मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मारुति का पर्वत उत्तोलन - वृत्तांत १ - वाल्मीकि रामायण

 आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने इस घटना की अनूठी पृष्ठभूमि तैयार की है | 

एक ही दिन में देवान्तक ,नरान्तक, त्रिशिरा , अतिकाय, महोदर और  महापार्श्व को खोने के बाद रावण विषाद के सागर में डूब गया | प्रचंड पराक्रमी मेघनाद से पिता का यह दुःख देखा नहीं गया | उसने रावण को दिलासा दी,"पिताजी, अभी आपका पुत्र जीवित है | जब उसने देवराज तक को परास्त किया है तो क्षुद्र मानवों की बात ही क्या है ?"

रावण से आशीर्वाद लेकर मेघनाद ने रणभूमि की ओर  प्रस्थान किया | उसके साथ विभिन्न वाहनों पर सवार होकर उत्साही राक्षसों का समूह भी चल पड़ा |

 इससे पहले जब सुन्दरकाण्ड में मेघनाद हनुमानजी से युद्ध करने चला था, तब रावण ने उसे अपने साथ सेना ले जाने के लिए मना किया था ,"सेनाएं या तो समूह में भाग जाती हैं या मारी जाती हैं |" 

किन्तु इस समय रावण ने मेघनाद को सेना के साथ जाने से रोका नहीं |

 उन भयंकर राक्षसों से घिरा इंद्रजीत रणभूमि पहुंचा | रणभूमि पहुंचकर इंद्रजीत  ने एकाएक रथ रोक लिया  |  राक्षस सेना का समूह उनके चारों ओर एकत्र होकर प्रश्वाचक दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा |  राक्षस योद्धाओं की भीड़  में इंद्रजीत रथ से उतरकर भूमि पर बैठ गया और उसने पवित्र अग्नि प्रज्ज्वलित की |  

अग्नि में मेघनाद ने एक बकरे की बलि चढ़ाई और अग्निदेव का आव्हान किया | साक्षात् अग्निदेव प्रकट हुए | अग्निदेव ने स्वयं मेघनाद के रथ , अस्त्र शास्त्रों और कवच को ब्रह्म मन्त्र से अभिमंत्रित किया | अब दुगने उत्साह से मेघनाद रथ पर सवार हुआ और वानरों का संहार करने निकल पड़ा | 

उस दिन रणभूमि में मेघनाद ने त्राहि-त्राहि मचा दी | गवाक्ष, गंधमादन, नील, द्विविद आदि वानरों को तो उसने बड़ी आसानी से क्षत विक्षत कर दिया | अब वह आकाशमार्ग में उड़ चला और अदृश्य हो गया |  आकाश से ही उसने ब्रह्मास्त्र से वानर सेना पर प्रलयंकारी प्रहार करना प्रारम्भ किया | दुर्दांत शरों की बौछार करके उसने जांबवान, सुग्रीव और अंगद को भी धराशायी कर दिया | उस दिन उसका क्रोध और तेज इतना भयंकर था कि बजरंगबली भी बुरी तरह घायल हो गए | 

लेकिन हनुमान जी पर उसके पहले मेघनाद एक बार ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर चुका था जब सीता का पता लगाने हनुमान जी  लंका आये थे | किसी व्यक्ति पर दूसरी बार ब्रह्मास्त्र का प्रयोग उतना असरकारी नहीं रहता| दूसरे, हनुमानजी को खुद ब्रह्माजी से वर प्राप्त था कि ब्रह्मास्त्र का असर उन पर एक घडी से ज्यादा नहीं रहेगा | 

मारुति  रक्तरंजित अवश्य हो गए थे , लेकिन अचेत या धराशायी नहीं हुए | फिर भी मेघनाद अदृश्य होकर युद्ध कर रहा था, इसलिए पवनपुत्र को भी कुछ सूझ नहीं रहा था |  

आसमान से मानो शरों की वर्षा हो रही थी | मेघनाद दिखाई तो नहीं देता था, किन्तु उसका अट्टहास कभी इस छोर से तो कभी उस छोर से सुनाई देता था | 

श्री रामचंद्र जी ने लक्ष्मण से कहा ,"लक्ष्मण | बाणों की तीव्रता से यह स्पष्ट है कि इंद्र शत्रु ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है | जगत के सृजनकर्ता के इस  अस्त्र से मैं और तुम भी इन वानरों की तरह अचेत हो जायेंगे - यह निश्चित है | उसके पश्चात् ही यह राक्षस लंका चले जायेगा |" राम जी की बात पूरी होते-होते लक्ष्मण जी अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े | अगले ही क्षण राम जी भी सुध-बुध खो बैठे | 

ब्रह्मास्त्र का प्रभाव दिन के चार प्रहर तक रहा | पांचवें पहर, अर्थात सायंकाल के होते-होते उसका प्रभाव कम होने लगा | देखते ही देखते अँधेरा छा गया | उस अन्धकार में मशाल हाथ में लिए विभीषण अपने साथियों को पुकारते हुए घूमने लगे | आश्चर्य की बात यह थी  कि विभीषण, जो कि श्री रघुनाथ जी द्वारा लंकापति घोषित किये जा चुके थे, आखिर मेघनाद के प्रकोप से कैसे अछूते रह गए ? महाकवि वाल्मीकि ने इस सन्दर्भ में कुछ लिखा नहीं | संभव है, विभीषण को मेघनाद की माया का पूर्व  ज्ञान हो |  

वही विभीषण जब अपने साथियों को पुकार रहे थे , तब उन्हें घायल अवस्था में उनकी पुकार का उत्तर देने वाले मारुति मिल गए | फिर क्या था ? एक से दो भले | अब हनुमान जी ने भी अपने हाथ में एक मशाल ले ली और वे सबको पुकारते हुए चले |  विभीषण बताते जा रहे थे कि राम और लक्ष्मण सिर्फ मूर्छित हुए हैं | वे अभी जीवित हैं | ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी बात सिर्फ मारुति ही सुन रहे हैं | कहीं कोई आर्तनाद या पीड़ा का स्वर भी नहीं सुनाई पड़ता था | यहाँ वहाँ रक्त से लथपथ वानरों के शरीर पड़े हुए  थे | 

युद्ध स्थल पर उन्हें बाणों से बिंधे हुए जांबवान जी मिल गए | 

"जांबवंत जी, | आप जीवित तो हैं ?" विभीषण ने पुकारकर पूछा | 

जांबवान की उन्हें दुर्बल सी वाणी सुनाई दी ,"राक्षसराज, मैं आपकी वाणी तो सुन पा रहा हूँ , किन्तु आपको देख नहीं पा रहा हूँ | इंद्रजीत ने बाणों से मेरा अंग-अंग बींध  दिया है | मैं आँखें भी नहीं खोल सकता | आपने हनुमानजी को कहीं देखा है ? क्या हनुमानजी जीवित हैं ?"

विभीषण जी आश्चर्यचकित रह गए ,"ऋक्षराज, न आपने राम या लक्ष्मण के सम्बन्ध में कुछ पूछा, ना वानरराज सुग्रीव या युवराज अंगद के बारे में | जान पड़ता है , हनुमानजी के सम्बन्ध में आपका स्नेह कुछ ज्यादा ही है |"

जांबवान, जो बड़ी मुश्किल से ही कुछ कह पा रहे थे, उन्होंने लम्बे चौड़े तर्क देने के बजाय संक्षेप में कुछ ही शब्दों में विभीषण को समझाने की कोशिश की ,"विभीषण, जिन परिस्थितियों में हम पड़े हैं, उस अवस्था से हमें अगर कोई निकाल सकते हैं तो वो बजरंगबली ही हैं | यदि बजरंगबली जीवित हैं तो उनमें हम सब निर्जीव लोगों को पुनर्जीवित करने की शक्ति है | अगर वे खुद ही प्राण खो बैठे हैं तो हम अगर जीवित भी हैं तो इस परिस्थिति में मरे के समान ही हैं |"

भाव विभोर हुए हनुमानजी से अब नहीं रहा गया | उन्होंने जांबवान  के चरणों में प्रणाम किया | उनकी आवाज़ सुनकर जांबवान ने राहत की साँस ली | जांबवान खुद ब्रह्मा जी के पुत्र माने जाते हैं } इसलिए वृद्ध होने के बावजूद और तीरों से बिंधे होने के बाद भी वे बात कर पा रहे थे | 

"केवल एक ही जगह ये औषधि उपलब्ध है |" जांबवान , जो सबसे बुजुर्ग थे, जिनका अनुभव और ज्ञान विस्तृत था, कह रहे थे ," दूर हिमालय में जाना पड़ेगा | वहां कैलाश पर्वत और ऋषभ पर्वत के मध्य एक और पर्वत है जो सामान्यतः नज़र नहीं आता | उस पर्वत के शिखर पर चार जड़ीबूटियां हैं - मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संघानी | हे महावीर , तुम तुरंत प्रस्थान करो और सागर के उस पार सहस्त्र योजन दूर जाकर तत्काल वे बूटियां  लेकर आओ | तब ही हम सबके प्राण बच सकते हैं |"

मारुति एक बार फिर एक लम्बी यात्रा पर निकल पड़े | जब वे सीता का पता लगाने लंका में आये थे, तब उन्होंने शत योजन समुद्र लांघा था | यह उससे दस गुनी लम्बी, सहस्त्र योजन की यात्रा थी | पिछली यात्रा के समय हनुमानजी तरोताजा थे | इस समय वे स्वयं घायल थे | यह बात सही थी कि सागर पर सेतु बंध चुका था और हनुमानजी अगर चाहते तो कम से कम सागर पार करने का कार्य  सेतु से पूरा कर सकते थे | लेकिन उसमें समय ज्यादा लगता और यात्रा की दूरी भी बढ़ जाती | 

पुनः एक बार लंका में स्थित  मलय पर्वत को हनुमान जी का उत्पीड़न सहना पड़ा |  जब हनुमान जी सीता की खोज में लंका आये थे, तो अपने विशालकाय शरीर के साथ मलय पर्वत पर ही उतरे थे | फिर लंका से वापिस जाने के समय उन्होंने मलय पर्वत से ही छलांग भरी थी | एक बार फिर वे मलय पर्वत से छलांग लगाने को आतुर थे | इस बार की यात्रा बहुत लम्बी थी - सहस्त्रों योजन की |  साथ ही एक एक क्षण बहुमूल्य था | युद्ध के जीत और हार का सारा दारोमदार अब इस यात्रा पर निर्भर करता था |  हनुमान जी ने शरीर को संकुचित किया, मन को एकाग्र किया और वे औषधि लेने उड़ चले | 

शीघ्रगामी हनुमान जी ने कुछ ही क्षणों में खतरनाक मत्स्य और सर्पों से भरे महासागर को लांघ लिया | अब वे वनों, सरोवरों, नदियों, समृद्धशाली जनपदों  ग्राम और नगरों के ऊपर से उड़ रहे थे | 

कुछ घडी उड़ने के पश्चात उन्हें ब्रह्मर्षियों के विशाल आश्रम दिखने लगे | देखते ही वे समझ गए  कि वे हिमालय के समीप आ गए हैं | वहां उन्हें वनों के बीच सुरम्य झरने , कन्दराएँ और ऊँचे ऊँचे वृक्षों और हिम से आच्छादित पर्वत शिखर दिखाई  देने लगे | ब्रह्मा जी के निवास स्थान को पार करके वे कैलाश पर्वत के समीप पहुँच गए |  कैलाशऔर ऋषभ पर्बतों के मध्य उन्हें औषधियों से भरपूर जगमगाता हुआ वह पर्वत दिखाई दिया, जिसका वर्णन जांबवान ने किया था | 

आनन्-फानन में वे पर्वत के ऊपर चढ़ गए और शिखर की ओर लपके जहाँ जांबवान की बताई हुई चार औषधियां होने की सम्भावना थी | अचानक औषधियों को भान हुआ कि कोई उन्हें उखाड़कर ले जाने आया है | डर के मारे सारी औषधियों की आभा जाती रही और पर्वत पर अन्धकार छा गया | 

लक्ष्य के इतने पास पहुंचकर इस अकस्मात् बाधा से हनुमानजी को बहुत क्रोध आया | सारा दोष उन्होंने पर्वत पर ही निकाला | उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं और उन्होंने गर्जना की," "नगेंद्र | श्री रघुनाथजी का भला करने में भी तुम्हें परेशानी हो रही है | मैं अपने बाहुबल से अभी तुह्मारा दर्प चूर चूर कर देता हूँ |"

बलपूर्वक मारुति ने वह पर्वत उखाड़  लिया | समय भी कम था | वापसी यात्रा भी लम्बी थी | तीव्र गति से चलते हुए हनुमानजी सूर्योदय होने के पूर्व ही पर्वत के साथ लंका जा पहुंचे | 

उन औषधियों की सुगंध का ही यह प्रभाव था कि राम और लक्षमण की मूर्छा जाती रही और वे जाग गए | इतना ही नहीं, सारे वानर, जो क्षत विक्षत हो चुके थे , आँखें मलते हुए उठ खड़े हुए | उनके अंगों से सारे बाण निकल गए | 


अंत में वाल्मीकि जी एक रोचक तथ्य का उल्लेख करते हैं | जब से युद्ध शुरू हुआ था, तब से रोज राक्षस और वानर - दोनों मारे जाते थे | लेकिन रावण की आज्ञा से मरने वाले हर राक्षसों को रात के अँधेरे में समुद्र में डाल दिया जाता था ताकि वानरों को अनुमान न लग सके कि कितने राक्षस मारे गए थे | 

तात्पर्य यह कि औषधियां तो आखिर औषधियां थीं | वे वानरों और राक्षसों में भेद नहीं कर सकती थीं और एक औषधि के रूप में उन्हें भेद करना भी नहीं चाहिए था | जरा कल्पना कीजिये कि प्रमुख वानरों की तरह देवान्तक, नरान्तक, महापार्श्व, त्रिशिरा और महोदर के शरीर भी रण भूमि में पड़े होते और उन्हें औषधियों की सुगंध मिल गयी होती तो फिर क्या होता ? 

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और देखें  -

मारुति का पर्वत उत्तोलन

राम चरित मानस (तुलसीदास)

कृत्तिवास रामायण 

कम्ब रामायण 

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