एक ही दिन में देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा, अतिकाय, महापार्श्व , महोदर आदि वीरों के संहार का समाचार सुनकर रावण शोक-सागर में डूब गया | दूतों और गुप्तचरों के कहे वचनों पर उसे यकायक विश्वास ही नहीं हुआ | एक-एक वीरों की शूरता की गाथा याद करके उसका चित्त विचलित हो रहा था | इंद्रजीत से यह देखा नहीं गया |
"पिताजी, मुझे केवल आपके चरणों की धूल चाहिए |" इंद्रजीत ने कहा ,"मैं आज ही राम और लक्ष्मण का संहार कर दूंगा | आपने मेरे रहते उन दिग्गज वीरों को रणभूमि में भेजकर गलती की | उनके प्राण बच सकते थे | खैर, आज मैं वानर सेना का संहार करूँगा | सुंग्रीव, अंगद, हनुमान, नल, नील - कोई नहीं बचेगा | जांबवान को तो मैं समुद्र के पानी में डुबाकर मारूंगा | "
इंद्रजीत के वचनों से रावण को थोड़ी सांत्वना मिली | इंद्रजीत अभी भी बोले जा रहा था,"पिताजी, आपके प्रताप से तो देवता भी कांपते हैं | ये नर और वानर जैसे तुच्छ प्राणियों से आप घबरा गए ? मैं आज ही राम और लक्ष्मण को बांधकर लाता हूँ | "
इंद्रजीत के जोशीले शब्दों से रावण का आत्मबल शनैः -शनैः पुनः हरा भरा हो गया |
कुछ ही समय पश्चात् इधर रावण अपने हाथों से मेघनाद का आभरण कर रहा था, उधर मेघनाद ने सारथि को आवाज़ दी और रथ को जल्दी सुसज्जित करने का आदेश दिया |
सारथि पर्वतीय घोड़ों से जुते रथ को लेकर आ गया | उसके साथ तेईस अक्षौहिणी सेना चली | सेना के पदचाप से ही पृथ्वी डोलने लगी | अचानक मेघनाद को याद आया, "माँ का आशीर्वाद तो लिया ही नहीं | यदि माँ से बिना पूछे रणभूमि में गया तो माँ अन्न जल त्याग देगी | "
मेघनाद को यह भी भली भांति ज्ञात था कि मां उससे क्या कहने वाली है ? हुआ भी कुछ वैसा ही |
मंदोदरी दो लाख विधवा नारियों से घिरी हुई थी | ये वो नारियां थी, जिनके पतिदेव युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे | मंदोदरी भगवान शिव जी से अपने पति और पुत्र की कुशलता के लिए पूजा कर रही थी | रह-रह कर उन विधवाओं का क्रंदन होने लगता था |
मंदोदरी उसे देखते ही उठ खड़ी हुई और उसने अपने पुत्र का आलिंगन किया | बोली,"बेटा , मैं गंगाधर शिवजी की पूजा करती हूँ, जिसने मुझे तुम जैसा पुत्र दिया | फिर भी देखो तो, ये कैसा संकट आया है | तेरे बाप ने तो परायी स्त्री का हरण करके लंका को विनाश की और धकेल दिया है |बेटा, राम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, साक्षात् विष्णु के अवतार हैं | जो भी युद्ध भूमि में उनसे लड़ने जाता है, जीवित नहीं लौटता | तुम राम जी को सीता लौटा दो और उनसे मित्रता कर लो | तुम्हारे बाप से अच्छे तो तुम्हारे चाचा विभीषण निकले, जिन्होंने राम का स्वरुप पहचान कर उनसे मित्रता कर ली | तुम भी उनके विरुद्ध युद्ध में मत जाओ | अपने पिता से कहकर परायी नारी को वापिस कर दो और लंका को बचा लो |"
अभिमान में चूर मेघनाद किसी तरह बड़ी मुश्किल से हँसी दबाकर बोला," माँ , ये तुम क्या कर रही हो ? पति निंदा तो महा पाप है | पिताजी ने आठों दिग्पालों को हराया है | मैंने इंद्र को पराजित किया है | जितने वैभव से इन्द्र की पत्नी रहती है, उससे सौ गुना ज्यादा ऐश्वर्य से तो तुम रहती हो | फिर परायी स्त्रियों के साथ ऐसा करना तो बलशाली पुरुषों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है | इंद्र को देख लो | वे देवराज हैं | गौतम के शिष्य होकर भी उनको अपने गुरु की पत्नी से ऐसा कृत्य करते उन्हें शर्म नहीं आयी | चन्द्रमा तो ब्राह्मणों का देवता माना जाता है | उसने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी का हरण किया और आज संसार में प्रकाश देता है |
फिर आप पिता को दोष क्यों देती हो ? खर दूषण का वध करके राम ने पहले ही हमसे शत्रुता मोल ले ली थी | उसके बाद शूर्पणखा का अपमान - पिताजी ने क्या गलत किया है ?"
दो लाख विधवाएं बिलखने लगी | सब मेघनाद से अपनी करुण गाथाएं कहने लगीं | मेघनाद ने सबको सांत्वना देते हुए कहा," बस | आज ही राम और लक्ष्मण का वध करके मैं तुम लोगों का बदला पूरा करूँगा | अब रोओ मत | माता, अब मुझे आज्ञा दो | मुझे निकुंभला का यज्ञ करना है | इष्टदेव की अर्चना मैं पहले ही इतना विलम्ब हो चुका है | "
ऐसा करके मेघनाद ने मां से विदा ली और यज्ञशाला में चले गया |
रकवस्त्र , लाल पुष्पों की मालाएं , रक्त चन्दन , सरकंडे के पत्ते, घी के घड़े लाये गए | उसके बाद लाये गए - काले बकरे | मंत्रोच्चार के साथ अग्नि प्रज्ज्वलित की गयी और एक के बाद दूसरे, काले बकरों की आहुति दी जाने लगी | यज्ञ की ज्वाला मंत्रोच्चार के साथ बढ़ते चले गयी | अंततः साक्षात् अग्निदेव प्रकट हुए और खुद यज्ञ में दी जाने वाली आहुति का सेवन करने लगे |
इंद्रजीत ने जो वर माँगा , वह अनायास ही मिल गया | प्रफुल्लित इंद्रजीत अपनी सेना का सञ्चालन करने कूदकर रथ पर जा बैठा | सर पर चंड - मुण्ड छात्र थामे खड़े थे | आनन्- फानन में वह पूर्वी दरवाजे पर पहुँच गया | पूर्वी दरवाजे पर आक्रमण की बागडोर नील के हाथ में थी | इंद्रजीत को आते देखकर वानर सेना में भगदड़ मच गयी | वानर कुछ ही दिनों पूर्व इंद्रजीत के कोहराम को झेल चुके थे, जब गरुड़ ने नागपाश से राम लक्ष्मण समेत समस्त वानरों को नया जीवन दिया था | वही भयावह इंद्रजीत उनके सम्मुख था | तितर - बितर होते हुए वानर सेना को नील ने सम्हाला | उसने इंद्रजीत को ललकारा | इंद्रजीत तुरंत ही बादलों की आड़ में छिप गया और वहीँ से वानर सेना पर बाण चलाने लगा |
तीखे बाणों से सारी वानर सेना धराशायी होने लगी | नील भी कब तक टिकता | जल्दी ही उसका लहूलुहान शरीर धरती पर गिर पड़ा |
पूर्वी द्वार पर जीत प्राप्त करने के पश्चात इंद्रजीत दक्षिणी द्वार की और बढ़ा | अंगद सहित वानर वीर वहां दिन भर के युद्ध बाद आराम कर रहे थे | इंद्रजीत का सिंहनाद सुनकर वे झटपट उठ खड़े हुए | शरभ , देवेंद्र महेंद्र के साथ अंगद ने मेघनाद पर वाक्बाणों की बौछार सी कर दी | मेघनाद जरा भी विचलित नहीं हुआ | वह भी दुर्वचन कहता हुआ फिर बादलों के पीछे जाकर छिप गया और वानर सेना पर अमोघ बाण बरसाने लगा | उसने ब्रह्मास्त्र का भी प्रयोग कर दिया | वानर सेना भला कब तक टिकती ?
अब बारी उत्तरी द्वार की थी जहाँ वानरों के राजा सुग्रीव मोर्चा सम्हाले थे | दिन के युद्ध के पश्चात् वे भी विश्राम कर रहे थे | शिविर के रात्रि रक्षक के रूप में धूम्राक्ष सजग थे | इंद्रजीत ने ललकार कर पूछा ," कौन कौन जाग रहा है ? पिछली बार तो तुम लोग लोग बच गए थे | गरुड़ ने बचा लिया था | देख लो, इस बार काल से तुमको कौन बचाता है |" धूम्राक्ष ने उलटकर जवाब दिया ,"अपने चाचा कुम्भकरण और भाइयों का हश्र देख चुके हो न ? छद्म युद्ध बार बार नहीं चलता | हम सब लोग जाग रहे हैं | जब तक तेरे पिता को मारकर विभीषण को राजा न बना दें , हम चैन की नींद नहीं सोयेंगे |"
अट्टहास करता हुआ इंद्रजीत एक बार फिर बादलों के पीछे अदृश्य हो गया | वहां से वह तीखे बाण छोड़ता हुआ वानरों को क्षत विक्षत करते रहा | आखिर उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया | औरों के साथ राजा सुग्रीव भी बेसुध होकर धरती पर गिर पड़े
बाकी रह गया पश्चिमी द्वार | वहां राम लक्ष्मण के साथ हनुमान भी थे } उस समय हनुमान जी ही रात्रि रक्षक थे | मेघनाद ने बादलों के पीछे से अदृश्य रहकर व्यंग्य से पूछा ,"पश्चिमी द्वार पर कौन कौन जग रहा है ?" मेघनाद था तो अदृश्य , किन्तु हनुमानजी भला उसकी आवाज़ पहचानने में कैसे चूक सकते थे | क्रोध से बोले," सब जाग रहे हैं मेघनाद और तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं | जब तक तुम्हारे पिता का वध नहीं हो जाता और विभीषण के सर पर राजछत्र सुशोभित नहीं होता, तब तक आराम वर्जित है |"
अदृश्य रहकर ही मेघनाद ने हनुमान को अपशब्द कहे और उनकी ओर ध्यान न देकर सीधे राम को ललकारा ,"जीवित अयोध्या लौटोगे ? भूल जाओ | मेरा नाम इंद्रजीत है |" और फिर वह अदृश्य रहकर राम और लक्षण को ही बाणों से बींधने लगा | राम जी पर असंख्य बाण छोड़ने के बाद उसने लक्ष्मण को सम्बोधित किया, "इसको झेल के देखो|" देखते ही देखते लक्ष्मण राम के बगल में गिर पड़े | क्षुरपार्श्व और अर्द्धचन्द्र नामक दो बाणों से आहत हो राम भी धरती पर गिर पड़े | वानर सेना में हाहाकार मच गया |
इंद्रजीत ने थोड़ा रूककर इस बार ये सुनिश्चित किया कि राम और लक्ष्मण पिछली बार की तरह बच ना पाएं | उसने चारों द्वारों पर वानर सेना को बुरी तरह पस्त किया था |
निश्चित रूप से विजय पताका फहराने के बाद मेघनाद को पारितोषिक मिलना तय था | अधीर होकर वह राजमहल चले गया | पिता के चरणों में तीन बार प्रणाम करने बाद उसने युद्ध की स्थिति के बारे में रावण को अवगत कराया | राम और लक्ष्मण से शुरू हुई एक लम्बी सूची ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी - सुग्रीव, हनुमान, अंगद , जांबवान शरभ, नील , सुषेण, गंधमादन .... | मेघनाद को पर्याप्त राजप्रासाद प्राप्त हुआ || विचित्र रत्नमुकुट, माणिक्य, रत्न और सहस्त्रों विद्याधरी कामनियाँ - सब मेघनाद को मिलीं | केवल नया छत्र और दंड नहीं दिया गया | पारितोषिक प्राप्त करने के पश्चात् मेघनाद अंतःपुर में गया और नारी मंडली के साथ पांसे खेलने बैठ गया |
चारों द्वारों पर राम लक्ष्मण सहित वानर सेना गिरी पड़ी थी | ब्रह्मा का वरद-हस्त होने के कारण केवल विभीषण और हनुमानजी बचे थे | हाथ में दीपक लेकर मंथर गति से दोनों वानर सेना का निरीक्षण करने लगे - कोई तो जीवित बचा हो |
असंख्य योद्धाओं के साथ उत्तरी द्वार पर सुग्रीव पड़े हुए थे | हाथ में वृक्ष लिए सेनापति नील पूर्वी द्वार पर पड़े थे | दक्षिणी द्वार पर बाणों से बिंधा पड़ा अंगद का धराशायी शरीर पड़ा था | पचिमी द्वार पर स्वयं राम और लक्ष्मण निश्चेष्ट पड़े थे | पास ही बाणों से बिंधे हुए जांबवान भी पड़े थे | आँखें खुल नहीं रही थी |
विभीषण की आवाज़ को उन्होंने पहचाना | जब विभीषण ने उनसे परामर्श माँगा तो उन्होंने कहा," मैं देख नहीं पा रहा हूँ | शरीर में लाखों बाण चुभे हुए हैं | क्या तुम पवनपुत्र हनुमान जी को कहीं देख पा रहे हो ?"
विभीषण को बड़ा आश्चर्य हुआ | उन्होंने कहा, " लगता है, इंद्रजीत के बाणों से तुम्हारी मति मारी गयी है | जगत के पूज्य श्री राम और लक्ष्मण मूर्छित हैं | हमारे महाराज सुग्रीव जी रण भूमि में पड़े हैं | लगता है, पवनपुत्र हनुमानजी के सिवाय संसार में तुम्हारा कोई मित्र ही नहीं है |"
जांबवान ने कहा,"इस समय मेरा मस्तिष्क काम नहीं कर रहा है | आप केवल हनुमानजी को बुला दो | अगर वे जीवित हैं तो वे ही राम लक्ष्मण सहित सारे वानरों को जीवनदान दे सकते हैं | "
हनुमानजी ने जांबवान के चरणस्पर्श कर अपना परिचय दिया | जांबवान ने मद्धिम आवाज़ में कहा ,"तुम तुरंत आकाश मार्ग से जाओ | हिमालय पर्वत लांघोगे , तो आगे धवन वर्ण का ऋष्यमूक पर्वत है | उसके दक्षिण पूर्व में कैलाश पर्वत है | ऋष्यमूक पर्वत पर चार तरह की औषधियां मिलेंगी | उनके नाम हैं, विशल्यकरणी , मृत संजीवनी, अस्थिसंचरणी और सुवर्णकरणी | ये चारों औषधियां जल्दी से ले आओ | "
हनुमानजी ने तुरंत पूँछ ऊपर की, दोनों कान खड़े किये और वे आकाश में उड़ चले |
पल भर में वे समुद्र लांघ गए | कितनी ही नद-नदियां , पर्वत , जंगल उन्होंने रात में ही पार कर ली | वे अनवरत चलते ही गए | एक ही रात में वे बारह वर्षों का पथ पार कर गए | हिमालय पर्वत भी वे लांघ गए | कैलाश पर्वत के पास उन्हें धवल वर्ण का ऋष्यमूक पर्वत दिखाई पड़ा | आनन फानन में वे पर्वत पर चढ़ गए | अब दुविधा औषधियों को पहचानने की थी | औषधियां वे पहचान नहीं सके | रात बहुत बीत गयी और चार तो क्या, एक भी औषधि नहीं मिली | हनुमानजी को जांबवान पर क्रोध आया - "इंद्रजीत का बाण खाकर उनकी बुद्धि कुंठित हो गयी | और मैं भी एक जल्दबाज़ मूर्ख की तरह उनकी बातों में आकर कष्ट उठाकर यहाँ आ गया | फिर उन्होंने अपने आपको संयत किया | उनके मन में विचार आया, जांबवान अनुभव और बुद्धि के सागर हैं | लोग उन्हें व्यर्थ ही बुद्धिमान महामंत्री नहीं कहते | इस पर्वत ने ही वे औषधियां छुपाकर रखी हैं | इंद्र ने यों ही इन पर्वतों के पंख नहीं काटे थे | ये महादुष्ट होते हैं | "
हनुमानजी नीति के ज्ञाता थे | सबसे पहले उन्होंने हाथ जोड़कर पर्वत की वंदना की," पर्वत राज, रणभूमि में राम और लक्ष्मण घायल पड़े हैं | उनके लिये कितने ही नदियों, और वनों को लांघकर मैं यहाँ पहुंचा हूँ | कृपा कीजिये | तुम तो सुमेरु हो | बड़ा हृदय दिखाकर औषधि का दान करो तो सबके प्राण बच जायेंगे | "
जब साम से काम नहीं बना तो हनुमान जी सीधे दंड पर उतर आये ," पर्वतराज, मेरी बात सुनना तो दूर, तुम मेरा उपहास करते हो ? लो, अब देखो |" हनुमानजी ने पर्वत को पकड़कर खींचा तो पर्वत उखड़ने लगा | लताएं, टूटने लगी | आर्तनाद करते हुए जानवर इधर उधर भागे | यक्ष पुकारने लगे,"ईश्वर , रक्षा करो |" अंततः स्वयं पर्वतराज एक ऋषि का वेश बनाकर हनुमान जी के सम्मुख उपस्थित हुए |
"हे महावीर, तुम कौन हो ? पर्वत से खींचतान क्यों कर रहे हो ? "
पीछा छुड़ाने के अंदाज़ में हनुमानजी ने संक्षेप में उत्तर दिया , "रावण के साथ युद्ध करते हुए अभी राम और लक्ष्मण युद्ध भूमि में मूर्छित हुए पड़े हैं | उनके लिए ही मैं औषधि लेने आया हूँ | मेरा नाम हनुमान है | इस अभिमानी पर्वत ने ठिठोली करते हुए औषधियां छुपकर रख दी हैं | कोई बात नहीं, मैं इसे उखाड़कर लंकापुरी ले जाऊंगा | "
"शांति रखो वत्स |" मुनिवर बोले,"मेरे साथ चलो | अभी मैं तुम्हें औषधि वाले वन दिखता हूँ |"
वे हनुमान जी का मार्गदर्शन करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहाँ वांछित औषधियां थीं |
हनुमान जी ने चारों प्रकार की औषधियों की प्रचुर मात्रा इकठ्ठा की | वह एक छोटा-मोटा पर्वत ही बन गया | उसे उठाकर फिर उन्होंने कान सीधे किये , पूँछ ऊपर की और पलक झपकते ही लंकापुरी पहुँच गए |
सबसे पहले वे औषधि लेकर पश्चिमी द्वार गए | "मृत संजीवनी" की सुगंध पाते ही राम और लक्ष्मण सहित सारे वानरों की मूर्छा दूर हो गयी | अस्थि संचारिणी से वानरों के कटे फटे अंग अपने आप जुड़ गए | "सुवर्णकरणी' की सुगंध से उनका पूर्व स्वरूप वापिस आ गया - सारे घाव भर गए | वे उत्तरी द्वार गए और वनराज सुग्रीव सहित सब वानरों को औषधि सुंघाई | वे मानो नींद से जागकर उठ बैठे | दक्षिणी द्वार पर अंगार और सरे वानर और उत्तर द्वार पर नील - सब स्वस्थ हो गए और श्री रामचन्द्रजी की जयघोष करने लगे |
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