बुधवार, 29 दिसंबर 2021

'च ' से चन्दन (भाग २)

चन्दन देति जराय 
जब यह दोहा लिखा गया, तब लिखा गया | तीसरी कक्षा में  जब पढ़ाया गया तो रट  लिया , समझ लिया | यह जान लिया कि अति परिचय से महत्व या दूसरे शब्दों में दबदबा  कैसे कम हो जाता है | 

जब कवि  की कलम चली तब मलयगिरि चन्दन का घर था | चन्दन की लकड़ी के लिए दुनिया तरसती रही हो, पर मलयगिरी की भीलनी के लिए तो चूल्हा जलाकर खाना बनाना ज्यादा जरूरी था | सो, वह चन्दन की लकड़ी चूल्हे में फूँक देती थी | 

दूसरी कक्षाओं के लिए चन्दन का अभी भी खौफ रहा हो, पर हमारी  कक्षा के लोगों के लिए चन्दन वह "दो गज की दूरी" वाला चन्दन नहीं था | उसके गले में बाहें डालते समय राजीव सिंह को कभी पहली कक्षा की  वह घटना याद नहीं आती होगी | वैसे भी उन दिनों गलबहियां प्रगाढ़ मित्रता की निशानी समझी जाती थी | तीन साल से पांच पांच घंटे रोज़  साथ बिताने के के बाद पत्थर भी पिघल जाता है तो वह तो  चन्दन था | बड़े भाई दीपक की वाक्पटुता और परिहास की छवि कुछ कुछ चन्दन में दिखने लगी थी | 

 वही चन्दन सुबह की पाली वालों के लिए खूंखार हो उठता था | सुबह की पाली पौने बारह बजे ख़तम होती थी और दोपहर की पाली बारह बजे शुरू होती थी | उस पंद्रह मिनट के  संक्रमण काल में सुबह वाले बाहर जा रहे होते थे और दोपहर वाले अंदर आ रहे होते थे | चट्टान जब टकराएं तो चिंगारी निकलना  स्वाभाविक था | गाली गलौच, धक्का-मुक्की , गाहे-बगाहे पत्थरबाज़ी - सब कुछ उस पँद्रह मिनट के अंतराल में देखने को मिलता था | बालकों की सृजनात्मकता का अच्छा परिचय मौलिक, अनूठी गालियों में  सुनने को मिलता था | कभी इत्मीनान से बैठकर सुनने में हँसी  आती थी | उन गालियों में कभी डायनोसौर भड़भड़ाता हुआ आता था तो कभी रेलगाड़ी सरपट भागती थी | अभी सिलाई मशीन उछाली जाती थी तो कभी वेल्डिंग का हत्था हत्थे चढ़ जाता था | यह सिलसिला तब तक चलते रहता था , जब तक सुबह वाले स्कूल के बाहर की नाली और फिर सड़क पार करके इक्कीस सड़क में  दाखिल होकर सेक्टर छह की राह ना पकड़ लें | 

इस सारी  कटुता की पृष्टभूमि में दो प्रमुख कारण थे | 

पहला - सुबह वालों के साथ कबड्डी के मैच में हमारी दोपहर पाली की टीम हर बार हार जाती थी | जीत भी कैसे सकते थे ? आखिर हमारी टीम में कौन थे - विनोद धर की चौकड़ी के सदस्य - विनोद धर, भोला गिरी, चन्दन दास  और सुरेश बोपचे और वर्ग 'ड' के एकाध दो लड़के - दुर्गाराव , बलदेव आदि | और सुबह की टीम में ? एक से एक कद्दावर और छंटे हुए लड़के - हमीद, प्रमोद, बासत, जसवंत, कृष्णा रेड्डी , श्याम नारायण ! अगर कोई अपवाद था तो मुस्कुराते चेहरे वाला इक्कीस सड़क का अजय कौशल | वर्ना इन सब की कहानियां शाला प्रांगण के बाहर भी दूर दूर तक फैली थी |  एक बार तो बासत रंदे से बर्फ घिसकर आइसक्रीम बनाने वाले के ठेले से पूरी शरबत की बोतल उठाकर भाग गया था | कबड्डी का मैच जीतना एक बात थी | लेकिन उसके बाद जो विजयोल्लास होता था उससे हम सब जल भुन जाते थे | अब हम तो दर्शक थे, भला खिलाड़ियों पर क्या बीतती होगी - जरा कल्पना करके देखिये | 
हर हार के बाद हम बीते समय के दोपहर की पाली के महान खिलाडियों को याद करते - कुंजीलाल , बृंदा , उदय | एक बार मेरे मुंह से निकल गया ,"यार, वो यदि फेल होकर यहीं रहते तो ..|" और कक्षा "ड" के शरद निगम ने मुझे झिड़क दिया," किसी के फेल होने की दुआएं क्यों करते हो यार?" ये मैं नहीं मेरी खीज बोल रही थी जो हर हार के बाद वही दृश्य देखकर बड़ी - और बड़ी हो गयी थी | 

दूसरा प्रमुख कारण था, लड़कियों से छेड़छाड़ | प्रातः पाली वाले अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ जो कुछ करें, उससे हमें कोई सरोकार नहीं था | पर उनकी मजाल थी  कि दोपहर के पाली की लड़कियों पर एक जुमला भी कस दें | ज्वालामुखी के रूप में चन्दन फट पड़ता था | 

ये मैंने क्या कह दिया ? आप भी सोच रहे होंगे, हमारी उम्र ही क्या रही होगी उस समय ?आठ साल ? नौ साल? या दस साल?  वक्त से पहले बड़े हो गए थे ? मेरे हुजूर, अभी आगे तो पढ़िए | 
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"माचिस की खाली डिब्बी? कितनी लगेगी ? " चन्दन ने मुझसे पूछा | 
मैंने मन ही मन गणना की और कहा, "सात"}
"चाभी छाप या घोडा छाप ?" चन्दन ने दूसरा सवाल दागा | 
"दोनों चल सकती है | बस, आकार समान होना चाहिए | "

वैसे यही सवाल थोड़ी देर पहले प्रमोद मिश्रा ने पूछे थे | चन्दन मेरा दूसरा ग्राहक था | 

ग्राहक ? हाँ अब दिल को बहलाने के लिए  कुछ तो सोचना पड़ेगा | 

बात तीसरी कक्षा की है || हुआ ये था कि कालकर बहन जी ने कोई "मॉडल" बना कर लाने को कहा था | बस, कह दिया, न तो परिभाषित किया और न ही कोई विवरण दिया | कारण यही था कि उन्हें पता था, वे किनके आगे बीन बजा रही हैं | कोई फायदा तो होने वाला नहीं, क्योंकि कोई कुछ करेगा नहीं | उनका मतलब वैज्ञानिक 'मॉडल ' से था, जिसे शायद सिविक सेण्टर के बाल मेला की प्रदर्शनी में रखा जा सके | उन दिनों घर में एक पत्रिका आती थी - धर्मयुग | उसके किसी अंक के बाल जगत के कोने में माचिस के खाली डब्बों से कुत्ते के 'मॉडल' बनाने का विवरण था | 

क्या क्या नहीं किया मैंने | माचिस के जिन डिब्बों में तीलियाँ थी, उनसे वे तीलिया निकालकर दूसरे भरे माचिस के डब्बों में ठूंसा | मुन्ना की मां से खाली माचिस मांग कर लाया | माचिस के डिब्बों से ढांचा बन जाने के बाद घुटना पेपर के सफ़ेद भाग को चिपकाकर , डॉट पेन से उसकी आँखें बनाई , फिर लाल झिल्ली कागज़ से लपलपाती जीभ बनाई |

जब मैंने उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ कालकर बहनजी की मेज पर रखा तब चेहरे से यही टपक रहा था - हाँ, हम भी कुछ कर सकते हैं | कालकर बहनजी ने उसे उलटा-पलटा कर देखा और वापिस करते हुए कहा,"अच्छा है |"

बैरंग वापस ...| भला 'मॉडेल ' का अर्थ और क्या होता है ?"

"तू ऐसा मेरे लिए बना देगा?" प्रमोद मिश्रा ने पूछा | 

दिल को थोड़ी सांत्वना मिली - कहीं से तो कोई प्रोत्साहन आया | 
"हाँ , जरूर | तू माचिस के खाली डब्बे ले आ |"
"तू मुझे सीखा देगा ?"  वह उम्र ही वैसी थी, जब दूसरों से काम करवाने की अपेक्षा स्वतः सीखने की ललक ज्यादा थी |  प्रमोद मिश्रा का यह प्रश्न स्वाभाविक था | 
"ठीक है | पूरी छुट्टी के बाद तू मेरे घर आ जाना |"

प्रमोद मिश्रा मेरे घर आया और  घर की सीढ़ियों पर बैठकर मैंने उसे बनाना सिखाया | 

मगर चन्दन का हिसाब-किताब ही दूसरा था ,"पूरी छुट्टी के बात तू मेरे साथ मेरे घर चलेगा | समझे?"

इन शब्दों में अनुग्रह, अनुदेश और धौंस - सब कुछ समाहित था | 
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पूरी छुट्टी के बाद मैं दौड़ भागकर घर गया | आनन् फानन में शाला की पेटी एक कोने में फेंकी,  माँ के सामने हाजिरी लगाईं और चन्दन के साथ हो लिए | चल पड़े तो चलते ही जा रहे थे | अयप्पा मंदिर पार किया, पूछताछ दफ्तर के बगल से निकले | सत्रह सड़क के बाद 'अबे नू ' ( एवेन्यू  - पार मार्ग ) तक पहुँच गए | उसके आगे ज़िन्दगी में पहली बार मैंने कदम रखा था | टीन के छत वाले घरों  की कतार बड़ी तिलस्मयी लग रही थी | ऐसे ही एक घर पर पहुँच कर चन्दन ने दरवाजा खटखटाया | 

"अरे विजय सिंह |" चन्दन के भाई दीपक ने दरवाजा खोलते ही कहा | 

उनका नाम तो शाला क्रमांक आठ के सब लोग जानते थे , पर उन्हें मेरे नाम का पता कैसे चला ? संभव है, चन्दन ने पूर्व सूचना दे रखी हो | लेकिन इससे ज्यादा बड़ी बात ये थी कि उनकी आवाज़ को क्या हुआ ?

जैसे कि उन दिनों हुआ करते थे | परिवार या आवश्यकताएं बड़ी थी और घर छोटे होते थे | फलतः समझदार लोग आगे पीछे दाएं बांये - एकाध दो कमरे बना लेते थे | चन्दन के घर में भी वैसे ही एक कमरा सामने बना था , जिसमें हम लोग बैठे | वो माचिस की डिबिया लेकर आया |  पर अब उसकी आवाज़ को क्या हो गया ? उसकी आवाज़ भी बहुत धीमे हो गयी | क्या मुझे भी धीमे ही बोलना चाहिए ?

हुआ कुछ वैसा ही | 

"इसको उल्टा घुसा |" मैंने सामान्य आवाज़ में कहा | चन्दन ने तुरंत आवाज़ धीमे करने का इशारा किया | 

मैंने चन्दन को एक बार बनाकर दिखाया और फिर सब डिब्बे अलग करके उससे जोड़ने को कहा | तब तक रात काफी हो गयी थी | 

"चल तुझे छोड़कर आता हूँ | रास्ते  में कुत्ते बहुत हैं - असली कुत्ते | "

"पूछताछ दफ्तर तक छोड़ दे |  फिर मैं चले जाऊंगा |" अब मैं भी जल्दी निकल जाने की फ़िराक में था | 

"चक्कर क्या है यार ?" ट्यूबलर शेड की अँधेरी सड़कों में चन्दन मेरे आगे आगे चल कर यह सुनिश्चित कर रहा था कि कोई कुत्ता अँधेरे में तो नहीं बैठा है | 'अबे नू ' के आते ही सड़क की बत्तियां दिखने लगी और हम अब समानांतर चलने लगे | 

"कैसा चक्कर?" चन्दन ने पूछा | 

"घर में तुम लोग इतना धीमे क्यों बोल रहे थे ?"

"बाबा की रात की ड्यूटी है |" चन्दन बोला ,"उनका कहना है, मैं आठ घंटे भट्टियों की  आवाज़ में रहता हूँ | घर में मुझे शांति से सोने दो |"
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आधी छुट्टी और खेल के पीरियड में फर्क ये होता था कि आधी छुट्टी के वक्त पूरी शाला बाहर होती थी , जबकि खेल के पीरियड में एक या दो वर्ग के लोग ही बाहर होते थे | बाकी काम हम वही करते थे - जो मन चाहे | अगर शिक्षिकाओं की बात मानते तो 'रूमाल चोर' खेलते रहते , जैसे वर्ग 'ड' की आज्ञाकारिणी लड़कियां इस वक्त खेल रही थी | या फिर दौड़ भाग वाले खेल खेलते और फिर बेतरतीब इधर उधर बैठ जाते | या तो विनोद धर  कोई 'फोक' सुनाता और हम लोग इस तलाश में कुत्ते की तरह कान लगाकर सुनते कि कोई मौका भर मिले और हम उसका 'फोक' पकड़ कर उलटा लटका दें | या सूर्य प्रकाश किसी तेलुगू चंदामामा के नए अंक की कोई कहानी सुना रहा होता | तेलुगू  चंदामामा हिंदी की चंदामामा से एक महीने आगे चलती थी | इसलिए धारावाहिक 'विचित्र जुड़वां' या 'वीर हनुमान' में अगले महीने क्या होने वाला है -  यह जिज्ञासा वही शांत करता | 

या तो मैं किसी बाल पॉकेट बुक्स की कहानी सुना  रहा होता| जैसे इस वक्त सुना रहा था ,"राक्षस ने वह हड्डी राजकुमारी को देते हुए कहा ," ये हड्डी किसी आदमी के सर के ऊपर तीन बार घुमा देना | वह चूहा बन जायेगा |"
कहानी अभी अपने चरम उत्कर्ष  पर ही पहुंची थी कि विनोद धर बोल पड़ा ,"और फिर जब राक्षस सो जाता होगा तो राजकुमारी वह हड्डी राक्षस के सर के ऊपर घुमा देती होगी |" आगे कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था | कहानी के रहस्य का ही कचूमर निकल गया | 

अब भोला गिरी ने फिल्म "मधुमति" की कहानी शुरू की जो उसके पिताजी एक दिन पहले जबरदस्ती पकड़कर ले गए थे | ठीक है, उसके पिताजी के दिनों में वह 'सुपर डूपर हिट' रही होगी पर भोला गिरी के लिए वह  किसी उत्पीड़न से कम नहीं था | यह बात भी उतनी ही सही है कि परिहास भी उत्पीड़न के पश्चात् ही उत्पन्न होता है | वह फिल्म की व्याख्या कर रहा था और हम हँस-हँस कर लोटपोट हो रहे थे | 

तो जो वर्ग 'ड' को आज्ञाकारिणी बालाएं, जो अभी घेरा बनाकर रुमालचोर खेल रही थी, उनके लिए जरूर आधी छुट्टी और खेल के पीरियड में फर्क था | आधी छुट्टी के समय वे अपने वर्ग के उन सहपाठियों  पर नज़र रखती थीं जो तार के बाहर जाते थे |  शाह बहनजी आधी छुट्टी के बाद ऐसे लड़कों की पूजा करती थी | 

कभी कभी खेल के पीरियड में हम लोग जूते की कतार लगाकर पाला बना लेते और कबड्डी खेलते | छुआ छुई तो सदाबहार खेल था | लट्टू या गेंद लाना तब वर्जित था | यानी संसाधन के अभाव में भी क्रियाकलापों की कोई कमी नहीं थी | 

पूरे तीसरी और चौथी के शुरुवाती महीने मेंतब तक यही सब चलते रहा जब तक पटल पर दिलीप का आगमन नहीं हो गया | उसके बाद सब कुछ बदल गया - हमारे लिए भी और उन आज्ञाकारिणी लड़कियों के लिए भी | 
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इसे 'आह' कहें या नज़र (शायद कालकर बहनजी की ) कि विनोद धर , भोला गिरी ,  चन्दन दास और सुरेश बोपचे व वह चौगुट जो तीसरी के अंत तक इतना सुदृढ़ लगता था कि उनके बीच से  हवा भी नहीं पार हो सकती थी, चौथी  के अंत तक तिनके की तरह बिखर गया | 

 एक ही साल में  एक नहीं, दो दो बड़े बड़े कहर टूटे |  मानों वे भगवान् ने उन चौगुटों को तोड़ने के लिए ही भेजे हों  

वैसे पहले कहर का नाम दिलीप था | 
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इन तीन सालों में हमारी कक्षा के छात्र इस कदर घुलमिल गए थे कि जब भी कोई नवांगतुक आता तो उसे भी अपने  रंग में रँग डालते | यकीन नहीं आये तो सुबोध जोशी या राजीव जावले  (जो आज इस संसार में नहीं है)  पूछ लेते | 

फिर भी कुछ नयी प्रविष्ठियां ऐसी हुई कि उन्होंने हमें ही अपने रंग में रँगना शुरू किया | कुछ इस तरह कि एक तरह से न केवल तीन सालों की कार्यशैली बदली, बल्कि कई बार हम आत्म  मंथन पर भी विवश हो गए | 

याद है, वो "समय से पहले बड़े होने" वाला जुमला ? कुछ नहीं था उसमें - कुछ भी नहीं | अगर चौगुटे के सदस्य या कुछ इक्के दुक्के और को छोड़ दें तो बाकि लड़के तो लड़कियों से  बात से कतराते थे | न जाने वो क्या सोच ले ? न जाने वो किससे शिकायत कर दे |  यह वह समय था जब फ़िल्में देखना बुरा समझा जाता था क्योंकि फ़िल्में बुरी बातें सिखाती थी | 

और उन्हीं फिल्मों के परदे से उतरकर सीधे कक्षा चौथी 'स' में अवतरित हुआ था दिलीप | 

नहीं, वह हमारे दायरे में शामिल नहीं हुआ | बल्कि उसने खुद अपना दायरा बनाना शुरू किया | आधी छुट्टी और खेल के पीरियड में जब हम खेल कूद या अपनी संगोष्ठी में संलग्न रहते थे, तो दिलीप मिमिक्री करता था | जाहिर है, मिमिक्री ने लोगों का ध्यान अपनी ओर ज्यादा आकर्षित  किया | अब तक जो भी हम इन खाली समय में करते थे, वो लोगों को बेमानी लगने लगा | उसकी मिमिक्री से मंत्रमुग्ध होकर 'हा', 'हा' , 'ही', 'ही' करने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी | हमारा दायरा संकुचित होते गया और उसका दायरा बढ़ते गया | एक दिन ऐसा हुआ कि राजीव सिंह खुद हमारे बीच से उठकर उस वृत्त की परिधि का हिस्सा बन गया, जिसके केंद्र पर खड़ा दिलीप हीरोइनों की नक़ल कर रहा था और लोग ठहाके लगा रहे थे | 

यहाँ तक सब कुछ ठीक था | अगर कुछ जलने की बू आ रही है तो ये आपके रसोईघर से ही होगी | 

लेकिन वह मिमिक्री किनके लिए करता था ? क्या उनके लिए जो उसके इर्द गिर्द बैठकर ठहाके लगा रहे होते थे ? उसका लक्ष्य थोड़ी और दूर था | और दूर .. . | जहाँ कक्षा चौथी  'ड' की लड़कियां बैठती थीं | इस बात से भले शुरू में लोग थोड़े अनभिज्ञ रहे हों, पर भोला गिरी ने इसे तत्काल भांप लिया | और ये कुछ ही दिनों की बात थी, जब भोला गिरी उसका शागिर्द बन गया |

भांपने वालों में चन्दन का दूसरा नंबर था | वह समझ गया कि दिलीप के लक्ष्य क्या हैं | वो 'वक्त से पहले बड़े होने' वाली बात को एक स्तर  क्या, कई स्तर आगे ले जाना चाहता है | 

पता शायद उन लड़कियों को भी चल गया था | इसलिए आधी छुट्टी और खेल के पीरियड के समय वे निरंतर अपना स्थान बदल लेती थी | पर वे जहाँ भी जाती, दिलीप उसके आसपास  अपनी मिमिक्री लेकर पहुँच जाता | 

अब दिलीप एक साइकिल लेकर आता था जो वो रामलीला मैदान में ही कहीं छुपकर रखता था | आधी छुट्टी और खेल के पीरियड पर वो साइकिल लेकर आ जाता | ये देखकर काफी दुःख हुआ कि उसके डंडे पर बैठकर भोला गिरी पैदल मारता था | वो भोला गिरी , जिसकी खुद की अपनी पहचान थी | जो कक्षा एक से हमारा अच्छा दोस्त था | चौगुटे का सदस्य होना तो एक बात थी , वो बोरा दौड़ और कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था | वो भोला गिरी बांका भोलागिरी अब मजनूं नहीं, मजनूं का चेला बन गया था | वो  दिलीप का सहभागी  नहीं, अनुचर हो  गया था | 

और चन्दन का गुस्सा एक दिन फटना ही था | भोला गिरी के रातोंरात आमूलचूल  परिवर्तन से उससे रहा नहीं गया | वैसे भी वह देख रहा था कि हमारा दायरा निरंतर संकुचित  होते जा रहा है | और दिलीप  और भोला गिरी जो कर रहे थे, उसे सामान्य भाषा में 'लफूटगीरी' कहा जाता था | 

आधी छुट्टी के समय उसने सीधे दिलीप का कॉलर पकड़ लिया, "तू साले लड़कों को बिगाड़ रहा है ... बर्बाद कर रहा है |"

अप्रत्याशित मसाला मशीन की कुटाई शुरू होते देख भोला गिरी, विनोद धर  और सुरेश बोपचे बीच बचाव में कूद पड़े ,"चन्दन सुन तो भाई | सुन तो यार |  जान दे यार | छोड़ दे भाई | चन्दन... चन्दन... |" चन्दन के बाएं हाथ का घूँसा सीधे दिलीप का जबड़ा हिला देता अगर भोला गिरी बीच में नहीं आ जाता | अगले ही क्षण भोला गिरी अपना कंधा सहला रहा था | देवदास की तरह भोली सूरत बना कर दिलीप हक्का बक्का लग रहा था | किसी तरह विनोद धर, सुरेश बोपचे और भोला गिरी चन्दन को खींचते हुए एक ओर ले गए | 

और दिलीप भी कोई कच्चा खिलाडी  नहीं था | फिर भी अगले चौबीस घंटों में जो हुआ, उसने इस मामले को एक नया मोड़ दे दिया | 
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अब आपको भी लगता होगा, बहनजी लोग भला खेल के पीरियड में करते क्या थे ? जवाब यही है कि कुछ नहीं करते थे | स्टाफ कक्ष में बैठकर चाय पीते थे , गप  मारते थे | अगर कुछ करते तो यह असंभव था कि दिलीप मैदान में वर्ग 'ड' की लड़कियों का पीछा कर रहा होता और शिक्षिकाओं को पता ही नहीं लगता | शाह बहनजी जरूर कभी कभार मैदान में आती थी | एक बार उन्होंने रुमाल चोर खेलती लड़कियों ये  हिदायत दी कि रुमाल में एक कंकड़ बांच दिया जाए ताकि जब चोर को रुमाल पड़े तो उसे भी पता चले | कभी कभार वह लड़कों को जबरदस्ती 'खो खो' खिलवाने पहुँच जाती थी | पर वह उसी दिन होता था जिस दिन गलती  से सूरज पश्चिम से निकलता था | कालकर बहनजी की उपस्थिति तो  नहीं के बराबर थी | 

अगले दिन खेल के पीरियड में कालकर बहनजी ने राजीव सिंह को अपने पास बुला लिया और उसे लेकर बड़ी बहनजी के कमरे की  ओर ले गयी | थोड़ी देर बाद राजीव सिंह बाहर आया  आवाज दी, "चन्दन तुझे बहनजी बुला रही है |"

 दौड़ते भागते चन्दन राजीव सिंह के साथ गायब हो गया | मन में एक खटका हुआ- कहीं कल की घटना तो बहनजी को पता नहीं चल गयी  ? और एक न्यायाधीश की तरह वो मामले का निपटारा करेगी? यानी दिलीप को भी बुलाया जायेगा और उसका पक्ष भी सुना जायेगा | पर दिलीप तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था | 

तो चन्दन अंदर एक न्यायाधीश के पास बैठा था और अचानक साइकिल पर सवार  मैदान में दूसरा न्यायधीश अवतरित हुआ | मैदान पर आते ही उस दंडाधिकारी ने अपना फैसला सूना दिया,"कहाँ है बे वो तोपचन्द ?"

बात कहने के लहजे से ये एक फैसला ही था | दिलीप का भाई था वह | जिस 'तोपचन्द' को सज़ा देने के लिए वो खोज रहा था वह बड़ी बहनजी के दफ्तर में शायद दूसरे न्यायाधीश के पास बैठा  था | दिलीप के भाई को समझाने का जिम्मा भोला गिरी ने अपने  ले लिया | सुरेश बोपचे भोला गिरी का साथ देने लग गया | वे इस कोशिश में लग गए कि चन्दन दिल का साफ़ है और वो किसी ग़लतफ़हमी का शिकार हो गया है |  सारे लड़के दिलीप के भाई की सायकल घेरकर खड़े हो गए | पिछले चक्के के पास सूर्यप्रकाश झुका और उसने धीरे से वाल्ट्युब का ढक्कन ढीला कर दिया | जब तक दिलीप का भाई मैदान में दहाड़ते रहा, सायकल के हैंडल पर हाथ मारकर धमकाते रहा, पिछले चक्के की हवा धीरे धीरे निकलती रही | अचानक दिलीप के मुंह से निकला ,"कालकर बहनजी |"

कालकर बहनजी के साथ राजीव सिंह और चन्दन दास मुस्कुराते हुए आ रहे थे | 

अगर नीयत साफ़ होती तो दोनों न्यायाधीश आपस में बैठकर निपटारा कर लेते | लेकिन वहां वस्तुस्थिति यह बनी कि दिलीप के भाई ने खिसक जाने में ही भलाई समझी | उसका पिछले टायर ज़मीन से चिपक गया था | आनन्-फानन में दिलीप के भाई ने रामलीला मैदान की ओर बिना हवा वाली खड़-खड़ करती सायकल दौड़ा दी | 

चन्दन के हाथ में वह वस्तु चमक रही थी | वह थी - रशियन फुटबॉल जो मैंने आज तक केवल  सर्कस में ही देखी  थी | 
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आज तक मैंने रशियन फुटबॉल को ठोकर नहीं मारी थी | कैसी  होती थी रशियन फुटबॉल ? 
[1] रशियन फ़ुटबॉल गोल होती थी -पूर्णतः गोल | क्या कहा ? फ़ुटबॉल तो गोल ही होती है | अगर आपने कभी उन दिनों की सामान्य फ़ुटबॉल देखी  हो तो आपको याद होगा कि सामान्य फ़ुटबॉल में ब्लेडर था  जिसमें पम्प से हवा भरते थे | इसकी वजह से उस हिस्से  के कारण  , जहाँ ब्लेडर की टोंटी होती थी और उसे तस्मों से बाँधा  जाता था,  फुटबॉल पूर्णतः गोल नहीं होती थी | वैसे छर्रे वाले ब्लेडर भी आ गए थे, जिनमें टोंटी की जगह एक छोटा सा छेद  होता था, फिर भी उसे घुसांने  और निकालने के लिए जगह तो चाहिए थी | जबकि  रशियन फुटबॉल में ब्लेडर ही नहीं होता था | अगर होता भी था, तो हमें दिखाई नहीं देता था | जब ब्लेडर ही नहीं था तो टोंटी कहाँ से होती ? और जब टोंटी नहीं थी तो तस्मों के कारण फुटबॉल बेडौल नहीं होती थी | 

[2] रशियन फ़ुटबॉल चमड़े के मज़बूत छोटे छोटे टुकड़ों से मिलकर बनती थी जिनका रंग क्रमानुसार एक काला एक सफ़ेद होता था | यूँ समझें कि एक शतरंज की बिसात को गोलाकार रूप दे दिया गया हो | इससे उसकी खूबसूरती बढ़ जाती थी | 

[3]  रशियन फुटबॉल में हवा भरने का सुराख़ खोजने उसे पूरा घुमाना पड़ता था, कई बार तो एक से अधिक बार | तब कहीं जाकर छोटा सा सुराख़ नज़र आता था | 

[4] रशियनफुटबॉल बहुत जल्दी पंक्चर नहीं होती थी | नुकीले पत्थरों, कांटेदार झड़ियों और नाखून वाले पांवों की ठोकर का कोई असर नहीं पड़ता था | जबकि सामान्य फुटबॉल का  ब्लेडर पंक्चर हो जाए तो उसे आटा   चक्की  के पास की साइकिल की दुकान में ले जाकर पंक्चर ठीक कराना पड़ता था | अगर बाहर के चमड़े के खोल में कोई दरार आ जाये तो आम के पेड़ के नीच बैठे राजा मोची से सिलवाना पड़ता था | वो सब नखरे  रशियन फुटबॉल के नहीं थे | 

 रशियन फुटबॉल के आने से एक स्पष्ट फायदा यह हुआ कि जो भीड़ दिग्भ्रमित होकर खेल के मैदान को  छोड़कर दिलीप के पीछे पीछे जा रही थी, वह  रशियन फुटबॉल से सम्मोहित होकर वापिस खेल के मैदान में लौट आयी | खेलकूद से बेहतर मनोरंजन भला कुछ और होता है ? जो नहीं आया था , वो भोला गिरी था | वह अब भी दिलीप का साया बनकर उसके साथ साथ वर्ग 'ड'  की लड़कियों के चक्कर काटता | उन दोनों को लोगों ने उनके हाल पर छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी महत्ता नगण्य हो गयी थी | 

सवाल यह जरूर उठ सकता है की दिलीप वर्ग 'ड' की लड़कियों के ही चक्कर क्यों काटता है ? जवाब में यही कहा जा सकता है कि ये नज़र का मामला है | जिसे जो पसंद आ जाये | यह सही है कि वर्ग 'डी' की लड़कियां हमारी कक्षा की लड़कियों से ज्यादा खूबसूरत तो थी पर बढ़ी चढ़ी और नकचढ़ी भी थीं | जबकि हमारी कक्षा की लड़कियाँ सामान्य थी | किरण थोड़ी  चंचल जरूर थी, पर उससे ज्यादा कुछ नहीं  | पर दिलीप और भोला गिरी की  ये  हरकतें  निहायत खतरनाक भी थीं  | दिलीप तो खैर, नया नया ही आया था , पर क्या भोला गिरी को आभास नहीं था कि वे दीवानगी की बीन किनके आगे बजा रहे हैं?  एक दिन तो भोला गिरी ने हद ही कर दी | पूरी छुट्टी के बाद लड़कियों का पीछा करते-करते वह अपनी कमीज उतारने लगा | लड़कियां डर कर वापिस  स्कूल की और भागी | पीछे पीछे शाह बहनजी आ रही थी | अब डर कर भागने की बारी दिलीप और भोला गिरी की थी | 

फुटबॉल के मैदान में चन्दन का एकछत्र राज्य था | वह खिलाड़ी भी था, प्रशिक्षक भी और रेफरी भी | बस, मुंह में सीटी  नहीं थी | वह जो कहता, नियम वही होते | न कहने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि सबसे अच्छा खिलाड़ी और जानकार भी वही  था | खेल के मैदान में अब किस्से कहानियां चलती तो वह भी फुटबॉल से ही सम्बंधित होती | पता चल गया कि कलकत्ता में 'मोहन बागान', 'ईस्ट बंगाल' और 'मोहम्डन स्पोर्टिंग' फुटबॉल के बड़े क्लब हैं और अब गोवा में 'डेम्पको स्पोर्ट्स क्लब' और 'चर्चिल ब्रदर्स' धूम मचा रहे हैं | ये सब जानकारियाँ अक्सर मनमोहन लेकर आता था, क्योंकि उसके घर 'नवभारत टाइम्स' (नवभारत नहीं) समाचार पत्र आता था | 

लेकिन फुटबॉल के लोमहर्षक किस्से तो चन्दन ही सुनाया करता था | पेले की कहानियां सुनाते समय उसकी आँखों में विशेष चमक आ जाती थी | 

"पेले बड़ा चालू (चालाक) खिलाडी था |" खेल का पीरियड ख़तम होने की घंटी बजी थी | फुटबॉल वापिस करके हम अभी कक्षा में घुसे ही थे | कालकर बहनजी के आने में थोड़ा समय था | 

मैं मनमोहन, सुबोध, सूर्य , सुरेश - सब ध्यानमग्न होकर उसकी बात सुन रहे थे | किसी को अपनी डेस्क की ओर  बढ़ने की जल्दी नहीं थी | 

"एक बार चार खिलाडी उसको गार्ड करके खड़े थे ", चन्दन ने बात आगे बढ़ाई ,"ऊपर से बॉल आयी | पहले पेले उछला तो उसको गार्ड करने वाले सारे खिलाडी भी उछले | फिर पेले ने धीरे से उछल कर बॉल गोल में 'हेड' कर दी |"

मेरे पल्ले खुछ ख़ास नहीं पड़ा ,"कैसे? कैसे? जब पेले ऊपर उछला तो सारे खिलाडी भी उछले ?" 
"हाँ उछले |" चन्दन बोला  | 
"तब तक बॉल कहाँ थी ? कितने दूर थी ?" मैं अभी भी दूरी और समय का गणित बिठा रहा था | 
"हवा में थी |" चन्दन ने जवाब दिया | 
"पेले उछला तो सब उछले | फिर सब ज़मीन पर आ गए |" मैं अब भी गुत्थी ही सुलझा रहा था | 
चन्दन को मुझ पर तरस आया ,"सुरेश, इधर आ बे | विनोद धर, वहीँ खड़े रह | सूर्य, तू पीछे आ जा | समझ कि मैं पेले हूँ |"

चन्दन ने अपनी बिसात बिछाई और दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए बोला ,"समझो उधर से बॉल आ रही है .. |"

उधर से  बॉल तो नहीं आयी, लेकिन  हाथ में हरे बेशरम की मोटी सी सोंटी लेकर शाह बहनजी ने प्रवेश किया | हम सब अपने - अपने बेंचों की ओर लपके | 

पर शाह बहनजी ने वह सब अनदेखा किया | उन्हें किसी और की तलाश थी | 

"दिलीप !" शाह बहनजी छड़ी घुमाते-घुमाते बोली ,"इधर आ |"
थोड़ा सहमा सा, थोड़ा भौंचक्का ( हो सकता है ये उसका जीवंत अभिनय था ) , दिलीप शाह बहनजी के पास पहुंचा | जैसे ही वह बेशरम की सोंटी के दायरे में पहुंचा,  शाह बहनजी ने ताबड़तोड़ प्रहार प्रारम्भ किया | 

सड़ाक ....... सड़ाक .......  सड़ाक .......  !!!

हम सब सन्न | किस अपराध की सज़ा मिल रही है ? जो वह कर रहा था, वह तो कई दिनों से जारी था | कोई न कोई अकस्मात कारण तो रहा होगा ? 

तड़ाक ..... तड़ाक ..... तड़ाक ..... !!!

शाह बहनजी के मुंह से बीच बीच में अस्पष्ट से शब्द निकल रहे थे, "लड़कियों के बीच नाच रहा था | बेशरम ...|"

सांय  .... सांय  .... सड़ ... फड़.... रटाक ..... !!! 

इससे तो बेहतर था कि उस दिन चन्दन से हुई भिड़ंत को वह थोड़ी गंभीरता से लेता | सब सन्न रह गए थे | कालकर बहनजी भी दरवाजे पर ठिठकी खड़ी थी  |  उसके पीछे मैंने वर्ग 'ड' की चुगलखोर लड़कियों को झांकते हुए देखा था | बेशरम की डंडी तो अंधी थी और परवश थी | दिलीप के किन अंगों को चोट लग रही है , कहाँ चोट लग रही है, कैसी चोट लग रही है, उसे कोई परवाह नहीं थी | छड़ी टूट कर आधी हो गयी तो आधी छड़ी से शाह बहनजी ने पीटना जारी रखा, जब तक छड़ी उनके हाथ से न छूट गयी | 

मुझे अंदेशा था, अगला नंबर भोला गिरी का है जो सहमा सा बैठा था | पर तब उसके भगवान के रूप में कालकर बहनजी, जो अब तक दरवाजे पर ठिठकी थी,  ने कक्षा में प्रवेश किया |   कालकर बहनजी के आगमन से मानो शाह बहनजी की तन्द्रा भांग हुई और वे तेज़ क़दमों से बाहर चले गयीं | 

वह विषय ही शायद कुछ ऐसा था कि इस घटना पर कालकर बहनजी ने एक शब्द भी टिप्पणी नहीं की | वे चक हाथ में लिए श्यामपट की ओर बढ़ गयीं मानो कुछ हुआ ही ना हो | 
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तो दिलीप था,  पहला कहर था, जिसके कारण भोला गिरी चौगड्डे से टूटकर अलग हो गया | दूसरे तूफान ने न केवल चौगड्डे को तोड़ डाला, बल्कि कक्षा की ही चूलें हिला डाली | कई लोगों पर उस घटना ने दूरगामी प्रभाव डाला | 
पूरे प्रकरण के सम्बन्ध में आप "चोरी में साझेदारी" में विस्तार से पढ़ चुके हैं | चन्दन का बाल -बाल जाना संयोग कम और दैवयोग ज्यादा था |

 पीतल के घंटे पर काठ के हथौड़े से प्रहार करके जब चपरासी ने आधी छुट्टी की घंटी बजाई, चन्दन अपने घर की ओऱ रवाना  हो गया | उसके घर पूजा थी - माता ने ही उसे बुला लिया था और उसके दामन में बदनामी के छींटे नहीं लगे | कालकर बहनजी ने तो मान ही लिया था, "अगर चन्दन होता तो वह भी शामिल होता |"

अपनी तरफ से चन्दन ने चौगड्डे को बचाने के प्रयास भी किये | दिलीप से सीधे तकरार का कारण कक्षा एक से  पुराने सहपाठी  भोला गिरी को वापिस लाना था |  

पर भोला गिरी अब अलग राह पर काफी दूर निकल गया था | 
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यह मेरी आदत सी बन गयी थी कि पूरी छुट्टी के बाद मैं  बड़ी बहनजी के दफ्तर और पानी की बरसो से सूखी पड़ी बड़ी टंकी के बीच की संकरी जगह से गुजरता था | आँखें ज़मीन पर तिकी होती थी | एक दिन चन्दन ने मुझे देख लिया | 

"क्या खोज रहा है बे ?" उसने पूछा | 
"कुछ नहीं यार |" 

पर चन्दन कहाँ आसानी से छोड़ने वाला था | उसने वादा किया कि वह किसी को नहीं बताएगा | 
"डाक टिकट .. . |"
"डाक टिकट? स्टैम्प ?" 

डाक टिकट  जमा करने का शौक मुझे मनमोहन के भाई रमेश ने लगाया था | घर में जो  चिट्ठियां आती थी, उनमें वही एक ही तरह के टिकट लगे रहते थे | वही वीणा वाले , शेर, हिरण या नटराज की मूर्ति वाले | 

मैंने बाबूजी से पूछा, "कॉलेज में आने वाली चिट्ठियों के लिफाफों का क्या करते हैं ?"
उनका जवाब था, "कूड़े का और क्या करेंगे?"
"तो क्या आप डाक टिकट फाड़कर ला सकते हैं ?"

उस दिन से बाबूजी  लिफाफे से डाक टिकट वाला हिस्सा मेरे लिए फाड़कर लाने लगे | मैंने कह्सूस किया , कॉलेज में पंजीकृत पत्र काफी आते हैं | शायद कुछ पार्सल भी आते होंगे क्योकि कुछ टिकटों की कीमत पत्रों के हिसाब से कुछ ज्यादा ही थी | 

अब मेरी तृष्णा बढ़ी | अचानक ये विचार मेरे मन में कौंधा कि पत्र तो शाला में भी आते होंगे | बड़ी बहनजी भी लिफाफा फाड़कर फेंकती ही होगी | उनके दफ्तर में एक ही तो खिड़की है | मैं उस रास्ते से नियमित रूप से गुजरने लगा | एक बार वीणा वाली टिकट लगा लिफाफा क्या मिला , दफ्तर और टंकी के बीच की संकरी जगह मेरे घर वापिस लौटने के रास्ते में शामिल हो गयी | हालांकि यह मैं काफी सावधानी से  करता था | किसी को पता चले तो लोग हँसेंगे, जैसे आप अभी हँस रहे हैं | 

चन्दन ने मेरी बातें धैर्यपूर्वक सुनी | फिर उसके मुंह से निकला,"पहले क्यों नहीं बोला बे ?"
"क्या?"
"कि ये तू फालतू के काम करता है - टिकट, विकट | खैर, मैं तेरे लिए स्टैम्प लेकर आता हूँ |"
"तू कहाँ से लाएगा ?" मैंने पूछा | 
शायद चन्दन ने इसे अपना अपमान माना,"अबे, मेरे घर भी चिट्ठी आती है |"
"पर कोई, अगर ... |  रहने दे यार |" 
"क्या रहने दे? कौन क्या बोलेगा ? और कोई बोलेगा भी तो ...  तूने मुझे कुत्ता बनाकर दिया था ना ?"

उन दिनों बचपन की दोस्ती में अहसान-वहसान जैसा कुछ नहीं होता था | हम एक दूसरे की मदद बिना कोई अपेक्षा किये करते थे और भूल जाते थे | दोनों को ख़ुशी होती थी और हमारी दोस्ती और सुदृढ़ हो जाती थी | माचिस के कुत्ते वाली घटना को तो मैं भूल ही  चुका था | 
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पहले पहल चन्दन को समझाना पड़ा,"देख भाई, स्टैम्प काटते समय ये कोशिश अरे कि किनारा न कटे | बेहतर है कि तू काट मत, उतना हिस्सा फाड़ के ले आ |"
"तो तू स्टैम्प निकालेगा कैसे ?"
"पानी में डालकर |" मैंने कहा ," मैं कर लूंगा |"

तीसरे दिन वो एक अजीब सा टिकट लाया | उसमें  'भारत'  कहीं नहीं लिखा था -  बांग्ला में कुछ लिखा था | "ये क्या लिखा है चन्दन?" 
ये लिखा है - बांग्ला देश |"
"क्या?" मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा | 

अब तक रमेश विदेशी  डाक टिकटों की काफी डींग हांका करता था | मनमोहन के पिताजी सोवियत संघ में प्रशिक्षण लेकर आये थे | इसलिए उनके पास ढेरों विदेशी टिकट थे | इसके आलावा रमेश ने बताया था कि वोरा ने भी उसे कुछ विदेशी टिकट दिए थे | 

चन्दन ने मुझे पहला विदेशी टिकट दिया था | आखिर बांग्लादेश विदेश ही तो है | 

"तेरे पास ये स्टैम्प आया कहाँ से ?" मैंने पूछा | 

"मेरे अंकल बांग्लादेश में रहते हैं | "

"तो तेरे पास उनकी और भी चिट्ठी होगी ?"

अगले दिन चन्दन किसी पोस्टकार्ड का कोना काट कर ले आया | जैसे हमारे यहाँ के पोस्टकार्ड में  टिकट की जगह शेर की तस्वीर होती है, वैसे ही बांग्लादेश के पास्टकार्ड का कोना था वह, जिसमें कुछ हरे नारियल जैसे फल की तस्वीर थी | कीमत , नाम वगैरह सब कुछ लिखा जरूर था पर वह डाक टिकट नहीं था और मेरे किसी काम का नहीं था | 

"चन्दन ये स्टैम्प  नहीं है यार  |" मैंने कहा,"वो जो पोस्टकार्ड अंतर्देशीय या लिफाफे में  पहले से छाप के आता है, वो स्टैम्प नहीं होते |"

चन्दन थोड़ा सा मायूस हो गया ,"यार, बांग्लादेश वाले अंकल तो पोस्ट कार्ड ही ज्यादा भेजते हैं | लिफाफा तो कभी कभी आता है |"
"शायद उनके पास करने को ज्यादा बात न हो |"
"मैं उनको बोलूं कि लिफाफे में चिट्ठी भेजें और ऊपर से स्टैम्प  लगा के ?"
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पांचवी कक्षा में ढेर सारे नए छात्र आ गए | इतने सारे कि कक्षा में बेंचों की संख्या कम हो गयी | 
दो बहनजी के लड़के - राजीव सिंह और प्रेम पराग पाठक तो पहले से ही थे | तीसरे बहनजी का लड़का, राम का भाई भारत ( देखें - 'च' से चन्दन - भाग १ ) जो तीन वर्षों से बिछुड़ गया था, एक बार फिर पांचवीं में वापिस आया | हद तो तब हो गयी, जब कालकर बहनजी खुद अपने लड़के संदीप कालकर को कक्षा में ले आयीं | एक तरह से कक्षा के लिए ये एक उपलब्धि थी क्योंकि संदीप कालकर क्रिकेट का बेहतरीन बल्लेबाज़ था | दो और क्रिकेट के धुआंधार खिलाडी, फुर्तीला रवींद्र मुंशी और सत्यव्रत भी हमारी कक्षा में आ धमके | सत्यव्रत को कौन नहीं जानता था | अपने बड़े भाई सुब्रत के नक़्शे-कदम पर चल कर मुक्केबाजी और फुटबॉल में वह भी नाम कमा रहा था | 

  फुटबॉल, यानी चन्दन के एकछत्र राज्य को खतरा ? आगे देखेंगे | 

इन चारों   के सिवाय और भी नवागंतुक थे | कक्षा में एक सरदार की कमी थी | सो महेंद्र सिंह आ गया | रमेश मिश्रा और विजय पशीने भी इस सूची में थे | एक आशंका सी थी कि कहीं दूसरा दिलीप न आ जाये और ऐसा कोई भी नहीं आया | तो क्या कोई लड़की भी आयी ?
....  .......  ...... ?/?
पहले आधे साल नहीं, पर जब .. ... 
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यह तय था कि अगर हम सुबह की पाली वालों से क्रिकेट का मैच लेते तो उनकी  जबरदस्त मिट्टी पलीद करते | सूर्य प्रकाश के रूप में एक बेहतरीन हरफनमौला हमारे पास पहले ही था और अब सत्यव्रत, रवींद्र मुंशी और संदीप कालकर और जुड़  गए थे | सुबह की पाली में ले देकर एक अजय कौशल था और उसे ये चारों  मिलकर सम्हाल सकते थे | लेकिन शाला में तो कबड्डी ही होती थी और वही होनी थी | हमने कालकर बहनजी से कहा भी कि अगर क्रिकेट नहीं तो फुटबॉल मैच ही करवा लिया जाए | आखिर फुटबॉल सुबह वाले भी तो खेलते हैं | उनका जवाब सुनकर आप हँसेंगे| उन दिनों इन्हें "विदेशी खेल" माना जाता था | तो बात कबड्डी से आगे बढ़ी ही नहीं | 

 पहले कहा, कबड्डी में अब तक ये चौगड्डे  के सदस्य , विनोद धर, भोला गिरी , चन्दन दास  और सुरेश बोपचे स्थायी सदस्य थे | अब पहले कहर का मारा भोला गिरी , उसकी कबड्डी में कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी | दूसरे कहर के बाद विनोद धर   भी पूर्णतः निष्क्रिय हो गया था | कहने को तो सत्यव्रत और रवींद्र मुंशी उनकी जगह भर सकते थे , लेकिन चन्दन अभी भी लगा हुआ था | उसने विनोद धर  को धर दबोचा,"तू क्यों नहीं खेलेगा बे ?"

"नहीं चन्दन यार | मुझे छोड़ दो |"
"तू खेलेगा | साले ए क मुक्का दूँगा| |दाँत  तोड़कर हाथ में दे दूंगा | तू खेलेगा |"

विनोद धर के चेहरे पर क्षीण मुस्कान की रेखा दिखी | वह जानता था कि ये चन्दन का गुस्सा नहीं, प्यार बोल रहा है | लेकिन उसने अपने आप को मानो हर तरह की गतिविधियों से अलग कर लिया था | 

चन्दन यहीं नहीं रुका | उसने कालकर बहनजी से बातें की | कालकर बहनजी ने दोनों को बुलाकर कुछ समझाया | 

यह देखकर ख़ुशी हुई कि विनोद धर भी मैदान में उतर पड़ा |  उसका पुराना जोश साफ़ झलक रहा था | एक आक्रामक के रूप में रवींद्र मुंशी और फिर सत्यव्रत की उपस्थिति ने टीम में नयी जान फूँक दी | एक बार जब विनोद धर 'आक्रामक' के रूप में गया तो दूसरे पाले की 'क्रासिंग' रेखा तक पहुँचते-पहुँचते वह सब ओर से घिर गया | हमीद, प्रमोद, जसवंत , श्याम नारायण से घिरा वह कहीं दिखाई भी नहीं दे रहा था | अचानक वह वह हवा में उछला और घेरा तोड़कर तीन तीन खिलाडियों को साथ लिए उसने मध्य रेखा छू ही दी | 

 सब कुछ करने के बावजूद हम वो मैच हार ही गए | हार का अंतर जरूर काफी कम हो गया था | फिर भी ये मलाल हमेशा रहा कि सुबह की पाली से हम कभी भी जीत नहीं पाए | 
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पांचवी कक्षा मेरे लिए सबसे मुश्किल साल था | परिवार पर मुसीबतों का आसमान फट पड़ा था | लेकिन साल के उत्तरार्ध में कक्षा के अंदर ही मुझे मानसिक तनाव के दौर से गुजरना पड़ा ( देखें राजीव सिंह की 'शोले') | समझ में नहीं आता था कि आज कौन सा दोस्त मेरा साथ छोड़ देगा | 

मेरे अब गिनती के ही मित्र बचे थे | रोज मैं जेब में हाथ डालकर मित्र निकालकर गिनती करता | चन्दन किस तरफ है - मेरी कुछ समझ में नहीं आता | राजीव सिंह जैसे पुराने और अच्छे मित्र से भला कोई  कैसे दूर हो सकता है ?
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"जागो मोहन प्यारे, जागो ,
जागो नवयुग चूमे नैन तिहारे |"

चन्दन पूरे मूड में था |  उसके बाद मानो उस पर मिरमी का दौरा पद गया हो | पूरे जोश से वह हर दिशा में हाथ पांव फेंकता हुआ चिल्लाया ,"जागो रे जागो जग जाइया जागी | जागो रे जागो जग जाइया जागी |  जागो रे जागो रे जागो रे | जागो रे जागो रे जागो रे |"

सारी कक्षा हँस- हँस के लोटपोट गयी थी | पर ना जाने क्यों मुझे लगा, चन्दन सिर्फ मुझे ही हँसाने की कोशिश कर रहा था | बार-बार उसकी आँखें मुझ पर ठहर जाती थी | उसे लगा कि शायद वह अपने प्रयास में असफल रहा तो उसने एक बार और कोशिश की | 

"सत्यव्रत के घर में सब बॉक्सर हैं | उसका बड़ा भाई बॉक्सर, उसका छोटा भाई बॉक्सर, उसके पिताजी बॉक्सर, उसकी माँ बॉक्सर |"

सारी  कक्षा ठहाके लगा रही थी | सत्यव्रत की हँसी रुक नहीं रही थी | हालाँकि सत्यव्रत के आने के बाद चन्दन का फुटबॉल के मैदान में प्रभाव बँट गया था, लेकिन दोनों के बीच में कडुवाहट कभी देखने को नहीं मिली | चन्दन ने फिर मेरी ओर देखा | फिर वह आगे बढ़ गया -"उसका कुत्ता भी बॉक्सर - भौं-भौं-भौं.... | "

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खेलकूद के नाम पर शाला नंबर में क्या-क्या प्रतियोगिताएं होती थी - बोरा दौड़ , त्रिटंगी दौड़, कुर्सी दौड़, जलेबी दौड़, चम्मच दौड़ और लड़कियों के लिए विशेष सुई धागा दौड़ और रस्सी दौड़  | एक सामान्य सी सौ मीटर की दौड़ भी होती थी  - जिसमें करीब-करीब सभी बच्चे दौड़ते थे और दो चार टकराकर और फिसलकर गिरते भी थे | फिर भी वर्ग 'ड' की विमला लड़कियों में और दुर्गाराव लड़कों में बेहतरीन धावक थे | हमारी कक्षा से चन्दन और सुरेश बोपचे त्रिटंगी दौड़ में स्थायी खिलाडी थे | भोला गिरी और विनोद धर  - निष्क्रिय होने के पूर्व बोरा दौड़ के जादूगर  थे 

अफ़सोस कि ये सब प्रतिस्पर्धाएं ओलम्पिक में नहीं होती थी | आपातकाल  का वक्त था और ओलम्पिक का साल | जिला युवा कांग्रेस को न जाने क्या सूझी कि प्राथमिक शाला के बच्चों के अंतर-शालेय ओलम्पिक कराये जाएँ | कम से कम ट्रेक एन्ड फील्ड तो कराये जा सकते है | अब भिलाई के प्राथमिक शालाओं में - गोला, भाला, चक्का भला कहाँ से आता | ये निश्चय किया गया कि हमारी शाला से उन धावकों की टीम तो भेजी जा सकती है, जिसमें संसाधनों की जरुरत नहीं पड़ती - जैसे १०० मीटर दौड़ , ऊँची कूदम लम्बी कूद | एक-एक खिलाडी ही तो भेजना है, हर स्पर्धा के लिए | 

जब कालकर बहनजी ने प्रतियोगिता के चयन के लिए नाम मांगे तो मैंने ऊँची कूद के लिए नाम दे दिया | कालकर बहनजी को भी थोड़ा अचम्भा जरूर हुआ पर उन्होंने बिना कुछ पूछे नाम लिख लिया |  कौन कितने पानी में है, ये तो शाला की टीम का चयन करने वाले निकाल ही लेंगे | 

चन्दन ने पूछ ही लिया, "ऊँची कूद ? पहले कभी किया है ?"
"हाँ |" 
"कब से ?" उसे विश्वास  दिलाना थोड़ा मुश्किल था | 
"दूसरी से|"

इक्कीस और बाइस सड़क के बीच एक खेल का मैदान था | ठीक वैसे ही जैसे १७ और १८ के बीच, १९ और २० के बीच और २३ और २४ के बीच |  १९७१-७२ में लोग ज्यादा हो गए और खेलों का कोई महत्त्व नहीं रह गया था | इसलिए भिलाई इस्पात संयंत्र ने उन खेल के मैदानों में गृह निर्माण का फैसला किया  |

बाइस सड़क के अंत में, जहाँ बड़ी पुलिया थी, उसके आगे और सात वृक्ष मार्ग  के बीच में खाली जगह बहुत थी | वहाँ बेतरतीब गड्ढे , धतूरे की झाड़ियां और कुछ पगडंडियां थी | पुलिया के पास ही बबलू भैया ने एक चौकोर गड्ढा खोदना शुरू किया | बाकी सब लड़कों ने हाथ लगाया | जब अनिल के पिताजी की नज़र पड़ी तो उन्होंने उन ट्रक वालों से , जो घर बनाने के लिए रेत के ढेर इधर उधर लगाते थे,  बातें करके थोड़ी थोड़ी रेत  उस गड्ढे में डलवाई और वहां ऊँची कूद का अखाडा तैयार हुआ |वहां दो लड़के लट्टू की रस्सी पकड़ लेते और लोग एक एक करके  आते और कूद लगाते | 

मुश्किल यही थी कि हम लोग टीम खेल में - हॉकी , क्रिकेट या फुटबॉल में ज्यादा रूचि लेते थे और उसके लिए रामलीला मैदान जाना पड़ता था जो उस अखाड़े के ठीक विपरीत दिशा , यानी शाला क्रमांक आठ की ओर था |नतीजा यह हुआ कि ऊँची कूद का वह अखाडा उजाड़ हो गया | इस बीच दो वर्ष और गुजर गए |  अब रामलीला मैदान में खेल के मैदान के पास  कन्या शाला बन रही थी तो ईंट और रेत के ढेर इधर उधर लगे रहते थे | 

 एक दिन हॉकी के खेल के बाद हॉकी  घर में  रख कर अँधेरे में मैं, मनमोहन, बबलू भैया और रमेश फिर रामलीला मैदान लौटे | एक रेत के ढेर के पास बबलू भैया ने मुझे और मनमोहन को लट्टू की एक रस्सी पकड़ने को कहा | पहले बबलू भैया ने छलांग भरी | फिर रमेश ने | उसके बाद उन दोनों ने रस्सी पकड़ी और मुझे और मनमोहन से छलांग लगाने को कहा | 

समय के साथ साथ मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा | अब मैं करीब-करीब उतनी छलांग  लगाने लगा जितनी कि रमेश लगाता था | दुर्भाग्य से कुछ दिनों के बाद में बबलू और रमेश का झगड़ा हो गया और ऊँची कूद का वह अभ्यास भी छूट गया | फिर मन में आत्मविश्वास तो था ही | 

जब मैंने चन्दन को ये वृत्तांत सुनाया तो वह उछल पड़ा ,"तब तो तू जसवंत को हरा देगा |"

"कौन जसवंत ?" मैंने पूछा | 

"अरे, मेरे घर के पास रहता है | बहुत बड़ी-बड़ी फेंकता है | बहुत हवा भर गयी है साले में |" 

मुझे तो अपने प्रतिद्वंदियों का कुछ पता ही नहीं था |मुझे इतना पता था कि  मैं क्या कर सकता हूँ | वो क्या कर सकता है - मुझे उसका कोई अंदाजा तो था नहीं |  लेकिन पता नहीं, उसके मन में कहाँ से इतना विश्वास  भर  गया जो मेरे आत्मविश्वास से दस गुना ज्यादा बढ़ गया | मैंने कोई बढा -चढ़ाकर मनगढंत कहानी नहीं सुनाई थी | फिर चन्दन का यह भरोसा कहाँ से आ गया ?

इतना ही नहीं, चन्दन ने मुझे हिदायत दी ,"कल तू स्कूल थोड़ा जल्दी आ जा |"

ये मेरी समझ से परे था |  दूसरे दिन जब मैं स्कूल पहुंचा तो चन्दन मानो मेरा ही इंतज़ार कर रहा था | सुबह वालों की छुट्टी हुई और सब चन्दन के अगल-बगल से से कुछ न कुछ उड़ाते जाने लगे \ आज चन्दन उनकी बातों को अनसुना  कर रहा था | उसकी आँखें किसी को खोज रही थीं | अचानक उसने आवाज़ दी, "अबे, सरदार सुन |"
एक लंबा सा सांवला सिख मुस्कुराता हुआ हम लोगों के पास आ गया | अरे, ये तो वही कबड्डी वाला जसवंत है | चन्दन ने मेरा परिचय कुछ इस तरह दिया -
"इसको जानता है बे ?"
"हाँ, देखा है |" जसवंत बेफिक्री से बोला | 
"मेरी कक्षा का है | तेरे को लम्बी कूद में हरा देगा | समझा न ?"

 ये चल क्या रहा था ? जसवंत ने कुछ कहा नहीं | वह बस मुस्कुराये जा रहा था | अगर चन्दन उस पर  किसी तरह का कोई दबाव बनाना चाहता था, तो उससे ज्यादा दबाव उसने मेरे ऊपर बना दिया था - उम्मीदों का दबाव, विश्वास का दबाव | उस प्रतिकार की भावना का दबाव जो हर कबड्डी मैच के बाद उसके हृदय में सुलगती थी  | 
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मैं तो समझता था , ऊँची कूद, लम्बी कूद जैसी स्पर्द्धा में गिने चुने लोग ही होंगे | एक दिन आधी छुट्टी के समय पांचवी 'ड' का रवि , शैलेन्द्र  वाजपेयी को बोल रहा था ,"अपना तोरण लाल क्या ऊँची कूद कूदता है यार  |" उसने अपने कंधे तक हाथ लाकर कहा , इतना इतना कूद जाता है | सुबह वालों को तो आराम से हरा देगा |"

चलो | एक प्रतिद्वंदी का तो पता चला | हालाँकि रवि जो ऊंचाई का दावा कर रहा था, मुझे कुछ ज्यादा लगा  | रवि खुद लम्बा था | 

मेरी शंका को शैलेंद्र वाजपेयी ने मुखरित किया ,"तू  'फोक' मार रहा है | इतना ऊँचा कोई कूद सकता है ?"

और नतीजा यह हुआ कि तोरण लाल को खोज निकाला गया | वैसे स्कूल था  ही कितना बड़ा और वर्ग 'ड' वाले तो वैसे भी तार के बाहर नहीं जाते थे | सामान्य सा मुस्कुराता हुआ चेहरा , माथे पर बीचों बीच अर्ध चंद्र के आकार में एक काट का निशान, जो लगता था, मानो प्राकृतिक तिलक लगा हो | ऊंचाई कोई बहुत ज्यादा नहीं थी | मुझसे थोड़ा सा ही लम्बा था | 

आनन् फानन में जितेंद्र गेट के पाद उगी झाड़ियों से एक डंडी तोड़कर ले आया |   रवि उसे पकड़कर खड़े हो गया | लेकिन वहीँ रेत तो थी नहीं , हाँ, दूसरी और हरी घास जरूर थी | क्या उसे चोट का डर नहीं है ? तोरण लाल ने जूते उतारे | पानी के सूखे हुए नल के पास से वह तेज़ी से दौड़कर आया और हवा में उछला | ऊपर से गुजरते हुए डंडी से उसका पाँव छू  गया | लेकिन उसके उस पार पहुँच कर वह गिरा नहीं, बल्कि लम्बा होकर लुढ़कते रहा  | तो उसकी तकनीक इतनी सधी हुई थी कि  उसे रेत की इतनी आवश्यकता नहीं थी | 
"धत", 'फाउल' होने के कारण वह खुश नहीं हुआ,"एक कोशिश और करते हैं |"

जसवंत का तो पता नहीं, लेकिन तोरण लाल की वह छलांग देखकर लगने लगा कि तोरण लाल से मैं जीत नहीं पाउँगा | पर यह सब चन्दन से कैसे कहा जाए ? मैंने उसे अप्रत्यक्ष रूप से समझाने की कोशिश की ,"चन्दन, दोपहर की पाली का कोई और जसवंत को हरा सकता है |"

"चुप बे | गोले मत दे |" चन्दन ने झिड़क दिया , "तू जीतेगा |"
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स्पर्धा थी भी तो फरवरी के पहले सप्ताह में | ठण्ड के दिन ख़तम हुए | मौसम गर्मी में बदल रहा था और ऐसे में मुझे अजीब किस्म का जुकाम हुआ |  वह भी स्पर्धा के एक दिन पहले | रात भर मैं सो नहीं पाया और ऐन  स्पर्धा के दिन सुबह सुबह मैंने उलटी कर दी | एक बार तो मुझे लगा कि में स्पर्धा में हिस्सा ही न लूँ | क्या फायदा ? एक ही खिलाडी का चयन होना है और तोरण लाल निश्चित रूप से मुझसे बेहतर कूद सकता है | लेकिन चन्दन की उम्मीदों का  बोझ कुछ इस कदर भारी था कि इस तरह पीछे हट जाना मुझे कायरता लगी | 

दोपहर को शाला जाने के पहले माँ ने मुझे बार्ली बनाकर दी | सुबह से वही मेरा आहार था | 

स्पर्धा दोपहर के दो बजे से होने वाली थी | पौने दो बजे ही कालकर बहनजी से कहकर मैं कक्षा से बाहर निकल गया | मेरे पीछे-पीछे चन्दन भी निकल आया | 

"तू स्वेटर क्यों पहना है बे ?" चन्दन ने पूछा | 

"मेरी तबीयत आज ठीक नहीं है यार |" मैंने कहा | 

"ठीक है | सब ठीक है | उसने मेरी बात को हवा में उदा दिया ,"चल स्वेटर मुझे दे दे |"

शाला टीम में  चयन के लिए धावकों की परीक्षा कहाँ ली जाए ? 

शाला के दक्षिणी छोर पर तालाब के चारों ओर पार्क बन गया था | उसके उत्तर पश्चिमी किनारे पर टेलीविजन का कक्ष  था | जिसमें एक खिड़की थी, जो उस समय बंद थी | उस खिड़की के पीछे ही टेलीविजन रखा था | पास ही अमरीकी उपग्रह से आने वाले सिग्नल को पकड़ने के लिए एक बड़ा सा कटोरे के आकर का एक  एंटीना  लगा था |  

टेलीविजन कक्ष और पार्क के बीच खाली जगह में रेत का अम्बार लगाकर एक अस्थायी अखाडा बनाया गया था | अब वहां तक कैसे पहुंचा जाए ? शाला की दक्षिणी सीमा, जो पार्क की उत्तरी सीमा थी,उसमें ऊँच ऊँचे जालीदार तारों की एक बाड़ लगा दी गयी थी | वैसे पार्क के हर दिशा में एक एक दरवाजे थे और इसलिए उत्तर  दिशा का द्वार हमारी शाला के परिसर में ही खुलता था | किन्तु बड़ी बहनजी को ये मंजूर नहीं था कि स्कूल के छात्र उस द्वार से होकर पार्क में जाएँ, इसलिए कांटेदार बाद लगाकर वह द्वार बंद कर दिया गया था | अब उस अखाड़े तक पहुँचने का एक ही रास्ता था कि पार्क के अयप्पा मंदिर वाले द्वार से घूम कर जाया जाये  | 

मैं और चन्दन शाला के गेट से बाहर निकल ही रहे थे कि पीछे से तोरणलाल आ गया |
 
"अरे विजय सिंह तुम ?" उसे भी आश्चर्य हुआ कि मैं कक्षा के बाहर कैसे घूम रहा हूँ | 

"जिसके लिए तुम जा रहे हो | ऊँची कूद |" मैंने कहा | 

चन्दन को उसका साथ होना पसंद नहीं आया | अयप्पा के पास के द्वार पर चन्दन को सामने से जसवंत आते दिखा और वह ठहर गया | तोरणलाल अंदर चले गया | 

"क्यों बे सरदार ? हारने आ गया ? देखना , आज ये तुझे बताएगा, ऊँची कूद क्या होती है ?" चन्दन बोला |  जसवंत के सांवले चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी | 

मेरे तोरणलाल और जसवंत के सिवाय सुबह की पाली से दो प्रतियोगी और थे | 

निर्मलकर सर हाथ में कागज़ लिए खड़े थे | रेत  के ढेर के पहले सुबह की पाली की दो बहनजी लट्टू की लम्बी सी रस्सी लिए खड़ी हो गयीं | निर्मलकर सर ने मापक टेप से ऊंचाई मापी और एक एक करके प्रतियोगियों को बुलाना प्रारम्भ किया 
चन्दन एक और मेरा स्वेटर थामे खड़ा था | निर्मलकर सर ने जो स्तर लगाया था , मैं आश्वस्त  था कि मैं उसे आसानी से पार कर जाऊंगा | मेरा नंबर दूसरा था , जसवंत का तीसरा और तोरणलाल का पांचवां | जब मेरा नंबर आया तो मैं चन्दन के चेहरे पर तनाव स्पष्ट देख रहा था | तेजी से दौड़कर लक्ष्य के पास मैंने छलांग लगाईं | जैसे ही लक्ष्य के उस पार पहुँच कर मैंने फिर चन्दन के चेहरे की और देखा, तो वह तनाव एक राहत में बदल गया था | 

अब जब सारे प्रतिस्पर्धियों ने पहला स्तर आसानी से पार कर लिया तो निर्मलकर सर ने लघुमार्ग अपनाने का निश्चय किया | उन्होंने बाधा का स्तर एकदम से काफी बढ़ा दिया | उतना, जितना अभ्यास के समय मनमोहन का बड़ा भाई रमेश कूदा करता था | नंबर एक प्रतिस्पर्धी उसे फांद नहीं पाया और रस्सी को साथ लिए ही रेत पर धराशयी हो गया | दूसरा नंबर मेरा था | निर्मलकर सर ने मापक टेप से माप कर पुनः  स्तर का निर्धारण किया | मैंने दौड़ना शुरू किया और हताशालक्ष्य के पास पहुँच कर पूरी सामर्थ्य से छलांग लगाईं | रेत पर गिरने के बाद मैंने चन्दन का चेहरा देखा | उसके चेहरे पर अब निराशा स्पष्ट दिखाई दे रही थी | जब मैंने रस्सी की ओर  देखा तो वह धीरे धीरे हिल रही थी | एक हताशा सी छा  गयी |  जसवंत ने वह लक्ष्य सफलतापूर्वक लाँघ लिया | उसके बाद का धावक भी बुरी तरह असफल रहा  | सब से अंत में तोरणलाल ने भी वह स्तर लांघ लिया | 

 हम तीनों असफल धावकों को एक एक मौका और दिया गया | 

पहले नंबर के धावक वही कहानी फिर दोहरा दी | रस्सी से उलझकर वह रेत के ढेर में जा गिरा | दूसरा नंबर मेरा था | मैंने पुनः एक बार पूरे जोश से ताकत लगाईं और मुड़कर मैंने पहले रस्सी की और देखा | वह स्थिर थी | 

ओह , मेरा ये प्रयास सफल रहा | फिर मैंने चन्दन की ओर देखा | उसके चेहरे पर निराशा भी नहीं थी और न ही कोई हर्ष था | असफल  होने वाले तीसरे धावक ने दौड़ना  शुरू किया पर वह बीच में ही रुक गया | फिर  वह अपने प्रारंभिक बिंदु पर वापस गया | वह एक क्षण ठिठका  और फिर अलग हट गया | अब मैदान में मैं, जसवंत और तोरणलाल बच गए थे | 

अगले चक्र में निर्मलकर सर ने लक्ष्य इतना ऊपर लगाया कि शायद बबलू भैया को भी उसे लांघने में मुश्किल होती | हुआ वही - दो बार कोशिश करके भी मैं लक्ष्य पार करने में असफल रहा , जबकि जसवंत और तोरणलाल पहले ही प्रयास में उसे पार गए | जब मैं दूसरी बार रेत पर गिरा, तो मैंने चन्दन की ओर  देखा | पर चन्दन तो वहां था ही नहीं | वह मेरा स्वेटर लिए अयप्पा गेट की तरफ बढ़ रहा था | 

उसके विश्वास को ठेस पहुंची थी | उसके दिल के करीब की तस्वीरों पर खरोंच आयी थी | 

मैंने जल्दी जड़ी जूते पहने और उसकी ओर दौड़ा | 
"चन्दन, चन्दन |" 
वह रूककर मेरी ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखने लगा | 
"आज ठीक से कर नहीं पाया यार |" मैंने कहा | फिर मैंने जो कहा, वह वस्तुस्थिति तो थी, पर मुझे लगा, जैसे मैं सफाई पेश कर रहा हूँ ,"आज तबीयत भी थोड़ी खराब थी |"
"चुप बे |" वह बोला और चुपचाप चलने लगा | 

मैं रूककर देखने लगा | अगले चक्र में निर्मलकर सर ने लक्ष्य का स्तर इतना ऊपर किया  कि जसवंत और तोरणलाल दोनों ही लक्ष्य को पार नहीं  कर पाए | अब उन्हें एक मौका और दिया जा रहा था | अगर इस बार भी दोनों असफल रहते तो लक्ष्य थोड़ा नीचे करके परखा जाता |  दूसरी कोशिश में भी जसवंत नाकाम रहा | अब सारी  नज़रें तोरणलाल पर टिकी थी | मैं धीरे धीरे चलते हुए बाहर से देख रहा था | अब मैं बीस सड़क के पास, टेलीविजन कक्ष के करीब करीब समानान्तर आ गया था | अगर थोड़ा और आगे बढ़ता तो कुछ भी नहीं देख पाता | मैं वहीँ रूककर देखने लगा | इस बार तोरणलाल ने जो छलांग लगाईं तो वह बिना छुए रस्सी के उस पार पहुँच गया | 
मैं तेज़ी से चन्दन की और दौड़ा | मैंने मन ही मन निर्धारित कर लिया कि चन्दन यह समाचार किस रूप में देना  है ?

"चन्दन,  जसवंत हार गया चन्दन |" 

चन्दन ने कुछ कहा नहीं, वह चुपचाप चलते रहा | 

उसके लिए किसी की हार  ही नहीं , किसी की जीत भी महत्वपूर्ण थी | 
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आखिरकार वह बोर्ड परीक्षा आ ही गयी , जिसका इंतज़ार था | कुल चार प्रश्नपत्र थे - भाषा (हिंदी ), गणित, भूगोल और विज्ञान| | एक दिन में सुबह और दोपहर एक एक पर्चे होते थे | इस तरह दो ही दिनों में चारों पर्चे निपट गए | मैं 'ट्रिपल टेस्ट'  की पन्नी नंबर १५३ की तलाश में फिर जुट गया | आखिरी परचा होने के बाद भी मैं रुका रहा; हालाँकि मेरा पेपर बहुत पहले समाप्त हो गया था और मैं परचा जमा करके बाहर आ गया था (मैं उन लोगों में नहीं था जो परचा ख़तम करके भी समय समाप्त होने तक अंदर ही बैठे रहते थे |)  | 

नुझे चन्दन का इंतज़ार था | जब वह बाहर आया तो मैंने उसे बताया कि मैं 'ट्रिपल टेस्ट' के पन्नी नंबर १५३ की खोज कर रहा हूँ | पहले तो उसे समझाना पड़ा, कि 'ट्रिपल टेस्ट' की १८० पन्नियों में से मुझे १७९ मिल चुकी है , पर १५३ अभी तक नहीं मिली | उसका वही जवाब था -"पहले क्यों नहीं कहा ?" 

"ठीक है |" वह बोला ,"देखता हूँ- घर के आस पास तेरे जैसा कोई पागल जमा करता हो तो|"

कोशिश उसने भी की | कभी वह १६४ नंबर (गोदना) ले आता था तो कभी १६८ (भूमिगत रेल) | 
"नहीं यार, मुझे १५३ नंबर चाहिए | गगनचुम्बी ईमारत |"  मैंने कहा ,"तू  इस कड़ी धूप में इतनी दूर से आता है |" 
"१-५-३?"
"हाँ, १-५-३| दूसरा बिलकुल नहीं | बल्कि तेरे किसी दोस्त को और कोई नंबर चाहिए और वह अदला-बदली के लिए तैयार हो जाए तो मुझे बताना | मुझे चाहिए १-५-३|"

और इसी बीच परिणाम का दिन आ गया | 
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परिणाम के दिन जो कुछ हुआ, समय ने कैसे पलटा खाया, ये आप "चोरी में हिस्सेदारी" और "राजीव सिंह की 'शोले'" में पढ़ ही चुके हैं | राजीव सिंह की रुलाई से सारा  माहौल ग़मगीन हो गया था | 

अब अंग्रेजी वर्णमाला के नाम के हिसाब से कालकर बहनजी ने नाम पुकारना शुरू किया | प्रत्येक से वह एक-एक दो-दो मिनट बातें करतीं | लगता था, वक्त ठहर सा गया हो | 

उन्होंने चन्दन का नाम पुकारा और चन्दन तेजी से दौड़कर उनके पास पहुंचा | रिजल्ट देखते ही उसे मुख में  मुस्कान आ गयी | किसी तरह जबरदस्ती अपनी आतंरिक ख़ुशी छुपकर एक आज्ञाकारी छात्र की तरह वो कालकर बहनजी की बातें सुनते रहा और सर हिलाता रहा | फिर वह परिणाम पत्रक लेकर उसे देखते हुए लौटा | बीच बीच में वो रूक जाता और फिर चल पड़ता | 

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भिलाई विद्यालय में जाने के पूर्व एक नाटक और हुआ | सेक्टर २ के बच्चों के लिए शाला क्रमणक आठ के दरवाजे ही बंद थे | 

फिर जब दरवाजे खुले तो हमने सरपट दौड़ लगाईं (देखें राजीव सिंह की 'शोले'") | 

चन्दन ने जल्दबाजी की, उसको छठवीं वर्ग "अ" में जगह मिली | 

मैंने देर लगाईं | दाखिले की जो पर्ची मुझे थमाई गई उसमें छठवीं "ड" लिखा हुआ था | 

बाकी सब, जावले, सुबोध, सूर्य, मनमोहन - वर्ग 'स' में घुस गए क्योंकि सबने तकरीबन एक ही समय दाखिला लिया था | 

तो संयोग ऐसा कि चन्दन के साथ एक ही छत के नीचे अध्ययन या कार्य करने का अवसर फिर कभी मिल नहीं पाया | 
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(क्रमशः )




काल - १९७१-७६ 

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बुधवार, 22 दिसंबर 2021

चोरी में साझेदारी

यकीन  मानिये, पाठशाला  परिसर काफी बड़ा  था - आधिकारिक और अनधिकृत - दोनों  ही दृष्टिकोण से | 
आधिकारिक रूप से तार का एक घेरा था | किसी ज़माने में कंक्रीट के उन छोटे स्तम्भों में तार ऊपर तक तने हुए थे जो उसे एक घेरे का रूप देते रहे होंगे | लेकिन हमने उन्हें हमेशा ज़मीन चूमते हो देखा था | यानी वो ज़मीन पर शाला परिसर का सीमांकन जरूर करती थीं , किन्तु सीमा का निर्धारण नहीं | पूर्व में रामलीला मैदान था और दक्षिण में एक तालाब, जिसके आगे बाज़ार था | उत्तर की सीमा, बिजली के ट्रांसफॉर्मर कक्ष तक फैली थी| यानी वे तार करीब करीब सड़क तीन को छूते  थे | 
'अनधिकृत' इसलिए, क्योंकि  शाला के समय वैसे तो हमें तार के बाहर जाना मना था | लेकिन चना मुर्रा वाली बाई, खोमचे वाला दौलत और आइसक्रीम के दो तीन ठेले , रेवड़ी और मूंगफल्ली वाले तार के बाहर ही बैठे रहते थे और आधी छुट्टी में हमें आशा भरी नज़रों से देखते थे | आधी छुट्टी को इस नियम का उल्लंघन करने वालों की कमी नहीं थी | जैसे खेमचंद बिहारीलाल - जो अपनी अचूक निशानेबाजी का कमाल दिखाकर तालाब के किनारे के वृक्षों से हर्रा तोडकर लाता था | 
तालाब के किनारे आम के पेड़ों पर लगे मौर छोटे छोटे अमियों में क्या तब्दील होते थे कि लड़कों के झुण्ड पत्थर हाथ में लेकर चांदमारी पर उतर आते थे | 'तार के बाहर' वाले  नियम अब भी थे | राजीव सिंह सहित कक्षा के कप्तानों को हिदायत थी कि नियम का उल्लंघन करने वाले बच्चों की सूची बनाकर नियमित रूप से  बड़ी बहनजी को दें | मुश्किल ये थी कि सब तो गलबहियाँ यार थे | चना मुर्रा , रबड़ी या मूंगफली बांट कर खाते थे | और इसके बावजूद कोई क़ानूनची कप्तान निकलता था तो पूरी छुट्टी के बाद उसे पीटकर हिसाब चुकता कर लिया जाता था | 
शायद यही सब भांप कर शाह बहनजी ने चुगलखोर लड़कियों की फ़ौज बनाई थी | अब भला लड़कियों से कौन उलझे ? लेकिन    'स' वर्ग  कप्तान , राजीव सिंह , प्यारा दोस्त था और आप लोगों को याद होगा ही कि ,उसकी वानर सेना का हनुमान कौन था  ('च' से चन्दन - भाग १)? 
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परिवर्तन प्रकृति का नियम है | लेकिन जो बदलाव हमारी आँखों के सामने होना शुरू हुआ, वह सखदायी हरगिज नहीं था | दक्षिणी सीमा पर पत्थर की एक दीवार बनने लगी | और बड़े बड़े पत्थरों के ढेर हमारे उन खेल के मैदान में लगने लगे, जहाँ हम रशियन फुटबॉल को ठोकरें मारा करते थे | उड़ती सी खबर आने लगी कि दक्षिणी छोर पर तालाब के आसपास एक उद्यान बनने वाला है | पूर्वी छोर पर आधिकारिक सीमा में कोई परिवर्तन तो नहीं था था, मगर हाँ -  रामलीला मैदान की सीमा पर भी पत्थरों का ढेर स्पष्ट दिख रहा था | 
उत्तरी छोर की सीमा , तो सड़क तीन तक फैली हुई थी , अचानक सिमटने लगी | हवा में यह समाचार उड़ने लगा कि वहाँ एक कन्या शाला बनने जा रही है | हमने आँखें मल मल कर देखा - कंक्रीट के वे छोटे खम्बे अब शाळा की खिड़कियों के बिलकुल पास आ गए थे | 
और रोष, खिन्नता, क्रोध, विद्रोह की भावना की चिंगारी वहीँ से ही पनप उठी | 
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ऐसा नहीं था, लड़के ही नए आते थे | अब कक्षा में लीलावती और नसीम गयी तो एक नयी चंचल लड़की आयी - किरण | शैतानी में तो वो कलवंत से भी दो कदम आगे थी | उसके चेहरे पर हर समय शरारत भरी मुस्कान छायी रहती थी | जहाँ बाकी लड़कियां दो चोटी कर के आती थी (मुक्ता  मिश्रा को छोड़कर, जिसकी एक बीमारी के कारण सारे बाल झाड़ गए थे और वह सर पर रुमाल बांधकर आती थी | अपवादस्वरूप कलावती के भी शुरू से छोटे छोटे बाल थे |), वहीँ किरण के बाल 'बॉब कट'नहीं, बल्कि 'बॉय कट' थे | अगर वो लड़का होती तो जरूर विनोद धर गैंग का पाँचवाँ सदस्य होती, पर लड़की होकर भी लड़कों के वो कान काटती थी | विनोद धर और उसके बीच जबरदस्त छींटाकशी होती थी | विनोद धर ने उसका नाम 'नाक चपटी ' रख छोड़ा था | 
किरण काफी बेबाक थी | दो साल बाद, जब हम लोग पांचवीं में थे - तब एक बार सड़क छह में मेरी साइकिल पंचर हो गयी थी | मैं साइकिल लुढ़काते हुए पंचर दुकान खोज ही रहा था कि किसी ने मुझे आवाज़ दी ,"विजय सिंह" | मैंने देखा तो अपने घर के गेट पर किरण  खड़ी मुस्कुरा रही थी | उसकी मां बरामदे में बैठी गेहूं साफ़ कर रही थी | आज ये बातें सामान्य सी लग सकती हैं, पर उन दिनों जब किसी लड़की से बात करना ही बहुत बड़ी बात मानी जाती थी - अपनी मां की नाक के नीचे किरण ने ही मुझे बताया कि साइकिल की दूकान कहाँ पर है | 

एक दिन विनोद धर को न जाने क्या सूझा , उसने किरण के जूते के अंदरूनी हिस्से में लगा सोल का लाइनर निकाल कर छुपा दिया | इस कारस्तानी को कार्यरूप देने के लिए विनोद धर कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा  | आधी छुट्टी में हम लोग जूते उतार कर नंगे पाँव ही दौड़ भाग  करते थे | छोटी मुरम वाले में मैदान में चमड़े के जूते पहन कर भाग दौड़ना , यानी  चोट लगने को दावत देने  जैसे था | फिसले तो घुटना फ़ूट जाता था, कोहनी छील जाती थी , कमीज भी फट जाती थी | 

 किरण जब वापिस आयी तो परेशान | जूते का लाइनर कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी |  परेशानी की वज़ह ये थी कि शरारत आख़िर किसने की ? उसे जो अंदेशा था, उसकी पुष्टि होने में ज्यादा समय नहीं लगा | आधी छुट्टी ख़तम होने के बाद विनोद धर कक्षा में आया , अपने डेस्क के खोके से उसने लाइनर निकाला और बुरा सा मुंह बनाकर जोर से चिल्लाया,"किसका है ये ?"

दो उँगलियों से पकड़कर लाइनर हवा में कहराते हुए वो बोला ,"किसका है ये ? ले जाओ | बदबू मार रहा है | "

फिर जानबूझकर किरण से पूछा ,"नाक चपटी , तेरा है ?"

"नहीं तो |" किरण भी भोलेपन से बोली | 

"अपना जूता उतार के देख |" इंदिरा उसके बगल में बैठी थी | "इंदिरा, उसके जूते में देख तो |"

अब किरण को हार मानने के सिवाय कोई चारा नहीं था | 

"ठीक है | मेरा है |" 

"तो आकर ले जा |" विनोद धर ने उसे डेस्क में पटक दिया | 

"तू दे दे |"

"तू ले जा |"

दो तीन बार ऐसी "तू -तू " के बाद अंततः विनोद धर ने कहा,"ठीक है | ले पकड |" उसने लाइनर इस तरह उछाल के फेंका मानो मरा हुआ चूहा फेंका हो | 

"तुझे कैसे मालूम ये मेरा था ?" किरण को अब भी संदेह था | 

"बाप रे बाप ! क्या जोर से बदबू मार रहा था |" विनोद धर ने उसकी शंका का निवारण किया | 
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"बहनजी , मैं 'नॉन बी. एस. पी. हूँ |" ये मेरे लिए तिनके का सहारा था | लेकिन कालकर बहनजी ने बड़ी निष्ठुरता से वह तिनका छीन लिया ,"बी.सी.जी. का टीका  बी. एस. पी.,, नॉन बी. एस. पी., ऑफिसर सब को लगेगा | चलो, लाइन में खड़े हो जाओ |  "
मन मारकर मैं भी लाइन में खड़े हो गया | सबके चेहरे लटके हुए थे | बहन जी के पीछे पीछे वे चींटी की चाल से चलते हुए मानो मौत के मुंह की और बढ़ रहे थे | छुट्टी के  घंटे के पास से होते हुए सब बहनजी के दफ्तर के पास पहुंचे वहीं  पक्के घाघ की तरह मुंह में कपडे बांधे हुए कम्पाउण्डर और डॉक्टर   खौलते हुए पानी के पास खड़े थे, जिसमें इंजेक्शन गरम हो रहे थे | 
लड़कियों की कतार में सबसे आगे राजकुमारी खड़ी थी और लड़कों की कतार में सबसे आगे उदास मुंह वाला लम्बा विष्णु खड़ा था | उसके ठीक पीछे चन्दन था जो बार- बार विष्णु के पीछे से उबलती हुई देगची में झांककर देख रहा था | राजकुमारी ने अपनी बांह आगे की और आँख मूंद  ली | अगले ही क्षण वो जोर से चिल्लाई | दहशत के वो बादल दस गुने ज्यादा घने हो गए | 
विष्णु न चीखा, न चिल्लाया | लेकिन वो तो वैसे ही सुख-दुःख से ऊपर उठ चुका प्राणी था | 
 विनोद धर का चेहरा देखकर बगल में लड़कियों की लाइन में खड़ी किरण की मुस्कान और चौड़ी हो गयी | उन  दोनों लाइनों में केवल किरण ही मुस्कुरा रही थी | 
"डर लग रहा है ?"  उसने विनोद धर से अनावश्यक प्रश्न पूछा |  
"मुझे इंजेक्शन से हमेशा डर लगता है |" विनोद धर थूक निगलते हुए बोला  | 
अगला नंबर चन्दन का था | विष्णु के निर्विकार मुख से कुछ पता नहीं चला था | दर्द का परीक्षण चन्दन के अनुभव से ही होने वाला था | चन्दन दूसरी और देख रहा था | वह न चीखा , न चिल्लाया | डॉक्टर ने सुई निकालकर उसकी बांह में रूई का फोहा लगाया और कहा,"जाओ |"
"हो गया ?" चन्दन को सहसा विश्वास नहीं हुआ | 
"हाँ | अब जाओ |" डॉक्टर ने उसके पीछे खड़े जीवन लाल की बांह थाम ली | 
"देखा?" किरण बोली," नर्स लोग इतने आराम से इंजेक्शन लगाते हैं  कि पता भी नहीं चलता |"
चन्दन बगल से गुजर रहा था | विनोद धर को देखकर रुक गया ,"डर क्यों रहा है बे ?"
"दर्द हुआ?" विनोद धर ने पूछा | चन्दन बोला ,"ऐसे लगा, जैसे लाल चींटी काटी हो |"
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 घर में परछी में बाबूजी ने एक बोर्ड लगा रखा था , जिस पर लिखा था,"सदा सच बोलो |"बस, केवल एक ही वाक्य !

भाषा , गणित भूगोल और विज्ञानं - ये तो मुख्य विषय थे | इसके अलावा दो दो विषय और पढ़ाये जाते थे - स्वास्थ्य शिक्षा और नीति शिक्षा | जहाँ स्वास्थ्य शिक्षा विद्यार्थियों के बाह्य स्वास्थ्य के लिए आवश्यक थी, वहीँ नीति शिक्षा आतंरिक स्वास्थ्य के लिए | नीति शिक्षा का मुख्यपृष्ठ कुछ ऐसा था - मानो दिवाली के दिन कोई चकरी चल रही हो | नीति शिक्षा कहानियों का संग्रह हुआ करती थी  | तीसरी से लेकर आठवीं तक हमें नीति शिक्षा पढाई जाती थी | हर वर्ष विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास के साथ साथ कहानियों की जटिलता भी बढ़ते जाती थी | 

    किन्तु हर कहानी में एक प्रश्न जरूर होता था - इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
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शाम ढल चुकी थी | अब प्राथमिक  शाला नंबर आठ का परिसर उत्तरी सीमा पर सिकुड़ चुका था | उस खाली जगह नयी दीवारें, इमारत खड़ी हो रही थी | जगह जगह ईंट, रेत , गिट्टी , सीमेंट का ढेर लगा रहता था | लोहे की मोटी , पतली छड़ें भी इधर उधर पड़ी थी | हम लोग नंगे  पॉव ही खेलने जाते थे, क्योंकि रामलीला मैदान छोटी मुरम वाला मैदान था | कई बार हमारे पैरों से लोहे की छड़ के छोटे छोटे, चार छह इंच के, टुकड़े टकराते जो कि किसी काम के नहीं थे | उलटे अगर उनका वो सिरा, जो छैनी से काटा जाता था , किसी के पांव में चुभ जाय तो भयंकर दुष्परिणाम हो सकते थे | 
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आगे बढ़ने से पहले कुछ बातों पर एक बार फिर नज़र दौड़ा लें | 

पाठशाला में परिसर के बाहर चने मूंगफली, रबड़ी , खोमचे और आइसक्रीम वाले बैठे रहते थे | वो हमें आशा भरी नज़रों से देखते थे और हम इनके डब्बों को ललचाई नज़रों से | 

उत्तरी सीमा सिकुड़ गयी थी, क्योंकि एक भवन का निर्माण प्रारम्भ हो गया था | 

तार के बाहर जाना मना था | 

हालाँकि इस  नियम का उल्लंघन काफी कुछ मान्य हो चूका था, क्योकि यह भारत था | फिर भी नियम तो नियम था | ये बात अलग है कि अच्छे बच्चे, जो अधिक की संख्या में थे, (जिनमें मैं भी एक था), इस नियम का अक्षरशः पालन करते थे | बाहर जाने की आवश्यकता ही क्या थी ? जेब में पैसे तो थे नहीं  - किसी के भी जेब में नहीं  | पांच दस पैसे भी बड़ी रकम थी हमारे लिए | कटे-फटे अमरुद, मक्खी भिनभिनाते हुए मुर्रे के लड्डू, पता नहीं, कहाँ के गंदे पानी से बनी आइसक्रीम खाकर बीमार पड़ने से तो अच्छा था कि उस और झाँका ही न जाए | 

बात ये थी कि अंगूर खट्टे थे | 

सबसे पहले सुरेश बोपचे ने इसका तोड़ खोजा | 

एक दिन वह बड़ी शांति से आइसक्रीम चूसते मिला | 

"आइसक्रीम ?" विनोद धर ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा | 
"अबे, बहुत आसान है | आइसक्रीम वाले को लोहे की 'रॉड' का टुकड़ा दे दे | जितनी बड़ी रॉड होगी, उतनी आइसक्रीम |" 
यानी  उसके कहने का तात्पर्य यह था कि अगर एक बित्ता लोहे का टुकड़ा मिल जाए तो एक आइसक्रीम | 

फिर क्या था ? 

अगले दिन से चन्दन, विनोद धर , भोला गिरी और कुछ और लड़को का ये शगल बन गया | अब आधी छुट्टी में खेल कूद सब बंद | करीब करीब पूरी आधी छुट्टी में वे लोहे के टुकड़े की तलाश में  परिसर की सीमा लाँघ कर उत्तरी छोर पर निकल जाते, जहाँ भवन निर्माण का कार्य चल रहा था | कहीं न कहीं से लोहे का कोई न कोई टुकड़ा तो मिल ही जाता था | भोला गिरी को जब आइसक्रीम मिलती तो वह जान बूझकर 'ड' कक्षा की लड़कियों को दिखा दिखाकर खाता - जो करना है, कर लो | हम आशिक हैं, हम नहीं सुधरेंगे | 
जब इन्हें लोहे का अतिरिक्त टुकड़ा मिलता, तो वे अतिरिक्त आइसक्रीम सबसे पहले राजीव सिंह को देते | रिश्वत? अरे नहीं, उन दिनों रिश्वत वगैरह की बात दिमाग में आती ही कहाँ थी ? यह विशुद्ध प्रेम था | राजीव सिंह कक्षा में अव्वल आता था और वह सबसे लोकप्रिय था | घमंड उसे छू तक नहीं गया था | दूसरी आइसक्रीम लोग श्रद्धानुसार कभी मनमोहन, कभी अशोक या कभी मुझे भी दे देते थे | उसके बाद भी लोहे का कोई और टुकड़ा मिल जाता तो सूर्य, प्रमोद, विवेक, सुबोध - कितने सारे दोस्त थे | कई बार ऐसा भी होता कि एक ही लोहे का टुकड़ा मिलता और फिर लोग आइसक्रीम को नुकीले पत्थर से तोड़कर आपस में बाँट लेते | 
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अजीब सा संयोग था कि उस दिन चन्दन आधी छुट्टी का घंटा बजते ही घर के लिए निकल गया | कारण  मुझे याद नहीं , पर शायद उसके घर में कोई पूजा थी | अर्थात  संयोग दैवयोग में बदल गया | 

वह तस्वीर भूले नहीं भूलती |  उत्तर पश्चिमी सीमा, जहाँ शाला के भवन की आखिरी कक्षा, पांचवी 'स' का कमरा था, उसके बगल से विनोद धार की नाटी लेकिन बलिष्ट  काया प्रगट हुई | चेहरे पर शरारत भरी कम, सफलता की द्योतक ज्यादा, चौड़ी मुस्कान, बेतरतीब बाल, कमीज के सामने का वह हिस्सा तो पोशाक के नियमानुसार पैंट में खोंसे  होना चाहिए, आधा अंदर और आधा बाहर , दौड़ते हुए क़दमों में चपलता .. !

... और दोनों हाथों से कार के स्टीयरिंग की तरह झूलाते हुए एक लोहे की छड़ साफ़ परिलक्षित हो रही थी | छड़ करीब करीब विनोद धर की कुल ऊंचाई के आधे से भी ज्यादा थी | यानी करीब साढ़े तीन फुट !!

वह दृश्य विस्मयकारी, आल्हादकारी, लोमहर्षक होने के साथ साथ काफी भयावह भी था | इतनी बड़ी रॉड पर 'चोरी' का ठप्पा साफ़ साफ़ लगा था | लेकिन शाला परिसर के संकुचित होने का जो आक्रोश सबके दिल में समाया था, उसने उस गुनाह को मानो धो डाला | 

अब समस्या उस लोहे की छड़ को आइसक्रीम वाले तक ले जाने की थी जो पूर्वी छोर पर बैठे रहते थे | शाला भवन अंग्रेजी के 'एफ' अक्षर की तरह था | यदि भवन के पीछे से पूर्वी छोर पर जाएँ तो उन लोगों की नज़र अवश्य उस छड़ पर पड़ेगी, जहाँ से विनोद धर उसे उठा कर लाया था | यदि भवन के सामने जाएँ तो निश्चित रूप से आधी छुट्टी के समय बाहर खेलते कूदते शोर मचाते बच्चों के बीच से जाना पड़ेगा | छड़ इतनी बड़ी थी कि उसे सूर्य की तरह छिपाया नहीं जा सकता था | ना केवल बच्चों का समूह कौतहालवश पीछे लग सकता था, अपितु वह शिक्षकों का भी ध्यान आकृष्ट कर सकता था |
 
चन्दन था नहीं | भोला गिरी पहले ही छिटक चुका था | अब लोहे की छड़ को आइसक्रीम में परिवर्तित करने की जिम्मेदारी विनोद धर और सुरेश बोपचे के हाथ में थी | खतरा दोनों और से था, लेकिन फिर उन लोगों ने सामने से ही जाना पसंद किया | 
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एक दो नहीं, पूरी आठ आइसक्रीम .. | सुरेश बोपचे ने लड़ झगड़कर एक आइसक्रीम और भी ले ली | वे सारे दोस्त, जो नुकीले पत्थर से एक आइसक्रीम के चार टुकड़े करके खाते थे, अब एक-एक पूरी आइसक्रीम हाथ में पकडे थे | लाल, पीली, हरी आइसक्रीम ! वैसे आइसक्रीम हाथ में आई ही थी कि आधी छुट्टी के ख़तम होने का घंटा बज गया | यानी  लुत्फ़ उठाने का समय ही नहीं बचा | मैंने ठंडी ठंडी आइसक्रीम दांत से काटी, किसी तरह निगला और कक्षा के अंदर सरक गया | 

पर सारे ऐसे नहीं थे | सुरेश बोपचे तो इतमिनान  से आइसक्रीम चूसते हुए कक्षा की और बढ़ा | फल यह हुआ कि एक तरफ से वह कक्षा की और बढ़ रहा था और दूसरी तरफ- सामने से कालकर बहनजी आ रही थी | पता नहीं,  आइसक्रीम में ऐसा क्या स्वाद था कि उसने आइसक्रीम फेंकी भी नहीं, बस चूसते रहा | यहाँ तक कि कक्षा के बाहर खड़े होकर भी चूसते रहा | जब आइसक्रीम ख़तम हुई तब वह कक्षा के अंदर घुसा | 

कालकर बहनजी उसी का इंतज़ार कर रही थी | 
"तुमने आइसक्रीम खाई ?"
"जी बहन जी |" उसने बिना किसी लाग लपेटे के स्वीकार कर लिया | 
"यहाँ खड़े हो जाओ | " कालकर बहनजी ने शिक्षिका के डेस्क के बगल में इशारा किया | 

"और जिन-जिन लोगों ने आइसक्रीम खाई, सब यहाँ आ जाओ |" कालकर बहनजी ने आदेश दिया  |

इतना कहकर कालकर बहन जी तो कक्षा के बाहर चले गयी, लेकिन इस ब्रह्म वाक्य ने मुझे बहुत बड़े धर्मसंकट में डाल दिया | 

हमें नीति शिक्षा क्यों पढ़ाई जाती है ?
बाबू जी ने बोर्ड पर क्यों लिखा था- सदा सच बोलो ?
जब सत्य की ही विजय होती है और 'साँच को आंच नहीं तो सत्य से रु-ब-रु होने से घबराना कैसा ?

अगर सच की जीत होगी तो किस रूप में होगी ? क्या कालकर बहनजी हमारी ईमानदारी से खुश होकर हमें माफ़ कर देंगी ?

और अगर सजा मिली तो भी जिन दोस्तों ने कार्य को अंजाम दिया था, उनको ही क्यों सज़ा मिले ? उन्होंने निःस्वार्थ भाव से सबको आइसक्रीम बांटी तो थी | अगर इन्हें मार भी पड़ेगी तो भी ये कभी  हम लोगों का नाम नहीं बताएँगे | तो क्या नैतिकता का तकाज़ा नहीं है ये कि मार और अपमान का दर्द सहने में उनका भागीदार बना जाये ?

सतत और पैने विचार की इन तेज़ धाराओं में मैं ऐसे बह गया कि मेरे कदम मुझे वहाँ ले गए, जहाँ सुरेश बोपचे  खड़ा था | झेंपती मुस्कान के साथ मैं इधर-उधर देखते, कभी हाथ बांधकर, कभी स्वेटर खींचते खड़े रहा | 
विनोद धर को आना ही था और अगले ही क्षण वो आकर मेरे बगल में खड़े हो गया | 

मुझे ऐसी कोई भी आशंका नहीं थी कि मेरी ईमानदारी कोई दूरगामी असर छोड़ेगी | पर अगले ही क्षण राजीव सिंह और फिर मनमोहन मेरे साथ आकर खड़े हो गए | राजीव सिंह का आना जो हुआ, फिर तो कतार सी लग गयी | आइसक्रीम खाने वाले जो लोग हिचकिचा रहे थे , उन सबको अंतरात्मा की आवाज़ कचोटने लगी | वे स्वतः उस छोटी भीड़ का हिस्सा बन गए | आधे से ज्यादा लड़के कालकर बहनजी की डेस्क के पास खड़े थे | जो लोग नहीं थे, उनमें  थे, भोला गिरी , दिलीप, अशोक भोपले और एकाध अन्य | 

लड़कियों के पल्ले कुछ पड़ा, कुछ नहीं | 

तभी कालकर बहनजी ने कक्षा में प्रवेश किया | पहले तो उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया कि इतने लोग उनकी मेज के पास क्यों खड़े है ! और कौन हैं वे सब ? कक्षा के कप्तान , उपकप्तान , ज्ञानी, ईमानदार, बदमाश ,फिसड्डी - सब कंधे से कंधा मिलाये | फिर सुरेश बोपचे को देखकर उन्हें सब याद आ गया | 

"अरे भगवान् |" उनका वक्तव्य एक बुदबुदाहट से शुरू हुआ | उनको अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था | "तो तुम सब लोगों ने आइसक्रीम खाई |" उन्होंने अपने आप को संयत किया ,"तुम लोगों को मालूम है ना कि जब स्कूल चल रहा हो तो तार के बाहर जाना मना है ? और खोमचेवालों से खरीदकर खाने में पूरी तरह पाबन्दी है | क्यों राजीव सिंह ? तुम तो कक्षा के कप्तान हो , तुम्हें तो पता होना चाहिए | अरे, तुम्हारा तो काम था, ऐसे लोगों की लिस्ट बनाते |" फिर वे एक क्षण के लिए रुकी , मानो इतने लड़कों की भीड़ से संतुष्ट नहीं थी। "और कौन कौन था ? '"

विनोद धर बोला ,"अशोक तू भी तो  था|"
अशोक भोपले ने साफ़ मना कर दिया,"मैंने आइसक्रीम वापिस तो कर दी थी | याद है? सुरेश बोप्चे को पकड़ाया था ?"
कालकर बहनजी की आवाज़ फिर धीमी हुई "आइसक्रीम के लिए तुम लोग को पैसे कौन देता है ? तुम्हारे माँ  बाप ? पालक-शिक्षक समिति की मीटिंग में तो सब अभिभावकों को कह दिया गया था - बच्चों के हाथ पैसे मत भेजो |  और किसने आइसक्रीम खाई ?"
दिलीप की मुस्कान कभी चौड़ी होती, कभी सिमटती | बीच बीच में वो भोलेपन से लड़कियों की और देखता | भोला गिरी  आराम से बैठा था | अचानक सुरेश बोपचे बोल पड़ा, "भोला गिरी, तूने भी तो ..| "

भोला उसकी बात काटकर बोला ,"मैं अपनी 'रॉड' खुद लेकर आया था |"

स्वावलम्बी और स्वाभिमानी  भोला के इस वाक्य ने इस पूरी घटना की दिशा और दशा  ही बदल दी | 

अब तक की सूचना के आधार पर मामला कुछ इस प्रकार बन रहा था -
(१ ) कुछ या सारे लड़के शाला के नियम का उल्लंघन करके तार के बाहर गए थे | 
संभव है , राजीव सिंह जैसे अच्छे लड़के इसमें शामिल न हों | विनोद धर या सुरेश बोपचे जैसे शरारती लोगों ने यह भूमिका निभाई हो | 
(२) खोमचे वालों से सामान खरीद कर खाना वर्जित था | इसके बावजूद इन लड़कों ने आइसक्रीम खाई | 

ये अपराध कोई बहुत संगीन नहीं थे | और इसमें शामिल लड़कों की संख्या और गुणवत्ता  देखते हुए इसकी गंभीरता और भी कम हो जाती थी | यह एक अनुशासनहीनता का मामला ज्यादा था | कालकर बहनजी सबको एक-एक दो-दो लड्डू और सख्त चेतावनी देकर अपने स्तर पर ही इसे  निपटा सकती थी | कक्षा का मामला कक्षा में ही दफ़न हो जाता | 

लेकिन भोला गिरी का उत्तर सुनकर कालकर बहनजी के कान खड़े हो गए | 

कैसी छड़  ? कौन सी छड़? भोला कहाँ से छड़ लाने की बात कर रहा था ? उसका आइसक्रीम से क्या सम्बन्ध था ? भोला अपनी छड़ खुद लेकर आया था तो बाकी लोगों की छड़ कौन लेकर आया था ? 

कालकर बहनजी को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी | अगले दस मिनटों में जब भांडा फूटा तो कालकर बहनजी सकते में आ गयी | 

सरासर चोरी थी वो ! 

मामला इतना भारी भरकम था कि कालकर बहनजी खुद नहीं सम्हाल पायी | वर्ग 'ड' से वह शाह बहनजी को बुला लाई |

"मैंने सिर्फ पूछा", कालकर बहनजी शाह बहनजी को शांत स्वर में बता रही थी," और किसने किसने आईस्क्रीन खाई | और ...", बात अधूरी छोड़कर उन्होंने हमारी और इशारा किया | 

 "लड़कों की संख्या और गुणवत्ता" एक तरफ  और मामले की भयावहता दूसरी तरफ - शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि लड़कों को कूटने के काम में शाह बहनजी उनकी मदद करेगी | शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि शाह बहनजी उन्हें सलाह दे कि आगे क्या किया जाए ? लेकिन शाह बहनजी ने धुलाई करके  अपने हाथ गंदे नहीं किये | बल्कि ऐसे तीखे व्यंग्य बाण छोड़े कि कम से कम मैं तो मानो ज़मीन में गड गया | कैसी जीत थी ये सच्चाई और ईमानदारी की !

लेकिन अब जो कुछ हुआ था उसका खामयाज़ा तो भुगतना ही था | 

"इनको बड़ी बहनजी के पास ले जाओ |" सलाह के नाम पर शाह बहनजी ने कालकर बहनजी को यही सुझाया | 

तो मामला अब कक्षा के बाहर निकल चुका था | सारे के सारे अभियुक्त लड़के कक्षा से निकलकर कालकर बहनजी के साथ बरामदे से गुजरे | 'ड' वर्ग के सामने से गुजरते समय शाह बहनजी ने जले पर नमक छिड़का ,"ऐ शूरवीरों, कतार बनाकर जाओ | "

मेरी और राजीव सिंह की बहनें निचली कक्षाओं में थीं | क्या उन्होंने देखा था कि उनके अपराधी भाई किस तरह बड़ी बहनजी के कक्ष की और जा रहे हैं ? क्या राजीव सिंह की मां  सिंह बहनजी को इसकी खबर मिल चुकी है ? 

हमारे पक्ष में शायद जोई तर्क नहीं था | यह भी नहीं कि हमें मालूम नहीं था कि वो चोरी है | मैंने पहले ही लिखा था, शाम को रामलीला मैदान में हॉकी या क्रिकेट खेलने जाते समय कई बार वे लोहे की छोटी छड़ें, जो 'स्क्रैप' से ज्यादा कुछ नहीं थे, हमारे पाँव से टकराते | एक बार मिंटू ने छोटे भाई निक्कू के पांव से तो खून ही निकल गया था, क्योंकि हम लोग नंगे पाँव खेलने जाते थे | इस तर्क का भी कोई सर-पैर नहीं था कि हमारे मन में आक्रोश था कि हमारी शाला की सीमा सिकुड़ रही थी |

अगर कोई तर्क होता भी तो किसमें  हिम्मत होती कि बड़ी बहनजी के सामने उसे प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके | और बड़ी बहनजी भला क्यों सुनती ? फैसला तो आ ही चुका था , केवल उसे सजा में परिणित करना ही शेष था |

ये वही बड़ी बहनजी थी, जिसने दाखिले के समय घडी दिखाकर मुझसे समय पूछा था और पांच के पहाड़े के सहारे मैंने उन्हें सही समय बता दिया था | उसके बाद ये किन परिस्थितियों में दूसरी बार आमना सामना हो रहा था | बड़ी बहन जी के मोटे रूलर के बारे में बहुत सुना था | उससे सब से पहले उन्होंने मुख्य अभियुक्त विनोद धर की जमकर धुलाई की | उसकी उसकी विरल विकराल और दर्दनाक पिटाई देखकर सबके कलेजे दहल उठे |

सजा देने का उनका तरीका अनूठा था | पूरी पिटाई की दौरान उन्होंने एक शब्द नहीं कहा | सिर्फ रूलर से वे इशारा करती थीं कि कौनसा हाथ आगे करना है या पीछे मुड़ना है और फिर "सड़ाक ,सड़ाक... | 
 
मुझे लगा कि कालकर बहनजी ने जान बूझकर गुणवत्ता के हिसाब से कतार बनाई थी | राजीव सिंह और मनमोहन सबसे पीछे खड़े थे | मैं भी कतार में काफी पीछे था | जब तक मेरा नंबर आया, बड़ी बहनजी कुछ हद तक थक चुकी थीं | उन्होंने रूलर से पहले मेरे बांये हाथ की और इशारा किया | और फिर दाहिने हाथ की तरफ - मैं तो 
दोनोँ हाथ में एक-एक लड्डू लेकर बगल में हट गया | हथेली पर मानों जलते अंगारे रख दिए गए थे | 

जब सब को पीट दिया गया - राजीब सिंह और मनमोहन को भी - तब बड़ी बहनजी दहाडी,"अपने गार्जियन (अभिभावक) को बुला कर लाना - तब तक कक्षा में मत घुसना |" 
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सब की आँखों से आंसू निकल रहे थे | और विषय क्या था - नीति शिक्षा | हमेशा कालकर बहनजी किसी को खड़ा करके पाठ पढ़ने कहती थी | लेकिन उस दिन किसी लड़के की मनःस्थिति ऐसी नहीं थी कि वे खड़े होकर पाठ पढ़ सकें | फलतः उस दिन लड़कियों को अतिरिक्त भार उठाना पड़ा | पहले मिथिला ने एक पैराग्राफ पढ़ा | फिर अनु गुप्ता ने | उसके बाद कौन पढ़े ? फिर बारी आयी इंदिरा और सरिता की | फिर कालकर बहनजी ने किरण को पकड़ा | किरण की आवाज़ भी भर्राई हुई थी | ऐसे लग रहा था कि कहीं दूर से कोई कुछ कह रहा है,
"फांसी के तख्ते पर चढ़ने से पहले उसकी माँ उसे मिलने आगे आगे बढ़ी, पर वह पीछे हटा ,"माँ , तुमने ही मुझे चोर बनाया है | अगर उस दिन तू ...."
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वातावरण काफी भारी हो गया | अब कालकर बहनजी ने किरण को बैठ जाने के लिए इशारा किया | वे कुछ सोची, फिर कहना शुरू किया ,"गलती हर इंसान से होती है और हुई है | गलतियाँ एक सबक तो सिखाती ही हैं | बड़े बड़े महापुरुष।  जिनके पाठ हम किताबों में पढ़ते हैं, सबने अपने बचपन मेँ , या उसके बाद कुछ न कुछ गलती की | पर क्या वे रुक गए? क्या उनके लिए जीवन ठहर गया ...... ?
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एक लड़का जरूर था, जिसके लिए ज़िन्दगी थम बल्कि जम  गयी थी - विनोद धर | उस दिन की  मार-कुटाई के बाद कालकर बहनजी के सामने सबने विनोद धर के सर पर ही ठीकड़ा फोड़ दिया | लोगों ने कालकर बहनजी से यहाँ तक कहा कि उनके आइसक्रीम खाने की कोई इच्छा नहीं थी |  विनोद धर ने जबरदस्ती उनके हाथ में आइसक्रीम पकड़ाई | ज्यादा परेशान वे लोग थे, जिनकी अभी तक साफ़ सुथरी छवि थी | मगर उन लोगों को भी, जो आये दिन मार खाते थे, इतना बड़ा झटका कभी नहीं लगा था | किसी के पिताजी को बुलाने की नौबत -  मेरे ख्याल से न तो पहले और न ही बाद में कभी - आयी थी | 

उस दिन के बाद से हमने विनोद धर की छाया ही देखी -विनोद धर नहीं | अब विनोद धर से खुद लोग कतराते थे और विनोद धर खुद अपने आप को औरों से दूर रखता था | सुरेश बोप्चे अब भी उसके साथ बैठता था | चन्दन अभी भी उससे बात करता था , पर अब वह पहले जैसी गर्मजोशी नहीं थी | 
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मुझे महसूस हुआ कि किसी भी बच्चे के लिए अपने माता पिता से यह कहना कि उसके अपराध के लिए शाला में उन्हें शिक्षक ने बुलाया है - कितना कठिन होता है | 

सबसे पहले तो उचित वक्त का इंतज़ार करना पड़ता है | जब पिताजी अच्छे मूड में हों | जब उनके आसपास घर का कोई सदस्य न हो | फिर यह भी सुनिश्चित करना होता था कि उनके पास पर्याप्त समय हो, ताकि वे धैर्यपूर्वक बात सुनें और भविष्य में ऐसा न होने के संकल्प को सुनिश्चित कर सकें | 

उस दिन शाम को मैंने उनसे कोई चर्चा नहीं की | क्योंकि शाम और रात का समय ही वैसा होता है, जब सब लोग घर में रहते हैं | कोई न कोई कुछ न कुछ उनसे बात करते ही रहता है | अगले दिन माँ नहा रही थी , बबलू और बेबी स्कूल जा चुके थे 

बाबूजी पूजा कर रहे थे | उनसे ज्यादा तन्मयता से भगवान् से प्रार्थना मैं कर रहा था | किसी तरह बात बन जाए | उनकी पूजा ख़तम होते ही मैं बोलै ," बाबूजी|"

"क्या है ? उन्होंने मुझसे पूछा | अब मुश्किल यही थी कि संबाद की कठिनाई का वह तीसरा पक्ष - पर्याप्त समय - उनके पास नहीं था | उन्हें जल्दी  कॉलेज जाना था | फल यह हुआ कि बातचीत का वह क्रम , जो मैंने एक दिन पूर्व रात में सोच रखा था, बेतरतीब हो गया | कम समय में अपनी बात रखने के चक्कर में सब गड्ड -मड्ड हो गया | मैंने संकल्प पहले उड़ेल दिया | 

फिर पूरी बात सुनाई | अपनी तरफ से कोशिश की कि मैं निर्दोष हूँ | बाबूजी को कुछ समझ में आया, कुछ नहीं || बाबूजी ने दो तीन संक्षिप्त प्रश्न पूछे | 
"तो वह छड़ चोरी  की गई थी ?"
"बाबूजी, मैंने चोरी नहीं की थी |"
"तुमने आइसक्रीम खाई थी ? हाँ या नहीं ?"
"हाँ, बाबूजी | मगर वो चोरी नहीं थी | ऐसी छड़ों के टुकड़े ... |"
"अगर रास्ते में यूँ ही पड़े रहते हैं तो आइसक्रीमवाले खुद क्यों नहीं उठा लेते? तुम बच्चों से क्यों ये सब काम करवाते हैं ?"
"बाबूजी, हमारे स्कूल का मैदान छोटा हो रहा है |"
"तुम्हें उस बात का गुस्सा है ? पर इससे तो इस कार्य को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता | कितनी कीमत होगी आइसक्रीम की ?"
"पांच पैसे|"
"तो ठीक है | अगर अपने ऊपर संयम नहीं रख सकते तो मुझसे पांच पैसे ले लिया करो | " वे कागज़ के टुकड़े पर कुछ लिखते लिखते बोले ,"ये गलत है बेटे | अपने दोस्तों को भी कहो | बहुत गलत है | "

वे कागज़ का टुकड़ा मेरे हाथ में देकर बोले,"बेटे, मैं तो आज रायपुर जा रहा हूँ | युनिवेर्सिटी में मीटिंग है | ये चिट्ठी बहनजी को दे देना |"
"पर बाबूजी, उनका कहना है कि जब तक आप उनसे नहीं मिलेंगे, वे मुझे कक्षा में नहीं बैठने देंगे |"
"तो मत जाना कक्षा में | " वे ठण्डे लहजे में बोले | उनके कहने का यही मतलव था, अगर यही सब सीखना है तो फर्क क्या पड़ता है ? वे घर से निकलने लगे | मैं पीछे पीछे गया | स्कूटर में किक मारते मारते वे बोले "ठीक है, अगर आज कक्षा में नहीं बैठने देंगे तो कल देखेंगे | "

सामान्य सा वार्तालाप, कोई नाटकीयता नहीं | फिर भी इतना स्पष्ट हो गया कि मामला जितना मैं समझता था ,बाबूजी के लिए उससे ज्यादा गंभीर था | मैं कभी उनको जाते हुए देखता तो कभी कागज़ की ओर | 

उस दिन मैं डर  के मारे मनमोहन के घर शतरंज खेलने भी नहीं गया | यह निश्चित था कि अगर उसके पिताजी घर में होंगे तो मुझसे वही , वैसे ही सवाल पूछेंगे | 

स्कूल में प्रार्थना के बाद, जब विद्यार्थियों की कतार अंदर जाने लगी तो कालकर बहनजी ने उन सबको रोक लिया जिनके पिताजी मिलने नहीं आये थे | केवल तीन ही लोग थे | दो के पिताजी "फर्स्ट शिफ्ट" गए थे , इसलिए दो बजे के बाद आने वाले थे | तीसरा मैं था | मैंने कागज़ का टुकड़ा आगे किया तो कालकर बहनजी ने पूछा,"ये क्या है ?"
"जी बहनजी ,जी , मेरे पिताजी जरुरी काम से रायपुर जाने वाले थे जी | उन्होंने ये चिट्ठी भेजी है जी |"
"बड़ी बहनजी से बात करो |" कालकर बहनजी ने मुझे बड़ी बहनजी के दफ्तर का रास्ता दिखा दिया | 

ऑफिस के दरवाज़े पर मैं बांया हाथ आगे करके खड़ा हो गया | 
बड़ी बहनजी सर झुकाये कुछ लिख रही थी | जब दो मिनट तक उन्होंने नहीं देखा तो मैंने पूछा ,"जी बहनजी , जी मैं अंदर आ सकता हूँ क्या जी ?"
बड़ी बहनजी ने अंदर आने का इशारा किया | 
मैंने वह चिट्ठी उनके सामने रख दी | उन्होंने गोल ढांचे वाले चश्मे के पीछे से  प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी और देखा  | 

"जी बहन जी, जी, पिताजी नहीं आ सकते हैं जी | उन्होंने ये चिट्ठी भेजी है जी |"

बड़ी बहनजी ने चिट्ठी खोली | मुझे लगता है, बाबूजी ने जान बूझकर चिट्ठी अंग्रेजी में लिखी थी | शायद दो कारण थे | पहला - इस शक की  कोई गुंजाइश न रह जाए कि चिट्ठी मैंने अपने हाथ से लिखी थी , क्योंकि हमें तो अंग्रेजी ही छठवीं से पढ़ाई जाती थी | दूसरा, उसमें क्या लिखा है - वो मैं न समझ सकूँ |

वैसे इस विश्वास की सामान्यतः कोई जरुरत नहीं पड़नी चाहिए थी | हर साल बड़ी बहनजी पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर आने वाले विद्यार्थियों को पारितोषिक देती थी | इसलिए शायद उन्हें मुझे पहचान तो जाना चाहिए था और मान लेना चाहिए था कि फर्जी चिट्ठी लिखने का काम मैं नहीं करूँगा | पर यह भी कटु सत्य  था कि कल की घटना के बाद बड़े बड़े विश्वास धराशायी हो चुके थे | बड़ी बहनजी और पिताजी खुद प्राचार्य थे | उन्हें ज्ञात था कि विसयार्थियों को बदलते देर नहीं लगती है | 
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जब मैं कक्षा में घुसा तो कालकर बहनजी ने हाज़िरी के रजिस्टर में मेरे नाम के आगे लिखे "ए" (अनुपस्थित) को कलम से दो तीन बार दोहराकर "पी " (उपस्थित) किया | 

फिर बोली,"ठीक है | बड़ी बहनजी ने कहा है तो बैठ जाओ | " फिर सब लड़कों पर निगाह डालकर बोली,"चन्दन, कल कहां थे ?"

"जी बहनजी जी मेरे घर में पूजा थी जी |" चन्दन खड़े होकर अपनी हाफ पेण्ट खींचता हुआ बोला | 

"अगर चन्दन होता तो वो भी इसमें होता | " पूरी तरह से आश्वस्त, कुछ नैराश्य , कुछ परिहास से कालकर बहनजी ने कहा | 

....क्यों.....?
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सारी  दुनिया में ढिंढोरा पीट दिया गया था और लोगों ने मान भी लिया था कि विनोद धर ही दोषी है | आखिर फंसे हुए सारे विद्यार्थियों ने ठीकरा उसके सर पर ही फोड़ा था | उसने जबरदस्ती एक एक का कॉलर पकड़कर आइसक्रीम उनके मुंह में ठूंसी जो थी | 

केवल एक ही लड़का था, जिसकी राय सबसे जुदा थी | 

तो चन्दन ही था जिसकी नज़रों में इस मामले का दोषी विनोद धर नहीं, बल्कि सुरेश बोपचे था | वैसे अगर उसे दोषी नम्बर दो ठहराना होता तो वह मुझे ही ठहराता क्योंकि मैं ही वह उत्प्रेरक था, जिसने सायकिल स्टैंड में खड़ी साइकिलों को लात मारी थी और श्रृंखला अभिक्रिया का श्रीगणेश कर दिया था | 

आधी छुट्टी का घंटा बजते ही कक्षा के बाहर आकर चन्दन ने सुरेश बोपचे  का कॉलर पकड़ लिया ,"क्यों बे ? कालकर बहनजी के सामने तेरे को आइसक्रीम खाने की क्या पड़ी थी ?" 

"चन्दन, सुन तो यार | अबे सुन तो | आधी छुट्टी ख़तम होने की घंटी बज गयी थी यार और आइसक्रीम ख़तम नहीं हुई थी |"

"तो फेंक नहीं सकता था साले ?" चन्दन आग बबूला था | 

सुरेश बोपचे बस मुस्कुरा रहा था | विनोद धर सर दूर देखते चुपचाप खड़ा था | 

चन्दन को इस बात पर गुस्सा था कि अच्छे अच्छे लड़के भी इसमें फंसे थे और कक्षा की अच्छी खासी छीछालेदर हुई थी |  इस सब के लिए सुरेश बोपचे का बेवकूफाना कार्य ही जिम्मेदार था | 

"अकल है कि नहीं बे तेरे पास ? कि घास चरने गयी थी बे ? ?"
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विनोद धर को लापता हुए पूरे डेढ़ साल गुज़र गए | उसका साया कक्षा में आते रहा और सारा दिन सबसे अलग-थलग रह कर वापिस घऱ चले जाता था | पांचवी में ढेरों नए लड़के आये और सब से घुल मिल गए - विजय पशीने, रमेश मिश्रा, महेंद्र सिंह , सुबोध नंबर २, कालकर बहनजी का ही लड़का संदीप कालकर,  सत्यव्रत, रवींद्र मुंशी | राजीव जावले चौथी में इस घटना के बाद ही आया था | कोई भी विनोद धर को अपना अंतरंग मित्र नहीं बना पाया | बहनजी का लड़का नवनीत दवे, जब पांचवीं में वापिस आया तो उसने मुझसे दबे स्वर में पूछा ,"ये विनोद धर है न?"
पांचवीं के दूसरे हिस्से में कक्षा में आशिकी का जो तूफान उठा , उसमें विनोद धर अछूता ही रह गया | इस घटना के बाद वो सेक्टर ६ के अन्य लड़कों के साथ नहीं आता था | न ही सुबह वाले लड़कों के साथ रोज़ की गाली गलौच और कभी कभार की पत्थरबाज़ी में उसकी कोई भूमिका होती थी | चन्दन के मज़ाक पर भी वह कभी कभार ही हँसता था | 

तो डेढ़ साल बाद वह दिन आ ही गया जिस दिन हमें प्राथमिक शाला नंबर ८  को 'सलाम' कह देना था | उस एक दिन में बहुत कुछ घटित हो गया | मेरे, मनमोहन और राजीव सिंह के लिए तो काफी कुछ | 

ऐसी पहली खबरें छन कर बाहर आयी थी और हमारी सड़क बाइस में फ़ैल गयी थी कि मनमोहन और राजीव सिंह शाला में प्रथम आये हैं और मैं दूसरे नंबर पर था | मेरे घर वाले मेरी घर से  घंटों बाहर रहने की आदत से परेशान थे |  उन्हें मेरी परेशानी का अंदाज़ नहीं था जो कक्षा में मेरे साथ हो रहा था | मुझे तो लगता था राजीव सिंह ने बचपन का दोस्त, मनमोहन मुझसे 'छीन' लिया है | साथ ही 'आशिकी' के उस माहौलमें न शामिल होने की सज़ा मुझे  'मखौल' के रूप में मिल रही थी | कुछ जुमले, कुछ फिकरे  - जिनके स्त्रोत राजीव सिंह की बेंच के इर्द गिर्द ही होते थे , रोज़ मेरा पीछा करते | घर से दूर रहने की वजह यह भी थी कि 'ट्रिपल टेस्ट' चॉकलेट के अल्बम में १८० खाने थे , जिसमें से १७९ तो कब के भर गए थे, पर १५३ नंबर, "गननचुम्बी इमारत", की पन्नी अभी तक नहीं मिली थी | उसकी खोज में मैं न जाने किन किन लोगों से मिलता - दोस्त के दोस्त के दोस्त के दोस्त - पर कहीं भी वह नहीं मिली | तो परिणाम निकलने के एक दिन पहले निकले परिणाम ने घर में मेरी हवा निकाल दी थी | इसके पहले के वर्षों की वार्षिक परीक्षा में भी प्रथम तो मैं कभी भी नहीं आया था - दूसरे नंबर पर ही  था | बल्कि दूसरी में तो तीसरे स्थान पर था | लेकिन उन दिनों वे सब आदतें मेरे साथ नहीं जुडी थी | 

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कौन कहता है, चमत्कार नहीं होते | चमत्कार तो दूर, ये तो हिंदी फिल्मों के सुखद अंत जैसा ही था | 

अगले दिन वही हुआ | मेरे लिए जो खबर एक दिन पहले शाम को उडी थी, वह गलत साबित हुई |  मैं और मनमोहन दोनों संयुक्त रूप से प्रथम आये थे और राजीव सिंह दूसरे स्थान पर सरक गया था |  देखा जाए तो पिछले तीन वर्षों से हम तीनों में से ही कोई प्रथम द्वितीय या तृतीय आते रहा था | छ महीने पहले ही अर्धवार्षिक परीक्षा में मनमोहन और राजीव सिंह संयुक्त रूप से प्रथम आये थे और मैं दूसरे नंबर पर था | ( बल्कि मैं तो तीसरे नंबर पर  लुढ़क  गया था | दूसरे नंबर पर संयुक्त रूप से अनु गुप्ता और मिथिला थे | लेकिन जब मैंने उत्तर पुस्तिका देखी  तो पता चला, एक प्रश्न का उत्तर कालकर बहनजी ने जांचा  ही नहीं था | जब मैंने उन्हें दिखाया और उन्होंने अंक दिए, तब मैं दूसरे नंबर पर आ गया })

लेकिन राजीव सिंह को अचानक ना जाने क्या हुआ, वो रो पड़ा | सबके सामने, बड़ी बहनजी के पास जब हम तीनों जिला शिक्षा अधिकारी, जिसे हम "टी टी गार्ड का तोतला " कहते थे, के साथ खड़े थे, तो राजीव सिंह की रुलाई फूट पड़ी | 
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......स्कूल ख़तम | अब हम सबको कहीं और जाना था | सामने वह मंच था जहाँ वार्षिकोत्सव होते थे | मंच के उस पार ही तो थी हमारी कक्षा पहली वर्ग 'स' | कैसे गुजर गए पांच साल ?

दरवाजे पर अभी ताला लटक रहा था | मैंने अंदर झांक कर देखा ,"मुझे आवाज़ सुनाई दी, जो अभी भी कमरे में गूँज रही थी | 
        "हम हैं नन्हे, नन्हे सैनिक छोटे और मटोले |
        इसी भारत माँ के हम गोद में ही खेलें |"

पांच साल पहले - वो भारत पाकिस्तान की लड़ाई के दिन थे | छोटी बड़ी कक्षा के कुछ बच्चों को लेकर इस कोरस की पूर्वाभ्यास कराया जाता था , जिसे चंद्रावती ने गौर से देखा था | जब कक्षा में साहू सर नहीं होते , तो चंद्रावती कुछ बच्चों को पकड़कर वह रिहर्सल करवाती | उनमें राजीव सिंह भी एक था | 

राजीव सिंह, जो  चन्दन का मुक्का खाकर  कक्षा एक में रोया था | आज आखिरी दिन फिर एक बार उसकी रुलाई वापस आ गयी | मेरा मन खिन्न हो गया | 

नहीं, राजीव सिंह एक बहुत अच्छा मित्र था | आखिरी दिन उससे इस तरह अलग होना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था | 

केवल एक ही शख्स मेरी मदद कर सकता था - राजीव सिंह का हनुमान | अरे हाँ, विनोद धर | उसे कैसे भूल गए ? उससे मिलकर एक बार तो कह लें कि गिले शिकवे भूल जा ऐ मित्र | फिर राजीव सिंह की बात करके उसको मनाने की रणनीति बनाई जाए |

पर मन मैं अभी भी एक हिचक थी |  

राजीव सिंह को बड़ी बहनजी ने एक संतरा दिया था | संतरा हाथ में लेकर, वह रोते - रोते घर जा चुका था |  "टी टी गार्ड का तोतला" अभी भी मनमोहन से घुल मिलकर बातें कर रहा था मानो वे लंगोटिया यार हों  | लोग तीन तीन  चार चार के ग्रुप में बातचीत में मशगूल थे | 

पर विनोद धर कहाँ था ?

विनोद धर से बात करने के लिएए मेरे मन में भले ही अभी भी हिचक रही हो, पर उसके मन में कोई हिचक नहीं थी | मैंने देखा, किरण और विनोद धर बातें कर रहे थे | मैंने कुछ क्षण दूसरी कक्षा के पास खड़े होकर इंतज़ार किया, पर मुझे लगता था , वह इंतज़ार काफी लम्बा हो सकता है | 

तो वो दूसरी कक्षा का कमरा था | एक बार पंखों से चट-चट की आवाज़ के साथ चिंगारियां निकलने लगी थी और बिजोरिया बहनजी घबरा गयी थी | वही तो वह कक्षा थी, जब विनोद धार एक दिन कक्षा में ही लट्टू लेकर आ गया था | कारण यह था कि उसने भोला गिरी से शर्त लगाई थी कि  वह "ऊपरी-ऊपर " कर सकता है | आधी छुट्टी में सबको वह खेल के मैदान में ले गया, लट्टू में रस्सी बाँधी और जोर से खींचा | भनभनाहट के साथ लट्टू  हवा में तीव्र गति  से घुमा | विनोद धर ने हथेली बधाई और वह लट्टू एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसकी हतेली में घूमने लगा | 

मैंने पीछे मुड़कर देखा, विनोद धर और किरण अभी भी बातें कर रहे थे | मैं तीसरी कक्षा के कमरे की और बढ़ा | अंदर झांककर देखा | विनोद धर के बेंच बजाने की आवाज़ सुनाई दे रही थी | उसकी पसंदीदा धुन होती थी, बेंच पर रेलगाड़ी की अलग-अलग धुन निकलना | जब रेलगाड़ी स्टेशन से चलती है, जब गति पकड़ती है, जब पटरी बदलती है , जब पुल के ऊपर से गुजरती है | 

मैंने पीछे मुड़कर देखा | विनोद धर अभी भी किरण से बातें कर रहा था | लगता था, मानो उनकी बात कभी ख़तम नहीं होगी | भीड़ अब तक काफी छंट चुकी थी | मनमोहन भी घर जा चुका  था | मैं चौथी कक्षा के कमरे की और बढ़ गया | 

यही तो वह वर्ष था जब सुबोध जोशी और राजीव जावले आये थे | पर रह रह कर वही घटना याद आ जाती थी | और वही घटना फिर मेरे मन में घूम गयी | वही तो है, कालकर बहनजी तो टेबल , जिसके बांयी और हम सब लड़के खड़े थे | नज़रें नीचे, शाह बहनजी के व्यंग्य बाण छूट रहे थे | बस, और मैं ज्यादा सोच नहीं सका | 

मैंने पीछे मुड़कर देखा, विनोद धर अब गायब हो चुका था | 

विनोद धर तो उसी दिन गायब हो गया था | मैं किसका इंतज़ार कर रहा था ?
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भिलाई विद्यालय में जाने के बाद सारे दोस्त मिले | चौकड़ी के तीन सदस्य तो थे ही- विनोद धर का पता नहीं था | 

चन्दन तो खैर चन्दन था | अगर तुम उसे नहीं खोज पाते तो वह तुम्हें खोज लेता | ज्यादा दूर नहीं, कक्षा छठवीं 'बी' में ही वह था | 

सुरेश बोपचे भी मुस्कुराते हुए दिख ही जाता था | 

भोला गिरी ने तो कमाल ही कर दिया | छठवीं में नाट्य स्पर्धा में उनके 'डी' वर्ग ने एक नाटक किया था,"भक्त और भगवान् " | उसमें भोला गिरी ने भक्त की ऐसी सजीव भूमिका की कि न केवल वह नाटक प्रथम आया , बल्कि भोला गिरी को श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिल गया | 

पर विनोद धर कहाँ छुपा था ? 
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एक दिन अचानक बिजली कड़की और विनोद धर दिख गया | 
वही पुराना  विनोद धर !!

अब भिलाई विद्यालय में भला बोरा दौड़ जलेबी दौड़ कुर्सी दौड़ होते तो क्यों होते  | वहाँ वही प्रतिस्पर्धाएं होती थी , जो ओलिंपिक में शामिल होती थीं  | 'खो खो' और कबड्डी तो वैसे हमेशा से अपवाद रहे हैं | 

कक्षा सातवीं में थे तब हम लोग | 

ऐसी ही एक दौड़ थी - ११० मीटर बाधा दौड़ | भिलाई विद्यालय के पास शायद बाधाओं की ( यानी उन स्टेण्ड की, जिनके ऊपर से कूद कर जाना पड़ता था) की संख्या सीमित थी | इसलिए और दौड़ीं की तरह अगल-बगल कई ट्रैक बनाने के बजाय  , ताकि सभी प्रतिस्पर्धी एक साथ भाग सकें, एक ही ट्रैक बनाया जाता था | सारे प्रतिस्पर्धी का एक एक करके नाम पुकारा जाता था | जिसका नाम पुकारा जाता था, वो स्टार्टिंग लाइन पर आकर खड़ा होता था | बंदूक  दागी जाती थी | विराम घडी का बटन दबाया जाता था और वह धावक दौड़ प्रारम्भ करता था | 

उद्घोषणा की माइक पर झा सर बैठे थे | वे एक एक नाम पुकारते और प्रतिस्पर्धी प्रारंभिक बिंदु पर आकर खड़ा होता था | 
मैदान काफी बड़ा था उसके समानांतर उस वक्त और भी प्रतिस्पर्धाएं जारी थी | तब गोला फेंक चल रहा था और मैं वही देख रहा था | 

अचानक बाधा दौड़ के एक नाम ने मेरे दिमाग में घंटियां बजा दी, "विनोद धर द्विवेदी"| 
नाम वही था | ऐसा नाम किसी और का हो ही नहीं सकता - ये केवल मेरा ही मानना नहीं था | मैं तुरंत गोला फेंक छोड़ कर बाधा दौड़ की ओर लपका | 

हाँ, वही था | ठिंगना लेकिन मज़बूत कद, तेज़ आँखें, सुदृढ़ मांसपेशियों वाले पाँव | 

लेकिन सामने जो बाधाये थी, वे तो काफी ऊंचाई पर थी | धावक की ऊंचाई के हिसाब से बाधाओं को समायोजित करने का कोई नियम तो था नहीं |  वे विनोद धर के सीने से थोड़ी सी नीचे थी | कहा जाए तो विनोद धर के लिए ऊँची कूद के लक्ष्य की तरह थी | 

किन्तु ऊँची कूद में तो एक ही बाधा होती थी | यहाँ तो बाधाओं की कतार सी लगी थी - हर दस मीटर में एक नयी बाधा | विनोद धर क्या कर पायेगा ?
लेकिन वह पुराबा  विनोद धर था - पहली कक्षा वाला विनोद धर | जब वे एक ओर रखे बेंचों पर एक बेंच से दूसरी बेंच पर छलांग मारते थे | 

बंदूक दगी , विराम घडी का बटन दबा और विनोद धर ने दौड़ना शुरू किया | एक बाधा उसने आसानी से पार की, दूसरी बाधा , तीसरी बाधा ... | सब चकित थे | माइक पर झा सर कह रहे थे , "इस बालक के लिए ये बाधाएं कोई बाधाएं नहीं, केवल उम्र ही एक बाधा है .. |" झा सर की बात से  असहमत होने की कोई वजह नहीं थी | उम्र के साथ विनोद धर की ऊंचाई बढ़ेगी ही | तब इन बाधाओं के ऊपर से छलांगें भरने में उसे कोई मुश्किल नहीं होगी | 

लेकिन इतना स्पष्ट था कि विनोद धर  की गति  एक के बाद एक बाधाएं पार करने पर कुछ धीमी हो रही है | 

अचानक किसी ने आवाज़ दी , "नीचे से निकल जा ओये |" स्पष्टतः विनोद धर इस नियम से अनभिज्ञ था और आठवीं बाधा पर वह नीचे से निकला | 
"ये नियम विरुद्ध है बेटे|" झा सर की  आवाज़  गूँजी | 
विनोद धर ने अपनी गलती सुधारी  और अगली दो बाधाओं के ऊपर से उसने छलांग भर कर कर दौड़ पूरी की | शिक्षक , विद्यार्थी, कर्मचारी - सब तालियाँ बजाने पर विवश थे | 
जब वह इतनी बाधाएं पार कर सकता  था , तो वह एक बाधा क्यों नहीं पार कर सकता ? जो उसके मन में बैठी  है ?

अच्छे समय के बावजूद विनोद धर की दौड़ अमान्य  गयी क्योकि वह एक बाधा के नीचे से जो गुजरा था, जो कि नियम विरुद्ध था |  मेरे ख्याल से उसे ज्ञात नहीं था कि ऐसा करना नियम विरुद्ध है | ज्ञात तो मुझे भी  नहीं था | 

क्या उसे उस दिन ज्ञात था , कि वह जो कर रहा है , वह जियम विरुद्ध था ?
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एक झलक दिखलाकर विनोद धर फिर से गायब हो गया | 

समय का पहिया घूमते रहा | कई वर्ष गुजर गए | भिलाई विद्यालय से बाहर निकलते समय मुझे ये तो मालूम था कि चन्दन कहाँ जा रहा है - क्योंकि चन्दन छुपाये नहीं छुपता था | सुरेश बोपचे का भी थोड़ा बहुत आभास था | भोला गिरी कहाँ था, पता नहीं और विनोद धर की खबर तो किसी के पास नहीं थी | 

इंजीनियरिंग कॉलेज की 'मिड सेमेस्टर' छुट्टियां थी | जब भी मैं उन दिनों भिलाई आता, साइकिल लेकर नगर घूमने निकल जाता था | देखता, इन चंद महीनों में ये शहर कितना और बदल गया है | वही पुराने पार्क, मैदान, मंदिर - सिविक सेंटर | जहाँ किसी मैदान में क्रिकेट का मैच चलते रहता , मैं वहीँ ठहर जाता | 
सेक्टर १ में नेहरू सांस्कृतिक भवन के पास एक मैच चल रहा था | मैं वहीँ खड़े होकर मैच देखने लगा | दूरदर्शन पर मैच देखकर मन में बार बार ये ख्याल आता था - आखिर क्या है, उन खिलाड़ियों में और भिलाई के इन खिलाड़ियों में जो वे तो भारत की ओर से खेलते हैं और ये अभी भी गुमनामी के अँधेरे में रास्ता तलाश रहे हैं | तकनीक वही , शारीरिक डील डॉल वही | 
पिच को छोड़कर पूरा मैदान छोटी मुरम का बना हुआ था जो भिलाई के अधिकतर मैदानों की खासियत थी | उसमें भी ये देखकर अच्छा लगता था कि फिर भी क्षेत्ररक्षक कलाबाजियां खाने से हिचकिचा नहीं रहे थे | मैदान के बीच में एक बिजली का खम्बा भी था | अगर कोई क्षेत्ररक्षक उसे टकरा जाए तो ?
"विजय सिंह |" किसी ने मुझे आवाज़ दी | मैंने पीछे मुड़   कर देखा, विनोद धर खड़ा था | 
मैं उसकी और बढ़ा और उसके आसपास रोकती हुई अदृश्य दीवारों से टकरा गया | इतने वर्षों बाद भी वह दीवार पूरी तरह से से ढह नहीं पायी थी | लेकिन एक शक्तिशाली चुम्बक भी तो था, जो मुझे उससे दूर जाने नहीं दे रहा था | बचपन की दोस्ती के अदृश्य तार रास्ता खोज रहे थे | 
परिणामस्वरूप हमारा वार्तालाप कुछ इस तरह का था - 
"उस लड़के को देख रहा है ?" विनोद धर ने एक क्षेत्ररक्षक की और इशारा किया जो बिजली के खम्बे के पास मोर्चा सम्हाले था | 
"हाँ", मैंने कहा | 
"वो सैय्यद है | याद है, भिलाई विद्यालय वाला सैय्यद |"
तभी संयोग से एक कैच उड़ता हुआ सैय्यद के पास आया | तेज़ी से बॉल सैय्यद से दूर जा रही थी | भागकर सैय्यद ने पकड़ने की कोशिश की | अंतिम क्षणों में छलांग भी लगाईं, पर कैच कर नहीं पाया | 

"कैच छोड़ दिया यार |" विनोद धर ने सर पीटा , "और बोलेंगे, हमें बी. एस. पी. में खेलना  है |"
"कोशिश तो अच्छी की यार |"  मैंने कहा | 
तो जिस वार्तालाप को  जो गर्मजोशी से हाथ मिलकर, "तू कहाँ है, क्या कर रहा है, ये कैसा है, वो कैसा है, इतने साल क्या किया", उस दिशा में जाना चाहिए था, वह किसी और दिशा में बढ़ गयी थी | 
"एल.बी. डब्ल्यू. का नया रूल जनता है ?" अचानक वह बोला ," अब अगर बॉल लेग स्टम्प के बाहर टप्पा खायेगी तो अम्पायर  'एल. बी.' दे नहीं सकता | अपने बॉलर मनिंदर और शिवराम कृष्णन तो वहीँ कट गए |"

"यार, ये रूल तो पहले भी था | नहीं ?" मैंने पूछा | 
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जीवन काफी आगे निकल आया था |  एक दो नहीं, पूरे तीस साल  वर्ष और गुजर गए | 
पर इस बार जो विनोद धर मिला, वो पुराना विनोद धर निकला |  भिलाई विद्यालय में भोला गिरी , चन्दन दास, सुरेश बोपचे और विनोद धर फिर एक बार इकठ्ठा हुए | भिलाई विद्यालय के उच्चतर माध्यमिक के  साथी बरसों बाद  मिल रहे थे | सुरेख बोपचे के एक हाथ में प्लास्टर चढ़ा था | चन्दन और मोटा हो गया था | और विनोद धर?  हाँ, वही पुराना विनोद धर , जिसने चन्दन को चिढ़ाना शुरू किया | मनमोहन से वह भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रबंधन को लेकर लम्बी बहस में उलझ गया |बिलकुल वही पुराना विनोद धर था वह | अब न तो कोई अदृश्य दीवार थी और न कोई हिचकिचाहट | पुरानी गप्पेबाजी का नया सिलसिला चालू हो गया | 

देखकर काफी अच्छा लगा कि पुराना विनोद धर अंततः  लौट आया | 
 सुबोध जोशी, प्रमोद मिश्रा , मनमोहन , सूर्य प्रकाश , सत्यव्रत, चौगड्डे के वे सारे सदस्य, जिनके लिए बरसों पहले जिस विनोद धर ने आइसक्रीम का इंतज़ाम किया था , शाला क्रमांक आठ के उन दोस्तों के लिए शाम को "भिलाई क्लब" में उसी  विनोद धर ने पार्टी रख दी | 
"मैं नहीं आ सकता यार |" मैंने कहा | 
"क्यों नहीं आ सकता ?"
"मेरे पास वाहन नहीं है |"
"मैं आ रहा हूँ तुझे लेने |" पुराना  विनोद धर छोड़ने वाला नहीं था | 

घर में बैठकर शाम होने से पहले मैं यही सोचते रहा | पुराना विनोद धार लौट आया | पर यह सम्पूर्ण , आमूलचूल रूपांतरण हुआ कैसे ?

क्या कमी थी विनोद धर के पास अब ? इस्पात संयंत्रों के लिए भट्टियों के अंदर रिफ्रैक्टरी लाइनिंग बनाने वाली एक एक बड़ी सी कंपनी का वह सेल्स का बड़ा अधिकारी था | उसका अधिकतर समय विभिन्न ग्राहकों के पास यात्रा में ही  गुजरता था -  भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, केन्या, कज़ाकिस्तान के ग्राहकों को उसे ही सम्हालना पड़ता था | 

शाम को विनोद धर की कार से हम लोग भिलाई क्लब के लिए निकले | पुराने मित्र, पुराने संस्मरणों का पिटारा एक बार फिर खुला | अचानक विनोद धर ने पूछा ,"विजय, तुझे, किरण याद है ?"
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जिस पद पर विनोद धर था, वैसे लोगों का रक्तचाप ऊपर नीचे होना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है | भिलाई के सबसे बड़े अस्पताल, सेक्टर ९ के अस्पताल के एक केबिन में विनोद धर बिस्तर पर लेते थे | 
दरवाजा खुला और नर्स अंदर आयी | विनोद धर ने चैन की सांस ली क्योंकि वो कोई युवा नर्स नहीं थी जो आनन्-फानन में फुर्ती से काम निपटा कर आंधी तूफान की तरह निकल जाए | बालों  में कहीं इधर उधर से हलकी फुलकी सफेदी जरूर झांक रही थी पर वह नर्स किसी एयर होस्टेस से ज्यादा फिट लग रही थी | 
न जाने क्यों वह नर्स उसे जानी पहचानी लग रही थी | नर्स ने टेबल पर रखा उसका रिकॉर्ड उठाया और देखने लगी | अचानक उसने विनोद धर को गौर से देखा | फिर इंजेक्शन तैयार करने लगी | 
"एक इंजेक्शन लगाना है |" वह बोली  और विनोद धर की बांह से कमीज हटाने लगी | 
"इंजेक्शन ? मुझे इंजेक्शन से डर लगता है |"
"अब भी डर लगता है ?"
विनोद धर चौंक पड़ा और नर्स की और गौर से देखने लगा | 
" तुम कितने भी बड़े हो जाओ, मैं तो देखते ही पहचान गयी थी |" नर्स बोली, "और जब नाम देखा तो अंदेशा पूरे विश्वास  में बदल गया } दुनिया में ऐसा नाम किसी और का हो ही नहीं सकता - विनोद धर द्विवेदी | चिंता मत करो | ऐसे इंजेक्शन लगाऊँगी  कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा | "
वह विनोद धर की बांह में रुई मलने लगी | 
इतने वर्षों से खड़ी हुई समय की वह दीवार भरभरा कर गिरने लगी | विनोद धर के मुंह से अस्फुट स्वर  निकला , "क ... क.... कि... "
"क्या शाहरुख़ खान की तरह क... क .. कर रहे हो ?" उसकी चंचल शरारती मुस्कान वैसी ही थी जैसे, चालीस साल पहले थी,"हाँ बाबा | मैं किरण हूँ |"

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वर्ष - १९७४, १९७८, १९८६, २०१५ 
स्थान - भिलाई  





















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