रविवार, 6 नवंबर 2011

बोला पकड़ बोला पकड़ बोला टंगस्टन की तार

बैठक का वातावरण काफी गंभीर था | तीनों खामोश बैठ थे | माहौल इतना बोझिल था कि उन्हें ये भी ख्याल नहीं था कि मैं , जिसे चाय देने क़ी जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, ट्रे पकड़ कर वहीँ खड़ा हुआ हूँ | आखिर बाबूजी के दोस्त, लक्ष्मी नारायण शर्मा ने वह प्रश्न उछाल ही दिया जिसके समाधान के लिए शायद बाबूजी ने उन्हें बुलाया था |
"रिजल्ट मिकल गया |" उन्होंने मोटे चश्मे से बाबूजी और कौशल भैया को देखा ," फर्स्ट डिविजन भी है | नंबर अच्छे हैं | आगे क्या करना चाहते हो ?"
सवाल काफी आसान था | अगर यह सवाल किसी और से पूछा जाता तो शायद कुछ 'हाँ हूँ ' भी होती, पर कौशल भैया के लिए जवाब तो सहज ही नहीं, प्राकृतिक भी था |
लेकिन नहीं, यह प्रश्न जितना आसान दिखता था, दरअसल उतना ही जटिल था | इतना उलझा हुआ था कि बाबूजी कई बार नींद से अचानक जाग जाते और फिर दोबारा सो नहीं पाते | सवाल इतना भारी भरकम था कि बाबूजी को लगा कि उसका बोझ उठाने में उन्हें किसी की सहायता चाहिए | और इसके लिए लक्ष्मी नारायण शर्मा से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था |

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इसे महज संयोग ही कहा जाये कि राजेश खन्ना और तमाल सेन के भाव एक साथ ही एकदम से बढ़ गए | वैसे राजेश खन्ना का भाव बढाने में तमाल का क्या योगदान था, पता नहीं, किन्तु तमाल के भाव को राजेश खन्ना ने जरुर प्रभावित किया था | वैसे जानकार मानते हैं कि तमाल देव आनंद से कहीं ज्यादा प्रभावित था, फिर भी राजेश खन्ना ने अच्छे अच्छों क़ी चूलें हिला दी थी तो तमाल के भाव पर उसका असर निश्चित रूप से देखा जा सकता था |
पर तमाल में आये इस परिवर्तन से सभी चकित थे |
तमाल और उसका छोटा भाई बिच्छू दोनों ही फुटबॉल के बेहतरीन खिलाडी थे | कोई आश्चर्य क़ी बात नहीं थी | बंगालियों का फुटबॉल प्रेम जग जाहिर है | उनके पिताजी , कभी कभी खुद लुंगी कमर पर चढ़ाकर बच्चों के साथ फुटबॉल खेलने उतर जाते थे | तो दोनों भाइयों को   फुटबॉल  प्रेम विरासत में मिला था | बिच्छू इतना अच्छा फुटबॉल खेलता था कि वह सातवीं कक्षा में ही था जब उसे वरीय  फुटबॉल टीम में शामिल कर लिया गया था | सोचिये ज़रा ... वरीय टीम में कोई भी दसवीं से पहले अगर आ जाता तो उसे बेहतरीन खिलाडी माना जाता था | बिच्छू नंगे पाँव खेलता था और अच्छे अच्छों को नचा देता था | उस ज़माने में नंगे पाँव खेलना गुनाह नहीं माना जाता था | एक मैच के दौरान एक खिलाडी ने बिच्छू का पाँव अपने स्पाइक वाले जूते से कुचल डाला | तब लहुलुहान बिच्छू को तमाल अपनी बाँहों में उठाकर लाया  था | तमाल खुद फुटबॉल का दिग्गज खिलाड़ी था | अपने स्कूल की टीम का वह एक स्तम्भ मन जाता था , जिसे दूसरे स्कूल वाले भी अच्छे से जानते थे |
अब आप क्या  पूछेंगे , मुझे पता है | यही न, राजेश खन्ना का  फुटबॉल से कितना नाता था  ? ईमान से , मुझे पता नहीं | फिर ? भला परदे का कलाकार एक प्रतिभाशाली खिलाडी को कैसे प्रभावित कर सकता है ?
मुझे बात पूरी करने का मौका दीजिये | तमाल के साथ सबसे बड़ी समस्या ये थी कि वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था | ना केवल खेल के मैदान में, बल्कि पढ़ाई में भी वह अव्वल था | न केवल पढ़ाई में, बल्कि चित्रकारी में वह औरों से चार कदम आगे था | और सुनाऊं ? आगे के वर्षों में वह एक ऑर्केस्ट्रा में किशोर कुमार के गाने गाया करता था ,"मैं हूँ झुम झुम झुम झुमरू ....|"

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चाकलेट  की पन्नी के अन्दर  एक रंग बिरंगी आकृति निकलती थी | करना सिर्फ इतना था कि उसे पानी से गीला करो और किसी कमीज़ के जेब के ऊपर रख कर इस्तरी चला दो | बस, वह आकृति जेब  पर छप जाती थी और तब तक छपी रहती थी, जब तक कमीज़ चार पांच बार पछाड़ कर न धोई जाए | वो आकृतियाँ कुछ भी हो सकती थी | आपकी किस्मत में होता था कि चाकलेट की पन्नी के पीछे क्या छिपा है | वह '007 ' भी हो सकती थी, जिसमें '7 ' को भेदती एक बंदूक दिखती और जेम्स बोंड (मुझे कई सालों बाद पता चला ) सिगरेट फूंकते नज़र आता | या तो फिर ढोल बजाता चूहा या लाल रंग की लम्बी इम्पाला कार | बबलू भैया को ऐसी तस्वीरों से बेहद लगाव था |
उस जमाने में सब लड़कों की शाला की कमीज़ नीली नीली ही होती थी | बड़े लोग सब अपने कपडे खुद इस्तरी करते थे | माँ ने धूप में सुखाये कपड़ों का गट्ठर ज़मीन पर पटक दिया और लोहे की इस्तरी में लकड़ी के कोयले ड़ाल दिए | फिर रसोई घर से एक जलाता अंगारा इस्तरी में ड़ाल क़र अपने कर्तव्य से इतिश्री क़र ली |
जब तक इस्तरी गरम होती , आनन् फानन में बबलू भैया ने अपने संकलन से एक आकृति चुन ली | एक कप में पानी भरकर उसमें उसे डुबाया  और झटपट  तैयार हो गए | जैसे ही इस्तरी गरम हुई , फ़टाफ़ट एक नीली कमीज़ गट्ठर से निकाली , पानी छिड़का ,वह आकृति कमीज़ की जेब के ऊपर लगाईं और इस्तरी से उसे दबा दिया | "झूँ ..." की आवाज़ और उड़ती भाप के बीच थोड़ी ही देर में उन्हें शक हुआ क़ि कमीज़ का आकार कुछ बड़ा है ......|
कौशल भैया शांत रहे | सागर क़ी तरह शांत स्वर में माँ से बोले, " देख रहे हो माँ , तुम्हारे लाडले ने क्या किया है ?"
"क्या किया है ? फुल और तितली छाप दी ? अच्छा तो है |" माँ को भी हंसी सूझी ,"आज तू छप्पे वाली कमीज़ पहन क़र भिलाई विद्यालय चले जा |"
कौशल भैया उस मज़ाक से जरा भी प्रभावित नहीं हुए ," हाँ हाँ, वहां बाबाजी बैठे हैं ना , मेरी आरती उतारने ...|"
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भिलाई विद्यालय में किसी ज़माने में दादा जी का राज था | दादा जी के बाद पता नहीं , कौन आया और कौन गया , जिन दिनों की मैं बात कर रहा हूँ उन दिनों बागडोर बाबाजी के हाथ में थी | मैं उतना खुश किस्मत तो नहीं था कि मैं बाबाजी का ज़माना देख पापा | मैंने केवल उस पीढ़ी क़ी एक ही शिक्षिका को देखा था , जो जब तब भिलाई विद्यालय में प्रकट हो जाती थी - नानी मैडम ...| नानी मैडम के बारे में फिर कभी .... जरुर .... |
तो उन दिनों भिलाई विद्यालय में बाबाजी क़ी तूती बोलती थी |
कल्याण कोंलेज बाबूजी के टेलीफोन  क़ी घंटी घनघनाई ,"ठाकुर साहब नमस्कार |"
बाबू जी  ने तुरंत आवाज़ पहचानी ,"अरे सर | कैसे हैं आप ?"
दूसरी तरफ से बाबाजी क़ी आवाज़ गूंजी ," इस समय आपके सुपुत्र कौशलेन्द्र सिंह मेरे सामने खड़े हैं | घबराने की कोई बात नहीं है | मैं केवल ये बताना चाहता था  कि उनके पाँवों में चप्पल शोभायमान है |"
बाबूजी सकते में आ गए | उन्हें कुछ नहीं सूझा कि क्या कहें , क्या न कहें |
फोन रखने के बाद बाबा जी ने कुटिल निगाहों से कौशल भैया को घूर कर देखा |
प्रार्थना होने के बाद, छात्र कतार में अपनी अपनी कक्षाओं में जाते थे | विद्यालय का कप्तान, पी टी के शिक्षक और एन सी सी के इन चार्ज, तीनों एक एक छात्र पर नज़र दौडाते थे | उनकी निगाहें हरेक छात्र का सर से लेकर पाँव तक, बल्कि यूँ कहा जाए तो केवल सर और पाँव का ही निरीक्षण करती थी | क्या उसके बाल बड़े हैं , या उसके पाँव में चप्पल है |नानी मैडम को छात्रों के बालों से विशेष प्रेम था | बड़े बाल उन्हें बरबस आकर्षित करते थे | उन्हें पकड़ कर वे प्यार से खींचती ,"अबे ...." और फिर दे धनाधन ...|
कई बार हमारे ज़माने में तो वे कैंची लेकर भी आई और बालों को आड़े तिरछे ढंग से काट डाला | उसके बाद छात्रों के पास सर मुडवाने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचता था | वैसे कई छात्रों ने उन्हें कहते सुना था कि उनका बस चले तो  वे विद्यालय को गुरुकुल कांगड़ी बना देना चाहेंगी , जहाँ विद्यार्थी सर घुटा कर आयें |
विडम्बना ये , कि उनके खुद के बाल फैशनेबल अंदाज़ में बॉब कट कटे होते थे |
.... तो कौशल भैया का ये अपराध था कि उनके पाँवों में चप्पल थी |
कुछ न चाहते हुए भी कुछ हो ही जाता है | भौतिक की प्रयोगशाला में वाष्प की गुप्त ऊष्मा निकालते - निकालते कौशल भैया एक तापमापी तोड़ ही चुके थे | उन्हें थर्मामीटर  तोड़कर बाहर निकले  हुए पारे वाली  तापमापी  एक लकड़ी के खोल में सप्रेम भेंट की गयी और उनके नाम के आगे बीस रूपये का दंड दर्ज कर दिया गया  | तिस पर तुर्रा ये चप्पल पहन कर जाने का जुरमाना ... | इतना ही होता तो गनीमत थी | किन्तु बाबाजी तो पूरी फजीहत पर उतर आये थे |
लड़कों से निपटने का बाबाजी का तरीका अनूठा था |  उनका नाम लड़कों ने "बाबाजी" यूँ ही नहीं रखा था | उनका असली नाम कम ही लोग जानते थे | मेरे जैसे लोग, जो काफी छोटे थे और भिलाई विद्यालय में उनके सेवा निवृत्त होने के छः बरस बाद गए थे , उनके लिए तो ये निहायत मुश्किल ही है, कि उनका नाम याददाश्त के किसी कोने से खोज के निकाला जाए | उन्हें आदर्श शिक्षक का राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चूका था | घुटने और एडी के बीच उनका पजामा कहीं ख़तम होता था और एक हाथ में होती थी छड़ी, जिसे घुमाते ही वे बड़े से बड़े शेर को बिल्ली बना देते थे, वो भी कडकडाती ठण्ड में घड़े के पानी से भीगी हुई बिल्ली |
.....बारिश हो रही थी | सप्पन और उसके दो तीन चेले-चपाटे पीरियड गोल करके यूँ ही मटर गश्ती करते हुए दूर निकल गए | अब आप सोच सकते हैं, बारिश के दिन जब बाहर निकलने के बारे में सोचते ही छींक आने लगती है, तब उद्दंड लड़के पीरियड गोल करके छतरी लेकर खुली हवा क़ी पुकार सुनकर, बारिश में गाना गाने सड़कों पर निकले थे | नाले तक जाकर वापिस आ रहे थे | सेक्टर ५ का चौक, यानी भिलाई विद्यालय के पास का वो चौक जहाँ सेक्टर २ , सेक्टर ४, सेक्टर ५ और सेक्टर ६ क़ी सीमाएं मिलती थी , वहां से बाबाजी टेम्पो से उतरते दिखे | लड़के सन्न .... बाबाजी को इस समय भिलाई विद्यालय के दफ्तर में होना चाहिए था, यहाँ कहाँ से टपक पड़े  ? सप्पन का दिमाग फिर भी काम कर रहा था | उसने झटके से छाता खुला छाता आगे झुका लिया ...( ऊपर की वर्षा की अपेक्षा सामने की बारिश खतरनाक थी) और फट से लड़के उसकी आड़ में हो गए |
बाबाजी ने कुछ नहीं देखा , किसी को भी नहीं | वे तो अपनी ही धुन में भिलाई विद्यालय के दफ्तर क़ी ओर बढ़ गए |
लड़कों क़ी जान में जान आई | अनिष्ट-देव क़ी कोप निगाहों से बाल- बाल बचे !
अगले दिन, प्रार्थना के बाद , बाबाजी ने एक संशिप्त सा व्याखान दिया जो हर प्राचार्य का प्रतिदिन का कार्य था | उसके पश्चात उन्होंने घोषणा क़ी ," कक्षा दसवीं के तीन छात्र , जिनके मैं नाम पुकारूँगा, कृपया यहीं रुक जाएँ | उनके नाम हैं ....... "
.... एक -एक छात्र का नाम वे जानते थे | कौन कहाँ से आता है, उन्हें सब पता था |  लड़के सिनेमा हाल में जाते तो सीट में बैठने के बाद भी चोरी चोरी एक नज़र आगे- पीछे क़ी पंक्तियों पर ड़ाल लेते - कहीं छड़ी वाला ज़ालिम तो नहीं बैठा है |
लेकिन उनका दिल एक बच्चे क़ी तरह साफ़ था | गरीब छात्रों क़ी वे हर संभव मदद करते थे |  एक  ओर वे होनहार छात्रों क़ी पीठ थपथपाते तो दूसरी  ओर शिक्षकों से कह कर कमज़ोर विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्त   कक्षाएं लगवाया करते थे |  इसके बावजूद फेल होने वाले विद्यार्थियों क़ी असफलता को अपनी असफलता मानते थे और शिक्षकों से अगले वर्ष उनके बारे में निरंतर पूछा करते थे |
और शिक्षक ? उनकी मनोभावनाओं का वे पूरा ख्याल रखते थे ...| एक बार शिक्षकों की लिस्ट से गलती से नानी मैडम  का नाम ही गायब हो गया | नानी मैडम सीधे धडधडाते हुए प्राचार्य के कमरे में घुसी | पर जब उन्होंने बात शुरू की तो भावनाओं का तूफ़ान उमड़ पड़ा - जी हाँ आँखों के रास्ते ...| वो गुस्से और शिकायत की मिली जुली रुंधी आवाज़ थी ," सर , मैंने भिलाई विद्यालय की दस साल से सेवा की है - एक करियर टीचर के रूप में मेरी भी कोई भूमिका है सर ....| पर मुझे क्या मिला ?"
बाबाजी हक्के बक्के ... | कुछ समझ में नहीं आया कि ये गंगा जमुना का उद्गम कहाँ से है ? तुरंत चपरासी को बुलाकर ठंडा पानी लाने को कहा और शांति से पूछा ," मैडम, मुझसे क्या गलती हो गयी ?"
"नहीं, सर, आपसे कोई गलती नहीं हुई | मैं ही बेबस हूँ, जो भिलाई विद्यालय कि इतनी सेवा करने के बाद भी आज मेरी पहचान एक शिक्षक के रूप में भी नहीं है |"
"अरे नहीं नहीं, आप तो भिलाई विद्यालय के स्तम्भ हैं ...|बल्कि प्रकाश स्तम्भ हैं ...|"
"कहाँ सर, शिक्षकों की लिस्ट से मेरा नाम गायब है !"
"आप भी कमाल करती हैं मैडम | आपको भला कोई भूल सकता है ? चपरासी, जरा नोटिस बोर्ड से लिस्ट निकाल कर लाना ...| लीजिये मैडम , तब तक पानी पीजिये | "
बाबाजी ने लिस्ट ध्यान से देखी ,"ओह मैडम, ये अनहोनी हो गयी ....| कोई बात नहीं, अभी ठीक कर देते हैं ...|" और उन्होंने लिस्ट के सबसे ऊपर से अपना नाम काटकर नानी मैडम का नाम लिख दिया ," आनंद मैडम ..., लीजिये आपका नाम सबसे ऊपर .... | अब तो सब ठीक है न ?"
यह कोई ताज्जुब की बात नहीं कि जब उनके रिटायर होने के छह वर्ष  पश्चात मैंने भिलाई विद्यालय में कदम रखा तो उनकी किंवदंतियाँ उसी तरह जीवंत थी, मानों कल की ही बात हो |
तो यह ज़ाहिर था कि उनके प्रिय विद्यार्थियों की सूची में कौशलेन्द्र हो या ना हो, सप्पन जरुर था ....|
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खिड़की के शीशे टूटना कोई नयी बात नहीं थी | उन दिनों भी लड़के क्रिकेट खेलते थे और आँख बंद करके बैट घुमाते थे  | कई बार तेज हवा के झोंकों से खिड़की झटके से बंद होती और  काँच में दरार पड़ जाती |  कुछ नहीं, पूछताछ दफ्तर में जाकर एक रपट लिखानी पड़ती थी और टूटे हुए शीशे के चौखट में पुट्ठा या पतला प्ल़ाइ वुड  काटकर फिट कर दो , ताकि ठंडी हवा या कीड़े अन्दर ना आयें | दो तीन सप्ताह तक इंतज़ार करने के बाद कोई आदमी साइकिल पर आता था ,"आपने खिड़की के काँच टूटने की रपट लिखाई थी ?"
खिड़की के शीशे लगाने वाला  खिड़की के आयताकार फ्रेम से बड़ा शीशा लाया करता था | पहले फ्रेम को नापता और कांच पर एक पेन्सिल से निशान लगाता | फिर काँच काट कर बची हुई पट्टी सम्हाल कर बाहर फेंक देता था |
"मत फेंको इसको |" कौशल भैया ने बची हुई पट्टी माँग ली |
"किसी के हाथ पाँव में गड जाएगा |  क्या करोगे इसका ? "
क्या किया कौशल भैया ने ?
भौतिक की किताबों में ढेर सारे प्रयोग, उपकरणों , यंत्रों का वर्णन होता था | अब या तो उन्हें पढ़ लो, घोंट लो , परीक्षा पास कर लो और खुश रहो या फिर कुछ और सोचो | कौशल भैया का रुझान हमेशा उन उपकरणों को समीप से देखने का,  उन्हें अपने हाथ से बनाने का रहा था | रेडियो ठीक से नहीं बज रहा, वे पेंच क़स से उसे खोल डालते | घडी का अलार्म कैसे बजता है ? उन्होंने घडी खोलकर देख डाली | इसे समय वे ध्यान से एक एक पुर्जा खोलते और उसे अलग अलग रखते , ताकि बाद में वापस जोड़ने में परेशानी  ना हो |  साइकिल ठीक करना तो उनके बाँये हाथ का खेल था | चक्का खोलना, छर्रे में ग्रीस लगाकर वापिस जोड़ना , चैन ठीक करना ; और ब्रेक और पैडिल से तो मानो उन्हें कभी संतुष्टि ही नहीं होती |
उस उम्र के लड़कों में वे अकेले नहीं थे | अधिकतर किशोरों  के दिमाग में ये फितूर समाया होता था | जो चीज सबसे सुलभ थी वो थी , साइकिल , पंखा , घडी और रेडियो | रेडियो , फिर भी थोडा अजूबा ही था , आखिर हवा से आवाज़ एक बक्से में कैसे आ जाती है | न तो भौतिक की किताबों में उसके बारे में कुछ विस्तार से लिखा होता था | किन्तु घडी और साइकिल तो मानो किशोरों के लिए खिलौने होते थे  | व्यास ने बी टी आई की कार्यशाला से लोहे की चद्दरों से दो तीन ट्रे  बनाकर दिए थे | उनमें पाने , पेंचकस, फ़ाइल, जम्बो , नट बोल्ट भरे होते थे - घर में  | ठोंक पीटकर कौशल ने लकड़ी की एक पेटी बना ली थी | कभी खोलकर तो देखो - अन्दर पूरा कारूँ का खजाना था | हथौड़े, पेंट, कील , बिजली के तार , जम्बो , प्लायर ,छेनी  ,सुतली और सूजा ,  बंधना  तिकोनी महीन फाइल , जिसके हत्थे में एक लट्टू लगा था  और ना जाने क्या- क्या थे | फिर भी ये कम ही पड़ता था | कई बार बड़ा हथौड़ा माँग कर लाने मुझे मुन्ना के घर दौड़ाया जाता था, जहाँ उसके राजा चाचा के पास लगभग उतना बड़ा, वैसा ही खजाना था - तो कभी छोटा के घर नुकीला प्लायर मांगने, जहाँ छोटे का बड़ा भाई विजय भी कभी कभार कुछ ठोंका पीटी करता  था |
कौशल भैया ने कांच की तीन पतली-पतली पट्टियाँ लीं | उन्हें आपस में जोड़कर एक तिकोनी चोंगेनुमा आकृति बनाई और उन्हें धागे से क़स कर बाँध दिया | फिर उसके चारों तरफ भूरा मोटा कागज़ चिपका दिया | तिकोनी आकृति के अन्दर रंग बिरंगी काँच की चूड़ियाँ डाल दी | फिर एक ओर काला कागज़ और दूसरी ओर एक पारदर्शी प्लास्टिक का कागज़ चिपका दिया |
जब वे उसे घुमा घुमाकर देख रहे थे तो हमसे रहा नहीं गया |
पता नहीं अन्दर क्या था ? सब दम साधे देख रहे थे |
"ठीक है | बन गया .... |" उन्होंने संतुष्टि से कहा और उसे शशि के हवाले कर दिया |
एक -एक करके सभी उसे घुमा-घुमाकर देख रहे थे | सबको मौका दिया गया |
अन्दर क्या था ?
क्या शानदार डिजाइन थी | रंग बिरंगी आकृति ..... अभी मैं एक डिजाइन में खोया हुआ ही रहा था कि कौशल भैया ने चोंगे को घुमाया और लो , अन्दर की आकृति बदल कर एक और खुबसूरत डिजाइन में बदल गयी |  जितना घुमाओ , उतनी नयी डिजाइन ....| मैं घुमाते ही जा रहा था ...|
बरसों बाद भौतिकी क़ी कक्षा में मैंने पढ़ा - वो क्लाइडिस्कोप  था - प्रकाश के परावर्तन पर आधारित ... |
"अब संजीवनी को भी देखने दे ...|"दूर कहीं से आवाज़ आई ...| लेकिन उसे अनसुना कर मैंने क्लाइडिस्कोप  एक बार फिर घुमाया ....|
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.... क्लाइडिस्कोप के  अन्दर  का  दृश्य  बदल गया ...|
"अभिनन्दन है अभिनन्दन है |
अभिनन्दन है मुस्टंडों का,
लाठी , गोली और डंडों का ,
बिन पढ़े पास हो जाओगे ,
ये कहने वाले पंडों का,
अभिनन्दन है |
अभिनन्दन  है  हडतालों  का ...|
भारत माता  के लालों का... |
चाहे जब लटके दरवाजों पर
बिन चाबी के उन तालों का ...|
अभिनन्दन है अभिनन्दन है |"
बच्चों के लोकप्रिय मासिक "पराग" में कविता की ये कुछ पंक्तियाँ थी | मासिक बच्चों का था - बड़ों का नहीं | फिर भी किशोर और युवा पीढ़ी पर ये अक्षरशः खरी उतरती थी |
भिलाई विद्यालय के बीचों बीच जो उद्यान था, वहां  ग्यारहवीं के लड़के एक ओर बैठे थे | बाबाजी छड़ी लेकर उषर से निकले ,"क्या ग्यारहवीं के छात्र हड़ताल पर हैं ?" वे मुस्कराए ,"क्या मांग है भाई उनकी ?"
"सर , वे कहते हैं, उनकी कक्षा के फर्नीचर पुराने हैं और टूट फुट गए हैं | उन्हें नया फर्नीचर चाहिए |"
"वाह भाई वाह ... | बड़े लाट साहब हैं |" बाबाजी बोले |
अभी वे कुछ कहते, उसके पहले उन्होने देखा, दसवीं कक्षा के लड़के भी बाहर आकर एक ओर मुंह फुलाकर बैठ गए |
"कमाल है |" बाबाजी बोले ,"क्या दसवीं के छात्र भी हड़ताल पर हैं ? अब इनकी क्या मांग है महाशय जी  ?" उन्होने एक वर्ग के कक्षा शिक्षक तिवारी जी को बुलाया ,"आपके बच्चों क़ी क्या मांग है ?"
"अभी पता करता हूँ सर |"  तिवारी जी बोले |
थोड़ी ही देर में वे छात्रों से बात करके लौटे ,"सर वे बोल रहे हैं, जब ग्यारहवीं कक्षा को नए फर्नीचर मिलेंगे तो पुराने फर्नीचर उन पर थोप दिए जायेंगे | उन्हें ग्यारहवीं के नहीं, बल्कि नए फर्नीचर चाहिए |"
ऐसी हड़तालें तो उन दिनों आम बात थी ...| जवान होती किशोर पीढ़ी के खून में था उन दिनों यह ...| जहाँ कोई स्वप्न भंग होते दिखता , जहाँ उन्हें उनकी आँखों में अन्याय नज़र आता , जहाँ उन्हें अपना हक़ छिनता नज़र आता - बस, बगावत पर उतर आओ ...| सच्चाई तो यह थी, कि देश के इतिहास का वह दौर था, जब युवा पीढ़ी अपने आप को दिशाहीन महसूस कर रही थी | दिशा दिखाने वाले न तो वो नेता रहे और न ही उनके आदर्श ...| ये समस्या विश्व व्यापी थी | अमेरिका को देखो | जहाँ उन्होंने पहला आदमी चाँद पर भेजा, वहीँ , उसी समय एक हिप्पी जमात ने जन्म लिया | ... और उन मुओं को देखो - कहीं और नहीं, राम और कृष्ण को हरा करते हुए उन्होंने सीधे हिंदुस्तान क़ी ओर रुख किया | और हिंदुस्तान ? बापू क़ी जन्म सदी मनाने के पहले ही दल बदल और नक्सलवाद ने जन्म ले लिया ...| युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित ना हो तो भला क्या हो ?
बाबाजी ने लड़कों को बुलाया | घुट्टी पिलाई | इतिहास दिखाया | हकीकत समझाई | देश क़ी वस्तुस्थिति बताई, कई गाँव ऐसे हैं जहाँ फर्नीचर  तो दूर, शिक्षक भी नहीं हैं | उन्हें अपने कर्तव्यों से अवगत कराया | फिर बोले, "मैं वादा तो नहीं करता, कोशिश जरुर कर सकता हूँ | जब तक बी एस पी से नए फर्नीचर नहीं आ जाते , आप सब दरी पर बैठेंगे | आप के साथ मैं भी दरी पर बैठकर काम करूँगा ....|"
वहीँ, उसी समय , उसी जगह हड़ताल क़ी कमर टूट गयी |
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मैंने इस बार क्लाइडिस्कोप घुमाया और मुझे बाबूजी का परेशान चेहरा दिखाई दिया ...!
हाँ वो बाबूजी ही तो थे ...|
बाबूजी इतने परेशान क्यों हैं ? मगर नहीं .., कोई और भी है | वो हँसता मुस्कुराता चेहरा किसका है ? हँसता मुस्कुराता ? नहीं, बेशर्मी से हँसता ... ! खून जमाने वाले ठहाके लगाता, बाबूजी की आँखों के सामने ..| उससे नज़र फेरने के लिए बाबूजी जहाँ निगाहें घुमाते, उछलकर वह वहीँ दृष्टि  के सामने आ जाता ...|  ...|
उस सवाल  का रूप तो विश्व भर की उन  समस्याओं से जुदा था ...|
 कभी भी कहीं से भी , वह प्रश्न उनके सामने आकर खड़ा हो जाता था ... कभी उजड्ड ढंग से  से दाँत दिखाता, कभी बेताल की तरह उड़कर गायब हो जाता और फिर अगले क्षण विक्रम के कंधे पर सवार .... |
बाबूजी क़ी समस्या अजीब थी | एक अतीत क़ी परछाईं एक भविष्य पर सीधे पड़ रही थी | उससे बेखबर वर्तमान अपनी ही साधना में लगा था | सामने एक पहाड़ खड़ा था | पीछे से घर में बाबूजी और शाला में बाबाजी क़ी नज़रें बराबर हांके जा रही थी ." वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो | सामने पहाड़ हो, सिंह क़ी दहाड़ हो ... |"
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.... आखिर क्यों घुमाया क्लाइडिस्कोप ? अन्दर एक नयी आकृति उभर कर सामने आ गयी !
बाबूजी भोपाल गए थे | रात के करीब सात - आठ बजे किसी ने दरवाजा खटखटाया | कौशल भैया ने दरवाजा खोला |
"प्रिंसिपल साहब   हैं ?" दरवाजे पर एक बूढ़ा , काफी बूढ़ा गंजा सा आदमी खड़ा था |
"पिताजी तो भोपाल गए हैं |" कौशल भैया बोले |
वह बूढ़ा चिंता मग्न काफी देर तक वहीँ खड़ा रहा , फिर पूछा ,"कब तक आयेंगे ?"
"परसों तक |"
"अच्छा , वाइस प्रिंसिपल कौन हैं ? मोटवानी साहब ?"
"जी हाँ |"
"उनका घर जानते हो ?"
"जी | जानता तो नहीं | सेक्टर ७ में कहीं रहते हैं |"
वह बूढ़ा बोझिल क़दमों से जाने के लिए मुड़ा | औपचारिकता वश कौशल भैया ने पूछा ," आपका नाम ? उन्हें कोई मेसेज देना हो तो बोलिए |"
वह बूढ़ा क्षण भर के लिए रुका "तुम्हें मालूम है, आज मरोड़ा टैंक में कल्याण कॉलेज   के बारह छात्र डूब कर मर गए हैं ...| मरने वालों में मेरा पोता भी एक था  ...|"
काफी ह्रदय विदारक  घटना थी ये | पिकनिक पर गए छात्रों को प्रोफेसरों ने साफ़ मना किया था कि पानी में ना उतरें | मरोदा टेंक से भिलाई शहर को पेयजल की आपूर्ति होती थी | इसलिए जगह जगह बोर्ड भी लगे थे कि कपडे धोना , नहाना मना है | उद्दंड छात्रों का कुतर्क था, नहाना मना है, तैरना मना नहीं है | प्रोफेसरों ने सख्त हिदायत दी पर वे छात्र फिर भी नज़र बचाकर फिसल गए | ताल का नीला पानी उन्हें उत्प्रेरित कर रहा था, या ये उनकी मौत थी जो उन्हें बुला रही थी ? पानी काफी गहरा था और आगे पानी के अन्दर इस्पात क़ी जालियाँ लगी थी, ताकि मगरमच्छ और बड़ी मछलियों को रोका जा सके | तैराकी के लिए होड़ लगाते छात्र उन जालियों में फंस गए ....|
क्या वही थी वह युवा पीढ़ी थी वो युवा पीढ़ी - जो ऊर्जा से भरपूर थी ?वह ऊर्जा जो बड़े बड़े दुस्साहस पूर्ण कार्य करने से हिचकिचाती नहीं थी |  ऐसी ऊर्जा जो अगर ठीक दिशा में संचालित न क़ी जाए तो वह आत्म विनाश का कारण बन जाती थी |
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क्लाइडिस्कोप .... इतनी जल्दी कैसे छोड़ दूँ मैं ? सब आवाजें अनसुनी करके मैंने एक बार और घुमाया ..... |
बेचारे मेंढक ...., दार्दुर भैया अगर ना गायें  तो मारे ख़ुशी के उनका पेट फट जाए | और अगर  गायें तो मुसीबत ...| ये वही बरखा का मौसम होता है , जब साँपों के बिल में पानी घुस जाता है और वे बेघर भटकते हैं | उन्हें भूख भी लगती है और तिस पर ये मेंढक ....जले पर नमक छिडकते हुए  तराना छेड़ देते  है ...|
अब मेंढकों की मुसीबतों का यहीं अंत नहीं हो जाता ....| मैं चीन की बात नहीं कर रहा जहाँ के रसोईघर उनका जीवन सार्थक बना देते हैं ; भारतवर्ष में बारिशों का मौसम स्कूल खुलने का मौसम होता है | स्कूल के सारे के सारे बंद दरवाजे खुल जाते थे - कक्षाओं के, दफ्तर के, स्टाफरूम के , लाइब्रेरी के , क्रीडा कक्षों के और हाँ ... प्रयोगशालाओं के भी ....|
रात के करीब दस बज रहे होंगे ....| ऐसी धुआंधार बारिश, अब बाहर गेट में ताला लगाने कौन जाए ? सब एक दुसरे पर टाल रहे थे | कुल दस कदम तो चलना था- बरामदे से गेट तक ...| कौन जाए ताला लगाने ... भला किस चोर की मजाल जो आज रात ड्यूटी बजाने की हिम्मत करे ? वो भी आज रात चादर ओढ़कर सो जायेगा ....|
अचानक गेट खुला ...| हाँ ये गेट खुलने की आवाज़ थी | सिर्फ एक टॉर्च की रौशनी दिखी और दो लोग अन्दर घुसे ....| दिल की धडकनें तेज हो गयीं  ...| खिड़की से किसी तरह हिम्मत बटोरकर झांक कर देखा  ...| वे लोग घेरे की और बढ़ गए ....| एक ने रेन कोट पहन रखा था | तीव्र प्रकाश वाली चार सेल की टॉर्च उसके हाथ में थी और दूसरे के हाथ में छतरी थी जिसका इस बारिश में होना न होना बराबर था | बजाये घर के आसपास आने के, वे पिछवाड़े की ओर बढ़ गए |
चप्पल की चरम चूं  तो जानी पहचानी सी लगी | कहीं वो ... हाँ, अरे छतरी वाले को देखो | वो मुन्ना के राजा चाचा तो हैं | उनके साथ टॉर्च वाला ? वो तो शरद है |इक्कीस सड़क वाला शरद ....| बाबूजी ने लाईट जलाई |
"अंकल, वो मोटा मेंढक इधर आया था क्या ? मोटा मेंढक ...?"
क्या बेतुका सवाल था | मगर ये उनके प्रयोजन को स्पष्ट करने के लिए काफी था |
और मेंढक राम ? कहते हैं ना, डर लगे तो गाना गा ...|" वह पिछवाड़े में फिर एक बार टर्राया  और दोनों भूखे शेर की तरह भागे | थोड़ी देर में जब वे पिछवाड़े से आये, फंदे में मोटा मेंढक लटका बुरी तरह तड़प रहा था .... उसकी एक टांग  फंदे में फंसी थी ...|
"...अच्छा हुआ मैंने बाइलोजी नहीं ली माँ ...|" कौशल भैया बोले ,"आदमी को खोलने के पहले मेंढक के पीछे दौड़ो, पकड़ो और काटो ....|"
कई कई लोग तो , खासकर कुछ लड़कियां , प्रयोगशाला में उलटी कर देते थे , मेंढक काटते समय ...| ,,, पर चिकित्सक बनने की तो ये पहली परीक्षा थी | और कुछ नहीं, कलेजा मजबूत करो  और आँख खोलकर मेंढक काटो  |
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बाहर क़ी लाइट जल चुकी थी , मतलब यह देर शाम का समय था |  घर के बरामदे में उन लोगों ने एक पेपर बिछा दिया और चारों ओर झुण्ड बना कर बैठ गए - तमाल, सप्पन, मुन्ना  का राजा चाचा , कौशल | उनके पास क्या था - कुछ फ्यूज़ बल्ब | क्या कर रहे थे वे ? सावधानी से बल्ब की टोपी पर पेंच कस रख कर धीरे धीरे छोटी हथौड़ी से चोट मार रहे थे | इतनी सावधानी से कि वे बात भी धीरे धीरे कर रहे थे | यदि काँच का खोल तड़क जाता तो सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाती |
उद्देश्य यही था कि ऊपर का लाख का कवच धीरे से तोडा जाए और अन्दर फिलामेंट सावधानी से निकाला  जाए | एक तो टंगस्टन का फिलामेंट वैसे ही छोटा होता था , फिर फ्यूज़ बल्ब में तो उसके दो टुकड़े हो जाते थे | इतने छोटे से टंगस्टन के टुकड़े के टुकड़े को वे सावधानी से जमा कर रहे थे | अखबार इसीलिए तो बिछाया था ताकि टंगस्टन  अखबार में ही रहे | फिर भी हुआ यह कि एक टंगस्टन का टुकड़ा अख़बार से लुढ़क पड़ा |
तमाल चिल्लाया , "अबे , पकड़ | टंगस्टन को पकड़ |"
सप्पन को कुछ समझा नहीं आखिर वह क्या चिल्ला रहा है ? तमाल फिर चीखा ,"टंगस्टन क़ी तार पकड़ बे |" वह खुद छलाँग लगाकर अखबार के दूसरी ओर भागा | तब तक टंगस्टन का तार अखबार से लुढ़क कर अँधेरे में विलुप्त हो गया |
"टॉर्च ला बे टॉर्च ला |" कौशल भैया अन्दर से एक छोटा टॉर्च लेकर आये |
"अरे पेन्सिल टॉर्च नहीं बड़ा टॉर्च लेकर आ |"
और कौशल  भैया अन्दर से दो सेल वाला टॉर्च लेकर आये |
खोजबीन में तमाल ने पूरी उथल पुथल मचा दी | अखबार के टुकड़े के नीचे , जूतों के पीछे , मनीप्लांट पौधों के गमले के पास ... | जब वहां कुछ नहीं दिखा तो नीचे मोंगरे क़ी जड़ों तक चला गया |
"कौशल, तेरे पास बड़ा टॉर्च नहीं है बे ? चार सेल वाला ? "
"नहीं , इतना ही बड़ा है |"
तमाल ने गहरी सांस ली | वो निराशा में डूब गया ,"कहाँ गया यार टंगस्टन क़ी तार ? " फिर वो सप्पन पर बरस पड़ा , "बोला पकड़, बोला पकड़ , .... | बोला पकड़ टंगस्टन की तार ....| पकड़ा क्यों नहीं ?"
सप्पन  को अब भी समझ में नहीं आ रहा था क़ि आखिर वो बोल क्या रहा है ?
"क्या नहीं पकड़ा बे ?"
"टंगस्टन की तार ?"
"टंगस्टन की तार  ? तू तो ऐसे चिल्ला रहा है जैसे तेरा सोने का गहना ग़ुम गया हो |  कहाँ था वो .... वो .... 'वो' तार ?"
" टंगस्टन की तार  | " राजा ने उसकी मदद की |
"हाँ , टंगस्टन की तार  | कहाँ था वो ? मैंने तो नहीं देखा |"
"वो बल्ब के अन्दर था | "
"तो ठीक है | यह भी तो बल्ब है | इसके अन्दर से फोड़ के निकालते हैं |  यह भी कम पड़ा तो सड़क में बल्ब जल रहा है | वो फोड़ देंगे | तू उसका क्या करेगा ?"
टंगस्टन के तार का तमाल क्या करता, ये तो पता नहीं | वैसे भी वह ढेरों अनुसंधान किया करता था | हाँ , बल्ब के खोल का कौशल भैया ने क्या किया , यह मुझे मालूम है |
एक बहुत ही पतला तार लिया | अब बल्ब के होल्डर में , जहाँ उसे लटकाने वाली खूंटी थी, आर पार दो छोटे छिद्र बन गए थे |  उसमें पतले तार घुसा , तारों के छोर आपस में मिलाकर एँठ  दिए | फिर उस खोल में रंगीन पानी भर कर बैठक की दीवारों पर टांग दिया |
लेकिन यह सब काम उन्होंने किया - बाद में , उनके जाने के बाद |
उस समय तो तमाल और सप्पन की नोक झोंक चल रही थी |
"तुझे मालूम है , टंगस्टन की तार  क्या होती है ?"
"जरुरत नहीं है , जानने की |"
"हाँ, तुझे क्या जानने की जरुरत ? तू तो आर्ट्स वाला है | "
बात सप्पन को कुछ चुभ गयी ," तो तू साइंस वाला है तो तोप हो गया ?"
कौशल भैया ने बीच बचाव किया ,"बस करो बे | सुबह खोज लेंगे |"
साइकिल की खरोंच पर रंग करने के लिए  कौशल भैया काला पेंट लेकर आये थे | पेंट के डिब्बे में अभी कुछ थोडा बहुत पेंट बाकी था | कौशल भैया ने उस ब्रुश को सामने की खिड़की पर  आड़ा तिरछा रगडा और देखते ही देखते एक झोपड़ी की तस्वीर तैयार हो गयी |
अचानक तमाल की निगाह उस पर पड़ी |
जैसे एक रोते हुए बच्चे का ध्यान झुनझुने क़ी रुन झुन से बँट जाता है, वैसे ही तमाल का ध्यान बँट गया |
"अरे वाह, शाबास | क्या झोपड़ी बनाई है ? अब इधर देख मेरा कमाल ...|" उसने कौशल भैया को धक्का दिया ,"एक मिनट, मुझे करने दे | देख ...."
उसने मोटा ब्रश लेकर उसे पेंट में डुबाया और खिड़की पर रगड़ने लगा |
"क्या कर रहा है बे ?" कौशल भैया कुछ बोलता उससे पहले ही तमाल तस्वीर पर पिल पड़ा ,"मुझे बनाने दे|"
पीछे से सप्पन "वाह वाह" कर रहा था | तमाल  ने बादल बनाने क़ी कोशिश क़ी ,लेकिन तब तक पेंट सूख चुका था | उने पेंट के डब्बे में पूरा रगडा, लेकिन किस्मत अच्छी थी कि पेंट सूख चुका था |
मौसम बदलते रहे | देखते देखते दिन ,महीने, साल और दशक गुजर गए | एक नयी पीढ़ी ही घर में मेहमान बनकर आ गयी | लेकिन वो तस्वीर, उसी जगह, वहीँ रही | एक झोपड़ी और साथ में तमाल के बनाये हुए अधूरे बादल ....|
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 तन्गप्पन  आदत से मजबूर था | वो हरदम हँसते रहता था | उसमें कुछ बात ज़रूर थी कि जब भी वह आता, हम लोग भी हँसते रहते | अब उसका नाम ही देख लो , कोई उसे "तन्खा पन " कहता था, तो कोई " तंगा बन" | हिंदी का व्याकरण वैसे ही थोडा आड़ा तिरछा है | पुल्लिंग और स्त्रीलिंग को लेकर बड़े - बड़े लोग गच्चा खा जाते हैं तो तन्गप्पन तो बेचारा अहिन्दीभाषी था | न केवल वो अहिन्दीभाषी था, बल्कि अ-हिंदी प्रदेश में पैदा हुआ , बड़ा हुआ | अगर अपने भाई सदानंदन अंकल के बुलावे पर वह भिलाई नहीं आता तो उसकी ज़िन्दगी शायद केरल में ही गुज़र गयी होती |
बड़े सुरेश से मेरी कोई अच्छी खासी दोस्ती नहीं थी, लेकिन उसके काका तन्गप्पन और कौशल भैया में गाढ़ी छनने लगी | आखिर यह दोस्ती हुई कैसे ? क्या थी उसकी जड़ ? मुझे नहीं मालूम |  मुझे नहीं लगता कि वो कभी भिलाई विद्यालय गया था | अगर गया होता तो बाबा जी उसकी हिंदी सुधारते - सुधारते खुद बिगड़ जाते और वह शर्तिया तौर पर और किसी विषय में नहीं तो हिंदी में जरुर फेल हुआ होता | जब वो भिलाई विद्यालय में नहीं था तो कौशल भैया का दोस्त कहाँ से बना ? शायद तमाल का पडोसी होने के कारण ?
जो भी हो, वो साइकिल की सीट पर सीना तानकर बैठता | ठीक वैसे ही , जैसे सदानंदन अंकल कभी स्कूटर पर और कभी मोटर साइकिल पर सीना तानकर बैठते | नहीं, नहीं, सदानंदन अंकल के पास कोई पचास गाड़ियाँ नहीं थी | एक समय में उनके पास एक ही गाडी होती - नया स्कूटर या नया मोटर साइकिल - जिसे वे कुछ दिन चलाते और फिर बेच देते | ये कैसा शौक था ? अजी शौक नहीं, पैसा कमाने का अच्छा तरीका था | उन दिनों स्कूटर के लिए सालों नंबर लगाना पड़ता था | तो शो रूम से बाहर आते ही स्कूटर की कीमत एकदम से बढ़ जाती | चार छः महीने में उसकी कीमत घटती   नहीं , बशर्ते कि आप टक्कर ना मारो | और जिस रफ़्तार से सदानंदन अंकल गाड़ी चलाते थे, लोग पचास मीटर दूर से ही रस्ते से हट जाते | यदि हम लोग सड़क पर खेलते रहते तो पुलिया के पास उनका स्कूटर देखते ही नाली में कूद जाते |
तो तन्गप्पन साइकिल में तन कर बैठता | सर ऊँचा , सीना बाहर और दाँत भी बाहर | हमारे घर के पास आकर वो पूछता ,"कौशल है क्या ? क्या ? पढने गयी है ? कहाँ ? स्कूल - अच्छा - मतलब ..." वो कुछ सोचता फिर कहता," मतलब शाला गई है | ठीक है न ? बोलना , तन्गप्पन ..." फिर वो हाथ हिलाता | समुद्र से शब्द खोजने के लिए हाथ पाँव मारता | उसकी हालत देखकर हम लोग सहायता करने लग जाते ,"आया था ? तन्गप्पन आया था ?"
"नहीं" वो इनकार में सर हिलाता, फिर सोचता ," याद गया था |"
"तन्गप्पन ने याद किया था ?"
"हाँ", उसकी बत्तीसी पूरी बाहर निकल जाती,"हाँ | वोइच्च ...| एक बार फिर से बोलना ?"
"तन्गप्पन ने याद किया था |"
"वंडरफुल |" और वो साइकिल चलाकर आगे निकल जाता |
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बाबूजी अब थोड़े से चिंतित दिखने लगे थे | वही वेताल  चिंता उन्हें सता रही थी | वैसे देखा जाए तो एक  नहीं अनेकों समस्याएँ और समस्याएँ लिए लोग उनसे टकराते रहते थे | अलग-अलग तरह के लोग - अलग-अलग तरह की समस्याएँ | कई बार ऐसा भी होता कि समस्याओं का समाधान खोजने बाबूजी के पास आये लोग ही एक दूसरे की समस्याओं का हल खोज डालते थे |
और उस अतीत क़ी छाया से भविष्य को बचाने के लिए ही उन्होंने एक दिन एक काफी अप्रिय निर्णय ले लिया जो क़ि दूरगामी सिद्ध हुआ |
एक दिन अचानक .....!
एक दिन अचानक ऐसे लगा, मानो अंगरेजी के पाँव उखड जायेंगे | सारे देश में 'अंग्रेजी हटाओ ' आन्दोलन  ने जोर पकड़ लिया था | बात १९६७-६८ की है | तब अंगरेजी विरोध इस सीमा तक जा पहुंचा था कि लोगों ने 'लोहपथगामिनी' ,' द्विचक्रवाहिनी'  जैसे शब्दों का उपयोग करना शुरू कर दिया  |
उस उग्र आन्दोलन का असर काफी क्षेत्रों में काफी कुछ हुआ | जैसे दुकानों के साइन  बोर्ड से अंग्रेजी ऐसे गायब हुई जैसे गधे के सर से सींग | लोगों ने नामों का संक्षिप्तीकरण   हिंदी में करना शुरू किया | जैसे - "जे एन यू यूनिवर्सिटी " , जिसे हिंदी में "जे एन यू विश्वविद्यालय " कहा जाता था, बन गया - जलाने विश्वविद्यालय" | हिंदी के समाचारों में 'आई. के. गुजराल' कि जगह कहा जाने लगा ,"इन्कु गुजराल " |
अब यह आन्दोलन क्यों शुरू हुआ, कैसे आग की तरह फैला ये बातें इतिहास के पन्नों में किसी कोने में दफ़न हैं | लेकिन बाबूजी का सजग दिमाग जानता था कि इसका राजनैतिक अंत क्या होने वाला है | पर उस समय तो लोगों के दिलों में "माँ के सम्मान" को लेकर सागर हिलोरे मार रहा था | उस समय कक्षा नवमी में विषयों का चयन करना पड़ता था | दो विषय भाषा के भी होते थे - एक विशिष्ट और एक सामान्य - जिसे लोगों ने उच्च और निम्न का नाम दे डाला | प्रायः उन दिनों लोग 'उच्च हिंदी' और निम्न अंग्रेजी लिया करते थे | आन्दोलन का ऐसा भयंकर असर हुआ कि मध्य प्रदेश में लोग उच्च हिंदी और निम्न संस्कृत लेने पर आमादा हो गए | अब भला संस्कृत के शिक्षक पेड़ों में थोड़े ही फलते हैं | मंदिरों के पुजारियों में भी अधिकतर को संस्कृत नहीं आती थी, क्योंकि वो पेशा विरासत में मिला होता था, जिसमें शिक्षा प्राप्ति क़ी आवश्यकता ही अनावश्यक थी | फल यह हुआ कि मध्य प्रदेश शिक्षा निगम ने निर्णय ले लिया कि विद्यार्थी चाहें तो विशिष्ट हिंदी  और सामान्य हिंदी - दोनों ले सकते हैं |
सारे छात्रों क़ी तरह कौशल भैया ने भी विशिष्ट हिंदी और सामान्य हिंदी लेने का निश्चय किया | लेकिन बाबूजी के मन में कुछ और था | वे चाहते थे क़ि कौशल भैया सामान्य अंग्रेजी लें | जब दिल में आन्दोलन क़ी हिलोरे उठ रही हों तो समझाना बुझाना बेकार था | फिर भी बाबूजी ने वह कोशिश भी क़ी ,"बेटा, विश्व में अंग्रेजी ही चलती है |"
"कहाँ अंग्रेजी चलती है ? कितने देश हैं जो फ्रेंच, स्पनिश , अरबी बोलते हैं |"
"अच्छा , कितने देश हिंदी बोलते हैं ? भारत, नेपाल, और .....? इन देशों का नाम काफी सुना है - सूरीनाम, फिजी ? दुनिया के नक़्शे में देखोगे तो एक बिंदु से भी छोटे दिखाई देंगे | मैं ये नहीं कहता क़ि अमेरिका में जाकर रहो | इंगलैंड में काम करो | पर जब कोई तुमसे अंगेजी का रौब ज़माना चाहे तो तुम आँखें न झपकाओ | इतनी अंग्रेजी तो आनी चाहिए |"
"मुझे कहीं नहीं जाना है |"
" यहीं रहो | देश क़ी सेवा करो | इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है | पर अपने आसपास ही देख रहे हो ना ? कितने लोग अभी भी इंग्लिश मीडियम पढ़ रहे हैं | तमाल को देख लो ...| दक्षिण भारत में लोग हिंदी के नाम में आत्महत्या कर रहे हैं | तुम्हें क्या लगता है ? नेता चुपचाप तमाशा देखेंगे ? वो तो अपनी रोटी सेंकने के लिए आग को और हवा देंगे | कल उन्हीं दक्षिण भारतीय लोगों के साथ तुम्हें काम करना पड़ेगा तो ? और इंजीनियरिंग और मेडिकल क़ी पढ़ाई हिंदी में ? कम से कम मेरी ज़िन्दगी में तो होने से रही | हिंदी के दुश्मन कोई बाहर वाले नहीं हैं | इस देश के लोग, अपने ही लोग हिंदी के शत्रु हैं | फिर मैं तुम्हें उच्च अंग्रेजी लेने को तो नहीं बोल रहा | उच्च हिंदी तुम ले ही रहे हो |"
अगले दिन , विषय लेने के पत्र पर अभिभावक के हस्ताक्षर के लिए कौशल भैया ने उसे बाबूजी के सामने पेश किया और बाबूजी   बिफर गए |
"ये क्या है ? विशिष्ट  हिंदी और सामान्य हिंदी ? दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा ? कल इतनी देर से बड़ बड़ कर रहा था , सब बेकार ?" अब वो डांट डपट पर उतर आये ,"क्यों लिखा तुमने ये ? क्यों ? सामान्य हिंदी ? बदलो इसको | करो सामान्य अंग्रेजी | अभी मेरे सामने |"
"बाबूजी , सब लोग विशिष्ट हिंदी और सामान्य हिंदी ले रहे हैं |"
"सब लोग कुँए में कूदेंगे तो तुम भी कूदोगे ?" बाबूजी ने पत्र फेंक दिया |
"???"
"अगर सामान्य अंग्रेजी नहीं लेना है तो कल से स्कूल नहीं जाओगे | घर में बैठो | "
फिर थोडा संयत होकर बोले,"अगर बाबाजी से बात करनी है तो मैं कल फोन लगाता  हूँ |"
बाबाजी का नाम सुनते ही मरी आवाज़ में कौशल भैया बोले ," ठीक है बाबूजी | सामान्य अंग्रेजी ठीक है |"
बाबूजी देर तक चिंतामग्न रहे | अतीत की वो काली छाया , वो पदचाप उन्हें साफ़ सुनाई दे रही थी | उनकी दूर दृष्टि देख रही थी क़ि इस आन्दोलन का परिणाम क्या होगा ? नेता जब निर्णय नहीं लेना चाहते तो वो आश्वासनों के ढेर लगा देते हैं और निर्णय को कल के लिए  टाल देते हैं | आज तो कल के सुनहरे सपने संजोये सो जाता है, पर कल कभी नहीं आता |

लेकिन जलती हुई आग में रस्सी पर चलता उतना आसान नहीं था | कौशल भैया को आठों दिशाओं से व्यंग्य बाणों का सामना करना पड़ा | जहाँ देखो, जहाँ चलो -खेल के मैदान में, पीने के पानी के नल पर, प्रयोगशाला में, पुस्तकालय में, एन सी सी की परेड में - कहीं न कहीं से बेशर्मों की तरह हँसता व्यंग्य मूर्त रूप ले ही लेता था | बात केवल सहपाठियों तक ही सीमित होती तो कोई बात थी |
"आइये श्रीमान जी ....|" सामान्य अंग्रेजी के शिक्षक कुमार सर ने कौशल भैया का कक्षा में स्वागत किया - एक विद्रूप सी व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ | कक्षा के अन्दर कौशल भैया ने देखा, पूरी की पूरी कक्षा खाली थी | केवल एक सामने की बेंच पर उनका एक साथी बैठा था | वह भी सहमा सा , घबराया हुआ | पूरे अंतराल में कुमार सर के व्यंग्य बाण चलते रहे |
और पुस्तकें ? सामान्य अंग्रेजी की पुस्तकें बाज़ार से ही गायब थी | अफवाह थी कि छात्रों ने जबलपुर में अंग्रेजी की पुस्तकों को जमा करके आग लगा दी थी , जिससे कोई भी दुकानदार उन पुस्तकों को रखने से कतरा रहा था |
कुमार सर की बातें सुनकर बाबूजी आग बबूला हो गए |
"वो कौन होते हैं ऐसी बातें कहने वाले ? क्या चाहते हैं वे ? बिना पढाये मुफ्त में तनखाह मिले (उन दिनों नौकरी तो किसी की जाती नहीं थी|) ? हमारा लड़का है | हम जो चाहेंगे पढ़ाएंगे उसे ....|"
बाबाजी से की गयी शिकायत का असर यह हुआ कि कुमार सर को पढ़ाने से ही विरक्ति हो गयी ,"तुम्हें जो पढना है, अपने आप पढो ...|"
जैसा बाबूजी ने सोचा था, वैसे ही हुआ | थोड़े दिन में ही तूफान धीरे धीरे शांत हो गया | देश क़ी गाड़ी उन्हीं पटरियों पर चलने लगी | स्टेशन तो स्टेशन, अदने से सिग्नल भी नहीं बदले ....| कौशल भैया को मुंह अधेरे, जब सब लोग सोये होते थे, बाबूजी ने अंग्रेजी  पढाना शुरू किया | अब उन्हें थोड़ी सी हिम्मत बंधी कि अतीत के उस साए से निपटा जा सकता है | देखते ही देखते दो साल निकल गए |
फिर भी वह अतीत की छाया - जबकि यह कौशल की स्कूल की  पढ़ाई का आखिरी साल था  - बाबूजी को जब तब परेशान करने लगी थी .....|
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"तीन अक्षर का मेरा नाम , उल्टा सीधा एक समान |"
कोई मुश्किल पहेली तो थी नहीं | उत्तर भी एक नहीं अनेक हो सकते थे ....| जैसे - सारसा - जो सोगा की बहन थी | जैसे याहिया - जो पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे और अक्सर भारत को कच्चा चबा जाने के सपने देखते थे | या फिर .... जैसे डालडा .....|
----- डालडा ....| वनस्पति घी .....| यानी कि वनस्पतियों से - जैसे कि घास पत्ती, पेड़ पौधे , कंद मूल से बना घी | शुद्ध घी तो लोगों की पहुँच के बाहर होते जा रहा था - बल्कि हो चुका था |  आम आदमी के लिए डालडा का ही सहारा था | उसे लेकर काफी मजाक भी बने - नयी पीढ़ी को कोसना हो तो -"डालडा की पीढ़ी ", सच में अगर मिलावट का अंदेशा हो तो - "थोडा डालडा मिला हुआ था " ,  सींकिया पहलवान के लिए - "डालडा पहलवान" ... और ना जाने क्या क्या ? उस ज़माने में और उसके बाद वनस्पति घी के और भी ब्रांड आये , लेकिन सब को डालडा ही कहा गया | यानी डालडा उत्पादक नहीं, उत्पाद हो गया |
तो डालडे का पीला डब्बा होता था, जिस पर ज्यादा कुछ नहीं, मोटे शब्दों में अंग्रेजी में डालडा लिखा होता था और एक खजूर के पेड़ की तस्वीर बनी होती थी - बस | ढक्कन खोलो तो अन्दर एक टीन की एक पतली सी परत लगी होती थी | यूँ तो किसी भी डब्बा बंद उत्पाद, अमूल दूध पाउडर या बार्ली में भी टीन की पत्ती लगी होती थी, किन्तु एक फरक था | दूध पाउडर या बर्ली के डब्बों से पूरी परत काटने की जरुरत नहीं पड़ती थी | एक बड़ा सूराख बनाओ और काम हो गया | लेकिन डालडा के डब्बे से वो पूरी की पूरी परत काट के निकालना पड़ता था | उसे तेज धार वाले किसी चाक़ू या अन्य  औज़ार से सावधानी से किनारे किनारे धीरे धीरे करके काटना पड़ता था |
ज़ाहिर है, घर में ये काम कौशल भैया के ही सुपुर्द था | मेरी यह समझ में नहीं आ रहा था कि टीन कि पन्नी काटकर , वे उसे सावधानी से क्यों सम्हाल कर रख रहे थे ? जैसा हमारे लिए कोका कोला या गोल्ड स्पॉट का ढक्कन था, कहीं ऐसा ही उनके लिए वो कीमती तो नहीं था ?  वे उसका क्या करेंगे ?
राज  खुलने  में थोडा समय लगा |
घर में जब तब या तो कोई नयी खाट बनती थी, या पुरानी खाट  की मरम्मत होती थी | बसूला ,बिंधना, खुर्ची , आरी, रंदा से खुरा-पाटी अक्सर बनते रहती थी | देखने में काफी  लोमहर्षक लगता था, जब श्याम लाल या राम लाल, नयी खाट के लिए खुरा पाटी बनाते , उन्हें आपस में जोड़ते और फिर नारियल बुच की रस्सी लेकर खाट की बुनाई करते | और जब काट पीट के उपकरणों क़ी धार कुंद होने लगती थी, तो धार तेज करने वाला काला पत्थर भी था | पत्थर को  पानी से भिगाओ और कुंद धार को उसमें रगडो | धार एक बार फिर तेज हो जाती थी |
ऐसे ही एक खुरे के टुकड़े से कौशल भैया ने एक चकती का आधार बनाया और उसके चारों और डालडा के कवर को मोड़ मोड़कर जल चक्र की कटोरियाँ बना ली | उस चक्र के आर पार मोटी कील घुसा कर उसकी धुरी बनाई और दोनों और उस धुरी को फंसाने के लिए जुगाड़ बनाया |
पनचक्की तैयार  थी |
ऊपर से पानी डालने से ही पहिया तेजी से घूमने लगता था |
कौशल भैया संतुष्ट नहीं थे | डालडे की पन्नियों की बनी जल चक्र की कटोरियों को न जाने कितनी बार मोड़ माड़कर उसका आकार बदला होगा | ध्येय यही था कि टरबाइन तेज, और तेज घूमे | उसके लिए महत्तम कोण क़ी उन्हें  तलाश थी  | दोनों तरफ के जुगाड़ों में साइकिल के पैडिल क़ी छर्रे वाली बियरिंग लगी थी जिसमें उन्होंने ग्रीस डाला, ताकि घर्षण कम से कम हो |फिर उस पनचक्की के एक ओर एक चक्का लगाया | उसमें रबड़ का एक पट्टा फंसाया और दुसरे सिरे को आटाचक्की के चोंगे से जोड़ दिया और वहां एक पंखा लगा दिया | पहले उनका इरादा एक जनरेटर बनाने का था , जिसके लिए उन्होंने व्यास से एक चुम्बक भी माँगा | पर जब वह चुम्बक नहीं मिला तो एक सामान्य आटाचक्की से ही उन्हें संतोष करना पड़ा |
बाबूजी देखकर खुश हो गए |
"वाह !" उनके मुंह से निकला |
उसके बाद उन्होंने एक नियम  सा बना लिया | सुबह जब बरामदे में बैठकर वे शेव बनाते, उसके बाद एक मग पानी उस पन चक्की में जरुर उड़ेलते | घुमती चक्की से जुड़ा पंखा हवा फेंकने लगता और उनका मन प्रफुल्लित हो उठता | इससे बेहतर दिन क़ी शुरुवात  भला क्या हो सकती थी ?
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... अब समय आ गया था कि मैं क्लैडिस्कोप किसी और के हवाले कर दूँ ....| मगर एक मिनट ... | जरा ये देखने दो | कौन हैं ये ?
कुछ लोग ऐसे थे, सड़क छोड़ने के बाद भी  कर्भी उनसे सड़क छूटी नहीं थी | शाम को वे खेलने वहीँ आ जाया करते थे | उनका दिल अभी भी इक्कीस बाइस सड़क के मैदान पर धडकता था और शाम होते ही कदम खुद ब खुद उन्हें खींच लाते थे |
प्रभात उनमें से एक था | वे डबल स्टोरी में चले गए थे, पर अक्सर वह मैदान में बैट घुमाते और हकलाती आवाज़ में कुछ न कुछ पुकारते, चिल्लाते हिदायत देते दीख जाता था | और  विभाष और विवेक ?
और वे दोनों भाई? उन्हें भी तो सड़क छोड़े काफी दिन हो गए थे |यकीन आता  है क्या कि वे कभी सड़क से कट गए थे - कदापि नहीं | हरगिज नहीं ...|
गुड्डू और पप्पी दो भाई थे - पांडे जी के लड़के | किसी ज़माने में वे हमारी सड़क में रहा करते थे | कभी दिनों तक रहे | माँ ने तब से देखा था, जब घुटनों के बल चलते थे | वे अब बड़े- बड़े घोड़े हो गए थे , किन्तु माँ के लिए अब भी गुड्डू और पप्पी ही थे | उम्र में कौशल भैया से वे बड़े थे | अच्छे खासे ह्रष्ट पुष्ट |
एक दिन दोनों घर पर आये | माँ को नमस्ते किया | माँ ने चाय के लिए पूछा तो शिष्टाचार के मारे ना नुकर करने लगे | फिर पप्पी ने पूछा, "कौशल किधर है ?"
कौशल भैया ट्यूशन पढ़ने गए थे | जब तक वे नहीं आये, दोनों भाई वहीँ बैठे रहे और इधर उधर की हांकते रहे | बातें ख़तम होने का नाम ही नहीं ले रही थी | दोनों भाई गपोडे थे | एक बात का एक सिरा कहीं ख़तम होता तो वहीँ से दूसरी बात का सिरा शुरू हो जाता |
लेकिन जब कौशल भैया आये तो वे बमुश्किल पांच मिनट बैठे होंगे - उससे ज्यादा नहीं | क्योंकि उन्हें लम्बे सफ़र की तैयारी करनी थी |
पाकिस्तान  के साथ युद्ध की छाया मंडरा रही थी | देश नौजवानों को सेना में भरती के लिए पुकार रहा था |  अगर लड़ाई ना भी हो तो भी सेना की नौकरी नौजवानों को हमेशा आकर्षित करती थी - और वो तो एक तनावपूर्ण दौर था | दोनों भाई वायु सेना में भरती के लिए परीक्षा देने जा रहे थे | उसके लिए कौशल से उसके एन. सी. सी. के जूते लेने आये थे | थोडा बहुत बड़ा हो तो सामने रुई ड़ाल देते | थोडा छोटा हो तो किसी तरह सह लेते |  वायु सेना में भरती के लिए रौब दाब , चरमराते जूते की जरुरत थी  | एक जोड़ी जूता तो मिल गया और अब उन्हें दूसरी जोड़ी की तलाश थी ......|
दो सप्ताह बाद वे जूते वापिस करने आये | फिर से माँ के साथ बैठकर "हा हा ही ही " .... | दोनों के दोनों भाइयों ने परीक्षा में अच्छा किया | लिखित परीक्षा पास की , दौड़ भाग में अव्वल रहे | लेकिन जब शारीरिक माप का समय आया तो दोनों भाई फेल हो गए | गुड्डू की ऊँचाई ठीक थी, लेकिन सीना एक सेंटीमीटर  कम था | पप्पी का सीना ठीक था, लेकिन ऊँचाई एक सेंटीमीटर कम हो गयी | और सेना वाले गुणवत्ता के मामले में कोई समझौता नहीं करते | ये देश की रक्षा का सवाल था, किसी के सपने टूटे तो क्या ? लेकिन लगता नहीं था कि वे हताश हुए हों | जीवन के हज़ार रास्ते और खुले थे , उनके सामने |

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"सवेरे वाली गाडी से चले जायेंगे ...| सवेरे वाली गाडी से चले जायेंगे | "
"जाना है तो जाओ, मनाएंगे नहीं ....|"
हमारा पैतृक गाँव तो छत्तीसगढ़ में ही था - भिलाई से करीब साठ पैंसठ किलोमीटर दूर | हमें तो कहीं दूर जाना था नहीं | सच्चाई तो यह है कि जब मैंने पहली बार रेल के डिब्बे में कदम रखा , तब मैं छठवीं में पढता था | गर्मी की छुट्टियाँ आते ही - जिसे देखो वही - जब तब - जहाँ तहाँ - यह गाना गाते दिख जाता था ,"सबेरे वाली गाडी से चले जायेंगे ...|  सबेरे वाली गाडी से चले जायेंगे ...|" चाहे वो सिन्धी राजू हो या बंगाली सडा दाँत शंकर | बिहारी बाबू अनिल हो  मराठी'  बंडू | उस समय उनके चेहरे से झलकती ख़ुशी बता देती थी कि वे 'देस' जाने वाले हैं | 'परदेस' में रहते थे ना बेचारे !
तो जब भिलाई विद्यालय से शैक्षिक भ्रमण पर जाने का पैगाम कौशल भैया ने बाबूजी को दिखाया तो एक पल भी सोचे बिना बाबूजी बोले ,"चले जाओ तुम भी | यात्रा करके आओ |" न तो उन्होंने ये पूछा कि आने जाने और ठहरने क़ी क्या व्यवस्था है और ना ही कि कौन कौन और कितने लोग जा रहे हैं |
अब भला दक्षिण भारत का भ्रमण  दस दिनों में क्या हो पाता ? हैदराबाद, मैसूर और  मद्रास | कोई ज्यादा सामान भी नहीं - केवल एक लाल रंग  के एयर  बैग में कुछ कपडे और ओढने बिछाने क़ी चादरें |
लेकिन दस दिन बाद वे आये तो काफी सामान लेकर आये | तजुर्बों क़ी भारी भरकम टोकरी और ढेर सारी कहानियों को अगर एक तरफ रखा जाए तो भी और भी बहुत कुछ था जिसने सबका ध्यान खींच लिया |
"ये क्या है ?"  माँ ने दो बगुलों क़ी जोड़ी को पकड़ कर उठाया |
"माँ , मत छू माँ | मत छू | लो, मना करने पर भी छू लिया | आप छुआ गए | अब जाओ , नहा कर आओ | "
"ये है क्या ?"
"भैंस के सींग से बना कोकड़ा (बगुला ) |"
'सींग' सुनते ही  माँ के हाथ से बगुलों क़ी जोड़ी ज़मीन पर गिर पड़ी | न केवल बगुले, अपितु उनके खड़े होने का स्टैंड भी भैंस के सींग से बना था | और तो और - उनके सामने एक 'नांद ' या चारे क़ी टोकरी भी सींग से बनी थी जो कागज़ क़ी पतली  पतली पत्तियों से भरी हुई थी | कौशल भैया ने बगुलों को स्टैंड पर खड़ा किया , उनके सामने चारे क़ी टोकरी लगाईं और उन्हें 'बैठक' के सामने क़ी अलमारी पर रख दिया | बरसों तक वही उनका घर रहा - लम्बी टांग और लम्बी गर्दन वाले, सींग से बने, पॉलिश किये हुए  - बगुलों क़ी वह जोड़ी - वहीँ खडी रही |
 और वो हाथ पंखा ? उसका आकार कितना छोटा सा था, लेकिन जब उस घुमाकर खोला गया तो - वह क्या शानदार डिजाइन थी | और आकार भी कितना बड़ा हो गया | उसे हिलाने से अफ़ी हवा आएगी | खूबी यह थी कि वामावर्त और दक्षिणावर्त घुमाने में ही दो अलग अलग डिजाइन बन जाती   थी |
तार के बने उस जालीदार ढांचे को देखते ही माँ के मुँह से अनायास निकला ,"ये टुकना कहाँ से उठा लाये ? घर में टोकरी कम है क्या ?"
माँ का सवाल बेवजह नहीं था | रसोई घर में ही बाँस की बनी दो टोकरियाँ थी, जिनमें आलू , प्याज़ और दूसरी  सब्जियाँ रखी होती थी | ये सवाल तो सभी लोगों की जुबान पर था कि आखिर यह है क्या ? तार की टोकरियाँ सब्जी दुकानों पर अक्सर दिख जाती थी, जिनमें अंडे रखे होते थे - पर वे तो आकार में काफी छोटे होते थे |
"ये टुकना है ?" कौशल भैया हिकारत से बोले |
"तो क्या है ?"
कौशल भैया  उसे तोड़ते मरोड़ते रहे आकार बदलते रहे , लेकिन किसी को उसकी कोई उपयोगिता समझ में नहीं आई | लोगों ने उसे कौशल भैया की दूरदर्शी आँखों से देखा ही नहीं था ....|
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"मेरे बेरी के बेर मत तोड़ो | मेरे बेरी के बेर मत तोड़ो तुम्हें कांटा  चुभ जाएगा ...|"
ये गाना आपने आशा भोंसले की आवाज़ में सुना होगा | मगर जिन लोगों ने छोटे के बड़े भाई विजय को ये गाना तरंग में आकर गाते सुना होगा, उन्हें शर्तिया आशा  भोंसले की आवाज़ भूल गयी होगी | विजय यों तो गाता कम था, पर जब गाता था तो गीत अमर हो जाते थे |
ये बात तो स्वीकारना पड़ेगा कि छोटे लोगों के आने के बाद सड़क की शब्दावली काफी बदल गयी | सबके घर के तीन ओर लोग ज़मीन को लकड़ी , या काँटेदार तार से घेर देते थे | ज़मीन का वो टुकड़ा उनका अपना हो जाता था, ताकि वे  साग सब्जी , बेल फूल , कंद मूल फल - जो मन में आये उगा सकें |अब उन लकड़ी के पल्लों या काँटे दार घेरे को आप क्या कहेंगे ? "घेरा" - जी हाँ | इक्कीस और बाइस सड़क के सब लोग "घेरा" ही कहते थे | छोटे लोगों ने उसे "बाड़ी" का नाम दिया और देखते ही देखते सारे लोग "घेरे" को "बाड़ी" कहने लगे | पिताजी को वे लोग "पिता" कहते थे | हाफ पेंट को 'निक्कर' कहते थे |
वैसे ही  उनका दिया हुआ एक नाम काफी प्रचलित हो गया |
ये वो दिन थे, जब त्यौहार मरे नहीं थे | ना तो उनका स्वरुप विकृत हुआ था | ना वे इतने "शालीन" और "सभ्य" होते थे | न लोगों को पर्यावरण के संरक्षण की चिंता थी | वे काफी सरल होते थे | जब पोला का त्यौहार आता था , जो लोग मिटटी के बैल नहीं बना सकते थे , वे लोग सुपेला बाज़ार से खरीद लाते थे | शाम ढलते ढलते लोग अपने अपने बैलों के ऊपर एक मोम बत्ती लगा देते और अँधेरे में उसकी डोर खींचते हुए बाइस से इक्कीस सड़क की परिक्रमा करते | कई बार तो चार छः दोस्त अपने अपने बैलों को एक साथ मिलाकर एक काफिला सा बना लेते | नाग पंचमी के दिन कोई ना कोई संपेरा सड़क पर जरुर आता और घर घर   जाता | कितने लोग थे जो साँप को दूध पिलाते | शरद पूर्णिमा की चांदनी रात में लोग आसमान से बरसते अमृत बटोरने के लिए छत पर दूध से भरा कटोरा रख देते |
वैसे ही, जब रामलीला मैदान में रावण जलता और लोग सोन की पत्ती का आदान प्रदान करते , उसके अगले दिन से ले कर तुलसी पूजा के दिन तक ....?
शाम का धुंधलका पाँव पसारते जा रा था | अँधेरे के उस साम्राज्य को चुनौती देता एक दीप आकाश की और बढ़ते जा रहा था | जैसे जैसे कौशल भैया लम्बे बांस के छोर पर लगी घिरनी से लिपटी रस्सी खींचते , वह टिमटिमाता, लहराता हुआ कुछ और ऊपर चढ़ जाता .... आकाश छूने  को आतुर ... जब तक वह बांस के छोर तक नहीं पहुँच जाता ...|
आकाश का दीप ? आकाशदीप ?? ये नाम भी तो छोटे लोगों का ही दिया हुआ था | छोटे के भाई विजय के "आकाशदीप" कहने से पहले लोग उसे "कंदील" के नाम से जानते थे |
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तो आकाशदीप या कंदील बनाने में लोगों की रचनात्मकता चरम सीमा तक पहुँच जाती थी | सबसे आसान होता था, बाँस की खपच्चियों से षटकोण बनाना | और तो और - वो बाज़ार में भी मिल जाता था | उसे विकसित कर लोग अष्टकोण भी बनाते थे | कुछ लोग केवल त्रिकोण से ही संतुष्ट थे | कुछ लोग डब्बा बनाते थे तो कुछ लोग मटका | कुछ लोग उसे रॉकेट की शकल दे देते तो कुछ लोग एटम बम की | उसके चारों
 ओर रंग बिरंगे झिल्ली कागज़  चिपका   कर खोल बना लेते थे | उसके अन्दर लोग बिजली का बल्ब लगा देते थे | गाँव में लोग उसके अन्दर दीया रख देते थे | बाँस का खम्बा , जितना ऊँचा हो सके, मानो वो नाक की लम्बाई हो , लेकर उसके एक छोर पर घिरनी लगा दी जाती थी और आकाशदीप को रस्सी के सहारे रोज आकाश में लटकाया जाता था |
बात रचनात्मकता की हो रही थी |
वो तार का बना 'टुकना' कौशल भैया इसी लिए तो लाये थे |
काफी आसान था, उसे तोड़ मरोड़ कर विभिन्न आकृतियाँ बनाना | पहले साल दो मिनट में ही उन्होंने उसे मटके का रूप दे डाला | दुसरे साल, चपटा करके चक्की बना दी | तीसरे साल 'मटके के ऊपर मटका" ... | चौथे साल एक डमरू ... | पांचवे साल ...., छठवें साल .... सातवें साल ....|
सालों साल यही क्रम चलते रहा | कौशल भैया जहाँ कहीं भी होते, दीवाली में घर जरुर आते और लकड़ी की पेटी के किसी कोने से तार का वो ढांचा निकाल लेते | कुछ मिनट सोचते और मोड़कर किसी आकृति का रूप दे देते | सालों साल वो तुच्छ 'टुकना' दीवाली के समय घर की छत पर जगमगाता रहा |

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"चल मेरे घोड़े टिक ... टिक .. टिक ..."
वो सफ़ेद रंग का लकड़ी  घोडा मेरे लिए ही तो बना था | कान के पास दो हत्थे लगे थे, जिन्हें पकड़ कर ऊपर नीचे मैं झूल रहा था |
अचानक मुझे मीना , मधु ,छोटी और बंडू के रमेश चाचा दिख गए .....|
लकड़ी के झूमते घोड़े से मैं कूद कर भागा ... लेकिन गेट पास तक पहुँचते ही मैं ठिठक गया |
हाँ, वो रमेश चाचा ही तो थे |
वे जेल से कब छूट कर आये ? बढ़ी हुई दाढ़ी, सुखा हुआ सा मुँह ...बेतरतीब बाल ...| कहाँ गयी उनके चेहरे की मुस्कान ?
अचानक उन्होंने मेरी ओर देखो और उनके चेहरे की वो मुस्कान वापिस आ गयी |
"टुल्लू ...|" उन्होंने इतना ही कहा | मैं कुछ पूछना चाहता था, पर शब्द गले पर आकर अटक गए | अच्छा हुआ, आते- आते अटक गए | वे भी शायद कुछ कहना चाहते थे, पर शब्द लगता था, उनके गले पर आकर अटक गए थे | फल यही हुआ क़ि हम दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा और वे चलते हुए आगे निकल गए ....|
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जब- जब सप्पन घर में आता था, तो घर का माहौल ही बदल जाता था | उसका मुँह हमेशा खुला रहता था | या तो वो कोई मनोरंजक बात लपेटते रहता था, या फिर हँसते रहता था - कभी स्वच्छंद हँसी , कभी शरारत भरी चौड़ी मुस्कान ... | उस ज़माने में लोग कोलेज में जाने के पहले तक हाफ पेंट पहनते थे | सप्पन कभी कभी फूल पेंट जरुर पहनता था, पर अक्सर वो लम्बी हाफ पेंट पहन कर आया करता था | फिर भी उसकी ताकतवर जांघ क़ी मांस पेशियाँ पेंट में मानो समाती नहीं थी | उन्हें देखकर केवल आवाज़ गूंजा करती थी ," कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी ...|" शाम को जब बड़े लोग मैदान में कबड्डी खेलते , तो सप्पन विरोधी पाले में एक बिफरे सांड की तरह घुस जाता ,"कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी ...."  | लोग लगभग ज़मीन तक झुके   हुए उसके पाँव की ओर देखते रहते ... | उसे पकड़ने के लिए या उससे बचने के लिए ... सप्पना को उसकी परवाह नहीं होती ...|फिर वह अचानक हवा में पाँव घुमाता और लगभग ज़मीन तक झुके लोग अपना थोबड़ा बचाते नज़र आते | फिर वह शान से धीरे धीरे 'कबड्डी' 'कबड्डी' कहते अपने पाले में लौट आता | हाँ, कई बार लौटने के पहले वह अचानक पलट जाता और फिर लात घुमाता | एक बार राजकुमार के मुंह में उसकी लात लगी और नाक से खून की धारा फूट पड़ी ...|
कौशल भैया और सप्पन बरामदे में टीन क़ी कुर्सियों पर बैठे थे |
"सुना है , रमेश जेल से छूट कर आ गया ?" सप्पन ने थोड़ी धीमी  आवाज़ में कहा |
इससे पहले कि कौशल भैया कुछ कहते, मैं बीच में कूद पड़ा ,"हाँ, हाँ | मैंने उन्हें सुबह देखा था | मैं पूछने वाला था , रमेश, तू जेल क्यों गया था ?"
मैंने सोचा नहीं था, इतने जोर से ठहाका लगेगा | सप्पन क़ी तो हँसी ही नहीं रुक रही थी ,"क्या? तू क्या पूछने वाला था ? ओ टुल्लू  हा... हा... हा.. |"
रमेश जेल क्यों गया था , वह तो सबको मालूम था - मुझे भी और उन्हें भी | अब वे थोडा धीमी आवाज़ में अटकलें लगा रहे थे क़ि रमेश जेल से बाहर कैसे आया ? उनकी आवाज़ मद्धिम हो गयी और  मेरे कान खड़े हो गए | मन में एक विचार आता था कि दूर चले जाऊं  | बड़ों की बातें ... मुझे क्या करना है ? व्यापार के खेल में तो पांसों में तीन बार बारह आते ही खिलाडी जेल में चले जाता था | और वह तब तक जेल में रहता था, जब तक कि अगले बार बारह न आ जाये | पर वह तो एक खेल था | ज़िन्दगी क़ी कहानी इतनी सरल थोड़ी थी !
"लगता है , सरदार जी (मंजीत के पिताजी ) ने केस वापिस ले लिया ...|" सप्पन का विचार था |
क्या केस ? कैसा केस ? मंजीत के पिताजी ने क्यों दिया और किसे दिया ? फिर वापिस क्यों ले लिया ? मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी |
"हो सकता है | मुझे लगता है , छोटा केस था | छह महीने क़ी सज़ा हुई होगी | छः महीने हो गए |"
अबे छ महीने हो गए ? " सप्पन   उँगलियों में गिनने लगा ," सितम्बर, अक्टूबर , नवम्बर .... | हाँ , यार ...| "वो जांघ पर हाथ मारकर बोला ,"छः महीने हो गए | पर आदमी तो शरीफ था | क्या   हो गया ?  और जब चुराना ही था तो पूरा स्कूटर चुराता | खली पीली चक्का चुरा रहा था | पर यार  , जेल में  बड़ी मार पड़ती है |"
"नहीं बे, मार थाने में पड़ती है | जेल में कुछ नहीं होता | काम करो और खाना खाओ | मगर थाने में ? हड्डी पसली तोड़ देते हैं ....|"
सच्चाई तो यह थी कि रमेश के जेल जाने क़ी घटना ने इक्कीस और बाइस सड़क क़ी जवान होती किशोर पीढ़ी को झकझोर कर रख दिया था | सबके लिए एक सबक था | एक भूकंप था , जिसने  न केवल पाँव के नीचे से ज़मीन हिला दी थी, बल्कि मस्तिष्क को झकझोर दिया था | एक अंकुश था, एक आईना था | न जाने इस घटना ने कितने लोगों को फिसलने से पहले रोक लिया |

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जब मेरी नींद खुली तो सुबह के आठ बज रहे थे |
अरे, इतनी देर तक मैं कैसे सोये रहा ?
अचानक मुझे कुछ 'बुद बुद' की आवाज़ आई | ये आवाज़ कहाँ से आ रही है ?
किसकी आवाज़ है ये ?
आवाज़ का पीछा करते हुए मैं आँगन में पहुंचा | वहाँ से नहानी की और मुड़ा | सामने जो दिखा, मैं देखते ही रह गया |
घर की टंकी में पानी भरा हुआ था और उसमें एक खिलौने का पानी जहाज चल रहा था ..... हरे रंग का टीने का जहाज जिसमें टीन का ही लाल रंग का झंडा लगा था |
"माँ , माँ |"  मैं रसोई घर में गया ,"वो पानी का जहाज टंकी में चल रहा है ...|"
"मुझे पता है |" माँ बोली,"कल रात को कौशल मेले से लाया था |"
मुझे तो पता ही नहीं चला ... | क्योंकि तब तक मैं सो चुका था |
मैं वापिस टंकी के पास भागा , जहाँ पानी का जहाज अभी भी 'बुद बुद' करके चल रहा था ....| मैंने देखा, अन्दर एक छोटी सी मोम बत्ती जल रही थी दो पतली पतली पाइपें पीछे की ओर निकली हुई थी |
थोडा थोडा धुआं भी निकल रहा था , वस्तुतः उस छोटी मोमबत्ती का ही धुआं था |
वह जहाज टंकी में ही गोल- गोल घूमते   रहा और मैं पानी की टंकी के पास खड़े उसे निहारता   रहा , जब तक उसकी मोम न ख़तम हो गयी और वो ठहर न गया |
चाबी वाली रेल गाड़ी के बाद ये दूसरा खिलौना था, जिसके साथ मेरी कल्पनाएँ पंख लगाकर उडती थी और मुझे दूर ले जाती थी ... सात समुन्दर पार ... चंदामामा और लक्ष्मी भैया  की कई कहानियाँ जहाज के साथ ही साकार होते जाती थी | कभी चलते जहाज की देखकर मैं सोचता, उसमें सिंदबाद बैठा है ....| कभी लगता था, सामने से समुद्री डाकुओं का जहाज आएगा | कभी सोचता, उसे चार बौने चला रहे हैं | कभी लगता है, वो गुलीवर का जहाज है |
शाम को मैं खेलने भी नहीं गया और कौशल भैया का इंतज़ार करते रहा | भिलाई विद्यालय से वो आये और बिना बात के परछी में खूंटी पर टंगी लेझिम उतार और बजा बजाकर हाथ पांव हिलाने लगे |
"जहाज कब चलाओगे ?" मेरे सब्र का बाँध टूट ही गया |
"जहाज ? अरे हाँ ....|" उन्होंने परछी में पानी के ड्रम के पास आले पर रखा जहाज   उठाया | टंकी के पानी को माँ ने बाहर के पौधों   को सींचने के लिए काली पाइप से जोड़ दिया था, इस लिए उसका स्तर घटते जा रहा था | कौशल भैया ने एक कोने में पड़ा कोपरा उठाया और उसमें पानी भर दिया | फिर पानी के उस जहाज को टेढ़ा करके उसकी नली में हथेली से पानी डालने लगे | फिर परछी के आले में पड़ी मोमबत्ती को ब्लेड से काटा और जहाज के अन्दर का छोटा सा चम्मच निकालकर उसमें मोमबत्ती जमाई और माचिस से मोमबत्ती लगा दी |
जहाज चलते रहा | आँगन मैं माँ की सिगड़ी सुलग गयी और माँ अन्दर खाना बनाने लगी | आँगन के आम के पेड़ पर पंछी कलरव करके शांत हो गए | आँगन मैं किसी ने लाइट नहीं जलाई लेकिन परवाह किसे थी ? मेरी आँखें उस जहाज पर टिकी थी , जो अँधेरे में मोमबत्ती का प्रकाश फेंकते कोपरे में घूम   रहा था | मेरी कल्पना में नमक की चक्की की कहानी चल रही थी | बड़ा भाई छोटे भाई की नमक की चक्की चुराकर जहाज में अँधेरी रात में बैठकर भाग रहा था ...| अब जहाज वालों को नमक की जरुरत पड़ी और .....|
एक झटके में कौशल भैया ने मोमबत्ती बाहर निकली और फूंक मारकर उसे बुझा दिया |
इतना ही नहीं, उन्होंने आँगन की लाइट भी जलाई और उसे ध्यान से देखते रहे |
उसके बाद उन्होंने ऊपर का कवर निकाला और अन्दर की उभरी हुई छोटी सी कटोरी देखने लगे, जहाँ दोनों नलियाँ आकर जुडी  हुई थी | कोई दांते या पेंच नहीं, कोई मशीन नहीं ....|
"ये चलता कैसे है ?" मैंने पूछा |
"वही तो देख रहा हूँ | " कौशल भैया बोले," भाप से ...|"
" भाप से ?"
"हाँ , वैसे ही जैसे रेल का इन्जिन चलता है |"
"पर वो तो कोयले से चलता है |"
" नहीं, भाप से | कोयले से भाप बनती है | भाप से चक्का घूमता है |"
" भाप तो हवा में उड़ जाती है | उससे चक्का कैसे घूमेगा ?"
उड़ने के पहले चक्का घुमाती है | पर इसमें तो भाप निकालने क जगह नहीं है |" वे ध्यान से देखते हुए बोले |
"वो नली से निकलती होगी ?" मैंने अटकल लगाई ,"तभी तो बुद बुद  करती है |"
"अरे, वहां से निकलते निकलते ठंडी हो जाएगी | हो सकता है, भाप नहीं निकलती | पानी ही निकलता होगा |"
"तब तो वो टंकी खाली हो जाएगी | "
"अरे नहीं , पानी निकला, खाली जगह भरने के लिए पानी फिर अन्दर घुस जाता होगा |"
उसी नली से पानी निकलेगा, उसी से घुसेगा  ?" मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था |
अब कौशल भैया ने मुझसे बात करना मुनासिब नहीं समझा | कहाँ मैं छः साल का 'जकला' और कहाँ वो   | वे अन्दर गए | घर में फुटबाल में हवा भरने का हैण्ड पम्प था | उसे खोलकर देखने लगे | कभी उसे देखते, तो कभी जहाज को | फिर एक कागज़ लिया और पेन्सिल से चित्र बनाकर उसे देखने लगे ....| फिर उसे वापिस जोड़ा | हैण्ड पम्प को भी जोड़ा |
काफी देर तक माथा पच्ची करते रहे |
वे पता नहीं कब तक अटकलें लगाते | जरुरत ही क्या थी ? मुझे मालूम था उसका जवाब | कौन चलाता है वो जहाज ? चार बौने ? अरे नहीं मैं मज़ाक नहीं कर रहा |
अचानक बाहर से आती आवाज़ ने उनकी तन्द्रा भंग की ," कौशल ....|"
.... ये तो तमाल की आवाज़ थी .. | काफी दिनों बाद ..... |अचानक ... देर शाम में ? कौशल भैया के आगे आगे तो मैं भागा .... | फिर ठिठक  गया ...| कहीं वो टंग्स्टन के तार के बारे में तो पूछने   नहीं आया - मिला या नहीं ?
अँधेरे में भी तमाल ने रंगीन चंश्मा पहना था | मुन्ने के राजा चाचा तो गेट पर ही खड़े रहे पर तमाल बरामदे पर खड़ा था | उसका एक हाथ सामने की जेब के अन्दर था | वह खड़ा भी एक ही पाँव पर था | दूसरा पांव तो बस यूँ ही ज़मीन पर रखा था |
"कौशल, एक जरुरी बात करनी है |"
"जरुरी बात ? " मेरे भी कान खड़े हो गए .....|
मैं बैठक में इतनी खड़े रहा कि तमाल को जरुरी बात करने में परेशानी ना हो और वो जरुरी बात मेरे कानों तक भी पहुँच जाए |
"कौशल , तू उसको समझा दे .....|"
किसको ? मैं तो सिर्फ सोच रहा था , कौशल भैया ने तो पूछ ही डाला |
मगर वो जरुरी बात अधूरी ही रह गयी |
अचानक वातावरण में खतरे का सायरन गूंजा | बाबूजी का स्कूटर पुलिया के पास अहुंच चुका था |
"तमाल बाद में बात करेंगे |" कौशल भैया लपक कर अन्दर भागे और बाबूजी के आने के पहले जहाज को झटके से जोड़ा .. |  चित्र वाले कागज़ का गोला बनाया और अपनी कुटिया में घुस गए ....|
कोपरे का पानी फेंकना तो वो भूल ही गए .... | चाँद क़ी परछाईं सीधा उस पर पड रही थी | अब मुझे याद आया वो सवाल - हाँ, जहाज कौन चलाता है ?
वही जो लक्ष्मी भैया के अनुसार सारी दुनिया चलाता है | जब वो सारा  संसार चलाता है तो एक नन्हा सा  जहाज उसके लिए क्या था !!
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"दिन भर खेल  ... दिन भर , दिन भर  ...| चल इधर आ |" कौशल भैया ने मुझे डपटा | कौशल  भैया पीछे का घेरा ठीक करने के लिए लकड़ी के फ़ट्टे ठोंक रहे थे | जब तब गाय घुस आती थी | दो फट्टों के ऊपर एक फट्टा रखकर वे कील ठोंकने लगे ,"कस के दबाकर रख | खाना नहीं खाया क्या ? पाँव से भी दबा ... चल उसके ऊपर खड़ा हो जा, हिलना नहीं चाहिए ....|"
उज्जवल के पिताजी साईकिल से उधर से गुजरे ,"क्या कौशल , हेल्पर मिल गया आज ?"
"हेल्पर ?"  कौशल भैया बड़बडाये ,"ये तो मेरा सुपरवाइजर है ...|"
तभी सुबह के साफ़ आसमान में तेज़ बिजली कडकी, घटाटोप अँधेरा छा गया और  दसों दिशाओं  से आवाज़ प्रतिध्वनित हुई ,"जिनको मिलना है, वो मिल के रहेंगे ...|"
.... सामने खींसे निपोरता हुआ तन्गाप्पन खड़ा था ...|
वो फ़ट्टे, हथौड़ी , कील , आरी सब गेट के पास ही छूट गए और तन्गाप्पन को लेकर कौशल भैया बैठक में ले आये |
तन्गाप्पन, जो कि मिलने के बाद से हँस रहा था , गेट पार करके, दस कदम चल कर, पांच सीढ़ियाँ चढ़ कर, चप्पल उतार कर बैठक में आने तक हँस ही रहा था |
उसकी बांछें अभी तक खिली हुई थी | दो मिनट और हँसने के बाद , तन्गाप्पन ने फिर पूछा ,"पंखा कहाँ है ?"
"ये तो है | तेरे सामने | " कौशल भैया बोले |
तन्गाप्पन ने इधर उधर देखा | मैं समझ गया , वो क्या खोज रहा है | छलांग मारकर पेपर रखने वाली छोटी टेबल पर चढ़ गया, क्योंकि मेरा हाथ बिजली के बटन बोर्ड तक नहीं पहुँच सकता था | मैंने पंखे के प्लग वाला बटन दबाया | तन्गाप्पन मुस्कुराया और उसने पंखे क़ी घुंडी घुमाई | पंखा हवा फेंकने लगा | तन्गापन ने घूमते हुए पंख के सामने चेहरा किया , मानो दर्पण देख रहा हो | पंखे क़ी हवा अपने नारियल तेल चपड़े बालों पर महसूस क़ी और बोला ,"कौशल, हवा तो अच्छा मारती है यार | पर खड खड़ जादा करते हैं | मैं ठिक करेगा इसको | और क्या तकलीफ है ?"
पंखा अपने आप करीब एक सौ अस्सी  अंश घूमता था और शून्य , नव्वे और एक सौ अस्सी अंश पर थोड़ी थोड़ी देर रुकता था, ताकि सब को हवा मिल सके | अगर उसे एक ही दिशा में स्थिर रख कर घुमाना हो तो पीछे के गुमड़े में उभरी टोंटी खींच दो | वह एक जगह ठहर जाता था | अब समस्या यह थी क़ि आजकल वह पूरी ताकत लगाकर घूमने की कोशिश तो करता था , पर घूम नहीं पाता था |
कौशल भैया ने गुमड़े  का खोल खोलकर अन्दर झाँका और करीब आधा पाव धूल भी निकाली पर समस्या ज्यों की त्यों रही |
तन्गाप्पन ने चमड़े का, हरे रंग का बैग खोला | महीन पेंचकस और पतली नोक वाला प्लायर निकाला और भिड़ गया |
"और क्या क्या ठीक करना सिखा रहे हैं ?" कौशल भैया ने पूछा |
"अभी तो पंखा सीख रहा हूँ | पक्का होने पर रेडियो ..... तोडूंगा , नहीं, खोलूँगा ....|"
"रेडियो मुश्किल है थोडा ... | है न ? "
"कुछ मुश्किल नहीं | एक बार बिजली का झटका लगा कि गाना चालू  ...|"
"और खुद को झटका लगा तो खेल ख़तम ...|"
तन्गाप्पन दाँत दिखाकर हँसा , " अच्छा है |  एलजेबरा नहीं, ट्रिगनोमेट्री नहीं | " फिर उसने कहा ," बगल के घर में तमाल .. तो रेडियो क़ी जरुरत नहीं ...| फ़ोकट में गाना  मिलेगा ...|"
उस महीन से पेंचकस से तन्गाप्पन ने पता नहीं, क्या क्या खोल डाला | अब नारियल के बूच  क़ी तरह अन्दर ढेर सारे तांबे के तार दिखने लगे | एक - एक पेंच तन्गाप्पन सम्हाल क़र कागज़  पर रख रहा था | अनायास ही उसने  उसने एक मासूमियत भरा सवाल क़र डाला,"तमाल कैसा लड़का है ?"
कौशल भैया तो जवाब खोजते रहे, तन्गाप्पन ने खुद अपने सवाल का जवाब दिया और लपेटते ही चले गया ,"बाल कटाते नहीं ....| कालर का बटन लगाते है ...|बेल्ट देखो चौड़ा बेल्ट .......| काला चश्मा....| हीरो बन गयी है न ?"  फिर बत्तीसी दिखाकर बोला , "नहीं , नहीं | गाना अच्छा गाते है ,"तुम बिन खाऊं कहाँ ?" ... अब तो गिटार बी बजाते है ..| "
इधर कौशल भैया चुप बैठे सुन रहे थे और उसका रिकार्ड चालू था ,"गाना तो गाते है, पर क्या है यार - कभी भी गाते है | रात दिन .... कभी भी ...|"
... आखिर तन्गाप्पन तमाल का ऐसा पडोसी था कि उनके घर की एक दीवार मिलती थी | इसलिए तमाल के गाने से प्रभावित हुए बिना रहा नहीं जा सकता था ...|
" एक दिन तो भाई (सदानंदन)  को गुस्सा आ गया ...| गुस्से से बोला, किसी दिन छोकरे को पकड़ के पीटेगा ....| हिप्पी बन रहे है साला ...|"

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तमाल सेन के बाल बढ़ गए थे - लेकिन बेतरतीब नहीं थे | करीने से काढ़े गए थे | तमाल सेन ने रंगीन चश्मा पहनना शुरू कर दिया था | कॉलेज में जाने के पहले, बहुत पहले ही तमाल सेन ने फुल पेंट पहनना शुरू कर दिया था | तमाल सेन अब टेरीलीन और टेरीकॉट की बेहतरीन कमीजें पहनने लगा था | तमाल सेन ... अरे वो देखो रे, साइकिल के करियर पर , हाँ करियर पर  बैठकर तमाल सेन कितने स्टाइल से साइकिल चला रहा है ...| पहले जब वो एक हाथ से हेंडल पकड़कर साइकिल चलाता था , तो गुनगुनाता था | अब वो दोनों हाथ छोड़कर साइकिल चलाता है , तो गाता है ," गीत गाता हूँ मैं ...|" या कभी मुन्ने का राजा चाचा पीछे सीट पर बैठ होता तो ,"हमारे  सिवाय , तुम्हारे और कितने दीवाने हैं ..|" और राजा चाचा लड़की क़ी आवाज़   में आवाज़ मिलाते   ,"कसम से किसी को नहीं मैं  जानती ...|"
.... तमाल सेन का भाव ....|
"तमाल को क्या हो गया है बे ?" कौशल और सप्पन बरामदे में सीढ़ियों के पास बैठे बतिया रहे थे |
"कुछ नहीं | उसका भाव बढ़ गया है ..|" सप्पन हिकारत से बोला |
परछी में मैं दरवाजे के ठीक बाज़ू में पीढ़े पर  बैठकर, खाना खा रहा था | सप्पन की बात सुनकर मेरे मुँह से निकला ,"पहले चार आना था, अब आठ आना हो गया .....|"
सप्पन ठहाके लगाकर हँसा , " हा , हा, हा टुल्लू  ...| हा.. हा.. हा... , पहले चार आना था अब आठ आना हो गया ....|"
जब तक मेरा खाना ख़तम होता , वे इधर - उधर की बातें करके जा चुके थे | मैं खिड़की के कांच पर बनी वो झोपड़ी की तस्वीर देखने लगा | ये तस्वीर कौशल भैया ने सूखते हुए ब्रुश को यु ही रगड़ कर बनाई थी | ... और उसके ऊपर तमाल ने बादल बनाने क़ी कोशिश क़ी थी | झोपड़ी को देखो तो तस्वीर पूरी थी, मगर अगर ऊपर देखो बादलों को देखो तो  तो अधूरी लगती थी ....|तस्वीर अधूरी रह गयी थी क्योंकि ब्रुश का रंग सूख गया था ... ...|
मेरे कानों में आवाज़ गूंजी ,"बोला पकड़, बोला पकड़.... बोला टंगस्टन की तार ...|" साफ ज़ाहिर था कि दोस्तों का वह  समूह जो उस दिन इसी जगह बैठा था , अब बिखरते जा रहा है | लेकिन क्यों ?
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ऐसा नहीं था कि कौशल भैया के इंजीनियरिंग फितूरबाजी ने हमेशा कामयाबी   के झंडे गाड़े हों ... | कभी कभार शहसवार  मैदाने जंग में .....|
.... उस समय महिलाओं को काफी कुछ आता था |
ठण्ड के दिन .... | स्वेटर ना पहनो तो सहमत | स्वेटर पहनो तो भी शामत ....|
"टुल्लू इधर आ ...|"
कभी गिरीश की माँ , गुप्ता आंटी तो कभी मोटी शर्मा आंटी या कभी कोई और आंटी .....| वे स्वेटर पकड़कर खींचते , डिजाइन देखते फिर पूछते ,"किसने बनाया है ? शशि ने ? तेरी माँ ने ? "
ठण्ड शुरू होते ही क्या घरेलू महिलाएं, क्या शिक्षिकाएं - क्या लड़कियां क्या बुढिया - सब के हाथ में ऊन का गोला और स्वेटर बुनने की सिलाइयां नज़र आती |किसी के हाथ में दो, किसी के हाथ में तीन और कोई कोई चार सिलाइयो का उपयोग करते दिखाई देते | काफी धीरज का काम होता वो | कई बार काफी कुछ बुन लेने के बाद पता चलता कि एक फंदा गलत पड़ गया है | फिर तो उस बिंदु तक क़ी सारी बुनाई उधेड़ दी जाती | लड़कियां खेलते रहती, "एक सिलाई , दो सिलाई तीसरा बोले लेफ्ट राईट ... " आदि आदि |
कई बार माँ बबलू के लिए स्वेटर बुनना शुरू करती और वह जाड़ा ख़तम होते तक पूरा नहीं हो पाता | फिर वह कुछ दिन अलमारी क़ी शोभा बढ़ता और अगले साल वो ढीला ढला स्वेटर मुझे पहनना पड़ता क्योंकि बबलू क़ी उंचाई बढ़ जाती और स्वेटर छोटा पड़ जाता |
कौशल भैया को मैंने हमेशा हलके हरे रंग का, आधी बांह का स्वेटर पहने देखा |
स्वेटर क़ी सिलाई ही अकेली सिलाई नहीं थी | लोग कुरुशिये क़ी सिलाई लेकर जब तब कुरुशिये क़ी डिजाइन बनाते रहते थे | कभी टेबल क्लाथ में तो कभी बच्चों क़ी कमीज पर | और कुछ नहीं मिला तो रुमाल पर ही कारीगरी दिखा देते | वो भी कोई आसान काम नहीं था | ट्रेस पेपर पर पहले पेन्सिल से डिजाइन बनाओ , फिर कार्बन लगाकर उसे कपडे में छापो | फिर अलग अलग नंबर क़ी सिलाई से अलग लग जगह कढाई करो |
इसके आलावा सबके घर में सिलाई मशीन थी | छोटा , मुन्ना , सोगा - सब के घर हाथ वाली सिलाई मशीन थी | मैं मन्त्र मुग्ध होकर देखता ,"खड़ .. खड ... खड ....| क्या जल्दी कपड़ा सिल जाता था |
मेरे घर सिलाई मशीन क्यों नहीं है ?
पता नहीं | लगता है, माँ को मशीन में कभी भी तनिक भी दिलचस्पी नहीं रही | पर होनी तो चाहिए सिलाई मशीन ....|
एक दिन भगवान ने मेरी सुन ही ली और जब मैं सड़क पर चक्का चला रहा था तो एक वें मेरे सामने आकर रुकी | इससे पहले क़ि मैं जान बचाने के लिए भाग खडा होता और कहीं छिप जाता , ड्राइवर फुर्ती से उतरा , "ऐ लड़के , इधर आ |"
उसने मुझे कागज़ का परचा थमाया |
"ये घर कहाँ पर है ?"
ये तो मेरा ही घर था ....| पुर्जे पर लिखा था ,"१० ब /२२/ २"
थोड़े ही देर में वह सामान मेरे घर पर उतारा जा रहा था ....|
लेकिन इतना बड़ा डब्बा / हाथ क़ी मशीन तो छोटी होती है ....|
और पता चला , वो हाथ वाली नहीं , पाँव वाली सिलाई मशीन थी | वैसी , जैसे मैंने दर्जियों के पास सेक्टर २ के बाज़ार में देखी थी |
जब तक मैं सड़क पर ढिंढोरा पीटने गया , कौशल भैया ने मशीन से तौबा - तौबा बुलवा ली ...|
डिब्बे को चाकू से काटा गया और उसके अन्दर से दुधिया रंग की पांव वाली मशीन लिकली |
दो बातों से मैं एक तरफ खुश  हुआ तो दूसरी तरफ उदास भी | पहली बात - ये हाथ नहीं , पांव से चलने वाली मशीन थी, जो किसी के घर में नहीं थी | दूसरी बात, सबके घर में काले रंग की मशीन थी | ये दूध की तरह उजली | अगर हाथी काले होते हैं तो ये ऐरावत था !
बस, मेरे दिल के बैठ जाने का कारण भी यही ही था | मुझे मालूम था कि जहाँ लोगों को पता चला , वहां बहस छिड़ जाएगी कि हाथ की मशीन बेहतर हा या पाँव की | चूँकि सबके घर में हाथ की मशीन थी, मुझे किसी से भी कोई सहायता मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी | फिर, सबके सब बोलेंगे कि मशीन का रंग काला होता है और काला ही होना चाहिए |
मशीन के साथ उषा मशीन का एक तकनीकी आदमी भी था | उसने ये बताने क़ी कोशिश क़ी कि मशीन में कहाँ धागा डालना है , कैसे खोलना है ,क्या करना है | उन्होंने कौशल भैया के धैर्य क़ी

परीक्षा ले डाली |कौशल भैया का उतावलेपन पर अब तक लगाया गया अंकुश छूटा जा रहा था |
"ये सब बुकलेट में लिखा है न ?"
" हाँ सर लिखा तो है |"
"तो ठीक है | हम लोग पढ़ लेंगे |"
उस तकनीशियन ने पानी मांग ही लिया | फिर पानी पीते-पीते उसने कागज़ पर नंबर लिखा और कुशल भैया को पकड़ा दिया ,"सर , ये दुकान का नंबर है | अगर जरुरत पड़े तो फोन कर लेना |"
सड़क पर एक ही तो फोन था - शर्मा आंटी के घर | दूसरा अगर कोई फोन हमें मालूम था तो वो बाबूजी का फोन , जो कॉलेज में था | तात्पर्य यह कि उसे फोन करने क़ी सम्भावना नगण्य थी | अभी ट्रक के जाने क़ी धुल बैठी भी नहीं थी कि कौशल भैया पिल पड़े | कपड़ा भी नहीं, मेज पर पड़े मोटे कागज़ का टुकड़ा उठाया और 'खटर्र .... खट खट खट ...... चालू हो गए | थोड़ी देर में मशीन ने भी जवाब दे दिया और कगज सिलने के बजाय धागे गुत्थम गुत्था हो गए ....| माँ और शशि दीदी सिर्फ देख रहे थे - एक मूक दर्शक बन कर | पर जब मशीन ने आगे बढ़ने से साफ़ इनकार कर दिया तो मान के मुंह से निकला ,"हो गयी ,' नाऊ सियानी ' ( नौसिखियापन ) ? "
अब कौशल भैया धागों क़ी गुत्थियाँ सुलझाने में लग गए | वो गुत्थियाँ , जो और उलझती ही गयी | पता नहीं, धागे और कहाँ कहाँ से निकल रहे थे | ना केवल ऊपर से, बल्कि नीचे से भी ....|
अब ट्रक भी इतने दूर जा चुका था कि पीछे भागकर वापिस बुलाना नामुमकिन था | माँ ने मुझे दौड़ाया,"जा तो बेटा , मुन्ना क़ी माँ या गुप्तानी को बुला ला |"
माँ को इन थोनोन पर ज्यादा भरोसा था | और जिनके पास मशीन थी - सोगा क़ी माँ से तो माँ वैसे ही खार खाती थी | छोटे क़ी माँ पर भी उतना भरोसा नहीं था |
माँ ने कहा था "या" लेकिन वह हुआ "और" .... और थोड़ी ही देर में दोनों माएँ एक साथ हाज़िर हो गयी |
"तुम्हें क्या मालूम है मशीन के बारे में बेटा ?" गुप्त आंटी ने बड़े प्यार से पूछा |
अरे, सुई तो टूट गयी है ...|" मुन्ना क़ी माँ ने घोषणा कर दी |
और भी तो सुई दी होगी ना ? दराज में देखो |"
दराज से ब्लेड के डिब्बे के जितना बड़ा एक सफ़ेद , पतला सा डिब्बा था | इतना चमकदार था क़ि मेरी आँखें चुंधिया गयी | अन्दर खांचों में तीन सुइयां थी|
"बबीन केस खोलो |" मुन्ने क़ी माँ ने आदेश दिया |
मशीन को एक अक्ष पर टेढ़ा किया गया | अन्दर के सारे कल पुर्जे साफ़ दिखाई देने लगे |
सच मानो तो मशीन चलाना कोई मुश्किल काम नहीं था | सिर्फ आधा घंटा लगा और कौशल के साथ साथ शशि ने भी उन दोनों से मशीन चलाना सीख लिया | मैंने भी सीख लिया , फर्क सिर्फ इतना था कि मैं चोरी छिपे , जब कोई आस पास ना हो, मशीन के पैदल पर पांव मार लिया करता था |और तब मेरी ठुड्डी मशीन के बोर्ड तक पहुँचती थी |
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कोई यंत्र बिगड़ा हो और कौशल भैया हाथ न लगाएं ?
घर में एक कैमरा था , जो लकड़ी की अलमारी में एक कोने में पड़ा रहता था | बड़ा था, भारी भी था | मैंने बड़ों को उसका शटर खोलते देखा था और अन्दर फिर झांक कर भी देखा | जैसे बिस्कुट के बड़े डब्बे से ऊपर का कवर खोलते हैं, वैसे ही खुलता था | अन्दर के चमकदार दर्पण में सामने का दृश्य दिखता था | एक बार में बारह फोटो खिंची जा सकती थी | कुछ कुछ रील में सोलह भी  |
व्यास जब कलकत्ता की ट्रेनिंग से वापिस आये तो एक कैमरा भी साथ लेते आये | उन्होंने कई अच्छी फोटो भी खिची | माँ की  , नल में पानी भरते हुए टेढ़ी फोटो सबको काफी पसंद आई | बाद में  मेरी और बबलू की की बबा (दादाजी) के साथ घर के घेरे में फोटो खिंची जो आज भी किसी पुरानी अल्बम में दिख जाएगी |
"कुछ नहीं है इसमें |" एक दिन वो शशि दीदी को फोटोग्राफी के गुर बता रहे थे ," कुछ नहीं है इसमें | ये दर्पण में देखो , क्या दिख रहा है | सामने वाले से बोलो , न हिले | सांस रोको और बटन दबा दो | बस ...|"
अब घर का कैमरा  यूँ ही  बिना काम पड़ा रहे  कौशल भैया को ये गवारा नहीं था | उन्होंने इसकी, उसकी, इधर की, उधर की फोटुएं खींच डाली | बारह की गिनती होती ही क्या है ? चाहो तो एक बार में ही सांस रोक कर पूरी रील ख़तम की जा सकती है | फिर जब उन्होंने रील कला स्टूडियो में धुलने के लिए दी और तीन दिन बाद गए तो उन्हें ४४० वोल्ट का झटका लगा |
"क्या ? एक भी फोटो  नहीं आई ? एक भी नहीं ? ऐसा कैसे हो सकता है ? टुल्लू, बोलो, ऐसा कसे हो सकता है ?"
मुझे तो रील का प्लास्टिक का आधार ज्यादा पसंद आया था | काले रंग का, मानो दो चक्के आपस में जुड़े हों | इससे तो एक बैल गाड़ी बनाई जा सकती है | पहिया लुढ़काते हुए मैंने कहा ," आपको फोटो खींचते समय साँस रोकना था |"
"सांस रोकना था ...|" कौशल भैया बड़बड़ाये ," मैं भी जानता हूँ , सांस रोकना था | अरे भाई , आड़ी तिरछी, टेढ़ी मेढ़ी , कुछ तो फोटो आती  | सब कुछ कोयले जैसा काला  काला ... |"
"आप काला स्टूडियो में फोटो बनने मत दो | वो काला काला ही बनायेंगे |"
"अरे वो काला नहीं , कला है - कला |"
"कला ? कला क्या होता है ?"
कौशल  भैया ने जवाब नहीं दिया , पर एरी बात उन्हें भी थोड़ी सी जँच गयी | हो सकता है, स्टूडियो वाले ने ही डेवलप करते समय फोटो बिगाड़ दी हो |
बाबूजी ने सुना ," क्या एक भी फोटो ठीक नहीं आई ? जर्मन कैमरा है | चार साल पहले ही खरीदा है | उस संयतो फोटो अच्छी आई थी ...| हो सकता है | कैमरे में कुछ गड़बड़ी हो | ज्यादा दिन तक उपयोग नहीं करने से कोई पुर्जा जम गया होगा | मैं देखता हूँ कोई मैकेनिक ...|"
काले अल्बम में माँ ने मुझे एक बार तस्वीरें दिखाई थी | बाबूजी की तस्वीरें शायद उस कैमरे से खिंची गयी थी | वे तस्वीरें तो ठीक क्या, काफी सुन्दर आई थी |
पर बाबूजी की बातों ने कारणों का एक नया ही पिटारा खोल दिया | मैकेनिक की क्या जरुरत है ? कौशल भैया इस निष्कर्ष पर पहुंचे | कैमरे में रखा ही क्या है ? कोई मशीन तो है नहीं | कोई घूमने वाली घिरनी या खासी मुश्किल  दांते  नहीं है | ना तो मैंने फ्लेश लाईट लगाई | वो तो ज्यों की त्यों अलमारी  में पड़ी थी | वो तो अखबार के संवाददाताओं के लिए है, जो अँधेरे में फोटो खींचते हैं | मैंने तो दिन के उजाले में फोटो खिंची | और अन्दर है ही क्या ?
उन्होंने कैमरे का अन्दर, बाहर - अच्छे से मुआयना किया | क्या पता रील घूमी न हो | मुझे खाली आधार लेकर उन्होंने ढिबरी घुमाकर देखा | जब 'कट' से आवाज़ आई , तो फिर बरन   दबाकर देखा } आगे तो बढ़ी थी ये | हो सकता है, रौशनी फिल्म तक पहुंची ही ना हो | यानि की शटर खुला ही नहीं ? पर नहीं, कहली शटर उन्होंने दो तें बार दबाकर देखा ... | लगता तो है झटके से खु रहा है | हो सकता है, रौशनी ज्यादा पहुची हो | यानि शटर जल्दी बंद न होता हो | ये भी तो हो सकता है , कि रौशनी कहीं और से रील तक पहुँच रही हो ...| हाँ, ये सम्भावना भी थी ....| उन्होंने कैमरा खोलकर पूरी छान मरी | कपडे से साफ़ किया , इधर उषर फूंक मारी | अंत में ये निश्चय किया कि एक बार फिर कोशिश क़ी जाए | इस बार फोटो बनने 'कला स्टूडियो; हरगिज़ नहीं ... तौबा तौबा ...|
गिनती एक बार फिर बारह तक पहुंची | एक बार फिर लोगों को मुस्कुराना पड़ा | एक बार फिर कागज के फूलों के गुलदस्ते से धूल झाड़ी गयी |
जब बारह फोटुएं खिंच गयी तो कौशल भैया से रहा नहीं गया | मामले क़ी तह तक पहुंचना जरुरी था |
बाबूजी के पास हरे रंग क़ी एक पेन्सिल टोर्च थी, जो  गाँव जाने के समय काम आया करती थी | उसमें पेन्सिल जैसी अगर कोई बात थी, तो ये कि उसमें पेन्सिल सेल डालते थे | हालाँकि उसका आकार एक बिस्कुट जितना था |
"कोई अन्दर मत आना |" कौशल भैया पंखाखड (शयन कक्ष ) में घुसते हुए बोले |
अन्दर घुसकर उन्होंने चिटकिनी लगा दी | एकमात्र खिड़की भी बंद कर ली और परदे चढ़ा लिए |
यानि कि अन्दर घुप्प अन्धकार ? पता तो चले वो अन्दर क्या कर रहे हैं ?
चमड़े के कवर में सामान्य तौर पर लकड़ी की अलमारी में आराम फरमाता वह कैमरा अब एक अबूझ पहेली बन गया था | कौशल भैया का मानना था कि उसे ठीक कराने में ही काफी खर्चा आएगा और ठीक करेगा कौन ?
पंखाखड़ की  चिटकनी लगाने के बाद उन्होंने एकमात्र खिड़की भी बंद कर ली और पर्दा चढ़ा लिया |जब दरवाजा अन्दर से बंद हो तब कौतुहल जगना स्वाभाविक था | सामान्य मानसिक प्रतिक्रिया है ये | बेबी ने दरवाजे के चारों तरफ एक एक हलकी सी झिर्री   में आँख लगा कर देखा | उधर बबलू स्टूल पर चढ़कर खिड़की से वही कोशिश कर रहा था | बेबी ने धीरे से कहा ," कौशल भैया कम्बल के अन्दर घुस कर, अपने को पूरा कम्बल से ढँक कर अन्दर कुछ देख रहे हैं ....|"
कौशल भैया जब बाहर निकले, लोगों ने यही पूछा ," कुछ पता लगा ? फोटो ठीक आई है ना ? मैं कैसा दिख रहा हूँ ?"
कौशल भैया कुछ बोले नहीं - चित या पट ; आर या पार ; कुछ भी नहीं | फोटो फिर धुलने के लिए दी | इस बार 'कला स्टूडियो' को नहीं , सेक्टर ४ के दुसरे स्टूडियो को | मगर नतीजा ? वही ढाक के तीन पात |
कौशल भैया निराश जरुर हुए फिर भी आशा नहीं छोड़ी | लोग तीसरी बार भी मुस्कुराने को तैयार थे | मगर बाबूजी ने वीटो का इस्तेमाल करके सब उम्मीदों पर तुषारापात कर दिया ," जाने दो बेटा | पढ़ाई में मन  लगाओ | मैट्रिक की परीक्षा है ...|"

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खट, खट , खट ....|
तालाब के किनारे  कुल्हाड़ी की आवाज़ दूर -दूर तक गूंज रही थी | कुल्हड़ी की आवाज़ से ही लगता था कि वे पेशेवर लकडहारा नहीं थे ....|
फिर उस सांवले चेहरे वाले ने अधकटी डाल में रस्सी फंसाई और फिर वह पेड़ से नीचे कूद पड़ा |
नीचे एक लम्बा लड़का और दो और लड़के थे | चारों ने मिलकर रस्सी से उसे खींचना प्रारंभ किया, मगर डाल फिर भी नहीं टूटी |
"और काटना पड़ेगा यार उस डाल को | " सांवले चेहरे वाले  ने पसीना पोंछते हुए निराशा   से कहा |
"लगता है ,डाल सुखी नहीं है, जैसे दिख रही थी | अन्दर से हरी है |"
"नहीं बे, कुल्हाड़ी क़ी धार ख़तम हो गयी है | धार पत्थर पर रगड़ने से काम नहीं चलेगा | मशीन से  धार कराने सुपेला जाना  पड़ेगा |"
"तब तक कोई और सड़क वाला काट कर ले जाएगा |"
"किसकी हिम्मत है बे ?" सांवले चेहरे वाले को तैश आ गया ....|

.... सवाल ये है कि होली परीक्षा के ऐन पहले  क्यों आती है ?
लेकिन क्या फर्क पड़ता है ?
सप्पन से पूछ लो | वो तो यह भी कह सकता है, कोई हो न हो , फर्क क्या पड़ता है ?
मसलन इस बार की होली की तैयारी में तमाल नहीं था | कम से कम अग्रिम पंक्ति से तो वह नदारद हो गया था | उसके साथ साथ राजा चाचा भी उतने  सक्रिय नहीं थे | तो क्या हुआ? सप्पन ने मंजीत और अन्य लोगों को ज्यादा जिम्मेदारी सौंप दी | जिम्मेदारी क्या थी - हल्ला कर के घरों से चंदा जमा करना , चंदे के उस पैसे से लकड़ी टाल से कुछ लकड़ियाँ खरीदना और उतनी ही लकड़ियाँ चुराना | उन दिनों पेड़ों के काटने   पर उतनी पाबन्दी नहीं थी , सो वे आवारा पेड़, झड झंखाड़ , इधर उधर , तालाब के किनारे, सड़क के पिछवाड़े या जिसका घर ख़ाली हुआ   हो, उस घर से काट लिया करते थे | बल्कि ये काटा-पिटी कुछ दिनों से चलती थी, ताकि लकड़ियाँ समय पर सूख जाएँ |
उसके आलावा एक बहुत ही बड़ी जिम्मेदारी थी जो सप्पन ने खुद अपने सर पर ले रखी थी |

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इक्कीस और बाइस सड़क के बीच के मैदान में एक उथला सा गड्ढा था | जब बारिश बहुत ज्यादा हो, तो वह एक डबरे का   रूप ले लेता था , जहाँ मेंढक टर्राते नज़र आ जाते | वर्ना उसकी उपयोगिता सिर्फ होली के दिन ही पता चलती थी |
अभी वहां  एक विशालकाय दानव खड़ा था |  वो सूखी, अधसूखी लकड़ियाँ, जो इतने दिनों से म्हणत से काटी जा रही थी, वो लकड़ी ताल से कुछ खरीदी और कुछ हरे लकड़ियाँ, वो किसी के घेरे के सड़े गले लकड़ी के फट्टे , वो आम, अमरुद और जामुन के सूखे पत्ते , जिनका काम खुद जलकर उन मोती लकड़ियों को आग पकडाना होता था , उन सबको इकठ्ठा करके होली का रूप दे दिया गया था |चारों और झिल्ली कागज़ के बन्दनवार से उसे सजाया जरुर गया था | ऊपर - ऊपर कुछ साइकिल के कुछ टायर मुकुट की तरह लटके हुए थे | उन टायरों की भी अपनी ही भूमिका थी |  आग धारण करके लम्बे समय तक जलते रहना और इस प्रक्रिया में  उनकी ही सहायता से ही अधसूखी लकड़ियाँ आग पकड़ती थी |
इतनी देर से डालडा के कनस्तर पीटते पीटते हमारे हाथ दर्द करने लगे थे |
मगर इन्जार था तो किस बात का ?
इंतज़ार करते करते बड़े बूढ़े, जैसे दीपक के बब्बा तो उबासियाँ लेते घर चले गए थे |
गिरीश, अनिल और बड़े सुरेश के पिताजी  (सदानंदन अंकल) एक तरफ खड़े होकर बात कर रहे   थे |  सालों साल, उनका होली का उत्साह कभी कम नहीं हुआ | वे बच्चे बन जाते थे |
तो आखिरकार वे अवतरित हुए , मंजीत, राजकुमार, विमल, राजा चाचा , तमाल और सप्पन - हाँ , तमाल और सप्पन - दो बंगाली दादा एक साथ | चाहे जितनी भी कडुवाहट क्यों न हो, होली का त्यौहार दुश्मनों को भी साथ मिला देता है - फिर उनमें तो थोडा बहुत ही मन मुटाव था |
"लगता है, लड़के पिक्चर देख कर आ रहे हैं |" अनिल के पिताजी धीरे से बोले ,"ठीक है | इतने दिनों से लकड़ी काट रहे थे ...| "
सप्पन ने होली के पास आकर ज़मीन पर हाथ टिका कर एक गुलाटी मारी | वो गुनगुना रहा था ,"तू हमारी थी , जान से प्यारी थी ...|"
"का बबुआ, होली काहे नहीं जला रहे हो ? " अनिल के पिताजी ने पूछा |
सप्पन खिसयानी हँसी हँसा ,"बस अंकल जी | आप में से पूजा कौन करेगा ?"
"हम तो पंडित नहीं हैं भाई|" अनिल के पिताजी बोले |
पूजा की थाली में जलते दिए को लेकर होली की परिक्रमा की गयी | हम लोग दम साधे देख रहे थे | फिर एक लम्बी सी डंडी में कपड़ा लपेटकर उसमें कनस्तर से सप्पन ने कुछ छिड़का | वातावरण में मिटटी के तेल की बदबू फ़ैल गयी | फिर उसने दिए के सामने वह डंडा रखा और 'भक्क' से आग लग गयी |
सप्पन का सांवला चेहरा उस आग में चमक रहा था | उसने होली का एक चक्कर लगाया और जलती हुई लकड़ी को होली की और उछाल  दिया     |
देखते ही देखते होली तेजी से जलने लगी | हमारे थके हाथों में फिर से नयी शक्ति आ गयी .....|
"होली है ....|" हम और जोर जोर से कनस्तर   पटने लगे ....|
"कौशल  कहाँ  है टुल्लू  ?" तमाल ने मुझसे    इतना  ही पूछा |
"पता नहीं | जब मैं आया था तब वो घर में नहीं था |"
होली जलने के बाद भीड़ छंटने सी लगी | अंकल लोग विदा ले ही चुके थे |
बबलू भैया  भी अपने  हम उम्र दोस्तों के साथ दूसरी जगहों की होली देखने निकल गए थे | अब केवल मैं और कुछ और छोटे लोग - मुन्ना , बबन, छोटा - हम लोग ही बचे थे |
होली की आग थोड़ी धीमी होते ही अब आग बड़ों के लिए खेल बन गयी थी | वे जलती लकड़ी होली से निकल कर हवा में घुमाते हुए अलग अलग आकृतियाँ बना रहे थे | फिर लकड़ी को  हवा में उछाल कर फिर पकड़  रहे थे | जब जलती हुई लकड़ियाँ चरमरा कर गिर पड़ी और होली की उंचाई कम और चौड़ाई ज्यादा हो गयी, तो बड़े लोगों को एक और खेल सूझा | अब वे आग में आर-पार कूदने  लगे | इस पार से उस पार ...| सबसे पहले सप्पन तेजी से दौड़कर आया | होली के पास ठिठका , फिर रफ्तार और  तेज करके छलांग लगा ही दी ....| देख देखी तमाल भी दौड़ कर आया , पर फुल पेंट का लिहाज कर  ठिठक गया | बीस सड़क का कन्ना  भी देख रहा था | उसे भी जोश आया , पर वो भी ठिठक गया | मंजीत ने जरुर अपनी लम्बी टांगों से छलांग लगा दी ...|
आग कुछ कम होने लगी | अब गिने चुने लोग ही रह गए  थे |
अब तमाल और राजा  भी घर चले गए  | संजीवनी   मुझे  तीसरी  बार  बुलाने  आई |
"आग बुझ रही   है बे ... |" मंजीत बोला |
संकेत ... | क्या ये कोई संकेत था ?
बाहर रहकर इतनी रात मैं ने शायद पहली बार देखी थी | फिर भी मेरा  मन  मुझे  पीछे खींच रहा था | अकेले घर जाते जाते मैं मुड़ मुड़ कर पीछे देख रहा था |
अछानक एक काला साया पीछे से आया ....| अँधेरे में वो राक्षस की तरह दिख रहा  था ...| एक पल के लिए मेरी घिग्घी बंध गयी ....| लेकिन जब मैंने उसकी शक्तिशाली जांघों को देखा तो आवाज़ गूंजने लगी ,"कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी ....|"
.... और भला सप्पन को कौन  नहीं पहचान सकेगा - चाहे  कितना  ही अँधेरा  क्यों   ना    हो | सोगा  के घर के पास पहुँच  कर एक क्षण  के लिए वह  रुका   | सप्पन ने उछल  कर गेट को लात  मारी  |  दो ही लात में लकड़ी का गेट  चरमरा कर टूट   गया | तुरंत     उसने गेट  हवा में  उठाया  और जैसे शेर शिकार को दांतों में दबा कर मांद की ओर भागता है, वह  होली की ओर दौड़ पड़ा   | उसने गेट  होली में फेंक  कर सिंहनाद  किया   ,"होली है ..."
दूसरी और से मंजीत भी इक्कीस  सड़क के कोने  वाले  घर से बाड़ी  की  लकड़ी उठाये  आ रहा था | उसने भी बाड़ी की लकड़ी होली में फेंक कर हुंकार भरी ,"होली है ...|" मुझसे उनका तांडव नहीं देखा गया ....|
इक्कीस  और बाईस   सड़क से इन   दोनों  लोगों ने चंदा  नहीं दिया  था | उन   लकड़ियों  से बुझती   हुई होली को एक नया    जीवन  मिला  और मैंने  देखा  , शोला  भभक   कर फिर आसमान   क़ी ओर बढ़  चला  ..... |
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"होली है ... होली है ....|"
अगले दिन सब ओर रंग ओर गुलाल उड़ रहा था | सोगा के घर   के चौखट से गेट ही गायब था - ऐसे जैसे जबड़े से एक दांत गायब हो जाए ...| रात की घटना कोई सपना नहीं थी | सोगा   कहीं नहीं दिखाई दे रहा था | मुझे थोडा दुःख भी हो रहा था | हँसी के साथ गुस्सा भी आ रहा था | आने वाले वर्षों में मैंने देखा, ये तो होली का सामान्य सा अंग बन गया है |हर वर्ष कोई न कोई चंदा देने से इनकार करता था और उनका यही हश्र होता था | होली की हुडदंग में सब कुछ डूब जाता था |
और सप्पन ? मानो कुछ हुआ ही ना हो | वह हल्ला गुल्ला मचाता सड़क में हाज़िर हो गया | पहले उसने छोटे के भाई विजय को रंग दिया और फिर तमाल और राजा के साथ सड़क में ही रंगों की गंगा बहाने लगा |
"कौशल कहाँ है टुल्लू ? बुला उसको |" वो गुलाल की पुडिया उड़ाता बोला |
क्यों ? आखिर क्यों परीक्षा के ठीक पहले होली आती है |
बाकी सब वर्षों में तो सब ठीक था, पर ये तो मेट्रिक की परीक्षा थी |
"ठीक है | घंटे दो घंटे होली खेलकर आ जाना |" एक रात पहले बाबूजी ने हिदायत दी थी, "ज्यादा रंग और पानी से मत खेलना | इतना खेलो क़ि बीमार मत पडो |"
"हाँ बेटा | साल भर का त्यौहार है |" माँ ने कहा था  |
पर भला कहीं होली का त्यौहार, एक बार घर के बाहर निकलो तो क्या घंटे दो घंटे में वापिस आ जाओगे ? क्या आप इतनी सावधानी बरत सकते हैं क़ि रंग और पाने से बच सकें ? वो तो जादूगर ही हो सकते हैं जो अंतर्ध्यान  हो सकें, आने वाले रंग क़ी बौछार को हाथ के इशारे से मोड़ लें , रंग भरे  गुब्बारे को हवा में ही जमा दें | और अगर बात रंग और गुलाल तक सीमित रहे तो भी कोई बात थी | कीचड, राख, गोबर, सिल्वर पेंट, डामर ....| ......  कौशल भैया   ने निश्चय किया था, वे निकालेंगे जरुर , लेकिन तब, जब सब कुछ शांत हो जाए | पर नाते रिश्तेदारों का क्या करें ? वो तो आयेंगे ही |
सोगा तो घर से नहीं निकला | हम लोग आपस में खेले और खूब खेले | सप्पन को भी रंग से नहलाया | कोई आगे से रंग डालता कोई पीछे से | झल्ला कर वो छोटे सुरेश के पीछे दौड़ा , फिर चार कदम दौड़कर शांत हो गया |
सोगा तो नहीं, मगिंदर शाम को घर से निकला |
"मेरे पिताजी नाईट  शिफ्ट में गए थे | नहीं तो पकड़ के पीटते उन लोग को | बदमाश | मेरे पिताजी पुलिस में रिपोर्ट करेंगे ....|

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मैट्रिक क़ी परीक्षाओं के ठीक पहले बाबाजी रिटायर हो गए | उन दिनों भिलाई में काम करने वाले हज़ारों कर्मचारियों क़ी तरह, बाबाजी ने कभी भिलाई में अपना घर बनाने क़ी कोशिश नहीं क़ी | कैसा शहर था | जब तक काम करो, एक घरोंदा रहता था, जिसमें पूरा परिवार सर छिपाता था | जिस दिन रिटायर हुए, वह घर अचानक बेगाना हो जाता था और झोली डंडा उठाकर जहाँ से आये , वहीँ चले जाओ |
"बाबा जी रिटायर हो गए ... | बाबाजी रिटायर ... क्या ? बाबा जी रिटायर हो गए ... |" आग की तरह खबर छोटे से नगर में फ़ैल गयी |
लगता था, मानो सारा शहर बाबा जी वो विदाई देने भिलाई स्टेशन पर एकत्र हो गया था | क्या शिक्षक, क्या विद्यार्थी , क्या अभिभावक जिसने भी सुना अवाक् रह गया |बाबाजी पसेंजर पकड़ कर बिलासपुर जायेंगे और वहां से इलाहबाद के लिए गाडी पकड़ लेंगे | उद्दंड छात्र , सामान्य छात्र, पढ़ाकू छात्र ... सब की आँखें नम थी | शायद ऐसा कोई भी छात्र नहीं था, जिसे बाबाजी ने अनुशासित नहीं किया हो | किसी को छड़ी से, किसी को बातों से, किसी को सिर्फ आँखों से | वहां  उपस्थित हरेक छात्र का नाम उन्हें मालूम था | उस समय छात्र जरुर उनकी उपस्थिति से थर्रा जाते थे , लेकिन वे जानते थे, बाबाजी ये उनकी ही भलाई के लिए कर रहे थे |
आखिर धुआं उड़ाते हुए पैसेंजर स्टेशन पर आई | लोगों ने उनका सामान चढाने में मदद क़ी |गाड़ी ने सिटी बजाई और बच्चों के खेल क़ी तरह छक, भक करते हुए चल दी | बाबाजी दरवाजे पर खड़े हाथ हिलाते हुए लोगों के अभिवादा का जवाब दे रहे थे | स्टेशन पर खड़े लोग तब तक हाथ हिलाते रहे , जब तक बाबाजी आँखों से ओझल ना हो गए |
बाबाजी कोई नेता , मंत्री, अफसर या प्रख्यात शक्सियत नहीं   थे | भिलाई से जाने के बाद वे कहाँ रहे , शायद कोई नहीं जान आया | लेकिन उनके जाने से एक युग का अंत हो गया | अपने प्राचार्य काल में उन्होंने भिलाई विद्यालय को एक पहचान दी | उनके जाने के बाद भी, बरसों लोग उनको याद करते रहे |  भिलाई विद्यालय के मानो एक एक दीवार के पत्थर पर उनके हस्ताक्षर थे |

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जैसे जैसे परीक्षा की तारीख नज़दीक पहुंचाते जा रही थी, बाबूजी की चिंता के थर्मामीटर का पारा भी बढ़ते जा रहा था | कई बार उठकर देखते कि आँगन की कुटिया की लाईट जल रही है |
" कौशल ? बेटा, अभी तक पढ़ रहे हो ?"
" हाँ बाबूजी | बस , आधा  घंटा और |"
"सो जाओ बेटा , बीमार पड जाओगे | क्या फायदा - देर रात तक पढने का ? सुबह जल्दी उठ कर पढ़ लेना ...|"
आखिर चिलचिलाती धूप में मेट्रिक या हायर सेकेंडरी की परीक्षाएं प्रारंभ हुई | कौशल भैया सबह सुबह परीक्षा देने गए | लग रहा था, मानो जंग में जा रहे हों | बाबूजी माँ के ऊपर झल्लाए ,"नाश्ता तैयार क्यों नहीं है अब तक ? बिना कुछ खाए ये मैट्रिक की परीक्षा देने जायेगा ?"
माँ को कोई अंदेशा नहीं था कि ये कैसी परीक्षा है और बाकी सब परीक्षाओं से अलग क्यों है ? आने वाले दिनों में उन्हें धीरे धीरे सब मालूम चलते गया | बाबूजी क़ी झुंझलाहट और गुस्सा रोज रहस्य का कोई न कोई पर्दा उठा देती |
"ये स्कूल क़ी आखिरी परीक्षा   है ....| "
"...परीक्षा में अच्छे नंबर से पास होना बहुत जरुरी है | वर्ना 'अच्छे' कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा |"
"...पेपर बाहर के लोग जांचेंगे , भिलाई विद्यालय वाले नहीं |"
"रिजल्ट  पेपर में छपेगा, हाँ, घर में आने वाले अखबार में |"
अब माँ भी चिंतित हो गयी .....|
परीक्षा दस बजे ख़तम हो गयी थी | बाबूजी कॉलेज  गए जरुर थे, पर जल्दी वापिस आ गए | बार -बार घडी देखते ," कौशल अभी तक नहीं आया ?"
आखिकार कौशल भैया आये | चुपचाप जूते उतारने  लगे | बाबूजी ने मुरझाया  चेहरा देखकर पूछा ,"कैसे हुआ पेपर ?"
कौशल भैया को जवाब देने में हुए विलम्ब  और चेहरे के हाव  भाव देखते हुए बाबूजी ने दूसरा सवाल दाग दिया ,"मुश्किल था ?"
"हाँ|" कौशल भैया ने जवाब दिया और बाबूजी की हाथ घडी, जो बाबूजी ने परीक्षा पर जाने के पहले उन्हें पहनाई थी, उतारकर देने लगे |
"इसे अपने पास रखो बेटा |" बाबूजी बोले ,"अभी तो और भी पेपर होंगे | आज का पेपर दिखाओ |"
और फिर पेपर हाथ में लेकर बाबूजी ने सवालों की झड़ी लगा दी | सवाल तो वही थे, जो पेपर पर छपे थे , बस बाबूजी के पूछने का अंदाज़ अलग था | पता नहीं, भौतिक विज्ञान बाबूजी को कितना आता था, लेकिन सही उत्तर की उन्हें जरुरत ही नहीं थी, ये पता करने के लिए क़ि पेपर कैसे हुआ |
"...त्वरण का मान निकालो ...| ये आंकिक प्रश्न बनाया ?"
"हाँ | नहीं ...| मतलब कोशिश की |"
"क्या मतलब ? बना बना , नहीं बना नहीं बना ....|"
"आखिर में पहुँच कर थोडा हडबडा गया और ....|"
"और इसी में काफी समय निकल गया | क्यों ?"
"हाँ |" कौशल भैया ने मरी आवाज़ में कहा |
बाबूजी के सब्र का बाँध टूट गया |
"कितनी बार तुम्हें समझाया बेटा | अरे, कोई प्रश्न नहीं बनता तो वहीँ अटक मत जाओ ...|छोडो उसे और आगे   बढ़ो ...|"
"मैंने सोचा कि अभी बन जायेगा |"
" अरे वो कभी नहीं बनेगा | छोड़कर आगे बढ़ो |" बाबूजी गरजे ,"और कुछ बनाया कि नहीं ?"
"वो तीन 'कारण बताओ' बनाया |"
पर  पांच  बनाना  था न ? देखो,तुम ही देखो, लिखा हुआ है -'कोई पांच ' |"
"बाकी दो ठीक से मालूम नहीं था |"
"तो फिर साल भर क्या पढ़ते रहे ? खाक ? जब मालूम नहीं था तो कुछ तो लिखते | एक नंबर नहीं तो कम से कम आधा नंबर तो मिलता | मेट्रिक क़ी परीक्षा है बेटा , कोई हँसी खेल नहीं | एक -एक नंबर दांत से पकड़ना पड़ता है |"
फिर वे अंकों का जोड़ लगाने लगे ,"इसमें कितना मिलेगा  ? तीन ? इसमें पाँच - पाँच मिल जायेगा न ? पाँच  और तीन आठ ...|"
"पाँच  मुश्किल है बाबूजी |"
"तो क्या लिखा है तुमने ? लो, तुम ही बताओ कितना मिलेगा ....|"
सारे अंक जोड़कर बाबूजी ने गहरी सांस ली | थोड़ी देर तक सोचते रहे, फिर बोले ,"अगला पेपर कब है ?"
"कल सुबह | भौतिक द्वितीय |"
"ठीक है, जाओ , खाना खाओ और कल के पेपर की तैयारी  करो |"
खाना परोसते  परोसते  माँ क़ी भी आँखें भर आई |
पर  यह कोई एक दिन क़ी बात नहीं थी | एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा .... हर पेपर के बाद कौशल भैया  क़ी पेशी होती  - लताड़, झिडकियां मिलती - अंक जोड़े जाते और बाबूजी का रक्तचाप और बढ़ जाता |
"अगला प्रश्न  किया  या  नहीं ? या  वो भी छोड़ दिया ?"
"नहीं बना बाबूजी |"
"उसके  अगले  वाला  ? किया  ?"
"उसका  'अथवा '  किया  था |"
"चलो  | 'अथवा ' किया  ...आठ नंबर और ....|"
हे  भगवान्  | कब होंगी  ये  परीक्षाएं  ख़तम  ? बाबूजी को  मैंने कभी इतने  गुस्से  में  नहीं देखा  था |
मैंने कौशल भैया से ही पूछ लिया ,"कब होंगी परीक्षाएं खतम ?"
और लो | उन्होंने मुझे ही घुड़क दिया ,"तुझे क्या करना है ? जाके खेल !"
सच बात है | मुझे क्या करना था भला ?
रमजान के तीस दिनों के बाद  ईद आती है ....| नव रात्रि के उपवास के बाद विजय दशमी आती है | हड्डियाँ कंपा देने वाली ठण्ड  के बाद वसंत ऋतू आती है ....|
........फिर अचानक क्या हुआ - मैदान में पतंगों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी |
और एक दिन मैदान में अचानक ढेरों पतंग उड़ने लगे ....| जिसे देखो वही चरखी और मंजा धागा लेकर मैदान में पतंग उड़ाने जा रहा था ..... | देर शाम तक ढील, दांव, पेंच चलते रहा |
सबकी परीक्षाएं जो ख़तम हो गयी थी .....|
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मैं मानो नींद में चल रहा था | आँख खुली, तो धुंधल धुंधला सा नज़र आया | अरे वाह, घरके खम्भे कैसे नक्काशीदार थे| जैसे चंदामामा की कहानियों में महल के खम्भे होते हैं |
"आ गए तुम लोग भी ?" एक बूढी औरत , जिसकी कमर करीब नव्वे अंश से झुकी हुई थी , एक मुस्कान लेकर बाहर आई," आ गए तुम लोग भी ?"
"भी ?' अब मेरी नींद कुछ खुली | हाँ, अब कुछ याद आया | नवागांव से बाबूजी, बबलू और कौशल भैया स्कूटर से आये थे और मैं , माँ , बेबी और संजीवनी बैलगाड़ी से | मई का वह चिलचिलाता महीना था | मुझे इतना याद है, बैलगाड़ी के ऊपर में एक तालपत्री लगा धी गयी थी | पीछे पुआल का ढेर रखा था | उसके ऊपर एक टाट पट्टी की दरी सी बिछा दी गयी थी , फिर भी मुझे पुआल गड रहे थे | बैलगाड़ी बहुत धीरे धीरे लयबद्ध ढंग से चल रही थी और गाड़ीवान कभी बैलों की पूंछ मरोड़ता, तो कभी लाठी से हलके से मारता और कहता ," हो रे , हो रे |" जब वह ऐसा करता, बैल तेजी से भागते और फिर थके क़दमों से चलने लगते | वो भी थक गए थे, क्योंकि उन्हें नवागांव से पिपरहट्टा के दो चक्कर लगाने पड़े थे | मैं भी थक गया था, क्योंकि हम लोग बहुत सुबह भिलाई से चले थे | पर बैल तो बैल होते हैं | उन्हें परिश्रम की और चलने की आदत होती है | मेरे लिए ये पहला अनुभव जो था | फिर बैलगाड़ी की लयबद्ध चर्रम चूँ और और गाड़ीवान के "हो रे हो रे" के बीच मुझे नींद आ गयी |
अभी आँख खुली भी नहीं थी | माँ ने सबसे पहले दाई (दादी) के पांव छुए, फिर बेबी ने | उनकी देखा देखी मैंने और और संजीवनी ने भी दादी के पांव छुए |
अब धीरे धीरे याद आया , दिन कैसे शुरू हुआ |
सुबह सुबह बाबूजी ने मुझे , माँ , कौशल  और बबलू को बस में चढ़ाया और हिदायत दी कि रायपुर में विवेकानंद आश्रम में उतर जाएँ और फिर चलकर सतीश विनोद के घर चले जाएँ और वहीँ रुकें |  फिर वे खुद बेबी और संजीवनी को स्कूटर में लेकर रायपुर आये | शशि को घर में ही छोड़ा | कोई खास वजह नहीं थी | सिर्फ इतना ही कि जब तक माँ गाँव  में है और बाबूजी कॉलेज जाएँ तो कोई तो हो जो खाना बनाए | अगले दिन सुबह वे आने वाले थे | शशि को अकेले 'डर' ना लगे, जो कभी भी, किसी को भी अकेले रहने पर लग सकता था - पर मामा लोग तो थे ही |
तो जब हम लोग रायपुर में इंतज़ार कर रहे थे तो बाबूजी बेबी और संजीवनी को लेकर आये और फिर दो फेरों में उन्हें नवागांव छोड़ा | फिर मुझे और कौशल भैया को लेकर वे हमें नवागांव की ओर ले चले | बाबूजी ने अपने सर में एक भीगा तौलिया बाँधा और मेरे सर में एक भीगा रुमाल बाँध दिया |
"तुम भी अपना सर ढँक लो |" उन्होंने कौशल भैया से कहा |
"रुमाल नहीं है बाबूजी |"
"कैसे लड़के हो ? रुमाल रखना चाहिए न ?  अच्छा ये लो |" उन्होंने अपना तौलिया उन्हें दे दिया |
रास्ते में वे हमें  , मुख्यतः कौशल भैया को कुछ कुछ बताते जा रहे थे | कुछ भूगोल और कुछ इतिहास |
"हम अब ये मंदिर हसौद पहुँच गए | ये हमारे गाँव से सबसे पास का रेलवे स्टेशन है | "
"यहीं से एक लोकल भिलाई जाती है न ?" कौशल भैया ने पूछा |
"हाँ, पहले मैं बैलगाड़ी से  यहाँ तक आता था, फिर रेल पकड़कर भिलाई जाता था | बस का तो कोई ठिकाना नहीं | रेल कभी, कितनी भी लेट क्यों न हो, आती तो है |"
दूर तक वीरान खेत थे | मई के गर्मी के महीने में भला और क्या मिलेगा |
दूर सड़क पर एक तालाब सा दिख रहा था |
बाबूजी वो तालाब है क्या आगे ?" मैंने  पूछा |
"नहीं बेटा, वो मृगा मरीचिका   है |"
"मृग  मरीचिका ?"
"हाँ | गर्मी के दिन में, ऐसा ही होता है | दूर कहीं तालाब दिखाई  देता है, जबकि वहीँ कुछ भी नहीं होता | जंगल में, पानी  क़ी तलाश के लिए प्यासे   हिरण उस छाया का पीछा करते हैं | "
"च च च ... बेचारे हिरण |" मैंने कहा |
सूखे वीरान खेतों में कोई गतिविधि नहीं थी | कहीं कहीं से सियार  क़ी हुआं हुआं सुनाई पड़ जाती थी |
अचानक हरियाली सी दिखने लगी | हरे-भरे खेत ... जहाँ सब्जियां उगी थी | पानी के फव्वारे  से चल रहे थे |
"ये कृषि महा विद्यालय है | " बाबूजी बोले |  एक बड़ा सा बोर्ड साफ़ नज़र आने लगा ,"रविशंकर कृषि महा विद्यालय |"
"ये रविशंकर विश्व विद्यालय  से अलग है ?" कौशल भैया ने पूछा |
"हाँ , ये अपने आप में एक स्वायत महाविद्यालय है |  है तो जबलपुर विश्वविद्यालय   के अंतर्गत , पर वो सिवाय परीक्षा   लेने के कुछ नहीं करते | भारत में गिने चुने कृषि महाविद्यालय हैं | यहाँ खेती से सम्बंधित पढ़ाई और अनुसन्धान होता है | उपज कैसे बढ़ाई जाए | नए बीजो क़ी खोज, नए कृषि उपकरण ...|"
बाबूजी कुछ बोल रहे थे | मुझे कुछ पल्ले पड़ रहा था, कुछ नहीं  |  कौशल भैया जरुर " हाँ हूँ" कर रहे थे |
जब नवा गाँव पहुंचे तो माँ , बेबी , संजीवनी , बेबी और बबलू सड़क के किनारे बरगद के पेड़ के नीचे बैठे इंतज़ार कर रहे थे | सड़क के किनारे एक रेस्टारेंट था, जिसका मालिक आशा भरी   निगाहों से कभी कभार उनकी ओर देख लेता था | पर माँ के रहते ये नामुमकिन था कि बच्चे होटल के समोसे या बालूशाही के लिए जिद करें | माँ को बाहर का खाना सख्त नापसंद था |
"अरे, बैलगाड़ी अभी तक नहीं आई ?" बाबूजी ने पूछा |
"आई थी |" माँ ने बताया , "गाडी वाला बैलों को पानी पिलाने गया है |"
तभी गाडी वाला भी आ गया | अब बबलू , कौशल और बाबूजी स्कूटर में बैठे और हम सब लोग बैलगाड़ी में बैठकर गाँव क़ी ओर चले ....|
बस, इतनी सी छोटी सी पृष्ठभूमि थी ...|

*********

सब थे , लेकिंग कौशल भैया कहाँ थे ?
ये सवाल मैंने नहीं , बबा (दादाजी) ने शाम को आकर पूछा |
"कहीं गया होगा , अपने संगवारियों (दोस्तों) से मिलने |" बाबूजी बोले |बचपन के कई साल कौशल भैया ने यहीं दादाजी के साथ गाँव में बिताये थे | बचपन के वो दोस्त - कोई कहीं खेतिहर   मजदूर बन गया तो कोई बाप से अलग होकर दूध बेचता था | अधिकतर क़ी शादी तो शादी , बच्चे भी हो गए थे | पर थे तो वे बचपन के ही दोस्त ...|
बेबी ने जब दादाजी के पाँव छुए तो वे बोले, "लता, तू इतनी बड़ी हो गयी ?"
बेबी का नाम लता है, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं था | गाँव में तो सब लोग उसे लता ही कहते थे |
बाहर आँगन में ही चारपाई ड़ाल दी गयी |  हम लोग वहीँ पसर गए | बाबूजी बाहर दालान में किसी से बातें कर रहे थे | तब बबलू ने एक राज  की बात बताई ," कौशल भैया ने आज स्कूटर चलाना सीख लिया |"
"क्या ?"
अच्छा  इसलिए आज  बाबूजी ने मुझे स्कूटर के बदले बैलगाड़ी से आने को कहा और बबलू को स्कूटर से लेकर आये | कहीं कौशल हैया स्कूटर पटक देते तो ?
"हाँ | वो रास्ते  में स्कूटर चलाकर लाये | बड़ा मज़ा आया | वो गिअर बदलना ही भूल जाते थे | स्कूटर चढ़ाई में 'धुन धुन करते चढ़ा आर सुईं से नीचे उतरा | फिर अगली चढ़ाई में 'घूं-घूं'  कर के चढ़ा और 'सुईं' से उतरा | एक ही गियर में ....|"
"स्कूटर गिरा तो नहीं ?"
"नहीं, पहली बार घोड़े जैसे उछला  जरुर | कौशल भैया ने पहले गियर में झटके से एक्सीलेटर छोड़ दिया था ....|"
*************
सूरज रोज सुबह निकलता था और शाम को डूब जाता था| पतंग उड़ाने के बाद मैदान में लड़के देर शाम तक बैठे आशंकाओं में झूलते रहते थे ....|
पता नहीं अगली सुबह क्या होगा ?  कई दिनों की उहापोह के बाद एक दिन ..........|
........ परिणाम  एक  दिन  आखिर  निकल  ही  गया  |
.... और  उस  दिन  कौशल   भैया  सुबह  से  ही  गायब  हो  गए  |
.... कोई  वजह  नहीं , कोई  कारण  नहीं  ...|
जब  हायर  सेकंडरी  का  रिजल्ट  पेपर  में  छपता  था , उस  दिन  प्रायः  और  कोई  समाचार  नहीं  छपता  था  पेपर  में |
 केवल  नंबर  ही  नंबर  ....... रोल नंबर ...  | अंक  ही  अंक  ...|
और  उसके  बावजूद  एक  किसी  कोने  में  लिखा  रहता  था ,"परिणाम  प्रकाशित  करने  में  पूरी  सावधानी  बरती  गयी  है  | फिर  भी   किसी  भी  त्रुटि के  लिए  प्रकाशक   या  संपादक  जिम्मेदार  नहीं  है  |"
वैसी  गलतियाँ  अक्सर  हो  जाती  थी  | जैसा  कि अगले  वर्ष  छोटे  के  बड़े  भाई  विजय  के  साथ  हुआ  | 
हुआ  यह  कि  उनका  नंबर अख़बार  से  ही   गायब  था  | एक  नहीं , तीन  हिंदी  और  एक  अंगरेजी  के  अख़बार  से | संयोग  से  उन  दिनों  उतने  ही अख़बार छत्तीसगढ़ से  निकलते  थे  | यानी  कि  शक संदेह की सम्भावना नगण्य थी  | अब  विजय  के  पास  कोई  विकल्प बचा ही नहीं था  | वो  अपना  दुखड़ा  लेकर  विद्यालय  के   प्राचार्य  सहाय  सर  के  पास  गए  |
बाबाजी  के  विपरीत  सहाय  सर एक नंबर के आलसी थे  | उन्होंने  तो  कुछ  सुनने से  ही  इंकार  कर  दिया  |
"बाहर ही खड़े रहो  | दिखता नहीं , मैं काम कर रहा हूँ  |जब  बुलाऊं तो अन्दर आना  |"
थोड़ी  देर  बाद   बाहर खड़े विजय  से  चपरासी  ने  कहा ,"साहब  बुला  रहे  हैं |"
"क्या  बात  है  ?"
"सर ,मेरा रोल नम्बर पेपर में नहीं है  |"
"तो तुम फेल हो गए हो  |" वे  शांति  से  बोले  |
"पर  सर  , मेरे  पपर  तो  उतने    खराब  नहीं  हुए  थे  |"
"हो  सकता  है , जांचने  वाले  बेवकूफ  हों  |" वे  फिर  शांति  से  बोले  ,"तुम्हारी  किस्मत  खराब  थी  |"
"सर , प्लीज़  |"
"मैं  क्या  कर  सकता  हूँ ?" वे  रुखाई  से  बोले  |
"सर , स्कूल में  भी  तो  लिस्ट  आती  है  |उसमें  एक  बार  चेक  कर  सकते  हैं  आप  ?"
स्कूलों  में  उन  दिनों  लिस्ट आया  करती  थी  |सही  सर  ने  लम्बी   लिस्ट  निकाली चश्मा चढ़ाया और पूछा  ,"बोलो , क्या  नम्बर  है  तुम्हारा  ?"
नंबर  सुनने  के  बाद वे शांति से बोले ,"तुम्हारा नंबर ही गायब है | तुम लड़के तो ऐसे नहीं लगते , पर  हो  जाता  है \ तुम  ही  देख  लो ...|"
फिर  उन्हें  कुछ  और नंबर आगे पीछे  दिखाई  दिए  ,"नंबर  एक  बार  फिर  से  बताना  ...|अरे  , तुम्हारा  नंबर  तो  यहाँ  है   | मेरिट  होल्डर  में  |तुम  मेरिट  में  आये  हो  ...| सॉरी | आई ऍम सॉरी | चपरासी, दो कप चाय लाना जरा ...| पता नहीं, ये अखबार वाले ... धेले भर की अकल नहीं है | "
.... तो ये घटना हुई ठीक एक साल बाद ....|
पर कौशल भैया का परिणाम तो पानी की तरह साफ़ था | एक अखबार गलत हो सकते हैं, पर तीनों के तीनों अखबार अगर उन्हें   प्रथम श्रेणी  में उत्तीर्ण घोषित करें तो फिर शक की गुंजाइश भी कहाँ रहती है |
माँ ने राहत की सांस ली | बाबूजी  ने  दो  गिलास  ठंडा  पानी  पिया   | पर कौशल ? उसका कोई पता ही नहीं था |
बाबूजी बड़े चिंतित से घूम रहे थे | दिन में दो बार और कोंलेज से वापिस आये | पूछा , "कौशल आया ? नहीं आया ? कहाँ चले गया ?कहाँ चले गया ? क्या बात है ? फर्स्ट डिविजन तो आया है |"
 बाबूजी एक किलो पेडा  ले आये थे और घर में जो भी आता था, उसे पेश कर रहे थे | इसके आलावा वे एक एक पाव के कुछ छोटे डिब्बे भी लाये थे | जो कतिपय लोगों को देना था , जैसे कि उनके गणित के ट्यूशन के शिक्षक को |
अब जबकि परिणाम निकल चुका था | उन्हें उससे कोई आवश्यक और महत्वपूर्ण बातें करनी थी | पर कौशल भैया जो गायब हुए तो गायब ही रहे |
बाबूजी के सीने से एक बड़ा बोझ तो उतर गया था , पर वह यक्ष प्रश्न ? वह तो मुंह बाए खड़ा था |
कौशल भैया तो पास हो गए | मैं सोच रहा था, तमाल , राजा और सप्पन का क्या हुआ ? माँ को चिंता थी तो केवल सप्पन की |
अक्सर  माँ  के  कान में बात पड़ते रहती थी ...| "सप्पन चिट मार रहा है |" ये शिकायत भी क़ी थी चुगलखोर लड़कियों ने | बाहर के इनविजिलेटर ने सप्पन क़ी तलाशी ली | उनके हाथ कुछ नहीं लगा | हँसते मुस्कुराते सप्पन को देखकर और लड़कियों क़ी शिकायत से उनका गुस्सा और भड़का | उसे लेकर वे बाथरूम में गए और उसकी पेंट तक उतरवा ली | फिर भी कुछ हाथ नहीं लगा |
लेकिन फिर ये आये दिन का किस्सा बन गया | गाहे बगाहे उसकी चेकिंग होने लगी .....|
माँ का दिल बैठा हुआ था | क्या वो पास हो गया ?  कौशल तो था नहीं, और कौन बता सकता था उसके बारे में ?
एक हँसते हुए शैतान क़ी तरह सप्पन खुद ही अवतरित हुआ |
"आंटी कौशल है ?" उसने गेट के बाहर से ही पूछा |
"नहीं है | सुबह से पता नहीं कहाँ गया है |"
"अब फर्स्ट डिविजन आया तो घूमेगा ही आंटी |" सप्पन हँसा | फिर रंग बिरंगे झोले से मिठाई की एक पुडिया माँ को देते हुए बोला," आंटी , मैं भी पास हो गया - थर्ड डिविजन से   |"
****************
 और तमाल घर से भाग गया !
पीछे छोड़ गया ढेरों सवाल .....
कहाँ गया ?
क्यों गया ?
कैसे गया ?
आखिर क्यों ?
जाने वालों का दर्द तो होता है .... | मैट्रिक की परीक्षा में फ़ैल हो गया तमाल .... | क्या हो गया या या यूँ कहा जाए कि क्या से क्या हो गया एक होनहार किशोर को ? कुछ ही वर्ष पहले तो वो पढ़ाकू और मेधावी लड़कों में गिना जाता था | फिर उसका पतन इतनी तेजी से हुआ कि वह परीक्षा में ही फेल हो गया ? कैसे बहक गया वो मार्ग से ? किसने उसे बहकाया ? क्या सेन साहब को थोड़ी भी भनक नहीं थी कि उनके साहबजादे किस मार्ग पर निकल चुके हैं ?
फेल होने के बाद तमाल सबसे अलग-थलग हो गया | 'भाव बढ़ने ' क़ी वजह से दोस्तों ने पहले ही कन्नी काटना शुरू कर दिया था | अंतिम दिनों तक तमाल का सड़क इक्कीस और बाइस में शायद ही कोई दोस्त बचा हो | वो दोस्त, जो आंसू पोंछे | वो दोस्त , जो कंधे पर हाथ रखकर कहे , तमाल तुझे क्या हो गया भाई ? तू अब वापिस आ जा | अपने को पहचान | एक ही साल तो गया है ना ? ज़िन्दगी बहुत बड़ी है भाई | चल उठ और धूल झाड़कर खड़े हो जा ...| यहाँ तक क़ि उसका बचा  खुचा करीबी दोस्त, मुन्ना का राजा चाचा ... वो भी अब उतना करीब नहीं रहा | राजेंद्र का क्या हुआ - यह बात भी बहुत दिनों तक गुप्त ही रही | लेकिन उसने वह तो कदम नहीं उठाया जो तमाल ने उठाया ....|
तमाल को ठेस तो लगी थी | ...."रिजल्ट निकलने के बाद वो घंटों रेत में बैठे रहता था | " अनिल ने दबे शब्दों में खुलासा किया | अनिल के घर के पास दो ट्रक रेत डाली गयी थी | क्यों ? वो कहानी फिर कभी ...|  हम भी अक्सर वहां खेलते थे |...  "रेत में बैठे-बैठे , हाथ से ना जाने क्या क्या लकीरें खीचते  रहता था ... | आकाश क़ी और देखकर ना जाने क्या क्या सोचते रहता था ... |"
क्या  कारण था  ? क्यों  किया  उसने  ये  सब  ?
कारण यही  था क़ि तमाल बहुमुखी प्रतिभा का धनी था |
,"तमाल तुम कहीं भी हो , जल्दी घर लौट आओ बेटा | तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा | अगर पैसे क़ी जरुरत हो तो चिट्ठी लिखो | तुम्हारी माँ बीमार है ... |"
घर में तीन अखबार आते थे - 'युगधर्म', 'देशबंधु' और 'नवभारत' | उनके दुसरे और तीसरे पृष्ठ पर 'गुमशुदा की तलाश' के विज्ञान आते थे, तस्वीरों सहित, इन्हीं लाइनों पर | पर हम प्रतिदिन बेसब्री से देखते रहे, तमाल सेन का विज्ञापन कभी नहीं आया | क्या सेन साहब इतने टूट चुके थे कि वे उदासीन हो गए ?
 पहले पहल सेन साहब ने कई टेम्पो वालों से बात क़ी - क्या वो उनकी टेम्पो में बैठकर गया था ? भला टेम्पो वालों को क्या याद रहता है ? पर एक तार क़ी तलाश थी | जिससे गुत्थी कुछ सुलझे |
फिर  उन्हें अंदेशा हो गया था कि तमाल कहाँ गया है |
राजेश खन्ना के फ़िल्मी दुनिया में उदय ने लाखों किशोरों को प्रेरित किया - खानदान से, रिश्तेदारी  से  कुछ नहीं होता , प्रतिभा के साथ लगन हो तो कोई भी रुपहले परदे पर छा  सकता है |  तमाल कोई अकेला उदहारण नहीं था | लाखों किशोर और नवयुवक भटक गए थे |
"मेरे अंकल हैं बम्बई में |" बबन की बहन सुषमा अक्सर डींग हांका करती थी ,"उन्होंने एक फिल्म में टैक्सी ड्राइवर का रोल अदा किया है | फिल्म का नाम है 'सीमा' | नहीं, वो पुरानी 'सीमा' नहीं, नयी 'सीमा' | वो अभी तक पूरी   नहीं बनी   है ...|"
कई बार  हम लोग बबन से पूछते ,"अबे 'सीमा' कब आने वाली है ? तू अपने अंकल को पहचान लेगा ?"
 .... और कारण यही था क़ि बम्बई क़ी डगर बहुत ही आसान थी |    दुर्ग स्टेशन से एक नहीं , दो - दो द्रुतगामी रेल गाड़ियाँ  सीधे बम्बई तक पहुंचा सकती थी | जरुरत थी तो केवल एक निश्चय क़ी |
तो क्या वह वाकई बम्बई गया था ? बड़े बुजुर्गों का अंदाज़ तो यही था | सेन साहब ने अपने परिचितों से पश्चिम बंगाल में पूछताछ कराई | जो गाड़ियाँ बम्बई जाती थी, लौटते हुए वे कलकत्ता तक भी जाती थी | अपने परिचितों को कलकत्ता में तार किया, पत्र लिखे | जब कोई जवाब नहीं मिला तो उन्होंने सुनिश्चित कर लिया |
और बम्बई ? वो तो एक माया नगरी थी - एक भूल भुलैया ....| वहाँ सेन अंकल का कोई भी नहीं था | तमाल क़ी माँ घंटों गेट पकडे घर के बाहर कड़ी रहती थी | डाकिये का इंतज़ार करते रहती थी | अनिल ने दबी ज़बान में यह भी बताया क़ि उसकी माँ अनिल की माँ को कह रही थी क़ि इतने पैसे भी नहीं ले के गया क़ि टिकट खरीदने के बाद ज्यादा दिन तक खा सके | दुर्ग से बम्बई तक बिना टिकट के जाना लगभग असंभव था | डेढ़ दिन लगते थे - कितने टिकट चैकरों को गच्चा देंगे आप ?
दिन सप्ताह में, सप्ताह महीनों में बदलते गए | कई महीने गुजर गए | तमाल का कुछ पता नहीं चला |

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क्या था वह प्रश्न जो बार बार वेताल क़ी तरह बाबूजी के कंधे पर सवार हो जाता था .... |
कुछ ही बरस पहले व्यास को इंजीनियरिंग कोल्लेज में दाखिला मिला था | फूफा ने खेत बेचकर शिक्षण शुल्क जमा किया था | सबको काफी ख़ुशी हुई थी कि अपने ही परिवार का एक कोई लड़का बिरादरी में पहला इंजिनियर बनने जा रहा है | व्यास क़ी बुद्धि काफी तीक्ष्ण थी और वे काफी मेहनती भी थे | फिर भी, जब वे कोलेज गए तो सारी क़ी सारी पढ़ाई अंग्रेजी में थी | प्राध्यापक हिंदी बोलते ही नहीं थे | ऐसा लगा, मानो शिक्षण का माध्यम ही अवरुद्ध हो गया है | उस घुटन भरे माहौल से व्यास एक दिन बोरिया बिस्तर बाँधकर वापिस आ गए |  बाबूजी ने काफी समझाया | फूफा ने भी काफी कोशिश की लेकिन व्यास के मन में जो खौफ समाया था, वह दूर नहीं हुआ | वो वापिस नहीं गए | फीस के सारे पैसे मिटटी में मिल गए | सबके सपने टूट गए | वायस ने दुर्ग के पालीटेक्निक  में दाखिला ले लिया और उनका करियर बरसों पीछे चला गया |
बाबूजी के मन में यही चिंता समाई हुई थी | कहीं व्यास का दुखद इतिहास कौशल की भी मानसिकता को प्रभावित न करे | जब कौशल का स्वाभाविक रुझान इंजीनियरिंग की और था तो एक भाषा उसके मार्ग को अवरुद्ध न कर दे | परिवार में वह खौफ कहीं अभिशाप न बन जाए | उनकी सारी की सारी चिंता का केंद्र यही था   |
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सबकी आँखें कौशल भैया पर ही जमी थी | लक्ष्मी नारायण शर्मा का सांवला चेहरा तटस्थ था | वातावरण  इतना गंभीर था कि मैं भी घबरा गया | वहां रहूँ या भाग जाऊं ? चाय तो कोई देख भी नहीं रहा | मैं ट्रे  पकड़कर वहीँ खड़े रहा और बाबूजी और लक्ष्मी नारायण शर्मा के साथ साथ कौशल भैया के जवाब क़ी प्रतीक्षा करते रहा |
थोड़ी चुप्पी के बाद कौशल भैया बोले."बाबूजी, में अपने गाँव के पास वाले कृषि महाविद्यालय में दाखिला लेना चाहता हूँ ....|"
इस जवाब ने सबको अवाक् के दिया |लक्ष्मी नारायण ने उदासीन भाव से सर झटका , " नहीं बेटे | ऐसा नहीं कहते | ऐसा सोचते क्यों हो ? खेती तो तुम्हारे पुरखे करते ही आये हैं | तुम्हें कुछ आगे सोचना है | भिलाई इस्पात का कारखाना देख रहे हो ? कितनी भारी भरकम मशीनें हैं ? देश को इंजीनियर चाहिए |"
कौशल भैया खामोश बैठे रहे | मोटे चश्मे के पीछे से रायपुर इंजीनियरिंग कॉलेज  से   केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक और भिलाई इस्पात संयंत्र के वरिष्ठ अभियंता  लक्ष्मी नारायण शर्मा की ऑंखें चमक रही थी ,"पता नहीं , लोग क्यों इंजीनियरिंग कॉलेज को खौफ समझते हैं | मुझे तो कुछ भी नहीं लगा | कुछ भी नहीं ... | मेहनत करो और पास हो जाओ | फिर आराम से नौकरी करो |और ...." उन्होने आगे कहा, "सिविल ले न गा (भाई) | सबसे आसान ब्रांच है | हँसते खेलते पास हो जाओ और फिर पैसा ही पैसा ....| ....पैसा ही पैसा ....|"
अब सबने चाय ले ली | मेरे वहां खड़े रहने का औचित्य भी ख़तम हो गया | और लक्ष्मी नारायण शर्मा ने दिशा तो निर्धारित कर ही दी थी |
अब हाफ पेंट के दिन ख़तम हो गए | सिंग टेलर ने कौशल भैया के लिए कुछ नयी फुलपेंट सिली | बाबूजी ने उनके लिए एक नयी हाथ घडी खरीदी | और एक दिन, मान के पांव छूकर, तुलसी के पौधे को प्रणाम कर और सामने क़ी खिड़की पर उस दिन बनाए गए  झोपड़ी के चित्र को देखते हुए, कौशल भैया जीवन क़ी राहों पर निकल पड़े, फिर कभी न वापिस  आने के लिए |
उनकी कुटिया में ढेर सारे कुछ पूर्ण और कुछ अपूर्ण यंत्र पड़े थे ... | आवर्धक  लेंस  से बनाया छोटा बाइस्कोप और किसी फिल्म  क़ी रील से काटे और सफ़ेद मोटे कागज़ में   चिपकाए हीरो हिरोइन क़ी तस्वीरें जो बाइस्कोप के परदे  पर दिखती थी , अधूरा बना पेरिस्कोप , जिसके लिए काटे गए दर्पण थोड़े छोटे कट गए थे , उनके जाने के बाद भी उत्तर दिशा दिखाने वाला कुतुबनुमा, बाबाजी का 'सप्रेम भेंट - टूटा हुआ तापमापी , विद्युत् चुम्बक बनाने क़ी कोशिश में लोहे क़ी कील में लिपटे ताम्बे के तार ..... सब वहीँ वैसे ही पड़े थे ....|

 पर तमाल क़ी तरह वे त्रासदी नहीं, एक लीक छोड़कर गए थे ....|
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स्थान - भिलाई
काल - १९७०-७१

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