राक्षसों की सेना की अपार क्षति देखकर रावण विक्षुब्ध हो गया | तब बूढ़े मंत्री माल्यवान ने उन्हें सीता को वापिस करके राम से संधि कर लेने सुझाव दिया | मेघनाद वहीँ खड़ा था | उसने माल्यवान को डपट दिया | रावण भी आग बबूला हो गया | उसने माल्यवान को ऐसी झाड़ पिलाई कि माल्यवान ने वहां रुकना उचित नहीं समझा और घर चले गया | मेघनाद ने रावण से निवेदन किया ,"पिता जी, मुझे आज्ञा दीजिये | कल मैं युद्ध स्थल पर राक्षस सेना की बागडोर हाथ में लेना चाहता हूँ | इंद्र से जीता हुआ वह रथ, जो मैंने आपको भी नहीं दिखया था, उसका प्रयोग मैं कल करूँगा |"
मेघनाद की वह बात कोरा आश्वासन नहीं था | अगले दिन रणभूमि में वह काल बनकर छा गया | पहले वह अपने सामान्य रथ पर ही किले से उतरकर रणभूमि में गया और वानर सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया | नल, नील, जांबवान और यहाँ तक कि अंगद - कोई उनके सामने टिक नहीं सका | तब हनुमानजी उनसे जा भिड़े और दोनों में भीषण युद्ध छिड़ गया | एक विशाल चट्टान फेंककर हनुमानजी ने मेघनाद के रथ को चकनाचूर कर दिया |
चट्टान के रथ तक पहुँचने से पहले ही मेघनाद फुर्ती से रथ से बाहर कूद पड़ा और आकाश में उड़ चला | हनुमानजी उसे बार बार ललकारते थे पर वह पास नहीं आता था | क्योंकि अब वह अदृश्य मायावी रथ पर सवार हो चुका था | उसने ऐसी माया रची कि वानर सेना दिग्भ्रमित हो गयी | आकाश में ऊँचे चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा | पृथ्वी में जहाँ तहाँ जल की धाराएं प्रकट होने लगी | पिशाच पिशाचियाँ प्रकट होकर 'मारो-काटो' का हो-हल्ला मचाने लगे | किसी को कुछ नहीं सूझा | सभी दसों दिशाओं में भाग चले | समय व्यर्थ न गंवाते हुए अब वह श्री रघुनाथ जी से ही भिड़ गया और अपनी माया से उन्हें प्रभावित करने का प्रयास करने लगा | जैसे कोई मनुष्य साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डराए | उस सारी माया को काटने में राम जी को केवल एक ही बाण की आवश्यकता पड़ी | सारा मायाजाल बिखर गया और वानरों को सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा |
लक्ष्मण जी अत्यंत क्रोधित हो गए | मेघनाद के दुस्साहस पर विराम लगाने की उन्होंने राम जी से आज्ञा मांगी और अंगद आदि वीरों के साथ मेघनाद से युद्ध करने निकल पड़े | उधर मेघनाद के इर्द गिर्द प्रबल राक्षस भी इकठ्ठा हो गए | रणभूमि में वानर और राक्षस अपने अपने प्रतिद्वंदी चुनकर उनसे भिड़ गए | रक्त की धाराओं से गड्ढे भर गए और उन पर भयंकर युद्ध से उड़ने वाली धूल जमा होने लगी, मानो अंगारों के दे र पर राख छा रही हो | लहूलुहान योद्धा फूले हुए पलाश के वृक्षों की तरह सुशोभित हो रहे थे |
लक्ष्मण और मेघनाद के बीच भीषण युद्ध छिड़ गया | कुछ ही समय में मेघनाद का रथ लक्षमण ने चूर चूर कर दिया, घोड़े और सारथि मार गिराए | मेघनाद को अपनी मृत्यु स्पष्ट दिखाई देने लगी | उस घातक अस्त्र को चलाने का सही समय आ गया था - जिसका नाम था - वीरघातिनी | उस अमोघ शक्ति के छाती पर लगते ही लक्ष्मण रणभूमि में मूर्छित होकर गिर पड़े |
अब तक मौत को सामने देखने वाले मेघनाद में इतनी निर्भीकता आ गयी कि वह बेधड़क लक्ष्मण के पास चले आया | इतना ही नहीं, उसने लक्ष्मण को उठाकर लंका ले जाने का निर्णय लिया ताकि अपने पिताजी के क़दमों पर उन्हें एक भेंट के रूप में प्रस्तुत कर सकें | पर लक्ष्मण जी तो साक्षात् शेषनाग ठहरे , जिन्होंने खुद ही पूरी पृथ्वी का भार उठा रखा था | करोड़ों मेघनाद भी आ जाते तो उन्हें हिला नहीं सकते थे | वह जीतकर भी अपमानित होकर लंका लौट गया |
संध्या के समय दोनों ओर की सेनाएं लौटने लगी और सेनापति अपने योद्धाओं की खोज खबर लेने लगे | लक्ष्मण को न आते देखकर चिंतित हो हनुमान जी ने पूछा , "लक्ष्मण कहाँ है ?"
तभी जिस लक्ष्मण को मेघनाद थोड़ा भी नहीं हिला पाया था, उन मूर्छित लक्ष्मण का शरीर कंधे पर उठाये हनुमान जी प्रकट हुए | यह दृश्य देखकर राम जी समेत सारी वानरसेना सदमे में आ गयी | परन्तु यह समय शोक करने के बजाये पूरे जागृत मन से त्वरित कार्यवाही करने का था | जांबवान ने सुझाया, "लंका में विख्यात वैद्य सुषेण रहते हैं |" आनन् फानन में मारुति घर समेत वैद्य सुषेण को लंका से उठाकर ले आये |
सुषेण ने श्री रघुनाथ जी के चरणों में सर नवाया, लक्ष्मण की हालत देखी और उस औषधि का नाम और पता बताया जो सुदूर पर्वत पर स्थित थी | श्री रघुनाथ जी के चरणों में सर नवाकर हनुमानजी वह औषधि लेने निकल पड़े |
उधर रावण के गुप्तचर भी सक्रिय थे | उनकी सूचना मिलते रावण को ज्ञात हुआ कि औषधि तो सुबह तक पहुंचनी चाहिए | अब उसने हनुमानजी की यात्रा में व्यवधान के लिए एक योजना बनाई | अब मारीच इस संसार में नहीं था | फिर भी मायावी राक्षसों की कमी नहीं थी | उसने कालनेमि को पकड़ा |
फिर वही दृश्य, जो रावण के साथ अलग अलग समय पर अलग अलग पात्र कर चुके थे, फिर एक बार दोहराया गया | कालनेमि ने रावण को मूर्खतापूर्ण कृत्य न करने की सलाह दी | जिसने उनका नगर जला दिया , जो खुद कालसर्प का भक्षक है, उसका मार्ग अवरुद्ध करना ? और रावण ने किससे शत्रुता मोल ली है ? पर उसके उन सुझावों का एक बार फिर वही हश्र हुआ | रावण का क्रोध सातवे आसमान पर जा पहुंचा | कालनेमि ने भी वही निर्णय लिया जो अतीत में इसी नाटक के अन्य पात्र ले चुके थे - इस मूर्ख के हाथों मरने से तो बेहतर है, उनके हाथों मृत्यु आये जो स्वयं जगदीश्वर के दूत हैं |
कालनेमि ने हनुमान की यात्रा के अंतिम चरण के पथ पर एक सुन्दर आश्रम बनाया जिसके चारों ओर सुन्दर उपवन और एक सरोवर था | उनका अनुमान सत्य निकला | यात्रा के अंतिम पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते हनुमान जी को प्यास लग आयी | आश्रम देखकर उन्होंने सोचा कि मुनि से पूछकर थोड़ा जल पी लूँ |
मुनि के आश्रम में चरण रखते ही उनके विस्मय की सीमा नहीं रही | उन्हें अपनी ही धुन में मग्न एक ऋषि के दर्शन हुए जो रामधुन गा रहे थे |
"स्वागत है राम सेवक | औषधि लेने जा रहे हो ?" छद्म ऋषि ने पूछा |
हनुमानजी को आश्चर्यचकित देखकर उसने बात आगे बढ़ाई ,"विस्मय का कोई कारण नहीं वत्स | मैं दिव्य दृष्टि से राम-रावण युद्ध देख रहा हूँ | "
"इस कष्ट से घबराओ मत | भला धर्म की लड़ाई में अधर्म भले संशय डाल दे, पर वह जीत कैसे सकता है ? "
हनुमान जी के मन में कई सवाल भी उठे | ऋषि के प्रति आदर का भाव भी उमड़ आया | फिर भी उन्हें अपने लक्ष्य का ध्यान था | उन्होंने सीधे पीने के लिए जल मांग लिया |
"कमंडल में जल पड़ा है वत्स |" छद्म ऋषि ने कहा |
"भला इतने से जल से इस विशाल शरीर का क्या होगा ?" हनुमान जी ने कहा ," क्या मैं सरोवर का जल पी सकता हूँ ? फिर उन्होंने अपना संदेह व्यक्त कर दिया ," आपको दूर- दूर तक देखने वाली यह ज्ञान दृष्टि कैसे प्राप्त हुई ?"
"तुम भी प्राप्त करना चाहते हो ?" ऋषि ने कहा, "ज्यादा मुश्किल नहीं है | तुम जैसे कुशाग्र बुद्धि को तो बिलकुल समय नहीं लगेगा | जाओ, सरोवर में स्नान कर आओ | अभी दीक्षा दे देता हूँ |"
हनुमान जी जब सरोवर की ओर चले तो उनके मन में थोड़ा असमंजस था | एक ओर उनका मन कह रहा था, समय नहीं है | तुरंत पानी पीकर निकल लो | दूसरी ओर उन्हें लग रहा था, अगर समय ज्यादा न लगे तो यह विद्या सीख ली जाए | युद्ध में शत्रुओं की गतिविधियों पर नज़र रखने में काफी काम आएगी |
उन्होंने सरोवर में कदम रखा ही था कि एक मगरमच्छी ने उनके कदम पकड़ लिए | हनुमानजी ने पलक झपकते उसका वध कर डाला | पर यह क्या ? वह तो शापजनित अप्सरा निकली जो अब शापमुक्त होकर दिव्य स्वरुप धारण करके आकाश को चली | जाते जाते उसने हनुमानजी को सावधान कर दिया ,"वो कोई ऋषि नहीं, कपटी राक्षस है |"
"स्नान कर आये वत्स ?"
"गुरूजी, पहले आप गुरु दक्षिणा लीजिये, फिर मुझे मन्त्र सिखाइये |" हनुमानजी बोले |
"गुरुदक्षिणा तो दीक्षा पूरी होने के पश्चात् दी जाती है वत्स |" ऋषि ने कहा |
"हमारे वानर कुल में पहले गुरु दक्षिणा दी जाती है, फिर शिक्षा ली जाती है | " हनुमानजी बोले |
"बाद में दे देना | जल्दी क्या है वत्स ?" कालनेमि बोले |
किन्तु हनुमानजी को तो जल्दी थी | एक एक क्षण कीमती था | उन्होंने नाटक के पटाक्षेप का निश्चय किया और कालनेमि के गले में पूंछ का फंदा डालकर बोले ,"आप गुरुदक्षिणा लेंगे या नहीं ?"
पोल खुलते देख कालनेमि के मुंह से सिवाय 'राम-राम' के कुछ नहीं निकला | हनुमान जी ने उसका वध तो किया पर मरते समय उसके मुंह से राम नाम सुनकर वे हर्षित हो गए |
जब हनुमानजी पर्वत के पास पहुँचे तो वे औषधि की पहचान न कर सके | वैसे भी कालनेमि ने उनका काफी समय व्यर्थ कर दिया था | समय ज्यादा कीमती था | हनुमान जी ने वह पर्वत ही उखाड़ लिया और वे उसे आकाश मार्ग से ले चले |
श्री रामचन्द्रजी के नाम से अयोध्या का राज-काज चलाने वाले भरत हमेशा सजग रहकर स्वयं नगर की रक्षा करते थे | सहसा रात्रि के समय भरत ने देखा, कोई विशालकाय प्राणी एक पर्वत को लेकर अयोध्या के ऊपर से उड़ा जा रहा था | उसके राक्षस होने की सम्भावना उन्हें लगी | तत्क्षण उन्होंने एक बाण उस प्राणी की ओर मारा | हालाँकि वह बाण बिना फल का था, किन्तु उस बाण में इतनी शक्ति थी कि वह प्राणी मूर्छित होकर नीचे गिर पड़ा | लेकिन भरत जी हतप्रभ रह गए | उन्होंने स्पष्ट रूप से उसके मुख से निकले शब्द -'राम राम रघुपति' सुने थे |
भरत जी स्तब्ध रह गए | वह कोई राक्षस भी नहीं था | वह तो एक विशालकाय वानर था | अब वह मूर्छित था | भरत जी ने उसे ह्रदय से लगाया और अनेकों उपाय से उनकी मूर्छा दूर करने की कोशिश की | परन्तु हनुमानजी की मूर्छा दूर नहीं हुई | विधाता के इस विधान से भरत जी बहुत व्याकुल हो गए | एक बार फिर, भगवान ने उनके द्वारा अनायास ही राम के विरुद्ध एक और कार्य करवा दिया | आखिर किस वजह से ये वानर पर्वत लेकर जा रहा था ? उसके मुख से जिस प्रकार राम नाम निकले थे, उससे यह स्पष्ट था कि वह राम जी को जानता था और शायद उनका ही कोई कार्य कर रहा था | वह वानर अब गहरी मूर्छा में था | आँखों में आंसू भरकर भरत जी बोले, "यदि मन , वचन और शरीर से मेरा श्री रामचंद्र जी में निश्छल प्रेम हो तो ये वानर स्वस्थ होकर होश में आ जाए |"
इधर भरतजी विधाता को कोस रहे थे तो दूसरी ओर मनुष्य की लीला करते जगदीश्वर स्वयं विधि के विधान पर करुण विलाप कर रहे थे ,"अर्धरात्रि बीत गयी | कपि का कहीं कोई पता नहीं है | "
मूर्छित लक्ष्मण को हृदय से लगाकर श्री राम कह रहे थे ," भाई, तुम कभी भी मुझे दुखी नहीं देख सकते थे | मेरे लिए तुमने माता, पिता को छोड़ दिया और वन में हिम, गर्मी, तेज हवाएं सहते रहे | वह प्रेम अब कहाँ चले गया मेरे भाई ? मेरे व्याकुल वचन सुनकर अब उठते क्यों नहीं ?
हजारों योजन दूर अयोध्या में भरत जी भी हनुमान के उठ जाने के लिए प्रार्थना कर रहे थे ,"यदि राम जी के प्रति मेरा प्रेम सच्चा है, तो हे विधाता, यह कपि उठ जाए |"
श्री राम जी के शब्दों की ही वह महिमा थी कि हनुमान की मूर्छा टूट गयी | जब उन्हें ज्ञात हुआ कि वे कहाँ हैं और किस कार्य के लिए निकले हैं तो वे एकदम जाने के लिए उद्यित हो उठे | किन्तु सामने राम जी के ही अपने छोटे भाई बैठे थे | उनके पास से ऐसी सहजता से चले जाना भी भरत जी का अपमान होता | संक्षेप में, काम से काम शब्दों में हनुमान जी ने सारा विवरण कह सुनाया | भरत जी बड़े ही दुखी हुए ," सब कुछ मेरे कारण ही हो रहा है | मैं इस संसांर में ही क्यों आया ? मेरे कारण प्रभु को इतने कष्ट हुए |"
हनुमान जी को जाने के लिए आतुर देखकर भरत जी को आत्मग्लानि सी हो रही थी कि उनके कारण इतना समय निकल गया | उन्होंने हनुमानजी को सुझाव दिया ,"तात, समय बहुमूल्य है | प्रभात के पहले न पहुँच पाने पर कार्य बिगड़ जाएगा | तुम मेरे इस बाण पर बैठ जाओ | मैं पल भर में तुम्हें श्री रामचन्द्रजी के पास पहुंचा देता हूँ |
हनुमान जी के स्वाभिमान को ठेस पहुंची | फिर उन्हें लगा कि मेरे और इस पर्वत के भार से भला ये बाण क्या चलेगा ? तब उन्हें प्रभु के प्रताप का स्मरण हो आया | फिर भी उन्हें अपने आप पर ही ज्यादा विश्वास था | वे विनम्रतापूर्वक भरत के चरणों को छूकर बोले,"प्रभु | आपका प्रताप ही मेरे लिए शक्ति है | मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए | आज्ञा दीजिये |"
भरत जी के शील और स्वाभाव की प्रशंसा करते हुए हनुमान जी तुरंत वहां से निकल गए |
उधर श्री रामचंद्र जी का करुण विलाप बढ़ते ही जा रहा था ," भाई | अगर मुझे ज्ञात होता कि तुम्हें खोना पड़ेगा तो शायद मैं वनवास से भी मना कर देता | पुत्र, स्त्री, धन , घर - ये सब इस संसार में खो जाने के बाद दूसरे मिल जाते हैं, किन्तु सगा भाई कभी नहीं मिलता | तुम्हारे बिना मेरा जीवन वैसे ही होगा जैसे पंख बिन पक्षी का, मणि बिन सर्प का और सूंड बिन गजराज का होता है | "
"अब मैं अवध कौन सा मुंह लेकर जाऊंगा ? लोग तो कहेंगे - देखो, कैसा व्यक्ति है ? स्त्री के लिए उसने भाई खो दिया | इस बदनामी से तो अच्छा था मैं वो बदनामी झेलता, जब लोग कहते, इस कायर को देखो | अपनी स्त्री की रक्षा नहीं कर सका | कम से कम तुम तो मेरे साथ रहते |मैं तो किसी तरह अपयश और तुम्हारा विछोह सह लूंगा पर सुमित्रा माता को कैसे समझाऊंगा ? भाई , कुछ तो बोलो | क्या जवाब दूंगा उनको ?"
प्रभु के इस प्रलाप से सारी वानर सेना हतोत्साहित हो चुकी थी | सभी शोक सागर में डूबे हुए थे |
तभी हनुमान जी का वहां आगमन हुआ | मानो करुण रस के मध्य अचानक वीर रस का अभ्युदय हो गया हो |
वानरों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा | हनुमान जी को श्री रघुनाथ जी ने गले लगा लिया | वैद्य सुषेण तत्काल औषधि बनाने के कार्य में जुट गए | कुछ ही क्षणों की बात थी , जब लक्ष्मण जी उठ बैठे , मानो गहरी नींद से जागे हों |
कार्य संपन्न होते ही हनुमान जी ने वैद्य सुषेण को उनके घर समेत गंतव्य पर पहुंचा दिया |
*********
और देखें -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें