जब यह दोहा लिखा गया, तब लिखा गया | तीसरी कक्षा में जब पढ़ाया गया तो रट लिया , समझ लिया | यह जान लिया कि अति परिचय से महत्व या दूसरे शब्दों में दबदबा कैसे कम हो जाता है |
जब कवि की कलम चली तब मलयगिरि चन्दन का घर था | चन्दन की लकड़ी के लिए दुनिया तरसती रही हो, पर मलयगिरी की भीलनी के लिए तो चूल्हा जलाकर खाना बनाना ज्यादा जरूरी था | सो, वह चन्दन की लकड़ी चूल्हे में फूँक देती थी |
दूसरी कक्षाओं के लिए चन्दन का अभी भी खौफ रहा हो, पर हमारी कक्षा के लोगों के लिए चन्दन वह "दो गज की दूरी" वाला चन्दन नहीं था | उसके गले में बाहें डालते समय राजीव सिंह को कभी पहली कक्षा की वह घटना याद नहीं आती होगी | वैसे भी उन दिनों गलबहियां प्रगाढ़ मित्रता की निशानी समझी जाती थी | तीन साल से पांच पांच घंटे रोज़ साथ बिताने के के बाद पत्थर भी पिघल जाता है तो वह तो चन्दन था | बड़े भाई दीपक की वाक्पटुता और परिहास की छवि कुछ कुछ चन्दन में दिखने लगी थी |
वही चन्दन सुबह की पाली वालों के लिए खूंखार हो उठता था | सुबह की पाली पौने बारह बजे ख़तम होती थी और दोपहर की पाली बारह बजे शुरू होती थी | उस पंद्रह मिनट के संक्रमण काल में सुबह वाले बाहर जा रहे होते थे और दोपहर वाले अंदर आ रहे होते थे | चट्टान जब टकराएं तो चिंगारी निकलना स्वाभाविक था | गाली गलौच, धक्का-मुक्की , गाहे-बगाहे पत्थरबाज़ी - सब कुछ उस पँद्रह मिनट के अंतराल में देखने को मिलता था | बालकों की सृजनात्मकता का अच्छा परिचय मौलिक, अनूठी गालियों में सुनने को मिलता था | कभी इत्मीनान से बैठकर सुनने में हँसी आती थी | उन गालियों में कभी डायनोसौर भड़भड़ाता हुआ आता था तो कभी रेलगाड़ी सरपट भागती थी | अभी सिलाई मशीन उछाली जाती थी तो कभी वेल्डिंग का हत्था हत्थे चढ़ जाता था | यह सिलसिला तब तक चलते रहता था , जब तक सुबह वाले स्कूल के बाहर की नाली और फिर सड़क पार करके इक्कीस सड़क में दाखिल होकर सेक्टर छह की राह ना पकड़ लें |
इस सारी कटुता की पृष्टभूमि में दो प्रमुख कारण थे |
पहला - सुबह वालों के साथ कबड्डी के मैच में हमारी दोपहर पाली की टीम हर बार हार जाती थी | जीत भी कैसे सकते थे ? आखिर हमारी टीम में कौन थे - विनोद धर की चौकड़ी के सदस्य - विनोद धर, भोला गिरी, चन्दन दास और सुरेश बोपचे और वर्ग 'ड' के एकाध दो लड़के - दुर्गाराव , बलदेव आदि | और सुबह की टीम में ? एक से एक कद्दावर और छंटे हुए लड़के - हमीद, प्रमोद, बासत, जसवंत, कृष्णा रेड्डी , श्याम नारायण ! अगर कोई अपवाद था तो मुस्कुराते चेहरे वाला इक्कीस सड़क का अजय कौशल | वर्ना इन सब की कहानियां शाला प्रांगण के बाहर भी दूर दूर तक फैली थी | एक बार तो बासत रंदे से बर्फ घिसकर आइसक्रीम बनाने वाले के ठेले से पूरी शरबत की बोतल उठाकर भाग गया था | कबड्डी का मैच जीतना एक बात थी | लेकिन उसके बाद जो विजयोल्लास होता था उससे हम सब जल भुन जाते थे | अब हम तो दर्शक थे, भला खिलाड़ियों पर क्या बीतती होगी - जरा कल्पना करके देखिये |
हर हार के बाद हम बीते समय के दोपहर की पाली के महान खिलाडियों को याद करते - कुंजीलाल , बृंदा , उदय | एक बार मेरे मुंह से निकल गया ,"यार, वो यदि फेल होकर यहीं रहते तो ..|" और कक्षा "ड" के शरद निगम ने मुझे झिड़क दिया," किसी के फेल होने की दुआएं क्यों करते हो यार?" ये मैं नहीं मेरी खीज बोल रही थी जो हर हार के बाद वही दृश्य देखकर बड़ी - और बड़ी हो गयी थी |
दूसरा प्रमुख कारण था, लड़कियों से छेड़छाड़ | प्रातः पाली वाले अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ जो कुछ करें, उससे हमें कोई सरोकार नहीं था | पर उनकी मजाल थी कि दोपहर के पाली की लड़कियों पर एक जुमला भी कस दें | ज्वालामुखी के रूप में चन्दन फट पड़ता था |
ये मैंने क्या कह दिया ? आप भी सोच रहे होंगे, हमारी उम्र ही क्या रही होगी उस समय ?आठ साल ? नौ साल? या दस साल? वक्त से पहले बड़े हो गए थे ? मेरे हुजूर, अभी आगे तो पढ़िए |
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"माचिस की खाली डिब्बी? कितनी लगेगी ? " चन्दन ने मुझसे पूछा |
मैंने मन ही मन गणना की और कहा, "सात"}
"चाभी छाप या घोडा छाप ?" चन्दन ने दूसरा सवाल दागा |
"दोनों चल सकती है | बस, आकार समान होना चाहिए | "
वैसे यही सवाल थोड़ी देर पहले प्रमोद मिश्रा ने पूछे थे | चन्दन मेरा दूसरा ग्राहक था |
ग्राहक ? हाँ अब दिल को बहलाने के लिए कुछ तो सोचना पड़ेगा |
बात तीसरी कक्षा की है || हुआ ये था कि कालकर बहन जी ने कोई "मॉडल" बना कर लाने को कहा था | बस, कह दिया, न तो परिभाषित किया और न ही कोई विवरण दिया | कारण यही था कि उन्हें पता था, वे किनके आगे बीन बजा रही हैं | कोई फायदा तो होने वाला नहीं, क्योंकि कोई कुछ करेगा नहीं | उनका मतलब वैज्ञानिक 'मॉडल ' से था, जिसे शायद सिविक सेण्टर के बाल मेला की प्रदर्शनी में रखा जा सके | उन दिनों घर में एक पत्रिका आती थी - धर्मयुग | उसके किसी अंक के बाल जगत के कोने में माचिस के खाली डब्बों से कुत्ते के 'मॉडल' बनाने का विवरण था |
क्या क्या नहीं किया मैंने | माचिस के जिन डिब्बों में तीलियाँ थी, उनसे वे तीलिया निकालकर दूसरे भरे माचिस के डब्बों में ठूंसा | मुन्ना की मां से खाली माचिस मांग कर लाया | माचिस के डिब्बों से ढांचा बन जाने के बाद घुटना पेपर के सफ़ेद भाग को चिपकाकर , डॉट पेन से उसकी आँखें बनाई , फिर लाल झिल्ली कागज़ से लपलपाती जीभ बनाई |
जब मैंने उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ कालकर बहनजी की मेज पर रखा तब चेहरे से यही टपक रहा था - हाँ, हम भी कुछ कर सकते हैं | कालकर बहनजी ने उसे उलटा-पलटा कर देखा और वापिस करते हुए कहा,"अच्छा है |"
बैरंग वापस ...| भला 'मॉडेल ' का अर्थ और क्या होता है ?"
"तू ऐसा मेरे लिए बना देगा?" प्रमोद मिश्रा ने पूछा |
दिल को थोड़ी सांत्वना मिली - कहीं से तो कोई प्रोत्साहन आया |
"हाँ , जरूर | तू माचिस के खाली डब्बे ले आ |"
"तू मुझे सीखा देगा ?" वह उम्र ही वैसी थी, जब दूसरों से काम करवाने की अपेक्षा स्वतः सीखने की ललक ज्यादा थी | प्रमोद मिश्रा का यह प्रश्न स्वाभाविक था |
"ठीक है | पूरी छुट्टी के बाद तू मेरे घर आ जाना |"
प्रमोद मिश्रा मेरे घर आया और घर की सीढ़ियों पर बैठकर मैंने उसे बनाना सिखाया |
मगर चन्दन का हिसाब-किताब ही दूसरा था ,"पूरी छुट्टी के बात तू मेरे साथ मेरे घर चलेगा | समझे?"
इन शब्दों में अनुग्रह, अनुदेश और धौंस - सब कुछ समाहित था |
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पूरी छुट्टी के बाद मैं दौड़ भागकर घर गया | आनन् फानन में शाला की पेटी एक कोने में फेंकी, माँ के सामने हाजिरी लगाईं और चन्दन के साथ हो लिए | चल पड़े तो चलते ही जा रहे थे | अयप्पा मंदिर पार किया, पूछताछ दफ्तर के बगल से निकले | सत्रह सड़क के बाद 'अबे नू ' ( एवेन्यू - पार मार्ग ) तक पहुँच गए | उसके आगे ज़िन्दगी में पहली बार मैंने कदम रखा था | टीन के छत वाले घरों की कतार बड़ी तिलस्मयी लग रही थी | ऐसे ही एक घर पर पहुँच कर चन्दन ने दरवाजा खटखटाया |
"अरे विजय सिंह |" चन्दन के भाई दीपक ने दरवाजा खोलते ही कहा |
उनका नाम तो शाला क्रमांक आठ के सब लोग जानते थे , पर उन्हें मेरे नाम का पता कैसे चला ? संभव है, चन्दन ने पूर्व सूचना दे रखी हो | लेकिन इससे ज्यादा बड़ी बात ये थी कि उनकी आवाज़ को क्या हुआ ?
जैसे कि उन दिनों हुआ करते थे | परिवार या आवश्यकताएं बड़ी थी और घर छोटे होते थे | फलतः समझदार लोग आगे पीछे दाएं बांये - एकाध दो कमरे बना लेते थे | चन्दन के घर में भी वैसे ही एक कमरा सामने बना था , जिसमें हम लोग बैठे | वो माचिस की डिबिया लेकर आया | पर अब उसकी आवाज़ को क्या हो गया ? उसकी आवाज़ भी बहुत धीमे हो गयी | क्या मुझे भी धीमे ही बोलना चाहिए ?
हुआ कुछ वैसा ही |
"इसको उल्टा घुसा |" मैंने सामान्य आवाज़ में कहा | चन्दन ने तुरंत आवाज़ धीमे करने का इशारा किया |
मैंने चन्दन को एक बार बनाकर दिखाया और फिर सब डिब्बे अलग करके उससे जोड़ने को कहा | तब तक रात काफी हो गयी थी |
"चल तुझे छोड़कर आता हूँ | रास्ते में कुत्ते बहुत हैं - असली कुत्ते | "
"पूछताछ दफ्तर तक छोड़ दे | फिर मैं चले जाऊंगा |" अब मैं भी जल्दी निकल जाने की फ़िराक में था |
"चक्कर क्या है यार ?" ट्यूबलर शेड की अँधेरी सड़कों में चन्दन मेरे आगे आगे चल कर यह सुनिश्चित कर रहा था कि कोई कुत्ता अँधेरे में तो नहीं बैठा है | 'अबे नू ' के आते ही सड़क की बत्तियां दिखने लगी और हम अब समानांतर चलने लगे |
"कैसा चक्कर?" चन्दन ने पूछा |
"घर में तुम लोग इतना धीमे क्यों बोल रहे थे ?"
"बाबा की रात की ड्यूटी है |" चन्दन बोला ,"उनका कहना है, मैं आठ घंटे भट्टियों की आवाज़ में रहता हूँ | घर में मुझे शांति से सोने दो |"
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आधी छुट्टी और खेल के पीरियड में फर्क ये होता था कि आधी छुट्टी के वक्त पूरी शाला बाहर होती थी , जबकि खेल के पीरियड में एक या दो वर्ग के लोग ही बाहर होते थे | बाकी काम हम वही करते थे - जो मन चाहे | अगर शिक्षिकाओं की बात मानते तो 'रूमाल चोर' खेलते रहते , जैसे वर्ग 'ड' की आज्ञाकारिणी लड़कियां इस वक्त खेल रही थी | या फिर दौड़ भाग वाले खेल खेलते और फिर बेतरतीब इधर उधर बैठ जाते | या तो विनोद धर कोई 'फोक' सुनाता और हम लोग इस तलाश में कुत्ते की तरह कान लगाकर सुनते कि कोई मौका भर मिले और हम उसका 'फोक' पकड़ कर उलटा लटका दें | या सूर्य प्रकाश किसी तेलुगू चंदामामा के नए अंक की कोई कहानी सुना रहा होता | तेलुगू चंदामामा हिंदी की चंदामामा से एक महीने आगे चलती थी | इसलिए धारावाहिक 'विचित्र जुड़वां' या 'वीर हनुमान' में अगले महीने क्या होने वाला है - यह जिज्ञासा वही शांत करता |
या तो मैं किसी बाल पॉकेट बुक्स की कहानी सुना रहा होता| जैसे इस वक्त सुना रहा था ,"राक्षस ने वह हड्डी राजकुमारी को देते हुए कहा ," ये हड्डी किसी आदमी के सर के ऊपर तीन बार घुमा देना | वह चूहा बन जायेगा |"
कहानी अभी अपने चरम उत्कर्ष पर ही पहुंची थी कि विनोद धर बोल पड़ा ,"और फिर जब राक्षस सो जाता होगा तो राजकुमारी वह हड्डी राक्षस के सर के ऊपर घुमा देती होगी |" आगे कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था | कहानी के रहस्य का ही कचूमर निकल गया |
अब भोला गिरी ने फिल्म "मधुमति" की कहानी शुरू की जो उसके पिताजी एक दिन पहले जबरदस्ती पकड़कर ले गए थे | ठीक है, उसके पिताजी के दिनों में वह 'सुपर डूपर हिट' रही होगी पर भोला गिरी के लिए वह किसी उत्पीड़न से कम नहीं था | यह बात भी उतनी ही सही है कि परिहास भी उत्पीड़न के पश्चात् ही उत्पन्न होता है | वह फिल्म की व्याख्या कर रहा था और हम हँस-हँस कर लोटपोट हो रहे थे |
तो जो वर्ग 'ड' को आज्ञाकारिणी बालाएं, जो अभी घेरा बनाकर रुमालचोर खेल रही थी, उनके लिए जरूर आधी छुट्टी और खेल के पीरियड में फर्क था | आधी छुट्टी के समय वे अपने वर्ग के उन सहपाठियों पर नज़र रखती थीं जो तार के बाहर जाते थे | शाह बहनजी आधी छुट्टी के बाद ऐसे लड़कों की पूजा करती थी |
कभी कभी खेल के पीरियड में हम लोग जूते की कतार लगाकर पाला बना लेते और कबड्डी खेलते | छुआ छुई तो सदाबहार खेल था | लट्टू या गेंद लाना तब वर्जित था | यानी संसाधन के अभाव में भी क्रियाकलापों की कोई कमी नहीं थी |
पूरे तीसरी और चौथी के शुरुवाती महीने मेंतब तक यही सब चलते रहा जब तक पटल पर दिलीप का आगमन नहीं हो गया | उसके बाद सब कुछ बदल गया - हमारे लिए भी और उन आज्ञाकारिणी लड़कियों के लिए भी |
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इसे 'आह' कहें या नज़र (शायद कालकर बहनजी की ) कि विनोद धर , भोला गिरी , चन्दन दास और सुरेश बोपचे व वह चौगुट जो तीसरी के अंत तक इतना सुदृढ़ लगता था कि उनके बीच से हवा भी नहीं पार हो सकती थी, चौथी के अंत तक तिनके की तरह बिखर गया |
एक ही साल में एक नहीं, दो दो बड़े बड़े कहर टूटे | मानों वे भगवान् ने उन चौगुटों को तोड़ने के लिए ही भेजे हों
वैसे पहले कहर का नाम दिलीप था |
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इन तीन सालों में हमारी कक्षा के छात्र इस कदर घुलमिल गए थे कि जब भी कोई नवांगतुक आता तो उसे भी अपने रंग में रँग डालते | यकीन नहीं आये तो सुबोध जोशी या राजीव जावले (जो आज इस संसार में नहीं है) पूछ लेते |
फिर भी कुछ नयी प्रविष्ठियां ऐसी हुई कि उन्होंने हमें ही अपने रंग में रँगना शुरू किया | कुछ इस तरह कि एक तरह से न केवल तीन सालों की कार्यशैली बदली, बल्कि कई बार हम आत्म मंथन पर भी विवश हो गए |
याद है, वो "समय से पहले बड़े होने" वाला जुमला ? कुछ नहीं था उसमें - कुछ भी नहीं | अगर चौगुटे के सदस्य या कुछ इक्के दुक्के और को छोड़ दें तो बाकि लड़के तो लड़कियों से बात से कतराते थे | न जाने वो क्या सोच ले ? न जाने वो किससे शिकायत कर दे | यह वह समय था जब फ़िल्में देखना बुरा समझा जाता था क्योंकि फ़िल्में बुरी बातें सिखाती थी |
और उन्हीं फिल्मों के परदे से उतरकर सीधे कक्षा चौथी 'स' में अवतरित हुआ था दिलीप |
नहीं, वह हमारे दायरे में शामिल नहीं हुआ | बल्कि उसने खुद अपना दायरा बनाना शुरू किया | आधी छुट्टी और खेल के पीरियड में जब हम खेल कूद या अपनी संगोष्ठी में संलग्न रहते थे, तो दिलीप मिमिक्री करता था | जाहिर है, मिमिक्री ने लोगों का ध्यान अपनी ओर ज्यादा आकर्षित किया | अब तक जो भी हम इन खाली समय में करते थे, वो लोगों को बेमानी लगने लगा | उसकी मिमिक्री से मंत्रमुग्ध होकर 'हा', 'हा' , 'ही', 'ही' करने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी | हमारा दायरा संकुचित होते गया और उसका दायरा बढ़ते गया | एक दिन ऐसा हुआ कि राजीव सिंह खुद हमारे बीच से उठकर उस वृत्त की परिधि का हिस्सा बन गया, जिसके केंद्र पर खड़ा दिलीप हीरोइनों की नक़ल कर रहा था और लोग ठहाके लगा रहे थे |
यहाँ तक सब कुछ ठीक था | अगर कुछ जलने की बू आ रही है तो ये आपके रसोईघर से ही होगी |
लेकिन वह मिमिक्री किनके लिए करता था ? क्या उनके लिए जो उसके इर्द गिर्द बैठकर ठहाके लगा रहे होते थे ? उसका लक्ष्य थोड़ी और दूर था | और दूर .. . | जहाँ कक्षा चौथी 'ड' की लड़कियां बैठती थीं | इस बात से भले शुरू में लोग थोड़े अनभिज्ञ रहे हों, पर भोला गिरी ने इसे तत्काल भांप लिया | और ये कुछ ही दिनों की बात थी, जब भोला गिरी उसका शागिर्द बन गया |
भांपने वालों में चन्दन का दूसरा नंबर था | वह समझ गया कि दिलीप के लक्ष्य क्या हैं | वो 'वक्त से पहले बड़े होने' वाली बात को एक स्तर क्या, कई स्तर आगे ले जाना चाहता है |
पता शायद उन लड़कियों को भी चल गया था | इसलिए आधी छुट्टी और खेल के पीरियड के समय वे निरंतर अपना स्थान बदल लेती थी | पर वे जहाँ भी जाती, दिलीप उसके आसपास अपनी मिमिक्री लेकर पहुँच जाता |
अब दिलीप एक साइकिल लेकर आता था जो वो रामलीला मैदान में ही कहीं छुपकर रखता था | आधी छुट्टी और खेल के पीरियड पर वो साइकिल लेकर आ जाता | ये देखकर काफी दुःख हुआ कि उसके डंडे पर बैठकर भोला गिरी पैदल मारता था | वो भोला गिरी , जिसकी खुद की अपनी पहचान थी | जो कक्षा एक से हमारा अच्छा दोस्त था | चौगुटे का सदस्य होना तो एक बात थी , वो बोरा दौड़ और कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था | वो भोला गिरी बांका भोलागिरी अब मजनूं नहीं, मजनूं का चेला बन गया था | वो दिलीप का सहभागी नहीं, अनुचर हो गया था |
और चन्दन का गुस्सा एक दिन फटना ही था | भोला गिरी के रातोंरात आमूलचूल परिवर्तन से उससे रहा नहीं गया | वैसे भी वह देख रहा था कि हमारा दायरा निरंतर संकुचित होते जा रहा है | और दिलीप और भोला गिरी जो कर रहे थे, उसे सामान्य भाषा में 'लफूटगीरी' कहा जाता था |
आधी छुट्टी के समय उसने सीधे दिलीप का कॉलर पकड़ लिया, "तू साले लड़कों को बिगाड़ रहा है ... बर्बाद कर रहा है |"
अप्रत्याशित मसाला मशीन की कुटाई शुरू होते देख भोला गिरी, विनोद धर और सुरेश बोपचे बीच बचाव में कूद पड़े ,"चन्दन सुन तो भाई | सुन तो यार | जान दे यार | छोड़ दे भाई | चन्दन... चन्दन... |" चन्दन के बाएं हाथ का घूँसा सीधे दिलीप का जबड़ा हिला देता अगर भोला गिरी बीच में नहीं आ जाता | अगले ही क्षण भोला गिरी अपना कंधा सहला रहा था | देवदास की तरह भोली सूरत बना कर दिलीप हक्का बक्का लग रहा था | किसी तरह विनोद धर, सुरेश बोपचे और भोला गिरी चन्दन को खींचते हुए एक ओर ले गए |
और दिलीप भी कोई कच्चा खिलाडी नहीं था | फिर भी अगले चौबीस घंटों में जो हुआ, उसने इस मामले को एक नया मोड़ दे दिया |
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अब आपको भी लगता होगा, बहनजी लोग भला खेल के पीरियड में करते क्या थे ? जवाब यही है कि कुछ नहीं करते थे | स्टाफ कक्ष में बैठकर चाय पीते थे , गप मारते थे | अगर कुछ करते तो यह असंभव था कि दिलीप मैदान में वर्ग 'ड' की लड़कियों का पीछा कर रहा होता और शिक्षिकाओं को पता ही नहीं लगता | शाह बहनजी जरूर कभी कभार मैदान में आती थी | एक बार उन्होंने रुमाल चोर खेलती लड़कियों ये हिदायत दी कि रुमाल में एक कंकड़ बांच दिया जाए ताकि जब चोर को रुमाल पड़े तो उसे भी पता चले | कभी कभार वह लड़कों को जबरदस्ती 'खो खो' खिलवाने पहुँच जाती थी | पर वह उसी दिन होता था जिस दिन गलती से सूरज पश्चिम से निकलता था | कालकर बहनजी की उपस्थिति तो नहीं के बराबर थी |
अगले दिन खेल के पीरियड में कालकर बहनजी ने राजीव सिंह को अपने पास बुला लिया और उसे लेकर बड़ी बहनजी के कमरे की ओर ले गयी | थोड़ी देर बाद राजीव सिंह बाहर आया आवाज दी, "चन्दन तुझे बहनजी बुला रही है |"
दौड़ते भागते चन्दन राजीव सिंह के साथ गायब हो गया | मन में एक खटका हुआ- कहीं कल की घटना तो बहनजी को पता नहीं चल गयी ? और एक न्यायाधीश की तरह वो मामले का निपटारा करेगी? यानी दिलीप को भी बुलाया जायेगा और उसका पक्ष भी सुना जायेगा | पर दिलीप तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था |
तो चन्दन अंदर एक न्यायाधीश के पास बैठा था और अचानक साइकिल पर सवार मैदान में दूसरा न्यायधीश अवतरित हुआ | मैदान पर आते ही उस दंडाधिकारी ने अपना फैसला सूना दिया,"कहाँ है बे वो तोपचन्द ?"
बात कहने के लहजे से ये एक फैसला ही था | दिलीप का भाई था वह | जिस 'तोपचन्द' को सज़ा देने के लिए वो खोज रहा था वह बड़ी बहनजी के दफ्तर में शायद दूसरे न्यायाधीश के पास बैठा था | दिलीप के भाई को समझाने का जिम्मा भोला गिरी ने अपने ले लिया | सुरेश बोपचे भोला गिरी का साथ देने लग गया | वे इस कोशिश में लग गए कि चन्दन दिल का साफ़ है और वो किसी ग़लतफ़हमी का शिकार हो गया है | सारे लड़के दिलीप के भाई की सायकल घेरकर खड़े हो गए | पिछले चक्के के पास सूर्यप्रकाश झुका और उसने धीरे से वाल्ट्युब का ढक्कन ढीला कर दिया | जब तक दिलीप का भाई मैदान में दहाड़ते रहा, सायकल के हैंडल पर हाथ मारकर धमकाते रहा, पिछले चक्के की हवा धीरे धीरे निकलती रही | अचानक दिलीप के मुंह से निकला ,"कालकर बहनजी |"
कालकर बहनजी के साथ राजीव सिंह और चन्दन दास मुस्कुराते हुए आ रहे थे |
अगर नीयत साफ़ होती तो दोनों न्यायाधीश आपस में बैठकर निपटारा कर लेते | लेकिन वहां वस्तुस्थिति यह बनी कि दिलीप के भाई ने खिसक जाने में ही भलाई समझी | उसका पिछले टायर ज़मीन से चिपक गया था | आनन्-फानन में दिलीप के भाई ने रामलीला मैदान की ओर बिना हवा वाली खड़-खड़ करती सायकल दौड़ा दी |
चन्दन के हाथ में वह वस्तु चमक रही थी | वह थी - रशियन फुटबॉल जो मैंने आज तक केवल सर्कस में ही देखी थी |
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आज तक मैंने रशियन फुटबॉल को ठोकर नहीं मारी थी | कैसी होती थी रशियन फुटबॉल ?
[1] रशियन फ़ुटबॉल गोल होती थी -पूर्णतः गोल | क्या कहा ? फ़ुटबॉल तो गोल ही होती है | अगर आपने कभी उन दिनों की सामान्य फ़ुटबॉल देखी हो तो आपको याद होगा कि सामान्य फ़ुटबॉल में ब्लेडर था जिसमें पम्प से हवा भरते थे | इसकी वजह से उस हिस्से के कारण , जहाँ ब्लेडर की टोंटी होती थी और उसे तस्मों से बाँधा जाता था, फुटबॉल पूर्णतः गोल नहीं होती थी | वैसे छर्रे वाले ब्लेडर भी आ गए थे, जिनमें टोंटी की जगह एक छोटा सा छेद होता था, फिर भी उसे घुसांने और निकालने के लिए जगह तो चाहिए थी | जबकि रशियन फुटबॉल में ब्लेडर ही नहीं होता था | अगर होता भी था, तो हमें दिखाई नहीं देता था | जब ब्लेडर ही नहीं था तो टोंटी कहाँ से होती ? और जब टोंटी नहीं थी तो तस्मों के कारण फुटबॉल बेडौल नहीं होती थी |
[2] रशियन फ़ुटबॉल चमड़े के मज़बूत छोटे छोटे टुकड़ों से मिलकर बनती थी जिनका रंग क्रमानुसार एक काला एक सफ़ेद होता था | यूँ समझें कि एक शतरंज की बिसात को गोलाकार रूप दे दिया गया हो | इससे उसकी खूबसूरती बढ़ जाती थी |
[3] रशियन फुटबॉल में हवा भरने का सुराख़ खोजने उसे पूरा घुमाना पड़ता था, कई बार तो एक से अधिक बार | तब कहीं जाकर छोटा सा सुराख़ नज़र आता था |
[4] रशियनफुटबॉल बहुत जल्दी पंक्चर नहीं होती थी | नुकीले पत्थरों, कांटेदार झड़ियों और नाखून वाले पांवों की ठोकर का कोई असर नहीं पड़ता था | जबकि सामान्य फुटबॉल का ब्लेडर पंक्चर हो जाए तो उसे आटा चक्की के पास की साइकिल की दुकान में ले जाकर पंक्चर ठीक कराना पड़ता था | अगर बाहर के चमड़े के खोल में कोई दरार आ जाये तो आम के पेड़ के नीच बैठे राजा मोची से सिलवाना पड़ता था | वो सब नखरे रशियन फुटबॉल के नहीं थे |
रशियन फुटबॉल के आने से एक स्पष्ट फायदा यह हुआ कि जो भीड़ दिग्भ्रमित होकर खेल के मैदान को छोड़कर दिलीप के पीछे पीछे जा रही थी, वह रशियन फुटबॉल से सम्मोहित होकर वापिस खेल के मैदान में लौट आयी | खेलकूद से बेहतर मनोरंजन भला कुछ और होता है ? जो नहीं आया था , वो भोला गिरी था | वह अब भी दिलीप का साया बनकर उसके साथ साथ वर्ग 'ड' की लड़कियों के चक्कर काटता | उन दोनों को लोगों ने उनके हाल पर छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी महत्ता नगण्य हो गयी थी |
सवाल यह जरूर उठ सकता है की दिलीप वर्ग 'ड' की लड़कियों के ही चक्कर क्यों काटता है ? जवाब में यही कहा जा सकता है कि ये नज़र का मामला है | जिसे जो पसंद आ जाये | यह सही है कि वर्ग 'डी' की लड़कियां हमारी कक्षा की लड़कियों से ज्यादा खूबसूरत तो थी पर बढ़ी चढ़ी और नकचढ़ी भी थीं | जबकि हमारी कक्षा की लड़कियाँ सामान्य थी | किरण थोड़ी चंचल जरूर थी, पर उससे ज्यादा कुछ नहीं | पर दिलीप और भोला गिरी की ये हरकतें निहायत खतरनाक भी थीं | दिलीप तो खैर, नया नया ही आया था , पर क्या भोला गिरी को आभास नहीं था कि वे दीवानगी की बीन किनके आगे बजा रहे हैं? एक दिन तो भोला गिरी ने हद ही कर दी | पूरी छुट्टी के बाद लड़कियों का पीछा करते-करते वह अपनी कमीज उतारने लगा | लड़कियां डर कर वापिस स्कूल की और भागी | पीछे पीछे शाह बहनजी आ रही थी | अब डर कर भागने की बारी दिलीप और भोला गिरी की थी |
फुटबॉल के मैदान में चन्दन का एकछत्र राज्य था | वह खिलाड़ी भी था, प्रशिक्षक भी और रेफरी भी | बस, मुंह में सीटी नहीं थी | वह जो कहता, नियम वही होते | न कहने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि सबसे अच्छा खिलाड़ी और जानकार भी वही था | खेल के मैदान में अब किस्से कहानियां चलती तो वह भी फुटबॉल से ही सम्बंधित होती | पता चल गया कि कलकत्ता में 'मोहन बागान', 'ईस्ट बंगाल' और 'मोहम्डन स्पोर्टिंग' फुटबॉल के बड़े क्लब हैं और अब गोवा में 'डेम्पको स्पोर्ट्स क्लब' और 'चर्चिल ब्रदर्स' धूम मचा रहे हैं | ये सब जानकारियाँ अक्सर मनमोहन लेकर आता था, क्योंकि उसके घर 'नवभारत टाइम्स' (नवभारत नहीं) समाचार पत्र आता था |
लेकिन फुटबॉल के लोमहर्षक किस्से तो चन्दन ही सुनाया करता था | पेले की कहानियां सुनाते समय उसकी आँखों में विशेष चमक आ जाती थी |
"पेले बड़ा चालू (चालाक) खिलाडी था |" खेल का पीरियड ख़तम होने की घंटी बजी थी | फुटबॉल वापिस करके हम अभी कक्षा में घुसे ही थे | कालकर बहनजी के आने में थोड़ा समय था |
मैं मनमोहन, सुबोध, सूर्य , सुरेश - सब ध्यानमग्न होकर उसकी बात सुन रहे थे | किसी को अपनी डेस्क की ओर बढ़ने की जल्दी नहीं थी |
"एक बार चार खिलाडी उसको गार्ड करके खड़े थे ", चन्दन ने बात आगे बढ़ाई ,"ऊपर से बॉल आयी | पहले पेले उछला तो उसको गार्ड करने वाले सारे खिलाडी भी उछले | फिर पेले ने धीरे से उछल कर बॉल गोल में 'हेड' कर दी |"
मेरे पल्ले खुछ ख़ास नहीं पड़ा ,"कैसे? कैसे? जब पेले ऊपर उछला तो सारे खिलाडी भी उछले ?"
"हाँ उछले |" चन्दन बोला |
"तब तक बॉल कहाँ थी ? कितने दूर थी ?" मैं अभी भी दूरी और समय का गणित बिठा रहा था |
"हवा में थी |" चन्दन ने जवाब दिया |
"पेले उछला तो सब उछले | फिर सब ज़मीन पर आ गए |" मैं अब भी गुत्थी ही सुलझा रहा था |
चन्दन को मुझ पर तरस आया ,"सुरेश, इधर आ बे | विनोद धर, वहीँ खड़े रह | सूर्य, तू पीछे आ जा | समझ कि मैं पेले हूँ |"
चन्दन ने अपनी बिसात बिछाई और दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए बोला ,"समझो उधर से बॉल आ रही है .. |"
उधर से बॉल तो नहीं आयी, लेकिन हाथ में हरे बेशरम की मोटी सी सोंटी लेकर शाह बहनजी ने प्रवेश किया | हम सब अपने - अपने बेंचों की ओर लपके |
पर शाह बहनजी ने वह सब अनदेखा किया | उन्हें किसी और की तलाश थी |
"दिलीप !" शाह बहनजी छड़ी घुमाते-घुमाते बोली ,"इधर आ |"
थोड़ा सहमा सा, थोड़ा भौंचक्का ( हो सकता है ये उसका जीवंत अभिनय था ) , दिलीप शाह बहनजी के पास पहुंचा | जैसे ही वह बेशरम की सोंटी के दायरे में पहुंचा, शाह बहनजी ने ताबड़तोड़ प्रहार प्रारम्भ किया |
सड़ाक ....... सड़ाक ....... सड़ाक ....... !!!
हम सब सन्न | किस अपराध की सज़ा मिल रही है ? जो वह कर रहा था, वह तो कई दिनों से जारी था | कोई न कोई अकस्मात कारण तो रहा होगा ?
तड़ाक ..... तड़ाक ..... तड़ाक ..... !!!
शाह बहनजी के मुंह से बीच बीच में अस्पष्ट से शब्द निकल रहे थे, "लड़कियों के बीच नाच रहा था | बेशरम ...|"
सांय .... सांय .... सड़ ... फड़.... रटाक ..... !!!
इससे तो बेहतर था कि उस दिन चन्दन से हुई भिड़ंत को वह थोड़ी गंभीरता से लेता | सब सन्न रह गए थे | कालकर बहनजी भी दरवाजे पर ठिठकी खड़ी थी | उसके पीछे मैंने वर्ग 'ड' की चुगलखोर लड़कियों को झांकते हुए देखा था | बेशरम की डंडी तो अंधी थी और परवश थी | दिलीप के किन अंगों को चोट लग रही है , कहाँ चोट लग रही है, कैसी चोट लग रही है, उसे कोई परवाह नहीं थी | छड़ी टूट कर आधी हो गयी तो आधी छड़ी से शाह बहनजी ने पीटना जारी रखा, जब तक छड़ी उनके हाथ से न छूट गयी |
मुझे अंदेशा था, अगला नंबर भोला गिरी का है जो सहमा सा बैठा था | पर तब उसके भगवान के रूप में कालकर बहनजी, जो अब तक दरवाजे पर ठिठकी थी, ने कक्षा में प्रवेश किया | कालकर बहनजी के आगमन से मानो शाह बहनजी की तन्द्रा भांग हुई और वे तेज़ क़दमों से बाहर चले गयीं |
वह विषय ही शायद कुछ ऐसा था कि इस घटना पर कालकर बहनजी ने एक शब्द भी टिप्पणी नहीं की | वे चक हाथ में लिए श्यामपट की ओर बढ़ गयीं मानो कुछ हुआ ही ना हो |
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तो दिलीप था, पहला कहर था, जिसके कारण भोला गिरी चौगड्डे से टूटकर अलग हो गया | दूसरे तूफान ने न केवल चौगड्डे को तोड़ डाला, बल्कि कक्षा की ही चूलें हिला डाली | कई लोगों पर उस घटना ने दूरगामी प्रभाव डाला |
पूरे प्रकरण के सम्बन्ध में आप "चोरी में साझेदारी" में विस्तार से पढ़ चुके हैं | चन्दन का बाल -बाल जाना संयोग कम और दैवयोग ज्यादा था |
पीतल के घंटे पर काठ के हथौड़े से प्रहार करके जब चपरासी ने आधी छुट्टी की घंटी बजाई, चन्दन अपने घर की ओऱ रवाना हो गया | उसके घर पूजा थी - माता ने ही उसे बुला लिया था और उसके दामन में बदनामी के छींटे नहीं लगे | कालकर बहनजी ने तो मान ही लिया था, "अगर चन्दन होता तो वह भी शामिल होता |"
अपनी तरफ से चन्दन ने चौगड्डे को बचाने के प्रयास भी किये | दिलीप से सीधे तकरार का कारण कक्षा एक से पुराने सहपाठी भोला गिरी को वापिस लाना था |
पर भोला गिरी अब अलग राह पर काफी दूर निकल गया था |
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यह मेरी आदत सी बन गयी थी कि पूरी छुट्टी के बाद मैं बड़ी बहनजी के दफ्तर और पानी की बरसो से सूखी पड़ी बड़ी टंकी के बीच की संकरी जगह से गुजरता था | आँखें ज़मीन पर तिकी होती थी | एक दिन चन्दन ने मुझे देख लिया |
"क्या खोज रहा है बे ?" उसने पूछा |
"कुछ नहीं यार |"
पर चन्दन कहाँ आसानी से छोड़ने वाला था | उसने वादा किया कि वह किसी को नहीं बताएगा |
"डाक टिकट .. . |"
"डाक टिकट? स्टैम्प ?"
डाक टिकट जमा करने का शौक मुझे मनमोहन के भाई रमेश ने लगाया था | घर में जो चिट्ठियां आती थी, उनमें वही एक ही तरह के टिकट लगे रहते थे | वही वीणा वाले , शेर, हिरण या नटराज की मूर्ति वाले |
मैंने बाबूजी से पूछा, "कॉलेज में आने वाली चिट्ठियों के लिफाफों का क्या करते हैं ?"
उनका जवाब था, "कूड़े का और क्या करेंगे?"
"तो क्या आप डाक टिकट फाड़कर ला सकते हैं ?"
उस दिन से बाबूजी लिफाफे से डाक टिकट वाला हिस्सा मेरे लिए फाड़कर लाने लगे | मैंने कह्सूस किया , कॉलेज में पंजीकृत पत्र काफी आते हैं | शायद कुछ पार्सल भी आते होंगे क्योकि कुछ टिकटों की कीमत पत्रों के हिसाब से कुछ ज्यादा ही थी |
अब मेरी तृष्णा बढ़ी | अचानक ये विचार मेरे मन में कौंधा कि पत्र तो शाला में भी आते होंगे | बड़ी बहनजी भी लिफाफा फाड़कर फेंकती ही होगी | उनके दफ्तर में एक ही तो खिड़की है | मैं उस रास्ते से नियमित रूप से गुजरने लगा | एक बार वीणा वाली टिकट लगा लिफाफा क्या मिला , दफ्तर और टंकी के बीच की संकरी जगह मेरे घर वापिस लौटने के रास्ते में शामिल हो गयी | हालांकि यह मैं काफी सावधानी से करता था | किसी को पता चले तो लोग हँसेंगे, जैसे आप अभी हँस रहे हैं |
चन्दन ने मेरी बातें धैर्यपूर्वक सुनी | फिर उसके मुंह से निकला,"पहले क्यों नहीं बोला बे ?"
"क्या?"
"कि ये तू फालतू के काम करता है - टिकट, विकट | खैर, मैं तेरे लिए स्टैम्प लेकर आता हूँ |"
"तू कहाँ से लाएगा ?" मैंने पूछा |
शायद चन्दन ने इसे अपना अपमान माना,"अबे, मेरे घर भी चिट्ठी आती है |"
"पर कोई, अगर ... | रहने दे यार |"
"क्या रहने दे? कौन क्या बोलेगा ? और कोई बोलेगा भी तो ... तूने मुझे कुत्ता बनाकर दिया था ना ?"
उन दिनों बचपन की दोस्ती में अहसान-वहसान जैसा कुछ नहीं होता था | हम एक दूसरे की मदद बिना कोई अपेक्षा किये करते थे और भूल जाते थे | दोनों को ख़ुशी होती थी और हमारी दोस्ती और सुदृढ़ हो जाती थी | माचिस के कुत्ते वाली घटना को तो मैं भूल ही चुका था |
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पहले पहल चन्दन को समझाना पड़ा,"देख भाई, स्टैम्प काटते समय ये कोशिश अरे कि किनारा न कटे | बेहतर है कि तू काट मत, उतना हिस्सा फाड़ के ले आ |"
"तो तू स्टैम्प निकालेगा कैसे ?"
"पानी में डालकर |" मैंने कहा ," मैं कर लूंगा |"
तीसरे दिन वो एक अजीब सा टिकट लाया | उसमें 'भारत' कहीं नहीं लिखा था - बांग्ला में कुछ लिखा था | "ये क्या लिखा है चन्दन?"
ये लिखा है - बांग्ला देश |"
"क्या?" मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा |
अब तक रमेश विदेशी डाक टिकटों की काफी डींग हांका करता था | मनमोहन के पिताजी सोवियत संघ में प्रशिक्षण लेकर आये थे | इसलिए उनके पास ढेरों विदेशी टिकट थे | इसके आलावा रमेश ने बताया था कि वोरा ने भी उसे कुछ विदेशी टिकट दिए थे |
चन्दन ने मुझे पहला विदेशी टिकट दिया था | आखिर बांग्लादेश विदेश ही तो है |
"तेरे पास ये स्टैम्प आया कहाँ से ?" मैंने पूछा |
"मेरे अंकल बांग्लादेश में रहते हैं | "
"तो तेरे पास उनकी और भी चिट्ठी होगी ?"
अगले दिन चन्दन किसी पोस्टकार्ड का कोना काट कर ले आया | जैसे हमारे यहाँ के पोस्टकार्ड में टिकट की जगह शेर की तस्वीर होती है, वैसे ही बांग्लादेश के पास्टकार्ड का कोना था वह, जिसमें कुछ हरे नारियल जैसे फल की तस्वीर थी | कीमत , नाम वगैरह सब कुछ लिखा जरूर था पर वह डाक टिकट नहीं था और मेरे किसी काम का नहीं था |
"चन्दन ये स्टैम्प नहीं है यार |" मैंने कहा,"वो जो पोस्टकार्ड अंतर्देशीय या लिफाफे में पहले से छाप के आता है, वो स्टैम्प नहीं होते |"
चन्दन थोड़ा सा मायूस हो गया ,"यार, बांग्लादेश वाले अंकल तो पोस्ट कार्ड ही ज्यादा भेजते हैं | लिफाफा तो कभी कभी आता है |"
"शायद उनके पास करने को ज्यादा बात न हो |"
"मैं उनको बोलूं कि लिफाफे में चिट्ठी भेजें और ऊपर से स्टैम्प लगा के ?"
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पांचवी कक्षा में ढेर सारे नए छात्र आ गए | इतने सारे कि कक्षा में बेंचों की संख्या कम हो गयी |
दो बहनजी के लड़के - राजीव सिंह और प्रेम पराग पाठक तो पहले से ही थे | तीसरे बहनजी का लड़का, राम का भाई भारत ( देखें - 'च' से चन्दन - भाग १ ) जो तीन वर्षों से बिछुड़ गया था, एक बार फिर पांचवीं में वापिस आया | हद तो तब हो गयी, जब कालकर बहनजी खुद अपने लड़के संदीप कालकर को कक्षा में ले आयीं | एक तरह से कक्षा के लिए ये एक उपलब्धि थी क्योंकि संदीप कालकर क्रिकेट का बेहतरीन बल्लेबाज़ था | दो और क्रिकेट के धुआंधार खिलाडी, फुर्तीला रवींद्र मुंशी और सत्यव्रत भी हमारी कक्षा में आ धमके | सत्यव्रत को कौन नहीं जानता था | अपने बड़े भाई सुब्रत के नक़्शे-कदम पर चल कर मुक्केबाजी और फुटबॉल में वह भी नाम कमा रहा था |
फुटबॉल, यानी चन्दन के एकछत्र राज्य को खतरा ? आगे देखेंगे |
इन चारों के सिवाय और भी नवागंतुक थे | कक्षा में एक सरदार की कमी थी | सो महेंद्र सिंह आ गया | रमेश मिश्रा और विजय पशीने भी इस सूची में थे | एक आशंका सी थी कि कहीं दूसरा दिलीप न आ जाये और ऐसा कोई भी नहीं आया | तो क्या कोई लड़की भी आयी ?
.... ....... ...... ?/?
पहले आधे साल नहीं, पर जब .. ...
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यह तय था कि अगर हम सुबह की पाली वालों से क्रिकेट का मैच लेते तो उनकी जबरदस्त मिट्टी पलीद करते | सूर्य प्रकाश के रूप में एक बेहतरीन हरफनमौला हमारे पास पहले ही था और अब सत्यव्रत, रवींद्र मुंशी और संदीप कालकर और जुड़ गए थे | सुबह की पाली में ले देकर एक अजय कौशल था और उसे ये चारों मिलकर सम्हाल सकते थे | लेकिन शाला में तो कबड्डी ही होती थी और वही होनी थी | हमने कालकर बहनजी से कहा भी कि अगर क्रिकेट नहीं तो फुटबॉल मैच ही करवा लिया जाए | आखिर फुटबॉल सुबह वाले भी तो खेलते हैं | उनका जवाब सुनकर आप हँसेंगे| उन दिनों इन्हें "विदेशी खेल" माना जाता था | तो बात कबड्डी से आगे बढ़ी ही नहीं |
पहले कहा, कबड्डी में अब तक ये चौगड्डे के सदस्य , विनोद धर, भोला गिरी , चन्दन दास और सुरेश बोपचे स्थायी सदस्य थे | अब पहले कहर का मारा भोला गिरी , उसकी कबड्डी में कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी | दूसरे कहर के बाद विनोद धर भी पूर्णतः निष्क्रिय हो गया था | कहने को तो सत्यव्रत और रवींद्र मुंशी उनकी जगह भर सकते थे , लेकिन चन्दन अभी भी लगा हुआ था | उसने विनोद धर को धर दबोचा,"तू क्यों नहीं खेलेगा बे ?"
"नहीं चन्दन यार | मुझे छोड़ दो |"
"तू खेलेगा | साले ए क मुक्का दूँगा| |दाँत तोड़कर हाथ में दे दूंगा | तू खेलेगा |"
विनोद धर के चेहरे पर क्षीण मुस्कान की रेखा दिखी | वह जानता था कि ये चन्दन का गुस्सा नहीं, प्यार बोल रहा है | लेकिन उसने अपने आप को मानो हर तरह की गतिविधियों से अलग कर लिया था |
चन्दन यहीं नहीं रुका | उसने कालकर बहनजी से बातें की | कालकर बहनजी ने दोनों को बुलाकर कुछ समझाया |
यह देखकर ख़ुशी हुई कि विनोद धर भी मैदान में उतर पड़ा | उसका पुराना जोश साफ़ झलक रहा था | एक आक्रामक के रूप में रवींद्र मुंशी और फिर सत्यव्रत की उपस्थिति ने टीम में नयी जान फूँक दी | एक बार जब विनोद धर 'आक्रामक' के रूप में गया तो दूसरे पाले की 'क्रासिंग' रेखा तक पहुँचते-पहुँचते वह सब ओर से घिर गया | हमीद, प्रमोद, जसवंत , श्याम नारायण से घिरा वह कहीं दिखाई भी नहीं दे रहा था | अचानक वह वह हवा में उछला और घेरा तोड़कर तीन तीन खिलाडियों को साथ लिए उसने मध्य रेखा छू ही दी |
सब कुछ करने के बावजूद हम वो मैच हार ही गए | हार का अंतर जरूर काफी कम हो गया था | फिर भी ये मलाल हमेशा रहा कि सुबह की पाली से हम कभी भी जीत नहीं पाए |
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पांचवी कक्षा मेरे लिए सबसे मुश्किल साल था | परिवार पर मुसीबतों का आसमान फट पड़ा था | लेकिन साल के उत्तरार्ध में कक्षा के अंदर ही मुझे मानसिक तनाव के दौर से गुजरना पड़ा ( देखें राजीव सिंह की 'शोले') | समझ में नहीं आता था कि आज कौन सा दोस्त मेरा साथ छोड़ देगा |
मेरे अब गिनती के ही मित्र बचे थे | रोज मैं जेब में हाथ डालकर मित्र निकालकर गिनती करता | चन्दन किस तरफ है - मेरी कुछ समझ में नहीं आता | राजीव सिंह जैसे पुराने और अच्छे मित्र से भला कोई कैसे दूर हो सकता है ?
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"जागो मोहन प्यारे, जागो ,
जागो नवयुग चूमे नैन तिहारे |"
चन्दन पूरे मूड में था | उसके बाद मानो उस पर मिरमी का दौरा पद गया हो | पूरे जोश से वह हर दिशा में हाथ पांव फेंकता हुआ चिल्लाया ,"जागो रे जागो जग जाइया जागी | जागो रे जागो जग जाइया जागी | जागो रे जागो रे जागो रे | जागो रे जागो रे जागो रे |"
सारी कक्षा हँस- हँस के लोटपोट गयी थी | पर ना जाने क्यों मुझे लगा, चन्दन सिर्फ मुझे ही हँसाने की कोशिश कर रहा था | बार-बार उसकी आँखें मुझ पर ठहर जाती थी | उसे लगा कि शायद वह अपने प्रयास में असफल रहा तो उसने एक बार और कोशिश की |
"सत्यव्रत के घर में सब बॉक्सर हैं | उसका बड़ा भाई बॉक्सर, उसका छोटा भाई बॉक्सर, उसके पिताजी बॉक्सर, उसकी माँ बॉक्सर |"
सारी कक्षा ठहाके लगा रही थी | सत्यव्रत की हँसी रुक नहीं रही थी | हालाँकि सत्यव्रत के आने के बाद चन्दन का फुटबॉल के मैदान में प्रभाव बँट गया था, लेकिन दोनों के बीच में कडुवाहट कभी देखने को नहीं मिली | चन्दन ने फिर मेरी ओर देखा | फिर वह आगे बढ़ गया -"उसका कुत्ता भी बॉक्सर - भौं-भौं-भौं.... | "
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खेलकूद के नाम पर शाला नंबर में क्या-क्या प्रतियोगिताएं होती थी - बोरा दौड़ , त्रिटंगी दौड़, कुर्सी दौड़, जलेबी दौड़, चम्मच दौड़ और लड़कियों के लिए विशेष सुई धागा दौड़ और रस्सी दौड़ | एक सामान्य सी सौ मीटर की दौड़ भी होती थी - जिसमें करीब-करीब सभी बच्चे दौड़ते थे और दो चार टकराकर और फिसलकर गिरते भी थे | फिर भी वर्ग 'ड' की विमला लड़कियों में और दुर्गाराव लड़कों में बेहतरीन धावक थे | हमारी कक्षा से चन्दन और सुरेश बोपचे त्रिटंगी दौड़ में स्थायी खिलाडी थे | भोला गिरी और विनोद धर - निष्क्रिय होने के पूर्व बोरा दौड़ के जादूगर थे
अफ़सोस कि ये सब प्रतिस्पर्धाएं ओलम्पिक में नहीं होती थी | आपातकाल का वक्त था और ओलम्पिक का साल | जिला युवा कांग्रेस को न जाने क्या सूझी कि प्राथमिक शाला के बच्चों के अंतर-शालेय ओलम्पिक कराये जाएँ | कम से कम ट्रेक एन्ड फील्ड तो कराये जा सकते है | अब भिलाई के प्राथमिक शालाओं में - गोला, भाला, चक्का भला कहाँ से आता | ये निश्चय किया गया कि हमारी शाला से उन धावकों की टीम तो भेजी जा सकती है, जिसमें संसाधनों की जरुरत नहीं पड़ती - जैसे १०० मीटर दौड़ , ऊँची कूदम लम्बी कूद | एक-एक खिलाडी ही तो भेजना है, हर स्पर्धा के लिए |
जब कालकर बहनजी ने प्रतियोगिता के चयन के लिए नाम मांगे तो मैंने ऊँची कूद के लिए नाम दे दिया | कालकर बहनजी को भी थोड़ा अचम्भा जरूर हुआ पर उन्होंने बिना कुछ पूछे नाम लिख लिया | कौन कितने पानी में है, ये तो शाला की टीम का चयन करने वाले निकाल ही लेंगे |
चन्दन ने पूछ ही लिया, "ऊँची कूद ? पहले कभी किया है ?"
"हाँ |"
"कब से ?" उसे विश्वास दिलाना थोड़ा मुश्किल था |
"दूसरी से|"
इक्कीस और बाइस सड़क के बीच एक खेल का मैदान था | ठीक वैसे ही जैसे १७ और १८ के बीच, १९ और २० के बीच और २३ और २४ के बीच | १९७१-७२ में लोग ज्यादा हो गए और खेलों का कोई महत्त्व नहीं रह गया था | इसलिए भिलाई इस्पात संयंत्र ने उन खेल के मैदानों में गृह निर्माण का फैसला किया |
बाइस सड़क के अंत में, जहाँ बड़ी पुलिया थी, उसके आगे और सात वृक्ष मार्ग के बीच में खाली जगह बहुत थी | वहाँ बेतरतीब गड्ढे , धतूरे की झाड़ियां और कुछ पगडंडियां थी | पुलिया के पास ही बबलू भैया ने एक चौकोर गड्ढा खोदना शुरू किया | बाकी सब लड़कों ने हाथ लगाया | जब अनिल के पिताजी की नज़र पड़ी तो उन्होंने उन ट्रक वालों से , जो घर बनाने के लिए रेत के ढेर इधर उधर लगाते थे, बातें करके थोड़ी थोड़ी रेत उस गड्ढे में डलवाई और वहां ऊँची कूद का अखाडा तैयार हुआ |वहां दो लड़के लट्टू की रस्सी पकड़ लेते और लोग एक एक करके आते और कूद लगाते |
मुश्किल यही थी कि हम लोग टीम खेल में - हॉकी , क्रिकेट या फुटबॉल में ज्यादा रूचि लेते थे और उसके लिए रामलीला मैदान जाना पड़ता था जो उस अखाड़े के ठीक विपरीत दिशा , यानी शाला क्रमांक आठ की ओर था |नतीजा यह हुआ कि ऊँची कूद का वह अखाडा उजाड़ हो गया | इस बीच दो वर्ष और गुजर गए | अब रामलीला मैदान में खेल के मैदान के पास कन्या शाला बन रही थी तो ईंट और रेत के ढेर इधर उधर लगे रहते थे |
एक दिन हॉकी के खेल के बाद हॉकी घर में रख कर अँधेरे में मैं, मनमोहन, बबलू भैया और रमेश फिर रामलीला मैदान लौटे | एक रेत के ढेर के पास बबलू भैया ने मुझे और मनमोहन को लट्टू की एक रस्सी पकड़ने को कहा | पहले बबलू भैया ने छलांग भरी | फिर रमेश ने | उसके बाद उन दोनों ने रस्सी पकड़ी और मुझे और मनमोहन से छलांग लगाने को कहा |
समय के साथ साथ मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा | अब मैं करीब-करीब उतनी छलांग लगाने लगा जितनी कि रमेश लगाता था | दुर्भाग्य से कुछ दिनों के बाद में बबलू और रमेश का झगड़ा हो गया और ऊँची कूद का वह अभ्यास भी छूट गया | फिर मन में आत्मविश्वास तो था ही |
जब मैंने चन्दन को ये वृत्तांत सुनाया तो वह उछल पड़ा ,"तब तो तू जसवंत को हरा देगा |"
"कौन जसवंत ?" मैंने पूछा |
"अरे, मेरे घर के पास रहता है | बहुत बड़ी-बड़ी फेंकता है | बहुत हवा भर गयी है साले में |"
मुझे तो अपने प्रतिद्वंदियों का कुछ पता ही नहीं था |मुझे इतना पता था कि मैं क्या कर सकता हूँ | वो क्या कर सकता है - मुझे उसका कोई अंदाजा तो था नहीं | लेकिन पता नहीं, उसके मन में कहाँ से इतना विश्वास भर गया जो मेरे आत्मविश्वास से दस गुना ज्यादा बढ़ गया | मैंने कोई बढा -चढ़ाकर मनगढंत कहानी नहीं सुनाई थी | फिर चन्दन का यह भरोसा कहाँ से आ गया ?
इतना ही नहीं, चन्दन ने मुझे हिदायत दी ,"कल तू स्कूल थोड़ा जल्दी आ जा |"
ये मेरी समझ से परे था | दूसरे दिन जब मैं स्कूल पहुंचा तो चन्दन मानो मेरा ही इंतज़ार कर रहा था | सुबह वालों की छुट्टी हुई और सब चन्दन के अगल-बगल से से कुछ न कुछ उड़ाते जाने लगे \ आज चन्दन उनकी बातों को अनसुना कर रहा था | उसकी आँखें किसी को खोज रही थीं | अचानक उसने आवाज़ दी, "अबे, सरदार सुन |"
एक लंबा सा सांवला सिख मुस्कुराता हुआ हम लोगों के पास आ गया | अरे, ये तो वही कबड्डी वाला जसवंत है | चन्दन ने मेरा परिचय कुछ इस तरह दिया -
"इसको जानता है बे ?"
"हाँ, देखा है |" जसवंत बेफिक्री से बोला |
"मेरी कक्षा का है | तेरे को लम्बी कूद में हरा देगा | समझा न ?"
ये चल क्या रहा था ? जसवंत ने कुछ कहा नहीं | वह बस मुस्कुराये जा रहा था | अगर चन्दन उस पर किसी तरह का कोई दबाव बनाना चाहता था, तो उससे ज्यादा दबाव उसने मेरे ऊपर बना दिया था - उम्मीदों का दबाव, विश्वास का दबाव | उस प्रतिकार की भावना का दबाव जो हर कबड्डी मैच के बाद उसके हृदय में सुलगती थी |
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मैं तो समझता था , ऊँची कूद, लम्बी कूद जैसी स्पर्द्धा में गिने चुने लोग ही होंगे | एक दिन आधी छुट्टी के समय पांचवी 'ड' का रवि , शैलेन्द्र वाजपेयी को बोल रहा था ,"अपना तोरण लाल क्या ऊँची कूद कूदता है यार |" उसने अपने कंधे तक हाथ लाकर कहा , इतना इतना कूद जाता है | सुबह वालों को तो आराम से हरा देगा |"
चलो | एक प्रतिद्वंदी का तो पता चला | हालाँकि रवि जो ऊंचाई का दावा कर रहा था, मुझे कुछ ज्यादा लगा | रवि खुद लम्बा था |
मेरी शंका को शैलेंद्र वाजपेयी ने मुखरित किया ,"तू 'फोक' मार रहा है | इतना ऊँचा कोई कूद सकता है ?"
और नतीजा यह हुआ कि तोरण लाल को खोज निकाला गया | वैसे स्कूल था ही कितना बड़ा और वर्ग 'ड' वाले तो वैसे भी तार के बाहर नहीं जाते थे | सामान्य सा मुस्कुराता हुआ चेहरा , माथे पर बीचों बीच अर्ध चंद्र के आकार में एक काट का निशान, जो लगता था, मानो प्राकृतिक तिलक लगा हो | ऊंचाई कोई बहुत ज्यादा नहीं थी | मुझसे थोड़ा सा ही लम्बा था |
आनन् फानन में जितेंद्र गेट के पाद उगी झाड़ियों से एक डंडी तोड़कर ले आया | रवि उसे पकड़कर खड़े हो गया | लेकिन वहीँ रेत तो थी नहीं , हाँ, दूसरी और हरी घास जरूर थी | क्या उसे चोट का डर नहीं है ? तोरण लाल ने जूते उतारे | पानी के सूखे हुए नल के पास से वह तेज़ी से दौड़कर आया और हवा में उछला | ऊपर से गुजरते हुए डंडी से उसका पाँव छू गया | लेकिन उसके उस पार पहुँच कर वह गिरा नहीं, बल्कि लम्बा होकर लुढ़कते रहा | तो उसकी तकनीक इतनी सधी हुई थी कि उसे रेत की इतनी आवश्यकता नहीं थी |
"धत", 'फाउल' होने के कारण वह खुश नहीं हुआ,"एक कोशिश और करते हैं |"
जसवंत का तो पता नहीं, लेकिन तोरण लाल की वह छलांग देखकर लगने लगा कि तोरण लाल से मैं जीत नहीं पाउँगा | पर यह सब चन्दन से कैसे कहा जाए ? मैंने उसे अप्रत्यक्ष रूप से समझाने की कोशिश की ,"चन्दन, दोपहर की पाली का कोई और जसवंत को हरा सकता है |"
"चुप बे | गोले मत दे |" चन्दन ने झिड़क दिया , "तू जीतेगा |"
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स्पर्धा थी भी तो फरवरी के पहले सप्ताह में | ठण्ड के दिन ख़तम हुए | मौसम गर्मी में बदल रहा था और ऐसे में मुझे अजीब किस्म का जुकाम हुआ | वह भी स्पर्धा के एक दिन पहले | रात भर मैं सो नहीं पाया और ऐन स्पर्धा के दिन सुबह सुबह मैंने उलटी कर दी | एक बार तो मुझे लगा कि में स्पर्धा में हिस्सा ही न लूँ | क्या फायदा ? एक ही खिलाडी का चयन होना है और तोरण लाल निश्चित रूप से मुझसे बेहतर कूद सकता है | लेकिन चन्दन की उम्मीदों का बोझ कुछ इस कदर भारी था कि इस तरह पीछे हट जाना मुझे कायरता लगी |
दोपहर को शाला जाने के पहले माँ ने मुझे बार्ली बनाकर दी | सुबह से वही मेरा आहार था |
स्पर्धा दोपहर के दो बजे से होने वाली थी | पौने दो बजे ही कालकर बहनजी से कहकर मैं कक्षा से बाहर निकल गया | मेरे पीछे-पीछे चन्दन भी निकल आया |
"तू स्वेटर क्यों पहना है बे ?" चन्दन ने पूछा |
"मेरी तबीयत आज ठीक नहीं है यार |" मैंने कहा |
"ठीक है | सब ठीक है | उसने मेरी बात को हवा में उदा दिया ,"चल स्वेटर मुझे दे दे |"
शाला टीम में चयन के लिए धावकों की परीक्षा कहाँ ली जाए ?
शाला के दक्षिणी छोर पर तालाब के चारों ओर पार्क बन गया था | उसके उत्तर पश्चिमी किनारे पर टेलीविजन का कक्ष था | जिसमें एक खिड़की थी, जो उस समय बंद थी | उस खिड़की के पीछे ही टेलीविजन रखा था | पास ही अमरीकी उपग्रह से आने वाले सिग्नल को पकड़ने के लिए एक बड़ा सा कटोरे के आकर का एक एंटीना लगा था |
टेलीविजन कक्ष और पार्क के बीच खाली जगह में रेत का अम्बार लगाकर एक अस्थायी अखाडा बनाया गया था | अब वहां तक कैसे पहुंचा जाए ? शाला की दक्षिणी सीमा, जो पार्क की उत्तरी सीमा थी,उसमें ऊँच ऊँचे जालीदार तारों की एक बाड़ लगा दी गयी थी | वैसे पार्क के हर दिशा में एक एक दरवाजे थे और इसलिए उत्तर दिशा का द्वार हमारी शाला के परिसर में ही खुलता था | किन्तु बड़ी बहनजी को ये मंजूर नहीं था कि स्कूल के छात्र उस द्वार से होकर पार्क में जाएँ, इसलिए कांटेदार बाद लगाकर वह द्वार बंद कर दिया गया था | अब उस अखाड़े तक पहुँचने का एक ही रास्ता था कि पार्क के अयप्पा मंदिर वाले द्वार से घूम कर जाया जाये |
मैं और चन्दन शाला के गेट से बाहर निकल ही रहे थे कि पीछे से तोरणलाल आ गया |
"अरे विजय सिंह तुम ?" उसे भी आश्चर्य हुआ कि मैं कक्षा के बाहर कैसे घूम रहा हूँ |
"जिसके लिए तुम जा रहे हो | ऊँची कूद |" मैंने कहा |
चन्दन को उसका साथ होना पसंद नहीं आया | अयप्पा के पास के द्वार पर चन्दन को सामने से जसवंत आते दिखा और वह ठहर गया | तोरणलाल अंदर चले गया |
"क्यों बे सरदार ? हारने आ गया ? देखना , आज ये तुझे बताएगा, ऊँची कूद क्या होती है ?" चन्दन बोला | जसवंत के सांवले चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी |
मेरे तोरणलाल और जसवंत के सिवाय सुबह की पाली से दो प्रतियोगी और थे |
निर्मलकर सर हाथ में कागज़ लिए खड़े थे | रेत के ढेर के पहले सुबह की पाली की दो बहनजी लट्टू की लम्बी सी रस्सी लिए खड़ी हो गयीं | निर्मलकर सर ने मापक टेप से ऊंचाई मापी और एक एक करके प्रतियोगियों को बुलाना प्रारम्भ किया
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चन्दन एक और मेरा स्वेटर थामे खड़ा था | निर्मलकर सर ने जो स्तर लगाया था , मैं आश्वस्त था कि मैं उसे आसानी से पार कर जाऊंगा | मेरा नंबर दूसरा था , जसवंत का तीसरा और तोरणलाल का पांचवां | जब मेरा नंबर आया तो मैं चन्दन के चेहरे पर तनाव स्पष्ट देख रहा था | तेजी से दौड़कर लक्ष्य के पास मैंने छलांग लगाईं | जैसे ही लक्ष्य के उस पार पहुँच कर मैंने फिर चन्दन के चेहरे की और देखा, तो वह तनाव एक राहत में बदल गया था |
अब जब सारे प्रतिस्पर्धियों ने पहला स्तर आसानी से पार कर लिया तो निर्मलकर सर ने लघुमार्ग अपनाने का निश्चय किया | उन्होंने बाधा का स्तर एकदम से काफी बढ़ा दिया | उतना, जितना अभ्यास के समय मनमोहन का बड़ा भाई रमेश कूदा करता था | नंबर एक प्रतिस्पर्धी उसे फांद नहीं पाया और रस्सी को साथ लिए ही रेत पर धराशयी हो गया | दूसरा नंबर मेरा था | निर्मलकर सर ने मापक टेप से माप कर पुनः स्तर का निर्धारण किया | मैंने दौड़ना शुरू किया और हताशालक्ष्य के पास पहुँच कर पूरी सामर्थ्य से छलांग लगाईं | रेत पर गिरने के बाद मैंने चन्दन का चेहरा देखा | उसके चेहरे पर अब निराशा स्पष्ट दिखाई दे रही थी | जब मैंने रस्सी की ओर देखा तो वह धीरे धीरे हिल रही थी | एक हताशा सी छा गयी | जसवंत ने वह लक्ष्य सफलतापूर्वक लाँघ लिया | उसके बाद का धावक भी बुरी तरह असफल रहा | सब से अंत में तोरणलाल ने भी वह स्तर लांघ लिया |
हम तीनों असफल धावकों को एक एक मौका और दिया गया |
पहले नंबर के धावक वही कहानी फिर दोहरा दी | रस्सी से उलझकर वह रेत के ढेर में जा गिरा | दूसरा नंबर मेरा था | मैंने पुनः एक बार पूरे जोश से ताकत लगाईं और मुड़कर मैंने पहले रस्सी की और देखा | वह स्थिर थी |
ओह , मेरा ये प्रयास सफल रहा | फिर मैंने चन्दन की ओर देखा | उसके चेहरे पर निराशा भी नहीं थी और न ही कोई हर्ष था | असफल होने वाले तीसरे धावक ने दौड़ना शुरू किया पर वह बीच में ही रुक गया | फिर वह अपने प्रारंभिक बिंदु पर वापस गया | वह एक क्षण ठिठका और फिर अलग हट गया | अब मैदान में मैं, जसवंत और तोरणलाल बच गए थे |
अगले चक्र में निर्मलकर सर ने लक्ष्य इतना ऊपर लगाया कि शायद बबलू भैया को भी उसे लांघने में मुश्किल होती | हुआ वही - दो बार कोशिश करके भी मैं लक्ष्य पार करने में असफल रहा , जबकि जसवंत और तोरणलाल पहले ही प्रयास में उसे पार गए | जब मैं दूसरी बार रेत पर गिरा, तो मैंने चन्दन की ओर देखा | पर चन्दन तो वहां था ही नहीं | वह मेरा स्वेटर लिए अयप्पा गेट की तरफ बढ़ रहा था |
उसके विश्वास को ठेस पहुंची थी | उसके दिल के करीब की तस्वीरों पर खरोंच आयी थी |
मैंने जल्दी जड़ी जूते पहने और उसकी ओर दौड़ा |
"चन्दन, चन्दन |"
वह रूककर मेरी ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देखने लगा |
"आज ठीक से कर नहीं पाया यार |" मैंने कहा | फिर मैंने जो कहा, वह वस्तुस्थिति तो थी, पर मुझे लगा, जैसे मैं सफाई पेश कर रहा हूँ ,"आज तबीयत भी थोड़ी खराब थी |"
"चुप बे |" वह बोला और चुपचाप चलने लगा |
मैं रूककर देखने लगा | अगले चक्र में निर्मलकर सर ने लक्ष्य का स्तर इतना ऊपर किया कि जसवंत और तोरणलाल दोनों ही लक्ष्य को पार नहीं कर पाए | अब उन्हें एक मौका और दिया जा रहा था | अगर इस बार भी दोनों असफल रहते तो लक्ष्य थोड़ा नीचे करके परखा जाता | दूसरी कोशिश में भी जसवंत नाकाम रहा | अब सारी नज़रें तोरणलाल पर टिकी थी | मैं धीरे धीरे चलते हुए बाहर से देख रहा था | अब मैं बीस सड़क के पास, टेलीविजन कक्ष के करीब करीब समानान्तर आ गया था | अगर थोड़ा और आगे बढ़ता तो कुछ भी नहीं देख पाता | मैं वहीँ रूककर देखने लगा | इस बार तोरणलाल ने जो छलांग लगाईं तो वह बिना छुए रस्सी के उस पार पहुँच गया |
मैं तेज़ी से चन्दन की और दौड़ा | मैंने मन ही मन निर्धारित कर लिया कि चन्दन यह समाचार किस रूप में देना है ?
"चन्दन, जसवंत हार गया चन्दन |"
चन्दन ने कुछ कहा नहीं, वह चुपचाप चलते रहा |
उसके लिए किसी की हार ही नहीं , किसी की जीत भी महत्वपूर्ण थी |
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आखिरकार वह बोर्ड परीक्षा आ ही गयी , जिसका इंतज़ार था | कुल चार प्रश्नपत्र थे - भाषा (हिंदी ), गणित, भूगोल और विज्ञान| | एक दिन में सुबह और दोपहर एक एक पर्चे होते थे | इस तरह दो ही दिनों में चारों पर्चे निपट गए | मैं 'ट्रिपल टेस्ट' की पन्नी नंबर १५३ की तलाश में फिर जुट गया | आखिरी परचा होने के बाद भी मैं रुका रहा; हालाँकि मेरा पेपर बहुत पहले समाप्त हो गया था और मैं परचा जमा करके बाहर आ गया था (मैं उन लोगों में नहीं था जो परचा ख़तम करके भी समय समाप्त होने तक अंदर ही बैठे रहते थे |) |
नुझे चन्दन का इंतज़ार था | जब वह बाहर आया तो मैंने उसे बताया कि मैं 'ट्रिपल टेस्ट' के पन्नी नंबर १५३ की खोज कर रहा हूँ | पहले तो उसे समझाना पड़ा, कि 'ट्रिपल टेस्ट' की १८० पन्नियों में से मुझे १७९ मिल चुकी है , पर १५३ अभी तक नहीं मिली | उसका वही जवाब था -"पहले क्यों नहीं कहा ?"
"ठीक है |" वह बोला ,"देखता हूँ- घर के आस पास तेरे जैसा कोई पागल जमा करता हो तो|"
कोशिश उसने भी की | कभी वह १६४ नंबर (गोदना) ले आता था तो कभी १६८ (भूमिगत रेल) |
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"नहीं यार, मुझे १५३ नंबर चाहिए | गगनचुम्बी ईमारत |" मैंने कहा ,"तू इस कड़ी धूप में इतनी दूर से आता है |"
"१-५-३?"
"हाँ, १-५-३| दूसरा बिलकुल नहीं | बल्कि तेरे किसी दोस्त को और कोई नंबर चाहिए और वह अदला-बदली के लिए तैयार हो जाए तो मुझे बताना | मुझे चाहिए १-५-३|"
और इसी बीच परिणाम का दिन आ गया |
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परिणाम के दिन जो कुछ हुआ, समय ने कैसे पलटा खाया, ये आप "चोरी में हिस्सेदारी" और "राजीव सिंह की 'शोले'" में पढ़ ही चुके हैं | राजीव सिंह की रुलाई से सारा माहौल ग़मगीन हो गया था |
अब अंग्रेजी वर्णमाला के नाम के हिसाब से कालकर बहनजी ने नाम पुकारना शुरू किया | प्रत्येक से वह एक-एक दो-दो मिनट बातें करतीं | लगता था, वक्त ठहर सा गया हो |
उन्होंने चन्दन का नाम पुकारा और चन्दन तेजी से दौड़कर उनके पास पहुंचा | रिजल्ट देखते ही उसे मुख में मुस्कान आ गयी | किसी तरह जबरदस्ती अपनी आतंरिक ख़ुशी छुपकर एक आज्ञाकारी छात्र की तरह वो कालकर बहनजी की बातें सुनते रहा और सर हिलाता रहा | फिर वह परिणाम पत्रक लेकर उसे देखते हुए लौटा | बीच बीच में वो रूक जाता और फिर चल पड़ता |
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भिलाई विद्यालय में जाने के पूर्व एक नाटक और हुआ | सेक्टर २ के बच्चों के लिए शाला क्रमणक आठ के दरवाजे ही बंद थे |
फिर जब दरवाजे खुले तो हमने सरपट दौड़ लगाईं (देखें राजीव सिंह की 'शोले'") |
चन्दन ने जल्दबाजी की, उसको छठवीं वर्ग "अ" में जगह मिली |
मैंने देर लगाईं | दाखिले की जो पर्ची मुझे थमाई गई उसमें छठवीं "ड" लिखा हुआ था |
बाकी सब, जावले, सुबोध, सूर्य, मनमोहन - वर्ग 'स' में घुस गए क्योंकि सबने तकरीबन एक ही समय दाखिला लिया था |
तो संयोग ऐसा कि चन्दन के साथ एक ही छत के नीचे अध्ययन या कार्य करने का अवसर फिर कभी मिल नहीं पाया |
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(क्रमशः )
काल - १९७१-७६
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