मैं तो क्या, कोई भी चन्दन को पहचान सकता था | क्या मुश्किल थी इसमें ? भीड़ हजारों की हो या लाखों की - चन्दन अलग ही नज़र आएगा |
कुल टोटल इसी अदम्य विश्वास के साथ मैं दुर्ग स्टेशन गया था | चन्दन से आखिरी मुलाकात कोई अट्ठाइस वर्ष पूर्व हुई थी | मेरे हाथ में जो मोबाइल फोन था, वह स्मार्ट हरगिज नहीं था | फर्क क्या पड़ता है आखिर ? जब दिल दूसरे दिल को पुकारे तो 'लोकेशन' की जरुरत नहीं पड़ती | जब मस्तिष्क में बसी तस्वीर धुंधली नहीं होती, तो 'सेल्फी' का आदान प्रदान करने की भला आवश्यकता ही क्या थी ? अति आत्मविश्वास का एक और कारण था | अगर मैं चन्दन को नहीं ढूंढ़ पाता तो चन्दन मुझे खोज ही लेता | कैसे ? अरे वैसे ही, जैसे दशकों पूर्व उसने भिलाई विद्यालय में किया था |
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मैं तो था छठवीं के वर्ग 'ड' में और वह था वर्ग 'अ' में | | बाकी सारे के सारे शाला क्रमांक आठ के मित्रों का जमघट वर्ग 'स' में था |
दाखिले में जल्दबाज़ी के कारण वह और लेट लतीफी के कारण मैं - एक ही सज़ा भुगत रहे थे | वर्ग 'ड'' में मैं खोज रहा था - कोई एक तो परिचित चेहरा दिख जाए | करीब करीब प्रत्येक छात्र का कोई न कोई प्राथमिक शाला का सहपाठी उस कक्षा में था | अजनबियों के इस समूह में मुझे कोई भी अपना नज़र नहीं आ रहा था | पहले दिन प्रार्थना के बाद, कक्षा में घुसते ही लोग अपने अपने साथियों के साथ इंतज़ार कर रही खाली डेस्कों की ओर लपक पड़े | मुझे कुछ ऐसे स्वर सुनाई दे रहे थे ,"अबे, इसके साथ में बैठूंगा | तू उसके साथ बैठ जा | जा, जा | तीसरी से पांचवी तक हम लोग साथ साथ बैठते थे | ये हम दो लुच्चे लफंगों की बेच है | तुम लोग आगे कहीं बैठो | "
जब सब बैठ गए तो भी मैं इधर उधर नज़रें दौड़ा रहा था - किसी बेंच में कोई अकेला लड़का तो दिखे, जिसके साथ जाकर में बैठ जाऊं | तभी कक्षा शिक्षक आ गए | अब यहाँ प्राथमिक शाला की तरह "खड़े हो, नमस्ते" तो था नहीं | अभिवादन के लिए लोग खड़े हुए और फिर बिना इंतज़ार किये बैठ गए | शिष्टाचार के ये नियम वे विद्यालय में कदम रखने के पूर्व ही जानते थे | किसी के सिखाने की जरुरत नहीं पड़ी |
काश, मैं भी वर्ग 'स' में होता |
एकाकीपन तब और काटने दौड़ता, जब कोई पीरियड ख़तम होता और दो शिक्षकों के जाने-आने के मध्य शून्य काल होता | मेरी बेंच पर साथ बैठा सहपाठी भी उठकर अपने परिचित मित्रों से बतियाने उनके पास चले जाता | गर्मी की छुट्टी में बातों का अम्बार जो जमा हो गया था |
कोई परिचित चेहरा तो दिख जाए |
और वह परिचित चेहरा दरवाजे पर दिख गया |
"चन्दन |" मैं दरवाजे की ओर लपका |
"तू यहाँ बैठा है ?" वह बोला ,"और कौन है तेरी कक्षा में ?"
"कोई नहीं यार | " मैंने मरी आवाज़ में कहा |
"सारे के सारे 'स' में भर गए ?"
"तेरी कक्षा कहाँ है ?"
"वहां | दो कमरे छोड़ के | सीढ़ी के उस पार | " अचानक वह भाग खड़ा हुआ क्योंकि नया शिक्षक हमारी कक्षा की ओर बढ़ रहा था |
आधी छुट्टी को हम सारे दोस्त मिले | 'स' वालों के पास तो बातचीत का पिटारा था | "ये सर ऐसे हैं | वो ऐसे |" और सारे हँस पड़ते | हिंदी वाली मेडम का नाम राजीव जावले ने पहले ही दिन 'बसंती' रख छोड़ा था चन्दन भी अपने कक्षा "अ " के गणित के सर की मिमिक्री करता | और मैं ?
मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता |
फिर वह क्रम केवल कुछ दिनों तक ही चला | मैं तो जरूर 'स' वालों से मिलता, पर अब चन्दन ने आना कम कर दिया था | वर्ग 'अ' में ही उसने अपना अस्तित्व स्थापित कर लिया था |
मैं किसी तरह, जोड़ तोड़ लगाकर, मिन्नतें करके वर्ग 'स' में पहुँच गया , तब जाकर मानो मेरा नया जीवन शुरू हुआ | तब तक तो वर्ग 'अ' में ही चन्दन ने ढेरों दोस्त और नोक-झोंक करने वाले नए दुश्मन बना लिए थे | वह वहीँ जम गया था |
मुझ में और चन्दन में ये फर्क तो था |
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"कहाँ है बे ?" मोबाइल से चन्दन की आवाज़ गूँजी |
कहाँ था मैं ? चालीस साल पूर्व के भिलाई विद्यालय के गलियारों में !
"मैं स्टेशन में ही हूँ यार |" मैंने कहा , "बस, अभी अंदर ही आ रहा हूँ |"
मैंने प्लेटफार्म टिकट जेब में डाला और अंदर चले गया |
अंदर मैंने प्लेटफार्म का एक चक्कर लगाया | उस अति-आत्मविश्वास का क्या हुआ ? राम जी, चन्दन तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है | कहीं वो मुझे तो नहीं खोज रहा है ? यक़ीनन वही बात है |
... समय गुजरते रहा | वो चन्दन , जो शाला नंबर आठ में भिलाई विद्यालय के लिए बड़ी दलीलें दिया करता था , यारों की भीड़ के सिवाय कहीं नज़र नहीं आया | मुझे लगता था, वह चन्दन जो हम लोगों को प्राथमिक शाला में फुटबॉल सिखाया करता था, फुटबॉल के मैदान में मदारी का डमरू बजा देगा | आधे मुरम , आधे घास के उस मैदान में कहीं नहीं था | चन्दन कोई 'धक्का' खिलाड़ी तो था नहीं , जिसे मैदान में उतारने के लिए हवा भरनी पड़ती थी | फुटबॉल देखते ही उसकी बांछें खिल जाती थी | फिर उसे पिंजरे में भला बंद किसने कर दिया ?
शाला नंबर आठ में तो चन्दन भिलाई विद्यालय के लिए दलीलें देते समय एन. सी. सी. को परचम की तरह लहराता था | भिलाई विद्यालय में एन. सी. सी. के द्वार नवीं में खुलने वाले थे |
जब छठवीं में स्काउट में जिसे कई लोग एन. सी. सी. का विकल्प मानते थे ; जिसमें अंगारे सर की प्रेरणा से वर्ग 'अ' वालों ने धमाल मचा दिया था ; वह किसी कतार में कहीं नहीं था | सच है कि स्काउट और एन. सी. सी. में मूलभूत अंतर तो था | गोली चलाने और रस्सी की गाँठ लगाने में काफी फरक था | यह भी सच है कि कई उत्कृष्ट छात्र स्काउट में सम्मिलित नहीं हुए थे , लेकिन चन्दन जैसे उत्साही छात्र भी काफी संख्या में, स्काउट में गोते लगा रहे थे | फिर चन्दन को क्या हुआ ?
तो क्या चन्दन नवीं में एन. सी. सी. में आया ?
एन. सी. सी. आर्मी विंग में - नहीं |
एन. सी. सी. एयर विंग में - कदापि नहीं |
कहाँ रह गया चन्दन ?
सतपुड़ा सदन की तरफ से मंच पर वाद विवाद में कौशलेन्द्र ठाकुर, आशीष पुरंदरे और मुरली दहाड़ते थे | न कोई अभिनय के क्षेत्र से चन्दन कभी जुड़ा , न गायन में, न चित्रकारी में |
कहाँ था चन्दन ?
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"कहाँ है यार चन्दन ?" मैंने फोन लगाया |
मैं अभी भी प्लेटफार्म पर चन्दन को खोज रहा था |
जब हम लोग दसवीं में थे तो चन्दन एक दिन मुझे घर में ले गया | उसने मुझे एक पारितोषिक शील्ड दिखाया |
"क्या है ये ?" मैंने पूछा |
"तूने क्रिकेट बैलेट देखा था न ? हम लोगों के सदन का ?"
कुछ देखा कुछ नहीं देखा | उस समय सदन रात्रि में ऐसी भीड़ रहती थी कि पूरा हाल शिक्षकों,मेहमानों और उनके परिवार जनों , कक्षा कप्तानों और व्यस्थापकों से भरा रहता था | बाकि सब छात्रों को पीछे खड़े रहना पड़ता था और वह भीड़ हॉल के बाहर निकल जाती थी | अनुशासन ? ये कौन सी चिड़िया का नाम था ? लम्बे चौड़े लड़के आगे खड़े रहते थे | जो अभी मंच पर दिख रहा हो, कोई जरुरी नहीं, वो अगले पल दिखे | सामने कोई न कोई आ ही जाता था |
तो चन्दन के सदन ने "क्रिकेट बैले" किया था | वैसे "क्रिकेट बैले" एक साल पूर्व ही उनके ही सदन के वरिष्ठ छात्रों ने किया था जिनमें से अधिकतर उच्चतर माध्यमिक की शिक्षा पूरी करके भिलाई विद्यालय से जा चुके थे | तो नए कलाकारों को मौका मिल गया था और उनमें चन्दन भी एक था |
"आज तक मुझे एक बार भी ईनाम नहीं मिला था ",चन्दन बोला ,"पहली बार मंच पर चढ़ा और उसके लिए भी जम कर गालियां पड़ी |"
"क्यों ? क्या हुआ था ?"
"कुछ नहीं , बैटिंग करने के समय मुझे गेंद 'प्लेट' करना था | पचासों बार रिहर्सल किया था | फिर भी मैं इतना घबराया हुआ था, कि मैंने गेंद पर शॉट लगा दिया | बाकी किसी को समझ नहीं आया कि अब क्या करना है ? जल्दी में अंपायर ने भी 'फोर' का सिग्नल दे दिया | इस कारण हम लोगोँ का ग्रुप डांस सेकंड आ गया | "
"होते रहता है यार |"
"हाँ यार | पहली बार स्टेज पर चढ़ा था |"
उसके बाद चन्दन तो स्टेज पर कभी नहीं चढ़ा, लेकिन ज़िन्दगी भर नाटक ने उसका पीछा नहीं छोड़ा | इतना ही नहीं , उसकी स्वाभाविक हरकतों को भी लोग नाटक ही समझते रहे |
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दुर्ग स्टेशन पर वजन करने की वह मशीन बरसों से लगी हुई थी | जब कभी हम दुर्ग स्टेशन जाते, उसके पायदान में जरूर खड़े होते, भले जेब में सिक्का हो या न हो | चकरी गोल गोल घूमती और जब थमती तो हम जेब टटोलते | अगर किसी कोने में सिक्का होता तो उसमें एक रूपये का सिक्का डालते | सफ़ेद रंग का, रेलगाड़ी के टिकट की तरह कार्डबोर्ड का एक टिकट बाहर आता और हम अपना वज़न देखकर कभी खुश होते और कभी उदास | साथ में एक औघड़ सी लेकिन दिलचस्प भविष्यवाणी भी छपी होती थी |
वज़न मशीन के उसी पायदान पर चन्दन बैठा हुआ था | हाँ, वही तो था | मैंने कहा था न, कोई भी उसे कहीं भी पहचान सकता था |
वज़न की मशीन के चकरी के इर्द गिर्द छोटी-छोटी बत्तियां झिलमिला रही थी | चकरी धीरे धीरे इधर उधर डोल रही थी | चन्दन अगर उस पर खड़ा हो जाता तो पता नहीं, चकरी कितने चक्कर लगाकर कब रूकती | अगर चन्दन सिक्का डालता तो अपना वज़न देखकर चन्दन के चेहरे पर ख़ुशी या गम, कौन से भाव आते, पता नहीं - पर इस वक्त उसका चेहरा भावहीन था | पता नहीं, भविष्यवाणी उसके लिए क्या कहती - क्योंकि भविष्यवाणी में केवल चमचागिरी भरे शुशनुमा वाक्य ही छपे होते थे | चन्दन के लिए भविष्यवाणी करने के लिए शायद मशीन भी हाथ ऊपर उठा देती | यह बात भी उतनी ही अनिश्चित थी कि चन्दन को उन बातों पर कितनी दिलचस्पी होती | उसका भावहीन चेहरा डरावना सा लग रहा था | शायद मुझे देखते ही वह उछल पड़ता, पर वह तो मुझे घूरते यूँ ही बैठे रहा | क्या वह चन्दन था ?
"चन्दन?" मेरी पुकार में थोड़ी बहुत शंका समाविष्ट थी |
"हाँ |" उसने कहा , "इतनी देर कहाँ था बे ?"
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यह शायद केवल भारत में ही संभव था | चन्दन ने अचानक भीड़ भरी सड़क पर , दाहिनी ओर की द्रुतगामी पक्ति पर अचानक कार रोक दी |
इसका अर्थ क्या हुआ ? पीछे की सारी कारों को लेन बदलकर चन्दन की कार के बायीं ओर से गुज़रना पड़ा- बस इतना ही | मेरे दिल में जरूर थोड़ी हलचल सी मच गयी | मगर चन्दन इतना आश्वस्त और बेफिक्र था कि वह आराम से दाहिनी ओर का दरवाजा खोल कार से बाहर कूद पड़ा |
चन्दन ने ऐसा क्यों किया ? अगर उसे रोकना ही था तो क्या वह कार को सड़क के बाये किनारे पर खड़ा नहीं कर सकता था ? सड़क के डिवाइडर से चिपकाकर कार खड़ी करने से क्या उसकी लॉटरी लगने वाली थी ?
" दो मिनट रुक | " उसने इतना ही कहा | और तो और - उसकी तरफ की कार का डैना खुला ही हुआ था | इसलिए डिवाइडर के दूसरी और से विपरीत दिशा से आने वाली कारों को भी थोड़ी सतर्कता से गुजरना पड़ रहा था |
सड़क के मध्य में सफ़ेद काले रंगों से बने ईंटों की विभाजन रेखा थी, जिसे फुर्ती से लांघकर वह सड़क के दूसरी ओर गया और दूसरी दिशा से आने वाले ट्रैफिक के मध्य से गुजरते हुए सड़क के दूसरी ओर सड़क के किनारे सामान बेचने वालों की भीड़ में खो गया |
सड़क किनारे के उन विक्रेताओं ने कच्चे-पक्के शेड बना लिए थे | जहाँ तक मैं देख पा रहा था, उसमें से एक शेड के अंदर वह घुस गया जिसके सामने छोटे बड़े गमलों का ढेर लगा हुआ था | हाँ, वही 'ग' से गमला | चन्दन अंतर्ध्यान जरूर हो गया था, लेकिन उसकी आवाज़ अभी भी छन-छनकर आ रही थी | शायद किसी गमले को लेकर वह मोल-भाव कर रहा था |
अगले बीस मिनट तक कार में मैं दम साधे बैठा रहा | आशंका तो थी ही कि अमेरिका की तरह कोई ट्रैफिक पुलिस की गाडी बीन बजाते हुऐ पीछे आ जाएगी | ठीक है, यह भारत है | तो फिर क्या पता पीछे से कोई बिगड़ैल सवा सेर आ जाये और सड़क पर बखेड़ा खड़ा कर दे | वैसा कुछ भी नहीं हुआ | लोग शांति से खड़ी कार से किनारा करके बायीं ओर से निकलते रहे | एक शंका सी जरूर मन में उठी - क्या सड़क पर चलने वालों को चन्दन की कार का नंबर कंठस्थ हो गया है ?
जब चन्दन कुटिया के बाहर निकला तब स्पष्ट हो पाया कि चन्दन ने सड़क के बीचों-बीच विभाजन रेखा के बगल में कार क्यों खड़ी की थी | उसके पीछे- पीछे एक बच्चा हाथ में एक भारी भरकम गमला उठाये आ रहा था | विभाजन रेखा के बगल में कार खड़ी करके चन्दन ने उसे एक दिशा से तेज़ रफ़्तार से आते हुए ट्रैफिक को पार करने से बचा लिया था | पर 'डिवाइडर' के दूसरी ओर से, सामने आने वाले ट्रैफिक का क्या किया जाए ?
चन्दन तो फुर्ती से सड़क के इस पार आ गया, लेकिन वह लड़का सड़क के उस ओर ही ठिठका खड़े रहा |
"अबे, वहीँ अटका हुआ है ?" चन्दन ने उसे झिड़का , "चल जल्दी आ |"
लड़का एक कदम आगे बढ़ता और फिर पीछे हट जाता | चन्दन के पास धैर्य की कमी तो हमेशा से ही थी |
"अबे डर रहा है क्या ?" वह चिल्लाया और फिर सडक के दूसरी ओर के ट्रैफिक को लाँघ कर वह लड़के के पास जा पहुंचा ,"चल मेरे साथ चल |"
क्या वह अपना चिर परिचित पुराना चन्दन नहीं था ? दुर्ग स्टेशन से अब तक चन्दन के बगल में उसकी कार में बैठकर मैं थोड़ा असहज महसूस कर रहा था | क्या समय के थपेड़ों ने चन्दन को नम्य , कमजोर, रहस्य्मय बना दिया है ? अभी तो वह मुझे अपने घर ले जा रहा था, पर कितने देर मैं उस अजनबी को झेल पाऊँगा ?
अब पुराने चन्दन को देखकर मैंने राहत की साँस ली |
चन्दन अब सड़क के बीचोंबीच खड़े हो गया और उसने सामने से आने वाले ट्रैफिक का प्रवाह रोक पूरी तरह रोक दिया |
"जल्दी जा बे |" उसने ठिठकते हुए गमले वाले लड़के को आवाज़ दी," कार की डिक्की खुली है | जल्दी कर ||"
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एक-एक सीढ़ी चढ़कर हम चन्दन के द्वार तक पहुंचे किन्तु अंदर नहीं घुसे | चन्दन ने बाहर की बत्ती जला दी थी और प्रांगण में गमलों पर उगे पौधे स्पष्ट दिखने लगे | वो मुझे एक-एक पौधों के बारे में काफी रूचि लेकर बता रहा था | मैं सोच रहा था, चन्दन का यह वनस्पति प्रेम कब से जागृत हुआ ? मुझे फ़ूल -पत्तों की कोई खास जानकारी तो नहीं थी | बताते-बताते अचानक वह रुक गया और मेरी ओर देखने लगा |
"क्या सोच रहा है ?"
"सोच रहा हूँ कि यार, नए गमले को कहाँ रखूं ?" प्रांगण तो पूरी तरह गमलों से भरा हुआ था |
"कहीं भी |" मेरे मुँह से अनायास ही निकला और ये जवाब चन्दन को बिलकुल पसंद नहीं आया |
उसके चेहरे के भावों से मैंने भांप लिया कि मेरा जवाब चन्दन को पसंद नहीं आया | आखिर चन्दन कब से सुनियोजित , सुव्यवस्थित हो गया ? फिर वह मुझे बताने लगा, उस गमले में वह क्या लगाना चाहता है ? उसकी बेलें कहाँ तक फैलेगी ? उसे कितनी धूप की जरुरत पड़ेगी |
अगर मेरी पहली सलाह बेस्वाद थी, जिसे उसने किसी तरह आत्मसात कर लिया था, तो दूसरी सलाह तो नीम के काढ़े की तरह कड़वी निकली ,"यार, फिर तो कुछ पौधों को हटाना पड़ेगा |"
चन्दन ने किसी तरह इस सलाह को भी आत्मसात किया ," यार मैंने इन सब पौधों को बड़े जतन से लगाया है | एक पत्ता भी सूखता है तो मुझे लगता है कि क्या हो गया ? मेरे बच्चों को सारे के सारे पौधे प्यारे हैं | "
कुछ क्षण योन ही ख़ामोशी छायी रही | वह वाक्य मानो तीव्र प्रकाश से जगमगा उठा - "जो तस्वीरें चन्दन के दिल के करीब होती हैं, उन पर थोड़ी सी खरोंच भी चन्दन बर्दाश्त नहीं कर पाता था | " किसी भी क्षण वह ठेस गुस्से में बदल सकती थी |
अब मैंने काफी सोच समझकर कहा ,"फिर तो बच्चों से पूछना ही बेहतर है |"
यह गनीमत रही कि यह बात चन्दन को जँच गयी और मेरे साथ उसने भी राहत की साँस ली |
"एक गलती हो गयी यार |" वह बोला ,"गमला थोड़े दिनों बाद लेना था | आज छोटी लड़की को भी स्टेशन में छोड़ कर आया हूँ | अब घर में कोई नहीं है | "
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घर में वाकई में शायद कोई भी नहीं था | जब चन्दन ने अंदर घुसकर सामने के कमरे की बत्ती जलाई, तब कहीं जाकर घर में रौशनी आयी | अब मैं किसी से कभी पूछता तो हूँ नहीं कि श्रीमती जी कहाँ हैं ? कहीं भी हो सकती हैं - मायके से लेकर ब्यूटी-पार्लर तक | जाहिर है, अभी कुछ मिनट पहले बरामदे मं जो कुछ हुआ, मैं इस स्थिति में था भी नहीं |
"तू चाहता क्या है ? " शुक्र है, चन्दन ने काम की बात छेड़ी ,"सूर्य का फ़ोन आया था | तू लोगों से मिलना चाहता है | क्या करना चाहता है ?"
"कुछ नहीं , सोचता हूँ, एक बार लोगों से मिल लिया जाए | बस !"
"क्या बोलते है उसको - गेट टुगेदर ?"
"हाँ, कुछ वैसे ही समझ ले |"
"प्राथमिक शाला नंबर आठ ?"
"हाँ | या तो फिर भिलाई विद्यालय |"
"पहले प्राथमिक शाला के बारे में सोचते हैं यार |" चन्दन बिलकुल सही पटरी पर चल रहा था |
चन्दन ने मुझे कागज़-कलम पकड़ा दिया और एक छोटी डायरी निकाली ,"लिख - प्रमोद मिश्रा .. ."
"ठीक है |" मैंने उसका नाम लिखा |
"उससे बात करेगा ? उससे भी तुझ" बहुत सारे नंबर मिल जायेंगे |"
और मेरे 'हाँ' या 'न' कहने के पहले ही उसने प्रमोद मिश्रा को फोन खडका दिया | पहले उसने खुद ही उससे बात की ,"तेरे पास कालकर बहनजी की कोई खबर है क्या ? " फिर उसने बात आगे बढ़ाई ,"मेरे पास विजय सिंह बैठा है | ले उससे बात कर |"
ना जाने कितने वर्षों बाद - शायद भिलाई विद्यालय से निकलने के बाद पहली बार - मैं प्रमोद मिश्रा से बातें कर रहा था | वही प्रमोद, जो प्राथमिक शाला में मेरे साथ बेंच पर बैठा करता था |
"विजय, कालकर बहन जी की उम्र काफी हो गयी है |" प्रमोद मिश्रा ने कहा ," अभी कहाँ रहते हैं, पता नहीं | उसका लड़का अपने साथ पढता था न ?"
"संदीप ?"
"हां संदीप | उससे दो तीन बार मुलाकात हुई थी | उसने ही बताया था | शायद उसका नंबर भी होगा कहीं | देखता हूँ |"
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"तू चाय पियेगा ?" चन्दन ने पूछा ,"चल मैं चाय बनाकर लाता हूँ |"
"छोड़ यार चन्दन | मैं चाय तो पीता नहीं |"
"तो क्या पियेगा ? कॉफ़ी ?"
"कॉफी भी मैं नहीं पीता |"
"तो फिर क्या ?"
"कुछ नहीं | पानी ठीक है |"
अगले पांच मिनटों में जो कुछ हुआ उसने मुझे तो क्या , चन्दन को भी चौंका दिया |
अभी तक मैंने आश्वस्त था कि चन्दन के घर में कोई नहीं है | हम दोनों मित्र करीब करीब उसी भाषा में बात कर रहे थे जैसे हम प्राथमिक शाला में करते थे | अब वह भाषा कई बार शालीनता की सीमा लाँघ जाती थी मैं वैसे ही उच्छृंखल ठहाके लगा रहा था और चन्दन की भी ओढ़ी हुई प्रौढ़ता को काटने की कोशिश कर रहा था | हालाँकि चन्दन जरूर काफी संयत था |
एकाएक पर्दा हिला और चन्दन की धर्मपत्नी ने एक ट्रे में पानी लेकर कमरे में प्रवेश किया | सर्वथा अनपेक्षित था यह | परिकल्पना के एकदम विपरीत ! मुझे काटो तो खून नहीं |
विषम परिस्थिति में पड़े चन्दन ने किसी तरह उनका परिचय कराया |
"नमस्ते |" मेरे मुँह से निकला ,"मैं चन्दन का बचपन का दोस्त हूँ | मेरा नाम विजय है |" किसी तरह कुछ शब्दों को संयोजित करके मैंने वाक्य बनाया |
"नमस्ते |" उन्होंने कहा |
""कैसे हैं आप ?" मैंने पूछा | मुझे एक अपराधी-भाव सा महसूस हो रहा था |
"ठीक | बिस्किट लीजिये न | "
अब मेरा ध्यान ट्रे की ओर गया जहाँ पानी के गिलास के साथ कुछ बिस्किट भी थे | अपराधी भाव अब भी मेरे मन में समाया हुआ था | मुझे पता ही नहीं चला कि कब श्रीमती दास कमरे के बाहर चले गयी और मैं और चन्दन स्तब्धता की एक भारी परत से दबे हुए थे | बातचीत का वह क्रम पूरी तरह छिन्न भिन्न हो गया था |
"चल, जूस पीकर आते हैं |" अंततः चन्दन ने कहा |
सीढ़ियों से हम नीचे आये | तब चन्दन से मैंने शिकायत के लहजे में कहा, "यार तूने बताया ही नहीं कि ... मुझे लग रहा था , घर में हम दोनों ही हैं ... "
रास्ते में चन्दन से जो बातें हुई, मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया | कितने लोगों से मिल चुका था मैं | उम्र के इस पड़ाव पर आते-आते छोटी-मोटी पारीवारिक समस्याएं तो लगी रहती है |
"छोड़ न यार चन्दन | ये सब तो लगे रहता है | "
मेरी अनिच्छा को देखकर उसने भी हथियार डाल दिए | क्या वह कुछ कहना चाहता था ? क्या वह दिल खोलना चाहता था ? मगर नहीं | मेरे सामने नहीं | मैं इस मामले में कोई सलाह देने के योग्य नहीं था |
ओह, तो कितने सारे तो दोस्त थे चन्दन के | उसकी डायरी में अनगिनत लोगों के नंबर थे | क्या किसी और से चन्दन ने बात की ? या फिर वो एक भीड़ में अकेला ही था ?
बस, केवल इतना ही विचार मेरे मन मेँ आया | इस सन्दर्भ में संजीदगी का पूर्ण अभाव था |
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मुझे पता ही नहीं चला कि पिछले वर्षों में, बल्कि दशकों में सिविक सेंटर का स्वरुप कितना बदल गया था | लेकिन हम सिविक सेण्टर की चकाचौंध करने वाली बत्तियों में नहीं, वरन उसके साये में बैठे थे - यानी कि सेन्ट्रल एवेन्यू के दूसरी ओर - जहाँ अँधेरे का साम्राज्य था |
और उस अँधेरे में चन्दन फल के रस बेचने वाले को हड़का रहा था , "अँधेरा है, तो ये मत समझना मैं अंधा हो गया हूँ | जूस में पानी बिलकुल मत मिलाना | समझे न |"
और वे चन्दन को छू-छू कर कसमें खा रहे थे , "नहीं साहब | हम तो जूस में कभी पानी मिलाते ही नहीं | "
"उस दिन मेरे सामने मिलाया था | मिलाया था न ? " फिर वह हादसा मुझे बताने लगा, "उस दिन क्या हुआ था - मैं अपने सामने जूस निकलवा रहा था | मुझे कोई भरोसा नहीं है इन पर - बिलकुल नहीं | ऊपर पेड़ में कोई कौवा बोला | ये बोलै,"देखो सर कौवा रात में बोल रहा है | जैसे ही मैंने ऊपर देखा, उसने फट से पानी मिला दिया | फट से ... एकदम फट से पानी मिला दिया ... | "
चन्दन की बातें सुनकर आपको लग रहा होगा, उस समय मुझे हँसी आ रही होगी | नहीं - मेरा दिल आशंका से धड़कने लगा | चन्दन की ये बातें मुझे बहकी- बहकी सी लग रही थीं | अभी तक तो चन्दन ठीक से बातें कर रहा था और हम जूस की ही दुकान में दाखिल ही हुए थे | अचानक चन्दन को क्या हो गया ?
मैंने बातों को पटरी पर लाने के लिहाज से कहा, "ठीक है भैया | पानी मिला देना, पर साफ़ पानी मिलाना | "
फलों के रस की उस दुकान पर अगले एक घंटे सिर्फ रस्साकशी ही चली |
भले चन्दन ने यहाँ भांप लिया था कि उसकी तत्कालीन परिस्थिति में मेरी कोई रूचि नहीं है | फिर भी मुझे लगता था, उसे किसी संजीदा व्यक्ति की सख्त आवश्यकता थी | उसे मुझमें एक आशा की किरण दिख रही थी, क्योकि शायद उसे रिश्तो की गली में मेरी परिस्थिति का ज्ञान था और उसने मुझे हमदर्द मान लिया था | दूसरी तरफ मैं उस वार्तालाप में संलग्न होने से बचना चाहता था, क्योंकि कभी न कभी उसकी उंगली मेरी ओर भी उठेगी | वो सवाल उठेंगे जिसके जवाब देते देते मैं इतना थक गया था कि हर परिचित से , जो लम्बे समय बाद मिल रहा हो, मैं मिलने से कतराता था | और वह समस्या का अंत हुआ कहाँ था ? वह एक नए रूप में मेरे सामने खड़ी थी , जिसके संघर्ष का उल्लेख मैं किसी से करना नहीं चाहता था |
तो चन्दन बातचीत के जिस क्षेत्र में मुझे खींच रहा था , उसके ठीक विपरीत दिशा में मैं उसे खींच रहा था - बचपन के वे सुनहरे दिन , वो प्राथमिक शाला और भिलाई विद्यालय , वो दोस्त , वो शिक्षक, वे दिन | यह वह क्षेत्र था, जहाँ चन्दन से बात करने में मैं सुविधाजनक और आश्वस्त महसूस कर रहा था |
अँधेरे में शायद चेहरा नहीं दिख रहा था , इसलिए हम एक दूसरे के चेहरे के भाव पढ़ नहीं पा रहे थे | यह अच्छी बात थी |
"क्या हुआ था ?" चन्दन ने पूछा |
कब तक मैं इसी बात का जवाब देते रहूँगा ? मैंने अति संक्षेप में चन्दन को बात बताई | दो क्षण चुप्पी सी छायी रही, मैंने उस झुलसते हुए क्षेत्र से छलांग मारने की कोशिश की ," राजीव सिंह की कोई खबर है ?"
"उसका भाई मिलते रहता है यार | " चन्दन बोला ,"घर चलकर उसको फोन लगाता हूँ | "
एक दो क्षण की ही खामोशी और दिल में उथल पुथल ....| मैं सोच ही रहा थी कि अगला प्रश्न क्या पूछा जाये ताकि बातचीत का तारतम्य इस क्षेत्र में ही बना रहे | आशंका यह भी थी कि इस रिक्तता पर वह अधिकार न जमा ले | छोटा सा जवाब और फिर वही भयावह स्तब्धता... ! इससे पहले कि अगला बम फटता , शुक्र था कि जूस वाला फलों का रस लेकर उपस्थित हो गया |
"विनोद धर का क्या हाल है ?" मैंने पूछा |
"बहुत दिनों से मिला नहीं यार उससे | उसका नंबर भी मेरे पास है | भिलाई में कब आता है, कब जाता है , कुछ पता नहीं चलता | "
"क्यों ? कहाँ काम करता है ? "
"काम तो अच्छा ही है | नोट भी अच्छा कमाता है | कभी-कभी प्लांट में भी दिखता है |" फिर वह बड़बड़ाया,"बड़ा आदमी बन गया है साला |"
तो ऐसा नहीं था कि वर्तमान से कहीं दूर, सुनहरे दिनों के उस क्षेत्र में चन्दन परम शांति महसूस नहीं कर रहा था | वह भी यादों में खो जाता था | बस, यही तो मेरी भी इच्छा थी | क्या फर्क पड़ता है बाकी बातों से | हमारी दुनिया वही तो थी |
एक बार फिर भयावह रिक्तता मुँह बाए खड़ी थी | इससे पहले कि चन्दन मुझे वापिस रिश्तों की भूलभुलैया वाली गली में घसीट लाता, जूस वाला फिर हाज़िर हो गया ,"सर, कुछ और चाहिए ?"
"तू जा बे |" चन्दन चिल्लाया ,"पता नहीं क्या, ये अमेरिका से आया है ?"
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और चन्दन ने 'वन वे ' वाली सेन्ट्रल एवेन्यू में उलटी दिशा में अंधाधुंध कार दौड़ा दी | उसके या भारत के यातायात अनुशासन का एक नमूना तो मैं सायं देख ही चुका था | किन्तु इस बार मेरी सांस ही अटक गयी | द्रुतगामी कार, उलटी दिशा में - क्या होगा अगर कोई दूसरी ओर से यातायात के नियमों पर चलते हुए कोई वाहन आ जाये ..... |
"चन्दन", मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी ,"क्या हुआ ?"
चन्दन ने कोई जवाब नहीं दिया | चौराहे पर सड़क का विभाजक भी ख़त्म हो गया | अब चन्दन जरूर सड़क के बांयी ओर आएगा | पर यह क्या ? चौराहा ख़त्म करके भी चन्दन उलटी दिशा में ही चलते रहा | सड़क का विभाजक पुनः प्रारम्भ हो गया |
"चन्दन, हम लोग 'रॉंग साइड' में नहीं चल रहे हैं ?"
चन्दन ने कोई जवाब नहीं दिया | शायद उसने मेरी बात का जवाब देना भी उचित नहीं समझा | क्या वह मुझ पर ही क्रोधित तो नहीं है ?
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नहीं, चन्दन क्रोधित तो नहीं था |
"तो राजीव सिंह के भाई से बात करना है ?" घर पहुँचते ही चन्दन ने पूछा |
"गुल्लू ?" राजीव सिंह के भाई का मुझे वही नाम याद आता है | जब हम लोग शाला नंबर आठ में थे तब वह हम लोगों से तीन कक्षा पीछे पढता था | शांत स्वभाव के राजीव सिंह के विपरीत वह अव्वल दर्जे का शैतान और दुस्साहसी था - उसके चेहरे से शरारत हरदम टपकते रहती थी | और उसका पक्का दोस्त था, कालकर बहनजी का सबसे छोटा लड़का बॉबी , जो उससे भी ज्यादा शैतान था |
"हाँ, वही | प्लांट में अक्सर मिलते रहता है | "
चन्दन ने फोन लगाया | रिंग बजते रही | चन्दन झल्ला गया ,"साला, फोन नहीं उठा रहा है |" उसने दुबारा कोशिश की और फिर तिबारा | लेकिन असफलता ही उसके हाथ लगी |
तभी किसी का फ़ोन आया |
"प्रमोद मिश्रा |" वह बोला | फिर उसने फ़ोन मुझे थमा दिया |
"विजय, अभी मेरी कालकर बहन जी के लड़के से बात हुई है |" प्रमोद मिश्रा की आवाज़ में एक पल का विराम लगा ,"कालकर बहनजी का देहांत हो गया है |"
"ओह |" इससे ज्यादा उदगार प्रकट करने के लिए शब्द ही नहीं सूझ रहे थे | फिर शांति छा गयी | एक युग का अंत ... |
सुनकर चन्दन भी काफी देर तक खामोश बैठे न जाने क्या सोचते रहा | फिर बोला ,"पता नहीं | साहू सर कहाँ होंगे ? और बिजोरिया बहनजी ?"
अचानक फोन की घंटी बजी | राजीव सिंह का भाई गुल्लू था |
"कहाँ है बे ? फोन क्यों नहीं उठाता ?" चन्दन जिस लहजे में बोला, उसमें झिड़की से ज्यादा आत्मीयता का पुट था |
गुल्लू शायद कोई सफाई दे रहा था | फिर चन्दन ने पूछ लिया ,"राजीव सिंह कहाँ है ?"
उसका जवाब सुनकर उसने शायद कोई बात दोहराई ,"तो वो नहीं आ सकता ?"
उस फोन के बाद एक बात तो तय हो गयी |
"न तो कालकर बहनजी है , न राजीव सिंह ही |"
"हाँ यार |" चन्दन ने कहा ,"प्राथमिक शाला का "गेट टुगेदर" बाद में कभी कर लेंगे | पहले 'भिलाई विद्यालय' का कर लेते हैं |"
भिलाई विद्यालय के दोस्तों की सूची बनाना अपेक्षाकृत आसान था | शाला क्रमणक आठ की अपेक्षा भिलाई विद्यालय के कम मित्र ही धुंधलके में अंतर्ध्यान हुए थे | बाकि सब, इधर उधर अक्सर चन्दन से टकराते रहते थे | फिर लड़कियाँ भी तो नहीं थी |
"कौशलेन्द्र याद है ?" चन्दन ने पूछा |
"झा सर का लड़का ?"
"हाँ , वही | सेक्टर ९ अस्पताल में बहुत बड़ा डॉक्टर है |"
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भिलाई विद्यालय में कौशलेंद्र को भला कौन भूल सकता था ?
तिलक जयंती हो, शिक्षक दिवस हो, सम्भाषण हो या वाद-विवाद | अगर कौशलेन्द्र मंच पर न दिखे तो लोग पहले आँखें मलते थे, फिर सर खुजलाते थे | छोटा कद, घुटा हुआ सर, जिसमें एक चोटी परिलक्षित होती थी | ऐसा चेहरा-मोहरा उन दिनों काफी कम देखने में आता था | मुझे याद है, जब दादा और दादी की मौत हुई थी और मेरा मुंडन हुआ था, मैं गाँधी टोपी या काली टोपी पहन कर शाला जाता था | लेकिन कौशलेन्द्र को इसमें कोई भी असुविधा नहीं थी | उस पर कोई कुछ भी कहे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था | और जब वह मंच पर आता था, तो लोग दम साधे उसकी बाते सुनते ही रहते थे |
अचानक झा सर के खुशहाल परिवार पर एक गाज़ सी गिरी | कौशलेन्द्र की बड़ी बहन की डॉक्टरों की लापरवाही के कारण अकाल मृत्यु हो गयी थी |
"...कौशलेन्द्र आजकल बहुत उदास रहता है। ..|" चन्दन ने बताया था ,"डेस्क में सर छुपाकर कुछ-कुछ संस्कृत के श्लोक कहते रहता है | तू बात करेगा उससे ?"
तब तक कौशलेन्द्र से थोड़ी बहुत बातचीत जरूर थी | इस दुखद समाचार को घर में बाबूजी ने खुद ही बताया था | मेरी बड़ी बहन भी उन्हीं की कक्षा में पढ़ती थी | इस तरह इस दुखद समाचार की मुझे जानकारी अवश्य थी, लेकिन किसी मित्र को, जिसने अपना परिजन खोया हो, सांत्वना देने का ये मेरा प्रथम प्रयास था | ऊपर से कौशलेन्द्र से आज तक मैंने कभी आमने-सामने बात ही नहीं की थी | था भी तो वह था चन्दन के वर्ग 'अ' में | इसलिए कभी मुलाकात की गुंजाइश आधी छुट्टी या पांच मिनट के लघु अवकाश में ही हो सकती थी कौशलेन्द्र स्वाभाव से काफी हँसमुख लड़का था | उसके चेहरे पर मैंने हरदम हँसी ही देखी थी | कई बार मुझे लगता था कि सख्त झा सर ने अपने घर में हँसने पर प्रतिबन्ध लगा रखा है, इसलिए कौशलेन्द्र अपनी हसरत विद्यालय में ही निकालता था | उसके आलावा कौशलेन्द्र मंच पर हमेशा छाया रहता था, इसलिए काफी लोकप्रिय था | ऐसे लोग हमेशा मित्रों से घिरे रहते हैं | ऐसा हो ही नहीं सकता था कि आप ऐसे लोगों से बातचीत करें और बातचीत में तीसरा, चौथा और कई बार कोई पाँचवां सम्मिलित न हो |
बाहर तेज़ बारिश हो रही थी | दूसरी मंज़िल के कोने वाले कक्ष में सातवीं 'अ' की कक्षा लगती थी | चन्दन ने मुझे छोर की दीवार के पास इंतज़ार करने का इशारा किया |
"बात करेगा ? दो मिनट रुक | मैं बुला कर लाता हूँ |"
पाँच मिनट का लघु अवकाश था | भिलाई विद्यालय की नई इमारत की वह दूसरी मंज़िल थी | चन्दन कौशलेन्द्र को बुलाकर लाया जरूर ,पर वह खुद खिसक गया |
"सुनकर बड़ा दुःख हुआ |" मैंने शब्द पिरोने की कोशिश की , "कैसे हो गया ?"
ये वो शब्द थे , जो न जाने मैंने कितने बार सुने और खुद भी दोहराये थे |
...सात तरु मार्ग और सेन्ट्रल एवेन्यू बारिश में चांदी की तरह चमक रहे थे | जिस जगह वे मिल रहे थे, उस चौराहे पर २५ मिलियन टन का प्रतीक चिन्ह लगाया गया था |
बरसती वर्षा की पृष्टभूमि के सम्मुख कौशलेंद्र की आंखों में मैंने उस दिन दृढ संकल्प, उद्देश्यों का निर्धारण और अदम्य , अटूट निश्चय की एक झलक देखी थी |
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मेरे कुछ कहने के पूर्व ही चन्दन ने डॉक्टर कौशलेन्द्र को फोन लगा दिया | रिंग बजते रही और फिर बंद हो गयी
"तू उससे बाद में बात कर लेना | ले, नंबर नोट कर ले |"
"अब कौन ?"
"चल, तुझे मुरली से मिलाता हूँ |" चन्दन ने कहा | वही तो वे शब्द थे, जो उसने मुझसे वर्षों पहले कहे थे |
एक मिनट .. एक मिनट ... सीधे मुरली क्यों ? बीच का एक बड़ा सा खाना मुझे रिक्त दिखा |
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मुरली कौन ?
मुरली ने जब भिलाई विद्यालय में कदम रखा तो एक तहलका सा मच गया था |
"अबे , उसने वाजपेयी सर को भी चैलेंज कर दिया |" चन्दन की आँखों में चमक थी |
सातवीं कक्षा के वर्ग 'अ' में वाजपई सर अंग्रेजी के सबसे ज्यादा सम्मानित शिक्षक थे | वर्ग 'ब' के अंग्रेजी शिक्षक लम्बे चौड़े सिख - शेर सिंह रंधावा सर थे और हमारे अंग्रेजी के शिक्षक मज़ेदार , लेकिन कड़क गोस्वामी सर थे |
मुरली के सम्बन्ध में कई तरह भ्रांतियां और किंवदंतियां हवा में तैर रही ी, जो थमने का नाम नहीं ले रही थी | सबसे पहले ये सुनने में आया कि उसके पिताजी "स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड" पर एक बहुत बड़े पद पर थे और स्थानांतरित होकर आये थे | घर में अंग्रेजी का माहौल था | मुरली फर्राटेदार नहीं, बल्कि झन्नाटेदार अंग्रेजी बोला करता था | कुछ किस्से ऐसे थे कि पहले मुरली को सेक्टर ४ और सेक्टर १० के अंग्रेजी विद्यालयों में प्रविष्टि दिलाने की कोशिश की गयी, लेकिन अँगरेज़ के बेशरम वंशज नियम और कायदे कानून दिखाने लग गए | तब मुरली के पिताजी ने ताल ठोंककर कहा, ठीक है, मेरा लड़का हिंदी माध्यम में पढ़कर ही तुम्हे आइना चमकाएगा |
और आते ही साथ मुरली ने डंका बजाना शुरू किया | अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय भी अपने यहाँ अंतर-शालेय सम्भाषण , वाद विवाद की प्रतियोगिताएं रखा करते थे | जाहिर है, उनकी प्रतियोगिताएं अंग्रेजी में ही होती थी | वे खानापूरी के लिए हिंदी माध्यम की शालाओं में भी आमंत्रण भेजते थे | और खानापूरी के लिए ही हिंदी माध्यम वाले अपने प्रतियोगी भेजा करते थे | उच्चतर कक्षाओं में अंग्रेजी के एकाध वक्त जरूर थे, लेकिन माध्यमिक कक्षाओं में दूर दूर तक कोई नहीं था | अब इन सब बातों का जवाब मुरली था |
१९७७-७८ को भारत का ऑस्ट्रेलिया दौरा चल रहा था | जेफ़ थॉमसन को संसार का तेज़ गेंदबाज़ माना जाता था |
चन्दन बहुत उत्साहित था "अबे | लोग बोलते हैं, उसकी बॉल नहीं दिखती | बैट्समेन लोग बॉल की धूल देखकर मारते हैं | "
दूसरा कहता, "बेदी तक की बॉल नहीं दिखती | इतनी तेज़ बॉल आती है | साइट स्क्रीन में देखना पड़ता है |"
बात चल ही रही थी कि चन्दन ने मुझे एक ओर खींचा |
"चल, तुझे मुरली से मिलाता हूँ |" चन्दन बोला | मन के एक कोने से आवाज़ उठी,"क्यों ,क्यों, क्यों ? मैं वैसे ही ठीक हूँ | "
"ठीक है |"मरी आवाज़ में मुँह से यही निकला |
चंदन मुरली को लेकर आया |
तो ये मुरली है | दुबला पतला, थोड़ा सामने झुका हुआ | यानी थोड़ी सी कूबड़ निकली हुई | करीने से इस्तरी किये हुए वस्त्र | मैंने तपाक से हाथ बढ़ाया ,"मुरली मियां | बढ़ाओ दोस्ती का हाथ |"
तो जब मुरली ने अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में विभिन्न प्रतियोगिताओं में झंडे गाड़ने शुरू किये तो भिलाई विद्यालय के अंग्रेजी विभाग में नए जीवन का संचार हुआ | अब मुरली के जोड़ीदार की तलाश शुरू हुई जो अंग्रेजी के वाद-विवाद में मुरली के साथ मिलकर भिलाई विद्यालय की चुनौती पेश कर सके | उनको ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी | उन्हें मुरली के टक्कर का तो नहीं, पर उतना प्रबल वक्ता तो मिल ही गया जो मुरली के साथ वाद-विवाद का दूसरा पक्ष संभाल सके |
मुरली की इस सफलता ने दूसरे वर्ग के लोगों को भी प्रोत्साहित किया | वर्ग 'ब' में अंजय और शरद निगम को शेर सिंह सर ने चाभी भरी | वे भी मैदान में आये, लेकिन मुरली और उसकी जोड़ी बदस्तूर जमी रही | लेकिन वह तो न केवल अंग्रेजी वरन हिंदी का भी अच्छा वक्ता था |
"और आशीष ?आशीष पुरंदरे ? " मैंने पूछा |
"आशीष तो ख़तम हो गया |" चन्दन ने जवाब दिया |
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"चल, मैं बाकी सब से बात कर लूंगा |" चन्दन ने थोड़ी ख़ामोशी के बाद कहा | कहीं न कहीं से टपकती कोई बुरी खबर से वह भी परेशान हो गया |
तभी दरवाजे पर खटखट हुई | चन्दन ने दरवाजा खोला |
"अभी आ रहा है बे ?" चन्दन बोला,"तीन दिन से खटिया तोड़ रहा था ? वो तो हॉस्टल भी चले गयी | चल, बहाना बना फ़टाफ़ट |"
"सर, मैं बस आ ही रहा था | " दाढ़ी वाले ने हँसते हुए कहा |
"कौन है ये ?" मैंने पूछा |
"इंटरनेट वाला |" चन्दन बोला ,"बहुत लूटते हैं साले | अपने को तो पता नहीं चलता | जब बच्चे आते हैं तो बोलते हैं, पापा इंटरनेट बहुत धीमा है | सेल, पैसे लेंगे राकेट का और स्पीड देखो तो बैलगाड़ी की |"
"नहीं सर, स्पीड तो अच्छी ही है |"
"चुप बे | "
"अभी टेस्ट कर लेते हैं |" मैंने कहा ,"चन्दन, किधर है तेरा कंप्यूटर ?"
कमरे के एक कोने में एक डेस्कटॉप था | जिसके मॉनिटर पर धूल से बचाने के लिए कवर लगा था | चन्दन ने कपड़ा हटाते हुए कहा ,"अमेरिका से मेरा दोस्त आया है | अभी पता चल जायेगा |"
कम्प्यूटर के चालू होने में ही बहुत समय लग गया |
"आपका कम्प्यूटर ही पुराना है सर |"
"चुप बे | बच्चों के पास लैपटॉप है |" चन्दन ने डपट दिया |
घरेलू कामों के लिए कम्प्यूटर का 'कॉन्फिगरेशन' कोई बुरा नहीं था | 'ए. एम. डी.' का प्रोसेसर था | रेम भी चार जी. बी. का था |
"ठीक है | 'यू ट्यूब' चालू कर |" मैंने कहा |
"क्या ?" चन्दन कुछ समझा, कुछ नहीं , "तू इधर आ | बैठ इधर |"
उसने मुझे डेस्कटॉप के सामने बैठा दिया | दिसंबर की ठण्ड में उसने एक मिनट के पंखा चालू किया और फिर बंद कर दिया | मैंने इंटरनेट चालू किया और पुरानी अमिताभ बच्चन वाली "डॉन" का गाना खोजकर चलाने की कोशिश की | गाना थोड़ा 'बफर' हुआ, चला, फिर रुक कर बाकी हिस्सा 'बफ़र' होने लगा |
"देख लो भइया |" मैंने इंटरनेट सर्विस वाले को कहा |
"सर आपका कम्प्यूटर पुराना हो गया है |"
इससे पहले मैं कुछ कहता, चन्दन भड़क गया | मैंने बात संभाली,"ए. एम. डी. प्रोसेसर और चार जी बी 'रेम' ... | "
चन्दन ने भी सुर बदला,"अबे, मेरा दोस्त अमेरिका से आया है |"
"सर, आपके कंप्यूटर में 'मालवेयर' होगा |"
"वो सब हम बाद में देख लेंगे | तुम अपनी 'स्पीड चेक' कर लो | या हम इस 'पुराने' कम्प्यूटर पर 'स्पीड टेस्ट' करें ?"
उसने आखिरी दांव खेला,"सर, आपका प्लान इतने का ही है | आप ऊँचा वाला प्लान ले लो |"
चन्दन ने कागज़ पत्र खंगाले और सर्विस एग्रीमेंट निकाल लाया | घरेलु उपयोग के लिए वह पर्याप्त था |
"इसमें जितने एम्.बी.पी.एस. लिखा है, उतनी स्पीड दिखाओ |" मैंने कहा |
"सर, ये तो सबसे ज्यादा स्पीड है | ऊपर नीचे तो होते रहता है | जैसे आप गाड़ी खरीदते हैं तो जितना माइलेज लिखा रहता है, उतना ... "
"कहाँ की बात कहाँ भिड़ा रहे हो यार ?"
अब चन्दन को शह मिल गयी ,"चल तो बे , अपने मालिक को फोन लगा | जबान लड़ाता है ?"
हारकर इंटरनेट वाले ने स्पीड चेक की | वाकई काफी धीमी स्पीड निकली |
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इंटरनेट वाले के अकस्मात् आगमन का फल यह हुआ कि बातचीत की दिशा ही बदल गयी |
"तू 'फेसबुक' उपयोग करता है ?" चन्दन ने पूछा ,"करता ही होगा |"
"हाँ |", मैंने कहा |
"बड़ी लड़की ने मेरा अकाउंट बनाया है |" चन्दन बोला |
"ओह अच्छा | तब तो हम दोनों को दोस्त बन जाना चाहिए - 'फेसबुक' में |"
"एक मिनट रुक | मैं तुझे अपना एकाउंट नाम बताता हूँ | मैंने संभाल कर रखा है |" चन्दन डायरी के पन्ने उलटने लगा |
"उसकी जरुरत नहीं है | मैं तुझे खोज लेता हूँ |" मैंने कहा |
मैंने 'फेसबुक' के 'सर्च बार' पर "चंदनदास + भिलाई " टाइप किया | दो-तीन चेहरे फुदककर बाहर आये | उसमें चन्दन का प्रोफाइल एक था |
"ये तू है ?" मैंने चन्दन पूछा |
चन्दन हैरानी से मेरी ओर देख रहा था ,"तूने ये कैसे किया ? हाँ , हाँ | मैं ही हूँ |"
मैंने चन्दन को एक 'फ्रेंड रिक्वेस्ट' भेजी ,"मैं तुझे एक 'फ्रेंड रिक्वेस्ट' भेज रहा हूँ | जब तू 'लॉग ऑन' करेगा तो मेरा 'रिक्वेस्ट' 'एक्सेप्ट' कर लेना |"
"क्या करना है ?"
"कुछ नहीं | 'एक्सेप्ट' बटन दबा देना |"
"उससे क्या होगा ?"
"कुछ नहीं | हम दोनों दोस्त बन जायेंगे - 'फेसबुक' में | "
ओह, मैं स्क्रीन पर देखते हुए उससे बातें किये जा रहा था | मुझे उसका चेहरा तो एक बार देख लेना था, जहाँ पहेलियों का अम्बार जमा हो गया था |
"ठीक है | एक काम करते हैं |" मैंने कहा,"तू अपना "युसर नाम और पासवर्ड लेकर आ और यहाँ बैठ |"
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"आजकल बच्चे लोग भी कहाँ बताते हैं यार ?" चन्दन भुनभुना रहा था |
"क्या ?" मैं चन्दन की बात सुनी-अनसुनी कर रहा था ,"देख भाई | बच्चों ने ही तो तेरा 'फेसबुक' अकॉउंट बनाया है | हाँ या नहीं ? "
क्या ये वही चन्दन था ? चन्दन तो कभी लचर नहीं था |
"कुछ नहीं रखा इन सब में चन्दन भाई | अरे, जब त्रिकोणमिति, क्षेत्रमिति , गुणात्मक और हरात्मक श्रेणी के भारी-भरकम सवाल हल कर डाले हैं अपन ने तो ये बटन दबाना कौन सी बड़ी बात है ? मैं हूँ न | तू मुझे बता, तू चाहता क्या है ? मैं तुझे अभी तोप बना देता हूँ | "
"तू लोगों को खोज कैसे लेता है ?"
"देख वो खाली डब्बा दिख रहा है ? वही जिसके बगल में आवर्धक लैंस की तस्वीर बानी है ? वहां कोई भी नाम टाइप कर |"
"कोई भी नाम ? "
"हाँ | लेकिन उसका फेसबुक में खाता भी तो होना चाहिए |"
अब चन्दन थोड़ा सोच में पड़ गया | वैसे भी वह एक-एक अक्षर खोज खोज के एक उंगली से टाइप कर रहा था | उसने जो दो चार अक्षर टाइप किये थे, उसे मिटा दिया और कुंजी-पटल मेरी ओर खिसकाते हुए बोलै,"तू टाइप कर यार |"
"क्या टाइप करूँ ?"
"जो बोल रहा हूँ , टाइप कर .... एन. ए. एन... | "
मैं काँप गया |
राजीव जावले बचपन का दोस्त था | प्राथमिक शाला से ही चन्दन और वह सहपाठी थे | भिलाई विद्यालय में भले अलग-अलग वर्ग में थे, लेकिन जब कोचिंग-कक्षाएं प्रारम्भ हुई तो चन्दन और वो फिर एक छत के नीचे आ गए | आगे दुर्ग पॉलिटेक्निक में भी साथ में थे | तो दूसरे वर्ष के शुरू में रैगिंग लेने के दौरान चन्दन ने राजीव जावले को जम कर पीटा | प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं कि चन्दन के सर पर मानो खून सवार हो गया था |
जो मुझे कारण पता चले, उसमें मुझे चन्दन की लेशमात्र भी गलती नहीं दिखी | चन्दन की जगह मैं , आप या कोई और भी होता तो अगर हाथापाई नहीं तो कम से कम कहा-सुनी अवश्य हो जाती | और चन्दन तो वह था, जो दिल के पास रखी तस्वीरों पर हलकी सी खरोंच भी बर्दाश्त नहीं कर पाता था |
हुआ यह कि रैगिंग के दौरान सेक्टर चार के अंग्रेजी माध्यम विद्यालय से एक छात्र दुर्ग पॉलिटेक्निक में आया था | यह सामान्य सी बात है कि रैगिंग के दौरान लोग खूबसूरत लड़कियों की बातें बीच में ले ही आते हैं और फिर जूनियर के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भावों को देखकर प्रफुल्लित होते हैं | जब उसको पता चला कि पंछी सेक्टर चार अंग्रेजी माध्यम विद्यालय से पंख फड़फड़ाकर आया है तो उस आशिक मिज़ाज़ी राजीव जावले ने बातों-बातों में पूछ लिया ,"तू एन. डी. को जानता है ?" और रैगिंग लेने वाले लड़कों की उस छोटी सी भीड़ में चन्दन भी था .... |
नाम टाइप करते समय मेरी उंगलियां मानो जवाब दे रही थी | मेरे सर पर वह बब्बर शेर खड़ा था जिसने जावले का भुर्ता बना दिया था | किसी तरह टाइप करके मैंने 'इंटर' की कुंजी दबाई | काश, उसकी प्रोफाइल ना हो | जितने भूले भटके चेहरे सतह पर उभरे , मैं उन्हें ऊपर सरकाते जा रहा था |
"रुक | रुक.... | अबे रुक बे ...| हाँ, उस फोटो पर क्लिक कर .... |"
वह एक क्षण फोटो देखते रहा | फिर मुझसे बोला ," तू अमेरिका में कहाँ पर रहता है ?"
"मैं ? कैलिफ़ोर्निया एक प्रदेश है ... |"
"ये भी कैलिफोर्निया में रहती है | तू कौन से शहर में रहता है ?"
"मैं तो प्लीसैंटॉन में रहता हूँ |"
"फ्रीमोंट वहां से कितनी दूर होगा ?"
"मैं प्लीसैंटॉन में रहता हूँ और ऑफिस सांता क्लारा में है | दोनों के बीच में फ्रीमोंट है |"
"ये मेरे चाचा की लड़की है |"
मेरे मुँह से निकला ,"मैं जानता हूँ |" फिर तुरंत संभल कर बोला ,"हाँ | तूने मुझे स्कूल के दिनों में बताया था |"
"हाँ-हाँ | सेक्टर चार में थी | "
चन्दन के जीवन में किसी ने गहरा प्रभाव डाला था , बल्कि एक उद्दंड बालक के मन में पढ़ाई के प्रति रुझान अगर किसी ने उत्पन्न किया था , तो वही थी जिसकी प्रोफ़ाइल सामने खुली थी | चन्दन बोले जा रहा था, " पति- पत्नी ने मिलकर एक कंपनी खोली है | तूने '...... ' का नाम तो सुना ही होगा ?"
चन्दन कुछ बोल रहा था, मुझे कुछ और याद आ रहा था | शायद दसवीं में चन्दन मुझसे भौतिक के 'कारण बताओ' जैसे कुछ प्रश्न पूछता था और मैं उनके जवाब दे दिया करता था , क्योंकि वे प्रश्न रुसी पुस्तक 'मनोरंजक भौतिकी' से होते थे , जो मैं बीच बीच में पढ़ लिया करता था |
चन्दन को कई बार आश्चर्य होता ,"तुझे कैसे मालूम ?"
"पता नहीं यार | जिसने तुझे प्रश्न दिया और तू जिससे वह प्रश्न पूछ रहा है, हो सकता है, दोनों ने एक ही किताब पढ़ी हो |"
चन्दन ने आगे पूछा, " नहीं सुना ?"
"हाँ | हाँ , सुना है यार |" मैंने कहा, " सिलिकॉन वैली' में बड़ा नाम है | तेरी तरफ से इसको 'फ्रेंड रिक्वेस्ट' भेज दें ?"
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अगर इस 'सर्च' से मुझे पांव के नीचे से ज़मीन खिसकती महसूस हुई थी तो चन्दन के अगले 'सर्च' की फरमाइश ने तो मुझे चारों खाने चित्त कर दिया |
चन्दन एक-एक अक्षर बहुत ही सावधानी से धीरे धीरे बोल रहा था , मानो दीवारों के भी कान होते हों | हो सकता है, दीवारों के भी कान होते हों | मुझे क्या पता था ?
"यार, घर में हम लोग सब काले हैं |"
"अरे छोड़ न यार चन्दन |" मैंने तत्काल प्रतिवाद किया , "क्या फरक पड़ता है यार ?"
"नहीं यार | चाचा के बच्चे देखो | कैसे गोरे- चिट्टे हैं, रशियन जैसे | इसलिए पिताजी चाहते हैं कि हम लोगों की शादी गोरी लड़की से हो ताकि हमारे बच्चे भी गोरे हों | "
अब भिलाई विद्यालय में वयः संधि की उम्र थी | सपने देखने पर कोई टैक्स तो था नहीं | पर मुझे क्या मालूम था, बल्कि यूँ कहूं कि मुझ अनजाने को छोड़कर सारे जहान को मालूम था कि चन्दन भाई मुहब्बत की गिरफ्त में फँस चुके हैं |
पता नहीं, मुहब्बत में शायद वो शक्ति होती है जो किसी को भी या तो काफी सबल बना देती है या काफी कमज़ोर | यह काफी हद तक संभव था कि वह चन्दन के लिए उन दिनों किसी प्रेरणा शक्ति का काम करते रही |
मगर अब ? इस समय ? हाँ | संयोग से वह प्रोफाइल भी 'फेसबुक' में दिख गया |
न तो मैंने कुछ पूछा , न उसने कुछ कहा | एक आशंका सी रही कि वह कहीं 'फ्रेंड रेकवेस्ट' भेजने न कह दे | अगर वह कहता तो भी मैं मना कर देता | दीवाना वह था, मैं नहीं |
हो सकता है, मैं कुछ ज्यादा ही सोच रहा था |
क्या रस्साकशी में चन्दन जीत गया था ?
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वे विलुप्त लोग, अदृश्य हुई छाया , खोयी हुई छवि ....
क्या सब आएंगे ? के कोई आएगा भी ? क्या कुछ लोग आएंगे और कुछ संकोच की जंजीरें तोड़ नहीं पाएंगे ?
क्या लोगों के चेहरे बदल गए होंगे ? क्या चेहरे वही होंगे और आवाज़ बदल गयी होगी ? या आवाज़ ही पहचान होगी ? हो सकता है, चेहरे और आवाज़ दोनों बदल गए होंगे |
सब से पहले भौला गिरी मिला , जिसकी न तो आवाज़ बदली थी और न ही चेहरा |
भिलाई विद्यालय में एक-एक करके सारे मित्र इकठ्ठा होने लगे |
समय तो दिया गया था नौ बजे और मैं नौ बजे पहुँच भी गया | लोग तो नहीं आये , हाँ किसी किसी के फोन जरूर आ रहे थे, "कितने लोग आये ? क्या सब लोग आ गए ? कितने बजे शुरू होगा ?" अंत में , "मैं बस अभी निकल ही रहा हूँ |"
एक मिनट - क्या वो भोला गिरी है ? हाँ , वह भोला गिरी ही तो था | प्राथमिक शाला में उसकी गतिविधियां देखकर कोई भी भविष्यवाणी कर सकता था कि वह बांका कसरती जवान होगा | पर ये क्या ? भोला तो दुबला पतला .. ऊंचाई भी कोई ख़ास नहीं बढ़ी | चेहरे और चेहरे की मुस्कान देखकर ही ज्ञात होता था कि यह भोला ही है |
मैं और भोला एक कमरे में बैठे थे | उस चौगड्डे का एक प्रमुख सदस्य - भोला , लगता था , किसी बोझ से दबे जा रहा था | उसके पास बताने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था | उसके पास पूछने की भी शक्ति तो नहीं थी | वह केवल सुनना चाहता था |
जिस तरह मेरा मन पीछे भाग रहा था, शायद उतनी ही तेज़ी से उसका मन भी अतीत में कुछ टटोल रहा था |
"विजय भाई, पिछले दिनों मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी थी | किसी शाला के कुछ लोग पैंतीस साल बाद एक दूसरे से मिले |"
"चालीस साल तो अपने को भी हो गया है यार - प्राथमिक शाला से निकले |"
"क्यों न हम लोग भी अपने प्राथमिक शाला का सम्मिलन आयोजित कर लें ? मज़ा आ जायेगा गुरु || "
"पहले मैंने और चन्दन ने वही सोचा था कि पहले प्राथमिक शाला के लोग ही मिल लें | लेकिन राजीव सिंह तो अभी यहाँ है नहीं | उसके बिना कोई कार्यक्रम आयोजित करने की सोच भी नहीं सकते |"
राजीव सिंह का नाम सुनते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी | चन्दन का उल्लेख आते ही उसके हाथों में हरकत सी हुई | लग रहा था, मन के किसी कोने में प्रसुप्त बालक भोला गिरी अंगड़ाई ले रहा है |
"विनोद धर कहाँ है विजय भाई ? प्रमोद मिश्रा तो कभी कभी दिख जाता है | एक बार मनमोहन को दूर से देखा था | बहुत लम्बा हो गया है |"
भोला के साथ बातें करते-करते समय का पता ही नहीं चला | नीचे भिलाई विद्यालय के लॉन में, जिसमें हमें बागवानी के पीरियड में घास उखाड़ने का अनुदेश मिलता था,, एक कोलाहल सा हुआ और फिर हम लोगों की तन्द्रा टूटी |
ढेर सारे लोग इकठ्ठा हो गए थे | कुछ लोग पहचान में आ रहे थे , कुछ नहीं | अंगारे सर की बात याद आ रही थी,"जिनके बाल पकते नहीं, उनके बाल झड़ जाते हैं |
हाथ में पट्टी बाँधे सुरेश बोपचे खड़ा मुस्कुरा रहा था | विनोद धर किसी के साथ ठिठोली कर रहा था | भोला गिरी को देखते ही दोनों उसकी ओर लपके | अचानक भोला के उत्साह से बढे कदम कुछ धीमे पड़ गए |
पर चन्दन कहाँ था ?
न जाने कितने चिर परिचित चेहरे इतने वर्षो के बाद दिख रहे थे | शरद निगम, प्रदीप पाटिल, अंजय, राणा प्रताप, वज़ी, सूर्य, इंद्रजीत , रामवृक्ष, अप्पाराव , अनिल नारखेडे, कृष्णेश्वर, अजय कौशल, गौर, मनमोहन ... |
पर चन्दन कहाँ था ?
उसको फोन लगाया पर उसका फोन 'ऑफ' था |
जब हर्षोल्लास थोड़ा सा शांत हुआ, तब प्रतीक ने कहा," चलो, झा सर को लेकर आते हैं |" जो कार लेकर आये थे, उन्होंने अपनी कार की पेशकश की | अब तय हो रहा था कि किसकी कार इस कार्य के लिए सर्वोत्कृष्ट है |
तभी अचानक जोर का कोलाहल हुआ और चन्दन आ गया |
चन्दन के आते ही मानो महफ़िल में नया रंग छा गया | सब के सब चन्दन पर टूट पड़े |
लम्बे अंतराल के बाद चौगड्डा आज फिर इकठ्ठा हुआ था - भोला गिरी, सुरेश बोपचे , विनोद धर और चन्दन | प्लास्टर बंधे हाथ को हिलाकर सुरेश बोपचे ने किलकारी भरी | चन्दन अपनी मुस्कान छिपाने की भरपूर कोशिश कर रहा था | ख़ुशी किसी भी क्षण फूट कर बाहर आने ही वाली थी |
ठिठोली की मुद्रा में बाहें फैलाये, विनोद धर नाटकीय अंदाज़ में आगे बढ़ा ,"कालू मेरे दोस्त |"
अचानक सब कुछ ठहर सा गया | चन्दन के आँखें गुस्से से लाल हो गयी | उसके कदम ठिठक गए थे |
मेरे लिए यह दृश्य कोई नया नहीं था | प्राथमिक शाला में अनेकों बार इसकी पुनरावृत्ति हुई थी | अब चन्दन विनोद धर को कस के मुक्का जमायेगा | विनोद धर खींसे निपोरेगा और इधर उधर भागेगा | भोला गिरी बीच बचाव करेगा , सुरेश बोपचे चन्दन के गले में हाथ डालकर समझायेगा | विनोद धर बेशर्मी से हँसते ही रहेगा और फिर चन्दन भी मुस्कुरा देगा | बिलकुल यहीहोने वाला है ... | एक, दो, तीन... !
ऐसा कुछ नहीं हुआ | विनोद धर जरूर बेशर्मी से हँसते रहा | चन्दन की मुट्ठियां भीजी जरूर | लेकिन यह क्या ? भोला गिरी मानो सकपकाया सा खड़ा था | माना कि सुरेश बोपचे का हाथ जरूर टूटा था, पर वह निर्विकार सा खड़े रहा |
क्या इन दशकों में इनके बीच इतनी ऊँची-ऊँची अदृश्य दीवारें खिंच गयी हैं ?
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"तू कहना क्या चाहता है ?" सूर्य प्रकाश ने मुझसे पूछा |
काफी समय बाद हम इस बात की विवेचना कर रहे थे |
"मुझे मालूम है यार | विनोद धर मज़ाक ही तो कर रहा था | अरे वैसे ही यार, जैसे हम स्कूल में ... "
"टूल्लू , एक बात कहूं ? " सूर्य बात काटकर बोला ,"अब हम लोग प्राथमिक शाला में नहीं है | और यही सच्चाई है |"
हाँ, यही तो सच्चाई थी | उन चारों में भोला गिरी सबसे पीछे छूट चुका था | अगर विनोद धर अभी भी बच्चा ही था तो क्या , चन्दन को परिस्थितियों ने प्रौढ़ बना दिया था | और सुरेश बोपचे ने फैक्टरी चलाते-चलाते इतना तो सीख ही लिया था कि अपने काम से ही काम रखना चाहिए |
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तो सम्माननीय शिक्षक झा सर थे | कौशलेन्द्र के पिताजी , संस्कृत वाले झा सर नहीं, रसायन वाले झा सर |
शिक्षक की कुर्सी पर झा सर बैठे थे | एक-एक करके छात्र आते और भिलाई विद्यालय से सम्बंधित अपने अनुभव सुनाते | प्रतीक भोई ने शुरुआत की | अजय पोफली ने उसे आगे बढ़ाया | हर वक्ता के वक्तव्य ख़त्म होने पर मांग उठती -"'चन्दन', 'चन्दन' | कहाँ है चन्दन ?"
कहाँ था चन्दन ? मैं अपना वीडियो कैमरा शूटिंग के लिए ले गया था और चन्दन कैमरे के पीछे छिप गया था | वह शूटिंग कर जरूर रहा था, लेकिन अपने-आपको जरुरत से ज्यादा व्यस्त भी दिखा रहा था |
हर जाने वाले वक्त के साथ "चन्दन", "चन्दन" की आवाज़ जोर पकड़ते जा रही थी | और झा सर भी मुस्कुरा देते थे | क्या झा सर के मुस्कुराने और चन्दन के मंच पर ना जा पाने में कोई तार-तम्य था ?
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अगर किसी को बंदूक से गोली दागनी हो तो चन्दन का कन्धा हमेशा हाज़िर रहता था | ग्यारहवीं कक्षा ऐसी थी जब हर छात्र , या यूँ कहा जाये तो विज्ञानं- और खासकर गणित पढ़ने वाला एक मध्यम श्रेणी का छात्र - तीन विषय - भौतिक, रसायन और गणित कम से कम दो शिक्षकों से पढता था | एक- कक्षा के अंदर और दूसरा कक्षा के बाहर | गणित के लिए सिन्हा सर और त्रिपाठी सर इस सन्दर्भ में विख्यात और कुख्यात थे | संयोग से दोनों अच्छे मित्र भी थे | वैसे देखा जाए तो गणित के ही गनी सर की अलग ही धाक थी |
कक्षा के अंदर शिक्षक अपनी नौकरी बजाते थे और कक्षा के बाहर वे ट्यूशन पढाते थे | ट्यूशन के मामले में त्रिपाठी सर और सिन्हा सर दोनों पक्के व्यवसायी थे और इसलिए त्रिपाठी सर का तबादला राजहरकी शाला में कर दिया गया | लेकिन त्रिपाठी सर तिकड़म भिड़ाकर भिलाई वापिस आ गए थे |
तो ट्यूशन को इज़्ज़तदार नाम देने के लिए त्रिपाठी सर ने कृष्णा कोचिंग सेंटर की स्थापना कर दी | प्रारम्भ में उसमें दो ही शिक्षक थे | त्रिपाठी सर खुद गणित और भौतिक पढ़ाते थे और उनके छोटे भाई, रसायन पढ़ाते थे |
तो हमारी कक्षा के कई छात्रों ने कृष्णा कोचिंग में प्रवेश लिया | त्रिपाठी सर की ख्याति हिंदी माध्यम शालाओं में- खासकर भिलाई विद्यालय में काफी ज्यादा थी | राजीव जावले, रवींद्र कर्मकार,अजय कौशल, ललित -सब कृष्णा कोचिंग में थे | चन्दन तब तक पढ़ाई को लेकर काफी गंभीर हो गया था | सबके साथ बहते हुए उसने भी कृष्णा कोचिंग में दाखिला ले लिया |
अब आता है, कढ़ी में उबाल | हुआ यह कि त्रिपाठी सर भौतिक और गणित भले ही अच्छा पढ़ाते हों, लेकिन उनके भाई रसायन के उतने अच्छे शिक्षक नहीं थे || फलतः छात्रों में असंतोष बढ़ते गया | यह स्वाभाविक भी था | पिताजी के खून पसीने की कमाई का पैसा था और चन्दन जैसे छात्रों के लिए तो ये बहुत ही मायने रखता था |
जब असंतोष काफी बढ़ गया तो निश्चय लिया गया कि क्यों न त्रिपाठी सर से ही सीधे बात की जाये | लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? एक सम्मिलित मोर्चा बनाने के लिए भी छात्र तैयार नहीं थे | एक ही तो छात्र था, जिसमें हवा भरी जा सकती थी | वह खड़ा भी हो गया और सब उसकी आड़ में छिप गए |
त्रिपाठी सर से एकांत में मिलकर चन्दन ने छात्रों की व्यथा उनसे बयान कर दी | कुछ भी कारवाही करने के बजाय त्रिपाठी सर बिफर गए |
"अगर तुम्हें लगता है कि कृष्णा कोचिंग से तुम्हें अच्छी सेवाएं नहीं मिल रही हैं तो तुम बाहर जाने के लिए स्वतंत्र हो | मैं तुम्हारा पैसा वापिस कर दूंगा |"
और एक व्यावसायिक दृष्टिकोण रखने वाले त्रिपाठी सर ने, इससे पहले कि कोई विद्रोह भड़के, चन्दन को कृष्णा कोचिंग से मुक्त कर दिया | इतना ही नहीं, उन्होंने भिलाई के सबसे अच्छे रसायन के शिक्षक सेक्टर १ के वर्मा सर और भौतिक के लिए भिलाई विद्यालय के ही हल्दकार सर को अनुबंधित कर लिया |
त्रिपाठी सर के प्रतिद्वंदी थे- सिन्हा सर | लेकिन उनके अच्छे मित्र भी थे | चन्दन तैश में भी था और अति आत्मविश्वास में भी | खुले आसमान पर उड़ने वाले चन्दन को उस वक्त धरती घूमती हुई नज़र आयी जब सिन्हा सर ने उसे गणित के लिए ट्यूशन देने से मना कर दिया |
त्रिपाठी सर ने चन्दन को सन्देश भिजवायाथा कि अगर वह चाहे और आगे पंगे न लेने का आश्वासन दे तो कृष्णा कोचिंग के द्वार उसके लिए अब भी खुले हैं | मगर चन्दन के स्वाभिमान ने उसे पलटना नहीं सिखाया था | उसका दृढ निश्चय था कि अगर जरुरत पड़ेगी तो वह खुद ही, अकेले तैयारी करेगा | चन्दन की इस हठधर्मिता से मानो भगवान भी नए पुल बनाने पर मज़बूर हो गए |
संयोग यह कि उन्हीं दिनों रसायन के झा सर, गणित के गनी सर और भौतिकी के त्रिपाठी सर ने मिलकर अपनी कोचिंग संस्था खोल ली |
चन्दन के लिए यह वरदान ही था कि वह कक्षा के अंदर भी झा सर और गनी सर से पढता था और कक्षा के बाहर भी | अतएव भ्रम की कोई स्थिति नहीं थी | उस साल प्री -इंजिनीयरिंग में गिने चुने लोगों को दाखिला मिला था | जब परिणाम निकला तो चन्दन ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था ," पी. ई. टी. में तो नहीं हुआ पर पी. पी. टी. में हो गया ... | " वाकई एक ही शिक्षकों से पढ़ने का सुअवसर देकर भगवान् ने उसकी मदद ही की थी |
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तो सार यह था - वह चन्दन ही था जिसने सब लोगों को मिलाने का कार्य किया था | लेकिन जहाँ सब लोग जमा हुए, वह स्वतः अलग हो गया |
दिन के सम्मिलन के बाद सबने योजना बनाई कि सब मित्र शाम को पुनः मिलेंगे | कौशलेन्द्र किसी कारणवश सुबह आ नहीं पाया था | इसलिए उसने ही शाम को 'भिलाई क्लब' में, जिसका वह अध्यक्ष था, फिर से मिलने की पेशकश की |
ऐसा नहीं था कि सारे लोग, जो सुबह मिले थे, शाम में भी आये | बहुतों ने मना कर दिया | मना करने वालों के अपने-अपने दर्द थे | कुछ लोगों ने पारिवारिक कारण बताया क्योंकि यह कोई पारिवारिक सम्मिलन नहीं था | वैसे भिलाई विद्यालय के छात्रों का पारिवारिक सम्मिलन कभी हो भी नहीं सकता था | वैसे कुछ लोगों का मानना था कि 'भिलाई क्लब' में सांध्य - मिलन का कार्यक्रम आयोजित करना एक गलती की , क्योकि अधिकांश भिलाई विद्यालय के मित्र भिलाई इस्पात संयंत्र में अफसर नहीं थे | सामान्य दिनों में भिलाई क्लब के द्वार अफसरों के लिए ही खुलते थे | इसलिए, वे मित्र असहज महसूस कर रहे थे |
चन्दन के न आने का कारण सबसे जुदा था | चन्दन अफसर श्रेणी में भी था, उसका कोई पारिवारिक कारण भी नहीं था और वह कौशलेन्द्र के काफी करीब था - भिलाई विद्यालय के दिनों से ही | उस समय भांप पाना कठिन था, लेकिन सच तो यह था कि विनोद धर के मज़ाक से, जिसे वह प्राथमिक शाला में किसी तरह आत्मसात कर लेता था, वह काफी आहत हुआ था |
जब रात के अँधेरे में, भिलाई क्लब के एक कोने में बैठे मित्र पुराने दिनों की चीर-फाड़ कर रहे थे , यह असंभव था कि चन्दन का उल्लेख न आये | कुछ अति उत्साही लोगों ने आशा नहीं छोड़ी थी | जब भी चन्दन का उल्लेख आता , उसे फोन खड़का देते थे | धाक के तीन पात - चन्दन का फोन शाम से ही बंद था |
"छोड़ न यार, चन्दन को |"
और लोग चन्दन को छोड़ देते | मगर फिर बेताल की तरह चन्दन महफ़िल में लौट आता | जिनको चढ़ चुकी थी , वे अपने किस्से सुना रहे थे | जो नहीं पी रहे थे, वे उन किस्सों में सच्चाई और 'फोक' का प्रतिशत निर्धारित करते थे |
बात मारपीट पर आयी | डी. मधु ने एक किस्सा सुनाया कि कैसे उसने तीन सर लोगों की एक साथ पिटाई की थी | मारपीट के वार्तालाप के इस दौर में चन्दन का लौटना स्वाभाविक था | तब उसने चन्दन का एक किस्सा सुनाया ... | यकीन मानिये, लोग दम साधे सुनते रहे ... | जो चौथे आसमान में उड़ रहे वे भी, सातवीं आसमान वाले भी और जो धरातल पर थे वे भी ... | किस्सा ख़त्म होने के बाद भी कुछ समय तक ख़ामोशी छायी रही |
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विनोद धर वहीँ नहीं रुका | उसके अंदर का बच्चा हमेशा सक्रिय रहा | सम्मिलन के बाद सूर्य ने सभी छात्रों के फोन नंबर लिए और विद्यालय के मित्रों का एक व्हाट्स -एप ग्रुप बना डाला | सूर्य खुद ही उसका संचालक बन गया | चन्दन के प्रति विनोद धर की चुहल जारी थी | संचालक होने के नाते सूर्य ने अनेकानेक बार विनोद को टोका, पर विनोद अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा था | कई बार उसके इन चिढ़ाने वाले सन्देश में आत्मीयता और अंतरंगता झलकती थी ,"कालू मेरा भाई है| " एक बार उसने रंग पर न चिढ़ने के लिए चन्दन को नसीहत दे डाली," अरे गर्व से कहो, हम काले हैं तो क्या हुआ, दिल वाले हैं | तुम हम पर भरोसा कर सकते हो, क्योंकि हम काले रंग नहीं बदलते हैं |"
विनोद को समझाने वाले सूर्य ने कुछ समय बाद खुद ही ग्रुप छोड़ दिया, लेकिन सब कुछ बर्दाश्त करके भी चन्दन जमे रहा | वैसे सूर्य के ग्रुप छोड़ने के पीछे चन्दन के अलावा दूसरा कारण भी था | कई लोग सांप्रदायिक और विद्वेष फैलाने वाले सन्देश ग्रुप में प्रेषित करते थे | उनकी संख्या दिन दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रही थी | कुछ सन्देश तो इतने ज्यादा उद्वेलित करने वाले थे कि मैंने भी लोगों को मना किया | और एक दिन अटकलों का भण्डार पीछे छोड़कर स्वयं संचालक ने ही ग्रुप छोड़ दिया |
सूर्य के जाने के बाद विनोद ने चन्दन के प्रति व्यक्तिगत टिप्पिणी करना करीब करीब बंद कर दिया | हाँ, अब वह भी सांप्रदायिक सन्देश भेजने वालों की सूची में शामिल हो गया | बल्कि कुछ ही दिनों पश्चात् वह सांप्रदायिक विद्वेषपूर्ण सन्देश भेजने में सबको मीलों पीछे छोड़कर काफी आगे निकल गया |
चन्दन के सन्देश ज्यादातर अग्रेषित ही होते थे, जिनमें संयंत्र की अलग-अलग गतिविधियों का जिक्र होता था | ज्यादातर सन्देश अफसरों के कार्यक्रम, कार्यवाही और क्रियाकलाप के ही होते थे, जो मेरे कभी पल्ले नहीं पड़ते थे | शायद जो लोग भिलाई इस्पात संयंत्र के बाहर थे, उनमें से किसी को भी उन खबरों से न तो कोई सरोकार था और न ही कोई दिलचस्पी | मगर बिना पढ़े सन्देश मिटाने के लिए प्रयास ही कितना पड़ता है ? वैसे चन्दन को किसी ने टोका तो नहीं, मगर मैं किसी भी दिन टपकने वाली मुसीबत स्पष्ट देख रहा था |
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देखते ही देखते एक साल और गुज़र गया | जब मैं सर्दियों में भारत आया तो मन में एक उत्साह सा था कि एक बार फिर पिछले साल की तरह सम्मिलन आयोजित किया जाए | पिछले वर्ष कई ऐसे मित्र थे जो सम्मिलित नहीं हो सके थे | इस बार सारे लोग मिलते हैं | फिर दूसरा विचार यह भी मन में आया कि शाला क्रमांकआठ के सहपाठी ही मिल लेते हैं |
इन कर्यकलापों के लिए एक ही संपर्क सूत्र मेरे दिमाग में था - चन्दन | पिछली बार की तरह वही सबकी खोज खबर ला सकता है | अगर शाला नंबर आठ के मित्र मिल पाएं तो अति उत्तम, वरना भिलाई विद्यालय का आयोजन तो कहीं गया नहीं है |
दांतों के दर्द ने मुझे अमेरिका में काफी परेशान किया था | इस बार मैंने सोचा था कि भारत के ही किसी दन्त चिकित्सक को दिखा दिया जाए | अगर शल्य क्रिया की आवश्यकता पड़ी, तो वह भी करा लिया जाए | अभी डॉक्टर दंपत्ति को आने में थोड़ा समय था | दूसरी तरफ की सीढ़ियों के पास खड़े होकर मैंने चन्दन को फोन लगाया | मैंने तो दोस्त चन्दन को फ़ोन लगाया था, लेकिन दूसरी तरफ से बिफरे हुए शेरू की आवाज़ सुनाई दी |
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मुझे पूरा विश्वास था कि चन्दन भले भिलाई विद्यालय के पुनर्मिलन के लिए न माने, लेकिन प्राथमिक शाला क्रमांक आठ के लिए अवश्य मान जायेगा | उसे मैं मना लूंगा | उसे समझा लूंगा कि विनोद के मन में कोई दुर्भाव नहीं है | उसके मन में शाला क्रमांक आठ का शरारती बच्चा अभी भी बैठा है | अगर वह चन्दन का मज़ाक उड़ाता था तो उसमें उसका प्यार भी शामिल था | साथ मुझे सूर्य प्रकाश की ये बात भी ध्यान में थी कि "शाला क्रमांक आठ काफी पीछे छूट गया है | वो जो हम थे, वो अब नहीं हैं |" इस गलत-फहमी को दूर करने का पहला और आखिरी मौका भिलाई विद्यालय के पिछले वर्ष का 'गेट-टुगेदर' ही था, जब इस मन मुटाव ने जन्म ही लिया था | मैंने उसे हलके में लिया था | अब उसे मिटाने का एक ही तरीका था कि दोनों की आमने-सामने मुलाकात करा दी जाये | और इसके लिए शाला क्रमांक आठ का पुनर्मिलन आवश्यक था | शायद उस इमारत की छाया में, शायद खेल के मैदान के घास की खुश्बू में, शायद राजीव सिंह की उपस्थिति में बात बन जाए |
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लेकिन चन्दन की कार में हम कहाँ जा रहे थे ?
"यहाँ भिलाई इस्पात संयंत्र के बड़े-बड़े अधिकारी रहते हैं | "सी ईओ, एम डी, इ डी ... | कभी आया था यहाँ ?"
अगल-बगल बड़े अधिकारियों के बड़े-बड़े बंगले थे | सच बात तो यह थी कि मुझे यह भी पता नहीं था कि ऐसा कोई क्षेत्र भी भिलाई मेँ है | इन गलियों से तो मैं कभी गुजरा नहीं था | लेकिन चन्दन कब से इन गलियों से गुजर रहा है ? जितना मैं उसको जनता था, ये तो कभी भी उसके स्वाभिमान और स्वच्छंद प्रकृति से मेल नहीं खाता था |
कार चलाते-चलाते चन्दन ने मुझे झकझोरा |
"अबे, बोल तो - हाँ या ना ?"
"क्या ? क्या हुआ ?"
मैं हड़बड़ाकर बोला | चन्दन कुछ पूछ रहा था |
"पांडेय सर से मिल लें ?"
"कौन पांडेय सर ?"
"प्लांट के ई. डी. | तुझसे मिल कर खुश हो जायेंगे | उनकी लड़की भी अमेरिका में है |"
"पर वो तो समय लेना पड़ेगा ? नहीं?"
"अरे तू क्या बात कर रहा है बे ? ज्यादा अँगरेज़ बन गया है | "
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उसने गाड़ी एकदम गेट के पास खड़े की और बंद दरवाजे के एकदम पास चले गया | दरबान चन्दन को देखकर देखकर मुस्कुराया ,"साहब तो अभी गाड़ी लेकर निकल गए हैं |"
"कहाँ ?"
"नौ बज गया सर | प्लांट ही गए होंगे |"
चन्दन को थोड़ी निराशा जरूर हुई | फिर वापिस आकर उसने गाड़ी बढ़ाई , "चल, तुझे सेनगुप्ता से मिलता हूँ |"
" छोड़ यार चन्दन | तेरी लड़की की ट्रेन का टाइम हो रहा है |"
"चल | पांच मिनट बैठेंगे | सेनगुप्ता से अपने फॅमिली जैसे सम्बन्ध हैं |"
यह तो बहुत अच्छा हुआ कि सेनगुप्ता सर दिल्ली गए हुए थे | मैंने चन्दन को फिर उसकी पुत्री की रेलगाड़ी की याद दिलाई |
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चन्दन से यह सवाल पूछने की प्रबल इच्छा हुई थी कि उसके व्यवहार में इस तरह का काया-कल्प अचानक कैसे हो गया ? क्या उसने अपने व्यवहार में आमूलचूल परिवर्तन ही स्वीकार किया है या ये उसका बाह्य रूप ही है ? ये दोनों ही विकल्प मेरे लिए काफी आश्चर्यजनक थे | चन्दन जैसे अंदर था, वैसे ही बाहर था | जो दिल में बात होती थी, वही जुबान पर होती थी | और जो जुबान पर होती थी, वह व्यवहार में होता था | बचपन से ही चन्दन ऐसा था |
तो क्या उसने यह परिवर्तन ही आत्मसात कर लिया है ? पर कैसे ? अपने स्वाभिमान को चन्दन ने कहाँ रखा होगा ? वह तो इतना बड़ा था कि छुपाये नहीं छुप सकता था ? अचानक ये कैसे हो गया ?
अचानक मुझे पिछले वर्ष 'भिलाई क्लब' में डी. मधु की बताई हुई घटना याद आ गयी .... |
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जब से चंदन अधिकारी वर्ग में आया था, कोई न कोई अपशकुन उसके पीछे लगा ही हुआ था | अब जब से वह "स्टील मेल्टिंग शॉप -१" में आया था, यह अफवाह जोरों पर थी कि एस. एम. एस. -१ अंतिम साँसें गिन रहा है | किसी भी दिन इसे बंद किया जा सकता है | ऐसा नहीं था, कि अगर यह हो जाता तो चन्दन की नौकरी चले जाती | उसे किसी अन्य डिपार्टमेंट भेज दिया जाता | लेकिन अब वह इधर से उधर फुटबॉल की तरह स्थान्तरित किये जाने से थक चुका था |
ऊपर से एस. एम. एस. -१ में उसका पाला केसरी साहब से पड़ गया जो उसे फूटी आँखों नहीं सुहाते थे | चन्दन के उग्र स्वभाव के विपरीत केसरी साहब बड़े ही शांत स्वभाव के थे | इतने शांत स्वभाव के कि उनके मातहत उन्हें "गऊ" समझते थे | और यही सब चन्दन को बिलकुल पसंद नहीं था | भला शांत स्वभाव वाला अधिकारी काम कैसे करा सकता था ? तिस पर उनकी मुस्कान - 'आ हा हा" , क्या कहने ? हर बात का जवाब एक मुस्कान ... | कई बार उसके मन में आया , घुमा के एक झापड़ दे |
एस. एम. एस. -१ में मधु भी था | हालाँकि मधु का 'हाउस कीपिंग' से दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था | चन्दन का कार्य क्षेत्र हाउस कीपिंग तक ही सीमित था | वैसे "एस. एम. एस." जैसी जगह में वह भी कोई कम थकाने वाला काम नहीं था | गरमागरम धातु का छलकना आम बात थी | जिस पात्र में पिघली धातु डाली जाती थी, उस पात्र, "लैडल" का पंक्चर हो जाना आम बात थी | ऊपर से चन्दन चुप बैठने वाला इंसान नहीं था | किसी काम में अनुमान से ज्यादा समय लगने पर उसका पारा चढ़ जाता था |
अगर उसके अंतर्गत काम करने वाले कर्मचारी उसकी तुलना केसरी साहब से करते थे तो कोई गलत नहीं था | लेकिन उनकी कानाफूसी चन्दन के गुस्से में आग में घी का ही काम करती थी | एक न एक दिन टकराव होना ही था |
शुरू के दिनों में चन्दन को जब मधु ने पुकारा तो चन्दन ने कोई ध्यान नहीं दिया | उसके अभिवादन को भी वह नज़रअंदाज़ कर देता था | मधु को थोड़ा अजीब लगता था, लेकिन इन सब बातों की उसे आदत सी हो गयी थी | चन्दन कोई अकेला नहीं था और मधु कोई तोप भी तो नहीं था, जिसके अभिवादन का कोई अधिकारी जवाब भी दे | भिलाई विद्यालय की दोस्ती अब सिर्फ याद ही बन कर रह गयी थी |
फिर धीरे धीरे मधु से चन्दन ने वार्तालाप करना प्रारम्भ किया | जब उसे पता चला कि मधु ट्रेड यूनियन से जुड़ा है, तब वह उससे थोड़ी बहुत बातें करने लगा | वैसे भी मधु उसके अंतर्गत कार्यरत नहीं था और चन्दन को अपनी कुश्किल कहने के लिए किसी अंधे कुएँ की तलाश थी | शाला की दोस्ती में वह अदृश्य ताकत होती है जो किसी भी कृत्रिम भेदभाव को अंततः पिघला ही देती है |
एक दिन 'एस. एम. एस. -१' में एक लैडल का हत्था टूट गया और ढेर सारी पिघली धातु फर्श पर बिखर गयी | सुरक्षा पर जब प्रश्न चिन्ह तो लगे ही , यह तय था कि अगले कई दिनों तक बड़े-बड़े अधिकारियों का ताँता "एस. एम. एस. -१" में लगे रहेगा | यानी "एस. एम. एस. -१" की कार्यशाला एक दर्पण की तरह चमकनी चाहिए |
और केसरी साहब मुस्कुराये जा रहे थे | चन्दन ने उनसे क्रेन माँगी | भारी भरकम लैडल को हाथ से तो नहीं सरकाया जा सकता था | अब जैसे चन्दन को अपना इलाका चमकाना था, वैसे ही केसरी साहब को भी अपने क्षेत्र की सफाई करनी थी |
"लंच के बाद दे दूँ तो चलेगा ?"
"ऐसा कौन सा पहाड़ हटा रहा तू ? " चन्दन बोला |
अब केसरी फिर मुस्कुराया तो चन्दन भुनभुनाते हुए चले गया |
लांच के बाद चन्दन फिर हाजिर हो गया | हवा में अफवाह तैर रही थी कि दिल्ली से भी कोई टीम आने वाली थी |
केसरी साहब ने इधर-उधर देखा, फिर मुस्कुराते हुए बोला ,"अरे वर्कर अभी सुस्ता रहा है |"
"कितने बजे मिलेगी क्रेन ?" चन्दन उसकी मुस्कान से अच्छा खासा परेशान था |
"तीन बजे तक खाली हो पायेगा |"
"और चार बजे छुट्टी हो जाएगी ?"
जब चन्दन अपने क्षेत्र में लौटा तो देखा, उसके कर्मचारी ताश खेल रहे थे | उसे देखते ही आनन-फानन में लोग खड़े हो गए | उनकी गलती ही क्या थी ? क्रेन तो मिली नहीं थी |
"अबे चार बजे के पहले आज कोई हिलेगा नहीं |"
"ओवरटाइम मिलेगा बॉस ?" एक कामगार थोड़ी हिम्मत जुटाकर बोला |
चन्दन ने बड़ी मुश्किल से अपना गुस्सा काबू किया |
...और दिन के ठीक तीन बजकर दो मिनट पर ज्वालामुखी फट पड़ा |
"साले तू अपने आदमियों से काम नहीं करा सकता ? हरामखोरी करता है ?" चन्दन ने एक फौलादी मुक्का केसरी को जड़ दिया |
चन्दन की गमगमाती आवाज़ से डी. मधु वैसे भी चन्दन को शांत कराने उसकी ओर बढ़ ही रह था | अब जब उसने चन्दन को घूंसा जमाते देखा तो डी. मधु सरपट भागा | वैसे डी. मधु शाला के दिनों में हमारी अजेय १०० मीटर रिले रेस टीम का सदस्य था , फिर भी जब तक वह चन्दन तक कुछ सेकण्ड में पहुँच पाता , चन्दन ने दो भारी भरकम घूँसे और जड़ दिए |
"चंदन | क्या कर रहा है यार ?" डी. मधु ने उसे कस कर पकड़ लिया | अब तक आस-पास के जो कर्मचारी तमाशा देख रहे थे या हतप्रभ थे या पद का लिहाज़ करके किंकर्तव्यविमूढ़ थे, उनकी चेतना लौटी और उन्होंने दोनों गुत्थमगुत्था हुए अधिकारियों को अलग किया |
चन्दन की आँखों से अब भी अंगारे बरस रहे थे | वह बार-बार मधु की गिरफ्त से अपने आप को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था |
मधु उसे अपने साथ लेकर श्रमिक कक्ष के अंदर घुसा | पीछे-पीछे श्रमिकों के झुण्ड के साथ मधु के बॉस पांड्या साहब भी कमरे में चले आये |
"चन्दन, पानी पियेगा ? " मधु ने उसे बिठाते हुए पूछा |
"पानी लाओ रे | मेरे रूम से ठंडा पानी लाओ | " चन्दन के जवाब का इंतज़ार किये बिना पांड्या जोर से चिल्लाया |
"रिलैक्स सर |क्या हुआ सर ? " पंड्या साहब ने नरमी से पूछा |
"सर वो हमको काम के लिए क्रेन नहीं दे रहे थे | " चन्दन का एक श्रमिक बोला |
"अरे सर | हमको बोलना था | हमारा क्रेन ख़ाली था |" पांड्या बोला ," हम कोई बाहर के थोड़ी हैं सर |"
"सर, ये मेरे स्कूल का दोस्त है |" मधु बोला ,"बहुत अच्छा स्टूडेंट था सर | और जो हुआ, काम को लेकर ही हुआ सर | क्यों चन्दन ?"
तब तक एक कामगार ट्रे में कांच के गिलास में पानी लेकर आया |
"ले , पानी पी चन्दन |" मधु ने चन्दन को पानी का गिलास दिया, "बाहर जाओ रे , चलो बाहर | पंड्या सर आप भी बाहर जायेंगे सर ? मैं एक मिनट चन्दन से बात करना चाहता हूँ | प्लीज सर |"
जब सब बाहर निकल गए तब मधु चन्दन के सामने आकर बैठ गया | अब तक चन्दन का पारा कुछ नीचे जरूर गिरा था , लेकिन दिमाग अभी भी गरम था , "साले , सब नौटंकी करते हैं | कौन उनको अधिकारी बना देता है बे ? मुझे बोल | शॉप में एक्सीडेंट हो गया, उसको दिखाई नहीं देता ? "
मधु चुपचाप उसके सामने बैठकर चन्दन की बातें शांति से सुनते रहा | फिर वह नरमी से बोला ,"चन्दन, अपने भाई की एक बात मानेगा ?"
चन्दन उसकी ओर नज़र उठाकर देखा | एक पल खामोशी छायी रही | उसने भांप लिया कि क्रुद्ध चन्दन के सोचने-समझने की शक्ति धीरे-धीरे वापिस आ रही है | अब उससे व्यवहारिकता की बातें की जा सकती हैं | कुछ सोचकर फिर मधु बोला ,"तू उससे माफ़ी मांग ले |"
चन्दन बिफर गया ," क्यों? क्यों माफ़ी मांगू ? क्या गलती है मेरी ?अबे, तू पागल हो गया है क्या ?"
"हाँ यार चन्दन | मैं पागल हो गया हूँ | तू माफ़ी मांग ले यार |"
"क्यों ?"
फिर ख़ामोशी छायी रही | मधु बोला , "तूने देखा न, मैंने सब लोगों को इस कमरे से बाहर भेजा | अपने बॉस को भी | जानता है क्यों ?"
चन्दन ने उसकी ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखा |
"क्योंकि ये बात मैं उनके सामने नहीं बोल सकता था, जो अब बोल रहा हूँ |"
"कि मैं उससे माफ़ी मांग लूँ ?" चन्दन ने आधे व्यंग्य से कहा |
"हाँ | माफ़ी मांग ले और मामला ख़तम कर |"
"इन्क्वारी बैठती है तो बैठने दे | मैं डरता नहीं हूँ | क्यों माफ़ी मांगूं ?"
मधु थोड़ा आगे झुककर धीमी आवाज़ में बोला ,"क्योंकि वो 'जाति' वाला है |"
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जाति' एक ऐसा ब्रह्मास्त्र था , जिसने चन्दन को भी सन्न कर दिया | हिंदुस्तान में 'अनुसूचित जाति' एक ऐसा शब्द है, जिससे लोग थर्रा उठते हैं | चाहे कैसी भी जांच कमिटी बैठे , चाहे उसमें धर्मराज युधिष्ठिर ही क्यों न सम्मिलित हो जाएँ , अगर उसमें एक ओर , केवल एक ही ओर कोई अनुसूचित जाति का व्यक्ति बैठा हो, सबको ज्ञात होता है कि न्याय का पलड़ा किस और झुकेगा ? और ये तो मारपीट का वह मामला था, जिसमें चन्दन चाहे कितना भी कर्तव्यनिष्ठ क्यों न हो , मामले की शुरवात उसने ही की थी | शुक्र था, कि केसरी के सम्बन्ध में जिस बात से एक विभाग में रहते हुए भी वह अनभिज्ञ था, वो अन्तर्यामी मधु को ज्ञात थी |
अगले दस मिनटों में लोगों ने 'गऊ' केसरी को भी मना लिया |
"अब कुछ नहीं होगा |" सारे श्रमिक खड़े थे | मधु ने केसरी का एक हाथ पकड़ा और चन्दन की ओर बढ़ा दिया | केसरी की मुस्कान पूरी तरह गायब थी | जब दोनों ने हाथ मिलाया तो उसमें गर्मजोशी का पूरी तरह से अभाव था |
"अरे ऐसे क्या मुर्दे जैसे हाथ मिला रहे हो ? मर्द जैसे मिलाओ |" एक मज़दूर पीछे से चिल्लाया |
अगले ही क्षण दोनों की पकड़ मज़बूत हुई |
"फोटो खींचो रे |" एक मज़दूर चिल्लाया ," गले भी मिल लो साहेब |"
और अगले ही क्षण दोनों गले मिल रहे थे | मज़दूरों ने जोर से 'हो, हो' की आवाज़ की सारे गले शिकवे धुल रहे थे | कुछ लोग काल्पनिक कैमरे से तस्वीर लेने का अभिनय कर रहे थे | अचानक चन्दन को जोश आ गया | उसका वह जोश शाला नम्बर आठ के उस जोश से मिलता जुलता था, जब नाराज़ चन्दन को भोला गिरी या सुरेश बोपचे मनाते थे और वह विनोद धर को हवा में उठा लेता था |
ठीक वैसे ही चन्दन ने अभी किया | जैसे होली में दोस्त एक दूसरे को जोश में उठा लेते हैं वैसे ही चन्दन ने केसरी को जोश में उठा लिया |
...और तभी, ठीक उसी क्षण , एक भूकंप आया जिसने चन्दन की ज़िन्दगी की चूलों को हिला दिया ... |
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दिन भर का काम ख़तम करके प्रमोद मिश्रा घर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि उसके फोन की घंटी घनघना उठी | दूसरी तरफ से मधु की घबराई हुई आवाज़ थी |
"क्या कहा ? चन्दन ने पटक दिया ? " प्रमोद मिश्रा कुछ समझा नहीं |
"नहीं यार | जान बूझकर नहीं पटका | समझौता होने के बाद कुछ ज्यादा जोश में आ गया था | ख़ुशी से उसने केसरी को हवा में उठाने की कोशिश की | मगर केसरी भारी था |चन्दन भी तो मोटा ही है | चन्दन खुद भी गिरा और केसरी को भी पटक दिया |"
"और केसरी का पाँव टूट गया ?"
"उसने सब कुछ कागज़ पर लिखकर छावनी थाना में एफ. आई. आर. के लिए फैक्स कर दिया है यार | 'एफ. आई. आर. के बाद चन्दन बुरी तरह फँस जाएगा |"
"हाँ यार | केस लम्बा खिंच जाएगा |"
"केसरी 'जाति' वाला है |"
"क्या ?" प्रमोद को मानो बिच्छू ने डंक मारा हो |
"' हाँ यार | केसरी' जाति' वाला है | अगर कोर्ट केस हो गया तो ... "
आगे कुछ भी कल्पना कर पाना मुश्किल था | प्रमोद तुरंत घटना स्थल के लिए निकल गया |
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चन्दन के दो भाई याद हैं आपको या भूल गए ? चन्दन और विजन ? जिन्होंने उसे पहली कक्षा में बहुत बड़े संकट से बचाया था ( 'च' से चन्दन - भाग १ )
? कहना मुश्किल है कि वह संकट ज्यादा गहरा था या यह संकट ?दोनों ही मौकों 'विशेष ' लोग ही चन्दन के क्रोध का शिकार हुए थे | पर एक बार फिर दोनों भाइयों के कन्धों पर बहुत भारी जिम्मेदारी आ गयी थी |
ट्रेड यूनियन में सक्रिय होने के कारण प्रमोद मिश्रा की भी बड़े-बड़े अधिकारियों से जान पहचान थी | उसने भी मामले को ठंडा करने के लिए पूरी जान लगा दी |
दोनों भाई तरक्की की सीढ़ी पर एक -एक कदम रखते हुए काफी ऊँचे पहुँच गए थे | इतने ऊपर कि मैनेजमेंट में उनकी अच्छी साख थी - ठीक वैसे ही साख, जैसे प्राथमिक शाला में बड़ी बहनजी के सम्मुख थी |
लेकिन काम उतना आसान भी नहीं था | पुलिस तो भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं आती थी - वह कार्यवाही करने को स्वतंत्र थी | बात अभी तक 'जाति' वालों की संस्थाओं तक नहीं पहुंची थी | समय बहुत कम था | अगर सूचना-माध्यम के ठेकेदारों को भनक भी लग जाती तो बवाल मचना स्वाभाविक था | पूरे क्षेत्र में बात फ़ैल जाती और हो सकता था कि इसकी आंच राज्य की सीमायें लांघकर राष्ट्र तक पहुँच जाती | 'जाति' से सम्बंधित मुद्दे स्वतः ध्यान आकृष्ट कर लेते हैं | चाहे समाचार प्रकाशित-प्रसारित करने वाले हों, राजनीतिक दल हों या समाज सेवी संस्थाएं |
विपत्ति का समय था और 'गऊ' केसरी टस से मस नहीं हो रहे थे | पांव से ज्यादा उनके दिल पर चोट लगी थी |
उसको इस बात से कोई मत्तमतलब नहीं था कि किस स्तर की जाँच कमिटी बनती है | उसकी नज़र में यह जाँच का विषय था ही नहीं | इतने सारे प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य थे तो 'नाटक' की क्या जरुरत थी ? चन्दन को तत्काल बर्खास्त करके जेल भेजा जाए |
चन्दन को बर्खास्त तो नहीं किया गया, पर तत्काल प्रभाव से लम्बे अवकाश पर भेज दिया गया | प्रमोद मिश्रा ने अपने निजी संपर्क का उपयोग करके छावनी थाना पर एफ. आई. आर. दर्ज होने से रुकवा दिया | अपने 'ट्रेड यूनियन' के कार्यकर्ताओं को सचेत करके रखा कि वे अखबार के संवाददाताओं पर निगाह रखें और अगर कोई आस-पास फटकता नज़र आये तो उसे तुरंत सूचित करें | 'ट्रैड यूनियन' में संलग्नता के कारण प्रबंधन के कई उच्च अधिकारीयों से उसकी जान-पहचान थी | उनसे वह चन्दन की बात रखने गया | उसके मिलने के पूर्व ही दीपक और विजन उनसे मिल चुके थे | इसलिए उसे चन्दन की उत्कृष्ट छवि रखने में आसानी ही रही |
अब 'गऊ केसरी' को मनाना था | 'दंड' और 'भेद' का यहाँ काम नहीं था | 'साम' का उपयोग करके उसे बताया गया कि चन्दन उसके समानांतर कार्य नहीं करेगा | उसका स्थानांतरण किया जा रहा है | अगर केसरी चाहे तो उसे दूसरे स्टील प्लांट भेजा जा सकता है पर उसकी दो छोटी बच्चियां हैं |
फिर 'दान' का उपयोग किया गया | भिलाई इस्पात संयंत्र में पदोन्नति एक बहुत बड़ा प्रलोभन होता है | केसरी को कहा गया कि उसकी त्वरित पदोन्नति की जायेगी | और न जाने क्या क्या ?
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एक लम्बे अंतराल के बाद चन्दन काम पर लौटा | केसरी को दिए आश्वासन के अनुसार उसका विभाग अब बदल दिया गया था | प्रमोद मिश्रा ने अनुरोध किया था कि उसकी अन्य परेशानियां देखते हुए उसे कोई 'हलके' विभाग में डाल दिया जाए | अब वह सुरक्षा विभाग में था | उसे अब सब कुछ नया नया और खोया खोया सा लग रहा था | 'एस. एम. एस. -१' में वह अपना सामान लेने आया था | उसके अंतर्गत जो कर्मचारी थे, वे अभी किसी और के नीचे काम कर रहे थे | सभी अपने काम में व्यस्त थे | कोई उससे नज़रें नहीं मिला रहा था, या यूँ कहा जाए, चोरी छिपे नज़रों से देख रहा था और उसके मार्ग से अलग हट जाता था |
कोई तो उसे पुकारे | कोई तो उसका हाल-चाल पूछे |
"चन्दन", दूर से मधु ने आवाज़ दी |
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एक बार फिर मधु के कर्मचारी कक्ष में मधु और चन्दन अकेले ही बैठे थे | चन्दन सुबह से अलग-अलग लोगों की अलग-अलग बातें सुन रहा था | किन्हीं की बातों में नसीहत थी तो किन्हीं की बातों में धमकी | चन्दन के लिए दोनों तरह की बातें अस्वीकार्य थी पर उसने कड़वे घूँट की तरह उन्हें पी लिया था ,क्योंकि वे सब शीर्ष अधिकारी थे | पहली बार कोई निचले स्तर का व्यक्ति उससे बात कर रहा था |
"जाने दे यार चन्दन | अब अपना काम कर | पर काम के लिए जान मत दे दे | और किसी के मुँह क्या लगना भाई ? अब तू अधिकारी वर्ग का है यार | ये सब क्यों करता है ? ऐसी-वैसी को बात हो तो हमको बता न भाई | हम लोग किस लिए हैं ? देख, हम लोग तो मज़दूर थे , मज़दूर हैं और एक दिन मज़दूर रह कर ही रिटायर भी हो जायेंगे | है कि नहीं ? हम लोगों को कोई डर नहीं, कुछ ऊपर नीचे हुआ तो हमारे पीछे यूनियन खड़ी है | इसलिए हम चिंता नहीं करते | मगर तू अपना देख ले भाई | तेरे पीछे कौन खड़ा है ? "
पीछे ... कौन .... खड़ा .... है ....?
कौन .... खड़ा .... है ....?
कौन .... ?
.....??
चन्दन ने महसूस किया | हाँ, वह अकेला ही तो खड़ा था | उसके सामने एक लम्बा रास्ता है | पर वह अकेला नहीं खड़ा है | उसके एक ओर उसकी छोटी लड़की है और दूसरी ओर बड़ी लड़की | और पीछे ? पीछे तो कोई नहीं है |
अचानक चन्दन को अपने कन्धों पर दर्द महसूस हुआ | उसके कंधे पर मानो कई टन भार रखा है | वह अहसानों के बोझ से दबा हुआ है | शीर्ष प्रबंधन के कई अधिकारियों के अहसानों का बोझ !!
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तो चन्दन के अगल-बगल खड़ी दो बच्चियों में से एक, अपने बैग के साथ हमारे साथ स्टेशन जा रही थी | चन्दन कार चला रहा था | चन्दन की सुपुत्री सूचना तकनीकी में स्नातक की पढ़ाई कर रही थी | क्रिसमस और नए वर्ष की छुट्टी के पश्चात् वह छात्रावास वापिस जा रही थी | चन्दन ने मुझसे कहा था कि मैं उसे भविष्य के लिए कुछ मार्गदर्शन दे दूँ | मैं भी उससे बीच बीच में पढ़ाये जाने वाले विषयों में सम्बन्ध में पूछ रहा था | सूचना तकनीकी ऐसा क्षेत्र है , जिसमें अभी तक स्थावित्व नहीं आया है | किसी भी विषय के अप्रचलित होने में वक्त नहीं लगता | चन्दन का भय अपनी जगह सही था | बच्चों को वो विषय न पढ़ाने जाने चाहिए | यदि पढ़ाये जाते हैं तो बच्चे उन विषयों से दूर रहें | और अगर बाकी बच्चे वे विषय ले रहे हैं तो अपने बच्चे सजग रहें | मैं उससे कुछ पूछ रहा था और उसका जवाब सुनकर बीच -बीच में चन्दन कुछ प्रश्न करता तो हम दोनों उसे समझाने की कोशिश करते |
आधा रास्ता निकल चुका था | अचानक चन्दन की सुपुत्री ने कहा,"पापा, मैं अपने कमरे की चाभी भूल गयी | "
"ओह", चन्दन ने बहुत ही प्यार से पूछा ,"क्या करें बेटा ?"
वह काफी सकपकाई हुई थी |
"वापिस चलें ?" चन्दन ने पूछा |
कोई जवाब नहीं ....|
"कहीं रेलगाड़ी न छूट जाये | "मैंने सलाह दे डाली ,"रूममेट के पास तो होगी न चाभी ? वहाँ पहुंचकर डुप्लीकेट बनवा लेना |"
कोई जवाब नहीं ...|
चन्दन ने घड़ी में समय देखा और आगे के चौक से गाडी मोड़ ली | फिर विपरीत दिशा में तेज़ गति से गाडी दौड़ा दी |
घर पहुँचकर चन्दन ने कहा, "जाओ तो बेटा | देखो तो चाबी कहाँ है ? अगर पाँच मिनट में न दिखे तो लौट आना |"
चन्दन की बात ख़तम होने के पहले ही वह अंदर दौड़ पड़ी और अगले ही क्षण चाभी लेकर आ गयी |
"मिल गई पापा |"
चन्दन ने कुछ नहीं कहा और तेजी से गाड़ी स्टेशन की ओर दौड़ा दी | देखते ही देखते हम लोग स्टेशन पहुँच गए |
गाडी स्टैंड पर लगाकर चन्दन ने बेटी का बैग पकड़ा और पार्किंग का टिकट लिए बिना प्लेटफार्म की ओर लपका | मैं देख कर हैरान था | इतने मोटे चन्दन में यह फुर्ती और ऊर्जा कहाँ से आ गयी |
सूचना पटल पर ट्रेन के प्रस्थान समय में कोई अंतर नहीं था |
"मैं पलटफोर्म टिकट लेकर आता हूँ |" मैंने कहा |
चन्दन ने मेरी बात सुनी-अनसुनी की और वह तेज़ी से स्टेशन के अंदर चले गया |
मैं दो प्लेटफार्म टिकट लेकर अंदर पहुंचा | सीढ़ियां चढ़ते उतरते जब ट्रेन के पास पहुंचा तो एक डिब्बे के बाहर चन्दन पसीना पोंछते दिख गया | उसने हाथ उठाकर मुझे आवाज़ दी |
उसने अपनी सुपुत्री से काफी कोमलता से इतना ही कहा ,"ऐसा नहीं करते बेटा |"
थोड़ी ही देर में मंथर गति से ट्रैन चल दी | चन्दन उदास आँखों से उसे जाते हुए देखता रहा | क्या ये वही चन्दन नहीं था जो बचपन में उस दिन बिजोरिया बहनजी की बिटिया की रुलाई नहीं देख पाया था ?
करीब एक वर्ष पूर्व मैं चन्दन से इसी रेलवे स्टेशन पर एक लम्बे अंतराल के बाद पहली बार मिला था | आज मैं चन्दन के साथ उसी प्लेटफार्म में चलकर वापिस जा रहा था | मुझे थोड़ा भी गुमान नहीं था, कि ये मेरी चन्दन के साथ आखिरी मुलाकात है |
"ठीक है यार चन्दन |" मैंने कहा,"मैं टेम्पो पकड़ कर जाता हूँ |"
"अरे चल बैठ |" चन्दन बोला ,"तुझे मैं छोड़ देता हूँ |"
"नहीं यार |" मैंने कहा, "तुझे भी प्लांट जाना है | मैं निकलता हूँ |"
"ठीक है |" चन्दन ने ज्यादा प्रतिवाद नहीं किया ,"अपन फिर मिलेंगे | अब मैं जाऊँ ?"
और चन्दन निकल गया - अपने चिर-परिचित रास्तों पर |
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चिर-परिचित रास्तों पर - वे शुरू में चन्दन के लिए अनजान ही थे | जिन रास्तों पर चन्दन ने चलना शुरू किया , वह कोई गैर कानूनी नहीं था | न ही किसी दृष्टि से अनैतिक था | सवाल सिर्फ इतना ही था कि क्या वह चन्दन की स्वच्छंद और स्वाभिमानी प्रकृति से मेल खाते थे |
मधु ने चन्दन को अहसास करा दिया था कि उसके पीछे कोई नहीं है | श्रमिक वर्ग का ख्याल तो श्रमिक संगठन रख लेते हैं | जो लोग सीधे प्रबंधन वर्ग में आते हैं उनका अपना ही वर्ग रहता है | ठीक है, उनमें जबरदस्त प्रतिद्वंदिता रहती है , लेकिन वे एक दूसरे का हाथ पकडे रहते हैं | एक साथ तैरते हैं, एक साथ डूबते हैं, एक साथ उबरते हैं | ठीक सिन्हा सर और त्रिपाठी सर जैसे !
लेकिन जो परिश्रम करके अपने सामर्थ्य के बल पर अधिकारी बनते हैं, उनका कोई नहीं होता | न तो वे श्रमिक जिनके बीच से वे ऊपर उठते हैं, उनके अपने होते हैं और न ही ऊपर से टपके अधिकारियों का वर्ग उन्हें स्वीकारने को तैयार होता है | उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है | चन्दन ने यह देख ही लिया था | सिर्फ संपर्क की वजह से वह एक दुष्चक्र में फंसने से बचा था | अब उसे उन संपर्कों को और प्रगाढ़ करना था |
भारत में प्रबंधन में जमे लोगों को ऐसे ही वर्ग की तलाश रहती है | उनके कार्य कलापों की सूची में एक कार्य हरदम जुड़ा रहता है - राजनीति |
उन्हें ऐसे पदोन्नति प्राप्त अधिकारियों की सख्त आवश्यकता होती है जो श्रमिकों और उनके बीच एक सेतु का काम कर सकें | ताकि वे उनकी आवाज़, लक्ष्य, मंसूबे श्रमिकों तक पहुंचा सकें और श्रमिकों की भावनाएं , समस्याएं ,'मूड' उन तक पहुँचा सकें | क्योंकि पदोन्नति से बने अधिकारी श्रमिकों के बीच से ही ऊपर उठते हैं , उनके संवाद और सूचनाएं ज्यादा विश्वसनीय होती हैं |
लेकिन होता यही है कि फिर उनकी खुद की छवि संशय के दायरे में आ जाती है | उनकी कोई भी उपलब्धि को उपहास के चश्मे से देखा जाता है |
लेकिन मधु ने ठीक ही तो कहा था | अगर सीढ़ी में ऊपर चढ़ना है तो नीचे नहीं देखना चाहिए | चढ़ते सूरज को नमस्कार करने वाले लोगोँ की याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है |
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एक दिन ये होना ही था |
अमेरिका के पश्चिमी तट पर उस दिन सुबह ही हुई थी | भारत में शाम हो रही थी | उठकर एक आदत सी बन गयी है | भगवान से पहले "व्हाट्स -एप" याद आता है | जैसे ही मैंने "भिलाई विद्यालय" के सन्देश देखे, तो चौंक गया | संदेशों का एक बड़ा पुलिंदा मेरी नज़रों के सामने था | अब भी तीव्र गति से सन्देश आ रहे थे | मैं संदेशों को सरकाते हुए जड़ तक जा पहुँचा | दरअसल चन्दन ने किसी अधिकारी से सम्बंधित कोई सन्देश अग्रेषित किया था |
कोई बहुत अजूबा हो ऐसी बात नहीं थी | चन्दन अक्सर ऐसा करते रहता था | मैं ही नहीं, अधिकतर लोग बिना पढ़े ही मिटा देते थे | लेकिन इंदरजीत ने कोई टिप्पिणी कर दी और चन्दन को वह बात नागवार गुज़री | चन्दन ने चाहे जितना अपने आपको परिवर्धित किया हो, अपनी चमड़ी मोटी नहीं कर पाया था | उसने अपनी तरफ से चुभने वाला कोई उत्तर दिया जो न केवल इंदरजीत बल्कि कई अन्य लोगों को चुभ गया | बस फिर क्या था ? सब चन्दन पर टूट पड़े थे | बाकी सब तो कुछ देर में हट गए, लेकिन चन्दन और इंदरजीत का द्वंद्व चलते रहा | जैसे जैसे मैं संदेशों के ढेर में नीचे उतरते गया, मैंने देखा अब वह कीचड उछालने से ज्यादा निचले स्तर पर उतर गया था | अब वह पद के अभिमान, जलन से नीचे उतर कर "औकात" और "बेलचागिरी" पर आ गया था | हालाँकि ये दोनों अपने-आप में भारी भरकम शब्द थे और सामान्य सार्वजानिक वार्तालाप में कम ही प्रयोग में आते हैं , लेकिन अभी तो धड़ाधड़ उछल रहे थे | मसलन दोनों एक दूसरे को 'औकात' दिखा रहे थे |
"क्या कर रहे हो यार ? क्यों लड़ रहे हो ? तुरंत बंद करो |" मैं बीच में कूदा |
प्रतीक भोई उस समय भिलाई विद्यालय ग्रुप का संचालक था | वह भी तुरन्त हरकत में आया |
"गलत बात मित्रों | " प्रतीक भोई ने लिखा ,"कृपया संयम बरतें |"
वहाँ जहाँ गोलियां चल रही हों, वहाँ शांति की अपील भला कितनी प्रभावशाली होती |
"एडमिन यार | इन्हें कुछ समय के लिए बाहर कर दो |" मैंने सुझाव दिया |
तुरंत चन्दन का जवाब आया,"विजय भाई | मुझे बाहर निकालो | ये सब मेरी तरक्की से जलते हैं @#@$ |"
अगले ही क्षण प्रतीक भोई ने चन्दन को बाहर कर दिया |
"चुप बे @#$@ |" इंदरजीत ने अपनी रौ में जवाब दिया | और अगले ही क्षण प्रतीक भोई ने इंदरजीत को भी बाहर कर दिया |
ग्रुप में सुई-पटक सन्नाटा छा गया | उसके बाद चन्दन से पूरी तरह संपर्क टूट गया | काफी दिनों बाद इंदरजीत तो ग्रुप में वापिस आया लेकिन चन्दन ने मना ही कर दिया | बीच बीच में विनोद धर जरूर मांग करता था, "यार मेरे दोस्त चन्दन को वापिस ले आओ | " शायद चन्दन का चुप रहना उसे भी खल रहा था | लेकिन चन्दन वापिस नहीं आया |
एक दिन वह ग्रुप ही समाप्त हो गया | जिस तरह से खतरनाक राजनैतिक सन्देश उसमें आया करते थे, किसी भी दिन उसका दम निकलना स्वाभाविक था |
उसके बाद मुरली ने एक दिन सबको इकठ्ठा कर लिया | और एक नया ग्रुप बनाया | चन्दन को भी किसी तरह उसने मना लिया | इंदरजीत भी उसमें था और विनोद भी |
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चन्दन जिस पर जान छिड़कता था, उससे उसका भरपूर लगाव होता था | याद है, दिल के करीब की तस्वीरें ?
और डॉक्टर कौशलेन्द्र उसका सबसे करीबी मित्र था | डॉक्टर कौशलेन्द्र चुनाव में खड़े हुए थे | चन्दन ने उनका पोस्टर एक दिन "व्हाट्स-एप" ग्रुप में डाला | फिर दूसरे दिन और फिर तीसरे दिन ... | यह तो निश्चित था कि हमारे ग्रुप के सारे लोग, जिन्हें मताधिकार प्राप्त था , डॉक्टर कौशलेन्द्र को ही अपना मत देते | वोट कहीं जा भी नहीं सकते थे | डॉक्टर कौशलेन्द्र को हम लोग भिलाई विद्यालय के दिनों से जानते थे | कोई भी प्रत्याशी उससे ज्यादा कर्मठ और ईमानदार हो ही नहीं सकता था |
लेकिन चन्दन था कि डॉक्टर कौशलेन्द्र का विज्ञापन व्हाट्स-एप में प्रतिदिन डाले ही जा रहा था |
एक दिन मैंने चन्दन के पोस्टर को टैग करके मज़ाक में लिख मारा ,"देख लेना | चुनाव के बाद कौशलेन्द्र बदल जायेगा |"
और चन्दन मुझ पर बरस पड़ा ,"विजय तुम दोस्त हो या दुश्मन ? तुरंत अपना पोस्ट डिलीट करो |"
अब चन्दन का गुस्सा तो जग जाहिर था | मैंने हँसते-हँसते पोस्ट हटा भी दिया |
दिल में सिर्फ यही कसक रही, ये चन्दन के साथ मेरा आखिरी संवाद था | पता भी नहीं चल पाया कि चन्दन ने माफ़ किया या नहीं |
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महाप्रयाण के मात्र चार दिन पूर्व मुरली और अजय कौशल की चन्दन से मुलाकात हुई थी |
न तो कोई प्रयोजन था और न कोई उद्देश्य | बस, घूमते फिरते चन्दन के घर जा पहुँचे | घर में अन्धकार था | मुरली ने घंटी बजाई | फिर एक बार घंटी बजाई | तीसरी घंटी में उसकी श्रीमती जी ने दरवाजा खोला |
"शायद अपने भाई के घर गए हैं |" उन्होंने सूचित किया |
वे घर से निकलने ही वाले थे | फिर सोचा उससे फोन पर ही बात कर ली जाये | तब जाने किस अँधेरे कोने से चन्दन प्रकट हुआ |
वे तो उस चन्दन से मिलने गए थे जो सामान्य परिस्थितियों में जिंदादिल था | ठीक है, वह ठहाके नहीं लगाता था, लेकिन उसकी बातें हमेशा दिलचस्प लगती थी | मगर उस दिन चन्दन बुझा-बुझा सा लग रहा था | उसकी बातें इस कदर नैराश्य से भरी थी कि एक क्षण अजय कौशल को लगा कि चन्दन मज़ाक कर रहा है |
"यार, अब मैं बहुत मोटा हो गया हूँ |" किसी सन्दर्भ में चन्दन बोला |
""कोई जिम ज्वाइन कर ले |" अजय ने सुझाव दिया |
"जिम सब दूर दूर है यार |"
"सायक्लिंग कर न | अब तो बारिश भी ख़तम हो गयी है|" मुरली ने सलाह दी | बहुत से लोग साइक्लिंग करते हैं - विनोद, सुबोध .. |"
"नहीं यार मुरली | मैं साइकिल नहीं चला सकता | मैं साइकिल तोड़ दूंगा |"
"अरे नहीं भाई | तू इतना भारी भी नहीं है |" अजय बोला ,"तो एक ट्रेक सूट खरीद और रनिंग चालू कर दे |"
"नहीं यार मैं दौड़ नहीं सकता |" चन्दन का जवाब था |
"तो ठीक है | पहले वाकिंग करना शुरू कर दे |"
"नहीं यार , मैं चल नहीं सकता | जल्दी थक जाता हूँ |"
के ये वही चन्दन था जो पहली कक्षा में एक बेंच से दूसरे बेंच उछल उछल कर दौड़ते हुए पूरी कतार ख़त्म कर देता था ? वही चन्दन है जो सुरेश बोपचे के साथ त्रि-टंगी दौड़ दौड़ता था ? अगर मैं रहता तो मैं उसे जरूर याद दिलाता |
"तो थोड़ा-थोड़ा चल | फिर बढ़ाते जाना | पहले सौ कदम , फिर दो सौ |"
"नहीं यार मैं चल ही नहीं सकता |"
"अच्छा, दस कदम ?"
"एक कदम भी नहीं |" हठीले बच्चे की तरह चन्दन ने कहा |
"डॉक्टर क्या कहते हैं ? किसी डॉक्टर को दिखाया ?"
"डॉक्टर कहते हैं हरी सब्जी खाओ |"
"तो फिर हरी सब्जी खाओ - पालक, मेथी, टिंडा, लौकी | क्या परेशानी है ?"
"कौन पकायेगा यार ?"
"श्रीमती जी | "
"अरे नहीं | वो नहीं पकाएगी |"
"तो फिर तू खुद पका ले | क्या परेशानी है ?"
"नहीं यार | मुझे खाना बनाना नहीं आता |"
"तो एक खाना बनानेवाली रख ले |"
"खाना बनानेवाली मिलती कहाँ है ?"
"बोल | तो मैं खोज के रखता हूँ |"
"नहीं यार |"
ऐसे नकारात्मक उत्तरों की पूरी श्रृंखला चल रही थी कि अजय कौशल को लगने लगा, चन्दन बड़ी गंभीरता से मज़ाक कर रहा है |
ये वो चन्दन था जो किसी भी ग़मगीन माहौल में भी ख़ुशी खोज़ लेता था | कितने ऐसे मौके आये थे | कक्षा की जान था वह | कभी किसी को निराश नहीं देख पाता था | नहीं - चन्दन जरूर मज़ाक कर रहा था |
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सूरज अस्त जरूर हो चुका था लेकिन लालिमा अभी भी बिखरी हुई हुई थी | अक्टूबर का दूसरा सप्ताह अभी शुरू ही हुआ था | कैलेंडर के अनुसार शिवनाथ नदी का बहाव काफी तेज़ था | बल्कि नदी उफन रही थी | चन्दन यंत्रचालित क़दमों से नदी की ओर बढ़ रहा था | आज उसके मन में न कोई उलझन थी और न ही कोई झिझक | न तो कोई डर था , न कोई मोह |
कोई उसे पुकारने वाला भी तो नहीं था | अब न तो बिजोरिया बहनजी की लड़की ही थी जिसकी आवाज़ से चन्दन पलटकर देखे | शांत चित्त . . . सतत अग्रसर पग ..
. अगर कोई पुकारता तो शायद उसे जवाब मिलता ," कहीं और जा के खोज बे | मैं चन्दन नहीं हूँ |"
वह नव-दुर्गा का प्रथम दिवस था और लगता था, मानो माँ दुर्गा ने ही उसे बुलाया था | वह तर्पण के लिए निकला था - पुरखों को आहुति देने ....
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"तुझे विश्वास नहीं होगा विजय |" सूर्य प्रकाश फोन पर बोल रहा था, "जब चन्दन का क्षत-विक्षत शरीर मिला तो कोई उसे पहचान नहीं पा रहा था |"
...............
...............
मन अचानक भारी हो गया |
जीते-जी भी चन्दन को भला कौन पहचान पाया था ?
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(समाप्त)
साभार - अजय कौशल, प्रमोद मिश्रा , डी. मधु
काल - १९७६-८२ , १९८६ , अज्ञात, २०१५-२०२१
और देखें -
'च' से चन्दन (भाग १ )
'च' से चन्दन (भाग २ )
चोरी में साझेदारी
राजीव सिंह की 'शोले '