शनिवार, 18 अगस्त 2012

बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के ..... - ३


अच्छी आदतें सीखने में थोड़ी परेशानी होती है | लोग बुरी आदतें जल्दी सीख लेते हैं |

व्यास के घर जाना काफी आसान था | सेक्टर २  और सेक्टर ६ के बीच "सात वृक्ष" (सेवन ट्रीस)  सड़क थी | अब वह "सात वृक्ष" क्यों , ये तो यही जाने , जिसने यह नाम दिया , क्योंकि वृक्षों की संख्या कहीं ज्यादा ही थी | एस "सात वृक्ष " सड़क सेक्टर दो को सेक्टर छः से अलग करती थी - इस चौराहे से उस चौराहे तक | जब कभी फूफा आते , तो वो तो किसी साइकिल के ख़ाली होने का इन्जार करते , यो तो फिर बाबूजी या कौशल, कोई उन्हें व्यास के घर छोड़ आते | पर फूफू (बुआ)  से कभी इन्जार नहीं होता था |

"ले थोडा आराम कर | फिर चले जाना |" माँ खाना खाने के बाद उन्हें हमेशा कहती | तात्पर्य यही होता कि तब तक बाबूजी आ जायेंगे और उन्हें स्कूटर में छोड़ देंगे | पर फूफू क़ी बेचैनी शांत नहीं होती थी |

"नंदू से मिलना है |" हमेशा उनकी रट होती थी |

नंदू यानी लक्ष्मी भैया | तब माँ कई बार खुद , कई बार किसी और को उनके साथ कर देती | अगर मैं खेलते रहता तो मैं दौड़ कर आता ,"फूफू,व्यास के घर जा रही हो ? मैं भी चलूँ  ?"

तब माँ कहती ,"जा तो बेटा | इनको छोड़ आ | " फिर फूफू से कहती ," इसको रास्ता मालूम है |" रास्ता भला कौनसा कठिन था | सड़क के अंत तक जाजो | सड़क ख़तम भी हो जाये तो भी चलते रहो | बीच का मैदान पर करो | "सात वृक्ष" सड़क आएगी | उसके साथ साथ चलते रहो , सेक्टर पांच की और - जब तक चौराहा ना आ जाये | चौराहा आने के बाद भी उस सड़क पर चलते रहो, अस्पताल पार करो | फिर दाहिने सड़क पर मुड़ो
 , अस्पताल के पीछे जाओ ....|

 .. और मेरे पाँव में पंख लग जाते | मैं दौड़कर आगे निकल जाता और फिर रूककर उनकी प्रतीक्षा करता | जब वो पास आते तो फिर दौड़कर जाता और फिर रूककर उनकी प्रतीक्षा करता |

यहाँ तक सब कुछ ठीक था |

फिर आती सात वृक्ष रोड | चाहें तो उसके बाएं और चलते  रहें चाहे दाहिनी ओर ....| दूर तक वैसे ही चलते जाना था | चप्पल न मेरे पांव में होती और न फूफू के | माँ जरुर चप्पल पहन कर चलती - खटर खटर खटर ...|  बीच बीच में हांक लगाती ,"बेटा, सड़क पर मोटर गाड़ी चल रही है | दौड़ो मत ....|" या जैसे ही कोई ट्रक गुजरता , माँ लपक कर मेरा हाथ पकड़ लेती ओर मैं फिर उनके साथ चलने लगता ....|

यहाँ तक भी सब कुछ ठीक था ....|

सात वृक्ष सड़क के चाहे दाहिनी ओर चलो या बांयी ओर ... सड़क के किनारे दूर तक चले जाओ |
पर कभी तो सड़क पार करना होता | व्यास का घर सड़क के दाहिनी ओर था |

...बस यहीं कुछ गड़बड़ था |

माँ सबको रोकती, पहले दाहिनी और देखती, फिर बांयी और ... | कोई मोटर साईकिल, या कर या स्कूटर आता देखती तो सबको हाथ फैलाकर रोकती |

यहीं सब गड़बड़ था |... | इधर माँ हाथ फैलाकर रोकती और मैं फैले हाथ के नीचे से सरपट भागकर सड़क पार कर लेता ....|

...पता नहीं , कार या मोटर साइकिल के और मेरे बीच कितना फासला रहता ...| मैं तो देखता नहीं था | बस अंधाधुंध दौड़ पड़ता ....| पर जब हांफते हुए माँ और फूफू सड़क पार करते तो उनका कलेजा मुंह में आ चूका होता ...|
"तू ठीक तो है न बेटा ...| हे राम... | मेरा  बेटा  कितने तेज भागता है ....| मैं तो डर ही गयी थी ....| ठीक तो है न ... | राम राम राम ...|"

आने के समय फिर उनकी चेतावनी सुनकर अनसुनी करते हुए मैं दौड़कर सड़क पार कर लेता ....|

.. और घर आने के बाद फूफू यह कारनामा घर में सबको सुना देती ,"मेरी तो जान ही निकल गयी थी ...| कितने तेज भागता है ...| गाड़ियों के आने के पहले ही उस पार ....|"

यहाँ तक सब ठीक था , पर  मुझे क्या पता था कि मेरे कारनामों ने किसी और को भी प्रोत्साहित किया है ....|

तो उस दिन व्यास लोगों को फिल्म 'आराधना'  दिखाने ले जाने वाले थे कोई रोक टोक नहीं थी | शर्त यही थी कि जिन्हें फिल्म देखना हो वो व्यास के घर दो बजे के आसपास एकत्र हों ताकि चित्रमंदिर   सिनेमाघर में तीन से छः का शो देखा जा सके | जिनका  दोपहर का स्कूल था, उनका जाना संभव नहीं था | थोड़े दिन पहले मैं व्यास , माँ और अन्य लोगों के साथ चित्र मंदिर में 'आन मिलो सजना' देखकर आया था | ज्यादा फ़िल्में देखने से बच्चों की आँखें खराब होती हैं - इसलिए मेरा पत्ता कट गया |
फूफू , शकुन और संजीवनी उसी 'सेवन ट्रीज़ ' के किनारे किनारे चलते हुए व्यास के घर जा रहे थे | एक जगह रुक कर लोग हाथ पकडे, सड़क पार करने केलिए इधर उधर देख रहे थे  कि अचानक हाथ छुड़ाकर संजीवनी अंधाधुंध सड़क पार करने भाग खड़ी हुई  | तेज़ रफ़्तार से आती मोटर साईकिल के चालक ने होर्न बजाय तो वह और घबरा गयी | ब्रेक मारते मारते और मोटर साईकिल का हेंडल मोड़ते मोड़ते भी आखिर ठोकर लग ही गयी |

डामर की पक्की सड़क पर संजीवनी गिर पड़ी |

"फूफू " संजीवनी रोये जा रही थी | सर से खून निकल रहा था |

मोटर साईकिल वाले ने तुरंत मोटर साईकिल रोकी और संजीवनी को गोद  में उठा लिया ," नहीं बच्ची, सड़क पर ऐसे  नहीं दौड़ते |" आनन् फानन में उसने जेब से रुमाल निकाला और संजीवनी के सर पर बांध दिया |

"मैं इसको सेक्टर पांच के अस्पताल ले जा रहा हूँ , माई |" वह फूफू से बोला , "आप चलेंगे तो अच्छा रहेगा | नहीं तो मैं वहीँ इन्जार करूँगा |"

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"आपको देखकर मोटर साइकिल चलाना चाहिए | ऐसा थोड़े कि गद्दी पर बैठे और 'भों' अंधाधुंध एकसीलेटर  घुमा दिया | आंये - बाएं  घोड़े दौड़ाये जा रहे हैं ...|" व्यास मोटर साईकिल वाले पर बरसते रहे  और मोटर साईकिल वाला सर झुकाए उसके शांत होने का इंतज़ार करते रहा | ज्यादा गहरी चोट नहीं लगी थी | डाक्टर ने सर पर पट्टी बाँध दी थी | जब व्यास के शब्दों क़ी बौछार शांत हुई तो मोटर साइकिल वाले ने कहा ,"ठीक है भाई | मुझसे गलती हो गई | पर बच्ची को भी ऐसे नहीं दौड़ना चाहिए ...| आप  उसे सिखा दो |"
"क्या सिखा दूँ ? क्या गलती है इसकी ? आपको देखकर मोटर साइकिल चलाना चाहिए | बच्ची को क्या मालूम है, सड़क पर क्या आ रहा है क्या नहीं ?"

लोग चलते चलते बाहर आने लगे | मोटर साइकिल वाला पान क़ी दुकान के पास रुका |
"हाँ, आप ठीक कह रहे हैं | पान खायेंगे   आप ?"
पान खाते खाते उसने एक कागज़ पर अपना पता लिख कर   दिया ,"ये मेरा पता है ..| कोई ऐसी वैसी बात हो तो खबर कर दीजिये |" फिर फूफू क़ी और इशारा करके पूछा ,"ये आपकी ...|"
"माता जी ...|" व्यास ने कहा |
"माता जी प्रणाम |" वह बोला , "और ये बच्ची आपकी ..."
"बहन ..." व्यास ने जवाब दिया |

",ममेरी बहन ? है न ? " व्यास को उलझन में पड़े देखकर वह बोला, "दरअसल जब ये गिरी तो इसने आवाज़ दी 'फूफू ' ....|"

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घर में अफरा तफरी मची थी | कोई तैयार हो रहा था, कोई तैयार होने में मदद कर रहा था | कोई इसलिए मुंह फुलाए बैठा था कि उसे जाने के लिए मौका नहीं मिल रहा था | कारण  यह था कि परीक्षा सर पर थी | न तो मुझे परीक्षा देनी थी, न संजीवनी को | शायद हम जा सकते थे |

"माँ , मैं जा रहा हूँ ?" मैंने पूछा |

"हाँ |" अलमारी से  अपना भारी भरकम करधन निकालते माँ बोली |
"और संजीवनी ?"
"क्या भीड़ बटोरकर ले जा रहे हो मामी ?" व्यास झुझलाते हुए बोले ,"और जाने का फायदा ही क्या है ?"

व्यास सर  पर भुनभुनाते हुए खड़े थे | फूफू अलग तैयार हो रही थी |

मैं बैठक में गया, जहाँ एक कोने पर शकुन चुपचाप बैठी हुई थी |
"तुम भी चल रही हो नंदिनी ?" मैंने धीमे आवाज़ में पूछा |
"नहीं |" वैसे पूछना बेमानी था - वर्ना शकुन भी तैयार होने वालों क़ी कतार में शामिल होती |
"क्यों ? परीक्षा है क्या ?" मैंने माँ  को बेबी को मना करते समय परीक्षा क़ी गुहार लगाते सुना था |
शकुन कुछ नहीं बोली |

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पावर हाउस से नंदिनी तक जाने वाली   बस में जबरदस्त भीड़ थी | हम  लोग खड़े रहे | व्यास का सर करीब करीब बस की छत  को छू रहा था  | बस डगमगाते  हुए बढ़ी  और थोड़ी ही दूर  पर एक जोर  क़ी छींक  मारी | मैं माँ क़ी साडी पकडे हुए खड़ा था | पर कब तक ?  पाँव  जवाब  देने  लगे  और मैं जमीन  पर बैठ  गया |

एक सज्जन  ने तरस खाकर सीट छोड़ी  और अपनी धर्म पत्नी के बगल में माँ को बैठने का इशारा किया | अगर माँ बैठती तो मुझे  फायदा ये होता कि  मैं माँ क़ी गोद में बैठ जाता | पर माँ ने फूफू क़ी ओर देखा | फूफू भी न नुकर  करते रही | सज्जन बेचारे असमंजस  खड़े के खड़े रहे |

खैर  , थोड़ी ही दूर चलने  के बाद एक तीन  लोगों  क़ी लम्बी सीट खाली हुई | शशि दीदी खिड़की के पास वाली  सीट पर बैठी , फिर माँ और फिर फूफू | मैं माँ क़ी गोद में बैठकर इधर उधर देखने लगा | कंडक्टर पास आया |

"कितने लोग हैं ?" कंडक्टर ने पूछा |
"चार |" व्यास ने बटुए से पाँच का नोट निकालते हुए कहा |
"चार या साढ़े चार ? ये बच्चा कितने साल का है ? "
"पाँच ....| " बस में लिखा था, पाँच से बड़े बच्चे का आधा टिकट  लगेगा |
"पांच ? ये तो बड़ा लगता है ...|"
" तो गोद में भी तो बैठा है ...|" व्यास ने अपना सारा गुस्सा कंडक्टर के सर पर उड़ेल दिया |

पता नहीं  कब तक मैं सोते रहा | बस तो चलते ही रही - शाम रात में बदल गयी |
माँ ने मुझे झकझोरा |
"ट्रिंग " शशि दीदी ने रस्सी खींचकर घंटी बजाई |
थोड़ी देर चलने के बाद  बस रुक गयी |

जहाँ बस रुकी , घुप्प अंधकार छाया था | फूफू, जो बस में भी व्यास को समझाते आई थी, अभी भी रुक रुक कर उन्हें कुछ न कुछ हिदायत देते जा रही थी |

गाँव था या क़स्बा या शहर - कुछ भी पता नहीं | सड़क थी या नहीं, पता नहीं - बस, हम लोग सम्हल-सम्हल
 कर चल रहे थे |
"ये ही घर होना चाहिए |" व्यास ने कहा |
वही घर था - एक अधेड़ उम्र के सज्जन हमारे  स्वागत के लिए घर के बाहर तैयार खड़े थे | माथे पर तिलक, होठों पर व्यापारिक  मुस्कान ... |

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नंदिनी की जामुल यात्रा के बाद सबने शकुन की शादी के लिए हामी भर दी | सबने -केवल व्यास को छोड़कर |
"मामा , वो मेरी सगी बहन है ...|" व्यास ने मानो ब्रह्मास्त्र चलाया | बाबूजी के भरसक समझाने पर भी व्यास टस से मस नहीं हो रहे थे |
"तो हम लोग दुश्मन थोड़ी हैं  भाई | समझो बातों को |"  बाबूजी ने फिर समझाया
  फूफा और फूफू ने मनाया | रमा ने समझाया |
"ठीक है, अगर आप लोग ने निर्णय ले ही लिया है , तो .....|" व्यास के दिल में आग सुलगते ही रही |

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'टूटी फ्रूटी' - एक  स्वादिष्ट  चॉकलेट   थी |  चॉकलेट  के ऊपर में पीले रंग की पन्नी लगी होती थी - प्लास्टिक की नहीं कागज़ की | पन्नी बड़ी ही सावधानी से खोलना पड़ता था | नहीं , नहीं -  चॉकलेट  खाकर पन्नी तो वैसे भी हम लोग सहेज कार ही रखत थे - फेंकते नहीं थे | पर 'टूटी फ्रूटी' की पन्नी अलग होती थी | उसके पीछे एक अंक लिखा होता था और डायनोसौर   की फोटो बनी होती थी |  चॉकलेट  थोड़ी महँगी थी - दस पैसे की एक | फोटो एक अल्बम में लगाना पड़ता था | कौशल भैया एक एक करके फोटो जोड़ते जा रहे थे | कुल नव्वे फोटो चिपकाने थे | अब उनके इस प्रोजेक्ट में बबलू भैया भी जुड़ गए थे | दोनों अक्सर मिल क़र अल्बम देखते रहते - कितनी तस्वीर और बाकी रह गयी है ...| कई बार एक नंबर कई कई बार निकल जाता - कई बार लड़के एक विशेष  नंबर के लिए तरस जाते |

"अडतीस नंबर बहुत मुश्किल से निकलता है |" बबलू भैया बोले | उनके अल्बम में अडतीस नंबर की जगह अभी भी खाली थी |
"तुझे किसने कहा ?" कौशल ने पूछा |
"शंकर कह रहा था |"
"वो ? सड़ा दाँत ? उसके पास अडतीस नंबर भर - भर के होगा | इसलिए सबको उल्लू बना रहा है , ताकि लोग हडबडा कर उससे अडतीस नंबर बदली क़र लें |"

कौशल भैया ने मेज की दराज खोली और "डुप्लीकेट" की गड्डी निकाली जिसे वे प्लास्टिक के रबर बेन्ड में करीने से लगाकर रखे हुए थे |

"इतने सारे डुप्लीकेट ...? देख जरा तिरसठ नंबर कितना सारा है - एक, दो तीन , चार ... |तीन सैंतीस नंबर, बीस - दो... अठारह - दो ..  आठ, सतहत्तर , उन्सठ - सब डुप्लीकेट ... | क्यों न एक अल्बम और शुरू क़र दें ? " कौशल भैया बोले |
"लकी नंबर निकलना तो चाहिए |" 'लकी नंबर ' को सेक्टर छह  की  एक दूकान में अल्बम में बदला जा सकता था |

"इससे अच्छा तो चिकलेट च्विंगम के झंडे जमा करना है |" बबलू भैया बोले ," केवल पैंतालिस देशों के झंडे...|"
"तुझे करना हो तो कर | मुझे नहीं करना ...| कौन खाए च्विंगम  ? पहले मीठा मीठा लगता है, फिर चबाते रहो रबड़ को | सब बकवास है |"

एक-एक करके वे तस्वीरें इकठ्ठा क़र रहे थे | फिर किसी छुट्टी के दिन बैठकर आटे क़ी लेई बनाते और फोटो के चरों कोने पर सावधानी से लेई लगाकर चिपका देते |

मैं गोंद लाऊं ?" एक दिन मैंने   बुद्धिमानी दिखाई |
"गधे | कितनी गोंद खर्चा करेगा | पता है, गोंद क़ी बोतल कितने क़ी आती है ?"
"फोटो के केवल कोने में गोंद क्यों लगाते हो ? " मैंने पूछा |
"ताकि निकालने में आसानी रहे |"
"मतलब, अगर गलत नंबर पर गलत फोटो लगा दी तो ?" मुझे तो वही सूझा |
"और भी कई  कारण  है | कई बार साफ़ फोटो मिल जाती है, वो चिपका दो |" डुप्लीकेट की अदला बदली में - जो कि किसी से भी हो सकती थी, दोस्त, दोस्त के दोस्त , दोस्त के दोस्त के दोस्त या किसी अजनबी से भी - अक्सर गन्दी , तुड़ी मुड़ी फोटो मिलती थी |

"पूरी फोटो में गोंद लगाओ तो पृष्ठ  मुड़  जाता है | " बबलू ने समझाया |

"ऐसे जानवर - कहाँ रहते हैं ?"

"ये डायनोसौर थे | सब चले गए , इस संसार से | इस धरती पर मेहमान बनकर आये थे | थे तो लम्बे चौड़े, पर मेहमान चाहे कितना बड़ा क्यों ना हो, एक दिन उसे जाना ही पड़ता है |"


घर में मेहमानों कि संख्या में अचानक बढ़ोत्तरी हो गयी थी - काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी ... | अक्सर कई लोग बाहर सोते थे | माँ ने अलमारी,  अटैची   से ऐसी -ऐसी चादरें और दरियाँ निकाली, जो  मैंने  कभी देखी न थी | हो सकता है - मेरे जन्म  से  पहले की हों | उन प्रगैतेहसिक काल के बिछौनों के बावजूद बिछौने कम ही पड़ जाते थे |
उन मेहमानों से कौशल , बबलू या मुझे कोई परेशानी नहीं थी | जाते- जाते वे मुझे दस पैसे ,  बबलू   को चवन्नी और कौशल को अठन्नी या रुपया पकड़ा कर जाते | कई बार ये रकम - कम से कम - मेरे लिए थोड़ी ज्यादा हो जाती |
"क्यों न हम एक और अल्बम शुरू कर दें |" कौशल भैया हरदम सलाह देते |
'लकी नंबर ' पाने का एक अच्छा तरीका ये था कि 'टूटी-फ्रूटी' का एक बक्सा ही खरीद लिया जाये | बक्से में पच्चीस 'टूटी फ्रूटी ' होते थे और वो दो रूपये का आता था | बक्से में ढेर सारे डुप्लीकेट तो होते थे, पर एक और कई बार दो दो लकी नंबर निकल आते थे |
बबलू भैया अपने  सिक्के डॉक्टर धोते के दिए अल्युमिनियम के डिब्बे में डाल देते | मैं अपने पोरहे की झिर्री से उसे अन्दर घुसा देता | मेहमानों के जाने के बाद वे हर बार सिक्के गिनते |
"बस पच्चीस पैसे और ....|" एक दिन कौशल भैया ने कहा ,"फिर एक बक्सा खरीद कर लायेंगे ...|"
"एक चवन्नी ... |" अब मुझसे रहा नहीं गया | मैंने अपने पोरहे की झिर्री से झाँका | उसे उल्टा किया | ढेरों सिक्के नज़र आये | कई बार उल्टा - पलटा | छन..  छन  ..  सिक्के बजते रहे | काश, मेहमानों के जाने के बाद मैं तुरंत सिक्के पोरहे में न डाले होते ....|
क्या जैसे सिक्के अन्दर घुसे, वैसे बाहर नहीं निकल सकते ?
मुझे एक तरकीब सूझी | मैंने माँ के स्वेटर बुनने की सलाइयाँ ली और पोरहे को उल्टा करके सिक्के जिर्री में सिलाई डालकर सिक्के निकालने की कोशिश करने लगा | काफी मशक्कत के बाद एक चाचा नेहरु छाप बीस पैसे का सिक्का निकल ही गया | चलो, कम से कम इतना सही, मैं पैसे लेकर कौशल भैया की कुटिया में गया |

"ये सिक्का ?" वो कुछ समझे नहीं |
"टूटी फ्रूटी का बक्सा खरीदने के लिए ....|" मैंने थूक निगलते हुए कहा |
"तुझे टूटी फ्रूटी अच्छी लगाती है ? ज्यादा चॉकलेट मत खाया कर | दांत  सड़  जायेंगे |"
"नहीं, मैंने सोचा, लक्की नंबर निक्ल ....|"
"तुझे लक्की नंबर की पड़ी है ?" कौशल भैया बोले ,"कहाँ से लाया पैसे ?"
"पोरहे से |"
कौशल भैया हतप्रभ ... ," जा वापिस पोरहे में डाल दे | अरे जा न भोकवा ... | तू तो डांट खिलवाएगा बाबूजी से ...| "


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देर रात मेरी नींद खुली | गला सूख गया था | सावधानी से चलते हुए मैं उठा | परछी में अँधेरे में टटोल टटोल कर गया - लोग दरी में सोये होते हैं - किसी  को ठोकर न लगे |

टटोलकर स्टोर रूम के दरवाजे के पास पहुंचा और पंजे के बल खड़े होकर सावधानी से परछी की लाइट जलाई |
परछी तो सूनी थी - कोई भी नहीं था |
लक्ष्मी भैया तो अब व्यास के साथ सेक्टर ५ के घर में रहने लगे थे | और शकुन ?

"महलों का राजा मिला, रानी बेटी राज करेगी |
ख़ुशी - ख़ुशी कर दो बिदा , तुम्हारी बेटी राज करेगी |"

शकुन की शादी हो गयी थी | | रानी बेटी का महल कितना भव्य था , वह  हमने उस दिन की अपनी नंदिनी बस यात्रा पर देखा ही था |  | राजा - याने रामानुज - जामुल की सीमेंट फैक्टरी में निहायत सामान्य कामगार थे | चेहरे पर चेचक के दाग, काली  मूछें - गठा हुआ शरीर ....| व्यास को तो वो फूटी आँखों ना सुहाए | तिस पर शादी के समय  और फिर बाद में विदाई के वक्त - दूल्हे के तेवर - जो अक्सर भारत में देखने को मिल जाते हैं | ना भी हो - तो भी पूर्वाभास जो मन में समाया रहता है , उससे सामान्य सी हरकतें भी नखरा लगने  लगती हैं | ऊपर से आग  में घी का का कर रही थी , ससुर जी का व्यवहार ....|  पर अब वही शकुन का घर था  - सास , ससुर, देवर , ननद -   यही तो शकुन का संसार था | वही उसकी अब ज़िन्दगी थी |

दूर सुपेला में ग्रामोफोन में टूटती आवाज़ में गाना अब भी बज रहा था -

बेटी तो है, धन ही पराया , पास अपने कोई कब   रख पाया |
भारी करना न अपना जिया , तुम्हारी बेटी राज करेगी |

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मुन्ना, क्या टेम्पो चार पैसे का आता है ?" मैंने मुन्ना से पूछा |

"भग बे ... | चार पैसे में तो उसकी फोटो भी नहीं मिलेगी |" मुन्ना ठहाका लगा कर हँसा |

शकुन और व्यास की शादी आगे पीछे ही हुई - उन  में थोडा बहुत ही अंतराल रहा होगा, ज्यादा नहीं |

मुझे तो  व्यास की शादी में जाने का मौका नहीं मिला  , लेकिन  जो लोग गए, वो अपने साथ ढेर सारी कहानियां लेकर आये | जैसे, औरतों की  उलाहना भरी 'गारी' या 'गाना' ,"चार पइसा के टेम्पो लाने , जर गे तोरे नाक हो ..." या "लडुआ पप्ची ' इतने कड़े कि उन्हें खाने के लिए लोगों को हथौड़ी से फोड़ना पड़ा | कहानियाँ सुन कर हँसते हँसते हम लोगों के तो पेट में बल पड़ गया |

किन्तु जो नहीं हँसे , वो शख्स और कोई नहीं खुद व्यास थे |

 व्यास बहुत ज्यादा गंभीर हो गए | वैसे भी व्यास के गुस्से से हम सब को काफी डर लगता था | शादी को लेकर व्यास थोड़े ज्यादा तनाव ग्रस्त हो गए थे | और पता नहीं क्यों, लोगों को ये लगा कि वो शादी से नाखुश हैं |

जब वो गुस्से में होते थे तो या तो माँ बात कर सकती थी, या बाबूजी | दोनों के बात करने का अंदाज़ अलग था | माँ का अंदाज़ थोडा छेड़छाड़ वाला था | वो छेड़छाड़ का अंदाज़ आग में घी डालने का  नहीं, बल्कि ठंडी फुहार का काम करता था |

" तो कब ला रहे हो अपनी दुल्हन को ?" माँ ने उन्हें छेड़ते हुए कहा |
" मत याद दिला मामी | एकदम बेंदरी ( बंदरिया ) है वो |" व्यास खीजकर बोले |

व्यास को गुस्से में देखकर मैं खिसक जाने में ही अपनी भलाई समझता था | खिसक के कहीं दूर भाग जाओ | पर 'बेंदरी' सुनकर मेरे कदम थम गए | मुझे मदारी और बंदरों का नाच याद आया |

"वाह भाई वाह | " माँ बोली ,"सुन्दर तो है | और परियाँ तो आसमान में रहती हैं | नाक नक्श तो अच्छे हैं | क्या खराबी है भला ?"
" मामी | मैं चेहरे मुहरे की बात नहीं कर रहा | बेहद जिद्दी है | पता नहीं, कितने बड़े घर के बेटी है | बस, मुझे अपने साथ लेकर चलो | साथ लेकर चलो .. साथ लेकर चलो ..|"
"तो ठीक ही तो है | 'पठौनी' करवा के यहाँ ले आओ | यहाँ आकर खाना बनाएगी | कपडे धो देगी | "
"मामी, तुमको समझाना ही मुश्किल है | मुझे थोडा बड़ा घर तो मिलने दो | उस छोटे घर में लक्ष्मी कहाँ रहेगा और हम लोग कहाँ रहेंगे ?"
"इतनी सी बात ? लक्ष्मी को यहीं छोड़ दो |"
" इतने दिन से तो यहीं, इसी घर में था मामी | नहीं, अब मेरे साथ रहेगा | मेरा भाई है - सगा भाई |"

माँ निरुत्तर हो गयी | फिर बोली ," हाँ बेटा | तुम लोग पढ़ लिख गए |  अब कमाने वाले हो गए हो | मुझे ज्यादा तो समझ में आता नहीं | बस इतना जानती हूँ कि शादी के बाद लड़की के लिए घर बदल जाता है | उसे ले आओ , जल्दी ...|"
"अरे मामी, मैं घर खोज ही रहा हूँ |तब तक सब्र करना चाहिए या नहीं ? घर मिलने तो दो |   फिर जब वो आएगी तो आप सब को खाने पर बुलाऊंगा ...|"

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परछी दिन में कई रूप बदलती थी | खाने के समय वह एक भोजन गृह बन जाता था - जहाँ जगह जगह लोग पीढ़े में बैठकर बातें करते हुए या रेडियो सुनते हुए खाना खाते थे | रात को किसी न किसी आगंतुक के लिए खाट लग जाती थी | दिन में माँ कभी मसाला कूटती थी तो कभी चावल चुनती थी | लेकिन जब सब कुछ खाली हो जाता था , मैं और संजीवनी माँ से चिरौरी करते थे और माँ ऊपर से लोहे की छड़ों से बने हुक निकालकर  लकड़ी का झूला लगा देती | खासकर, जब कोई मेहमान सपरिवार आता , यानी जिसमें छोटे बच्चे भी होते
तो हमारी दरख्वास्त का वज़न बढ़ जाता था ," माँ, मनोज को झुलना झूला दें ? " झूला काफी बड़ा था, जिसमें कम से कम चार छोटे बच्चे आसानी से बैठ सकते थे |
पर मैंने कहा "छोटे बच्चे " - मैं भला छोटा बच्चा थोड़ी था | जैसे - जैसे बड़ा होते जा रहा था , मेरी शैतानियाँ बढ़ते जा रही थीं | झूले की लकड़ी की चहर दीवारी के अन्दर  शराफत से बैठना मुझे पसंद नहीं था | मैं  झूले में खड़े होकर, इधर उधर लटक कर झुलाने का काम किया करता था | कभी चहर दीवारी के पटर में खड़ा हो जाता था, कभी लोहे की छड पर ही लटक जाता था | कभी सीधे दोलन करते झूले को इधर उधर डगमगा देता था, तो कभी चक्कर खिला देता था |
उस दिन मैं जोश में आकर पटरे  पर चढ़कर लोहे की छड पकड़कर झूला जोर से झूला रहा था | अचानक लोहे की छड के हुक झूले से खुल गया और मैं औंधे मुंह गिरा | लेकिन लोहे की छड  मैं  कस  कर  पकडे था | डगमगाता हुआ लकड़ी का झूला मेरे माथे से टकराया और जोर से कडकडाते हुए एक और झुक गया |
माँ रंधनी खड़ से भन्नाते हुए आई |
"हाँ, हाँ टुरा , अउ सत्ती जा ( हाँ छोकरे, और बदमाशी कर) | " माँ गुस्से  से चिल्लाई | शायद एक झापड़ भी जड़ देती, पर रुक गयी |
"माँ, इसके सर से खून निकल रहा है |" संजीवनी बोली |
माँ साडी से खून रोकने की कोशिश कररही थी , पर खून की  धारा  बहते ही जा रही थी .. |

"मामी, मैं घुठिया जा रहा हूँ | कुछ कहना है ?"कोई  दरवाजे पर खड़ा था ... व्यास ... | अचानक - इस समय ...?
मगर जब उन्होंने  माँ   को मेरे माथे का खून रोकते देखा तो वह यात्रा तत्काल रद्द हो गयी |
इसे तो अस्पताल ले जाना पड़ेगा ...| जल्दी ...|

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झूलना के झूल , कदम के फूल ,
नवा कोठी उठत हे , जुन्ना कोठी फूटत हे ...|

....तड, तड तड ... धडाम ....|
मेरे कान में अभी भी वह कर्कश स्वर गूंज रहा था | मैं एक बेंच पर लेता हुआ था और कमरे में तेज रौशनी हो रही थी |
"तुम उठ गए ? क्यों उठ गए ? चुपचाप लेते रहो ...| " मोटे चश्मे वालेडॉक्टर   ने हिदायत दी |
मैं चुपचाप आँखें बंद किये लेटे रहा |

मुझे डॉक्टर के क़दमों की आवाज़ बाहर जाते सुनाई दी |
" हड्डी तो नहीं टूटी | पर टांका लगाना पड़ेगा |"
"ठीक है | " ये शायद व्यास की आवाज़ थी | शायद नहीं, उनकी ही आवाज़ थी | वही तो मुझे लेकर आये थे | हाँ, याद आया |

"टांका - याने टंकी, जिसमें हम लोग पानी भरते है ? " मैंने सोचा |
अरे, मैंने चोरी चोरी , जरा सी आँखें खोली | उसके हाथ में तो सुई और धागा है | अच्छा ठीक है - कपड़ा सिलने वाली सुई नहीं है तो बोरा सिलने वाला सूजा है | अच्छा ठीक है - बोरा सिलने वाला सूजा नहीं तो जूता सिलाई वाली सुई है - पक्का | कुछ तो है ...|

उसने धातु की चिमटी से चोट कुरेदी और तेज़ दर्द की टीस उठी |
"चिल्लाओ मत | स्कूल जाते हो ? नहीं जाते ? कमाल है | इतने बड़े बच्चे हो ...|"
दर्द के मारे मेरी आवाज़ भी नहीं निकल रही थी |
"अच्छा, दो और दो कितने होते हैं ....|" उसने सुई त्वचा में घुसा दी ....|
"अआह .... चार ....|"
"शाबास | और चार और दो .....?"

*******

कायदे से तो पहले पर्ची कटवाना चाहिए था , तभी हम डॉक्टर से मिलने जा सकते थे | लेकिन मेरे सर से इतनी तेज़ी से खून निकल रहा था की नर्स मेरी बांह पकड़ कर सीधे डॉक्टर के पास ले गयी थी | पर अब पर्ची तो कटवानी थी |

पर्ची काटने वाला शकल से ही घाघ लग रहा था |
"तुम बी. एस. पी में काम करते हो ?' उसने बिना किसी लाग लपेट के,  व्यास से सीधे मतलब की बात पूछी |
"हाँ| " व्यास ने जवाब दिया |
"ये कौन है ?" उसने कियां नज़रों से मुझे घूरा |
"ये मेरा भाई  है |" व्यास ने कहा |
"तुम्हारा अपना भाई है ?"

गनीमत तो ये थी कि लाइन में तीन या चार लोग ही पीछे खड़े थे | वर्ना 'हो, हो' का शोर मच गया होता |

"हाँ |" व्यास ने कहा |
"मेडिकल कार्ड दिखाओ|"
"मेडिकल कार्ड अभी तो है नहीं | घर में है |"
"बिना मेडिकल कार्ड के पर्ची कैसे काटूँ बाबू साहेब ?  तुम्हारा भाई है | चोट घर में लगी थी | कार्ड घर में है | कार्ड लेकर आना चाहिए |" तीन चार वाक्य वह लगातार बोल गया
|उसने फिर पूछा , "तुम्हाहरा भाई है न ? अपना भाई ?' इस बार उसने 'अपना' शब्द पर जोर दिया |
"हाँ , मेरा भाई है |" व्यास को अब तक तो गुस्सा आ जाना चाहिए था , पर वे शांत ही रहे |
"मतलब कि, कार्ड पर इसका नाम है न ?"
व्यास ने कोई जवाब नहीं दिया |
"कार्ड पर इसका नाम है ना ? तुम्हारा सगा भाई है तो नाम तो होना चाहिए | जरुर होना चाहिए |"
"नहीं, मेरा सगा भाई नहीं, मामा का लड़का है |"

"वही तो हम इतनी देर से पूछ रहे थे बाबू साहेब |" ज़रा उसकी चौड़ी मुस्कान तो देखो | मानो, उसने हवलदार ने किसी चोर को पकड़ा हो ." हम पूछ रहे थे न | अपना भाई - अपना याने सगा भाई ...| इतनी हिंदी आती ना है आपको ? तो क्या आपके मामा बी. एस. पी. में हैं ?"
बी .एस  पी . याने  भिलाई  स्टील  प्लांट - जिसकी चिमनियाँ  अहर्निश धुआं उगलते रहती हैं  |  अस्पताल, विद्यालय, घर ,सड़कें - सब बी एस पी की ही तो हैं | व्यास तो बी. एस. पी में थे मगर बाबूजी नहीं ... |

*******

वह संदूक अपेक्षकृत कुछ भारी था | इतना भारी कि सेक्टर   ५ के चौक तक पहुंचते - पहुँचते आधी दूरी श्यामलाल ने साइकिल चलाई और व्यास पीछे संदूक पकड़कर बैठे | फिर व्यास ने   साइकिल   चलाई और श्यामलाल पीछे संदूक पकड़कर बैठे | उस टीन के संदूक में व्यास का अंजार पंज़र सामान , जो उन दिनों से सेक्टर २ के घर में पड़ा  था , जब से वे वहां रहते थे - पुस्तकें, कपडे , कम्बल और न जाने क्या-क्या ..... | अब शायद उन्हें गलती का अहसास हो गया होगा कि मुझ लटकन को उन्होंने क्यों साथ ले लिया होगा | मैं किसी काम का तो था नहीं, बस साइकिल के आगे के डंडे पर बैठा हुआ था | मैं बस, लक्ष्मी भैया से एकाध कहानी सुनने के लोभ से चले आया था | कई दिनों से वे सेक्टर २ के घर में आये नहीं थे |

सेक्टर   ५ के चौक के पास पहुँच कर दोनों का दम फूल गया | दोनों  साइकिल  से उतर गए | अब घर वैसे भी पास में ही था |संदूक को केरियर पर रखा और तीनों पैदल चलने लगे |
अब अँधेरा हो चुका था | दूर दूर लगी सड़कों क़ी बत्तियां जल रही थी | सेंट्रल एवेन्यू के ट्यूब लेत पर बड़े बड़े पतंगे खेल रहे थे |
साइकिल एक और हम तीन ... ! लेकिन तीनों पैदल चल रहे थे और संदूक साइकिल के  केरियर पर रखा था |   व्यास और श्यामलाल हाल के दिनों की घटनाओं की चर्चा कर रहे थे और मैं बोर हो रहा था , क्योंकि न तो मुझे कोई सरोकार था और न ही मेरे पल्ले कुछ पड़ रहा था | अचानक श्यामलाल ने पूछा  ," और शकुन ? ठीक लग रहा है नया घर ?"

श्यामलाल ने जान बूझकर या अनजाने में , मानो व्यास की दुखती रग पर हाथ रख दिया  | शादी के बाद से, बल्कि शादी के पहले से,  कोई न कोई बात को लेकर अनबन बनी ही थी | अगर व्यास गुस्से वाला था तो वे
  तो लड़के वाले थे | उनकी अकड़ स्वाभाविक थी |

"रामानुज ? अरे, क्या कहूँ ? एकदम बेंदरा (बन्दर)  है ....|"
रामानुज थोड़े दिन पहले साइकिल के करियर पर ढेर साड़ी मूली भाजी  लेकर आये थे - माँ को देने | तब मैंने पहली बार देखा था | चहरे पर हलके चेचक के दाग, गांठ हुआ शरीर ,चेहरे पर मुस्कान ...| उसके जाने के बाद माँ ने बताया था कि वो शकुन के 'घरवाले' हैं |

'बन्दर' तो वो किसी दृष्टिकोण से नहीं नज़र आये  पर व्यास क़ी परिभाषा कुछ अलग ही होती थी | मैं ठहाका लगा कर हँसा ,"हा .., हा... , हा...!
अब शायद उनको ध्यान आया कि मैं भी उनके साथ चल रहा हूँ |

"क्या हुआ टुल्लू ?" श्यामलाल मामा बोले, "बड़े जोर से हँसी आ रही है |"
"कुछ नहीं ...ही ही ही ... |" मेरी हँसी नहीं रुक  रही थी ,"  बेंदरा , बेंदरी ....|"
"बेंदरा ? कौन बेंदरा ?"  श्यामलाल ने लीपापोती के लिहाज़ से पूछा |
"बेंदरा यानी रामानुज - शकुन के घरवाला | है न ?"
"और बेंदरी ?"
" व्यास की  घरवाली |"
और व्यास सन्न रह गए | मानो गुस्से में उन्होंने जो पत्थर फेंका था, वह अचानक वापिस मुड़कर उन्हें लगा हो |
"तुझे किसने बताया मटमटहा ?" श्यामलाल मामा ने पूछा |
"उस दिन व्यास माँ से बात कर रहे थे ....|"

"वाह !" श्यामलाल मामा बोले ," बच्चों के सामने बातें करना बड़ा खतरनाक है भाई | अच्छा टुल्लू, चल एक गाना सुना ...|"
"कौन सा ?"
"कोई भी, जो घर के आने तक चले ...|"

मैंने कुछ सोचा फिर गाना शुरू किया ,
" इकतारा बोले तुन तुन ... | इकतारा बोले , क्या कहे वो तुमसे , तुन तुन तुन .. |
बात है लम्बी मतलब गोल , खोल न दे कोई इसकी पोल | तो फिर उसके बात | उ हूँ , हूँ हूँ ... !"


******

रामलाल मामा की मांढर  सीमेंट प्लांट में नौकरी लगी और वो   हमेशा के लिए भिलाई छोड़कर चले गए |
वैसे भी रामलाल मामा की शादी हो गयी थी | अब वो हमारे घर में नहीं रहते थे | रेल पटरी के उस पार , सुपेला में कहीं झोंपड़ी किराए में लेकर रहते थे | जिस छोटी सी फैक्टरी  में वे काम करते थे , वह भी सुपेला में ही थी | फिर भी उनका घर आना जाना लगा ही रहता था | खासकर रविवार के दिन तो बदस्तूर आया करते थे |
वही किस्सा  व्यास का था | अब वो सेक्टर ५ में एक छोटा घर किराए में लेकर रहते  थे | घर निहायत ही छोटा था , फिर भी इतना बड़ा जरुर था  -की वो और लक्ष्मी  भैया वहां रह सकें | फिर भी वे रविवार को जरुर कभी लक्ष्मी भैया को लेकर कभी घर में छोड़कर - हमारे घर आया करते थे |

दोनों के रविवार आगमन का एक उद्देश्य जरुर होता | वे माँ से उन सब्जियों की लिस्ट मांगते, जो हफ्ते भर की जरुरत के लिए पूरी होती | या यूँ कहें कि पूरी होनी चाहिए थे, पर अक्सर किसी न किसी मेहमान के अकस्मात् आगमन से गड़बड़ा जाती थी |
लेकिन उनके वहां रहने का एक फायदा यह हुआ कि एकाध  मेहमान वहां भी टिक सकता था |

कभी फूफू (बुआ) गाँव से आती थी तो मैं या संजीवनी  उन्हें व्यास के घर छोड़ देते थे | रास्ते में एक मेन रोड पड़ती थी - वही 'सेवन ट्रीस '(सात वृक्ष)|| मेन रोड इस लिए कि उसमें स्कूटर, मोटर या मोटर साईकिल चलती थी | और हाँ, टेम्पो - टेम्पो जरुर चलते थे |

रामलाल मामा के भिलाई  से जाने के बाद समय का एक टुकड़ा यादों के गर्त में समा गया |

अब श्यामलाल मामा थोड़े हताश से हो गए | वो मुंह अँधेरे घर से निकल जाते और देर रात गए आते | बाबूजी ने उन्हें एकाध बार समझाया कि देर सबेर   नौकरी   तो लगेगी ही | निराशा क़ी क्या बात है ?

और एक दिन वो अखबार वाले पर ही बरस पड़े |

घर में तीन पेपर आते थे - "नव भारत" - जो व्यास भैया के हिसाब से कांग्रेसी पेपर था, "युगधर्म" - जो जनसंघी था और 'नई दुनिया " - जो बेपेंदी का लोटा था | 'बेपेंदी का लोटा' - याने जब जहाँ कहीं लुढ़क जाए | ये तीन पेपर वर्षों से आते थे | शायद बाबूजी संतुलित विचारधारा के पक्षधर थे - पता नहीं |

जो भी हो - 'नई दुनिया' के पेपर बांटने वाले को बड़ी जल्दी पड़ी रहती थी | अक्सर वह चलती साइकिल से ही - बड़ी अदा से पेपर घुमाकर फेंका करता था | साइकिल क़ी रफ़्तार में रत्ती भर का फरक नहीं पड़ता था |

एक दिन उसने घुमाकर पेपर फेंका और वह श्यामलाल मामा क़ी खोपड़ी से टकराया | गनीमत थी कि अखबार कागज में छपते थे , पत्थर पर नहीं |

"हाँ , हाँ ," श्यामलाल मामा चिल्लाकर बोले , "अपने दूकान से फेंक दिया करो | घर में पहुँच जाएगा |"
... और पेप्पर वाला ऐसा शर्मिंदा हुआ , ऐसा शर्मिंदा हुआ कि अगले दिन से साइकिल रोककर, पेपर करियर से निकल कर, गेट खोलकर, दस कदम चल कर, पञ्च सीढियां चढ़कर, घर
के अन्दर आता और पेपर करीने से टेबल पर सजाकर रख देता ...|

***************

एक -एक तिनका, एक एक तिनका, एक एक तिनका .....
न जाने कितने बार मैंने कितनी सारी चिड़ियों को घोंसला  बनाते देखा था | और तो और, ज्यादा दूर जाने की जरुरत भी नहीं , घर में ही ढीढ  गौरय्या , न जाने कब , कहाँ से सबकी नज़रें बचाकर तिनके बटोर लाती थी और गांधीजी की तस्वीर , जो दीवार पर एक कोण बनाते तंगी थी, उसके पीछे घोसला बना लेती |
और देखते ही देखते एक जोर क़ी आंधी आई और सारे के सारे तिनके बिखर गए | मानो  एक वज्रपात हुआ और घर  बसने के पहले ही उजड़ गया  |जन्म जन्मान्तरों का नहीं - चार महीने, केवल चार महीने का ही साथ था वह |
शादी के बाद, व्यास अक्सर घुठिया चक्कर लगा लिया करते थे | ज़िन्दगी के संतुलन बनाने का यह एक रास्ता था | जब भी कभी दो तीन दिन किछुत्तियां हो, छुट्टी अगर न भी हो तो भी छुट्टी लेकर वो गाँव चले जाते थे | वैसे भी भिलाई से  घुठिया जाने में बमुश्किल चार पांच घंटे  लगते थे - बशर्ते लगी लगाईं बस या रेल मिल जाए |

एक दिन वो गाँव गए और अगले ही दिन एक तार वाला टेलीग्राम पकड़ा गया | बाबूजी घर में थे नहीं | स्कूल से आकर जब कौशल ने एक पंक्ति का तार बांचा तो मानो गाज गिर पड़ी |

कुछ दिन पहले, केवल कुछ ही दिन पाले तो लोग शादी में गए थे | शादी की हल्दी अभी छूटी भी नहीं होगी और अब सब लोग फिर एक बार सफ़र की तयारी करने लगे - अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए ....|

अचानक कैसे हो गया यह सब ?
फूफा खेत गए थे | फूफू मंदिर गयी थी | व्यास नहाने के लिए तालाब की और जा रहे थे | अभी वो तालाब के पास पहुंचे ही थे कि पीछे से कोई आदमी दौड़ते दौड़ते आया |

"जल्दी ... जल्दी ... |" वह हांफते हुए बोला ,"जल्दी घर जाओ | तुम्हारी घरवाली आग में जल रही है ...|"
व्यास तुरंत दौड़ते हुए घर गए | घर के सामने भीड़ लगी थी |  वे भीड़ चीरते हुए अन्दर घुसे |उनकी आँखों के सामने सब कुछ भस्म हो चुका था - सब कुछ .... |  सब कुछ समाप्त हो चुका था |

**********

नाम रखना तो कोई बबलू से सीखे |
जैसे कि माँ के शत्रुघ्न कका (काका) गाँव से नौकरी क़ी तलाश में भिलाई आये | काफी जवान थे | अगर चेहरे से थोड़े बहुत चेचक के दाग हटा दिए जाएँ और सांवले रंग में थोडा सा पानी मिला दिया जाए तो शकल सूरत भी अच्छी थी - राजेश खन्ना से मिलती जुलती   | बहुत थोडा सा - कभी कभी हकलाते भी थे | उनकी छत्तीसगढ़ी पर, जो कि अपने आप में एक आंचलिक बोली थी, पर भी स्थानीय प्रभाव था | उनकी छत्तीसगढ़ी को शब्दावली में 'मोका' (मुझे) , 'तोका' ( तुम्हें ) जैसे शब्द थे | पत्नी क़ी अकस्मात् मृत्यु से व्यास थोड़े से खिन्न रहते  थे | उन्होंने व्यास के घर को ही अपना डेरा बना लिया |
थोडा अजीब नहीं लगता, कि उम्र में वे माँ से छोटे थे , फिर भी रिश्ते में माँ से बड़े थे ! हिंदुस्तान में ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी | देखा जाए तो रिश्ते में मैं भी तो रंजना का मामा लगता था , पर उनसे उम्र में छोटा था |

जब व्यास कभी घुठिया जाते थे तो  साइकिल शत्रुघ्न काका के पास होती थी | तब कपडे धोने का सोडा मिलता था - लोग उसे बायसठ  कहते थे | ठीक वैसे ही , जैसे लोग लोकल ट्रेन को 'चार डबिया' कहते थे, क्योंकि उसमें चार डिब्बे होते थे | एक दिन शत्रुघ्न काका ने व्यास की साइकिल को बायसठ से धो डाला |

और बबलू ने उनका नाम बायसठ रख डाला | बायसठ  से धुलने के बाद जैसे साइकिल चमचमा गयी  , ठीक वैसे ही ये नाम भी चमक उठा  | पता नहीं क्यों, ये नाम इतना लोकप्रिय हो गया कि बरसों लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे |

वैसे नाम में क्या रखा है | उनके खुशमिजाज स्वभाव से एक फायदा यह हुआ कि व्यास का सदमा, उनकी मायूसी काफी हद तक दूर हो गयी | दोनों ही हमउम्र नौजवान थे और कुछ हद  तक फिल्मों के शौकीन थे |
हालाँकि उनके साथ लक्ष्मी भैया रहते थे, जो अक्सर उनके किस्से सुनाया करते थे |

उन दिनों लोग फोटो - फोटो स्टुडियो   में खिंचाया करते थे | श्वेत-श्याम फोटो का ज़माना था | फोटो खींचने के पहले फोटोग्राफर पूछ लिया करता था ," कितनी कॉपी  चाहिए ?"

पासपोर्ट फोटो की लोग चार, आठ या सोलह फोटो मांगते थे | उतनी संख्या  में फोटो बनाकर थमा देने के बाद फोटोग्राफर का कार्य संपन्न हो जाता था | फोटो लेते समय आपके पास एक मौका और होता था | अगर आपको अपना चौखटा पसंद आया तो आप चार या आठ फोटो और बनाने का आर्डर दे सकते थे | उतनी और प्रतियाँ बनाने के बाद फोटो स्टुडियो वाले उस फोटो के 'निगेटिव' का क्या करते थे ? कुछ 'स्टुडियो' वाले - जैसे कला स्टुडियो वाला, उसे चार छह महीने, या साल भर तक सम्हाल के रखता था - ताकि इस बीच आपको और प्रतियों की जरुरत पड़े तो आप बिना फोटो खिंचवाए बना सकें | इस तरह उसका धंधा भी चलता था और आपका भी काम सस्ते में निपट जाता था | कुछ -"कौन सरदर्द मोल ले " कहकर उन निगेटिव को कचरे के डिब्बे में फेंक देते थे | वे क्या करते थे , यह निर्णय नितांत उनका हुआ करता था | बुद्धिमानी इसी में होती थी, और बुद्धिमान लोग वही किया करते थे, कि फोटो लेते समय वे फोटो की नेगेटिव भी मांग लेते थे , ताकि भविष्य में किसी भी स्टुडियो से फोटो बनवा सकें | शुरू में तो फोटोग्राफर सहर्ष मुफ्त ही  वो निगेटिव दे देते थे |
फिर जब बुद्धिमानों की संख्या बढ़ने लगी और अप्रत्यक्ष रूप से फोटोग्राफरों के धंधे को चोट पहुँचने लगी तो उन्होंने निगेटिव के भी चवन्नी या अठन्नी मांगने शुरू कर दिए |

अब काम की तलाश में आवेदन करते समय सब से जरुरी चीज फोटो ही थी | शत्रुघ्न काका ने सुपेला में किसी स्टुडियो में फोटो खिचाई और फिर एक सामान्य बुद्धिमान की तरह उन्होंने निगेटिव की मांग कर डाली | अब वे गाँव से नए नए आये थे | फोटो लेने और पैसे देने के बाद वे इंतज़ार करते खड़े रहे |

"अब क्या चाहिए ?" दाढ़ी वाले दक्षिण भारतीय फोटोग्राफर ने पूछा |
"नेगोटी " शत्रुघ्न काका ने जवाब दिया |
"लंगोटी ?" दक्षिण भारतीय फोटोग्राफर कुछ समझा नहीं ," हम कपड़ा नाहीं बेचता |"
"कपड़ा नहीं चाहिए|" शत्रुघ्न काका बोले ,"निगोटी  दे दो |"
कुल गर्मागर्म आधा घंटा लग गया शत्रुघ्न काका को अपनी बात समझा पाने में |

**************

श्यामलाल ने माँ के पाँव छुए और कहा ,"दीदी , मैं जा रहा हूँ |"

माँ कुछ नहीं बोली | चुपचाप खड़े रही | श्यामलाल ने फिर कहा ," दीदी , मैं भी मांढर  ही जा रहा हूँ | "

रामलाल मामा की कुछ दिन पूर्व मांढर के सीमेंट फैक्टरी में लोको मेकेनिक  की नौकरी लगी थी | वो भिलाई छोड़कर, यानी सुपेला के घर को छोड़कर जा चुके थे | "मैं भी" से श्यामलाल का यही तात्पर्य था |

श्याम लाल ने फिर पूछा," चलूँ दीदी ? लोकल   का टाइम हो रहा है  | कल से नौकरी पकड़नी है |"

कई दिनों से मामा लोग नौकरी की तलाश कर रहे थे | नौकरी मिली भी तो कहाँ - मांढर में, जहाँ सीमेंट कारपोरेशन का  नया सीमेंट प्लांट खुला था | जब तक वे नौकरी खोज रहे थे , माँ उनकी नौकरी को लेकर दुखी रहती थी | अब जब उन्हें नौकरी मिली, तो माँ .....|

"तीजा पोरा में आओगे न ? " माँ के मुंह से यही बोल फूटा |

"कैसी बात कर रहे तो दीदी ? तीजा , पोरा या राखी तो बहुत दूर है | तो क्या मैं त्यौहार में ही आऊंगा ? चार डबिया तो सीधे चलते रहती है, यहाँ से मांढर  | है कि नहीं ? मैं तो जब माँ करेगा आते रहूँगा | क्यों टुल्लू ?"

*********

नन्हा मनोज और उसकी माँ ही आखिरी मेहमान बचे थे - घर में | वे दोपहर का खाना खा चुके थे और बाहर बरामदे में बैठे इंतज़ार कर रहे थे | मनोज की माँ बार - बार आभार व्यक्त कर रही थी  कि  वे इतने दिन आराम से रहे और माँ को काफी तकलीफ दी | और माँ कह रही थी कि उसमें तकलीफ कैसे - ये तो उनका कर्तव्य था | यानी बातें काफी औपचारिक दौर से गुजर रही थी |
आकाश में बादल छाये थे और बारिश होने क़ी आशंका थी | फिर भी बरिश तुरंत हो, ऐसा नहीं लग रहा था |

आखिरकार  बलदाऊ आये - माँ के बलदाऊ काका  | हमेश मुस्कुराने वाले और "कैसे टुल्लू , क्या चल रहा है ?" करके बात शुरू करने वाले | माँ ने उन्हें भी 'दो कौर' खाने के लिए आमंत्रित किया | वे भी बोले कि वे भोजन करके आये हैं और पेट में थोड़ी भी जगह नहीं है | यानी बातें फिर एक बार औपचारिक दौर से गुजरीं |

"अच्छा पार्वती | मैं चलूँ |" महिला ने विदाई ली | किसने किसके पाँव छुए , ये तो याद नहीं है - हाँ , इतना याद है कि मनोज अपने माँ की साडी चबाने लगा | साडी चबाता मनोज बड़ा प्यारा लग रहा था |

"देखो इसे | " मनोज की माँ बोली |
"शायद इसके दांत निकल रहे हैं | इसलिए मुंह में खुजली हो रही है | " माँ बोली |

आखिर नन्हे मनोज को लेकर उसकी माँ और बलदाऊ काका पावर हॉउस स्टेशन की ओर चल पड़े |

माँ उन्हें जाते हुए देखते रही | फिर अचानक उन्हें लगा , मैं क्या कर रहा हूँ ? मनोज की स्टाइल में मैं भी माँ की साड़ी चबा रहा था | वह तो बड़ा प्यारा लग   रहा था | मुझे लगा, माँ हँसेगी, पर हुआ कुछ उल्टा |

" हाँ, हाँ | ओर आदतें सीख | " माँ साडी छुड़ाती हुई बोली ,"तू क्या दूध पीता छोटा बच्चा है ?"

झेंपकर में वापिस स्कूटर के घर में चले गया , जहाँ पकडे गए पतंगों के अस्तबल में एक पतंगा बिलकुल हिलडुल नहीं रहा था - शायद मर गया था |

*********

छोटे मनोज और उसकी माँ के जाने के बाद ?
तो अब घर में हम छः भाई बहन ही बचे थे  - माँ रसोई में थी और बाबूजी ? कभी भी आ सकते थे |
'नयी पीढ़ी की मासिक पत्रिका ' - 'नन्दन' कौशल भैया के हाथ में थी  | एक तरफ बेबी और दूसरी तरफ बबलू दोनों उन दो  तस्वीरों को ध्यान से देख रहे थे |

"इस फोटो में इसकी नाक नुकीली है और इसमें  चपटी |" बेबी ने एक गलती और खोजी |
"हाँ, ये तो गलती है |" सामने से शशि देख रही थी |

"चार |" कौशल भैया बोले , "अभी छः और बाकी है |"
मैं भी उन तस्वीरों को देखने की कोशिश कर रहा था और संजीवनी भी | लक्ष्मी भैया ने मुझे बताया था कि गलती खोजना बहुत मुश्किल है | बड़े बड़े लोग गलती नहीं खोज पाते | मैं किसी तरह इधर उधर से उछल उछल कर दोनों तस्वीर देख रहा था | कम से कम एक गलती तो मिल जाए |

 फिर मैंने पढना शुरू किया |
"आप कितने बू बू बुध बुद्ध ..."
"बुद्धिमान ... " शशि दीदी बोली |

"आप कितने बुद्धिमान हैं ....| हू ब हू तस्वीर बनाते समय चित्रकार   ने कुछ गलतियाँ कर दी हैं | कुल दस गलतियाँ | ... दस गलतियाँ खोजने वाला जिन्सन |"

"जिन्सन नहीं जीनियस ...|" बेबी बोली |

"दस गलतियाँ खोजने वाला जीनियस ... सात  से नौ गलतियाँ   खोजने वाला बुद्धिमान ... चार से छः गलतियाँ खोजने वाला - औसत बुद्धि - और चार से कम गलतियाँ खोजने वाला - आप खुद ही फैसला करें उसे क्या कहा जाए ?"

"मन में पढ़ ...|" बबलू भैया झल्लाए |

बहुत मुश्किल था भाई गलतियाँ खोजना - बच्चों के बस का तो हरगिज नहीं था ... |

मैं विचारों में खो गया | अचानक लगा , दो तो तस्वीरें हैं , सगे और गैर -सगों की | कितनी समानता है - एकदम हू बी हू तस्वीरें ... |

 फिर भी अंतर है | और अंतर खोज पाना ?

... शैल निर्विवाद रूप से जीनियस है |

 वो डाकिया और कंपाउंडर .... ?   वो  बुद्धिमान थे |

 वो मोटर साइकिल   वाला - .... शायद औसत बुद्धि ....|

पर कुछ लोग तो ऐसे थे जो सगों और गैर सगों की  उन तस्वीरों में कभी अंतर नहीं कर पाए .... | चार गलतियाँ खोजना तो दूर की बात , अगर वो अंडा भी फोड़ दें तो बहुत बड़ी बात होगी |

ऐसे लोगों को भला आप क्या कहेंगे ?

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(समाप्त)

काल - १९७०-७१
स्थान - भिलाई


शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के ..... - २

ऐसा होना लाजिमी था | कोई आश्चर्य को बात नहीं थी !

शायद मुझे लगा माँ का व्यवहार एकदम बदल गया |
शायद मुझे लगा ....! शायद ...!!
उस दिन के बाद से माँ ने सौंफ की उस ट्रे के बारे में कोई बात नहीं की | ना तो मुझसे और ना ही किसी और से उसका कोई जिक्र किया | घर में मेहमान आते रहे | और वो सौंफ की ट्रे पंखाखड़ में तख़्त के नीचे, तीने की पेटी के ऊपर रखी धूल चाटते रही !

"माँ " दोपहर के समय घर में कोई भी नहीं था | सब विद्यालय गए थे | संजीवनी भी फूफू के साथ व्यास के घर गयी थी | परछी में लगे झूले में झूलते झूलते सो गया | जब आँखें खुली, तो घर में सन्नाटा छाया था |
"माँ" , मैंने एक बार फिर आवाज़ दी | कोई जवाब नहीं |
चलते - चलते मैं बैठक में आया | दरवाजा बंद था और ऊपर की चिटखनी लगी थी | इपर की चिटखनी, जहाँ तक मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता था | मैं केवल अख़बार रखने वाली छोटी टेबल ही सरका सकता था या टीन की  कुर्सी खोल कर दरवाजे पर लगा सकता था | मगर उनके ऊपर भी मैं चढ़ जाऊं और पंजे के बल खड़े भी हो जाऊं तो भी मेरा हाथ ऊपर की चिटखनी तक नहीं पहुँच सकता था |

"माँ", मैं गला फाड़कर चिल्लाया |

कोई आवाज़ नहीं | कोई प्रतिक्रिया नहीं |

अब अकेले, खाली सूने घर में मुझे थोडा डर लगने लगा | कहाँ चले गए सब लोग ? कम से कम माँ तो रहती थी | वो तो मुझे छोड़कर नहीं जाती थी | कहीं ऐसा तो नहीं , माँ मुझसे गुस्सा होकर चले गयी ?

मैं चलते चलते परछी के छोर तक पहुंचा , जहाँ आँगन में जाने का दरवाजा था | मैंने उसे खींच कर देखा , वो भी बंद था |
अब मैं फँस गया | मैं कहीं नहीं जा सकता था | फिर भी  अगर परछी का दरवाजा लगा हो तो माँ या तो बाथरूम में होगी या नहानी में कपडे धो रही होगी | पर मुझे कपडे की छपक छपक तो सुनाई नहीं दी | अगर माँ आँगन में बड़ी बना रही हो तो ,,, पर माँ आंगन में कोई काम करते समय तो परछी का दरवाजा बंद नहीं करती थी |

"माँ, माँ, माँ " मैं चीखा | साथ ही  मैं  परछी का दरवाजा पकड़ कर जोर जोर से हिलाने लगा |

अब मुझे भय के साथ-साथ गुस्सा आने लगा , जो शनैः-शनैः ग्लानि में बदल गया | लगता है , माँ के मन में गुस्सा भरा हुआ है और आज उसने म्ह्झे सजा देने का निश्चय किया है |
"माँ, माँ माँ, ओ माँ , माँ वो , माँ कहाँ हो माँ ? " अब मेरी पुकार ने कुछ कुछ भिखारियों की गुहार का सा रूप ले लिया था | दरवाजा हिलाते हिलाते हाथ दुखने लगा और आंसू निकल आये |

थक कर मैं परछी के पास वाले दरवाजे पर बैठ गया | आंसू बह बह कर सूख गए थे |तब कहीं जाकर मुझे आँगन का दरवाजा खुलने आवाज़ सुनाई दी - या वो मेरा वहम था ? नहीं , ये माँ के क़दमों की आहट ही थी | जैसे किसी प्यासे को पानी नज़र आये ,  मैं  फिर पुकारने लगा ," माँ , माँ |"

परछी का दरवाजा खुला और माँ नज़र आई | मेरी जान में जान तो आई , पर माँ का रौद्र रूप देखकर मैं सहम गया |
"चिल्ला | और जोर से चिल्ला | क्या हो गया ? घर में कोई चोर आया है या साँप घुस गया ? तेरी आवाज़ गुड्डा के घर तक आ रही थी | दो मिनट सब्र  नहीं हो सकता तुझसे   ?  पिछवाड़े में ही तो है गुड्डा का घर ? बड़ी ताकत आ गयी है | दरवाजा चौखट से उखाड़ देगा क्या ?"

उसके अगले ही दिन - दोपहर के समय माँ कपडे धो रही थी | मैं माँ के सामने जाकर खड़ा हो गया |
"क्या है ?" माँ ने पूछा |
"मैं आ गया हूँ |"
"तो ?" माँ ने अनमने ढंग से पूछा |
" तो , आज मुझे नहलाओगी नहीं ?"
"देख नहीं रहा , मैं कपडे धो रही हूँ ?" मैं वहीँ खड़े रहा |
"अब तू बड़ा हो गया है | जा नहानी में जाकर खुद नहा ले |"
मैं वहीँ का वहीँ खड़े रहा |
"जा न ?"
"मुझे नहाना नहीं आता |"
"कुछ नहीं , साबुन लगाओ और पानी डालो | उसके लिए कौन सा भला  पंडित का पोथा पढने की जरुरत है ?"
मैं घिसटते हुए नहानी गया और फिर वापिस आ गया |
"अब क्या हुआ ?"
"साबुन रोशनदान के पास रखा है | मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता |"
माँ झल्ला कर उठी | नहानी के रोशनदान से जाकर बड़ी सी जाली वाली साबुनदानी निकाली और ज़मीन पर पटक दी | फिर वापिस आँगन चले गयी |
साबुन दानी में तीन साबुन रखे थे | हरे रंग की हमाम , गहरे लाल रंग की लाइफबॉय और मोटर साइकिल छाप साबुन की बट्टी |
किससे नहाया जाये ? हरे रंग का हमाम घुल कर छोटा सा रह  गया था | लाल रंग का लाइफबॉय गीला और लिजलिजा लग रहा था | हाँ, मोटर साइकिल छाप साबुन की बट्टी बहुत बड़ी थी | उसे धागे से काटकर आधा किया गया था, फिर भी बहुत बड़ी थी | मैंने उठा कर देखा, पत्थर की तरह भारी थी | बहरहाल, पीले मक्खन की साबुन की बट्टी लेकर मैंने मलना शुरू किया | पहले पाँव ... | ओह, पाँव जलने लगे ....|

"माँ , माँ |" मैं चिल्लाया | पाँव जल रहे हैं |"
पहले तो माँ को लगा मैं बहाने बना रहा हूँ | मैंने तुरंत दो मग पानी उड़ेल दिया | फिर भी पाँव जल रहे थे |
"माँ , मेरे पाँव |"
माँ भागकर आई ," क्या कर रहा था ? कौन सा साबुन लगा रहा था ?"
"मोटर साइकिल छाप |"  मैंने कहा |
"वाह रे टूरा  ! वो तो कपडे धोने का साबुन है |"
अब माँ ने साबुन लगाना चालू किया | लाइफबॉय मेरे चेहरे पर इतनी तेजी से मला की आँख में साबुन चले गया |
"माँ , आँख में साबुन चले गया | आँख जल रही है माँ |"
इस बार माँ ने मेरी गुहार अनसुनी कर दी | पानी  तभी डाला , जब साबुन लगाना ख़तम हुआ |

माँ गुस्सा थी .... शायद ....|

***********

"मेरी बिल्ली बड़ी चिबिल्ली,
घर घर में घुस जाती है |
घूम घूम कर सूंघ सूंघ कर,
सब कुछ चट कर जाती है |"
"हा, हा, हा |' रामनाथ हँसा ,"शाबास | शाबास | बहुत अच्छे | " उसने पहली कक्षा की "बाल भारती" बंद की और कहा ," अब सुनाओ |"
"मेरी बिल्ली बड़ी चिबिल्ली ...घर घर में घुस जाती है ....|"
बिसाहू पास में ही बैठा हुआ था | बरामदे में केवल हम तीन लोग ही बैठे थे| मैं समकोण बनाते हुए खोखले चबूतरे में बैठा था | मेरे बगल में ही बिसाहू बैठा था और रामनाथ कुर्सी पर बैठा था |
"अब ये पढो | "रामनाथ ने दूसरा पन्ना खोला |

ना जाने क्यों, आजकल वह  कविता मुझे अच्छी नहीं लग रही थी |

"बड़ी भली है अम्मा मेरी |
ताज़ा दूध पिलाती है |
मीठे मीठे फल ले लेकर ,
 मुझको रोज़ खिलाती है |"

बिसाहू खुश हो गया ,"किस कक्षा में पढ़ते हो ?"
"मैं शाला थोड़ी जाता हूँ |" मैंने कहा |
रामनाथ ने मेरी बात का अनुमोदन किया ,"अभी स्कूल नहीं जाता | इस  साल जाएगा |" फिर उसने बिसाहू से पूछा, "और आपका काम कैसे चल रहा है ?"

एकदम फस्ट किलास भैया | बिसाहू बोला ,"बड़े मज़े का काम है | क्या है कि  पर छज्जे में बैठे रहो | मशीन नीचे लगी है |"
कितनी बड़ी मशीन है ? " रामनाथ ने पूछा |
"बहुत बड़ी मशीन है |मैं छज्जे पर बैठता हूँ तो नीचे  आदमी चिरई (चिड़िया) जैसे दीखता है | अरे, पत्थर को पूरा चूरा चूरा करके पिसान (आटा ) बना देती है | काम क्या है ? नीचे से सुपरवाइजर चिल्लाएगा  ,"मशीन चालू करो जी | " एक हत्था नीचे करो और दो बटन दबा दो | बटन नीचे मशीन चालू ...| फिर टीने की कुर्सी पर बैठ के सो जाजो ....| फिर नीचे से कोई चिल्लाएगा ,"मशीन बंद कर दो जी ...मशीन बंद कर दो ...| " उठ के बटन दबाओ और फिर सो जाओ | जब तक वो लोग ' डिराम ' (ड्रम)   से चूरा  निकालेंगे , सोते रहो |
फिर बोलेंगे ,"मशीन चालू करो हो .... | फिर से बटन दबा दो ...और सो जाओ | फिर बोलेंगे ,"बंद करो जी ... | बटन दबा के मशीन बंद कर दो | क्या हुआ ? खाने की छुट्टी हो गयी |
खाना खाने जाओ, ताश पत्ती खेलो  | घंटे भर बाद वापिस आ जाओ | दो बार और मशीन चालू बंद करो | दिन ख़तम | साइकिल उठा के घर चलो | ऐसा   आराम गाँव की खेती किसानी में कहाँ भैया ?"

बिसाहू ने कुछ दिन पहले ही सर मुडवाया था | अब उसने गंजे सर पर छोटे छोटे बालों में, जो गर्मी के पसीने से भींग गए थे, हाथ फेरा और सर पर फिर रुमाल बाँध लिया |

जब तक बिसाहू को व्याख्यान जारी था, मुझे पढने से एक तरह से छुट्टी मिल गयी थी | मेरी आँखों के सामने वह कविता घूम रही थी | "बड़ी भली है अम्मा मेरी " - फिर उस दिन माँ को क्या हो गया था , जब संजीवनी और बेबी के नाक कान छिदा रहे थे ?माँ उस दिन  बिलकुल निष्ठुर हो गयी थी | "ताज़ा दूध पिलाती है |" दूध नहीं , चाय - डेरी के दूध की चाय ....| "मीठे मीठे फल ले लेकर ...|" हाँ, केले वाली से केला  या "पूना  का मुसाम्मी  , मुसम्मी माँ मुसम्मी ..." मुसम्मी वाली से मुसम्मी जरुर लेती है , फिर लकड़ी के लाल  हत्थे  वाले रस निकालने वाले से रस निकाल कर देती है | कब ? जब कोई बीमार पड़ता है -तब | हालाँकि रोज़ तो नहीं, पर वो मुसम्मी वाली या केले वाली रोज़ घर के सामने आकर रूकती थी और पूछती थी ," मुसम्मी माँ , मुसम्मी |" या "केला , बाई केला ...|" और माँ मना भी करती थी तो उनसे दो बातें करने के बाद ....|

पर अब जो भी हो - मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा  - माँ मुझसे गुस्सा है | मुझे अभी वो कविता वाली भोली माँ नहीं, तलवार वाली दुर्गा माँ दिख रही थी | क्या किया जाए ?

तभी मेरी तन्द्रा भंग हुई | अचानक रामनाथ ने एक सवाल  पूछ डाला ," बी. एस. पी . या नाम ( नॉन) बी एस पी . ?"
बिसाहू के चेहरे की मुस्कान अचानक काफूर हो गयी ," नाम बी. एस. पी. भैया | अपनी किस्मत कहाँ ? भैया से इसीलिए बात करने आया हूँ | पर आजकल बी एस पी में मेट्रिक पास ही ले रहे हैं | आठवीं पास को कौन पूछता है ?"

यानी भिलाई में उन दिनों नॉन बी एस पी हो एक अभिशाप से कम नहीं था | ऐसा अभिशाप, जो मेरे मन में वर्षों बैठा रहा | कई बार अभी भी कचोटता है |

********

"कुकड़ूकू ....|  कुकड़ूकू ....  |"
सोगा के घर की मुर्गियां माँ क सर दर्द थी - जबरदस्त सर दर्द ...| वो मुर्गियां सोगा के घर तो रहती थी नहीं, क्योंकि सोगा के घर में कोई वनस्पति उगती नहीं थी | वो अक्सर बीच के हैज़ की बाद लांघकर हमारे घर आ जाया करती थी और क्यारी में जो कुछ भी उगा रहता, चोच मारकर, पांवों से खोदकर सब कुछ बराबर कर देती  | माँ की बड़ी इच्छा थी कि घर में धनिया , मेथी या पालक लगाए, पर ये मुर्गियां कुछ उगने दें तब न  |  मैं कई बार मुर्गियों के पीछे भागता, पर मुर्गियां तो मुर्गियां, चूजे भी बड़े फुर्तीले होते | कभी हाथ में आते ही नहीं थे |

"कुकड़ूकू ....|  कुकड़ूकू ....  |"

"सोगा , अपनी मुर्गियों को समझा दे ...| " एक दिन तैश में आकर मैंने सोगा को धमकाया |
"क्या समझा दूँ ?" मगिंदर बीच में कूद पडा |
मैं निरुत्तर हो गया | भैसों के तबेले में बीन बजाने का कोई फायदा तो था नहीं |
गाय हो तो उसको रोकने के लिए घर के चारों और घेरा होता है | भला मुर्गियों को कैसे रोका जाए ? वो तो हैज के नीचे नीचे से अपना शारीर सिकोड़ कर छोटी सी जगह से भी अन्दर घुस जाते थे | और घुसते थे तो सीधे क्यारियों में धावा बोलते थे | अब उनकी हिम्मत यहाँ तक बढ़ गयी थी कि  वे घर के सामने से होते हुए पीछे के घेरे में घुस  जाया करते थे | नज़र चुकी नहीं, कि वे घेरे में नज़र आते थे |

और एक दिन उन्हें भगाते -भगाते मैंने  देखा, घेरे में एक झाड़ी के पास दो मुर्गी के अंडे पड़े हुए हैं |
उन अण्डों को उठाकर मैं सीधे माँ के पास लेकर गया |

"अंडे ? कहाँ से मिले तुझे ?" माँ ने पूछा |
"सोगा की मुर्गियों ने घेरे में दिए हैं |"
"उनकी मुर्गियाँ घेरे में ? तूने भगाया  नहीं ? "
"भगा रहा था, तभी ये अंडे दिखे | वापिस  कर दें ?"
"वापिस ? " माँ भड़क उठी ,"दिन भर क्यारियों का सत्यानाश करते रहते हैं तो कुछ नहीं | अपने घर में तो बबूल की एक झाडी नहीं लगाईं है  और हमारे घर की क्यारियों को चारागाह बना रखा है | अंडा इधर ला |"
मैंने डरते डरते अंडा माँ को दिया | कहीं गुस्से में मुझे फेंक कर मत मारे |
माँ ने एक गिलास लिया , उसमें पहला और फिर दूसरा अंडा फोड़ा | फिर दूध डाला और एक चम्मच शक्कर | फिर मुझे देकर कहा , "पी जा इसे |"

मैं कभी माँ की और देखता, कभी गिलास की ओर |
माँ गुस्से से बोली," देख क्या रहा है ? आँख बंद कर और गटागट चुपचाप पी जा |"
मैंने माँ की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया | आँखें बंद की और 'गट - गट ' की आवाज़ निकालते पी गया |
माँ बोली," अब जा और सोगा को बोलकर आ | तेरी मुर्गी ने हमारी क्यारियां उजाड़ी | धनिये के बीज का चारा बनाकर खा गयी | उससे  जो अंडा पैदा हुआ , मैंने दूध में घोंटकर पी
लिया | जा, अभी बोलकर आ |"
इस बार बार माँ की आज्ञा का मैं पालन नहीं कर पाया | सन्देश ही इतना बड़ा और भरी भरकम  था कि घर से बाहर निकलते - निकलते मैं सब कुछ भूल चुका था |
माँ क्या अभी भी मुझसे गुस्सा है ? शायद हाँ | शायद नहीं ...|

*******

दुर्गा माँ के एक हाथ में तलवार थी | दुर्गा माँ शेर पर सवार थी | शेर कि आँखें चमकीली और दांत बड़े बड़े और नुकीले थे | उसके पंजे से  उस राक्षस का खून टपक रहा था जिस पर उसने अभी अभी वर किया था और जिसकी छाती पर दुर्गा माँ का त्रिशूल टिका हुआ था |

उन दिनों मंदिर जाना कम से कम बच्चों के लिए एक तीर्थ से कम नहीं था | शाला नंबर आठ के पीछे एक बहुत बड़ा रामलीला मैदान था इतना बड़ा कि उसका और छोर ही दिखाई नहीं देता था | न तो कोई चाहर दीवारी थी और न ही उच्चार माध्यमिक कन्या शाला उन दिनों बनी थी | उस मैदान में राम लीला होती थी और रावण जलाया जाता था | कभी - कभार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ क़ी शाखा लगती थी , कभी पहलवानों क़ी कुश्तियाँ होती थी | उस मैदान के दूसरी ओर था - मंदिर | उन दिनों केवल दो ही मंदिर थे - हनुमान जी का ओर दुर्गा माता का | मंदिर जाने के लिए कई बार माताओं का पूरा दल निकलता था ओर बच्चे साथ हो लेते थे | जैसे, दीपक, गिरीश , छोटा ओर अनिल क़ी माँ | ओर फिर उनके साथ बच्चे - उछलते - कूदते  हुए | कभी दौड़कर बहुत आगे निकल जाते , फिर वापिस दौड़कर अपने दल में मिल जाते |

"या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण ...... नमस्तस्यै  नमो नमः ...|"

कान का कच्चा बटुक पंडित मन्त्र पढ़े जा रहा था | जिन्हें प्रार्थना आती थी, वे साथ में गा रहे थे | जिन्हें नहीं आती थी, वे हाथ जोड़े आँख मूंदकर खड़े हुए थे | मैं बीच बीच में आँखें खोलकर देखता तो निगाहें सीधे दुर्गा माँ से टकराती ओर मुझे तुरंत उस भीड़ में कहीं खड़ी माँ का ख्याल आ जाता | भीड़ इतनी ज्यादा थी कि माँ मुझे दिखाई नहीं दे रही थी | इतना पक्का था कि दुर्गा माँ जरुर माँ को मेरी बेअदबी के बारे में बताएंगी | ये ख्याल आते ही मैं आँखें ओर कस कर मूंद लेता | माँ वैसे ही गुस्सा  है |

आरती अंततः समाप्त हुई | अब बच्चे प्रसाद के लिए टूट पड़े | प्रसाद क्या होता था | नारियल के गीर को जितना महीन से महीन कटा जा सके - वो टुकड़ा ओर फिर एक चम्मच नारियल के पानी का ही बनाया चरणामृत | जो भी हो -  बच्चे प्रसाद के लिए झूम ज्जाते थे ओर बच्चों कि धक्का मुक्की , बेताबी से बटुक का पारा चढ़ जाता था |
ऊपर से दीपक क़ी धृष्टता  देखो | एक बार, दो बार नहीं, तीन बार उसने प्रसाद लिया | धक्का मुक्की में अक्सर मैं पीछे चले जाता था | ओर जब भी मेरा नंबर आता, या तो मोटा गिरीश  या दीपक एक बार फिर हाजिर हो जाता |

जब मेरा नंबर आया तो बटुक बौखला गया |
"कितने बार प्रसाद लोगे बचुआ ?" उसने मेरा गला पकड़ लिया |
मैं हडबडा गया  ये सच था क़ी मैं बहुत देर से कोशिश कर रहा था, पर प्रसाद मुझे मिला नहीं था | ऊपर से ये इलज़ाम, वो भी गला पकद्पर ...|

...और माँ एक सिंहनी क़ी तरह गरज उठी |
"पंडित जी, छोडो उसको | " माँ आक्रोश से चिल्लाई | बटुक ने सहम कर मेरा गला छोड़ दिया |
"क्या हुआ , मुझे बताओ |"
"क.. कुछ नहीं माता जी | बच्चे तो शरारत करते हैं ...|

माँ क्या अभी भी मुझसे गुस्सा है ? शायद हाँ | शायद नहीं ...|

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"पोशम्पा भई पोशम्पा |
डाक खिलौने क्या क्या ?
सौ रुपये की घडी चुराई |
अब तो चोर पकड़ा गया |"

ज़रा इन पंक्तियों पर गौर फरमाइए  |
तब लोग डाक से भी खिलौने मंगाते थे |
तब घडी काफी महँगी आती थी | उन दिनों के सौ रूपये की कीमत  का अंदाजा है आपको  ? थोडा तो लग ही गया होगा , जब मैंने कहा - पोस्टकार्ड पांच पैसा ,अंतर्देशीय दस पैसा और लिफाफा पंद्रह पैसे ... नमक - आधा किलो का पेकेट - दस पैसे, माचिस पांच पैसे आदि आदि | उस हिसाब से घडी की कीमत, वह भी टेबल घडी - जो ठण्ड में तेज और गर्मियों में सुस्त हो जाती थी - पेंडुलम के न होने के बावजूद ... जिसका टिर्र्रर्र्र का अलार्म पूरी तरह से चाभी एँठने के बाद भी बमुश्किल आधा मिनट बजता था - उसकी कीमत सौ रूपये थी |
और तब चोरों को घड़ियाँ चुराने में शर्म नहीं आती थी | महँगी चीज़ जो ठहरी | और तो और, उन दिनों चोर पकडे भी जाते थे |
हालाँकि चोरों को पकड़ना तो ये महज लड़कियों क खेल नहीं था , जिसमे दो लड़कियां दोनों हाथ पकड़कर हवा में वह फंदा उठाये कड़ी रहती थी | बाकी लड़कियां ये पंक्तियाँ   लयबद्ध दोहराते हुए उस हाथ के फंदे के नीचे से गुजराती थी | जैसे ही ये पंक्तियाँ ख़तम होती, हवलदार लड़कियां फंदा नीचे करती थी और कोई ना कोई लड़की उसमें फँस जाती थी |
पर अभी बात चोरों की नहीं, घडी की हो रही थी | और मैं और कौशल भैया घडी खरीदने सुपेला बाज़ार में व्येंकेटेश्वर टाकीज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे की नीलामी की दुकान के पास खड़े थे |
**************
हे भगवान्, वहां तो अंजर पंजर सामान ज़मीन पर बिखरा पड़ा था | टेबल लैम्प , स्टोव , फूलदानी   , मच्छरदानी, एक नहीं , पांच पांच रेडियो , चाकू का सेट , खिलौने की बन्दूक ,मछली पकड़ने का कांटा , छोटा गलीचा, पानी का जग ....|
"तुझे अलार्म घडी दिखी ? वो रही ....|" कौशल भैया ने कहा |
लाइन से तीन चार अलार्म घडी दिख रही थी | और ये चमत्कार से कम नहीं था कि सभी घड़ियाँ समान समय बता रही थी और चल भी रही थी |
"ज़रा उस अंकल से टाइम पूछना ...|" कौशल ने मुझे चुपके से हिदायत दी |
आप पास के खड़े लोगों में कम के हाथ में ही कलाई घडी थी | कलाई घडी तो और भी महँगी आती थी - शायद चार सौ या पांच सौ  रूपये में | कौशल भैया ने वह अंकल इस लिए चुना शायद कि वे थोड़े उदार नज़र आ रहे थे |
"टाइम कितना हुआ अंकल ?" मैंने पास जाकर पूछा |

" चार रुपया एक .. चार रुपया दो ......| " नीलामी वाला तन्मयता और लगन से  अपना   काम कर रहा था | वो लकड़ी की मोड़ने वाली आराम कुर्सी - आराम कुर्सी ही कहते हैं न उसे, जिसमें पीठ टिकाने और बैठने की जगह पर पटिया की जगह ढीला, मजबूत कपड़ा लगा होता था - हवा में उठाकर एलान किये जा रहा था |
"साढ़े चार रुपया ...|" पीछे से किसी ने आवाज़ दी |
"साढ़े चार रुपया एक , साढ़े चार रुपया दो ... |" नीलामी वाले ने बोली का अनुमोदन किया |

"अंकल टाइम ...| " मैंने दोहराया |
"अरे हाँ | टाइम ? पौने बारह ...|"
"पौने बारह ...| " मैंने कौशल भैया   के पास जाकर दोहराया |
कौशल भैया ने अलार्म  घड़ियों  पर निगाह डाली ,"तब तो ठीक ही हैं ...| तीनों की तीनों ...|"

अब मुझे नीलामी का दस्तूर समझ में आने लगा था | तो नीलामी वाला एक एक सामन उठाता , कोई सस्ता दाम बताता और फिर खड़े लोगो में से कोई एक उसका दाम बढ़ा देता |
नीलामी वाला कई बार " एक" और उससे भी अनेकों बार " दो" दोहराता | लोग दम साढ़े उसके तीन बोलने इंतज़ार करते | जैसे ही वह तीन कहता , बोली लगाने वाला  फूल कर कुप्पा हो जाता और लपककर सामान उठा लेता | नीलामी वाले को याद दिलाना पड़ता क़ि उसे पैसे भी देना है |

खिलौने की बन्दूक देखकर मेरा मन ललचा रहा था | बबलू भैया मेले से एक बन्दूक खरीद कर लाये थे , जिसका प्लास्टिक का हत्था निकालकर पीछे लकड़ी का हत्था लगा दिया गया था | ये खिलौने की बन्दूक उससे कहीं ज्यादा बड़ी और अच्छी भी थी | नीलामी पांच पैसे से शुरू हुई | यह तो दौलत की दुकान से भी ज्यादा ललचाने वाली थी | नीलामी वाले ने उसमें दीवाली  की टिकली लगाकर कर फोड़ा भी और दुनाली से ढेर सारा धुआं निकलने लगा | और धुआं   बंद होते होते वह दुनाली बन्दूक चवन्नी में बिक भी गयी | मेरा दिल बैठ गया |
आखिकार नीलामी वाले ने एक अलार्म घडी उठाई | उसमें बारह बजे का अलार्म लगाया और जोर से चिल्लाया ," बारह बज गए |" देखते ही देखते घडी का अलार्म बजने लगा |

सरदारजी के चेहरे पर मुस्कराहट  गयी |
"एक रुपया ...|" पहला आदमी चिल्लाया |
"बस एक रुपया ?"  नीलामी वाला बोला,"सरकार का माल है |"
"पांच रुपया ..| " दूसरा  आदमी चिल्लाया |
" पाँच रुपया एक ... |"
"सात रुपया ...|"
"दस रुपया...|"
देखते ही देखते घडी का दाम बढ़ने लगा | ऐसे लगा क़ि रमा दीदी क़ी तरह घडी क़ी जरुरत सभी को है |
फिर भी तीस रूपये पार करने के बाद बोली लगाने वालों की गुहार मद्धिम पड़ गयी | अब नीलामी वाले को "पैंतीस रुपया एक, पैतीस रुपया दो, पैंतीस रुपया दो, ..." और ये दो दो कई बार दोहराना पड़ता | कौशल भैया फिर भी चुपचाप ही खड़े थे | एक बोली भी नहीं लगाईं उन्होंने | मैंने उनके पैरों में एक दो बार कोहनी से मारा भी |
"चुप ....|" उन्होंने मुझे संकेत किया |
किसी तरह घिसटते घिसटते कीमत ने पचास पार किया और अन्ठावन रूपये में घडी बिक गयी | अन्ठावन - साथ से भी दो कम ....|
नीलामी वाले ने दूसरी घडी उठाई ,"यह घडी पहली घडी की जुड़वाँ बहन है |"
"पांच रुपया ...." एक ग्राहक चिल्लाया |
"पच्चीस  रुपया ....|"
 सीधे बीस रूपये की छलांग देखकर बाकी ग्राहक तो एक तरफ, खुद एक बारगी तो नीलामी वाला सकते में आ गया ,"हाँ भाई, खरीदना है ना ? मजाक तो नहीं है ? पच्चीस रूपया एक ... पच्चीस रुपया दो ...|"
इतनी लम्बी छलांग देखकर लोगों को भी सम्हलने में समय लगा |
पहली घडी तो अन्ठावन रूपये में बिकी थी | दूसरी घडी सिर्फ पच्चीस रूपये में ? कौशल भैया चुप क्यों बैठे है ? क्या उन्हें रमा दीदी के लिए घडी नहीं खरीदनी है ?
"सत्ताईस रुपया ....|" अचानक मेरे मुंह से निकल गया -वो भी जोर से ....| इतने जोर से कि सबने स्पष्ट सुन लिया ... | नीलामी वाले ने भी |
इस बार सन्न रहने की बारी कौशल भैया क़ी थी | किसी तरह दांत पीसकर वे बडबडाये   ,"गधे ...."

ज़ाहिर  था, वे खुश तो नहीं हुए - पर पैसे तो उनके ही पास थे |
"सत्ताइस रुपया एक ... सत्ताइस  रुपया दो ... |" कीमत सत्ताइस रूपये पर क्या अटकी  , मेरी सांस ही अटक  गयी | दिल जोर जोर से धड़क रहा था  | और ग्राहकों के विपरीत  मैं भगवान् से दुसरी ही प्रार्थना कर रहा था ,"हे भगवान्, मुझे इस मुसीबत से निकाल ...|"
"तीस रुपया ...|" भगवान् ने मेरी सुन ली और मेरी जान में जान आई |
दूसरी घडी ने पचपन रूपये में दम तोड़ दिया | कौशल भैया को क्या हो गया ? एक बोली भी नहीं लगाईं उन्होंने तो ...|
दूसरी घडी की कीमत और भी कम होने के बाद नीलामी वाले ने  वस्तु ही बदल दिया | तीसरी नीलामी घडी वहीँ की वहीँ पड़ी थी और नीलामी वाले ने ट्रांसिस्टर रडियो उठा लिया ,"हाँ तो साहेबान |ये पाच बंद का ट्रांजिस्टर  है ...| चार बैटरी  वाला ...|"
"बैटरी फ़ोकट में ?" एक ग्राहक चिल्लाया |
"हाँ ,  सरकारी   माल है | बिल्ली छाप लाल लाल चार एवरेडी बैटरी फ़ोकट में ....|"
"रेडियो  सीलोन लगाओ |" एक ग्राहक चिल्लाया |
ट्रांजिस्टर तो बिक गया | उसके बाद हवा भरने वाला स्टोव भी बिक गया | भीड़ अब छंटने लगी थी | चूँकि दोपहर और गरम हो चली थी, नए ग्राहक भी इक्का दुक्का ही जुड़ रहे थे |
नीलामी वाले की आवाज़ में भी थकावट झलकने लगी थी |
"लगता है , घडी आज नहीं मिलेगी |" कौशल भैया अपने आप से बोले |
मैं उलझन में पड़ गया | घडी तो तभी मिलेगी , जब आप बोली लगायेंगे | बगैर मुंह खोले तो कुछ मिलने से रहा |
अंततः नीलामी में ढील आते देख नीलामी वाले ने फिर एक बार  अलार्म  घडी उठा ली |
अब ग्राहक भी कम हो गए थे | कीमत को पच्चीस पार करने में ही सदियाँ गुजर गयी और तभी वह हुआ , जिसकी इतनी देर से मैं प्रतीक्षा कर रहा था |
"तीस रुपया |" कौशल भैया ने आवाज़ लगाईं |
"तीस रुपया एक... तीस रुपया दो ....|"
"बत्तीस रूपया ...|" एक और ग्रह चिल्लाया |
"पैतीस रुपया |" नीलामी वाले को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर कौशल भैया ने आवाज़ लगाईं |
"हाँ तो साहेबान, पैतीस रूपया एक .. पैतीस रुपया दो ...|"
"सैतीस रुपया |" वही ग्राहक , जिसने  बत्तीस की आवाज़ लगाईं थी , नीलामी वाले के दो तीन  बार   दोहराने के बाद बोला |
"चालीस रुपया |" कौशल भैया छूटते ही हुंकार उठे |
अब इस घुडदौड में दो ही घोड़े रह गए थे और अड़तालीस रूपये में घडी हमारी झोली में आ गयी थी ....|

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शायद उस दिन मैं काफी कुछ सीख गया होता - अलार्म घडी क़ी सम्बन्ध में | अगर मैं भी वहाँ बैठा होता तो | मैं केवल आवाज़ सुन सकता था | आँखों के सामने तो एक मोटा पर्दा था | यानी मैं परदे के पीछे खड़ा था | दिल आज भी उसी तेज़ी से धड़क रहा था , जैसे उस थीं अचानक धड़का था |

कौशल भैया रमा को समझाए जा रहे थे ,"दो तरह क़ी चाभी है | देखो, इस चाभी के बगल में घंटी क़ी फोटो बनी है | मतलब ये अलार्म क़ी चाभी है | और ये दूसरी चाभी घडी क़ी चाभी है |"
रमा ने पूछा," ये तीर का निशान कैसा है ?"
"जिस दिशा में तीर का निशाना है, उसी दिशा में चाभी घुमाना है ...| और ये टाइम ठीक करने क़ी घुंडी है ...| कई बार गर्मी में घडी धीमे चलने लगेगी औत ठण्ड में तेज़, तो ये जो सबसे नीचे नुक्की है, उसे इधर घुमाओ तो घडी तेज़ चलने लगेगी और उधर ...|"
अचानक परदे के उस पार से माँ पर्दा हटाकर तेज़ी से आई और मुझसे टकरा गयी | मेरे हाथ में कस कर पकड़ी ट्रे छूटकर गिरते - गिरते बची ...|
"तू यहाँ क्या कर रहा है ?" वह बौखला गयी ...| फिर उसकी नज़र मेरे हाथ पर पड़ी जिसमें वो लॉटरी  वाली ट्रे, वो बेल बूटे वाली खूबसूरत सी ट्रे थी | माँ समझ गयी सब  बात   |
"ला, मैं इसकी धूल साफ़ कर दूँ |"

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"और क्या - क्या मिलता है भाई नीलामी में ?" रमा काफी उत्साहित थी |
" काफी कुछ | टेबल लेम्प, अटैची, रेडियो ...|"
"रेडियो  भी ?"
"हाँ | ट्रांजिस्टर रेडियो | तीन बैंड वाला चार बैंड वाला ...|"
"...अगली बार ट्रांजिस्टर ले आना भाई ...|"

मेरे दिल पर रखा एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया था |
रमा जब घर से निकली तो उसकी ख़ुशी जरुर दो गुनी हो गयी होगी | वो तीन गुनी होती , अगर मैं झिझकता नहीं ...| माँ गेट पर कड़ी उसे जाते हुए देख रही थी | मैंने माँ क़ी साडी खिंची ," माँ, माँ ...|"
"क्या ?"
"क्यों न हम सिगरेटदानी भी रमा को दे दें ? हमारे घर में कोई सिगरेट नहीं पीता | लेकिन भांटों तो  ....|"
"पहले क्यों नहीं याद दिलाया ?" फिर माँ ने वहीँ से हांक लगाईं ,"रमा , रमा हो ...|"

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गाँव से जो मेहमान आते थे , वे सारे के सारे नौकरी क़ी तलाश में नहीं आते थे | कुछ सामाजिक जिम्मेदारियाँ भी होती थी | जैसे कि - शादी |
हाँ, काफी लोग अपने जवान लड़के या लड़कियों की शादी लगाने आया करते थे | ऐसा नहीं था कि बाबूजी को इन मामलों के लिए उनके जैसे फुर्सत हो | ज्यादा से ज्यादा वे राय दे सकते थे और उनकी राय काफी मायने रखती थी, क्योंकि वे काफी पढ़े लिखे थे और महाविद्यालय के प्राचार्य थे | गाँव से निकलकर रायपुर या बिलासपुर आना आसान था, क्योंकि वहां हमारे काफी रिश्तेदार थे | पर भिलाई में आकर भाग्य आजमाना, बसना और अपनी एक छवि बनाना बहुत बड़ी बात थी | उन दिनों छत्तीसगढ़ियों के लिए भिलाई एक तरह से एक अजूबे से कम नहीं था , जहाँ दैत्याकार चिमनियाँ धुआं उगलती थी | नल खोलो तो पानी आता था | सडकों पर बिजली के खम्बों  पर   बत्तियां लगी थी | मैत्री बाग़ में बड़ा सा चिड़ियाघर था |बड़ी बात तो ये थी कि वहाँ लोग छत्तीसगढ़ी बोल या समझ नहीं पाते थे |

दूसरी बात , बाबूजी राय दें या न दें, दोनों पक्षों के लिए मिलने के लिए, भिलाई और हमारा घर काफी सुगम जान पड़ता था | अक्सर  ऐसा होता था कि कोई धोती कुरता  पहने छत्तीसगढ़ी बोलता देहाती रह भटक जाता था तो लोग उसके हाथ का तुड़ा मुड़ा पुर्जा पढ़े बिना ही उसे हमारे घर ले आते थे | उसकी बांछें खिल जाती थी, क्योंकि यही तो उनकी मंजिल होती थी |

"माँ , ये कौन हैं ?" मैंने  माँ से चुपके से पूछा |
"गंगाराम |"
"गंगा राम ? यानी कि गंगा रा म ?"
"हाँ|"
मैं गुनगुनाने लगा ,"एक खबर आई सुनो एक खबर आई | होने वाली है , गंगा राम की सगाई |"

माँ वैसे ही जब तब अनपेक्षित काम बढ़ जाने से झल्ला  जाती थी | अब उसे शरारत सूझी |
"तू और जोर  से नहीं गा सकता ?"
"और जोर से ?"मैंने गला फाड़ा ,"एक खबर आई ...|"
"अरे , मैंने गला फाड़ने को नहीं कहा | जा, रंधनीखड़ (किचन ) से बाहर निकल और बैठक  में गा ...|"
बैठक में ही वो सज्जन बैठे थे | मैंने परछी से गाना शुरू किया ,"एक खबर आई सुनो एक खबर आई | क्या  ?"
फिर तेज क़दमों से बैठक से गुजरा ,"होने वाली है गंगा राम की सगाई |"

मैंने इस बात का ख्याल रखा कि ये लाइन बैठक से बाहर निकलने के पहले पूरी हो जाए और मैं उन सज्जन को ना देखूं |
जब उनकी और से कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी  , तो मुझे थोड़ी सी निराशा जरुर हुई | कहीं ऐसा तो नहीं क़ी उन्होंने कुछ सुना ही ना हो | थोड़ी देर बार मैंने धड़कते दिल को थामा और फिर यही गाना गाते हुए , इस बार थोडा धीरे क़दमों से अन्दर घुसा |
इस बार मिसाइल ने लक्ष्य को भेद ही दिया |

"सुनना बेटा जरा ....|"
इसका ही तो मुझे इंतज़ार था | मैं थोडा ठिठक गया |
" तुम तो अच्छा गाते हो | ये गाना कहाँ से सीखा ?"
"रेडियो  से |" मैंने जवाब दिया |
"अच्छा ? और भी  गाना आता होगा तुमको ?"
"हाँ,, आता तो है ...|"
"तो एक काम करो बेटा | ये गाना मत गाना | कोई और गाना गाओ तो अच्छा रहेगा |"
बड़ों से जुबान लड़ाना बुरी बात है | सो मैंने पूछा तो नहीं कि यह गाना नहीं तो क्यों नहीं ? क्या खराबी है इस गाने में ?

मैंने एक शरीफ बच्चे की तरह सर हिलाया और  उनकी बात मान ली |
अब शादी ब्याह का मामला भला एक मुलाकात में तो तय होता नहीं | कई बार अलग अलग लोगों से मिलना पड़ता है |उनका लड़का हुलास दुर्ग के पालीटेक्निक में पढ़ रहा था | लक्ष्मी भैया के अनुसार वो थोडा नादान था |
"सुनो क्या बोल रहा था ? अगर पाकिस्तान से लड़ाई हुई तो ये पुलिस वाले लड़ने जायेंगे ... | हा .. हा.. हा... | पुलिस और सेना में फर्क नहीं मालूम ... | हां ... ह़ा ... हा... |" लक्ष्मी भैया की हँसी रुक नहीं रही थी |
फर्क तो मुझे भी नहीं मालूम था , पर लक्ष्मी भैया का साथ देने मैं भी हँसा , "हा.., हा.. ,हा...|"

एक शाम को मैं सड़क से घूम- घाम के आया और बरामदे में मोंगरे के पास बैठकर झूम झूम के गाने लगा |
"वो परी कहाँ से लाऊं ? तेरी दुल्हन जिसे बनाऊं ...| ... ये गंगाराम क़ी समझ में ना आये ... |"

अन्दर से बाबूजी ने आवाज़ लगाईं , "टुल्लू , बेटा ... |"
मैं अन्दर गया और भौंचक रह गया | बाबूजी के साथ वही सज्जन - माँ के गंगाराम काका - बैठे मुस्कुरा रहे थे |
"इन्हें जानते हो ? नहीं जानते ? चलो पाँव छुओ और बाहर दूर जाकर खेलो ....|"
मन ही मन मुझे हँसी आ रही थी | मन में आया कि उन्हें बोलूं कि वो 'पुराना' गाना नहीं, वादे के मुताबिक दूसरा गाना गा रहा था | और जो गा रहा था , वह महज़ संयोग ही था ....
संयोग , और कुछ भी नहीं  - ईमान से ....|

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"चारू चन्द्र की चंचल किरणे , खेल रही थी जल थल में ...|"
अपनी कुटिया में , ज़मीन पर गद्दा बिछाए, मच्छरदानी लगाए, कौशल भैया बैठे थे | भिलाई विद्यालय से आकर, वे सीधा वहीँ चले जाते थे | घर में लोग जब ज्यादा हो जाते, तो शांति की तलाश में मैं वहीँ चले जाता |  मैं वहाँ गया, तो उन्होंने मुझे बुला लिया |

पुस्तक के ऊपर लिखा था, "मधु संचय"|

"चारू याने साफ़  ...|" फिर अचानक उनकी नज़र मेरे पाँव पर पड़ी ,"तेरे पाँव साफ़ हैं ?"
"खेल कर आने के बाद मैंने पाँव तो धोये थे |" मैं कुछ  समझा नहीं |
 "ठीक है, दिखा जरा ...|"
मैंने अपने पांव दिखाए |
"बाहर ही नहीं, घर में भी धूल रहती है |"
"माँ झाड़ू तो लगाती है ...|"
"झाड़ू क्या दिन भर लगाती है ? खिड़की दरवाजे  तो दिन भर खुले  रहते  हैं  बिस्तर में घुसने के पहले पाँव झाड़ लेना चाहिए ...|"
मैं अपराधी भाव से पांव मच्छरदानी के बाहर निकालकर झाड़ने लगा |

"पाँव ऐसे साफ़ होना चाहिए, जैसे दर्पण ...|"
मैं काफी देर तक तलुआ झाड़ते रहा ...|
"चेहरा दिख रहा है ?"
"नहीं |" मैं अभी भी पांव झाड़ रहा था |
"चल , ठीक है | अब पांव अन्दर कर ले ...| तो चारू यानी साफ, चन्द्र याने चाँद, चंचल यानी ... मतलब उछल कूद मचाने वाली ...| किरणे यानी ... |" फिर उन्हें लगा , मानो मैं बोर हो रहा हूँ | वो बोले, "बाहर जाकर देख | चन्द्रमा निकला है या नहीं ? "

मैंने कुटिया के बाहर जाकर देखा, बड़ा स, गोल चन्द्रमा आकाश पर मुस्करा रहा था |
" हाँ निकला तो है |" मैंने कहा |
"वैसे ये कविता थोड़ी मुश्किल है ... | चलो , दूसरी कविता पढ़ते हैं ...| " उन्होंने पन्ने उलटे और एक और कविता निकाली ,"मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों | देखो, कृष्ण जी जब छोटे
थे , तो एक दिन वो अपनी माँ यशोदा से जिद करने लगे - माँ मुझे तो चन्द्रमा ही चाहिए ...|"
"पर चन्द्रमा तो ऊपर आकाश में होता है ...|"
"तो यशोदा ने मनाने की कोशिश की , पर कृष्ण जी ने जिद पकड़ ली | तब यशोदा ने एक थाली में पानी भरा तो चन्द्रमा   की परछाईं उस पर पड़ने लगी | तब यशोदा मैया बोली,
लल्ला, यह है चन्द्रमा | कृष्ण जी ने हाथ से उसे पकड़ने की कोशिश की | चन्द्रमा की परछाई हिलने लगी | यशोदा बोली, लल्ला, ये चाँद तुझसे डर रहा है ....|"
मैं चुपचाप सब सुन रहा था |
"क्या सोच रहे हो ?"
"ट्रांजिस्टर लेने कब चलेंगे ?" मैंने पूछा |

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व्यास का गुस्सा बड़ा ही खतरनाक था भाई |
अक्सर ऐसा होता कि परछी पर दरी बिछाकर वे लक्ष्मी भैया को पढाते थे | कई बार में दूर से उन्हें देखता था | सच तो ये था कि मैं देखना नहीं चाहता था | पढ़ाते पढ़ाते किसी न किसी बात वे लक्ष्मी भैया भड़कते रहते थे | काफी कष्टप्रद था यह देखना, क्योंकि लक्ष्मी भैया ऐसे थे जिनसे मैं कोई भी बात कभी भी पूछ सकता था | वे जवाब भी सोच समझ कर मुझे अच्छे से समझाकर देते थे | कोई उन्हें डांटे , यह  मैं  देख नहीं सकता था | पर कर भी क्या सकता था ? बैठक में तो बाबूजी किसी मेहमान के साथ बैठे बातें कर रहे हैं | रात हो गयी है और सब लोग घर चले गए हैं - इस लिए बहार जाकर खेल भी नहीं सकता |  पंखाखड में शशि दीदी एटलस  से नक्शा ट्रेस कर रही है | रसोई घर में माँ खाना बना रही है | कहाँ जाऊं ? वहां खड़े रहना मज़बूरी थी |

"तुझसे से ये भी नहीं बनता ,ढपोर शंख, गोबर ...|" और गुस्से में व्यास ने लक्ष्मी भैया को तड़ाक से एक झापड़ जड़ दिया |
उसकी गूंज इतनी थी कि बाबूजी बैठक से उठकर चले आये |
"क्या बात है व्यास ? क्यों मार रहे हो ?"
" नहीं मामा जी | कुछ नहीं ...|"
"मैंने झापड़ की आवाज़ सुनी |"
"अरे नहीं मामा | यहाँ मच्छड बैठा था | उसको मारा | क्यों लक्ष्मी ?" उन्होंने लक्ष्मी भैया से पूछा |
सकपकाए चेहरे से लक्ष्मी ने आज्ञाकारी की तरह सर हिलाया |
"ठीक है | मच्छर दानी लगाकर उसके अन्दर बैठो |" जाते - जाते बाबूजी बोले ," पर उसे मारो मत |"

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थोड़े दिनों पहले ही तो मैं कला स्टूडियो आया था | मेरे बाल काफी बड़े बड़े हो गए थे और मुझे सरदारों की तरह जूड़ा बनाना पड़ता था | झालर उतरवाने के पहले रामलाल मामा को पता नहीं क्या सुझा ,"टुल्लू क़ी एक फोटो खिंचवा लेते हैं ...|"
कला स्टूडियो वाले ने मेरे हाथ में प्लास्टिक के फुल पकड़ा दिए और मुझे एक लंबी सी बेंच पर, जिसमें बड़े बड़े फूलों वाली चादर बिछी थी, बैठा दिया | अगल बगल की   दो बड़ी बड़ी लाइटें जला दी | इतनी तेज रौशनी थी कि मेरा सर गरम हो गया |  एक बड़े से कैमरे में , जिस पर चादर बिछी थी , फोटोग्राफर ने शुतुरमुर्ग क़ी तरह अपना सर घुसा लिया और  फिर कहा,"मुन्ना इधर देखो ....| हुर्र ...."

चिड़िया विडिया तो कुछ निकली नहीं, मेरी फोटो जरुर खिंच गयी  | जिसे लकड़ी के छोटे फ्रेम में मढ़ा कर बैठक में टांग दिया गया ....|

उन्हें तो कोई "इधर देखो ...हुर्र वगैरह कहने वाला नहीं था | उस दिन मुझे लगा था कि परदे के सामने बैठने के लिए  इतनी बड़ी बेंच रखने क़ी क्या जरुरत थी ? जब उनकी फोटो खींच कर आई तो लगा क़ी वो बेंच छोटी पड़ गयी है और एक लड़की को तो खड़ा होना पड़ गया है |

शशि दीदी , शकुन, शशि दीदी की कुछ अन्य सहेलियाँ जिनमें शैल भी शामिल थी , हाँ बातूनी शैल भी उस फोटो में थी |
पता नहीं, उन दिनों शायद दाँत निकाल कर हँसना लड़कियों के लिए बेशर्मी मानी जाती थी | सब केवल मुस्कुरा रहे थे |
उन दिनों फोटो किसी प्रयोजन के लिए खिंचवाई जाती थी | फोटोग्राफी महँगी जो थी | उद्देश्य कुछ भी हो सकते थे | यादें संजोने से लेकर शादी ब्याह लगाने तक ...|

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तो नीलामी में  खरीदे ट्रांजिस्टर को लेकर कौशल और मैं रमा के घर गए | कौशल भाई ने नया नया स्कूटर सीखा था | उन्हें पसंद नहीं  था कि कोई स्कूटर पर सामने खड़े हो | सो
मुझे पीछे ही बैठना पड़ा |शाम करीब करीब रात में बदल गयी थी | फिर भी रमा के घर में अँधेरा छाया था |
"ये है ट्रांजिस्टर | पांच बैंड वाला |"
"पांच बैंड वाला ?"
"हाँ पाँच बैंड वाला | सेल से भी चलेगा और बिजली से भी | सेल डालना हो तो चार सेल डालो | या तो बिजली से जोड़ दो | चलाकर देखें ?"
"लाईट नहीं है |" रंजना बोली |
"अरे | क्या हुआ ? कब से लाईट गयी है ?"
"सुबह से | 'पूछताछ दफ्तर' में इसके पापा रिपोर्ट करने गए थे तो दफ्तर खुला ही नहीं था | उसके बाद पता नहीं | 'मूड' होगा तो फिर गए होंगे | रमा शिकायत के स्वर में बोली |
"एक   मिनट देखूं जरा ?"
कौशल भैया टीन क़ी कुर्सी पर चढ़ गए | 'फ्यूज़ बॉक्स' खोलकर एक फ्यूज़ निकाला |
"अरे, ये तो 'फ्यूज़' उड़ा हुआ है | हीटर वगैरह तो नहीं जलाया था ? एक वायर देना जरा |"
वायर के अन्दर से कौशल भैया ने एक पतला सा तार निकाला और घिस कर एक दम महीन कर दिया |
"जब तक इलेक्ट्रिशियन आता है , ऐसे ही काम चलाओ | अँधेरे में कहाँ बैठे रहोगे ?"
और अगले ही पल कमरे में उजाला हो गया ...|
कौशल भैया ने ट्रांजिस्टर जोड़ा, बैंड बदले | काँटा इधर उधर घुमाया |
सब कुछ काफी अच्छा था | ट्रांजिस्टर ने रमा के घर क़ी काफी लम्बी सेवा क़ी | गाना सुनाया ,  भांटो  को चुनाव के नतीजे सुनाये | जसदेव सिंह क़ी आवाज़ में कमेंट्री सुनाई | १९७२-७३ में इंग्लॅण्ड पर भारत को जीत दिलाई |
फिर एक सुखद सपने क़ी तरह उसका भी स्वाभाविक अंत हुआ | १९७४ में इंग्लैण्ड के खिलाफ भारत क़ी टीम ४२ रन पर लुढ़क गयी | कई भावुक खेल प्रेमियों ने इमारतों से कूदकर जान दे दी | भांटो ने ट्रांजिस्टर ज़मीन पर दे मारा |

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बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के .... -१


शक की दवा तो हाकिम लुकमान के पास भी नहीं थी | मैं तो साढ़े पांच साल का बच्चा था !
चंद्राकर किराना स्टोर के सामने की सड़क से चलते जाओ तो वह सेक्टर दो की एवेन्यू बी से मिल जाती थी | भिलाई के भूगोल की परिभाषा के अनुसार 'एवेन्यू' याने लम्बी सड़क जो सेक्टर के आर पार जाती हो | खैर, तो जहाँ पर मार्केट की वह सड़क एवेन्यू बी से मिलती थी, वहाँ एक बस का स्टॉप था | किस बस के लिए - मुझे नहीं मालूम - क्योंकि भिलाई शहर में बसें या तो स्कूल की होती थी या भिलाई इस्पात संयंत्र की | जो भी हो - सायेदान जरुर गर्मी से राहत देता था | और वहीँ तो उसके ही एक स्तम्भ पर लाल डिब्बा टंगा था |
सर्दी, गर्मी, बरसात - सब सहते बरसों से टंगा था और बरसों तक टंगे रहा |
" मैं डालूं चिट्ठी ?" मैंने पूछा |
"तेरा हाथ नहीं पहुंचेगा |" बेबी ने कहा |
फिर पता नहीं, उसे क्या सूझा , उसने मुझे चिट्ठी पकड़ाई और हवा में उठा लिया |
"वो जो सामने का ढक्कन है ...?"
"कौन सा ढक्कन ?" पता नहीं, बेबी क्या कह रही थी? ढक्कन तो डब्बे के ऊपर लगा होता है |
"अरे वही जो हिल रहा है | उसे उठा और चिट्ठी अन्दर डाल दे |"
अच्छा , सामने की झिर्री पर एक जंग खाया ढक्कन झूल रहा था | मैंने उसे उठाया तो दरार स्पष्ट नज़र आई | मैंने झिर्री में चिट्ठी अन्दर डाल दी |
बेबी ने मुझे नीचे उतारा | फिर डिब्बे को इधर उधर हिलाया |
"ऐसे क्यों हिला रहे हो ? " मैंने पूछा |
"ताकि चिट्ठी कहीं डिब्बे में फँस न जाए |"

देखा - शक महाशय झटपट, बिना बताये मेरे नन्हे से दिमाग में घुस गए |

"ये भी तो हो सकता है कि फूफा ने चिट्ठी डालने के बाद डिब्बा नहीं हिलाया हो ?" मैंने पूछा |
"पता नहीं, पर उनके बाद जो चिट्ठी डालने गया होगा , उसने तो डिब्बा हिलाया होगा | कुछ नहीं, ये पोस्टमैन बड़े बदमाश होते हैं |"

लाल डिब्बे को देखते हुए मैं सोचने लगा - पोस्टमैन बड़े बदमाश होते हैं | लाल डिब्बे के नीचे लगे एक दरवाजे पर एक ताला नज़र आया |
"हो सकता है, कोई ताला खोलकर चिट्ठी निकाल कर ले गया हो ?"
"कैसे ले जाएगा ? चाभी तो पोस्टमैन के पास होती है |"

शक अब विश्वास में बदलने लगा था कि पोस्टमैन बड़े ही बदमाश होते हैं | फिर भी, ये तो जानना जरुरी था कि कहाँ के पोस्टमैन ने ये काम किया |

" तो फूफा ने घुठिया के लाल डिब्बे में चिट्ठी डाली होगी | फिर ?"
" घुठिया का पोस्टमैन उसे लेकर बैतालपुर आया होगा |"
"फिर ?"
"बैतालपुर के डाकघर में डाकिये ने मुहर मारी होगी , फिर उसे गाड़ी में भरकर बिलासपुर लाया होगा |"
"बिलासपुर ? फिर ?"
"बिलासपुर के पोस्टमैन ने उसे डाक वाली रेलगाड़ी में डाला होगा |"
"फिर ? क्या रेलगाड़ी में भी पोस्टमैन बैठा होगा ?"
"फिर दुर्ग में जब गाड़ी रुकी होगी तो दुर्ग का पोस्टमैन उसे भिलाई के डाकघर लाया होगा | वहाँ फिर डाकिये ने एक और मुहर मारी होगी |"
"फिर वहाँ से एक पोस्टमैन हमारे घर लेकर आया होगा ...|" मैंने जोड़ा |
"वही तो नहीं लाया | यही तो गड़बड़ है | अब इतने सारे पोस्टमैन में से किसने बदमाशी क़ी , क्या मालूम ?"
एक डाकिये से दूसरा डाकिया ....दूसरे से तीसरा ...

मैं फिर सोचने लगा | थोड़े दिन पहले , मैंने चंदामामा से एक शब्द सीखा था - 'डाकू' | अब मुझे 'डाकू' और 'डाकिया' भाई भाई लगने लगे |

तभी डाक की गाडी आ गयी | आनन् फानन में लोग एक कतार में खड़े हो गए | कौन पहले आया था, कौन नहीं - पता नहीं | किसी को उतनी जल्दी भी नहीं थी - सिवाय मेरे | डाक वैन की खिड़की खुली और खाकी कपडा पहने पोस्टमैन ने खोल के अन्दर कछुए की तरह अपना सर बाहर निकाला ,"मनी ऑर्डर फोरम ख़तम हो गया भाई | "
ऐसा लगा, जैसे कोई बम गिरा हो | लाइन में लगे कई लोग कानाफूसी करने लगे | कुछ लोग तो वापिस जाने लगे |
"क्या ? तो हम लोग पैसे कैसे भेजेंगे ?" लाइन में खड़े एक सज्जन ने हुँकार भरी |
"बड़े पोस्ट ऑफिस में ही ख़तम हो गया , साहब |" पोस्टमैन ने लाचारी भरे स्वर में तटस्थता का पुट मिलाते हुए कहा |
"मालूम है न , राखी के दिन हैं | सरकार को ज्यादा मनी ऑर्डर फोरम छापना चाहिए |"
"आप ठीक कहते हैं | " पोस्टमैन ने हाँ में हाँ मिलाई | उसी में उसकी भलाई थी | वह मामले को तूल पकड़ने से बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा था |
"तो हम लोग पैसे कैसे भेजें ? लिफाफे में डालकर ?"
"ऐसा मत कीजिये साहब | पोस्टमैन लोग चोर होते हैं | " एक दूसरे सज्जन ने उसे शांत करने की कोशिश की |

मैं उसकी बात से सहमत था |
तैश में आने के बजाय डाक गाड़ी के अन्दर बैठे पोस्टमैन ने बात अनसुनी करना ही बेहतर समझा ," साहब, लिफ़ाफ़े में पैसे भेजना गैर कानूनी है |"
"तो क्या करें - हम लोग ?" सज्जन ने अपनी आस्तीन चढ़ाई |
डाकिया कुछ देर सोचता रहा , फिर मरी आवाज़ में उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया ,"इंतज़ार |"
उस ज़माने में लोग चिट्ठियां लिखा करते थे | वही तो संचार का सबसे सुलभ साधन था | डाकघर दूर दूर होते थे | जैसे, एक बड़ा डाकघर सेक्टर एक में था | सबके लिए, हर एक दिन डाकघर जाना संभव भी नहीं था | इसलिए, वैसी डाक गाड़ी सप्ताह में तीन दिन शाम को विभिन्न स्थानों पर आती - ताकि लोग डाक सामग्री खरीद सकें ...|

,,, और अपने दिल की भड़ास निकाल सकें |

जैसी कि आशंका थी - बेबी पोस्टमैन से लड़ पड़ी |
"नहीं बेबी .... | " आखिर उसे बेबी का नाम कैसे पता चला ? " नहीं, ऐसा मत सोचो | पोस्टमैन लोग जान बूझकर कोई चिट्ठी गायब नहीं करते |"
"तो ऐसा कैसे हो सकता है ?" बेबी बोली ," जो चिट्ठी सेक्टर ५ के पते मर भेजी, वो तीन दिन पहले मिल गयी | और उसी व्यक्ति ने ने उसी दिन उसी समय जो चिट्ठी सेक्टर दो के पते पर भेजी , वो आ तक नहीं मिली | सरे आम बदमाशी है ये |"
"चिट्ठी में क्या राखी आने वाली थी ?"
"हाँ |" बेबी बोली |
"अच्छा , ये बोलो | सेक्टर पांच में उनके ... मेरा मतलब है ... सगे लोग रहते हैं ?"
"हाँ | तो फिर ?"
"यही तो बात है बेबी |" पोस्टमैन ने मानो गुत्थी सुलझा ली ," एक बात कहूँ - राखी के दिनों में सगों क़ी चिट्ठी समय पर पहुँच जाती है | बाकि रिश्तेदारों को थोडा इंतज़ार करना पड़ता है ...बस थोडा सा | " बात टालने के बाद बात पलटते हुए उसने कहा ," और कुछ लेना है आपको ?"
वापिस आते आते मेरे मन में सवाल घूम रहा था - सगा या साग - 'सगे' शब्द से मेरे आँखों के सामने 'साग' क़ी तस्वीर बन रही थी | बेबी से मैंने पूछा ," साग खाने वाले लोग सगे होते हैं क्या ? साग तो हम लोग भी ....|"
बेबी अलग भुनभुना रही थी ," पोस्टमैन को भला कैसे मालूम चलेगा कि चिट्ठी सगे क़ी है या ...| जब तक वो खोल के ना पढ़े ...| ,,, और फूफू तो बाबूजी क़ी सगी बहन है ...!

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कई दिनों बाद, उस घटना के कई महीनों बाद मुझे उसका नाम पता चला - जब मुझे प्राथमिक शाला क्रमांक आठ में दाखिला मिल गया था |

"वो ? वो तो दौलत है | चलना है उसके पास ?" दीपक मुझे करीब करीब खींचते हुए शाला नंबर आठ के तार के पास ले गया | तार, जो कि शाला नंबर आठ की चहर-दीवारी निर्धारित करती थी | उसे लांघना वर्जित था |

तार के बाहर , उस पार, दौलत मुस्कुरा रहा था - मानो लड़कों को लक्ष्मण रेखा लांघने के लिए आमंत्रित कर रहा हो , या ललकार रहा हो | दौलत तो हरदम मुस्कुराते रहता था , पर ना जाने क्यों, उस दिन की घटना के बाद , मुझे लगता था कि मुझे देखकर उसकी मुस्कान और चौड़ी हो जाती थी |


मगर वह घटना तो तब हुई थी जब मैं शाला जाता भी नहीं था | जब भी माँ मुझे कोई छोटी मोटी चीज, नमक या माचिस लेने बाज़ार भेजती, मैं हमेशा तालाब के किनारे से जाता जो कि शाला के दक्षिणी छोर पर पड़ता था | जहाँ दौलत अपना ठेला लगाकर सुबह से शाम तक शाला के बच्चों क़ी प्रतीक्षा करते रहता था | सांवला सा चेरा, पतला दुबला शरीर , दो अंगुल क़ी दाढ़ी जो घनी नहीं हुई थी | उसके ठेले में ढेर साड़ी चीजें होती थी | चना, मटर, रेवड़ी और मूंगफली तो हर ठेले वाले के पास होती थी | उसके पास और कुछ भी था | रंग बिरंगी प्लास्टिक क़ी छोटी छोटी चकरी, तुतरू, सीटी - इतना ही नहीं, मैंने लूडो का बोर्ड, रेल का इंजन भी उसके पास देखा |कौन खरीदता होगा उन्हें ? वे सब तो महंगे आते हैं |

जल्दी ही वह राज खुल गया |

उस दिन मेरी लॉटरी निकल गयी |
सचमुच ? ... हाँ सच्ची मुच |

जब भी मैं बाज़ार से माँ के लिए कभी नमक , कभी माचिस तो कभी जीरा लेकर जाता , तो मेरी जेब में कभी पाँच तो कभी दस पैसे होते | तब मेरे पाँव दौलत के ठेले के पास से गुजरते समय अक्सर धीमे हो जाते मैं हर बार असमंजस में रहता कि कांच के जार में बंद चूरन क़ी खट्टी मीठी गोलियां लूँ या पीपरमेंट क़ी संतरे के फांक के आकर वाली नारंगी चूसनी | दोनों ही पाँच पैसे क़ी पाँच मिलती थी | फिर माँ का गुस्से से भरा चेहरा ख्याल आते ही मैं आगे बढ़ जाता था |

उस दिन दो विद्यार्थी उसके पास खड़े थे |
"आज लॉटरी निकलेगी |" एक लड़का बोला ,"लूडो का चार नंबर है न ?"
अब मैं थोड़ी दूरी पर खड़ा होकर देखने लगा |
एक लड़के ने पाँच पैसे का चौकोर सिक्का दौलत को पकडाया |
दौलत ने उसे रंग बिरंगे कागज क़ी चौकोर पुडिया पकडाई | उस लड़के ने धीरे से पुडिया फाड़ी | उसका दोस्त नज़रें गडाए देख रहा था उसने नंबर देखा ,"बारह ...|" उसके मुंह से निकला , "धत तेरे क़ी .... |"
दौलत उसे प्लास्टिक क़ी एक हरे रंग क़ी गुडिया पकड़ा रहा था |
गुडिया उसके दोस्त ने ली | छोटी सी गुडिया के पाँव के पास सीटी लगी थी | उसके दोस्त ने सीटी बजाई ,"सीं , सूँ , सीं |"
"तू रख ले बे | " उसका मन खिन्न हो गया था ," लीला को दे देना | खुश हो जाएगी | मेरी तो कोई बहन नहीं है |"
उसने चूरन क़ी पुडिया से चूरन मुंह में उड़ेल लिया |

उसकी हो ना हो - मेरी तो बहनें थी | बड़ी भी और छोटी भी | पर मेरा मन रेल के इंजन के लिए ललचा गया | राग बिरंगा, छोटा सा, चाभी वाला इंजन ...| उसका नंबर सात था ...|

"लॉटरी कितने क़ी है ?" मैंने पूछा | हालाँकि उस लड़के को मैंने पाँच पैसे देते देखा था, फिर भी, कहीं वो ठग ना ले }
"पंजी |" दौलत ने कहा |
मैंने उसे पाँच का सिक्का पकडाया | उसने मुझे वैसे ही कागज़ क़ी एक चौकोर पुडिया पकड़ाई | धड़कते दिल से मैंने पुडिया खोली |
"आठ नंबर |" मैंने थूक निगलते हुए कहा | वह नंबर मुझे आज तक याद है |
आठ नंबर कुछ खिलौनों के और पिपरमेंट के जार के पीछे छिपा था | दौलत ने मुझे चमचमाती हुई पीतल क़ी सौफ क़ी ट्रे पकड़ा दी |
एक पल तो मैं सकपका गया | इतनी सुन्दर ट्रे - किनारे किनारे हरे और लाल रंग के बेल बूटे बने हुए थे | बीच में गोल - गोल, कुछ नक्काशी उकेरी गयी थी | घर के सौफ के ट्रे से वह छोटी जरुर थी , पर उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत थी |
सिर्फ पाँच पैसे में .... लॉटरी इसी का तो नाम है ....|

पर अब मुझे पसीना आने लगा | जितना सोचता, घबराहट उतनी ही बढती जाती | | अगर माँ ने पूछा, बेटा, मैंने तुझे दस पैसे देकर भेजा था | नमक तो पाँच पैसे का था | बाकी पाँच पैसे कहाँ हैं , तो फिर क्या जवाब दूंगा ? नहीं, इस ट्रे को छुपाना फ़िज़ूल है | माँ से कह दूंगा, मैंने पाँच पैसे में ख़रीदा है | पर माँ ने पूछा कि भला पाँच पैसे में कहाँ से ट्रे मिलती है - तो फिर ?

"माँ, आज मेरी लॉटरी निकली है |" मैंने धडकते दिल से आखिरकार सच ही कहा - पूर्ण सत्य था यह - लेशमात्र भी मिलावट नहीं |

"लॉटरी ? मतलब ? " माँ कुछ समझी नहीं |
मैंने माँ को चमचमाती ट्रे दिखाई ,"पाँच पैसे क़ी लॉटरी |"

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हर सड़क में मकानों की आमने - सामने दो कतारें होती थी ( कौन सी बड़ी बात है ?) | एक कतार छोटी और एक बड़ी | पीछे वाली सड़क की छोटी कतार की पीठ, अगली सड़क के छोटी कतार की पीठ से मिलती थी | और इस तरह दो छोटी कतारों की बगल की खाली जगह एक मैदान का रूप धारण कर लेती थी | सब रुसी लोगों के बुद्धि की उपज थी | उन्होंने मैदान के लिए जगह तो दी, पर उससे ज्यादा कुछ नहीं | बाकी लोगों की कल्पना शक्ति पर छोड़ दिया | चाहे फुटबाल खेलो या होंकी | क्रिकेट खेलो या कबड्डी | साइकिल सीखो या पतंग उडाओ | नाव चलाओ या होली जलाओ |
परिणाम ? इक्कीस और बाइस सड़क के लोगों में स्वाभाविक भाईचारा था | रोज सुबह शाम मिलते थे, हंसते खेलते थे, गालियाँ देते , गाना गाते , लड़ाई करते , मजाक उड़ाते | उसके मुकाबले सड़क तेईस, जी हाँ , बाइस सड़क की अगली ही सड़क, एक परदेश की तरह लगती थी |

शैल का घर तेइस सड़क के कोने में था | और शैल शशि दीदी की पक्की सहेली थी | उन दिनों लड़कियों का चश्मा पहनना एक अभिशाप माना जाता था | समझा जाता था कि इससे सुन्दरता घटती है और लड़कियों क़ी सुन्दरता एक अनिवार्य गुण माना जाता था | शैल चश्मा जरुर पहनती थी , वो भी मोटे फ्रेम का चश्मा | पर उसने उसके बातूनीपन पर कोई असर नहीं पडा था |चपड़ - चपड़ बातें करना, छेड़ना उसकी आदत में शुमार था | और इसी बात से मुझे घबराहट होती थी | कई बार वह ऐसी बात पूछ बैठती , जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं होता |फिर या तो शशि दीदी मेरी मदद करती, या मैं धरती फटने का इंतज़ार करता |

राखी का दिन था वो | जो स्कूल जाते थे उनकी छुट्टी थी | जो नहीं जाते थे , उनकी तो ....खैर |
"चल, घूम के आते हैं | " शशि दीदी ने मुझसे कहा |
"पैदल या साइकिल में ? " मैंने पूछा |उनकी लेडीज़ साइकिल में सामने डंडा तो था नहीं , इसलिए पीछे करियर में ही बैठने को मिलता |
"आलसी राम, ज्यादा दूर नहीं , पास में ही जाना है |"
जब हम पुलिया पार करके तेइस सड़क में मुड़े तो मेरा माथा ठनका |
"शैल के घर जा रहे हैं ? " मैंने पूछा |
" हाँ | "
मैं ठिठक गया |
"क्यों ? क्या हुआ ?"
"कुछ नहीं, मुझे नहीं जाना |"
"अरे , चल | " शशि दीदी ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा ,"क्या हुआ ? तुझे क्या करना है ? बस, चुपचाप खड़े रहना |"
वो मुझे चुपचाप खड़े रहने दे तब न | कोई चुपचाप खड़े रहे - ये उसे फूटी आँखों नहीं सुहाता था | उसकी दुनिया में, हर किसी को हर वक्त बोलना चाहिए, चाहे कोई सुनने वाला हो या नहीं | जो भी हो, मैं एक अनुशासित सिपाही की तरह शून्य की ओर निहारते उलटी गिनती गिनते शांत भाव से खड़ा था |
"इतनी सारी राखी ? " उसने पूछ ही लिया |
मेरे दोनों हाथ राखी से भरे हुए थे | अब उन दिनों बड़ी - बड़ी फूल वाली राखियाँ हुआ करती थी | एक से बढ़कर एक, डिजाइन वाली | जब राखियाँ बड़ी हों और हाथ छोटे हों तो जाहिर है , हाथ राखियों से भर जायेंगे | और जब एक हाथ भर जाएँ तो दूसरा हाथ ...|

"तेरी कितनी बहनें हैं ?" भौहें सिकोड़ कर उसने पूछा |
मैंने मन में गिनती शुरू क़ी, "बेबी एक , शशि दो , शकुन तीन , शांता चार , रमा ... फिर मुझे कुछ सूझा | मैंने पहले दाहिना हाथ सामने किया , फिर बांया हाथ | तात्पर्य यह कि गिन लो - जितनी राखी , उतनी बहनें |

"अच्छा ? इतनी सारी बहनें ? तू तो किस्मत वाला है रे | जब तुझे मार पड़ती होगी तो ये बहनें तुझे बचाती होंगी |"
मुझे उम्मीद तो थी कि शशि दीदी मुझे बचाएंगी इस बातूनी अफलातून से , पर वो तो बस मुस्कुरा रही थी |
"और जब तू बड़ा होगा तो फिर तुझे इनको बचाना पड़ेगा | सब क़ी सब तेरी सगी बहनें हैं ?"

"हाँ |" मुझे क्या पता था, सगी याने क्या ? मैंने सोचा , जो साग बना सके वो सगी | साग तो सभी बना सकते हैं - संजीवनी भी सीख जाएगी |
"नहीं , नहीं |" शशि ने तुरंत प्रतिवाद किया ,"नहीं रे, इसे सगी का मतलब नहीं मालूम |"
शैल क़ी मुस्कान और चौड़ी हो गयी | खैर, अब मेरे मन में गुडगुड होने लगी , सगी का मतलब क्या ? कौन सगी है और क्यों ? जो नहीं है, तो क्यों नहीं ? वह सवाल का कीड़ा, जो उस दिन बेबी की डाकिया से लड़ाई के बाद मेरे दिमाग में घुसा था, , अचानक जागकर कुलबुलाने लगा |

"मेरी कितनी सगी बहनें हैं ? " आते समय मैंने पूछ ही लिया |
"तीन | " शशि दीदी ने जवाब दिया |
"कौन ? आप , शकुन और ...."
"नहीं, शकुन नहीं |"
"क्या ? क्यों ? " मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा | शकुन ने भी तो मुझे वी ही राखी बंधी थी, जैसे सबने | ठीक है, रमा और शांता हम लोगों के घर में नहीं रहते , शायद वो सगे नहीं हों | पर शकुन ...|
"सगी मतलब क्या ?"
अब शशि दीदी सोच में पड़ गयी | कैसे समझाया जाये .....|
"तुझे कैसे बताऊँ ? एक तरह से सोच कि जिनके माँ और बाबूजी एक ही हों | वो सगा |"
"पर कैसे पता चलेगा , कि ...शकुन तो ..."
"शकुन बाबूजी को क्या कहती है ? " शशि दीदी झल्ला सी गयी |
"मामा "
"और तू ?"
"मैं ? बाबूजी |"
"और मैं ?"
"बाबूजी |"
"और बेबी ?"
"बाबूजी ....|"

****************-

शैल के घर क़ी घटना मेरे दिमाग के किवाड़ खोल दिए | इसका मतलब हमारे घर में जो लोग हैं, सब के सब सगे नहीं हैं | वो तो एक सामान्य सदस्य की तरह रहते हैं | न तो कभी उनके साथ कोई भेदभाव हुआ, न उन लोगों ने कभी हमारे साथ भेदभाव किया | सब तो एक साथ प्यार से मिलजुल कर रहते थे | इतना ही नहीं, कितने लोग आते थे, कुछ दिन रहते थे और फिर चले जाते थे |कुछ लोग थोडा रुकते थे, कुछ लोग ज्यादा |

मुन्ना के घर में उसके दो चाचा लोग रहते थे , पर वे आँगन में मिटटी क़ी कुटिया में रहते थे | कौशल भैय भी तो आँगन में अपने लकड़ी के कमरे में ही रहते हैं | जबकि व्यास शकुन और लक्ष्मी भैया घर में रहते हैं |

जब व्यास सेक्टर ५ चले गए, तो लक्ष्मी भैया भी उनके साथ ही चले गए | फिर भी, वे अक्सर आते रहते थे - खास कर रविवार के दिन ,"मामी , सुपेला बाज़ार से क्या क्या लाना हैं ?" और वो एक छोटा कागज़ और पेन्सिल लेकर बैठ जाते | जब तक उनके लिए चाय गरम होती, माँ बताते रहती , "आलू ? उस दिन कौशल लाया था | यह सप्ताह भर चल जायेगा |"
कभी कभी वे कौशल या रामलाल या श्यामलाल को लेकर सुपेला बाज़ार जाते |
पर अचानक उनका आना जाना कम तो नहीं, पर अनियमित होने लगा | पता नहीं क्यों ? अक्सर छुट्टी के दिन वो अपने गाँव घुठिया भी जाने लगे | तब सुपेला बाज़ार की ज़िम्मेदारी कौशल निभाते |
तभी कुछ लोग और रायपुर से भिलाई रहने के लिया आये | उनका घर सेक्टर दो में था, पर दूसरे छोर में | पर तब जीवन की एकरसता को एक नया आयाम मिल गया |

************-

"चलो तो भाई .... चलो तो बेटा ....|" पिताजी कौशल भैया से बोले ,"चलो तुमको रमा का घर दिखा दूँ , फिर अगले बार खाने पर बुलाने के लिए तुम ही जाना ....|"
"सबको खाने के लिए बुलाना ..| सब ...|" माँ कुछ बोल रही थी कि बाबूजी ने उनकी बात बीच में ही काट दी ,"हाँ , हाँ ...| सबको बुलाऊंगा | पर ...| " उनको कुछ सूझा नहीं ,"उसको घर में भी तो ... | " उन स्वर कुछ अस्पष्ट सा था |
मैंने बाबूजी को स्कूटर की किक मारते देखा तो सड़क पर चक्का चलाना छोड़कर दौड़े दौड़े आया ,"कहाँ जा रहे हो बाबूजी ...| मैं भी चलूँ ?"
"ठीक है, ठीक है ...| बाबूजी अनमने ढंग से बोले ,"जा | माँ को बोल कंघी कर दे ...|"
मैं नहानी में गया और जल्दी से चेहरे पर पानी डाला | भय था कि कहीं बाबूजी चल न दें | भागते भागते आया और लपक कर स्कूटर के सामने सवार हो गया |
"अरे मैंने कहा था कंघी करवा के आना | ठीक है, ऐसे ही चल ....|"

बाबूजी रास्ते में कौशल को बोले जा रहे थे ," चलो अच्छा हुआ | रमा लोग भी यहीं आ गए ...| कॉलेज भी यहीं है | फिर व्यास और लक्ष्मी लोग भी यहीं हैं ...|"
बाबूजी कुछ कुछ बोले जा रहे थे | मेरे पल्ले कुछ पड़ रहा था, कुछ नहीं | रमा कौन है ? नाम तो कई बार सुना है ...| हाँ, एक राखी उनकी भी तो आती थी ... | कहीं वही तो नहीं ?
कई सवाल उठ रहे थे , पर पूछने क़ी हिम्मत नहीं हो रही थी ...|
यही तो घर होना चहिये ...| बाबूजी बुदबुदाए ,"पर इतनी भीड़ क्यों लगी है ?"
देखा जाये तो वह सेक्टर २ का सड़क नंबर १ ही था - लेकिन डबल स्टोरी वाला नहीं | सेक्टर दो की दो सड़कें बहुत लम्बी थी १ और २ | इत्तेफाक से एक और दो में ही डबल स्टोरी घर भी थे - पर शुरू के हिस्से में नहीं |

सड़क १ के एक और मैदान भी था | अरे वाह, कितनी अच्छी सड़क है | यह तो रेल पटरी के कितने पास है ...| यहाँ से तो रेलगाड़ी साफ़ दिखाई देती होगी ....|
भीड़ इतनी ज्यादा थी कि बाबूजी को स्कूटर घुमाकर वापिस मोड़ना पड़ा | वे आगे जा ही नहीं सकते थे | वे स्कूटर घुमाकर सड़क के दुसरे छोर से घुसे | किसी तरह वे उनके घर के पास पहुंचे |

घर का दरवाजा तो खुला था , पर कोई था ही नहीं ...|
तभी दो लड़कियां , -एक कोई सात साल साल की और दूसरी चार साल की - भागते हुए आई |
मैंने उन्हें देख हो, याद नहीं पड़ता -|
"रंजना, तुम्हारी माँ कहाँ है ?"
"बगल के घर में ...| बुलाऊं ?"
वो तो चले गयी | दूसरी लड़की - बबली वहीँ खड़े रही |
"अरे मामाजी ...|" जो नाटे कद की महिला जल्दी जल्दी चलते हुए आई , वही रमा थी ....|
"बैठिये न ....|"
घर में एकमात्र आराम कुर्सी रखी हुई थी | आराम कुर्सी, यानी वो कुर्सी, जिसमें सिर्फ एक चादर लगी होती थी | मुझे नहीं लगता, बाबूजी उसमें बैठने के आदी होंगे | वो खड़े ही रहे |
"तुम्हारी मामी ने सबको खाने के लिए बुलाया है ...| 'सबको' ...|" बाबूजी ने 'सबको पर जोर दिया ,"वो कहाँ हैं ?"
"वो ? क्या बताऊँ मामाजी | आज फिर रायपुर निकल गए | उनको तो घर की कोई चिंता है नहीं | फुटबाल मैच था ...|"
अरे ...| तो रात तक आयेंगे ?"
"पता नहीं | बोल रहे थे , टीम हार गयी तो दस बजे तक वापिस आ जायेंगे | जीत गयी तो अगला मैच खेलने वहीँ रुक जायेंगे ... घर से ज्यादा तो वो मैदान में रहते हैं ...|"
" तो चलो मेरे साथ | अकेले यहाँ बच्चों के साथ कैसे होगा ?"
"नहीं मामाजी, रह लेंगे हम लोग | और फिर टीम हार गयी तो वो वापिस आ जायेंगे | चाबी तो उनके पास है नहीं | "
"ठीक है | बाबूजी सोच में पड़ गए ...,"ये बाहर भीड़ कैसे लगी थी ?"
"कुछ नहीं | झगडा हो गया ...|"
"राजदेव के पापा को पुलिस पकड़ कर ले गयी ..|" रंजना बोली |
"धीरे बोल |" रमा ने झिड़का ,"वो हमारे बगल वाले हैं न ...| पडोसी ...| पता नहीं , क्या झगडा हुआ ...| पुलिस आ गयी ....|"
"सब बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के चले गयी ....|" अचानक छोटी लड़की बबली बोल पड़ी ...|
अरे नहीं मामाजी | रमा बोली ," कोई जुर्म नहीं है | ऐसा राजदेव की माँ बोल रही थी | पुलिस वाले बस ऐसे पकड़ के ले गएहैं ...|"

****************

उस रात मैने एक सपना देखा ...|
घर के बाहर मेहंदी के पेड़ के नीचे एक बिलसपुरिहा काली मोटर कड़ी हुई है ...| कतिपय पुलिस वाले कुछ पूछ रहे हैं ... मुझे कुछ खास नहीं सुनाई दे रहा था ... बस यही कि ;"बी. एस.. पी का घर ... सगे रह सकते हैं ...| "

मैं दरवाजे के पीछे छुप रहा था ...| एक पुलिस वाले ने मुझे देख लिया ,"ये ?" पता नहीं , कहाँ से शैल क़ी आवाज़ आई ,"ये तो सगा भाई है ...|" वो भी पलिस क़ी वर्दी में ...? हाथ में डंडा ...| पता नहीं, कौन कौन , किसीका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था ... | एक एक करके पुलिस की बिलसपुरिहा काली मोटर में समाते
गए ...|
"कोई जुर्म नहीं ...|" शैल की आवाज गूंजी,"पुलिस बस ऐसे ही .... |"
जब घरघराते हुए मोटर चले गयी, तो उस घर में हम आठ लोग ही बच गए | छह 'सगे' भाई बहन और माँ और बाबूजी ....|

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माँ ने करीब करीब हर दिन हर आने वाले मेहमानों को वह ट्रे दिखाई |
"टुल्लू को लॉटरी में मिली है |"
उस ट्रे को जिस कोण से देखा जाता, वह उतना ही चमकदार दिखता | वैसे तो ख़ुशी मनचाही वास्तु के मिल जाने पर आधी और कुछ ही दिनों में चौथाई रह जाती है, लेकिन मेरी ख़ुशी को हर बार माँ का नए नए लोगों के सामने बखान करने एक नया जीवन मिल जाता था |

"क्या ?" कल्याणी ने उसे उलट पलट कर देखा ,"पांच पैसे की लॉटरी ?"
"सचमुच ? " कांता बोली ,"वह , टुल्लू की तो किस्मत तेज़ है |"
"कितनी सुन्दर ट्रे है |" गुड्डा की माँ बोली |
मोटी मिसराइन तो कुर्सी से लुढ़कते - लुढ़कते बची ." ऐसी ट्रे ? पांच पैसे में ?"

अभी तो और कई लोग बाकी थे | डाक्टरनी, उर्मिला , बन्छोरिन - पता नहीं वो क्या कहेंगे ?
मुझे गलत मत समझिये , मगर इन तारीफों ने मुझमें वो हवा भर दी कि मैं हवा में उड़ने लगा | गनीमत थी कि मेरी जेब खाली थी - हलाकि मैं अगले मौ के का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था |

कुछ ही दिनों बाद फूफा घर पर आये और जाते- जाते मुझे दस पैसे पकड़ा गए | मेरे क़दमों में मानो पंख लग गए | मैं फिर दौलत के खोमचे की ओर भागा | आशंका यह भी थी कि आज दौलत आया है या नहीं | कहीं ऐसा तो नहीं कि आकर घर चले गया हो | स्कूल में दोपहर की पाली की खाने की छुट्टी अढाई से तीन बजे के बीच होती थी | उसके बाद इक्का दुक्का छात्र ही आते थे और दौलत अक्सर खोमचा समेत कर घर चले जाता था |

दौलत उसी जगह, तालाब के किनारे बैठा उदासीन आँखों से शाला नंबर आठ की ओर टकटकी लगाए देख रहा था | आधी छुट्टी समाप्त हो चुकी थी | दुस्साहसी लड़के उसके खोमचे से खा पीकर जा चुके थे |
मुझे देखकर वह मुस्कुराया |

"एक लॉटरी देना |" मैंने आपराधिक स्वर से कहा | पता नहीं, क्यों मुझे ग्लानि हो रही थी | मन में आशंकाएँ रह-रह कर घुमड़ रही थी कि कहीं कुछ नहीं निकला तो क्या होगा ?
मैंने कांपते हाथों से चूरन की पुडिया खोली और चूरन फांकने के पहले अन्दर की छोटी पुडिया फाड़कर नम्बर निकाला |

"तीन" मैंने धडकते दिल से कहा |
दौलत ने तीन नंबर पर टँगी एक प्लास्टिक की तुतरू मुझे पकड़ा दी |
तुतरू ? मेरा दिल बैठ गया |एक क्षण तो तुतरू हाथ में लिए मैं सोचते रहा | हरे रंग की प्लास्टिक की , बित्ते भर की तुतरू ....|

"बजाकर देखो ...| " दौलत बोला,"नहीं बजी तो बदली कर देंगे ...|"
मैंने हवा अन्दर खिंची, तो भी तुतरू बजी | फिर जब फूंक मारी, तब भी ....| मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा | तुतरू ... पाँच पैसे की ...|
पर हारे हुए जुआरी का वह नशा, जो उसे जेब की आखिरी कौड़ी भी दांव पर लगा देने के लिए प्रेरित करता है , मुझ पर हावी हो गया | वापिसी के मेरे कदम न केवल थम गए, बल्कि विपरीत दिशा में उन्हीं पद चिन्हों पर चल पड़े | मेरी जेब में पाँच पैसे और भी थे |
इस बार छः नंबर ...| और दौलत ने मुझे टीने के डब्बे जैसी एक चमकदार चीज पकड़ा दी, जिसके बीच में एक अँधा छिद्र था |
"यह क्या है ?"
काश, शायद मैं ये सवाल ना पूछता | और अगर पूछता तो वह ना बताता - टाल जाता |
"सिगरेटदानी |" वह ईमानदारी से बोला ,"सिगरेट पीकर उसकी राख इसमें झाड़ते हैं ...|"

*********

जिसका डर था, आखिरकार वही हुआ |
"यह क्या है ?" माँ ने पूछा |
"सिगरेटदानी |" जो दौलत ने कहा , मैंने वही दोहरा दिया |
"क्या ?" माँ कुछ समझी नहीं |
"सिगरेट पीकर राख इसमें झाड़ते हैं | " मैंने अपराधी भाव से कहा और अपना सर सामने कर दिया |

समझदारी भरी इस बात पर मुझे जन्नाटेदार झापड़ की उम्मीद थी ,पर माँ का मिजाज़ अच्छा था |
"इसे क्यों लाया है ? हमारे घर में सिगरेट कौन पीता है ?"
"लॉटरी में यही निकला माँ |"
अब माँ की त्यौरियां चढ़ गयी |
"तूने फिर लॉटरी खरीदी ?"
मैं चुप | क्या जवाब दूँ ?
"क्यों खरीदी ?"
"मुझे लगा सौंप के ट्रे जैसा कुछ निकलेगा |"
"और निकल गया सिगरेटदानी | क्यों ? पता नहीं | लॉटरी वाले का भी दिमाग ख़राब है | बच्चों की लॉटरी में सिगरेटदानी | अरे,कोई खिलौना होता तो भी बात समझ में आती |"
"तुतरू भी निकला है माँ , दूसरी लॉटरी में |"

अब माँ का गुस्सा भड़क उठा |
****************

ऐसे लोग गली कूचों में हाँक लगाते कम ही आते थे | केले वाली , ब्रेड वाले या फेरी वाले तो रोजाना दिख जाते थे , लेकिन ...|
" पार्वती वो ...." वह महिला मेहमान आँगन में जाकर माँ को बोली ," देख तो, वो क्या हाँक लगा रहा है ?"
महिला की गोद में वो अंगूठा चूसती छोटी सी बच्ची थी | आँगन में सिल बट्टे पर गीली उड़द दाल दलती माँ एक पल के लिए रुकी | भला मेहमान की बात कैसे टाल सकती थी | तब तक वे लोग हाँक लगाते हुए थोड़े दूर निकल गए थे | दूसरे ही पल माँ बोली, "टुल्लू, जा तो बेटा | उनको बुला कर ला ...|"

मैं तुरंत सड़क में भागा | वे लोग अभी भी सड़क में ही थे, पर काफी दूर निकल गए थे | पगड़ी पहने एक आदमी, लम्बे लम्बे बालों वाला एक लड़का और एक औरत ... तीनों एक छोटा ठेला धकेलते हुए चले जा रहे थे ... करीब करीब वे लोग सदानंद के घर के पास पहुँच गए थे | ये तो शुक्र था क़ि वे लोग मैदान पार करके इक्कीस सड़क नहीं गए थे | वर्ना उनकी आवाज़ का पीछा कर पाना काफी मुश्किल काम होता ....|

हाँक लगाने का काम महिला और उस लड़के ने सम्हाल रखा था | पगड़ी वाला आदमी बस अपनी धोती सम्हाले आशा से इधर उधर देखते चले जा रहा था |
"हफ़ ... हफ़ .... नाक कान छिदाने वाले ...| माँ बुला रही है |"
"कहाँ है तुम्हारी माँ ?"
"वो उधर ...| वो मेहंदी के पेड़ दिख रहे हैं न ....|"

अब वे 'नाक कान छिदाने ' वाले पलटे |
हे भगवान, वे लोग वापसी में भी हाँक लगाए जा रहे थे |
जैसे - जैसे मैं घर के पास पहुँचते गया,मेरा कौतूहल बढ़ते गया | कौन हैं वे लोग ? माँ उन्हें क्यों बुला रही है ? क्या करेंगे वे लोग ?

जब मुझे मालूम चला कि वे लोग क्या करने वाले हैं - तो रोंगटे खड़े हो गए | फिर जब अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखा तो कलेजा दहल गया |
"का भाव हे भैया ?" माँ ने पूछा |
"किसका नक् कण छिदाना है माई ? बच्चे का कि बड़े का ?" पगड़ी वाले ने पूछा |
"लईका के |" माँ ने कहा |
"बच्चे का - कान आठ आना , नाक एक रुपया |"
"बने बता भैया | " माँ बगैर मोल भाव के मान ले - कदापि संभव नहीं था |
"कितना कान , कितना नाक छिदवाना है माँ ?"
माँ ने महिला की ओर देखा |

"नहीं नौनी छोटे हे | खाली (केवल) कान छिदा दो |"
वो बच्ची अपनी माँ से और चिपट गयी |
"ठीक है | दो नाक और छह कान | ले अब वाजिब बता |"
वह पग्गड़धारी जब तक 'वाजिब' भाव सोचते रहा , मेरा दिमाग दूसरे ख्यालों में खो गया - दो नाक और छह कान ?
"ठीक है माई | पांच रूपया बनता है | आप आठ आना कम दे देना |"
"नहीं चार रुपया ...|"
"दो कान फ़ोकट में ?" उस आदमी ने अपने साथ की स्त्री से बात की ,"ठीक है माई | लकड़ी कोयला आप को देना पड़ेगा |"

लकड़ी कोयला ? क्या वो आग जलाएगा ?

माँ ने मुझे एक बार फिर दौड़ाया ," जा तो बेटा, बेबी को बुलाकर लाना |"
बेबी लंगड़ी-बिल्लस खेल रही थी | जब मैं बेबी को लेकर घर पहुँचा , धौंकनी में लकड़ी का कोयला गरम हो रहा था | एक हाथ में छोटा सा पुट्ठा लेकर लम्बे बालों वाला लड़का बार - बार धौंकनी में हवा करने लगता और लकड़ी कोयले अंगार और दहक जाते | जो मुझे नहीं दिखाई दिया , वो थी दो पतली सुइयों की तरह सलाखें |
जब वो बाहर निकली तो सुर्ख लाल हो गयीं थी |

माँ ने बेबी को क्यों बुलाया था ?
तो सबसे पहले बेबी का ही नंबर आया |
उस औरत ने बेबी का सर पकड़ा - हलके से ...| पगड़ी वाले ने एक शीशी से कुछ द्रव्य निकला और बेबी के कान में दोनों तरफ लगा दिया | लम्बे बाल वाले लड़के ने एक चिमटीनुमा जुगाड़ लिकला , जिसके दोनों पल्लों में कार्क लगा था | उसे बेबी के एक कान में फँसा दिया गया |

अब तक तो सब ठीक था | लोग दम साधे देख रहे थे |
अचानक पगड़ी वाले ने एक पतली सलाख आग से निकाली और एक संड़सी से पकड़कर एक सिरा लोहे के हत्थे में घुसा दिया | फिर तेजी से बेबी के कान में फंसे चिमटे की ओर लाया | बेबी के सर पर उस औरत की पकड़ सख्त हो गयी और अगले ही पल बेबी की चींख हवा में गूंज उठी ....|

दो और लडकियाँ सहमी हुई सी देख रही थी | एक तो नोनी थी | दूसरी ?
दूसरी संजीवनी ... | मुझे थोडा भी भान नहीं था कि माँ के दो नाक और छः कान के हिसाब किताब में एक नाक और दो कान संजीवनी के थे !
दूसरे कान छेदते तक बेबी रोने लगी ,"नहीं न माँ, नहीं न |"
"बस हो गया बेबी |" पगड़ी वाला आदमी बोला ,"बस , चींटी काटी और कुछ नहीं |"
उसे बेबी का नाम कैसे पता चला भला ?

बेबी के कान और नाक से खून निकल रहा था और संजीवनी सहमी सी देख रही थी |अगली बारी उसकी ही थी |
उस औरत ने एक हाथ से संजीवनी का सर पकड़ा कस के | दूसरे हाथ से उसके दोनों छोटे छोटे हाथ पकड़े | जरुरी भी था | सब जानते हैं, जब बच्चों को दर्द महसूस होता है तो उनकी ताकत चार गुना बढ़ जाती है और वे कुछ भी कर बैठते हैं | बेबी अभी भी सिसक रही थी | संजीवनी कातर नज़रों से माँ को देख रही थी | जब लम्बे बाल वाले लड़के ने संजीवनी के एक कान में जुगाड़ फंसाया तो आशंका से संजीवनी छटपटाने लगी लेकिन उस औरत ने संजीवनी को कस कर पकड़ा था |
"माँ , माँ ...| संजीवनी ने आवाज़ लगाईं |
माँ निर्निमेष नेत्रों से सिर्फ देख रही थी | और पगड़ी वाले ने दहकती सलाख संजीवनी के कान की लौ में घुसा दिया ....|
"माँ SSS ....|" पता नहीं, कितने जोर से चीखी संजीवनी ....| इतने जोर से क़ि मैं अन्दर तक दहल गया ....| पर माँ ? उसके चेहरे पर कोई भाव ही नहीं थे | मैंने माँ की साडी खिंची |
"माँ , ओ माँ ...|"
माँ ने कोई जवाब नहीं दिया | मैंने और जोर से साडी खिंची ,"माँ , संजीवनी को छोड़ दो ना माँ | "
और संजीवनी क़ी जोरों क़ी ह्रदयविरादक करुण पुकार फिर हवा में गूंजी ,"माँ SSS ....|"
दूसरी महिला, जिसकी संजीवनी से भी छोटी बच्ची माँ क़ी गोद में चिपटी थी , उसने संजीवनी को दिलासा दी ," बस बेटी बस | घबरा मत | हो गया ...|औरत जात को तो ज़िन्दगी में बहुत दर्द सहना पड़ता है ...| "

माँ उसके जैसे कोई बड़ी दार्शनिक नहीं थी | माँ क़ी साडी हिलाते मैं जो कुछ बोल रहा था, वह शायद संजीवनी के रोने और चीख पुकार में खो गया था | या तो फिर माँ जान बूझकर मेरी विनती पर कोई कान नहीं दे रही थी |

जब संजीवनी के नाक और कान दोनों में छेद हो गए थे तो माँ ने उसे गोदी में लिया |
नोनी के कान में छेद हो जाने के आड़ माँ को पैसे देना था , जो माँ के आँचल को छोर में बंधा था | आँचल क़ी गाँठ खोलने के लिए माँ ने संजीवनी को उतारना चाहा | तब तक संजीवनी माँ क़ी गोद में ही सो गयी | इतने दर्द और शोर गुल के बीच | नाक और कान से बहता खून जम गया था |
"छेद में कोई काँटा दाल देना माई ...| नहीं तो मुंद जाएगा ...| " पैसे लेते - लेते पगड़ी वाला हिदायत दे रहा था |

तो इसमें तो अब शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी कि राखी की पहली परीक्षा में मैं फेल हो गया था |
मुझे क्या मालूम था कि अभी इससे भी कडा इम्तिहान समय के गर्भ में छुपा हुआ है |

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'ओ यार धीरे धीरे " "ओ यार होले होले ".....
हरेक घर के गेट के बाहर, गेट से सड़क तक, पानी की नाली के ऊपर, पत्थर की एक पटरी रखी होती थी | उसी पटरी पर मदारी एक छोटी सी छड़ी पीट रहा था और उसके सामने पटरी पर ही एक छोटा स बन्दर नाच रहा था ,"ओ यार धीरे धीरे ... ओ यार होले होले ....|"
बन्दर ने चमकीले हरे रंग की एक जैकेट्नुमा खुली कमीज़ पहन रखी थी और एक लाल रंग की चमकीली लंगोट | छड़ी की ताल पर वह उछल उछल कर थिरक रहा था ....| हम सारे के सारे लोग मदारी को घेरे बन्दर का नाच देख रहे थे | पिछले दस मिनट में कई बार हम वही नाच देख रहे थे , पर अब भी मन नहीं भरा था | मदारी एक घर से दूसरे घर, जिसकी पटरी सपाट और सलामत हो और जहाँ उसे भिक्षा मिलने की उम्मीद हो - जा रहा था
और हम मंत्र मुग्ध से उसके पीछे जा रहे थे |
अब उसने पिंजरे से एक बंदरिया भी निकाली जिसने लाल रंग का लहंगा पहन रखा था | उसके भी नाक में रस्सी बंधी थी | अब उसने दोनों को थोड़ी देर तक नचाया , फिर बंदरिया रूठ कर एक कोने में बैठ गयी |

"यह तो बता तोर घरवाली मनटोरा रिसा (गुस्सा) जाही तो कईसे मनाबे ..." हम लोग ध्यान से देख रहे थे | बन्दर एक लकड़ी पर छोटी सी पोटली बाँध कर बंदरिया के पास गया, पर बंदरिया फिर भी मुंह फेरे बैठे रही | अब बन्दर रोने का नाटक करने लगा | बंदरिया पास आ गयी | और फिर दोनों छड़ी की ले पर नाचने लगे |

फिर उसने बन्दर से कहा ," ये तो बता हनुमान जी समुन्दर ला लाँघ के लंका कईसे कुदिस ?" उसने लकड़ी ऊपर उठाई और बन्दर ने छलांग मारकर लकड़ी पार की |
ये तमाशा तो मैं कई बार देख चूका था, पर अब पता नहीं क्यों, मुझे लगा कि बन्दर उदास से हैं | माँ एक कटोरे में चावल लेकर आई और उसने मदारी क़ी फैली हुई झोली पर चावल डाल दिया | बन्दर ने हाथ माथे रखकर सलामी दी और मदारी सैकड़ों दुआएं देते चले गया | माँ वहीँ खड़ी उन्हें जाते देखती रही | मेरे सारे दोस्त भी मदारी के पीछे पीछे चल दिए | मैं वहीँ माँ के पास खड़े रहा |

"माँ , माँ | बन्दर क्या इतने छोटे होते हैं ? रामायण में तो कितने बड़े बड़े बन्दर थे |"
"कुछ बन्दर छोटे होते हैं बेटा | कुछ बड़े ... | बड़े बन्दर को मदारी थोड़ी पकड़ सकता है ....|"
"और उन्हें नचा भी नहीं सकता ....|" फिर मैंने हिम्मत करके पूछा ," माँ, वो इतने उदास क्यों रहते हैं ?"
"कौन उदास रहते हैं ?"
"बन्दर ...."
"पता नहीं बेटा ..| माँ सोच में पड़ गयी |
उसके बाद यह सवाल मैंने किसी से नहीं पूछा | किसी से भी नहीं | एक बीज की तरह , जो ज़मीन पर कहीं दब जाता है - एक तरह से वह सवाल मैं भूल ही गया था | मगर थोड़ी फुहार पाकर जैसे बीज अंकुरित होकर समय के साथ बढ़कर आँखों के सामने झूमने लगता है - वैसे ही सर्व शक्तिमान समय राज ने वक्त आने पर मुझे इस सवाल का जवाब दे दिया - गिरेबान पकड़कर !

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सारी दुनिया एक तरफ , मामी और भांजी दूसरी तरफ .... |

मामी और भांजी - यानी माँ और रमा में बहुत पटती थी | रमा जब भी घर आती तो दुखड़ों का पिटारा खोलकर बैठ जाती ,"क्या बताऊँ मामी ? उन्हें तो घर क कोई चिंता ही नहीं है | बस , खाली मैच इधर तो मैच उधर - उनके लिए दुनिया नहीं, फुटबाल ही गोल है | बस, चार खिलाडी दोस्त मिल जाएँ - फिर न घर की चिंता और न दुनियादारी से कुछ लेना |"
"ठीक है | " माँ कहती, " मैं तुम्हारे मामा से कहूँगी, वो उनको थोडा समझाए |"
"समझते तो कितना अच्छा होता | अब घर में कुर्सी हो तो आप लोगों को बैठने के लिए बुलाऊं ...|"
माँ ठहाका लगाकर हँसी ,"कुर्सी तो आ ही जाएगी , खैर ...|"

... और सचमुच कुछ दिनों में टीने की कई फोल्डिंग कुर्सियाँ रमा के घर की शोभा बढाने लगी ...|

"... क्या बताऊँ मामी ? हमेशा सोचती हूँ , कभी आप लोग को भी खाने पर बुलाऊं | पर उतने बरनी , बर्तन, थाली , कोपरा हैं कहाँ ?"
"अरे , अभी तो शुरुवात है ...| बर्तन का क्या है ? आते रहेंगे ...|"

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फिर एक दिन आ ही गया , मेरी अग्नि परीक्षा का दिन ....|
तो हुआ यह कि .... नहीं , नहीं, कुछ भी असामान्य नहीं वही सामान्य सा दिन था | या हो सकता है , कोई त्यौहार रहा हो - जैसे तीजा | जो भी हो - माँ ने रमा को खाने पर बुलाया था | खाने के बाद पाँव पसारकर गप शप मरना, निंदा या शिकायत करना - सब कुछ सामान्य ही था | खाने के बाद सौंफ पेश करना - ये तो नितांत भारतीय परंपरा है |
माँ ने सौंफ क़ी प्लेट रमा के आगे की |
"क्या बताऊँ मामी, बड़ी शर्म आती है |" रमा बोली , " मेरा भी मन करता है , अपनी मामी को खाना खाने पर बुलाऊं | पर बर्तन तो दूर, एक सौंफ क़ी ट्रे भी नहीं है | घर में कोई मिलने आये तो सौंफ भी नहीं दे सकते |"

अचानक माँ को कुछ याद आया | बात पुरानी होकर भी नयी ही थी |

माँ उठकर पंखा खड़ में आई | जब वह लौटी तो उसके हाथ में चमचमाती हुई सौंफ की ट्रे थी | वही चमकीली सौंफ की ट्रे , जिसमें हरे बेल बूते बने थे | हाँ, वही तो थी, जो ...

"टुल्लू ने लॉटरी में जीती है |" माँ ने गर्व से कहा |
"अरे वाह मामी, कितनी सुन्दर ट्रे है | " रमा ने हाथ में लेकर उलट- पलट कर देखा ,"कितनी अच्छी डिजाइन बनी है | थोड़ी भारी भी है | स्टील की है मामी ?"
"पता नहीं |" माँ बोली , " अच्छी है ? पसंद आई ?"
"बहुत सुन्दर है मामी | बहुत महँगी होगी |" मैं पास में ही खड़ा नज़रें चुरा रहा था ," कितने की है भाई ?"
"पता नहीं |" मैंने कहा, " मेरी पाँच पैसे की लॉटरी लगी थी |"
"पाँच पैसे ?" रमा आश्चर्य चकित रह गयी |
"हाँ, पाँच पैसे की लॉटरी |"
"अरे वाह मामी, मेरा भाई कितना किस्मत वाला है | भारी भी है , मजबूत भी | और कितनी सुन्दर है | दस रूपये से कम में नहीं मिलेगी ऐसी ट्रे |"
"तुझे पसंद है ?" माँ सामान्य भाव से बोली ,"तो तू रख ले | "
"अरे नहीं मामी |" रमा झिझकी ,"इतनी महँगी ट्रे ....|"
"तो क्या हुआ ? रख ले | " माँ बोली , "हमारे घर में वैसे ही एक ट्रे है | ये तो पता नहीं, किस कोने में पड़े रहती है | चलो , कम से कम तुम्हारे काम आयेगी |"
रमा अभी भी असमंजस में पड़ी थी ,"नहीं मामी | टुल्लू की ट्रे है |"
"तो क्या हुआ ?" माँ बड़े विश्वास और गर्व से बोली , "टुल्लू इतनी छोटी सी चीज नहीं देगा अपनी बहन को ?"

हे भगवान्, कितनी बड़ी मुसीबत में डाल दिया तूने ? इसका मतलब, ये ट्रे, ये खुबसूरत ट्रे, अब मेरी नहीं रहेगी ? न तो दान, न बलिदान - मुझे किसी शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं मालूम था ....|
इसका मतलब यही हुआ कि माँ अब किसी से इस ट्रे क़ी तारीफ नहीं कर पाएगी ....|
"क्यों टुल्लू ?" माँ पूछ रही थी |
"टुल्लू ...|" माँ ने फिर पूछा |
"टुल्लू भाई ...|" रमा बोली ...."क्या सोच रहे हो ?"
... पता नहीं मैं क्या सोच रहा था ? मगर मेरा दिल इतने जोर से धड़का कि मैं वहाँ से भाग खडा हुआ ......|

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तीन चार घंटे बाहर यूँ ही चहल कदमी, भाग दौड़ , सुनील के घर में पिछवाड़े के डबरे में यूँ ही पत्थर फेंकने के बाद शाम को मैं दबे पाँव घर लौटा | अब इससे ज्यादा बहर रह भी नहीं सकता था |घर में ना तो माँ दिखी , न रमा | वैसे भी जब रमा आती थी तो माँ उसे रामलीला मैदान के पार, मंदिर तक छोड़ कर आती थी |

पंखाखड़ में तख़्त के नीचे, पेटी के ऊपर - जहाँ वह सौंफ की ट्रे कई दिनों से रखी थी - ताकि माँ को उसे प्रदर्शन के समय निकालने में आसानी रहे - मैंने झाँक कर देखा | सौंफ की ट्रे वैसे ही रखी हुई थी | गर नहीं होती तो मुझे शायद दुःख होता | पर उसे उस जगह में रखे देख कर ख़ुशी नहीं हुई , बल्कि एक टीस सी उठी |

राखी की इस परीक्षा में भी मैं फेल हो गया |

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