ा कहाँ मिलेगा ? शायद सामने सड़क पर .. | चलो, देखते हैं | "

साइकिल के हैंडल के दोनों और दो भारी भरकम झोले लदे  हुए थे | आज उसका धनुष बन जाना लगभग तय था |  भीड़ इतनी अपार कि साइकिल पर सवार होकर नहीं, उसे धक्का मारकर ले जाना भी मुश्किल हो रहा था | 

फिर भी बीच बीच में कोई नयी सब्जी देखते ही उनके कदम ठिठक जाते थे - चाहे वह करेला या टिंडा ही क्यों न हो | दहाड़, चिंघाड़,  पतली, मोटी , सुरीली, भोंडी , कर्कश आवाज़ में कदम कदम पर सब्जी वाले हाँक लगा रहे थे | कुछ सब्जी वालों का तो मानो पूरा परिवार आया था | कोई हाँक लगा रहा था,  तो उसकी माँ सब्जी तौल रही थी और बाप फटाफट ग्राहकों से पैसे लेता, बिछी बोरी के नीचे डालता और बकाया पैसे उसी बिछी बोरी की तह से निकालकर  वापिस कर देता | 

अचानक मुझे कड़े की दुकान दिख गई | मुख्य सड़क तक जाने की जरुरत नहीं थी | वहीँ, सड़क के उस पार एक आदमी कड़े, अंगूठी, माला , बाला और पता नहीं क्या क्या बेच रहा था | ऐसी भीड़ में सड़क पार करना भी मुश्किल हो रहा था | अधीरता के मारे एक एक कदम बढ़ाना  भी मुश्किल हो रहा था | 

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दुकानदार ने मेरा हाथ पकड़ा और एक अल्युमिनियम का कड़ा दिखाकर बोला, "इसके लिए यही ठीक रहेगा |"

"इसके लिए" - शायद ये बात रामलाल  मामा  को चुभ गयी | 

"अल्युमिनियम का कड़ा क्यों दिखा रहे हो ?"

"मैंने सोचा, ये हल्का रहेगा |" दूकानदार ने चतुराई दिखाई | 

"तो ?" रामलाल मामा क्व स्वर में तल्खी थी | 

आगे मातचीत जुबान से नहीं, नज़रों से हुई |

"बालक कमज़ोर है |" : दुकानदार की नज़रेँ अभी भी मेरे पतले पतले हाथों पर टिकी थी  | 

"ये तुम्हें कमज़ोर नज़र आता है ?" रामलाल मामा की आँखें कह रही थी | 

मुझे यहाँ तक लाने का मुख्य उद्देश्य तो यही था कि मुझे मेरे साइज़ का कड़ा मिल जाए | दुकानदार ने कई कड़े आज़माये | अब कड़े की माप छोटी होते चली गयी | फिर एक कड़ा पहनाने के लिए दुकानदार को थोड़ी बहुत मशक्कत  करनी पड़ी  फौरन वह बोला , "ये कैसा रहेगा ?"

"एक साइज़ बड़ा दिखाओ | " रामलाल मामा  बोले | लेकिन दुकानदर के पास एक साइज़ बड़ा तो था नहीं | उससे बड़े साइज़ का वह तो कड़ा दिखा रहा था, वह उतना ही ढीला था जितना मेरा पुराना  कड़ा | जी हाँ, आपने ठीक अनुमान लगाया  मेरी दिली इच्छा तो थी कि  वही ढीला ढाला कड़ा ही लिया जाये | पर वह बात मन में ही रह गयी | अगर में गलती से भी जाहिर हर देता तो रामलाल  मामा  सर पीट लेते | 

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"आज मैं सुपेला बाजार गया था |" मैंने ख़ुशी को थोड़ा छिपाकर दोस्तों में बीच घोषणा की | 

"अच्छा हाँ | आज इतवार है न ?" मुन्ना बोला | 

बाकी हम सारे दोस्तों को इतवार, सोमवार से कोई सरोकार नहीं था | मुन्ना स्कूल जाता था | इसलिए उसे शायद इतवार का इंतज़ार रहता होगा | 

"हाँ | मैंने तीन रैलगाड़ी  देखी | दो जाते समय, एक आते समय | एकदम पास से  | इंजन का ड्राइवर लाल रुमाल सर पर बाँधा  हुआ था | वो बेलचे से कोयला डाल रहा था |"

"माल गाड़ी थी क्या बे ?" बबन ने पूछा 

"आने के समय जो रेलगाड़ी देखी , वो माल गाडी थी | इतनी लम्बी, इतनी लम्बी "

"कितनी लम्बी ?" सोगा ने पूछा | 

मैंने बात बदलने की कोशिश की ," आने के समय मैंने गन्ना  रस भी पिया "

"कितनी लम्बी ?" सोगा ने फिर पूछा , "अबे बता  तो कितनी लम्बी "

वह हाथ, जिसे मैंने जेब में छिपा कर सखा था, उत्तेजना से बाहर आ गया | दोनों हाथ फैलाकर   मैं चिल्लाया ,"इतनी लम्बी |" 

सबकी आँखों में चमक आ गयी, "नया कड़ा |"

लेकिन नए कड़े के साथ समस्या ये थी कि वह आसानी से निकल नहीं सकता था | थोड़ा बहुत जोर लगाकर निकालने की कोशिश से निकल भी जाए  तो फिर पहनना मुश्किल था | आये दिन हथेली या कलाई में खरोंच आ जाती | 

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मेरे नया कड़ा पहनने के कुछ ही दिनों बाद रामलाल मामा  मांढर चले गए वियोग का कुछ ऐसा संयोग बना कि एक एक करके सभी घर छोड़ कर चले गए | रामलाल के पीछे ही श्यामलाल मामा  मांढर  चले गए | व्यास सेक्टर ५ के घर में ही अति -व्यस्त हो गए | और तो और, कौशल भैया भी रायपुए इंजिनीयरिंग कॉलेज चले गए | जीवन में एक अजीब सा परिवर्तन आ गया |  इन लोगों के जाने का परिणाम यह हुआ कि दूसरे बड़े लोग भी, जो अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे और घर में चहल-पहल रहती थी, रास्ता भूल गए | 

 पिछले एक साल से मेरी भी इच्छा थी - पाठशाला जाने की |मैं शाला जरूर गया , लेकिन   कड़ा मेरे हाथ में ही रहा||वे हाथ अब उतने पतले भी नहीं रहे और धीरे धीरे मोटे होने लगे | अब कड़े को निकालना मुश्किल होता चला गया | 

रामलाल मामा  जो गए तो सीधे राखी के दिन ही नज़र आये | जब आये तो श्यामलाल मामा के साथ ही आये | तब से वह  एक क्रम ही बन गया | वे साल भर आएं या ना आये, राखी के दिन अवश्य आते थे | चाहे वह १९७४ की भयानक अकाल वाली चिलचिलाती धूप हो या १९७६ की मूसलाधार बारिश | कभी वे साथ में आते थे, कभी कोई सुबह आकर सूचित करता था, "दीदी, उसकी नाइट शिफ्ट है | दो बजे की लोकल में आएंगे | 

हाँ, मैं बात कड़े की कर रहा था | पहली बार रामलाल मामा   आये तो मैंने  कड़े की बात नहीं की, क्योंकि हर्ष के माहौल में  मैं सब भूल गया | ये एक तरह से भूल ही साबित हुई क्योकि वे काफी दिनों बाद नज़र आये | तब तक तो बांग्लादेश भी आज़ाद हो गया था और ठण्ड ख़त्म होने वाली थी | 

"मामा | "

"हाँ बोलो टुल्लू | सब ठीक ?"

मैंने अपना कड़े वाला हाथ सीधा किया | अचानक उनको याद आया ,"अब 'डेरी' और 'जेवनी' में गलतो तो नहीं होती ?"

"मामा, ये बहुत ..|" कडा इतना कस गया था कि बड़ी मुश्किल से घूम पता था | निकलने की तो बात बहुत दूर थी | 

"इसको कटवाना पड़ेगा ||" रामलाल मामा बोले, "ठीक है |  कल सुबह सुपेला बाज़ार जाकर कटवा लेंगे |"

उन्हें खुली हवा में सोना ही पसंद था | उन्होंने बाहर अमरुद के पेड़ के नीचे खटिया बिछाई, मच्छरदानी लगाई, खाट के नीचे एक लोटा पानी ढंककर रखा और आराम से सो गए | 

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अब मैं बड़ा हो गया था और दौड़कर, और उछलकर साइकिल के करियर में बैठना सीख गया था | इसलिए इस बार मैं सामने डंडे पर नहीं, बल्कि पीछे करियर पर बैठा था | लेकिन मेरा मन कई आशंकाओं से घिरा हुआ था | आखिर कड़ा को काटेंगे कैसे ? क्या वो  काटने वाली कैंची से  ? उससे तो मेरा हाथ भी कट सकता है | क्या गरम करके नर्म करके काटेंगे ? रेलवे फाटक के पास ट्रैन के इंतज़ार में हम खड़े थे, तब मैंने अपनी आशंका जाहिर कर ही दी |  रामलाल मामा ठठाकर हँसे ,"अरे, कुछ नहीं होगा | डरो मत |  मैं हूँ ना तुम्हारे साथ | " 

इससे बढ़कर आश्वस्ति और क्या हो सकती थी | उनकी बातों में खोखला आश्वासन नहीं था | ऐसे आश्वासन उनकी तरफ से पूरे जीवन भर मिलते रहे |उनके शब्दों में वजन होने कारण था | साहस और हिम्मत उनमें कूट कूट कर भरी थी |  |  जीवन पर्यन्त उसकी झलक कहीं न कहीं दिख ही जाती थी |  

मुझे याद पड़ता है, तब मैं शायद उच्चतर माध्य्मिक  में था | एक बार उनके पाँव का अंदरूनी घाव काफी बढ़ गया था | सेक्टर ९ के अस्पताल में वे इलाज़ के लिए आये थे | बातों बातों में माँ को पता लगा कि अंदरूनी घाव| इतना बढ़ गया था कि  अगर थोड़ा विलम्ब और होता तो पांव काटना पड़ जाता | माँ रोने लगी |  लेकिन रामलाल मामा के चेहरे पर ज़रा भी शिकन नहीं थी | वे मान कप इस तरह सांत्वना दे रहे थे, मानो वह एक सामान्य सी बात हो , " तुम रो क्यों रहे हो ? देखो, मैं ठीक ठाक तो खड़ा हूँ तुम्हारे सामने | छोटा सा घाव ही तो है | डॉक्टर ने दवाई दे ही दी है | भगवन सब कुछ ठीक कर देगा | और अगर पाँव काटना भी पड़ गया तो क्या हो जायेगा ? वैसे भी उसकी जरुरत नहीं पड़ेगी | देखना, भगवान् मुझे ठीक कर देंगे | "

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जो दुकानदार कडा बेचता था, वह तुरंत पहचान गया ,"अरे साहब | मैं तो उसी दिन बोल रहा था, बड़ा कड़ा ले लो .. 

"फालतू बात नहीं | ", रामलाल  मामा  भन्ना   गए , "जो पूछा जाये, उसी बात का जवाब दो | " 

"आपको किसी लुहार के पास जाना पड़ेगा | ये, रावनभता में एक लुहार की दुकान है |"

लुहार यानी, गरमागरम  भट्टी      भारी भरकम हथौड़े | अब केवल रामलाल मामा का ही आसरा था | 

और लुहार तो मानो तैयार बैठा था | 

"अभी काट देते हैं साहब |" उसने बड़ी सी , हैज़ काटने वाली कैंची की तरह एक संड़सी   निकाली | 

"स्कूल जाते हो मुन्ना ?" मुझे भयभीत देखकर उसने पूछा और कैंची घु साने की कोशिश की | लेकिन कड़ा हाथ में इस कदर फंस चूका था की उसकी कोशिश नाकाम रही | 

"अब तो छेनी से ही काटना पड़ेगा |" लुहार ने कहा | 

छेनी तो छोटी  ही थी, लेकिंग उस पर चोट करने वाले भारी भरकम हथोड़े को देखकर मैं दहल गया | मुझे लगा, रामलाल मामा अभी कहेंगे, "बच्चे का सर फोड़ोगे क्या ?" लेकिन् वे निर्विकार भाव से खड़े थे | लुहार ने एक चपटे पत्थर की पट्टी मेरे हाथ और कड़े जे बीच घुसाई | छेनी की फलक कड़े के ऊपर रखी और दूसरे हाथ से हथौड़ा उठाया | आँखें बंद करने से पहले मैंने देखा , रामलाल मामा उदासीन भाव से देख रहे हैं | "खट" की एक हलकी सी आवाज़ हुई और जब मैंने आँखें खोली तो देखा, कडा कट  चुका था | अब लुहार ने जोर लगाकर कड़े को फैलाया और बिना किसी लाग लपेट के एक ओर फेंक दिया | 

आते समय रामलाल मामा ने पूछा ,"तुमने आँखे क्यों बंद की ? डर लग रहा था ?"

"हाँ|" मैंने कहा , "इतना बड़ा हथौड़ा था | "

"तो क्या हुआ ?"

"वो मेरे सर में मार देता तो ?" 

"ऐसे कैसे मार देता ? मैं किसलिए खड़ा था ?"

"अगर निशाना चूक जाता तो ?"

"तो उसकी   ऊँगली में भी लग सकता था | छेनी तो वो पकड़ा था | अरे, वो कोई पहली बार ये काम कर रहा था | उनका तो काम ही है, सुबह शाम हथौड़ा चलाना |"

" फिर भी हथौड़ा बहुत बड़ा था |"

उन्होंने एक बात कही जो मुझे जीवन भर याद रही,"हथौड़ा जितना बड़ा होता है, चोट उतनी कम लगती है | क्यों ? क्योंकि जितना बड़ा हथौड़ा होता है, उसको चलाने वाला कारीगर भी उतना ही बड़ा होता है |" 

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अब जब रामलाल मामा  नहीं हैं , ऐसा लगता है, की उस युग का अंत हो गया है , जब लोग खुद ही अपनी जिम्मेदारी समझते थे और उसका निर्वाह करते थे | न तो कोई स्वार्थ था, न अहं का भाव न कोई दिखावा | सिर्फ कड़े जैसी छोटी सी वस्तु के लिए वे मुझे अपने साथ ले चले | चाहे बबलू भैया को पढ़ाना हो, चाहे मुझे डॉक्टर के पास ले जाना हो - उन्हें किसी से कुछ अनुदेश या अनुमति लेने की जरुरत नहीं थी | बाद में वर्षो में मैंने देखा, चाहे शादी ब्याह हो या किसी का अंतिम संस्कार, उन्हें अपना कर्तव्य और मर्यादा, दोनों का ज्ञान था | 

उन्होंने तो मुझे जिलाया  था - बड़ी मुश्किल से जिलाया था | , लेकिन जब \उनका समय आया तो बड़े बड़े डॉक्टर भी क्यों बेबस थे ? 



  













  





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