शनिवार, 3 सितंबर 2011

हप्पू की बम-बम ४

मेरे पास लट्टू आ ही  गया |

आप ने ठीक अनुमान लगाया | श्यामलाल मामा के सिवाय भला और कौन लट्टू ला सकते थे |

माँ ने कहा था , 'चंद्राकर किराना स्टोर' से लट्टू लेने के लिए | मेरी इच्छा थी, सरदार क़ी दुकान से लट्टू लेने क़ी |

 जब मैंने श्यामलाल मामा को इच्छा बताई तो उन्होंने पूछा ,"क्यों ?"

"क्योंकि उसकी दुकान में बोरा भर के लट्टू है | मैंने देखा है |"

बोरा भर के हो या दो बोरा - मुझे तो  एक ही लट्टू मिलना था | श्यामलाल मामा ने साइकिल वहीँ मोड़ ली | पर सरदार क़ी दुकान बंद थी | दूसरा विकल्प यही था कि जानकी , यानी  कि मोटे चश्मे वाले सिन्धी क़ी  दुकान  "राजेश ट्रेडर्स " से लट्टू ख़रीदा जाए |
 
" नहीं, वो ठग्गू है | " मैंने कहा |

"अरे मैं हूँ न | " श्यामलाल मामा बोले |

वो दुकान भी बंद थी |
 
"क्या बात है ? आज सब दुकानें बंद है | " उन्होंने दुकान पर लगी तख्ती पढ़ी ,"मंगलवार बंद ? आज कौन सा दिन है ? मंगलवार ? टुल्लू - अरे आज मंगलवार है | आज तो  दुकान बंद रहेगी | चल, कल आयेंगे |"

मेरा दिल बैठ गया | मैं छोटा जरुर था, पर 'कल' का मतलब जानता था | दूर दूर तक सारी दुकानों क़ी बत्तियाँ  बंद थी | कहीं रौशनी  क़ी हलकी किरण भी नहीं दिख रही थी | अरे हाँ, उधर रौशनी थी |

'गोयल किराना स्टोर' वाला दुकानदार रिक्शे से कुछ सामान उतरवा रहा था |

बनियान पायजामा पहने , हलकी सी गंजी खोपड़ी, उसने भी पहले मना कर दिया ,"आज दुकान बंद है | कल आइये |"

हम दुकान के बाहर आ रहे थे कि उसने पूछा ,"वैसे क्या चाहिए ?"

"हम कल आ जायेंगे | " श्यामलाल मामा बोले ," कोई जरुरी सामान नहीं ...|"

:लट्टू" उनकी बात काटकर मैं बोला "बस एक लट्टू |"

गोयल क़ी दुकान वाले ने मुस्कुरा कर हमें अन्दर बुला लिया | एक दराज खोली और आठ दस लट्टू सामने टेबल पर फेंक दिये ,"बस, मेरे पास इतने ही लट्टू हैं |"

वाह , क्या प्यारे प्यारे लट्टू थे | मन तो कर रहा था , सारे लट्टू बटोर लूँ |
 
तो जो लट्टू मैंने लिया वह गहरे हरे रंग का था | बीच में हलके गुलाबी रंग क़ी एक पट्टी थी | और जहाँ पर उपरी सतह एक ढलान में बदलती थी, वहां पीले रंग क़ी एक पट्टी थी | लगे हाथों उसके साथ में आधे मीटर क़ी एक लट्टू की रस्सी भी ले ली |

घर में बबलू भैया ने सबसे पहले उसे चलाकर देखा |

एक बार नहीं, दो बार नहीं, पूरे  पांच बार ...|

"बैलेंस ठीक है |" उन्होंने घोषणा कर दी |

"परछी" ही मेरा अभ्यास प्रांगण ' बन गया | सबसे पहले कौशल भैया ने लट्टू में रस्सी लपेटना सिखाया | ढीली ढाली रस्सी बाँधने  से काम नहीं चलेगा | हर लपेट को खीँच कर बाँधना पड़ता है | 'भुसक' बाँधने से काम नहीं चलेगा |

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सिल-बट्टे के सिल से रस्सी का एक छोर कुचल-कुचल कर "घोड़े क़ी पूंछ' निकाली गयी और वहां एक गाँठ बाँध दी गयी | रस्सी के दूसरे छोर पर दो बड़ी गांठ बाँधी गयी | जब कोका कोला या गोल्ड स्पोट का ढक्कन मिल जाये तो  उसे वहाँ फँसा देना था |

जब रस्सी बंध जाए तो उसे झटके से खींचना पड़ता है जितने जल्दी खिंचोगे , उतना ही अच्छा लट्टू चलेगा | यह पहला गुरुमंत्र था | 

यत्र-तत्र कतिपय कुछ और गुरुमन्त्रों  के साथ मैंने लट्टू चलाना सीखना शुरू किया | एकलव्य क़ी तरह 'लड़की छाप' चलाने का सतत अभ्यास करता रहा | आखिर एक-डेढ़ घंटे के बाद पहली बार लट्टू पूरे दो चक्कर घुमा | मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा |

"चल गया ?" कौशल भैया आँगन की  कुटिया से आकर बोले ," चल , अभी लोगों को खाना खाने दे | फिर बाद  में चलाते रहना |"

मुझे होश आया कि 'परछी' न केवल मेरा मेरा अभ्यास प्रांगण था, अपितु  भोजन कक्ष भी था | शशि दीदी ने  पहले वहां झाड़ू लगाया और फिर पीढ़े रख दिए  ताकि लोग बैठकर खाना खा सकें |

खाना खाने के बाद मेरा अभ्यास सतत जारी था | अब लट्टू करीब हर बार चलने लगा था | कई बार कम , कई बार ज्यादा | माँ और शशि दीदी ने बर्तन माँज लिए थे और अब लोग सोने की तैयारी कर रहे थे | आखिर वे कब तक इंतज़ार करते | उन्हें बताना पड़ा कि परछी मेरा अभ्यास प्रांगण ही नहीं, बल्कि, कुछ मेहमानों के शयन का स्थल भी है |

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घर के अन्दर चिकने फर्श पर लट्टू चलाना एक बात है और मुरम की उबड़ खाबड़ सड़क पर ? वह एक दूसरा ही अनुभव था  |

मैं परछी के फर्श पर तो अच्छे से लड़की छाप चला लेता था, किन्तु  बाहर उबड़ खाबड़ सड़क पर ? ऐसा लग रहा था, मानो लट्टू की नोक सड़क छूते ही बिदक जाती थी  |

"टुल्लू , मैं बताऊँ ?" मुझे पता ही नहीं था क़ि सोगा  अपने घर के गेट से देख रहा था  |

क्या ये मेरा भ्रम था ? हाँ , मेरे कान बज रहे थे शायद | या कमाल हो गया - क्योंकि  सोगा मेरी ओर ही देख रहा था |
 चलो, किसी ने तो बात क़ी |

मैंने लट्टू और रस्सी दोनों उसके हवाले कर दी |
 
रस्सी बांधकर उसने कहा ,"जोर से फेंक और जोर से खींच |" उसने वही किया और लट्टू चल पड़ा |

मैंने रस्सी बाधी |
 
"जोर से फेंकूं ?"

"हाँ | और रस्सी जोर से खीच |"

मैंने इतने जोर से लट्टू फेंका कि वह सड़क पार करके मुन्ना की नाली में जा धुसा |

धोखा - मेरी नज़रों का धोखा था ये | नहीं, मैंने नम आँखों से देखा |

लट्टू उठाकर मुझे देने वाला और कोई नहीं मुन्ना था |

लेकिन उसने लट्टू वैसे नहीं दिया | पहले उलट पुलट कर देखा परखा ,"एक भी गूच नहीं, एक भी खरोंच नहीं ....|"

"नया लट्टू है |" मैंने गर्व से कहा |

मुन्ना ने दूसरा गुरुमंत्र दिया ,"अबे, जोर से लट्टू फेंकने के पहले रस्सी कस के बाँध | लुंज पुंज रस्सी से काम नहीं चलेगा | ताकत लगा के बाँध ....|"

क्या ये चमत्कार  नहीं था ?

मैं तो उनके पुकार की कितने दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था | एक निर्जीव लट्टू ने उनको ही पुकार कर बुला लिया और टूटे धागे फिर से जोड़ दिए |

बचपन की दोस्ती के धागे ना जाने कितनी बार टूटे और कितनी बार जुड़े | कभी कोई गाँठ ही नहीं पड़ी ...|

सामने की दो उंगलियाँ फैलाये छोटा सुरेश खड़ा था | मैंने भी अपनी दो उंगलियाँ निकाली |

उसकी दो उंगुलियों से अपनी दो उंगलियाँ छुवाई और कहा ,"मिट्ठी"|

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जब लट्टू चलाना , हप्पू करना और हाथ में लेना सीख ही लिया था तो बचा क्या था ?

वो हम सब की ज़िन्दगी का पहला 'हप्पू की बम बम' था |

"देखो भाई | जो हारेगा , उसकी लट्टू में गूच मारे जायेंगे | रोना मत |" बबन ने निर्धारित किया |

"दो दो गूच ...|"  सोगा बोला |

लेकिन खेल हो ही नहीं पाया | किसी कारणवश नहीं, एक ही, केवल एक ही, एकमात्र कारण से |

"मैं भी खेलूँगा लट्टू |"मुसीबत की जड़ शशांक कहाँ से टपक गया ?

"तेरा लट्टू कहाँ है ?"

ये है न ?" उसके हाथ में प्लास्टिक का कोई फ्रेम था |

"ये क्या है ? " सब अचम्भे में पड गए |

"मेरा टॉप ... मेरा लट्टू ...|" वो बोला |

"चलाकर दिखा ?"

उसने जेब से प्लास्टिक का ही लट्टू टिकाने का ढांचा निकाला | प्लास्टिक की एक दांतेदार डंडी निकाली | वो लट्टू ऐसा आकर्षक था कि सब देखते रहे | उसने लट्टू को फ्रेम में रखा, दांतेदार डंडी फंसकर जोर से खींचा | लट्टू अपने आप फ्रेम से उड़ा , थोड़ी देर हवा में लहराया और तेजी से ज़मीन में घूमने लगा | क्या लट्टू था ? ना तो कोई अभ्यास , न किसी साधना की जरुरत |

हम सब देखते रह गए |

अब सब  अपना खेल छोड़कर उसके पीछे पड़  गए |

"दिखा , एक बार दिखा | मुझे चलाने दे ... |"

मैं थोड़ी दूर खड़ा लोगों को उसकी चिरौरी करते देखता रहा | मुझे तो अपना रस्सी वाला, लकड़ी का लट्टू ही अच्छा लगा | किसी ने उससे नहीं पूछा , किसी ने नहीं, कि उसका 'हप्पू' वो कैसे लेगा ! उस लट्टू को छूकर देखने और चलाने के लालच में बबन ये भी बताना भूल गया कि हारने वाले की लट्टू में दो दो गूच मारे जायेंगे |

"दिखा..., मुझे दिखा...., शशांक मुझे चलाने दे .....| नहीं मैं पहले बोला था ...| तेरे बाद मेरा नंबर ....|"

मेरे कदम मुझे घर की ओर ले जा रहे थे, पर वे आवाजें मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी |

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उन दिनों कभी-कभी लाइट चले जाया करती थी | हर दिन नहीं, आये दिन नहीं, कभी कभी, बिना बताये  या पूर्व सूचना के | जब भी ऐसा होता  तो मुझे सोगा के घर की ओर दौड़ाया जाता ,"जा पूछकर आ | उनके घर लाइट है क्या ?" अगर रात का समय होता तो यह काम बिना पूछे हो जाता | बाहर निकल कर देख लो | अगर दिन होता , तो पूछना पड़ता | तब सोगा अपने घर की लाइट जला कर देखता | कई बार ऐसा होता कि मैं जब पूछने उसके घर   भागकर जा रहा होता तो वह वही सवाल पूछने मेरे घर क़ी ओर आ रहा होता | फिर दोनों के मुंह  से एक ही सवाल बरबस फूट पड़ता,"तेरे घर में लाइट है ?" अगर दोनों के घर में लाइट नहीं होती तो हमारा अगला पडाव मुन्ना का घर होता | फिर अगला कदम होता , बबलू या कौशल पूछताछ दफ्तर में जाकर रिपोर्ट लिखाते और हम इलेक्ट्रिशियन के आने क़ी प्रतीक्षा करते |

लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता, जब पूरे सड़क या पूरे सेक्टर  या जहाँ तक निगाह जाए, दूर दूर तक लाइट चले जाती थी और हमें तुरंत पता लग जाता था |

इस तरह जैसे ही लाइट जाती, सड़क में हल्ला मच जाता " हो SSS " | और सुर में सुर मिलाकर "हो SSS " चिल्लाते हम भी  बाहर आ जाते | तब सड़क पर कितना प्रकाश होता, यह चाँद और उसकी कला पर निर्भर करता था | ऐसे अँधेरे में माएँ भी घर से बाहर निकल कर सड़क में चहलकदमी करती थी और एक दूसरे से उस दिन बनाई गयी सब्जियों से चर्चा प्रारंभ  होकर 'कौन कितनी रोटी खाता है ' से होते हुए दूर, कहीं दूर दूर तक निकल जाती थी | वैसे जाये भले ही कितनी दूर,  दायरा हनेशा घर परिवार का ही होता था |

लड़कियां  घेरा बनाकर बात करते रहती थी |
 
और हम लोग ?
 
अँधेरे में चोर पुलिस खेलने का मज़ा ही कुछ और था |

तो बत्ती गुल हुई और हम "हो SSS " चिल्लाते हुए सड़क पर भागे | सारी दिशाएं मैदान क़ी ओर मुड़ गयी | अँधेरे में चेहरे पहचान पाने के लिए आँखें अभ्यस्त नहीं हो पायी थी पर   "हो sss " से आवाजें तो पहचान में आ रही थी |
लेकिन शशांक के घर में सामने वाले कमरे में मोमबत्ती जल रही थी | साफ़ दिख रहा था कि खिड़की के पास बैठा वह पढ़ाई कर रहा था | वह खुली किताब देखता और एक कॉपी  में कुछ लिखते जाता | बबन ने सीटी बजाई ,"फुर्र्र"|

"अबे चुप |"  मुन्ना ने उसे घुड़की दी |

शशांक ने एक पल बाहर नज़र दौड़ाई , फिर वह एक बार फिर किताबों में खो गया |

अभी हम  देख ही रहे थे कि मोमबत्ती के  प्रकाश  में एक और साया नज़र  आया | वो साया, जो शशांक का  ही साया था | जब  वह चलता, साया , साथ  चलता | अगर  साया  साथ  नहीं  होता  तो विश्वास मानिये , उसकी आँखें जरुर कहीं आसपास होती और शशांक की  निगरानी  करती  |

शशांक ने कुछ पूछा और लगता तो यही था कि उसकी मम्मी ने उसे झिड़कते हुए कुछ समझाया | एक समझदार बच्चे की तरह उसने सर हिलाया | उधर हम लोगों ने 'पुगना' चालू किया | हम लोग टोटल सात  थे | कायदे से देखा जाए तो आधे चोर बनते और आधे पुलिस ; पर सब के सब चोर बनना चाहते थे | इसमें 'नैतिकता' , 'कलियुग', 'ज़माना', 'चारित्रिक पतन' , 'रसातल  में जाती दिग्ब्रमित पीढ़ी ' जैसी कोई बात नहीं थी | ये एक खेल था और चोर बनने का अलग ही मज़ा था | किसी को छकाने की अपेक्षा पकड़ना कहीं ज्यादा मुश्किल काम था | और पकड़ कर चोर को घसीट कर खम्बे तक लाकर खम्बा छुआना होता था | तभी वह 'आउट' माना जाता था और चोर से पुलिस बनकर बाकी पुलिस वालों की मदद करता था | यह 'छुआ छुई' नहीं था कि छू लिया और काम ख़तम | ये 'रेस टीप' भी नहीं था कि देख लिया और हाथ साफ कर लो | पकड़ कर घसीट कर लाने के लिए अनिल जैसे कद्दावर लड़के क़ी जरुरत पड़ती थी | और अगर अनिल खुद चोर बन जाए तो पुलिस वालों के दांतों तले पसीना आता था |
तो हम 'पुग़' रहे थे | तीन तीन करके बच्चे अपनी एक एक हथेली एक के ऊपर एक रखकर हवा में उछालते | उसके बाद हम अपनी मर्जी के मुताबिक या तो हथेली पलट कर 'सफ़ेद' सामने  करते या  त्वचा वाला 'काला'  हिस्सा | अगर दो 'काले' और एक सफ़ेद होता , तो सफ़ेद वाला 'निकल' जाता और फिर उसकी मर्जी होती क़ि वह चोर बने या पुलिस | अगर एक काला और दो सफ़ेद होते तो 'काला' निकल जाता | यह हमने तय किया था , क़ि चूँकि सात लोग हैं और सब के सब चोर बनना चाहते हैं, पुलिस केवल तीन रहेंगे - यानी तीन बदकिस्मत , जो अंत तक बच जाएँ |

अभी हम 'पुग़' ही रहे थे क़ि खींसे निपोरते हुए शशांक आ गया |

ज़रा उसकी बत्तीसी तो देखो | अँधेरे में केवल उसके दांत और चश्मा चमक रहे थे  | इलास्टिक वाली पेंट ऊपर खींचकर उसने मानो ऐलान कर दिया ,"मैं भी चोर बनूँगा  |"

किसने मना किया है मेरे भाई ...| चोर बनना है तो 'पुगो' और निकलो ...| उसकी तकदीर ऐसी कि पहली बार में ही वह निकल गया ...| अब उसकी किलकारियां देखो और अपना सर घुनो ...|

चोर पुलिस का खेल अभी शुरू होता इससे पहले ही लाइट आ गयी |

"हो SSS " , जैसे बच्चे , जिस आवाज़ में चिल्लाते  हुए लाइट जाने पर आये थे , लगभग उसी आवाज़ में चिल्लाते हुए अपने अपने घरों की ओर भागे | क्या  चोर, कौन पुलिस, सब कुछ धुल गया |

केवल एक ही बच्चा था, जिसके पाँव में स्प्रिंग नहीं फिट थी | वह धीरे-धीरे, बल्कि ठिठक-ठिठक कर मंथर गति से घर की  ओर बढ़ रहा था | उसके घर के बरामदे की लाइट बंद थी पर ध्यान से देखने से साफ़ पता चल रहा था कि उसका साया उसका इंतज़ार कर रहा था  |

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हम सब सकते में आ गए | सहसा हमें विश्वास नहीं हुआ पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था | आखिर उसके पडोसी बबन के घर की एक दीवार साझे की थी | ठीक वैसे ही, जैसे हमारी और सोगा लोगों के घर की एक दीवार साझे की थी | भले ही वह बिना मिलावट के सीमेंट की बनी थी , पर जब भी मगिंदर को झापड़ पड़ता, उसकी गूंज  दीवार फांदकर हम तक पहुँच जाती थी |

"क्या सचमुच ?" हमने पूछा |

"मैं झूठ क्यों बोलूँ ?" बबन ने तटस्थता से  कहा |

"माँ कसम खा |" मुन्ना पक्का कर लेना चाहता था |

"माँ कसम ...|"

"क्यों मारा होगा बेचारे को छड़ी से , यार ? वो रो रहा था ?"

"तुझे छड़ी से सडासड़ मार पड़ेगी तो तू नहीं रोयेगा ?"

उन दिनों बच्चों को मारना पीटना कोई बड़ी बात नहीं थी | हम सब मार खा खाकर ही तो बड़े हुए थे | पर हर मार के पीछे कोई न कोई सबक होता था, कोई न कोई कारण होता था |
 
"क्या कारण था यार ?"

कारण जानने का यह सबसे सामान्य प्रश्न बिला वजह नहीं  था | सबक सीखने के लिए खुद गलती करना जरुरी नहीं था, दूसरे को मार खाते देख, उसकी गलतियों से हम भी सबक सीख जाते थे | दीपक एक ज्वलंत उदाहरण था |
 
"पता नहीं | लगता है, उसकी मम्मी ने उसे 'होम-वर्क' करके जाने को कहा था और वो बिना 'होम वर्क' किये खेलने भाग आया था |"

"पर बिचारा मोम बत्ती में बैठकर कर तो रहा था | लाइट तो चले गयी थी | सब तो खेल रहे थे | लाइट आने पर भी तो वो 'होम वर्क' कर लेता ...|"

हौवा कौन सा बड़ा था ? 'होम वर्क' का या उसकी मम्मी का ? मुझे सचमुच 'होम वर्क' से डर लगने लगा | मुन्ना की माँ भी अक्सर उसे 'होम वर्क' के लिए बैठा देती थी| छोटा सुरेश, बड़ा सुरेश सभी 'होम वर्क' को लेकर परेशान रहते थे |
 
फिर अचानक मुझे लगा कि बात शायद 'होम वर्क' नहीं कुछ और है, जिसके लिए उसकी मम्मी परेशान है ......| पर क्या ?

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गुबरैला पकड़ना ? पकड़ के माचिस क़ी डिब्बी में डालना ? कहाँ से टपका यह शौक  ?

पता नहीं कैसे शुरू हुआ - पर जिसे देखो, सभी वही कर रहे थे |

मुन्ना हमें सोगा मगिंदर  के घर के पीछे क़ी बेशरम क़ी झाड़ी में ले गया  - अन्दर - और अन्दर ... |

"देख|" उसने उंगली से इशारा किया |

हमारी आँखें फटी क़ी फटी रह गयी |

डाल पर ढेर सारे गुबरैले बैठे हुए थे | कोई भी हिल नहीं रहा था | कितने खुबसूरत लग रहे थे | मानो बेशरम क़ी डाल में बिल्लोर के छोटे छोटे टुकड़े टंगे हों | ज्यादातर  गुबरैले लाल रंग के थे, जिन पर काले काले बिंदु थे | कुछ हलके हरे भी थे और कुछ हरे नीले |
 
"तुझे पता कैसे चला ?" बबन ने अविश्वास से  पूछा |

"मैंने इक्कीस सडक के सुनील को यहाँ घुसते देखा था | जब वह गया तो मैंने जाकर देखा | यहाँ तो भण्डार  है |"
तात्पर्य यह कि बडे हों या छोटे , सब के सब को शौक चर्राया था- गुबरैले पकड्ने का | गुबरैलों की खोज में लोग बेशरम या हैज की झाड़ी या कोइ अन्य , आवारा झाड़ियों में बेधड़क घुसकर ध्यान से देखते  थे |

लोग  गुबरैलों का संकलन अपने जेव में रख्कर घूमते थे और गर्व से एक दूसरे को दिखाते थे | वे आपस में आदान प्रदान भी करते थे ," तू मुझे एक हरा वाला दे दे, मैं तुझे नीला वाला देता हूँ |"

जिन्हें गुबरैलों  का संकलन करने  में कोइ दिलचस्पी नहीं थी, वह या तो दुल्लु था या शशांक जैस लड़का  |

"अबे छू के तो देख | " बबन ने माचिस की डिब्बी सामने कर दी,"काटेंगे नहीं |"

शशांक अभी भी हिचकिचा रहा था |

"अबे छू ले | तेरे हाथ गन्दे नहीं होंगे |" मुन्ना बोल़ा |

" छू ले | तेरी मम्मी को नही पता चलेगा |"

... और शशांक गम्भीर हो गया | उसने कुछ कहा नहीं | शायद उसे ठेस पहुंची थी | वह पीछे मुडा और चलने लगा | ना तो किसी ने उसे रोकने के लिए पुकार और ना ही उसने पीछे मुड़ कर देखा |

उसका हमारे साथ् वह आखिरी दिन था | उसके बाद वह कभी हमारे साथ खेलने नहीं आया | कभी नहीं ...|

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मौसम बदलने लगा | देखते ही देखते आँगन के आम के पेड़ पर मौर लगने लगे | एक दिन माँ के अनुदेश पर छत पर चढ़कर कौशल भैया ने एक नयी 'खरारा बहिरी' (मोटे सींक वाली झाड़ू ) आम के पेड़ के एक डाल पर बाँध दी | बस , फिर क्या था ? देखते ही देखते पूरा पेड़ आम के मौरों से भर गया | गर्मी बढ़ने  लगी थी | कुछ ही दिन पहले तो माँ कभी-कभी बाहर धूप  में घेरे की लकड़ियाँ बटोर कर चूल्हा जलाती थी | तापक्रम बढ़ने के साथ ही अब वह सब बंद हो गया |

मच्छर भी, अचानक पता नहीं कहाँ से , भिनभिनाने लग गए | होली के बाद तो गर्मी और भी बढ़ गयी |

रीटू के घर के पीछे, शाला नंबर ८ के सामने से जाने वाली सड़क के बगल में एक पानी का एक डबरा था | देखा जाये तो किसी काम का नहीं था | न तो उसमें लोग कपड़े धोते या धो सकते थे | नहाने का तो सवाल ही नहीं था | इतना गन्दा पानी आदमी तो क्या, जानवर भी नहीं पी सकते थे |

उसमें मछली भी तो नहीं थी | कीचड़ ही कीचड़ था |

उसमें हम पत्थर फेंक रहे थे - मैं और मुन्ना |

' देख तो तेरा पत्थर पानी से टकराकर डूबना नहीं चाहिए |एक बार टकरा के उछलना चाहिए ? समझे ? चल फिर कोशिश कर }"

अभी वहां बी. एस. पी. की गाड़ी रुकी } मुँह में कपड़ा बाँधे कुछ लोग कूदकर बाहर आये |

सबसे पहले उन्होंने  हमें इशारों से दूर जाने को कहा | फिर बंदूक क़ी तरह एक मशीन निकाली और डबरे क़ी तरह मुँह करके  मानो गोलियाँ दागने लगे | आवाज़ कुछ वैसे ही थी पर गोलियों के बजाय  बदबूदार धुआं निकल रहा था | फिर उन लोगों ने एक बड़ी सी बोतल निकालकर उसका द्रव पानी में मिला दिया  | अगले ही मिनट वे जैसे आये  थे वैसे ही चले गए |

सूरज क़ी किरणे पड़ने से डबरे का पानी बहुरंगी दिखने लगा |
 
"फिनाइल डाला है न टुल्लू ? देख फिनाइल क़ी बदबू आ रही है ...|"

बदबू इतनी जोरदार  थी क़ि वहाँ ठहरना दूभर हो गया था | सारे के सारे मच्छर भिनभिनाते हुए भागे | अपना हाथ पांव खुजलाते  हुए हम भी भागे |

अभी शाला नंबर आठ के पास पहुंचे ही थे क़ि ,"फट ..." आवाज़ आई और एक चिड़िया ज़मीन पर आ कर गिरी | साथ में दुल्लू के हँसने की  आवाज़ आई |

"देखा तूने ... | देखा न मेरे गुलेल का निशाना ....| " वह अपनी गुलेल फटकारता हुआ दौड़े -दौड़े आया ... | साथ में मंजीत ....| मंजीत ने उस मासूम सी चिड़िया को  हाथ में उठा लिया ...|

"देख बे , देख ! कैसे देख रही है बेचारी ...|" दुल्लू का प्यार उमड़ आया |

"पानी पिला बे इसको पानी पिला .. | " उसने उसके सर में प्यार से हाथ फेरा ,"पानी पिला दे बे इसको ..| मरने मत दे ...|"

वे उसे लेकर डबरे के पास जा ही रहे थे कि मुन्ना ने चिल्लाकर कहा ," नहीं  , डबरे का पानी मत पिलाओ | उसमें दवाई डाली है ...| ये मर जायेगी ... |"

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गुबरैले पकड़ने और पालने का शौक जैसे हवा में उड़कर आसमान छू रहा था, वैसे ही फुस्स होकर सिकुड़ गया और धरती चाटने लगा |

पाटिल साब की छोटी लड़की- वही बाहर निकले दांत वाली छोटी - हाथ नचाकर कह रही थी , "सेक्टर नाइन के अस्पताल में तीन बच्चे भरती हो गए | एक , दो नहीं, तीन - तीन बच्चे ...| डाक्टर जैन बोल रहे थे , गुबरैले पकड़ने से बीमारी फ़ैल रही है | जो- जो बच्चे गुबरैले पकड़ने जा रहे हैं, सब के सब बीमार पड़ेंगे | सब के सब ....|"

बच्चों में बीमारी वाकई में फ़ैल रही थी |
 
गर्मी इतनी पड़ रही थी कि अब मदार के फूल की झाड़ी  के पास जाकर तितली पकड़ना भी मुश्किल सा हो गया | पता नहीं क्यों, उस दिन पीली वाली सदा से फुर्तीली तितली तो दूर की बात, मैं काले पंख में पीले पीले छींटे वाली तितली भी नहीं पकड़ पा रहा था | प्यास लग रही थी | जब मैं घर के अन्दर  घुसा तो ढेर सारे बच्चे हाथ फैलाकर घूम रहे थे ...|

"अब रुको ..|" शशि दीदी ने कहा ...| संजीवनी, किकी, गुड्डी , पिकलू - सब रुक गए ... | मैं भी उनमें शामिल हो गया ...|

"अब घूमो ...|" सब हाथ फैलाये घूमने लगे ...| थोड़ी ही देर में मुझे लगा, मेरे पांव के नीचे जमीन घूम रही है ... |

"अब रुको ...| वो बोली ...|

सब रुक गए | हे भगवान्, ज़मीन अभी भी घूम रही थी ....|

"अब  घूमो... |" सब फिर घूमने लगे ...| पांव ने नीचे जमीन भी घूमने लगी ... फिर पांव के नीचे जमीन इतने जोर से घूमने लगी कि मुझे जाड़ा लगने लगा | ठण्ड से मैं कापने लगा था ...| ज़मीन और तेजी से  घूमने लगी और अगले ही पल मैं धडाम से ज़मीन पर गिरा ...| ठण्ड से मैं अब भी कांप रहा था |

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बुखार में मेरा यह पाँचवां  दिन था  शायद | पाँच दिनों से माँ मेरे लिए जब तब बार्ली और कभी ग्लूकोस का पानी बनाती थी |
 
जब कभी रसोई घर में घुसता, इधर उधर बार्ली के अनेक डिब्बे  दिखते | टीन के डिब्बे होते थे | बार्ली ख़तम होने के बाद माँ कभी भी उन डिब्बों को फेंकती नहीं थी | किसी में हींग, किसी में  जीरा , किसी में हल्दी तो किसी में मिर्ची का  पाउडर डाल देती | किन डिब्बों में क्या है, केवल माँ को ही पता था | मैं तो वैसे भी खाना नहीं बनाता था, लेकिन जो सहायक थे , जैसे शशि या शकुन या बेबी, उनको भी बड़ी मुश्किल होती थी | एक बार माँ अपने मायके यानी बिदबिदा गाँव गयी थी और खाना बनाने की जिम्मेदारी शशि पर आ गयी थी | तब जरुरत का मसाला खोजने पर भी नहीं मिला | दाल गल गयी और बिना घोंटे ठंडी भी हो गयी , पर हल्दी नहीं दिख रही ...| सारे  तो बार्ली के पीले या अमूल दूध पाउडर के नीले डिब्बे थे | बाबूजी काफी भन्नाए और फिर सारे डिब्बों पर कागज़ के छोटे छोटे नामांकित लेबल  लगा दिये गए -'हींग', 'हल्दी', 'अजवाइन', 'मिर्ची' - और न जाने क्या क्या ? | जब माँ वापिस आई तो उनकी हँसी छूट गयी| उन्हें लेबल वगैरह से कोई खास सरोकार नहीं था | जब महीने का समान चंद्राकर किराना  स्टोर से आता तो जो भी डिब्बा खाली होता  उसमें मसाला डाल दिया जाता | फल यह हुआ कि दो तीन महीनों बाद फिर से ढाक के टीन पात | जिन डब्बों में हींग लिखा था, केवल माँ को पता था कि उसमें जीरा है |

उस दिन मैं बिस्तर से उठकर किसी तरह चलते हुए आधी नींद में रसोईघर पहुंचा | माँ पीढ़े पर बैठी रोटी बेल रही थी | ऐसी शांति थी घर में, मानो कानों में 'भाँय-भाँय' सीटियां बज रही हों  | मेरे और माँ के सिवाय कोई भी नहीं था |

"बार्ली बना दूँ ?" माँ ने पूछा |

मुझे ऐसा लगा, मानो माँ की आवाज़ बहुत दूर से आ रही है |

"बार्ली पिएगा ?" माँ ने फिर पूछा | 

माँ क़ी बात सुनकर मेरी नज़र बार्ली के डिब्बे पर पड़ी | पीले नारंगी   रंग का  डिब्बा - एक माँ अपने छोटे से नंग धडंग बच्चे को पुचकार रही थी | उस  फोटो में ही माँ और बेटे के बगल में एक बार्ली का डिब्बा रखा था | उस  तस्वीर के अन्दर के डिब्बे के में भी वैसे ही एक माँ और बेटे क़ी तस्वीर बनी थी और बगल में एक बार्ली का डिब्बा रखा था | तस्वीर के अन्दर क़ी तस्वीर के अन्दर के बार्ली के डिब्बे में भी माँ और बेटे क़ी तस्वीर ... और हाँ... वहाँ  एक बार्ली का डिब्बा रखा था , जिस पर ....| .... मेर सर घूमने लगा |

"बार्ली  बना दूँ ?" दूर कहीं बहुत दूर से माँ क़ी फिर आवाज़ आई |

"नहीं माँ, कुछ और है खाना कहने के लिए ?" मुझे लगा मेरी भी आवाज़ कुछ उतनी ही दूरी से आ रही   है |

"खिचड़ी बना दूँ ?" माँ ने पूछा ,"गरम गरम खिचड़ी और आम का अचार ...?"

"माँ , भूख लगी है ...| कुछ और नहीं है ..?"

"दूध रोटी खायेगा ...?"

दूध रोटी का मैंने दो कौर ही खाया होगा कि पेट में जोर से उधर पुथल मची और मैंने उलटी कर दी |

पानी से भींगा ठंडा कपड़ा मेरे सर पर ठोंकते हुए माँ बड़बड़ा रही थी ,"जरहा (बुखार) का मुँह, सब कुछ कड़ुवा  कड़ुवा लगता है | है न ?"  

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मलेरिया के उस बुखार में रोज बारह से एक बजे के बीच मुझे जोरसे कंपकपी होती थी |

कभी मुझे लगता ये मलेरिया नहीं कुछ और है | कभी लगता, शायद मैं कभी ठीक नहीं हो पाऊँगा | पता नहीं नींद कब आती थी और मैं कब जागते रहता था |मुझे कभी मोटी बिल्ली दिखती तो कभी मुन्ना के भाई का मुस्कुराता हुआ चेहरा नज़र आ जाता था |

उस दिन मेरीं नींद शायद दोपहर को खुली | करवट बदल कर मैंने देखा - बाबूजी मेरे पास चिंतित मुद्रा में बैठे थे |
मुझे जागते देखकर उन्होंने लकड़ी के खोल से तापमापी निकाला और उसे झटक कर उसमें अटका हुआ पारा सामान्य करने लगे | इससे पहले कि तापक्रम लेने वे उसे मेरी जीभ के नीचे रखते , मैंने पूछ ही लिया |

"बाबूजी, नरक में हरदम आग जलते रहती है न ? वहाँ सब को कोड़े से मारा जाता है न ?"

"हाँ बेटा |" बाबूजी धीरे से बोले |

" बाबूजी, वो मोटी बिल्ली - जो रोज दूध पी जाती थी - वो क्या नरक गयी होगी ? छोटे बच्चे क्या मरने के बाद सीधे स्वर्ग जाते हैं ? क्या मैं भी स्वर्ग  जाऊंगा ? बाबूजी, मैं मर जाऊंगा न ?"

"नहीं बेटे, ऐसा नहीं कहते |" बाबूजी बोले ,"तुम कहीं नहीं जाओगे  तुम यहीं रहोगे | तुम जल्दी अच्छे हो जाओगे ...|"

पता नहीं, कितनी सुबहों और कितनी रातों के बाद , न जाने कितनी गोलियाँ  खाने के बाद  मुझे कुछ अच्छा लगने लगा | फिर भी मैं कुछ खा नहीं पाता था | माँ ठीक ही कहती थी ,"' जरहा मुंह (बुखार का मुंह ) कडवा होता है |" कौशल भैया अलग झल्लाते रहते थे ,"घर में आलसी जैसे पड़े रहोगे तो कभी ठीक नहीं होगे | खुली हवा में सुबह शाम घुमो फिरो | ये क्या दिन भर घर में घुसे रहते हो ?"

मैं घर के बाहर निकला, गेट के पास मेहंदी के पेड़ के नीचे खड़े रहा | लड़कियों का 'आमलेट चाकलेट" का खेल देखते रहा | मेरा कोई भी दोस्त नहीं नज़र आ रहा था | क्या गुबरैला पकड़ने के कारण सब बीमार पड़ गए थे ? अपने घर के बाहर छोटा और दीपक प्लास्टिक के बेडमिन्टन से खेल रहे थे | उन्हें देखकर मन और खिन्न हो गया | अब छोटा वह सीधा सादा छोटा नहीं रह गया था | अब उसे दीपक ने बातें बनाना , बातें छिपाना , घमंड करना - सब कुछ सिखा दिया था ,"मेरे घर में मेरा भाई नया 'लोटपोट' लाया है | क्या अच्छी अच्छी कहानियाँ है, मोटू पतलू, चाचा चौधरी , दीपू ....| 'पराग' और 'चंदामामा' से दस गुना अच्छी |  जा जा, तुझे कौन दिखायेगा ? मेरा भाई नया 'व्यापार' लाया है | 'व्यापार' मालूम है ? 'सांप सीढ़ी'  , 'लूडो' से भी अच्छा खेल | जा जा , मुंह धो के आ |  तुझे कौन खिलायेगा ?"

यह सब दीपक क़ी भाषा थी, जो अब वह भी बोलने लग गया था | 'पराग' और 'चंदामामा' तो घर में पेपर वाला डाल जाता था | कौशल भैया 'नंदन' भी ले आते थे | कभी बेबी तो कभी लक्ष्मी  भैया मुझे कहानियाँ पढ़कर सुना देते थे | अब मुझे लगने लगा, जिसने  'लोटपोट' नहीं पढ़ा , उसने तो कुछ भी नहीं पढ़ा | मेरे घर में 'सांप सीढ़ी' और 'लूडो' एक ही बोर्ड में थे | अब तक मुझे मालूम था कि 'सांप सीढ़ी' सबसे अच्छा खेल है | अब लगने लगा ,"व्यापार" "व्यापार" "व्यापार" - पता नहीं कैसे  खेलते हैं - 'सांप सीढ़ी' से लाख गुना अच्छा है |

मैं बिस्तर में लेटा छत पर घूमते हुए पंखे की ओर देख रहा था | बाबूजी ने पूछा ," क्या चाहिए बेटा ?"

"लोटपोट " मैं बोला |

"लोटपोट ?"

"हाँ लोटपोट |"

बाबूजी ने कौशल को आवाज़ दी, उसे पैसे थमाकर बोले ,"लोटपोट ले आना भाई |"

ये तो शाम की बात थी | सुबह तक इरादा बदल गया था |

सुबह जब मैं उठा तो बाबूजी कोलेज जाने के लिए स्कूटर निकाल रहे थे | ना जाने मुझमें कहाँ से फुर्ती आ गयी | मैं दौड़कर उनके पास पहुंचा  ,"बाबूजी , मुझे 'व्यापार' चाहिए |"

"लोटपोट नहीं ?"

मैं फिर असमंजस में पड़ गया | वो बोले,"ठीक है, जो तुम्हें चाहिए , कौशल से बोल दो |"

कौशल ने मुझसे पूछा ,"तुझे 'लोटपोट' चाहिए या 'व्यापार' ?"

कोई जवाब नहीं .... |

"अरे कुछ तो बोल | दोनों में से एक चुनना पड़ेगा |ठीक है, मैं सेक्टर चार 'ए'-बाज़ार शाम को जाऊंगा | तब तक सोच लेना |"

शाम को भी स्थिति वही थी , जो सुबह ही थी | पर कौशल भैया ने मुझे दुविधा में नहीं डाला | कुछ पूछा ही नहीं |

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जब मेरी नींद खुली तो कमरे में अँधेरा छाया था |

क्या अभी रात है ? मैंने दिमाग पर जोर डाला ....| कहाँ हूँ मैं ? अरे हाँ | ये तो बिस्तर नहीं है | मैं तो लकड़ी के सोफे पर लेटा  हूँ | अरे हाँ, यह तो बैठक है ....| पर अँधेरा कैसा ? जब मैं लेटा था .... मैंने याद किया ... तब तो दोपहर थी ...| अगर अभी रात है तो ..... बाबूजी तो यहीं सोते हैं ...|
 
"खड़ खड़ खड़  खड़ ... छः और छः - बारह .... फिर से चल ....|" किसी ने कुछ कहा ...|
 
शरीर बुरी तरह दुःख रहा था | मैंने सावधानी से करवट बदली, ताकि नीचे न गिर पडूँ ...| सोफे की चौड़ाई कम ही थी ....| नीचे ज़मीन पर बबलू, बेबी , कौशल और शशि कुछ खेल रहे थे ...| वे एक नहीं, दो -दो पांसे एक साथ फेंक रहे थे ....| उनके सामने एक मोम बत्ती जल रही थी | मतलब कि लाइट गयी हुई थी ...| पर ये इतनी एकाग्रता से क्या खेल रहे हैं ? रौशनी बोर्ड के ऊपर झिलमिलाई ...  बीच में एक पानी का जहाज धुआं उड़ाते जा रहा था और कुछ लिखा था  ...  "हिंद का व्यापार ...|"

अच्छा , तो यह लोग 'व्यापार' खेल रहे हैं |

"'व्यापार' आ गया ....|" मैं जोश में उछलकर उठ बैठा ....|

किसी ने मेरे उत्साह क़ी ओर  ध्यान ही नहीं दिया ...| सबका चित्त तो व्यापार ने हर लिया था |

"हाँ , आ गया ...|" कौशल भैया ने तटस्थ भाव से जवाब दिया ,"और 'लोटपोट' भी ...|"

"कहाँ है लोटपोट ?" मैंने पूछा |

"टेबल पर रखा है ....|"

मैं अँधेरे में ही टेबल क़ी ओर लपका | ध्यान ही नहीं रहा कि ज़मीन पर व्यापार के कार्ड और बैंकर के नोट रखे हैं ...| एक ठोकर में सब बिखर गए ...|

ख़ुशी ही नहीं, दुगनी ख़ुशी ...| मैं सड़क में ढिंढोरा पीटने बाहर भागा ... | खासकर छोटे को बताने ....|

खिलाड़ी ज्यों के त्यों सर झुकाए जमे हुए थे | छोटा सच कहता था ....| 'लूडो' और 'सांप सीढ़ी' से बढ़कर था ये खेल ...|

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हम नंगे पाँव ही चल रहे थे | क्या गर्मी के दिन में ज़मीन पर अंगारे बिछ जाते हैं   ?  पता नहीं | क्या सूरज आग बरसाने लगता है ? शायद - हो सकता है | 'लू' लग सकती है ... | 'लू' क्या होती है ?

यही मेरा प्रश्न था |

कहाँ जा रहे थे हम ? निरुद्देश्य से ...| पता नहीं, बस, चले जा रहे थे | गर्मी क़ी दोपहर में सब झपकी ले रहे थे और मैं दबे पाँव - किसी के टोकने के पहले ही - बाहर निकल गया |

सरे राह में चलते चलते मुन्ना मिल ही गया | बस, फिर क्या था - एक से दो भले | मैदान पार करके हम इक्कीस सड़क में घुस गए और चलते रहे |

बीच बीच में मुन्ना जेब से कुछ  निकाल कर खाए जा रहा था |

"क्या खा रहा है , मुन्ना ?" मैंने पूछा |

"प्याज़ | प्याज़ खाने से लू नहीं लगती |"

"'लू' क्या होती है ?"

शाला नंबर आठ के पास पहुँच कर उसने टेलेफोन निकाला | टेलेफोन क्या था ? सामान का मोटा धागा , जितना लम्बे से लम्बा हो सके - उसके एक छोर में माचिस क़ी तीली वाला डिब्बा और दूसरे छोर में वही माचिस क़ी तीली वाला दूसरा डिब्बा -जो चोंगे का काम करता था | अब भला सामान का धागा कितना लम्बा हो सकता है | नहीं , नहीं, ऐसा नहीं  था कि हम धागा जोड़ जोड़ कर, टेलेफोन का लम्बा 'वायर' बना लेते | गठान बाँधने से आवाज़ 'कट' जाती थी | हमने "वायर" को जितना तान सकते थे , उतना तान दिया |
 
पहले मेरे बोलने क़ी बारी थी | मैंने कहा ,"ट्रिंग ट्रिंग | हेलो, में टुल्लू बोल रहा हूँ | सड़क में लोगों के क्या हाल चाल हैं | हेल्लो ...|"

फिर में मुन्ना को आवाज़ देकर  पूछ लिया , "कुछ सुनाई दिया ?"

"हाँ बिलकुल |" वह बोला |

"भगवान् कसम ?"
 
"भगवान् कसम | तू पूछ रहा था , सड़क में लोगों के क्या हाल चाल हैं?"

"अरे वाह | ये तो सच्ची मुच का काम  कर रहा है | अब तू बोल, मैं सुनता हूँ |"

मैंने अपने सिरे का माचिस का डिब्बा कान में लगाया | मुन्ना ने बोलना शुरू किया ,"बबन लोग सड़क छोड़कर जा रहे हैं |"

"क्या?" टेलीफोन या बिना टेलीफोन, मुन्ना ने जो बोला वो मुझे साफ़ सुनाई दिया | टेलीफोन का खेल वहीँ खतम हो गया | मैंने पूछा ," बबन  लोग सड़क  छोड़कर जा रहे हैं | मतलब ?"

"मतलब उनका घर बदली हो रहा है | "

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मंजा धागा ऐसे बनता है ?

"अंडे को फोड़कर एक कप में डालते हैं | जितने भी फ्यूज बल्ब हैं, सब को फोड़कर चूरा- चूरा कर लेते हैं ...| उस कांच के चूरे को अंडे के घोल में तीन दिन तक डूबा कर रखते हैं |"

"तीन दिन ?"

"हाँ | तीन दिन | फिर दो दिन तक धूप में सुखाते हैं | तब मंजा धागा बनता है |"

सब कुछ ठीक था | सामान का धागा काफी था | फ्यूज बल्ब भी मिल जायेगा | दुल्लू का गुलेल का शौक परवान चढ़ा था | वो जब तब सड़क के खम्बों के बिजली के बल्ब तोड़ा करता था | केवल जाकर बल्ब के टुकड़े उठाना भर था | मुन्ना ने दो -तीन फूटे बल्ब सम्हाल कर भी रख लिए थे |

समस्या थी तो केवल अंडे क़ी | सोगा को पटा रहे थे और वो बात नहीं मान रहा था | आखिर उसके घर क़ी मुर्गियाँ  रोज अंडा दे ही रही थीं | एक नहीं, तीन मुर्गियाँ | उसे केवल यह करना था , कि अपनी माँ और बड़ी बहन सारसा  की नज़र बचाकर एक अंडा जेब में डालना था और हमारे हवाले करना था |

बिना मंजे धागे के हम पतंग ज्यादा ऊपर भी उड़ा नहीं सकते थे ...| कोई भी हमारी पतंग काट सकता था |
सबकी परीक्षाएं हो चुकी थी | शाम होते होते  सड़क इक्कीस और बाइस के बीच का मैदान पतंग और पतंगबाजों से भर जाता था |
 
बबलू के कहने पर व्यास ने बी. टी. आई. की वर्कशॉप में एक स्क्रैप पाइप ली और दो लोहे की चादर के छोटे छोटे टुकड़ों को बगल में वेल्ड करके एक चरखी तैयार कर दी | मैदान में वो अकेला ही लोहे की चरखी वाला था |
हम बच्चों को भला कौन पूछता था | हमारे पास तो चरखी भी नहीं थी |

फिर भी हमने हौसला नहीं छोड़ा | छोटे सुरेश ने अखबार के एक टुकड़े और बाँस की दो सींक से , भात के कुछ दानों से चिपका कर हमें एक पतंग बना कर दी | हमने उसके पीछे एक लम्बी सी पूंछ लगाकर और सामान के धागे जोड़कर एक पतंग तैयार कर ली |
 
सामान के धागे से ही सुरेश ने कन्नी बाँध ली | कन्नी उठाकर हम तीनों ने बारी बारी से पतंग का संतुलन देखा | ठीक वैसे ही , जैसे हमने सप्पन , राजकुमार,  शरद या प्रभात जैसे बड़े खिलाडियों को करते देखा था |

पर बबन था कहाँ ?
 
मैं पतंग पकड़कर दूर तो जा रहा था, निगाहें बबन के घर की ओर लगी थी |

"अबे रुक |" मुन्ना डोर के दूसरे छोर को पकड़कर चिल्लाया ,"अब छोड़ |"

मैंने पतंग हवा में उछाली और फिर बबन के घर की ओर देखने लगा | पतंग ने हवा में दो तीन बार गोता  खाया और नाक के बल ज़मीन पर गिरी |

सोगा के घर में रेडियो सीलोन पर "आप ही के गीत" में गाना बज रहा था, "मेरी ज़िन्दगी है क्या - इक कटी पतंग है ...|"

मैंने राहत की सांस ली | चलो , अब जब तक पतंग की मरम्मत होगी  फिर से संतुलन परखा जाएगा, तब तक छुट्टी | मैं बबन के घर की ओर चल पड़ा |

बी. एस. पी. का ट्रक बबन के घर के सामने खड़ा था | यह तो तीसरा ट्रिप था और घर से सामान निकलते ही जा रहा था | शायद उनको भी नहीं मालूम होगा क़ी घर में इतना सामान होगा | दो लड़के और दो बड़ी लड़कियां - सामान तो होगा ही | जाना कहाँ था ? क्या बहुत दूर ? नहीं, अगली ही सड़क पार - सड़क नंबर २३ ... आज कई बार मैं सोचता हूँ तो समझ नहीं पता क़ी आखिर घर बदलने क़ी वज़ह क्या थी ? बाइस और तेइस सड़क में केवल नंबर का ही अंतर था | घर तो उतना ही बड़ा था | फिर आखिर गृह-परिवर्तन क्यों ?

वैसे समय बीतने के साथ साथ वह घर अभिशप्त ही सिद्ध हुआ | कोई भी परिवार वहाँ लम्बे समय तक टिक ही नहीं पाया | एक परिवार आया , जिसकी दोनों लड़कियां गूंगी थी | दूसरा परिवार पांच महीने में ही चले गया और घर लम्बे समय तक खाली रहा | तीसरा परिवार आया | घर के पीछे आम का पेड़ था | अंकल जी पेड़ में चढ़ कर आम तोड़ रहे थे | पाँव फिसला और नीचे आँगन के पक्के  फर्श पर गिर पड़े | वहीँ प्राण पखेरू उड़ गए | | भरा-पूरा परिवार उजड़ गया .....|
 
जीवन क़ी क्षण भंगुरता ही तो थी वो ...|

उस समय बबन ट्रक के पास खड़े होकर सामान चढ़ते देख रहा था | हम लोग भी उदास नज़रों से अपने एक दोस्त, एक अच्छे दोस्त को जाते देख रहे थे | लेकिन बबन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा | यहाँ तक कि मुन्ना ने उससे पूछा,"बबन, यार, सड़क तेइस तो बगल में है  |तू यहाँ हम लोग के साथ खेलने तो आएगा ...|"

उसका जवाब मुझे आज तक याद है ,"पता नहीं |"
 
इतनी छोटी सी उम्र के बच्चे के मुंह से ऐसा कूटनीतिक जवाब मैंने बहुत कम सुना है | सच्चाई तो यह थी कि गलियारा बदलते ही बबन भी बदल गया | ना केवल वह हमारी दोस्ती भूल गया , बल्कि उसने हमारा अस्तित्व ही नकार दिया | आगे मैं फिर किसी स्मृति में बताऊंगा कि हमें क्यों और कैसे उसके घर से बेर चोरी करने को बाध्य होना  पड़ा था | उसकी बहनें जरुर शशि दीदी और अपनी हम उम्र सहेलियों से मिलने आते रहीं | बड़ा भाई मनोज बाद के वर्षों में कई बार हमारे साथ क्रिकेट खेलने आया | पर बबन ? वह तो खो गया |

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बबन का परिवार तो चले गया  था और पीछे वो छोड़ गया था, ढेर सारी यादें | उस जमाने में लोग जाते - जाते गेट निकाल कर ले जाते थे और घर को गायों, 'रेस- टीप' खेलते बच्चों और वर्षा के समय राह चलते फेरीवालों , भिखारियों के लिए खुला छोड़ जाते थे |

ऐसे ही उस दिन 'रेस-टीप' हो रही थी और मैं भागकर बबन के खाली घर में घुस गया | थोडा सा मैंने बुद्धिमानी का काम किया | मुझे मालूम था, अनिल, जो दाम दे रहा था , वो अगर खोजते हुए यहाँ आया भी तो बरामदे के आसपास ही खोजेगा | शर्मा  आंटी के घर के साथ वाली सीमा में हैज़ नहीं लगी थी | मैं शशांक के घर के साथ वाले घेरे की दीवार में, जहाँ ऊँची ऊँची हैज़ लगी थी, जाकर छिप गया | अब बबुआ खोज के दिखाए |

हैज़ में मुझे दो चीजें दिख गयी | एक पुराना सब्जी काटने का चाक़ू था | उसके फलक में जंग तो नहीं लगी थी, पर हत्था कुछ टूटा हुआ था | मैंने सबकी माँ को चाक़ू से सब्जी काटते देखा था | केवल मेरी एक माँ थी, जो फरसुल से सब्जी काटती  थी | पर इस चाक़ू का मैं क्या करूँगा ? ज्यादा से ज्यादा बेशरम की डंडी काट सकता हूँ |
 
मेने उसे सम्हाल कर उसी हैज़ की झाड़ी में रख दिया जहाँ औरों की नज़र न  पड़े | दूसरी चीज़ जरुर मेरे काम की थी | वह क्या था ? चाभी वाली रेल के इंजन का अंजर पंजर ...| मेने तो कभी बबन के पास चाभी वाली रेल नहीं देखी थी |  हो सकता है, किसी ज़माने में कोई बहुत पुरानी रेल गाड़ी होगी, जब शायद संध्या सुषमा या मनोज बच्चे रहे होंगे | उसके चाभी वाले हत्थे को मैंने हाथ से मरोड़ कर देखा - अच्छा , इसका स्प्रिंग ख़राब हो गया है ...... कोई बात नहीं , दाँते तो ठीक ठाक दिख रहे थे | और शाम की किरणों में कितने चमक रहे थे ....| वाह, मैं किसी को बताऊंगा नहीं, ईंट से तोड़ के साइड का कवर निकाल लूँगा | सारे दाँते निकल जायेंगे | फिर उनकी अच्छी चकरी बन जायेगी |

मैं ये भी भूल गया कि मैं कहाँ हूँ और रेस टीप खेल रहा हूँ |
 
मेरी विचारधारा को एक आवाज़ ने भंग किया | एक महिला की कर्कश सी आवाज़ - अरे ये तो पड़ोस के शशांक के घर से आ रही है | शशांक की मम्मी - दूसरे जिस पुरुष की दबी-दबी आवाज़ थी , वो शशांक के पापा थे | मैं हर बार सोचा करता था , शशांक आखिर है क्या ? मद्रासी, पंजाबी, बंगाली मराठी या सिन्धी ? हर बार मेरे अनुमान को उसने हवा में उडा दिया था | कौतूहलवश मैं कान लगा कर सुनने लगा , आखिर भाषा तो पता लगे | वह हिंदी ही तो थी पर उसकी मम्मी  जिस तरह हिंदी बोल रही थी, वो सोगा -मगिंदर की माँ के लहजे से काफी मिलता जुलता था | लेकिन उसके पापा का ज़वाब तो ठीक हिंदी में था | हर एक दो वाक्य के बाद उसकी मम्मी अंग्रेजी में उतर जाती थी | उनकी बातचीत का विषय शशांक ही था | लेकिन एक मिनट - केवल शशांक ही नहीं, उस विषय में मैं, हम , हम सब शामिल थे |

"मैं पूछती हूँ, हम यहाँ से कब जायेंगे ? आप को तो कोई परवाह ही नहीं है |"

"कोशिश तो मैं कर ही रहा हूँ |"

"क्या कोशिश कर रहे हैं ? कितने दिन से कोशिश कर रहे है ? मेरी तो सकझ में नहीं आता | लड़का बिगड़ गया है | कभी सर फूटता है तो कभी हाथ से खून निकलता है | जब भी खेल के आता है, कपड़े से कीचड़, कचरे , गोबर की बदबू आते रहती है |"

"बच्चे तो खेलते ही हैं |"

"खेलते हैं ? कोई ढंग का खेल खेलें तो समझ में भी आता है | कभी किसी को पकड़ के पीट रहे हैं तो कभी बेशरम की झाड़ी में  घुस कर कीड़े पकड़ रहे हैं | किसी दिन साँप काटेगा किसी को | "

"हाँ, मैं बात करूँगा कुछ बड़े लोगों से ...|"

"किससे बात करोगे ? क्या बात करोगे ? कर चुके आप बात | अरे उनके माँ बाप को चिंता होती तो बच्चे भाग कर छोटा मैत्री बाग नहीं जाते ... | भागकर सर्कस नहीं जाते ...| कपडे देखे हैं उन बच्चों के ? किसी  का कोई बटन टूटा है तो किसी की पेंट पीछे से सिली है | हाथ पांव ऐसे गंदे कि देखकर उलटी आती  है | टेढ़े मेढे पीले पीले दांत |  दिन भर खेलना, दिन भर ... | और बात सुनो उनकी ,'बे', 'साले' के बिना तो एक वाक्य नहीं बोल सकते | बड़े होकर आवारा बनेंगे सारे ....|"

"मेरी बात तो सुनो | मैं कोशिश तो कर रहा हूँ  ....| सेक्टर नौ या दस में नया घर नहीं मिलेगा तो डबल स्टोरी में तो मिल ही जाना चाहिए | थोड़े दिनों क़ी तो बात है |"

"हुंह | हर बार वही बात | आप तो चाहते हैं ना आपका लाडला आवारा बने ....|"

बस, और मुझसे नहीं सुना गया | मैं उस जगह से बाहर आ गया मानो वहां ढेर सारी लाल चीटियाँ हैं और मेरे हाथ पांव , कपड़ों में रँग रही हैं | दिमाग में वही बात घूम रही थी - आवारा बनेंगे सारे ... | आवारा क्या होता है ? कई बार बड़े लोग जैसे दीपक के बब्बा सप्पन, मंजीत को आवारा कहते थे | पर हर बार तो नहीं, कभी कभी ही - वो भी गुस्से में ....| पर वो लोग अच्छे भी तो हैं ...|
 
नहीं नहीं, वो लोग बहुत बुरे हैं | अच्छे बुरे ..., आवारा..., तो क्या हम सब लोग आवारा बनेंगे ? 'बे', 'अबे' ', 'साले' का मतलब क्या होता है ? क्या ये बोलना बुरी बात है ? हम लोग अकेले  सर्कस चले गए थे , ये खराब बात थी ? मतलब मैं अभी से गन्दा बच्चा बन गया हूँ | मतलब अगर मर गया तो नरक में जाऊंगा ...|
 
मन खिन्न हो गया था ...| मैं सड़क पर चल रहा था | ख्याल ही नहीं रहा कि मैं रेस टीप  खेल रहा हूँ | विचारों की तन्द्रा तब टूटी जब अनिल ने मुझे फर्स्ट टीप कर दिया | मेरी खेल में अब कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी | मैंने सोच लिया था , मैं और नहीं खेलूँगा , भले दाम न देने के बदले में मुझे हरेक से बारह मुक्के खाना पड़े |

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जैसे जैसे गर्मी बढती गयी, मेरे शारीर पर धमोरी भी बढ़ते चली गयी |

दिन भर तो खेल कूद में कुछ ख्याल नहीं रहता, पर शाम होते होते खुजलाहट बढ़ जाती थी | रात को घर लौटने के बाद घड़े के पानी से नहाने के बाद माँ पाउडर लगा देती थी | पर घमौरियां ज्यो की त्यों थी | रात को बाहर मच्छरदानी लगाकर खुले में सोते थे | जब भी नींद खुलती तो खुजलाहट के मारे मैं परेशान हो जाता | गला छाती, पेट पीठ , सब जगह लाल लाल दाने निकल गए थे |
 
"ठाकुर साहब, एक बात बताऊँ ", एक दिन अनिल के पिताजी श्रीवास्तव जी बोले," इसे बरफ के पानी से नहला दो | यह बिलकुल ठीक हो जायेगा |"

बरफ कहाँ से मिलेगा ? रेल पटरी के पास के चौक पर ढेर सारे गन्ना रस वाले बैठते थे | उनके पास बोरे में धान का खोल  भरा होता था और उसमें बरफ की सिल्लियाँ  रखी रहती थी | गन्ने के रस के गिलास में वे पहले चाकू से काटकर ढेर सारा बरफ डालते थे और फिर गन्ने का रस ...|

"शाम को दुकान बंद होने के बाद आना |" कौशल भैया को उन्होंने टरका दिया |

सुपेला में रेल पटरी के उस पार बरफ की फैक्ट्री थी | एक दिन रामलाल मामा बोरे में बाँधकर बरफ ले  आये | मेरा ख्याल था, आधी बर्फ तो रास्ते में पिघल गयी होगी | पर जितनी थी उसे एक बाल्टी में डाला गया | मेरे सारे कपड़े  उतारे गए और माँ ने बेरहमी से बर्फ का पानी शरीर में डाला |
 
बाप रे बाप ... मुझे दिन में तारे दिखाई देने लगे | क्या ठंडा पानी था ...| मेरे दाँत बज रहे थे ...|

वाकई में जब माँ ने तौलिये  से शरीर पोंछा तो घमोरियां गायब हो गयी थी |

पर यह केवल दो ही दिन की बात थी | तीसरे दिन घमोरियां वापिस आ गयी |

रामलाल मामा बोले, "टुल्लू, बारिश होने दे | एक बार बारिश  के पानी में नहा ले | सब ठीक हो जायेगा |"

टुल्लू ... बारिश का इंतज़ार कर ....|

और एक किसान की तरह, मैं भी खुले नीले आसमान में काले बादल खोजने लगा ...शाम , सबेरे ...|

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शशांक लोगों का जाना भी तय ही था | उस दिन उसके मम्मी और पापा की बातचीत से मेरे नन्हे से दिमाग में  जो कुछ समझ में आया वह यही था कि इस धरती पर कुछ और लोग रहते हैं जो हमसे बहुत अच्छे हैं | उनके बच्चे भी अच्छे हैं | क्योंकि वो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते है | क्योंकि वो साफ़ सुथरे कपडे पहनते हैं | क्योंकि वो गालियाँ नहीं बकते -"बे" , "अबे" ,"साले" गालियाँ ही तो थी | क्योंकि वे मारा-पीटी नहीं करते | क्योंकि वे बड़े होकर आवारा  नहीं बनेंगे |
 
सच था - शशांक हम सब से समझदार था | जब भी हम किसी बात को लेकर उलझ  जाते , दोनों ही पक्ष शशांक के सम्मुख अपना पक्ष रखते और उसकी बात ध्यान से सुनते | अक्सर कोई नयी बात कहते समय हम क्यों चाहते थे कि शशांक उन बातों की पुष्टि करे ? वह तो ठीक से लट्टू नहीं चला सकता ? वह तो माचिस से आग नहीं जला सकता था ? चक्का चलाने में वह हार जाता था | फिर क्या था उसमें ?

आखिर झूम के बारिश आ ही गयी | मोटी  मोटी बूंदें पड़ने  लगी | सिर्फ नीले रंग की हाफ पेंट पहन कर मैं  अमरुद के पेड़ के नीचे खड़ा हो गया |जैसे जैसे पानी की बूंदें पड़ने लगी, घमौरियाँ धुलने लगी |
 
नीले रंग का एक ट्रक मंथर गति से सड़क से गुजर रहा था | उसके साइड के पल्लों पर लिखा था - "बी. एस. पी." यही ट्रक तो कुछ दिन पहले आया था | तब उसे तीन परिक्रमा करनी पड़ी थी | किन्तु इस बार उसे एक ही फेरा करना था | आखिर परिवार भी तो छोटा ही था | कितने सदस्य थे ? जितने भी थे, वे ट्रक के पीछे पीछे अपने खुद के वाहन में चल रहे थे | उन्होंने बरसाती की टोपियाँ भी लगा रखी थी, पर पहचानना मुश्किल नहीं था | फेंटा विलास उनके ही तो पास थी | दोनों ही पड़ोसी एक महीने के अंतराल में बाइस सड़क को अलविदा कह चुके थे | जिस बिरादरी की शशांक की मम्मी की अपेक्षा थी, वह उन्हें मिल चुकी थी | वह ना केवल इस धरती पर मौजूद थी, बल्कि उसके लिए उन्हें कोई बहुत दूर भी नहीं जाना पड़ा था | सेक्टर दो में ही डबल स्टोरी  थी , जहाँ बी. एस. पी. के अफसर श्रेणी के लोग रहते थे | जिनके बच्चे वहीँ पहले बाल मंदिर में 'ए','बी','सी','डी' पढ़ते थे फिर कतिपय अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में चले जाते थे |

बबन तो कभी कभी दिखता था,क्योंकि वह भी शाला नंबर आठ में पढता था - प्रातः पाली में, जबकि मैं दोपहर की पाली में था |

पर शशांक ?  वो  अंतर्ध्यान हो गया , हालाँकि बाद के वर्षों में अपने कई मित्रों से मैं गाहे बगाहे उसका जिक्र जरुर सुनता था | किन्तु आमने-सामने की मुलाकात कभी हो नहीं पायी | 

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देखते ही देखते समय का पहिया पूरे ग्यारह साल घूम गया | 'पूर्व - इंजिनीयरिंग' की प्रतियोगी परीक्षा  की ऊंचाइयों की बाधा लांघकर लोग भोपाल में एकत्र हुए थे - क्षेत्रीय अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में प्रविष्टि की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए |

शशांक से वहीँ अगली रू-बरू मुलाकात हुई - ज़िन्दगी की 'हप्पू की बम-बम' में ...!

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(समाप्त )
स्थान - भिलाई
समय - १९७०-७१







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