मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मारुति का पर्वत उत्तोलन - वृत्तांत ४ - कम्ब रामायण

 खर का एकमात्र पुत्र था - मकरन्न | पिता की मृत्यु के प्रतिशोध की अग्नि में झुलसता हुआ वह रणभूमि में राम जी के वध के लिए निकला | काफी वीरता दिखाई और एक समय उसने सम्पूर्ण वानर सेना की व्यूह रचना को छिन्न भिन्न  कर दिया था | फिर भी परिणीति वही हुई जो अपेक्षित थी | अंततः वह राम जी के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ | 

जब रावण को यह समाचार प्राप्त हुआ तो उसके क्रोध और शोक की कोई सीमा नहीं थी | उसने सीधे इंद्रजीत को बुलाया | इस युद्ध में एक वही था, जो हमेशा उसके साथ खड़े रहा | यही नहीं, वह एक बार रावण को करीब करीब विजय भी दिलवा चुका था | 

इंद्रजीत तत्काल वहां आ पहुंचा | उसने अपने पिता को ढाढस बँधाया, "पिताजी , आप चिंता मत कीजिये | आज ही के दिन आप देखेंगे , सीता देखेगी और अनगिनत देवता देखेंगे - वानरों के शवों का एक विशाल अम्बार, जिनके ऊपर दोनों धनुर्धर भाइयो का मृत शरीर पड़ा होगा | " यह कहकर उसने तीन बार अपने पिता की प्रदक्षिणा की, पाँव छुए और रणभूमि के लिए निकल पड़ा | 

इंद्रजीत जब रणभूमि में पहुँचा तो राक्षसों के शवों को देखकर अचंभित और क्रोधित हो गया | राक्षसों के मृत शरीरों का अम्बार मानो आकाश छू रहा था | एक ओर टूटे हुए रथों और मरे हाथियों का ढेर लगा था  | "वे दो मानव ", उसने गुस्से से दांत पीसे ,"उन्होंने धनुष बाण का उपयोग किया ? या फिर किसी माया या इंद्रजाल का प्रयोग किया ? इतने लोगों का वध वे कैसे कर सकते हैं ? आज मैं उनके इस कृत्य पर पूर्ण विराम लगाता हूँ |"

दूसरी ओर प्रतीकार की अग्नि  किसी और के मन में भी धधक रही थी | इंद्रजीत को रणभूमि में आते देखकर लक्ष्मण ने तत्काल राम से अनुमति मांगी, " भैया | आज्ञा दीजिये | आज हिसाब बराबर करने का सुनहरा अवसर है | वर्ना मैं जीवनपर्यन्त अपयश और उपहास का पात्र बने रहूँगा | लोग कहेंगे, देखो इस योद्धा को | नागपाश से अपनी रक्षा नहीं कर पाया तो भला दूसरों को क्या सुरक्षा प्रदान करेगा ? उस दिन नागपाश से वीर गति को प्राप्त हो गया होता तो कहीं ज्यादा अच्छा होता | अब जीवित हूँ तो अपयश के उस दाग को धोने के लिए मुझे इस राक्षस का वध करना पड़ेगा | वार्ना मौत आने पर यमदूत नहीं, कुत्ते मेरे शरीर को ले जायेंगे |"

राम की आज्ञा मिलते ही लक्षमण ने शंखनाद किया और सीधे इंद्रजीत पर टूट पड़ा | देखते ही देखते उसने इंद्रजीत की सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया किन्तु इंद्रजीत अविचलित था | उसने पुकारकर कहा ,"तुम्हारा भाई कहाँ है ? क्या तुम दोनों एक साथ नहीं, एक-एक करके मरना पसंद करोगे ? तुम्हारी इच्छा |"

"किस तरह का युद्ध पसंद करोगे इंद्रजीत ?" लक्ष्मण ने प्रत्युत्तर में पुकार कर कहा, " तीर, कमान , तलवार या और कोई हथियार ? कहो तो मल्ल युद्ध हो जाये ? आज तो तुम बच कर नहीं जा पाओगे |"

"अरे हटो | मैं पहले तुम्हें मृत्युलोक भेजूँगा और फिर तुम्हारे भाई को | मुझे चाचा कुम्भकर्ण समझने की भूल मत करना | मैं इंद्रजीत हूँ | अब तक मेरे जितने भाई ,  रिश्तेदार मारे गए हैं, तुम दोनों भाइयों के रक्त से उनका तर्पण करूँगा |"

"तुम्हारे पूरे कुनबे के लिए विभीषण तर्पण करेगा |"  लक्ष्मण ने क्रोध से कहा | 

पल भर में वह वाक्युद्ध धनुर्युद्ध में परिवर्तित हो गया | 

इंद्रजीत ने राम, लक्ष्मण और वानरसेना के ऊपर बाणों की झड़ी लगा दी | किन्तु जैसे असंख्य झूठ भी एक सत्य के समक्ष ठहर नहीं सकते , लक्ष्मण ने उन बाण  वर्षा  को काट डाला | राम लक्ष्मण के पीछे जरूर खड़े रहे, किन्तु उन्होंने लक्ष्मण और मेघनाद के युद्ध में कोई हस्तक्षेप नहीं किया |  

युद्ध चलता ही रहा | दोनों योद्धा एक दूसरे से जूझते रहे | क्रोधवश लक्ष्मण ने राम से निवेदन किया," भैया , अब समय आ गया है कि इस राक्षस पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया जाये | "

राम एक क्षण हतप्रभ रह गए , फिर तत्काल उनके मुंह से निकला,"ये क्या कह रहे हो लक्ष्मण ? ब्रह्मा जी का अस्त्र क्या यों  ही चला दिया जाता है ? उसके कुछ नियम होते हैं | कितना विनाश होगा, तुम्हें कुछ अंदाज़ भी है ? वे सब निरपराध सैनिक , जो अपने स्वामी की युद्ध में रक्षा कर रहे हैं,  एक क्षण में भस्म हो जायेंगे |हो सकता है, हमारी वानर सेना के भी कुछ वानर चपेट में आ जाएँ | भूल जाओ ब्रह्मास्त्र को | ऐसे ही युद्ध करते रहो |"

तब तक मेघनाद अदृश्य हो चुका था | उसने सारी बातें सुन ली और सीधे रावण के पास चले गया |  उसके जाने पर देवता बड़े खुश हो गए | वानरों ने भी राहत की साँस ली | उन्होंने क्रोधवश मेघनाद को मनचाहे अपशब्द सुनाये और अस्त्र शस्त्र इधर उधर फेंककर बेखबर से हो गए |

"पिताजी, क्या मैं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करूँ ?" मेघनाद ने रावण से पूछा | 

रावण ने प्रतिवाद तो नहीं किया, किन्तु उपदेश जरूर सुना दिए," पुत्र, तुमने विचार तो किया है कि ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का परिणाम क्या होगा ? ये कोई ऐसा अस्त्र तो है नहीं, जिसे हलके में लिया जाए |"

"पिताजी, विद्वान कहते हैं कि मरने से बेहतर है कि मार दिया जाए | यदि उन्हें मेरे प्रयोजन का पता चला तो वे मुझे पहले मार देंगे , चाहे उन्हें स्वयं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग ही क्यों न करना पड़े | मैं अदृश्य रहकर बाण का संधान करूँगा ताकि लक्ष्य चुनने में व्यवधान न हो | उसके प्रयोग के पूर्व मैं पूजा कर लेना चाहता हूँ | "

"पिताजी, जब तक मैं पूजा करूँ, थोड़ी सी सेना युद्ध क्षेत्र में भेज दीजिये | ताकि वानर सेना को थोड़ी सी भी भनक न हो |"

रावण ने बड़े पेट वाले महोदर को थोड़ी सी सेना के साथ युद्ध क्षेत्र में भेज दिया | वानर सेना बिना इंद्रजीत के सेना आते देख अचरज में पड़  गयी | 

"कहाँ है इंद्रजीत ? जरूर वह अदृश्य होकर युद्ध करेगा | सम्हल कर रहना | " सब एक दूसरे से कहते रहे | 

इंद्रजीत था कहाँ ?

वह यज्ञ की अग्नि में सामने बैठा था | राई और धतूरे के फूल चढाने के बाद काले बकरे की बलि दी गयी | उसके सींग और सारे दांत सुरक्षित रखकर उसका सर धड़ से अगल कर दिया गया और घी से साथ उसकी  यज्ञ की अग्नि में आहुति दे दी गयी | मंद सुगन्धित वायु ने यज्ञ की सुगंध सब ओर फैला दी | प्रसन्न चित्त इंद्रजीत ने इसे शुभ शकुन ही माना | अब ब्रह्मास्त्र उठाकर वह अदृश्य होकर रणभूमि में चले गया | 

और आकाश में अदृश्य रहकर उसने वह ब्रह्मास्त्र चला ही दिया | 

सबसे पहले लक्ष्मण आकाश से बरसते बाण से धराशायी हुए | देखकर हनुमानजी को बड़ा क्रोध आया ,"इंद्र की ये मजाल ? ऐरावत समेत मैं उसे मटियामेट कर दूंगा | " अगले ही क्षण असंख्य शरों से बिंधकर वे भी भूमि पर गिर पड़े | सुग्रीव कुछ समझ पाते, इससे पहले बाणों की वर्षा से वे भी अचेत हो गए | अंगद, जांबवान, नील - सबका वही हाल हुआ | 

"तो छोटे भाई तो वानर सेना के साथ मटियामेट हो गए | " इंद्रजीत ने अपना शंख बजाया | 

अब वह यह समाचार देने रावण के पास चले गया | 

"क्या राम भी मारा गया ?" रावण ने सीधे प्रश्न किया | 

"नहीं पिताजी | वह वहां नहीं था | वर्ना उसका भी वही हश्र होता जो उसके भाई और मित्रों का हुआ | " इस उद्घोषणा के बाद इंद्रजीत प्रसन्नचित्त होकर अपने महल में चले गया | 

श्री रामचन्द्र जी थे कहाँ ?

उधर रणभूमि में त्राहि-त्राहि मची थी | राम , जिन्होंने अभी अस्त्रपूजा संपन्न ही की थी , अपने साथियों का साथ देने रणभूमि में पहुंचे | उन्होंने जो दृश्य देखा, वे किंकर्तव्यमूढ़ हो गए | जहाँ तक दृष्टि जाती थी, निर्जीव शरीर पड़े हुए थे | सबसे पहले उन्होंने वानरराज सुग्रीव को पहचाना | पास ही हनुमान जी का पार्थिव शरीर देखकर वे भावुक हो गए , "पवनपुत्र, तुम वही हो न - मेरे लिए जिसने सागर लांघा , लंकापुरी तहस नहस की , सीता को ढांढस बंधाया | और अब तुम इस अवस्था में पड़े हो | देवताओं का वर, ऋषियों की मंगलकामनाएं, सीता का आशीर्वाद - कुछ भी तुम्हारे काम नहीं आया | क्या मेरे पापों का बोझ इतना भारी है ? मेरे कारण पिताजी ने प्राण त्याग दिए | मेरी सहायता करते करते जटायु मृत्यु को प्राप्त हुए और अब मेरे ये मित्र  - इस अवस्था में ..  मेरा जन्म ही लोगों को दुःख देने के लिए हुआ है | "

तभी  सबसे बड़े सदमे से उनका सामना हुआ | शवों के ढेर के ऊपर लक्ष्मण जी का  पार्थिव शरीर पड़ा हुआ था | 

रघुनाथ जी के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला और अगले ही क्षण वे कटे हुए वृक्ष की भांति मूर्छित होकर गिर पड़े| |

न तो कोई उन्हें सम्हालने वाला ही  बचा था, न कोई सांत्वना देने वाला | रणभूमि में  लाल आँखों वाली कुछ राक्षस नारियां ही थीं, जो अपने  पतिदेव को खोज रही थी | सियार हर्ष से ऊँची आवाज़ में बोलियां बोल रहे थे | देवता ही नहीं, पाप और मक्कारी भी मूर्त रूप धारण कर शोक में आंसू बहा रहे थे  | 

कुछ समय पश्चात् श्री रघुनाथ जी की मूर्छा टूटी | लक्ष्मण को गले लगाकर वे आर्तनाद करने लगे | 

उन्हें अपने दुखों का अंत होता नहीं दिख रहा था | विलाप करते करते वे फिर मूर्छित हो गए | 

इसी बीच विभीषण , जो सेना के लिए भोजन का प्रबंध करने निकले थे , वापिस आ गए | किन्तु अब भोजन की आवश्यकता किसे थी ? सारी सेना तो मृतप्राय थी | विभीषण ने सबसे पहले श्री रघुनाथ जी को ढूँढना प्रारम्भ किया | जल्दी ही उन्होंने लक्ष्मण के बगल में उनका शरीर देखा | ध्यान से देखने पर उन्होंने पाया कि उनके शरीर पर एक भी बाण नहीं लगा है | विभीषण ने राहत की सांस ली | 

"राम जी सदमे से मूर्छित जरूर हैं, लेकिन जीवित हैं | वे होश में आ जायेंगे |" आशावादी विभीषण ने सोचा | उनकी आशावादी सोच तो वहां तक थी कि वे सोचने लगे, "जब ये सारी  वानरसेना नागपाश के फंदे से निकल सकती है तो इस अस्त्र से मुक्ति क्यों नहीं पा सकती ? जरूर सब लोग स्वस्थ हो जायेंगे | लेकिन पहले देखता हूँ कि आखिर और कौन कौन से लोग जीवित हैं |"

वे मशाल लेकर खोजते रहे | जल्दी ही उन्होंने बाणों से बिंधे हुए हनुमानजी को खोज निकाला | उनकी नाड़ी वगैरह टटोलने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हनुमान जी जीवित हैं | वे तत्काल शीघ्रता किन्तु सावधानी से हनुमानजी के शरीर से एक एक करके बाण निकालने लगे | 

फिर वे थोड़ा सा जल ले आये और उसे हनुमानजी के चेहरे पर छिड़का | 

"राम |" कराहते हुए हनुमान जी के मुख से निकला | विभीषण की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | शनैः - शनैः हनुमानजी कुछ बोलने की स्थिति में आ गए | 

"हमारे स्वामी कुशल से तो हैं ?" उन्होंने पूछा | 

"अभी वे लक्ष्मण जी के पास गहरी मूर्छा में पड़े हैं | जब उन्हें होश आएगा, तभी हम लोग जान सकेंगे कि हमारे लिए अगला कदम क्या होगा ?" विभीषण ने कहा | 

हनुमानजी समय की कीमत जानते थे | वे यह भी जानते थे कि  इस संकट की घडी में मार्ग कौन प्रशस्त कर सकता है | 

"जांबवान जी कहाँ हैं ? " उन्होंने पूछा | 

"पता नहीं | " विभीषण ने कहा ," मैं अभी आया हूँ |"

हनुमानजी और विभीषण मिलकर जांबवान को खोजने लगे | 

"मृत्यु उनके पास भी नहीं फटक सकती | उन्हें जल्दी ढूंढ निकालना आवश्यक है | वे ही उन दोनों भाइयो को मूर्छा से बाहर निकालने का उपाय सुझा सकते हैं | "

बाणों से बिंधे हुए जांबवान जी आखिर मिल गए | 

"निस्संदेह इंद्रजीत ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है |' जांबवान ने कहा,"किन्तु कोई भी अस्त्र श्री रघुनाथजी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता |"

आप ठीक कहते हैं |" विभीषण ने कहा , "वे इस समय लक्ष्मण जी के पास मूर्छित अवस्था में पड़े हैं |"

"कोई आश्चर्य की बात नहीं है | " जांबवान ने कहा,"उनके प्राण अलग अलग थोड़े ही हैं ?

फिर जांबवान हनुमानजी की ओर मुड़े,"हनुमान , तुमसे ही आशा है | यह समय व्यर्थ गंवाने का नहीं है | तुम तत्काल औषधि लेकर आओ |"

हनुआनजी कुछ समझे नहीं।  "कौन सी औषधि ? कहाँ से ?"

"तुम उत्तर दिशा की ओर नौ हज़ार योजन जाओ | तुम हिमालय पर्वत पर पहुँच जाओगे, जिसकी चौड़ाई दो हज़ार योजन है | वहां से तुम्हें फिर नौ हज़ार योजन आगे  जाना है | वहां तुम्हें स्वर्ण पर्वत मिलेगा | वहां से भी नौ हजार योजन आगे बढ़ने पर लाल रंग का निदत पर्वत मिलेगा | बिना विश्राम किये बढ़ते जाना | नौ हजार योजन और आगे बढ़ने पर मेरु पर्वत मिलेगा | अविरत चलते जाना मारुति ! नौ हजार योजन के पश्चात् नील पर्वत मिलेगा | अगले चार हजार योजन के पश्चात् मेघ की तरह श्याम पर्वत मिलेगा | यही तुम्हारी मंज़िल होगी | वह काला पर्वत औषधियों का भण्डार है | "

"तुम्हें कुल चार औषधि लानी है | पहली औषधि मृत शरीर में जान फूँक देगी | दूसरी औषधि शरीर की टूटी अस्थियां तुरंत जोड़ देगी | तीसरी औषधि शरीर में चुभे हुए सारे अस्त्र-शस्त्र पल भर में निकाल देगी और चौथी औषधि सारे घावों को भरकर काया पूर्वावस्था में ले आएगी |"

उन्होंने हनुमान को उन चार औषधियों की पहचान बताई | 

"हनुमान, उन औषधियों की जड़ें समुद्र तक हैं | उनकी उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय समय हुई थी | "

विभीषण और हनुमान को आश्चर्य में पड़े देखकर जांबवान ने आगे कहा, "तुम्हें लग रहा होगा, ये सब मैं कैसे जानता हूँ ? जब आदियुगीन देवता पृथ्वी का  भ्रमण करते  हुए  नापजोख कर रहे थे तो नगाड़ा बजाते हुए मैं उनके आगे आगे चल रहा था | तब मैंने इन औषधियों को देखा और जिज्ञासावश उनसे पूछ लिया | उन्होंने जो उत्तर दिया , वह युगों युगों से ऋषिगण जानते हैं | परन्तु सावधान रहना | अनगिनत रक्षक तीक्ष्ण हथियार लिए उसकी रक्षा करते हैं | चिंता मत करो | जैसे ही उन्हें ज्ञात होगा, तुम किस प्रयोजन से आये हो, वे तुम्हारे लिए रास्ता छोड़ देंगे |"

हनुमान को अपनी शक्तियों का पता तब चलता था, जब उन्हें उसका आभास कराया जाता था | अब वह प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी | जांबवान ने उन पर पूरा विश्वास जताया था कि वे ही यह दुर्गम कार्य कर सकते हैं | 

"यदि मृतकों में प्राण फूंकने के लिए इतना सा ही कार्य है तो मैं अवश्य उसे पूर्ण करूँगा | अब आज्ञा दीजिये |" हनुमानजी ने जांबवान को प्रणाम किया और लम्बी यात्रा पर निकल गए | 

देखते ही देखते हनुमानजी का शरीर बढ़ने लगा | उनका सर मानो आकाश छूने लगा | कंधे मानो बादल की तरह फ़ैल गए | उनकी पूँछ गोलाकार हुई , भुजाये सामने फैली | दीर्घ सांस लेकर हनुमान ने जैसे ही छलांग भरी , लंका एक नौका की भांति डगमगाने लगी | 

सागर में उथल पुथल मचाते हुए, बादलों को चीरते हुए, देखते ही देखते हनुमान जी हिमालय के ऊपर पहुँच गए | वहां रहने वाले ऋषियों  ने आशीर्वाद दिया ,"तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो हनुमान |"

अगले ही क्षण वे कैलाश के ऊपर से गुजर रहे थे | शिव जी को देखते ही उन्होंने प्रणाम किया और शिवजी ने मुस्कुराते हुए उनका अभिवादन स्वीकार किया | फिर पार्वती को पुकारकर हनुमान जी की ओर संकेत किया, "देखो, वे रामदूत पवनपुत्र हैं |"

पलक झपकते ही हनुमान  निदत पर्वत के ऊपर पहुँच गए | विष्णु भगवान के चक्र की गति से चलते हुए वे मेरु पर्वत तक जा पहुंचे जो पृथ्वी और स्वर्ग में दूरी मापने के लिए स्वीकार्य मापक माना  जाता था |  

अब वे उस द्वीप के ऊपर से गुजरे जिसमें जम्बू वृक्ष लगा था  वहीं पर्वत के शिखर पर उन्हें ब्रह्माजी के दर्शन हुए | उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम किया | 

मेरु पर्वत को पार करते ही हनुमानजी हताश हो गए | सामने सूरज अपनी किरणे बिखेर रहा था | 

"अब कुछ नहीं हो सकता |" हनुमानजी दुःख के सागर में डूब गए ,"औषधि सुबह होने के पूर्व पहुंचनी थी और सुबह हो चुकी है |"

अचानक उन्हें याद आया, " अरे, मेरु पर्वत के बाद तो समय परिवर्तित हो जाता है | यानी, अभी लंका में रात ही होगी | " उन्होंने राहत की साँस ली और आगे बढ़ गए | 

अब वे श्याम पर्वत के पास पहुँच गए | वह पर्वत इतना काला था कि रात्रि भी शर्मा  जाए | 

हनुमान जी पर्वत पर कूद पड़े | देखते ही देखते वे तीक्ष्ण हथियारों से लैस रक्षकों से घिर गए | 

"कौन हो तुम?" एक रक्षक दहाड़ा," क्या चाहिए तुम्हें ?'

हनुमानजी कुछ कहते, इसके पूर्व ही विष्णु का चक्र प्रकट हुआ और हनुमान जी के चारों ओर घूमने लगा | अब हनुमानजी से कुछ पूछना रक्षकों को बेमानी लगा | 

"ठीक है , जो तुम्हें चाहिए, ले जाओ |" रक्षकों ने कहा ,"लेकिन याद रहे | इस स्थान को कोई क्षति नहीं पहुँचनी  चाहिए |" 

किन्तु हनुमान जी कहाँ मानने वाले थे ? रक्षकों के अदृश्य होने की देर थी कि हनुमान जी ने पूरा पर्वत उखाड़ लिया | 

"औषधियों को भला कहाँ ढूंढते फिरूं ?" हनुमानजी ने मन ही मन सोचा ,"समय महत्वपूर्ण है |" और देखते ही देखते पर्वत के साथ वे लंका की ओर उड़ चले | 

इधर हनुमान जी औषधि लेने निकले, उधर लंका में विभीषण और लड़खड़ाते हुए जांबवान लक्ष्मण के पास मूर्छित पड़े हुए राम जी के पास पहुंचे | उनकी सांस चल रही थी | दोनों ने राम जी के चरणों की मालिश की | धीरे धीरे राम जी ने आँखें खोली, विभीषण और जांबवान को पहचाना | उन्होंने अपने आसपास पड़े मृत शरीरों को देखा, लक्ष्मण की ओर देखा और शोक सागर में डूब गए | 

"सब कुछ नष्ट हो गया मित्रों | देखो तो , इतने सारे मृतक शरीर पड़े हैं  | क्या दोष था इनका ? यही न, कि इन लोगों ने मेरे पराक्रम पर विश्वास करके मेरे कार्य को संपन्न करने के लिए मेरा साथ देना स्वीकार किया ?"

"मेरा सम्पूर्ण जीवन  ही गलतियों से भरा है | सब कुछ जानते हुए, कि यह छल कपट है, सीता की प्रीत के कारण उसकी बात मानते हुए मैंने छद्म मृग का पीछा किया | भाई लक्ष्मण की बात नहीं मानी और आज देखो - उस मूर्खतापूर्ण कार्य के कारण कितने लोग काल के गाल में चले गए |"

"याद आता है तुम्हें उस दिन का भीषण युद्ध जो मेरे और रावण के बीच हुआ था ? उस दिन विजय श्री मेरे सामने खड़ी थी | चाहता तो मैं उसका वध कर सकता था | क्या सोच कर मैंने उसे छोड़ दिया ? और अब परिणाम देखो | मृतकों को गिनना मुश्किल है |"

उस राक्षस के ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के पूर्व लक्ष्मण ने स्वयं मुझसे ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की अनुमति मांगी थी और मैंने नीति का अनुसरण करते हुए मना कर दिया | और उस राक्षस ने उचित-अनुचित का विचार किये बिना ही ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया | अब गलती किसकी मानोगे ?" 

"उसके बाद अपने भाई के साथ खड़े रहने के बजाये मैं शस्त्र पूजा करने चले गया | जब लौट के आया तो सब वानरों के साथ मेरा भाई भी चिरनिद्रा में सोया हुआ था |"

"भाई तो चले गया | इंद्रजीत का वध करने का उसका प्रण अधूरा रह गया | अब मैं जीकर क्या हासिल करूँगा ? राक्षसों का समूल नाश करके मुझे क्या मिलेगा ? कौन सा यश मिलेगा ? भरत मुझे राज सौंप देगा तो लेकर मैं क्या करूँगा ? क्या सत्य की राह पर चलने वाला आदर्श बनकर ही रह जाऊंगा ? जिसने नीति के लिए अपना भाई खो दिया ?"

"लोग तो यही कहेंगे न, अपने पिता तुल्य जटायु को खोया, मित्रों को खोया और अपने भाई को भी खो दिया , इस तृण के बने इंसान ने - किसलिए ? अपनी पत्नी के लिए |"

"ऐसे मिथ्या जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है | " राम जी विलाप करने लगे | 

जांबवान से रहा नहीं गया | वे उसके चरणों में गिरकर बोले, "प्रभो, कुछ करने के पहले मेरी एक बात सुन लीजिये | आप कौन हैं, क्या हैं - ये मेरे कहने की न तो आवश्यकता है और न ही इसकी अनुमति है | इतना ही कहूंगा भगवन ! थोड़ा सोचिये | जिस ब्रह्मास्त्र से हम सब की ये दशा हुई, जिससे वानर, राक्षस - कोई नहीं बच सकता, उससे आपको तनिक भी क्षति नहीं हुई | लक्ष्मण जी और ये सब वानर मृतप्राय अवश्य हैं, इसमें संदेह नहीं, किन्तु मृत नहीं हैं | इनके प्राण वापस आ जायेंगे | हनुमान जी औषधि लेकर आने ही वाले हैं | उनमें से एक औषधि मृत-संजीवनी है जो इन सब के प्राणों की रक्षा करेगी | दूसरी इनकी अस्थियों को जोड़ देगी | तीसरी औषधि , हे प्रभु, इनके शरीर से सारे बाण निकाल देगी | चौथी औषधि इनके सारे घाव भर देगी और शरीर पहले की तरह हो जायेगा | "

ये बातें अभी हो ही रही थी कि समुद्र के उत्तरी तट पर ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगी , जैसे मानो भयंकर तूफान आ गया  हो | आसमान में सितारे भटक गए | जंगल में मादा हिरणों ने मानो नर हिरण की छवि चन्द्रमा में देख ली हो और वे भयभीत होकर इधर उधर भागने लगी | 

अगले ही क्षण पर्वत के साथ हनुमानजी सामने खड़े थे | 

पर यह क्या ? वह दैवीय पर्वत ने मानो लंका की अपवित्र भूमि को स्पर्श करने से ही मना कर दिया | वह अधर में ही लटके रहा | 

पवनदेव ने ही वह छोटा सा संकट दूर  किया | 

उन औषधियों को, जिन्हें हनुमान जी पहचान न सके, खोजने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी | वायु के संचरित होने से ज्यों ज्यों उन औषधियों की सुगंध सब योद्धाओं के नथुनों में घुसी , वे एक एक करके उठने लगे , मानो गहरी नींद से जाग रहे हों | लक्ष्मण सुग्रीव और सारे वानरवीर - सब स्वस्थ हो गए | 

किन्तु वहां वानर सेना ही मृत संजीवनी से लाभान्वित हुई | राक्षस सेना के मृत शरीर  तो रावण की आज्ञा से समुद्र में बहा दिए जाते थे | 

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और देखें  -

मारुति का पर्वत उत्तोलन

वाल्मीकि रामायण 

राम चरित मानस (तुलसीदास)

कृत्तिवास रामायण 




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