शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

चोरी का कारुणिक अंत

वैसे बैठे ठाले सम्बन्ध बिठाया जाए तो मीठा फल हमेशा पीला होता है - चाहे वो आम हो या अमरुद ; केला हो या पपीता | लोग यह भी कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है |

सचमुच मुझे यह नहीं मालूम था कि जो अजूबा हमारे घर के बाहर खड़ा था , वो सुनहरे पीले रंग का अजूबा - वो सब्र का ही फल था | मेरे ख्याल से घर में बाबूजी को छोड़कर किसी को न तो मालूम होगा और न ही मतलब ही - कि ऐसा कुछ कभी हो भी सकता है | वो तो बाबूजी थे , जिन्होंने बरसों पहले - कम से कम चार बरस पहले एक अदद स्कूटर के लिए नंबर लगाया था | फिर वे एक एक दिन गिन रहे थे और माध्यम वर्गीय खर्चों की कतरनी से बचने वाला एक एक पैसा जोड़ रहे थे ( देखा जाये तो माध्यम वर्गीय भारतीय अभिभावक की दो बड़ी जिम्मेदारी या सपना उनके सामने मुँह बाये खड़े थे | एक भारतीय और वह भी भारतीय कृषक होने के कारण बाबूजी जानते थे कि कर्ज का क्या मतलब होता है | और उससे वे कोसों दूर रहना चाहते थे चाहे वह कर्ज राष्ट्रीय बैंक से ही क्यों न हो ? ) - ताकि जिस दिन नंबर टपक जाए, उस दिन शान से डीलर की टेबल पर रुपयों की थैली पटक कर स्कूटर घर ले आया जाए |

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वो उड़न खटोला, जादुई कालीन , पुष्पक विमान सड़क बाइस में घर नम्बर १० ब के बाहर शान से सर उठाये खड़ा था | अन्दर बाबूजी के दोस्त लक्ष्मी नारायण शर्मा , मिश्रा जी , गुप्ता जी वगैरह हा - हा - ही - ही कर रहे थे और बाबूजी को हिदायतें दे रहे थे | इधर बाहर मैं स्कूटर को पीछे से, आगे से देख रहा था | कभी पीछे सीट की पाँवदानी खोलता, कभी सामने का चक्का घुमाता | 

'एम् पी एस ४९४१' - सामने ये नम्बर हिन्दी में लिखा था |  हालाँकि मैं स्कूल नहीं जाता था, पर इतना गधा भी नहीं था |  अटक अटक कर इतना तो पढ़ ही लेता था | पीछे वही नम्बर अंग्रेजी में लिखा था | अंग्रेजी अक्षर तो मैं पहचान सकता था | 
दूसरा कारण ये था कि बबन के पिता जी मालवीय जी ने थोड़े दिनों पहले जो नीले रंग का वेस्पा स्कूटर खरीदी थी,  वह नम्बर एम् पी आर था |  इस तरह दो अक्षर तो वही थे | तीसरा , साँप की तरह टेढा मेढा अक्षर - हाँ साँप की तरह ही था ---- साँप की तरह - टेढा मेढा ..... वही साँप जो शायद सोगा , मगिन्द्र के घर के पीछे वाली बेशरम की झाडी में रहता था .....
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"झूठ बोलना पाप है , गड्ढे में साँप है, वही तेरा बाप है |"
मुन्ना ने भले ये बात उंगलियाँ नचाते हुए कही हो, थी तो ये सीधी सीधी गाली गलौच ही | बबन ने माचिस की डिब्बी जमीन में फेंकी और उसके पीछे मुक्का तान कर दौड़ा | मैंने बबन की फेंकी हुई माचिस की डिब्बी उठाई और गौर से देखने लगा | माचिस की वह डिब्बी पूरी भरी थी - भांति भांति की रंग बिरंगी टिप्पियाँ थी | वैसी ही टिप्पी जो मैंने  अपने स्कूटर के चक्कों के ट्यूब के वाल्व में लगी देखी थी | दोनों चक्कों और स्टेपनी - तीनों में काले रंग की टिप्पी थी | थोड़े दिनों बाद स्टेपनी के चक्के की टिप्पी गायब हो गयी |

 "अरे बाबूजी, देखो, स्टेपनी की टिप्पी गायब हो गयी |"

बाबूजी ने पहली बार तो ध्यान नहीं दिया | दोहराने पर वो कुछ समझे नहीं कि मैं किस बात पर इतना धबरा गया हूँ |   तीसरी बार वही बात सुनकर वो बेफिक्री से बोले " ओह हो, कहीं गिर गयी होगी बेटा |"

तो क्या बबन कि बात सच्ची थी ? क्या उसको इतनी सारी टिप्पियाँ सड़कों में पड़ी हुई मिली थी ? उस दिन से मैं भी जमीन पर देखते हुए चलने लगा | इस चक्कर में मैं बड़े सुरेश के घर के पास के बिजली के खंभे से टकरा भी गया |
ये बात सुनकर बबन ने ठहाका लगाया ," अरे बुद्धू राम ! सड़क के किनारे , घास में टिप्पी खोजोगे तो खम्भे से टकराओगे ही | हा ... हा.. हा... , ! टिप्पी खोजना है तो सड़क के बीच में चलना पड़ेगा - बिना डरे ... खतरा तो है .."

फिर जब बबन का राज एक दिन खुला , तो टुल्लू ने एक और गुर सीख लिया |अब तक तो मैं सिर्फ आवारा ही था | अब मैंने चोरी करना भी सीख लिया |

अब इस बात की सफाई देने का कोई फायदा नहीं है कि तब मुझे मालूम नहीं था कि मैं जो कर रहा हूँ, वह चोरी है |  मेरे लिए तो अन्य खेल की भांति वह एक लोमहर्षक खेल ही लगता था |

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तो बात उन दिनों की है जब हिंदुस्तान में स्कूटर की संख्या गिनी चुनी ही थी | बाबूजी ने वेस्पा स्कूटर के लिए बरसों पहले नम्बर लगाया था | शायद वे फंटा विलास की कोशिश करते तो इंतजार की घडियां कुछ कम होती |  बाबूजी के दोस्तों में लक्ष्मी नारायण शर्मा जी के पास मोटर साइकिल थी तो मिश्रा जी के पास लम्ब्रेटा स्कूटर | मोटर साइकिल बाबूजी को पसंद नहीं थी | शायद और लोगों की तरह उनको लगता होगा कि माँ की साडी चक्के में न फंस जाये | या उन्हें लगता होगा कि अक्सर गाँवजाना पड़ता है |  मोटर साइकिल में स्टेपनी तो होती नहीं |  गाँव की कांटे भरी पगडंडियों में अगर चक्का पंचर हो जाये तो दूर दूर तक सिवाय धक्का देकर ले जाने के - और कोई चारा नहीं रहेगा | 

या उन्हें लगा होगा कि हेंडल और सीट के बीच कि जगह में , जहाँ पाँव के ब्रेक के सिवाय कुछ नहीं था - वहां चावल का एक बोरा रखा जा सकता है - या कोई बच्चा खडा हो सकता है | हाँ , बिलकुल यही बात थी | बाबूजी को जरुर मेरा ख्याल आया होगा | इस बात में तथ्य था कि सामने की वह जगह अति विशिष्ट बच्चे की जगह थी |

सब से पहले बबलू भैया ने सब बच्चों को धक्का दिया और दौड़कर उस जगह पर खड़े हो गए | पर कुछ ही दिनों में उनको वो जगह खाली करनी पड़ी - आखिर वो नौ साल के थे और इतने लम्बे तो हो ही गए थे कि चलाते समय बाबूजी की दृष्टि में बाधा पड़ती थी |  इस बात को लेकर बबलू के के मन में असंतुष्टि की एक और परत जम गयी |  उस जगह के अगले प्रत्याशी के रूप में  संजीवनी के मुकाबले बाबूजी मुझे ही ज्यादा पसंद करते थे | शायद संजीवनी हेंडल ज्यादा जोर से पकड़ लेती थी | कई बार ब्रेक में भी उसका पाँव पड जाता था | जबकि मै हमेशा सजग रहता था |

वैसे सामने खड़े होना दिन के समय जितना अच्छा लगता था,रात को उतना ही चुनौती भरा होता था | स्कूटर की बत्ती से आकर्षित होकर कीड़े-मकोड़े , हरे मच्छर तेजी से आते और अक्सर आँख मै घुस जाते |  फिर भी सामने खड़े होने का वह आनंद अलग ही था | मै स्कूटर के गति सूचकांक पर अक्सर देखता कि स्कूटर किस रफ्तार से भाग रहा है |अंक थे - २०, ४०, ६० ८० १०० और १२० - बस ! में देखता था कि बाबूजी जब पहले गियर पर होते थे  तो वह २० तक पहुँचता था | फिर दुसरे गियर पर आते तो २० से थोडा आगे और तीसरे गियर मै वह ४० तक पहुँचता | कुल तीन ही तो गियर थे | जब कभी गाँव जाते तो है वे मै देखता कि कांटा सरकते सरकते साठ के आसपास पहुँच जाता , पर उसके आगे नहीं जाता था  | रात के समय स्पीडोमीटर की लाइट जल जाती थी और तेजी से सरकती सुइयों का अवलोकन करना अपने आप में एक अनूठा अनुभव था | अक्सर बाबूजी हार्न बजाने कि जिम्मेदारी मेरे ऊपर छोड़ देते और सामने कोई गाय , साईकिल ठेला या और कोई बाधा आती तो मैं हार्न दबा देता ,  "टीं , टीं, टीं ..." 

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२१ और २२ सड़क के बीच का मैदान पार करके मैं और बबन २१ सड़क भी पार कर गए , पर आज किस्मत खराब थी |  काफी खराब थी |  दूर - दूर तक हमें कोई स्कूटर दिखाई नहीं दे रहा था | चलते-चलते हम बीस सड़क पर आ गए | वहां हमें एक लम्ब्रेटा खड़ी दिखी |

"धत तेरी की !",  बबन ने अपना सर पीट लिया | उसकी गिद्ध दृष्टि ने देख लिया था कि उस लम्ब्रेटा मै स्टेपनी तो थी ही नहीं | पीछे के चक्के मै टिप्पी भी नहीं लगी थी | सामने के चक्के मै काले रंग की टिप्पी थी , जिसमे बबन को कोई दिलचस्पी नहीं थी | उसके पास दर्जनों काले रंग की टिप्पी थी |

"तू जा " उसने मुझे धकेला धड़कते दिल से दबे पाँव मैं स्कूटर की ओर बढा | पास जाकर तेजी से झुका और कांपती उँगलियों से जल्दी जल्दी टिप्पी घुमाई | और टिप्पी के निकलते ही तेजी से भागा |

हांफते हांफते अब हम १९ सड़क के पास पहुँच गए |

"बबन , ये सड़क छोड़ के आगे बढ़ते हैं यार |"

"क्यों ? यहाँ क्या है ?"

१९ सड़क के शुरू मैं ही बंछोर साहब रहते थे | वही बंछोर साहब - जिनकी लड़की निर्मला बेबी की पक्की सहेली थी | उनका अर्ध पागल भाई कौशल भैया का दोस्त था |  एक लड़का बबलू भैया के साथ पढता था| एक लड़की पद्मा शशि दीदी के उम्र की थी और एक लड़का धर्मवीर मुझसे थोडा ही बड़ा था | पर उसका शाला नंबर ८ में दाखिला हो गया था | बंछोर साहब बाबूजी के अच्छे मित्र थे | आप ही कहिये | इससे ज्यादा प्रगाढ़ पारिवारिक याराना और क्या हो सकता था | इतने लोगों मै से किसी ने मुझे देख लिया तो?

पर बबन की गिद्ध दृष्टि ने दूर से एक स्कूटर देख ही लिया |  यह भी देख लिया कि उस स्कूटर के एक चक्के मै पीतल की टिप्पी लगी थी |  दूसरे चक्के मै लाल रंग की टिप्पी थी | 

"नहीं , तू जा |"

मुझे वहीँ छोड़कर बबन दबे पाँव फूर्ती से स्कूटर की ओर भागा | पहले उसने स्टेपनी की पीतल की टिप्पी निकाली |  वह सामने के चक्के की लाल रंग की टिप्पी निकाल ही रहा था कि घर का दरवाजा खुला |

"बबन भाग !", मैं चिल्लाया और खुद २२ सड़क की ओर सरपट भागा |

उस दिन बबन मुझ पर लाल पीला हो गया, "तू तो एकदम डरपोक है यार !" गुस्से से वह चिल्लाया ,"मुझे भी डरा दिया |  ऐसे करेगा तो तेरी माचिस की डिब्बी कभी नहीं भरेगी |"

बबन की एक घोड़ा छाप माचिस की डिब्बी भर गयी थी | दूसरी डिब्बी भी आधी से ज्यादा भर गयी थी | उसकी देखा देखी मैं भी इंतज़ार कर रहा था कि कब घर की चाबी छाप माचिस की डिब्बी खाली हो | सिगडी जलाते समय मैं रोज माँ से माचिस की डिब्बी मांग कर देखता था कि कितनी तीलियाँ बाकी है |  कई बार जब मेहतर कचरा इकठ्ठा कर रहा होता तो देखता कि कही उसमे माचिस की खाली डिब्बी तो नहीं है |

आखिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा एक दिन जोर की बेमौसम बारिश हुई | माचिस की डिब्बी टंकी के पास आंगन मै रखी थी | माचिस की सब तीलियाँ भीग गयी |  अगले दिन माँ ने काफी कोशिश की, पर एक भी तीली जली नहीं | सोगा मगिन्द्र लोग माँ को फूटी आँखों नहीं सुहाते थे पर अब कोई चारा नहीं था |

 "जा तो बेटा, उनसे माचिस मांग के लाना |"

थे तो वो पडोसी ही | मैंने पिछवाड़े का दरवाजा खटखटाया | पर उसकी माँ भी खुर्राट थी | उसने माचिस के बदले मुझे आग ही दे दी |  हाँ, एक पुट्ठा जलाकर मुझे पकडा दिया | मैं भागकर जलता पुट्ठा लेकर घर आया | माँ ने किसी तरह सिगडी जलाई और वो गीली तीलियाँ सिगडी के मुंडेर पर सूखने के लिए रख दी | पर अचानक , पता नहीं क्या हुआ , एक एक करके सारी तीलियाँ जल गयी | खाली माचिस की डिब्बी मेरे हाथ लग गयी जिसकी मुझे सख्त जरुरत थी |

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"ये तो चोरी है | " ज्ञानी शशांक ने चश्मा ठीक करते हुए कहा |

एक क्षण के लिए मैं सन्न रह गया | मुझे लगा , किसी ने मुझे खींचकर तमाचा मारा हो |

"कैसे चोरी है ?" मैंने तुंरत प्रतिवाद किया | बहुमत मेरे साथ था | बबन और मुन्ना का मानना था कि ये चोरी नहीं हो सकती |

"चोर लोग रात को दबे पाँव काले कपडे पहन कर आते हैं |वे हाथ पाँव मै बहुत सारा काला , गाढा तेल लगाकर आते हैं ताकि कोई पकडे तो फिसल के भाग जाएँ |" हमेशा चुपचाप रहने वाले अनिल से हमें इस तरह के साथ की उम्मीद नहीं थी | छोटा सुरेश तटस्थ था | उसका कहना था की यह चोरी हो भी सकती है और नहीं भी | बड़े सुरेश को इससे कोई मतलब नहीं था |

जब गहरी शाम हुई | बच्चों का नाम ले लेकर माताएं पुकारने लगी | तब जाते जाते शशांक से मैंने धीरे से पूछा ," अगर ये चोरी हुई तो क्या होगा ?"

"क्या होगा ? पुलिस को पता चला तो पुलिस पकड़ के ले जायेगी ]"

"और ?"

"और हाथ पाँव बाँधकर पिटाई करेगी | छोटे बच्चों की पिटाई थोडी ज्यादा होती है, ताकि बड़े होकर बड़े चोर ना बने |"

"मैं फिर कहता हूँ , ये चोरी नहीं है |", मेरी आवाज सुनकर बच्चे फिर वापिस मुड़कर देखने लगे |

 "अच्छा , तू टिप्पी निकालकर भागता क्यों है ?" शशांक ने पूछा | 

मैं कुछ नहीं बोला - पूर्णतः निरुत्तर | 

 "इसलिए कि कोई पकड़ ना ले | है ना ? अच्छा एक काम कर | तू किसी भी अंकल से टिप्पी माँगकर देख | अगर कोई माँगने से दे दे तो मैं मान लूँगा कि यह चोरी नहीं है |"

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वैसे बाबूजी की कोई गलती नहीं थी | मैं नहीं, गंजे गुप्ता जी कह रहे थे |

"अरे सब पेट्रोल पम्प वालों की बदमाशी है ठाकुर साहब |" गुप्ता जी बोले |

स्कूटर को आये कुछ ही दिन हुए थे कि अचानक बीमारी शुरू हो गयी | चलते चलते स्कूटर अचानक रुक जाया करता था | बाबूजी काफी परेशान थे | बार-बार स्कूटर का साइड कवर खोलो ,रेत पेपर और आल पिन से स्पार्क प्लग साफ करो | ये उन दिनों की बात है , जब साईकिल का पंचर बनाने वाले लोगों की तुलना में सड़क छाप मेकेनिक लोगों की संख्या नगण्य थी | कारण स्पष्ट था | पर उन गिने चुने माध्यम वर्गीय परिवार वालों की मुसीबत थी, जिनके पास स्कूटर था | स्कूटर को थोडा सर्दी जुकाम क्या हुआ , मेकेनिक उसे ठीक करने में पूरा दिन लगाता था और चालीस पचास रुपये झटक लेता था | वह उन दिनों काफी बड़ी रकम होती थी | स्कूटर ठीक करने के बाद मैकेनिक उसे पूरी रफ्तार से आय बाय सड़कों पर पूरे एक्सीलेटर पर दौड़ाते थे और सेक्टर दो का लम्बा चक्कर लगाने के बाद , वापिस आने पर स्कूटर के चार और नुक्स निकाल देते थे | भाई, उनके भी पापी पेट का सवाल था | 

तो बाबूजी स्कूटर को किसी कसाई मेकेनिक के हाथों सुपुर्द करने के पूर्व गुप्ता जी जैसे अनुभवी चालक से सलाह मांग रहे थे तो मेरी समझ में कोई गलती नहीं कर रहे थे |

"आपने कहाँ से पेट्रोल भराया ठाकुर साहब ?"

""बस गुप्ता जी, मैं वाइस चांसलर से मीटिंग के बाद रायपुर से लौट रहा था कि चरोदा के पास गाड़ी रिज़र्व मैं आ गयी | वही पास के पेट्रोल पम्प से पेट्रोल भरवा लिया |"

"मोबिल कितना डलवाया ?" गुप्ता जी की आँखें छोटी हो गयी और भौहों पर बल पड़ गए |

"तीन लीटर पेट्रोल में ९० एम् एल |"

" मोबिल का रंग हरा था कि लाल ?" आज जब वह दृश्य आँखों के सामने घूमता है तो गंजे गुप्ता जी किसी जासूस से कम नहीं लगते |

"मेरे ख्याल से मटमैला था | अँधेरे में मैंने उतने ध्यान से नहीं देखा |"

" मटमैला ?" गुप्ता जी के ओंठ गोल हो गए ," और अँधेरा था ?"

गुप्ता जी कुछ सोच में डूब गए "ठीक है ठाकुर साहब,एक काम कीजिये | आप टू टी मोबिल आयल का पीपा खरीद लीजिये और प्लास्टिक की एक बोतल में थोडी सी मात्रा हमेशा अपने पास रखिये | पेट्रोल भरते समय अपना मोबिल डालिए | ये साले पेट्रोल पम्प वाले बदमाश हो गए हैं | क्या करोगे, इंदिरा गाँधी का राज है |"

"फिर गुप्ता जी, इसका अभी क्या करूँ ?"

"अभी ठीक करते हैं " गुप्ता जी ने अपने स्कूटर की डिकी से एक भूरे रंग की पतली प्लास्टिक की पाइप निकाली |

"ठाकुर साहब, एक बोतल दीजिये "गुप्ता जी अचानक जासूस से जादूगर में परिवर्तित हो गए | हम सांस थामे उनकी एक एक गतिविधि ध्यान से देख रहे थे | गुप्ता जी ने एम् पी एस ४९४१ के पेट्रोल टंकी का ढक्कन खोला |  पेट्रोल टंकी के अन्दर प्लास्टिक की पाइप डाली | ये क्या ? गुप्ता जी तो पेट्रोल पी रहे हैं | लेकिन नहीं, गुप्ता जी ने गहरी सांस लेकर सिर्फ पेट्रोल खींचा था | पेट्रोल जब तक उनके मुंह में पहुँचता, गुप्ता जी ने झटके से पाइप का दूसरा सिरा मुंह से निकलकर बोतल में घुसा दिया | फिनाइल की वह खाली बोतल मिनटों में ही भर गयी | गुप्ता जी ने पाइप का सिरा अंगूठे से बंद किया | दूसरी खाली बोतल भी भर गयी | तीसरी खाली बोतल आधी भरी थी कि पेट्रोल आना बंद हो गया |

गुप्ता जी ने पेट्रोल टंकी में झांक कर देखा ,"पूरी टंकी खाली हो गयी ठाकुर साहब |"

फिर गुप्ता जी ने सायफन की वही प्रक्रिया दोहराते हुए अपनी टंकी से आधा बोतल पेट्रोल निकाला और एम् पी एस ४९४१ में डाल दिया ताकि बाबूजी पास के पट्रोल पम्प जा सकें | वैसे नजदीक का पेट्रोल पम्प भी तीन किलो मीटर दूर सेक्टर ७ में कॉलेज के पास था |

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अचानक चोरी का स्तर एक नए आयाम पर जा पहुंचा | होता यूँ है कि अगर गलती से किसी की कोई लाभप्रद वस्तु अनायास किसी दूसरे के हाथ लग जाए तो वह बजाय उसे लौटाने या छोड़ने के - गले लगा लेता है | यह सामान्य इंसान की स्वाभाविक प्रक्रिया है | फिर उस धरातल पर मैं तो एक छोटा बच्चा था | सच कहूँ तो चोरी की मेरी परिभाषा के अनुसार ये भी चोरी नहीं थी |

वह लाभप्रद वस्तु मेरे जेब में थी | रात को खाना खाने के बाद जब मैंने मचोली में छलांग लगाई और करवट बदली तो मुझे जेब में कुछ चुभता हुआ महसूस हुआ | पंखाखड़ की लाइट बंद थी | मैंने जेब मे टटोल कर देखा, "अरे ये कहाँ से आ गया ?"माँ और शशि दीदी अभी भी आँगन में बर्तन मांज रहे थे | पूरे घर में केवल वही लाइट जल रही थी | मैं दबे पाँव उठा | परछी पर एक कोने में दरी बिछाकर शकुन और लक्ष्मी अभी सो रहे थे | मैं दबे पांव आँगन में बढा और एक कोने में बने बाथरूम की ओर बढ़ गया | बाथरूम का स्विच बोर्ड ऊँचा था | फिर भी मै छलाँग मारकर स्विच तक पहुँच सकता था | नहानी मै जाकर मैने जेब से वो लाभप्रद वस्तु निकाल कर देखी |

वे जिग-सा पहेली के दो प्लास्टिक के आकर्षक चमकदार टुकड़े थे | एक नीला , एक पीला | आपस मै फंसे हुए - आयताकार टुकड़े वे मेरी जेब में कहाँ से आये ? कैसे आये ?

कहाँ से आये - इसका तो जवाब था | सारा दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम गया | पर कैसे आये- इसका जवाब मुझे सूझ नहीं रहा था | याद करने पर भी कुछ याद नहीं आ रहा था |

 शाम को मैं शशि दीदी के साथ २१ सड़क में उनकी सहेली दिशो के घर गया था | सच कहूँ तो मेरे लिए और किसी भी ऐरे- गैरे २१ या २२ सड़क - या यूँ कहें - पूरे सेक्टर २ के लिए वो मंजीत का घर था | लम्बे छरहरे शरारती हंसमुख बदमाश मंजीत का घर ! शायद गोगे और दिशो को ज्यादा लोग नहीं जानते होंगे - पर मंजीत को हर कोई जानता था | अंकल हो या आंटी - चुन्नू हो या मुन्नू - दूकानदार हो या रिक्शावाला - बल्कि यूँ कहें तो अगले कुछ वर्षों में पुलिस और छात्र नेताओं की जुबान पर भी वह नाम चढ़ गया |

तो वही शरारती मंजीत इस समय शराफत से अपने घर में सामने के कमरे में - जिसे हम लोग बैठक कहते थे - बैठकर जिग-सॉ  पहेली के बिल्डिंग ब्लॉक्स जोड़ रहा था | उस समय भी वह मुस्कुरा रहा था |

"ये सारे दिन यही बिल्डिंग ब्लॉक्स से खेलते रहता है | " दिशो बोली ," ना खाने की चिंता , ना पीने की |"

अपनी तारीफ सुनकर मंजीत की मुस्कान दो इंच और चौड़ी  हो गयी शशि दीदी और मैं उस अजूबे - यानि कि बिल्डिंग ब्लॉक्स को देखने लगे | मंजीत अनजान सा बना अपने काम में मगन था |

"सिविक सेंटर से ख़रीदा ?" शशि दीदी ने पूछा |

"नहीं हमारे एक अंकल दिल्ली में हैं | उन्होंने दिया |"

पता नहीं, कितने सौ पीले और नीले टुकड़े मेज पर बिखरे हुए थे | मंजीत उनमे खोया हुआ था |

अचानक एक दो जुड़े हुए टुकड़े मेज से फिसल कर बिना आवाज किये नीचे गिर गए | किसी ने नहीं देखा था शायद - सिवाय मेरे | क्या मैं नीचे झुका था , ताकि उठाने के बहाने उन चमकदार टुकडों को छू सकूँ छूकर देख सकूँ ? फिर मुझसे किसी ने माँगा क्यों नहीं ? क्या वो मेरे हाथ में रह गए ? ओह , अच्छा - शशि दीदी को कोई कॉपी चाहिए थी जो उन्हें मिल गयी और हम मैदान के रस्ते से घर के लिए रवाना हो गए | क्या यही हुआ ? या और कुछ ? नहानी के चालीस वाट के प्रकाश में मैंने फिर से वो आपस में फंसे टुकड़े देखे | जो भी हो - अब ये मेरे थे |

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पीले पीले अमरुद ... मैंने पहले कहा , पीले फल मीठे होते हैं | पर पाटिल साहब के घर के अमरुद की एक खासियत थी कि वे अमरुद बाहर से पीले और अंदर से गुलाबी होते थे और इतने मीठे कि ......

आप पूछेंगे , मुझे कैसे पता चला कि वे अमरुद अन्दर से गुलाबी होते हैं और इतने मीठे कि ...... उन दिनों की बात कुछ और होती थी | अगर किसी के घर में कोई फलदार वृक्ष में ढेर सारे फल लगे हों तो वो उन्हें अड़ोस पड़ोस में बाँट देते थे |  मुझे याद है कि बचपन में माँ ने मुझे कई बार जामुन पास पड़ोस में बाँटने भेजा था |

पर पाटिल साहब के अमरुद का किस्सा थोड़ा अलग था | बात ये थी कि मैं उन अमरुद का स्वाद एक बार चख चुका था | वो इसलिए कि छोटी ने मुझे सायकल से टक्कर मारी थी } छोटी ने मुझे सायकल से टक्कर इसलिए मारी थी कि वह सायकल सीख रही थी | वह सायकल का डंडा पकड़कर कैंची चला रही थी और उसके सायकल का हेंडल डगमगा रहा था | सामने से मैं चक्का चलाते हुए आ रहा था | उससे बचने के लिए मैं बाँये जाऊँ तो उसका हेंडल बाँये जाये, मैं दाहिने जाऊँ तो उसका हेंडल दाये मुड़े | अब चूँकि वह सायकल चलाना सीख रही थी, रोकना नहीं, उससे ये उम्मीद करना व्यर्थ था कि वह ब्रेक मारती ! उसके सम्मुख दूसरे विकल्प यह थे कि या तो वो हेंडल तेजी से मोड़कर सायकल नाली मै घुसा देती , या तो स्वयं गिरती या मुझे टक्कर मारती | हाथ पाँव छिलने के बदले अमरुद इसलिए मिले कि छोटी ने आखिरी पल पर आखिरी विकल्प चुना | छोटी पाटिल साहब की 'छोटी' बिटिया थी | मीना मधु और छोटी - तीन लड़कियां थी - और एक लड़का - बंडू | तो हुआ ये कि उस सुबकते बच्चे की फटी कमीज छोटी की माँ ने आनन - फानन में हाथ -सिलाई मशीन से सिल दी और जब तक कमीज दुरुस्त होती, उसे खाने के लिए एक पीला , रसीला अमरुद  दिया | अमरुद तो मैं खा गया पर स्वाद मुंह में रह गया |

"इसमें कौन सी बड़ी बात है ?" संजीवनी बोली," जा, जाकर अमरुद मांग ले ना |"

"कैसे मांगूं ?" मैंने कहा |

" जाकर कहना , आंटी जी , नमस्ते | फिर कहना, आंटी जी एक अमरुद देंगे क्या ?"

मैं दो तीन कदम चला जरुर , फिर वापिस आ गया |

"क्या हुआ ? अच्छा मैं मांगती हूँ |" वह सीधे गेट तक चले गयी |

"आंटी जी, एक जाम (अमरुद ) देंगे क्या ?"

बंडू की माँ ने मुस्कुराते हुए एक अमरुद पेड़ से तोडा और संजीवनी को दे दिया |ज्यादा ऊंचाई पर भी नहीं थे अमरुद |

"आंटी जी, एक अमरुद मेरे भाई को देंगे क्या ?"

......? ........??

(टिप्पी मांगना अपने- बस की बात नहीं थी ........ )

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मीना , मधु, छोटी और बंडू की बात निकली ही है तो ....मैंने अभी तक आपको रमेश के बारे में नहीं बताया | वैसे बताने लायक कुछ होता भी नहीं -कुछ भी नहीं | वे कौशल भैया से भी बहुत बड़े थे |  बंडू छोटी , मधु और मीना के चाचा थे | व्यास उन्हें जानते थे क्योंकि वे बी टी आई में अप्रेंटिसशिप कर चुके थे | अप्रेंटिसशिप करके खाली बैठे थे या नौकरी की तलाश कर रहे थे | दोनों का एक ही मतलब है है न ? आवारा तो हरगिज नहीं थे | लम्बी कलम के साथ बाल और घनी मूछें ! हरदम मुस्कुराते रहते थे लेकिन उनकी मुस्कराहट में मंजीत के जैसी शरारत नहीं, बल्कि निश्छलता होती थी |

"क्यों टुल्लू कहाँ जा रहा है ?" जब भी हमारा सामना होता वो ये प्रश्न जरुर पूछते |
अक्सर वे सुबह सुबह स्टील की डोलची लिए दूध की डेयरी  की तरफ जाते दीख जाते | वैसे ये प्रश्न निहायत बेमानी था | मेरे कदम जहाँ पड़ जाते , वहीँ मैं जा रहा होता | ये बात वो भी जानते थे , पर कई बार बात सिर्फ बात करने के लिए की जाती है |

मसलन माँ एक बार बंडू की माँ से टकरा गयी | माँ की खासियत ये थी कि माँ और लोगों की तरह टूटी फूटी हिंदी में बात करने की कोशिश नहीं करती थी | सीधे छत्तीसगढ़ी में उतर जाती थी | फिर भी लोग माँ की और माँ और लोगों की बात समझ लेते थे |
"बंडू के माँ , रमेस के बर - बिहाव ( शादी ) कर दे न |"
बंडू की माँ का मराठी लहजा कोई कम नहीं था ," आई गो, वो तो कुछ कमाता इच नहीं है गो | बाई को क्या खिलायेगा ?"
"संसो (चिंता} झन ( मत) कर बंडू के माँ  |"

शांत ठहरे जल में अचानक किसी ने एक कंकड़ फेंक दिया | "छपाक" की आवाज के साथ जमी हुई तस्वीर विकृत हो गयी |  कुछ लोगों को आश्चर्य हुआ, कुछ को नहीं - आखिर बेरोजगारी उन दिनों भी अभिशाप थी |मगर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए | अनिष्ट के क़दमों की धमक मेरे कानों में साफ सुनाई देने लगी थी |

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शशांक की चोरी वाली बात मेरे मन में शूल की तरह चुभी हुई थी |  उन दिनों जब भी रेडियो में ये गाना आता , या तो लता या किशोर की आवाज़ में - "चंदा ओ चंदा , किसने चुराई तेरी मेरी निंदिया " - मेरा मन ग्लानि से भर जाता |   ऐसा लगता मानो रेडियो वालों को मेरी करतूत का पता चल गया है |

पर क्या वह चोरी थी ? शशांक की आखिरी बात मुझे याद थी | वह मेरी चोरी धो कर बेगुनाही का प्रमाणपत्र देने को तैयार था अगर मैं किसी अंकल से टिप्पी मांगूं और वो मुझे सहर्ष दे दें वो | सुनहरा मौका यकायक अपने क़दमों से चलता हुआ मेरी आँखों के सामने प्रकट हो गया |

बाबूजी को टू-टी मोबिल आयल का पीपा लेने जाना था | पेट्रोल पम्प से उनकी श्रद्धा उठ चुकी थी | वो सीधे डीलर के सर्विस सेंटर से लेने दुर्ग चले गए | वैसे भी तीन सर्विस मुफ्त तो मिलनी ही थी | उनके मित्र , श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा ने उन्हें सलाह दी थी कि सर्विस अपनी आँखों के सामने करवायें | इस बार जब वे गए तो मुझे बबलू और संजीवनी को साथ लेकर गए | उस दिन उन्होंने सामने की बच्चों की अति विशिष्ट जगह संजीवनी को बख्श दी और रसगुल्ले की तरह मेरा मुंह फूल गया | रास्ते भर मैंने कोई बात नहीं की |

सर्विस सेंटर में भी मै मेनेजर के केबिन  में गुमसुम सा खडा रहा | बाबूजी मैनजर से बात कर रहे थे और वे चारों बेंच और कुर्सी पर बैठे थे | बाबूजी को गुमान नहीं था कि  सर्विसिंग में तीन चार घंटे लग जायेंगे | हम तीन बजे निकले |  जब काम ख़तम हुआ तो शाम हो गयी थी | वे तीनो चाय पी रहे थे और मैं चुपके से बाहर निकल गया |

चलते-चलते अपने स्कूटर के पास पहुँच गया | स्कूटर जमीन पर लेटा हुआ था | उसका साइड कवर निकला हुआ था | वहाँ  एक लड़का कुछ गुनगुनाते हुए ब्रेक ठीक कर रहा था | उसके पास में इधर उधर कुछ औजार, पेंच- कस, पाना , हथौडा - बिखरे पड़े थे | एक ओर ग्रीस की डिब्बी पड़ी थी | और हाँ, अब मुझे दिख गया | एक पोलीथिन के थैले में ठसाठस टिप्पी भरी हुई थी ! मेरे मन मैं अचानक एक विचार कौंधा | किसी तरह हिम्मत बंधकर मैं पास जाकर खडा हो गया |

"नमस्ते " मैंने कहा | उसने कुछ सुना या सुना अनसुना कर दिया |

मैं एक क्षण खडा रहा | फिर से पुकारा ," भैया जी , नमस्ते |"

उसने सर उठाया ,"क्या है ?"

इस रूखे प्रश्न की मुझे आशा नहीं थी | मैंने कहा ,"हमारा स्कूटर है |"

"अच्छा ? " वो खुश हो गया , "देखो, कितना चमका दिया है | साबुन पानी से धोया है | अभी नया सीट कवर , फ़ुट रेस्ट और हेंडल मैं नया कवर लगा दूंगा ...." 

मेरे मुंह से बात टपकते टपकते रह गयी ."नयी टिप्पी भी ....." टिप्पियों का पैकेट वहीँ पड़ा था | अब समय आ गया था कि  मैं टिप्पी मांग लूँ  | वह फिर काम में मशगुल हो गया |

"माँग  टुल्लू  | माँग  ले ! माँग  माँग  माँग  ...." एक मिनट , दो मिनट ... तीन मिनट .....

हर बार बात दिमाग से निकल कर जुबान पर आती और हर बार झिझक उसे टपकने के पहले ही अन्दर खीँच लेती थी | तभी एक दूसरे शरारती मेकेनिक ने पानी की पाइप की तेज फुहार उस एकाग्रचित्त मेकेनिक के ऊपर छोड़ दी  और खिलखिलाते हुए भाग खडा हुआ | भन्नाए मेकेनिक ने हाथ बढ़ाकर टटोला | जो उसके हाथ लगा उसे बौखलाकर लक्ष्य की ओर छोडा दिया | अगले ही क्षण ढेर सारी उड़न गोटियाँ हवा में लहराई , पर उनकी वह उड़ान क्षणिक ही साबित हुई | जब गुरुत्वाकर्षण हावी हुआ तो सारी की सारी टिप्पियाँ फर्श पर सितारों की तरह बिखरी हुई थी |

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वह चीनी मिट्टी के खिलौनों की दूकान थी | आखिर बोर होने की भी कोई सीमा होती है | श्रीमान लक्ष्मी नारायण शर्मा की नसीहत को धता बता के, दो दो कप चाय पीकर , स्कूटर को मेकेनिक के हवाले कर हम लोग बाहर आ गए | कब तक मैनजर के सामने मुंह लटकाए बैठे रहते |

पास तो नहीं, पर थोडी ही दूर में बाबूजी के एक पुराने छात्र की चीनी मिट्टी के खिलौने की दुकान थी | उसने ही बाहर निकल कर बाबूजी को आवाज दी | वह बाबूजी से बड़ी शिष्टता से देर तक बातें करते रहा |

फिर बाबूजी ने घड़ी  देखी," हाँ भाई, शाम हो गयी है | चलो , जल्दी से एक एक खिलौना चुन लो |"

बबलू भैया को बब्बर शेर पसंद आया | मेरा हाथी सूँड उठाये खडा था | संजीवनी ने एक सफ़ेद बदक उठा लिया |

"यार मेहता, मुझे भी एक खिलौना दे दो |"

"आज्ञा दीजिये सर |"

"मुझे बापू के तीन बन्दर दे दो |"

ये बापू कौन थे ? अकस्मात् कहाँ से आ गए ? उन तीन बंदरों ने मेरा चैन क्यों छीन लिया ?

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स्कूटर वाकई में चमचमा गया था |  जैसा उस मेकेनिक ने कहा था , हेंडल में नया कवर, बच्चों की अति विशिष्ट जगह में नया फ़ुट रेस्ट, नए सीट कवर - और हाँ , तीनों चक्कों में नयी टिप्पी भी |

"लाइसेंस की कॉपी होगी सर ?" मैनेजर ने पूछा | बाबूजी ने डिकी से लाइसेंस की एक प्रति निकाली  जो उन्हें हमेशा साथ रखना पड़ता था | मैनेजर ने प्लास्टिक का एक गोल हेंडल निकाला जो कि हाथ दर्पण की तरह था |उसमें उसने लाइसेंस डाला और उसे सामने के चक्के के मडगार्ड के फ्रेम में जड़ दिया "अब कोई पुलिस वाला रोक कर लाइसेंस के लिए पूछे तो उससे कहिये कि झुककर इस दर्पण में अपना चेहरा देख ले |"

टू-टी मोबिल आयल का कनस्तर काफी बड़ा और भारी था | पीले रंग का आयताकार बड़ा सा डिब्बा था | उस पर लाल अक्षरों से काफी कुछ लिखा था | स्कूटर, और वो भी वेस्पा स्कूटर चलाती एक लड़की की तस्वीर बनी थी | इस भारी भरकम कनस्तर के साथ मैनेजर ने एक प्लास्टिक की बोतल और एक प्लास्टिक का नपना भी दिया | कनस्तर इतना बड़ा और भारी था कि डिक्की में फिट तो हो ही नहीं सकता था | सामने बाबूजी आपने पाँव से दबाकर बैठना नहीं चाहते थे | ब्रेक का भी ख्याल रखना पड़ता था

" बेटा, तुम इसे पकड़ के बैठ जाओगे ?" बाबूजी ने बबलू से पूछा |

बबलू के लिए यह मुश्किल नहीं था | नौ साल में ही वे अच्छे तंदुरुस्त थे | इस का मतलब यह हुआ कि पीछे बबलू कनस्तर लेकर सीट पर रखकर बैठे | चूँकि आधी से ज्यादा सीट टू टी के कनस्तर ने घेर ली थी , बबलू के सिवाय किसी और के पीछे बैठने की कोई गुंजाईश नहीं थी | यानी मैं और संजीवनी दोनों अब स्कूटर में सामने खड़े हुए थे |  इससे बड़े अपमान की बात और क्या हो सकती थी ? भगवान , ऐसा घुप्प अँधेरा कर दे कि बब्बन, मुन्ना , छोटा , सुरेश , गिरीश - कोई कुछ भी नहीं देख सके | 

सड़क में सब कुछ शांत था | बच्चे खेलकर मैदान से घर जा चुके थे | तभी शर्मा आंटी के काले कुत्ते मोती को, जो सड़क के किनारे घास पर बैठा था - क्या सूझा कि वो भयानक आवाज में भूंकता हुआ स्कूटर के पीछे दौडा  | शायद उसने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था |

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वह चीज थी ही ऐसी , जो किसी भी बच्चे को आकर्षित कर सकती थी | 

बबन तो एकदम लपक पड़ा,"दिखा, दिखा , दिखा तो - क्या है ?"

मैंने उसे सुरक्षित दूरी से दिखाया कोई भरोसा नहीं उसका - कब झपट्टा मारकर उड़न छू हो जाये |

"अरे मैं खा जाऊंगा क्या ? पास लाके तो दिखा ", मैंने पास आकर उसे दिखाया तो उसकी मांग बढ़ गयी "जरा मुझे हाथ में लेकर देखने दे | "

झिझकते हुए मैंने प्लास्टिक के वो टुकड़े उसके हवाले कर दिए , पर अपने पंजों पर खड़े रहा | ताकि अगर उसने लेकर भागने की कोशिश की तो उसे लंगडी मारकर गिरा सकूँ  |

"क्या है ये ?" प्लास्टिक के दोनों टुकड़ों को उलट-पुलट कर निरीक्षण करते हुए उसने पूछा | 

"खिलौना है |"

"कैसा खिलौना ?"

"ला दिखा | " मैंने उन फंसे हुए टुकडों को पहले सीधा किया ,"देख  , ये बिस्तर है न ?" फिर उसे समकोण में मोड़ा  ,"देख, अब ये सोफा बन गया |"

"अरे यार, ये तो कमाल की चीज है |" अनायास ही वह चहका | 

मैंने उसे लिटाया, "देखा ? ये सीढ़ी बन गया |" फिर उन टुकडों को खड़ा किया ,"अब देख , ये दरवाजा बन गया |" फिर समकोण में जुड़े टुकडों को सीधा किया ,"देख दरवाजा बंद हो गया |"

बबन थोडी देर तक देखते रहा | फिर उसने  जोर से ठहाका लगाया ,"हा, हा हा |" और  फिर गंभीर होकर पूछा ,"सच बता, तुझे कहाँ से मिला ?"

"ये ? ये सड़क में पड़ा था |" मैंने साफ़ झूठ बोला |

"मुझे क्यों नहीं मिलता ?"

"नीचे देख के चलना पड़ता है | खतरा रहता है |" मैंने कहा |

"मज़ाक मत कर यार | किस जगह मिला तुझे ? " उसने पूछा |

"क्यों ? क्या करेगा जान के ?"

"नहीं, हो सकता है, वहां और ऐसे टुकड़े पड़े हों | बता तो सही |"

"स्कूल के पास की नाली में |" मैंने कहा | 

और नालियों की तरह वो नाली भी सूखी थी | बबन ने ढेर सारे सूखे पत्ते इधर उधर करके छान बीन की | अब वो थोडा उदास हो गया |

"चल ट्रक ट्रक खेलते हैं |" मैंने उसके आंसू पोछने की कोशिश की और दोनों टुकड़े अलग कर दिए ,"तुझे नीला ट्रक चाहिए या पीला ?"

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मैं सन्नाटे में आ गया - काटो तो खून नहीं | आतंक अपने घिनौने रूप में एक छोटी सी भीड़ के सामने हाजिर हुआ |
मंजीत के घर के सामने पुलिस की काली गाड़ी खड़ी थी | उनके घर के बाहर उनकी हलके हरे रंग की वेस्पा स्कूटर खड़ी थी | मैंने आपको बताया था या नहीं - स्टेपनी से टिप्पी निकालते समय मैंने कई बार देखा था | अपने स्कूटर पर चढ़ते उतरते कई बार देखा था | स्टेपनी चार नटों के सहारे स्कूटर में फंसे रहती थी | चोर ने मंजीत के घर के बाहर खड़े उनके स्कूटर की स्टेपनी के तीन नट निकाल लिए थे | वह चौथा नट निकाल ही रहा था कि मंजीत के पिताजी बाहर आ गए और उसे धर दबोचा | चोर ने भागने की कोशिश की, पर सरदार जी के बलिष्ट हाथों की पकड़ से वह छुट नहीं पाया |

चोर की मेरी व्याख्या , धारणा , परिभाषा - सब औंधे मुंह धड़धड़ा कर गिरी | चोर रात में नहीं, दिन दहाड़े आया था |  चोर काले कपड़े  नहीं, सामान्य पेंट कमीज में था | चोर काला गाढ़ा तेल मलकर नहीं आया था , वरना संभव था कि वह फिसल कर भाग खडा होता  | शायद अनाड़ी चोर था | अब वह पुलिस घर के अन्दर गयी |

बाहर भीड़ जमा थी | जब पुलिस चोर को लेकर बाहर आई तो लोगों की आँखें फटी की फटी रह गयी | मेरे तो पांवों के नीचे से जमीन खिसक गयी | चोर के दोनों हाथों में हथकड़ी लगी थी |  मंजीत के पिताजी अब भी गुस्से में यदा-कदा एक दो दोहत्थड़ जड़ रहे थे | पुलिस वाले उन्हें रोक रहे थे | पर जैसे ही वो बाहर आये , भीड़ में से वो जो चोर को जानते नहीं थे - और कुछ वो जो चोर को जानते थे - चोर पर टूट पड़े | पर अधिकतर वो , वो चोर से परिचित थे , उन्होंने सर झुका लिया |

वो चोर कहाँ था ? वो तो ... वो तो मीना , मधु, छोटी और बंदु के चाचा थे !

पुलिस की गाडी २१ सड़क से चली | मैं और कुछ और बच्चे गाडी के पीछे-पीछे भागे | कुछ समझदार लोगों ने २१ और २२ सड़क के बीच का मैदान पार किया और एक सरल रेखा में ही चले - सचमुच नाक के सीध में | शायद उन्हें मालूम था कि पुलिस की गाडी का अगला पड़ाव चोर का घर ही है | पाटिल साहब के घर के बाहर पुलिस की गाड़ी खड़ी हुई | चोर को जेल ले जाने के पहले पुलिस उसके घर की तलाशी लेना चाहती थी  | पर वो तो मीना , अधु, छोटी और बंडू का घर था | वहाँ उन्हें भला क्या मिलता ? पर अब रमेश चाचा , उनके चाचा नहीं रहे | उनकी पीठ पर लगे "चोर" के बड़े से धब्बे के नीचे चाचा कहीं छुप गया था |

लोग घरों से झाँक-झाँक कर देख रहे थे | हर पल आस पड़ोस की एक नयी खिड़की खुलती और फिर पल भर बाद बंद हो जाती | मैं छोटी पुलिया में अकेला बैठा था |

तो क्या शशांक सच कह रहा था ? तो क्या मैं जो कर रहा था वह चोरी थी ? फिर तो पुलिस मुझे भी पकड़ कर ले जायेगी | पुलिस बाद में पीटेगी लोग बाद में हाथ पाँव चलाएंगे मगर पहले तो बबलू भैया भुरता बनायेंगे | दूर रेडियो में गाना बज रहा था ,"चंदा ओ चंदा - किसने चुरायी, तेरी मेरी निंदिया ...."

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"किसी ने कहा है मेरे दोस्तों , बुरा मत देखो बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो ...."

बापू कौन थे - ये राज  भी खुल ही गया | गाँधी जी की जन्म शताब्दी पिछले ही वर्ष मनाई गयी थी | गाँधी जयंती फिर आ गयी थी | बाबूजी के कल्याण महाविद्यालय  मे शाम को समारोह था | मैं शाम को मैदान में बेशरम के डंडे से २१ सड़क के अंकु से लडाई कर रहा था कि बाबूजी के स्कूटर की आवाज़ सुनाई पड़ी | मैं चौंका - बाबूजी आज शाम को इतनी जल्दी कैसे घर आ गए ?

"जल्दी ! अच्छे से हाथ पांव धोकर आओ | बबलू किधर है ?"

कोई भी नहीं था घर में | बाबूजी को देर हो रही थी | उन्होंने मुझे ही पकडा "चलो मेरे साथ |"

"कहाँ ?"कई बार ऐसे सवालों के जवाब नहीं मिलते |

कल्याण कॉलेज में समारोह था | कोई नेता जी आने वाले थे | मंच पर एक गंजे से आदमी की तस्वीर एक मेज पर रखी हुई थी | बच्चों में एक मैं, एक मिश्र जी का लड़का आलोक और एक और लड़का आया था | मेरे लिए बड़ी मुसीबत थी | बाबूजी मुझे आलोक के हवाले करके मंच की ओर बढ़ गए थे | आखिर आलोक बबलू भैया का हम-उम्र जो था | किन्तु  आलोक इधर उधर मटक रहा था, मानो सारे के सारे बड़े लोग उसके अंकल हों | कभी किसी से हाथ मिला रहा था, किसी को हाथ जोड़कर नमस्ते कर रहा था |अपने राम के बस की ये बात थी नहीं |

"ये किसका लड़का है ?" एक प्राध्यापक ने आलोक से पूछ ही लिया |

 "ठाकुर अंकल का |" आलोक चहका |

"ओह, ठाकुर साहब का " प्राध्यापक ने मुझे घूर कर देखा | ऐसा भी मैं कोई बुरा नहीं दिख रहा था | अच्छे से पाँव  धोकर और सबसे अच्छी हाफ पेंट पहनकर आया था | हाँ, बाबूजी ने कहा था , खादी का कुरता पहन लेना - जो कि मेरी नाप से थोडा बड़ा था | मेरी हाफ पेंट बड़े बड़े फूलों वाले कुरते से पूरी ढँक गयी थी | ऊपर से माँ को पता नहीं क्या सूझा, मेरी कंधी करते समय उन्होंने थोडा पाउडर लगा दिया था |

वह तीसरा लड़का , जो शायद मेरी ही उम्र का था , एक कोने में चुपचाप बैठा था | अब मैं समझ गया कि आलोक का पिछलग्गू बनकर इधर-उधर डोलने से तो अच्छा है कि एक कोने में ही बैठा जाये | मैं उस लड़के के पास चले गया |
"ऐ लड़के, क्या नाम है तेरा ?" मैंने पूछा |

"राजू " उसने जवाब दिया |

भीड़ बढ़ते चली गयी सब बड़े लोग आते गए | कुछ लोग मंच पर बैठ गए | कुछ नीचे रखी कुर्सियों पर बैठे | अब सुई पटक सन्नाटा छा गया | सब बार बार घड़ियों की ओर देख रहे थे | सब को नेता जी का इंतज़ार था पर वह नेता ही क्या जो वक्त पर आ जाये | खैर, जब उनके आने मैं थोडी देरी होते दिखी तो बाबूजी ने किसी को आमंत्रित किया | वे सज्जन मंच पर चले गए और तब मैंने जाना कि मंच पर जिस गंजे कि तस्वीर है, वही बापूजी हैं | आज उनका जन्म दिवस है | क्या किया था बापू जी ने ?

एक एक करके लोग आते गए | बापू जी के बारे में दो शब्द कहने का वादा करके धारा प्रवाह बोलते चले गए |अब कोई बात बार-बार दोहराई जाये तो वह अन्तः स्थल पर उतर जाती है | मुझे पता चल गया कि हमारे देश में अंग्रेजों का राज था | अंग्रेज काफी बुरे थे | हम पर अत्याचार करते थे | गाँधी जी ने हमें आज़ादी दिलाई | गाँधी जी काफी अच्छे इंसान थे | सदा खादी के वस्त्र पहनते थे | ओह अच्छा, तभी बाबूजी ने मुझे खद्दर का कुरता पहनने को कहा था | गाँधी जी हमेशा सच बोलते थे | हमेशा अच्छे काम करते थे |

अभी ये चल ही रहा था कि नेता जी भी आ गए | उन्होंने बापू जी की तस्वीर को माला पहनाई | उनकी श्रीमती जी ने उनकी तस्वीर के सामने दीपक जलाया | बाबूजी ने उन्हें "दो शब्द" कहने के लिए आमंत्रित किया | उन्होंने ने भी वही बातें कहनी शुरू की जो अब तक मुझे कंटस्थ हो गयी थी | एक फर्क जरुर था | लोग उनकी बात ध्यान से सुन रहे थे और बीच बीच मैं तालियाँ भी बजा रहे थे | उसके बाद 'रघुपति राघव राजा राम ' का भजन हुआ |

उसके बाद हाल में अँधेरा कर दिया गया | कोने में एक फडफडाता हुआ प्रोजेक्टर चला दिया गया | सामने दीवार पर श्वेत श्याम वृत्तचित्र की तस्वीर दिखाई दे रही थी | उस अस्पष्ट तस्वीर से मेरे मन मैं गाँधी जी की तस्वीर स्पष्ट होते चली गयी |

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"यार , गाँधी जी भयानक अच्छे आदमी थे |" मैंने मुन्ना से कहा | हम मेरे घर के सामने की पटरी पर खेल रहे थे |

 "'भयानक' नहीं, 'बहुत' |" बरामदे में दाढ़ी बनाते बनाते बाबूजी सब सुन रहे थे | उन्होंने मेरी हिंदी सुधार दी |

घर में सब लोग इधर उधर चले जाते थे | रह जाते थे केवल लक्ष्मी भैया वो व्यास के मंझले भाई थे | वैसे हम लोगों के घर में काफी लोग आते, रहते और चले जाते थे | माँ रोज कितने लोगों का खाना बनाती थी और बर्तन साफ़ करती थी , पता नहीं | हाँ, यह संख्या आठ ( हम छः भाई बहन, माँ और बाबूजी) से बहुत ज्यादा होती थी |

लक्ष्मी भैया के दोनों पाँव को बचपन में ही लकवा मार गया था | वो चल नहीं सकते थे | फिर भी , घर के एक कोने में बैठकर , चुपचाप पढ़ते रहते थे | हमेशा मुस्कुराते रहते थे | मेरे मन में जो भी सवाल उठता, मैं सबसे पहले बेझिझक उनसे ही पूछता था | वो हर समय बड़े ही धीरज से मुझे हर बात समझाते थे |

तो घनचक्कर, तूने उनसे आज तक उनसे यह क्यों नहीं पूछा कि चोरी क्या होती है ? बात ये थी कि इस सवाल से मैं जान बूझकर कतराने लगा था | कहीं उनकी व्याख्या शशांक की  परिभाषा से मेल खा गयी तो ?

"लक्ष्मी भैया , बापू के तीन बन्दर क्या कर रहे हैं ?"

"तुम ने रेडियो में गाना नहीं सुना ? बुरा मत देखो , बुरा मत कहो , बुरा मत सुनो | "

"सुना तो है |"

" वो बन्दर, जो आँख पर हाथ रखा है, वह कह रहा है , बुरा मत देखो |"

"और जो मुँह पर हाथ रखा है, कहा रहा है, बुरा मत कहो | जो कान बंद करके बैठा है , कह रहा है, बुरा मत सुनो - यही ना ?" एक पल में ही मेरी ट्यूब लाइट जल गयी |

"बिलकुल सही |"

"पर लक्ष्मी भैया , 'बुरा' क्या होता है ?"

"बुरा ? " लक्ष्मी भैया सोच में पड़ गए ," 'बुरा' यानी कि , जैसे झूठ बोलना बुरी बात है |"

"और ?"

"और, किसी को तंग करना बुरी बात है |"

"और ?"

"और ..."

लक्ष्मी भैया सोच में डूब गए ,"चोरी करना बुरी बात है "....

.... ....(यह प्रसंग कहाँ से टपक गया ? )

हे भगवान् ......"तो क्या कोई चोरी कर रहा हो तो हम आँख बंद कर लें ?"

"नहीं , ये मतलब नहीं ...."

"कोई झूठ बोल रहा है तो हम कान बंद कर लें ?"

"नहीं, तीसरा बन्दर भी तो है, जो कह रहा है, तुम झूठ मत बोलो |असल में, इसका मतलब है कि तुम किसी दूसरे आदमी की बुराई मत करो | उसमें बुरी बात मत देखो | किसी की बुराई मत सुनो | असल में इसका यही मतलब है कि तुम खुद बुरे काम मत करो |"

बात मेरे लिए काफी गूढ़ थी | मैंने हिम्मत कर के पूछ लिया ," लक्ष्मी भैया , चोरी क्या होती है ?"

"चोरी ? किसी दूसरे आदमी की कोई चीज, बिना पूछे ले लेना चोरी है |"

"और उस आदमी को पता ना चले तो ? अगर वो चीज बहुत छोटी हो तो ?"

"छोटी हो या बड़ी - चोरी तो चोरी ही है |"

"अगर किसी की कोई चीज गलती से पास में रह जाये तो ?"

"तो वापिस कर दों | वर्ना वह भी चोरी है | यहाँ तक कि तुम्हें कोई चीज सड़क में मिल जाए उसे उठा कर अपने पास रख लेना भी चोरी है |"

"पुलिस को चोर का पता कैसे चलता है ?"

"जिसके घर में चोरी होती है, वो पुलिस में जाकर रिपोर्ट करता है कि उसकी क्या चीज चोरी हुई है | फिर पुलिस एक कुत्ता लेकर आती है | कुत्ता सूंघ सूंघकर पता लगा लेता है |"

पुलिस का वह कुत्ता मानो मुझे सूंघ गया | कहीं ऐसा तो नहीं, मंजीत के पिता जी ने प्लास्टिक के उन टुकड़ों की  चोरी कि रिपोर्ट कर दी हो ? वो किसी को छोड़ते तो है नहीं |

"अगर किसी की कोई चीज़ गलती से चीज रह जाये तो ? " मैंने फिर पूछा |

"देखो, गलती सब से होती है | गाँधी जी से भी तो हुई थी | गाँधी जी ने अपनी गलती मान ली | अगर किसी की कोई चीज जाने या अनजाने में तुम्हारे पास आ जाये तो वापिस कर दो |  ज्यादा से ज्यादा माफ़ी मांग लो |"

"माफ़ी क्या होती है ?"

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लक्ष्मी भैया की सीधी और सरल व्याख्या के बाद मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था | कई बार मन में आता कि सीधे मंजीत के घर चले जाऊँ और प्लास्टिक के वो टुकड़े वापिस करके माफ़ी मांग लूँ | मगर कोई भी वस्तु मांगने के लिए मेरी दुविधा से आप अब तक तो परिचित हो ही गए हैं | और वो चीज, जिसका नाम 'माफ़ी' था, उसको मांगने के लिए कलेजा तो बड़े बड़ों के पास नहीं होता | मैं तो एक बच्चा था अगर कहीं उसके पिताजी ने बिना पूरी बात सुने कमरे में बंद करके पुलिस बुला ली तो ? इसमें कोई शक नहीं था कि वो पुलिस में रिपोर्ट कर चुके होंगे | और एक तरीका ये था कि शशि दीदी को बता दिया जाए | शायद उसकी बात वो लोग जरुर सुनेंगे | पर अगर उन्होंने खुद बाबूजी को बता दिया तो ? नहीं, यही ठीक रहेगा | उनको ही बता दिया जाये | पर अपनी गलती स्वीकार करने के लिए हिम्मत चाहिए | गलती करने के लिए जितनी हिम्मत की जरुरत होती है - उससे कई गुना ज्यादा !

बाबूजी ने गाँधी जी की पुरानी तस्वीर की बदले एक नयी तस्वीर लगा दी थी | तस्वीर दीवार पर टेढी टिकी थी उसके पीछे गौरैया अक्सर घोंसला बना देती थी | जिसे हर दस पंद्रह दिनों मे माँ साफ़ कर देती थी |

"टुल्लू चोरी मत करना | ", "टुल्लू चोरी करना बुरी बात है |" वही तस्वीर रोज घर से बाहर निकलते वक्त मुझे हिदायत देती थी | बाबूजी को कुछ पता नहीं था, पर बापूजी तो भगवान के पास थे | वो सब देख रहे थे और अब मैंने टिप्पी चुराना बंद कर दिया | बबन से मैं कतराने लगा | चोरी तो छूट गयी , पर पहले से संग्रहित की गयी वस्तुओं का मोह छूटा नहीं था | मन में हर पल विचार आता कि अगर मैं माफ़ी नहीं मांग सकता तो उन वस्तुओं को फेंक दूँ, जिन पर 'चोरी' का रंग लगा था  |  मैं अब भी माचिस की  डिब्बी खोल कर बंद करता था | बस, दो टिप्पी और मिल जाती तो माचिस  की वह डिब्बी भी भर जाती | कभी जिग-सॉ पहेली के चमकदार टुकड़े देखता जो अभी तक मुझे आकर्षित कर रहे थे |

व्यास भैया ने सेक्टर ५ में २४ यूनिट में एक किराये का घर लिया था और लक्ष्मी भैया वहां चले गए पर | उनकी वह बात मेरे कानों में रोज गूंजती थी | एक वह दिन आया जब सब कुछ छूट गया | पर जो हादसा हुआ , उसने उस दिन को इतने जोर से रेखांकित किया कि वह पृष्ठ ही फट गया |

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"कहाँ है तुम्हारा चप्पल ?"बाबूजी का क्रोध जायज था | मैं थर - थर कांप रहा था | यह कैसे संभव था ? मात्र  पाँच ही मिनट में कैसे तस्वीर बदल गयी ?

"बाबूजी, कहाँ जा रहे हो ?" मैंने पूछा था |

"कहीं नहीं बेटा, बस यूँ ही ..."

"बाबूजी, मैं भी चलूँ ?" मैंने आग्रह किया |

बाबूजी ने एक पल सोचा | फिर कहा ,"ठीक है | नंगे पाँव नहीं , चप्पल पहन के आओ |"

बरामदे में एक कोने में सब जूते चप्पल रखे थे | मगर मैंने आँखें फाड़ फाड़ कर देखा | मेरी चप्पल वहाँ नहीं थी ..... गायब..... जैसे॥ गधे के सर से सींग ....

अगले ही पल मैं बेतहाशा मैदान की ओर दौड़ रहा था | हाँ, यही तो वह जगह थी, जहाँ कल शाम मैने छुआ-छुई खेलने के पहले चप्पल उतारा था | ये सामान्य प्रक्रिया थी | चप्पल पहनकर दौड़ना मुश्किल होता है | वहीँ तो मैंने चप्पल उतार कर रखा था | पर इस बात को सत्रह घंटे बीत गए थे | इसी बीच उसे धरती निगल गयी या आसमान खा गया ?अब महसूस हो रहा था कि जब चोरी का हादसा अपने ऊपर गुजरता है तो कैसे लगता है |

बाबूजी का गुस्सा बेवजह नहीं था | और सब बच्चे , अगर चप्पल पहनते तो हवाई चप्पल पहन कर आते थे ;  पर बाबूजी को हवाई चप्पल बिलकुल पसंद नहीं थी | किसी डॉक्टर ने उन्हें बताया था कि इससे चर्म रोग हो सकता है |   बाबूजी हमारे लिए चमडे की चप्पल लेते थे | जो महँगी होती थी | तिस पर दो हफ्तों मैं मैने ये दूसरी चप्पल गुमाई थी | 
 इस चप्पल की चोरी से मेरे मन में वह निश्चय दृढ हो गया जो कई दिनों से पल जरूर रहा था लेकिन मोह के भारी बोझ तले दबा हुआ था | जब मैं बाबूजी के साथ अगले ही पल सिविक सेंटर जा रहा था तो मेरी जेब में कुछ था |

"अब तुम्हारे लिए सेंडल लेंगे बेटा |" बाबूजी बोल रहे थे ,"चप्पल तुम पहनते हो, खेलने के समय उतारते हो और भूल जाते हो |"

सिविक सेंटर की दुकाने दिन के समय उतनी चमकदार नहीं दिखती थी, जितनी रात के समय | फिर भी सिविक सेंटरआखिर सिविक सेंटर था | करोना की दूकान पर मैं बैठा था | नौकर एक नपना लेकर आया और मेरा पाँव उस पर रखने को कहा |

"जरा एक नंबर बड़ा सेंडल दिखाइए | बढ़ने वाले बच्चे हैं |" बाबूजी कह रहे थे | और तभी मुझे कुछ दिख गया |

"बाबूजी, मुझे वो सेंडल चाहिए | साँप सीढ़ी वाला |" मैं उछला | साँप सीढ़ी वाला सेंडल मेरे नम्बर का था नहीं | दो नंबर बड़ा था | पर मैं अड़ा रहा |

झक मारकर बाबूजी ने दो नम्बर बड़ा सेंडल ही ले लिया |

"साँप सीढ़ी कहाँ है ?" सेंडल से ज्यादा मुझे साँप सीढ़ी में दिलचस्पी थी |

" डिब्बे के अन्दर है |" दूकानदार ने कहा |

"सेंडल पहने रहो उतारना मत " बाबूजी ने हिदायत दी | चलते चलते मैंने जूते के डिब्बे में पूरा हाथ डाला | प्लास्टिक की बटन गोटियाँ और पांसा तो हाथ में आये पर बोर्ड किधर था  ?

"बाबूजी एक मिनट " में उल्टे पांव दुकान की ओर भागा, "बाबूजी , बोर्ड तो है ही नहीं |"

"डब्बे के अन्दर ही बना है | " दूकान वाले ने बताया |

जब तक बाबूजी स्कूटर स्टार्ट करते, मैंने जूते का डिब्बा फाड़ दिया | डिब्बे के अंदरूनी भाग में साँप सीधी का बोर्ड बना था |  देखकर थोडी निराशा हुई | वह एकरंगी बोर्ड था | सब कुछ नारंगी रंग से बना था | सारे साँप नारंगी, सारी  सीढियां नारंगी | 

स्कूटर अब भी चालू नहीं हो रहा था | बाबूजी ने पेट्रोल की टूटी घुमाई और उसे "आर' पर ले आये | स्कूटर रिज़र्व में आ गया था | सिविक सेंटर से पेट्रोल भराने सेक्टर सात जाना पड़ा | रास्ते में बाबूजी का  कॉलेज पड़ता था |

बाबूजी ने स्कूटर वहीँ मोड़ लिया | छुट्टी का दिन था कॉलेज बंद था केवल बाहर चौकीदार राठौड़  कुर्सी पर बैठा था |  बाबूजी को आते देखकर भी वह बैठे ही रहा |

"राठौड़ कोई आया तो नहीं ?" बाबूजी ने पूछा |

"नहीं सर |"

बाबूजी थोडी देर में ही निकल पड़े |चलते च लते बोले " ये राठौड़ भी बड़ा अजीब है | मैं जाऊँ या मिश्र जी , या कोई भी आये, कुर्सी पर ही बैठे रहता है | ये नहीं कि आदर से खड़े हो जाय | पर आदमी है ईमानदार |"

मैं पूछना चाहता था कि ईमानदार क्या होता है ? पर बाबूजी के तेवर देखकर हिम्मत नहीं हुई |

पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल भराते समय पेट्रोल वाले ने अचम्भे से पूछा <"मोबिल बिलकुल नहीं ?"

 "कहा तो यार, नहीं |"

पेट्रोल भराने के बाद बाबूजी ने डिक्की से मोबिल की अपनी बोतल और नपना निकाला और नाप कर पेट्रोल टंकी में मोबिल उड़ेला | 
 " टू टी ? सर हम लोग भी टू टी ही डालते हैं |" 

"ऐसा ?" बाबूजी बोले ,"वेरी गुड ! " 

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थोडी ही देर में हम फिर सेक्टर २ आ गए | इस बार बाबूजी सड़क २५ पर करके सड़क दो में आ गए | यहाँ डबल स्टोरी के घर बने थे | पहले ब्लाक के सामने उन्होंने स्कूटर रोकी | मुझे पता लग रहा था कि दो नंबर बड़े सैंडिल पहनने का अर्थ क्या होता है | फिर भी 'खटर-खटर' करके,हम लोग सीढियों से चढ़कर पहली मंजिल पर आ गए | 

 घर के बाहर हल्का अँधेरा ही था | जबकि अभी दिन के दस ग्यारह बजे थे | बाबूजी ने चप्पल उतारी |

"सेंडल उतारो |"मुझे झिझकते देखकर बाबूजी ने जोर देकर कहा ,"सेंडल उतारो |"
 
वाह , क्या अच्छा घर था | दरवाजे पर घंटी लगी थी | बाबूजी ने घंटी बजाई | अरे , ये तो राजू का घर था | बाबूजी के लिए यह उनके मित्र लक्ष्मी नारायण शर्मा का घर था जो राजू के पापा थे | इस घर में बैठक में और लोग भी बैठे थे लम्बू डॉक्टर शर्मा को तो मैं पहचानता था |  शतरंज के खिलाडी तिवारी जी भी थे | 

मुझे उनसे कोई सरोकार नहीं था | मैं तो राजू के साथ अन्दर कमरे में चले गया | अन्दर राजू की छोटी बहन रिंकी थी |

"तुम्हारा नाम क्या है ?" मैंने उस लड़की से पूछा | वह चुप चाप गुमसुम सी खड़े रही |

"इसको बोलना नहीं आता ?" मैंने राजू से पूछा |

"आता तो है , पर अभी छोटी है ना | ज्यादा बात नहीं करती |"

तभी राजू की मम्मी आ गयी |

"बिस्किट खाओगे बेटा ?" उन्होंने मुझसे पूछा | अब मेरे मुंह से बोल नहीं फूटे | पता नहीं किसने , मुझे कहा था कि अगर कोई खाने के लिए कुछ पूछे तो बेशरम जैसे टूट नहीं पड़ना चाहिए | उसकी मुम्मी ने एक बड़े से प्लेट में ढेर सारी गोल गोल छोटी और कुछ बड़ी बिस्किट लेकर आयी  |

"तुम कौन से स्कूल जाते हो बेटा ?"

"मैं स्कूल नहीं जाता आंटी |" मैंने कहा ," अगले साल जाऊंगा |"

"मैं तो स्कूल जाता हूँ |" राजू गर्व से बोला ,"मेरा स्कूल यहाँ से दीखता भी है | दिखाऊं  ?"

हम दोनों बालकनी में आ गए | उसने दूर से एक घर देखाया , जिसके सामने झूला लगा था |

"अच्छा ? झूले वाला कौन सा स्कूल है ?"

"" बालमंदिर " उसने कहा |

"मंदिर ? किस भगवान् का ?"

"मंदिर नहीं, बाल मंदिर स्कूल है वो |"

"अच्छा ?" मुझे कुछ शंका हुई ,"क्या करते हो स्कूल मैं ?"

"स्कूल मैं ? खेलते हैं |"

"और ? "

"झूला झूलते हैं |"

"और ?"

"और ? " वह सोच में पड़ गया ,"और गाना गाते हैं |"

"गाना ? गाना तो मुझे भी आता है | सुनाऊँ ?"

"सुनाओ " उसने कहा | 

मैंने गला साफ़ किया और गाना शुरू किया ," मेरी भैस को डंडा क्यों मारा ? वो खेत का चारा चरती थी | तेरे बाप का वो क्या करती थी ? आ आ आ ...."

अब तक मैंने जितने लोगों को ये गाना सुनाया था , व्यास ,श्यामलाल, रामलाल और कई और मेहमान - सबने शाबासी दी थी | उनकी शाबासी क्या थी - एक ठहाका - जिसने मेरा उत्साह बढाया था | राजू भी हंसा , पर उसकी हंसी में एक व्यंग्य छिपा था |

"क्यों ? अच्छा नहीं है ?"

"ये गाना तो रेडियो पर आता है | मैंने सुना है |"

"तो क्या रेडियो का गाना अच्छा नहीं होता ?"

"नहीं, बच्चों को रेडियो का गाना नहीं गाना चाहिए |"

"अच्छा ठीक है | तू एक गाना सुना |" मैंने ललकारा |

"बा बा ब्लैक शिप ...."

मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा "अंग्रेजी गाना है ?"

"हाँ "

....अच्छा... इंग्लिश मीडियम चाय गरम ........

"इसका मतलब क्या है ?" मैंने पूछा |

"मतलब ? मतलब ये एक शिप के बारे में है |"

"अच्छा ? क्या मतलब है इसका ?"

"शिप यानी कि एक जानवर जिससे कि ऊन निकलते हैं |"

" पर गाने का क्या मतलब है ?"

"ये मतलब उसके बारे में है | मुझे और पता नहीं |"

"अच्छा , में एक गाना सुनाऊ ?"

"सुनाओ "मुझे भरोसा नहीं था कि यह गाना में पूरा कर पाउँगा | दो तीन साल पहले रामलाल
मामा बबलू को गिनती सिखाने के लिए ये गाना सिखाते थे | मुझे  कैसे याद हो गया - पता  नहीं |

"एक था राजा का बेटा |
दो दिन से भूखा था लेटा |
तीन डॉक्टर दौडे आये |
चार दवा के टुकड़े लाये |
पॉँच मिनट तक गरम कराये |
छः छः घंटे बाद पिलाए |
सात दिनों में नैन खोले |
आठ मिनट राजा से बोले |
नौ दिन में कुछ हिम्मत आई |
दस दिन पीछे कूद लगाईं |"

अचानक मेरा हाथ जेब में चले गया जहाँ कुछ फूला फूला लग रहा था | सारी  बात याद आ गयी | हम अब भी बालकनी में ही खड़े थे | 

"राजू , एक गिलास पानी मिलेगा ?" राजू पानी लेने अन्दर गया |

 मैंने उस चीज को बाहर निकाला | ढेर  सारी तस्वीरें मन में कौंध गयी | मुस्कुराते मंजीत का चेहरा , बिल्डिंग ब्लॉक , नहानी के बल्ब की रौशनी में चमकता हुई ये चीज, रमेश चाचा , बबन .... और मैंने हाथ बालकनी के बाहर लटकाए और उसे धीरे से छोड़ दिया ...पंजों के बल खड़े होकर, मैंने बाकलनि की दीवार के नीचे  झांक कर देखा | दीवार से उभरा हुआ एक संकरा सा आला था | वे टुकड़े उसी में अटक गए थे | अच्छा हुआ, नीचे नहीं गिरे | नीचे एक मोटा कुत्ता घूम रहा था | 

राजू आ गया ,"मम्मी पूछ रही है कि तुम चाय पियोगे या शरबत ?"

"पता नहीं |" मैंने कहा |

"तुझे साँप सीढ़ी खेलना आता है ?'

ये भी कोई सवाल हुआ ? किसको नहीं आता ? 

"हाँ हाँ एक साँप सीढ़ी तो मुझे अभी सेंडल के साथ मिली है | स्कूटर की डिकी में रखी है |"

राजू साँप सीढ़ी लेकर आ गया | 

"तेरी भी साँप सीढ़ी में निन्यानवे पर सबसे बड़ा साँप है |"

"वो तो सभी साँप सीढ़ी में होता है |"

"पर हम लोगों के घर की साँप सीढ़ी में सत्तानवे पर एक बड़ा साँप है |"

हम खेलने बैठ गए राजू की बहन रिंकी गुमसुम सी वहीँ खड़े रही | हम पांसे फेंकते रहे | गोटियाँ चलते रहे  मेरे सर से एक बोझ उतर गया था | ऐसा लगता था कि खुशियों भरा वो दिन कभी ख़तम नहीं होगा |

पर अचानक एक झटके में वह दिन ख़तम हो गया ......

खेलते खेलते ही अचानक मैंने देखा कि वह निन्यानवे का साँप जिन्दा हो गया और लपलपा रहा है | अरे, वह ही क्यों, सारे के सारे साँप जिन्दा हो गए | सभी साँप उस बेडरूम के साथ लगे किचन में घुसे और आग की लपटों में बदल गए और ना जाने कहाँ से ढेर सारे साँप आये और उस आग के गोले में समा गए | यह क्या ? वह आग का गोला तो चला , हाँ करीब दो तीन कदम चला और उसमें से मैंने एक औरत को समाते देखा | सारे साँप , आग के शोले , उस औरत से लिपटे पड़े थे |

अगले ही क्षण घर के सब लोग चिल्लाते हुए दौडे | लक्ष्मी नारायण अंकल ने पानी कि बाल्टी उन शोलों पर फेंका | वे चीखते जा रहे थे | वह काला काला शारीर जमीन पर गिर पड़ा | कौन क्या कहा रहा था - कुछ समझ में नहीं आ रहा था | क्या हो रहा है - वह भी कुछ पता नहीं चला |

अगले ही पल मैंने पाया कि बाबूजी मुझे , राजू और रिंकी को लेकर बाहर खड़े है "चलो बेटा , तुम्हे घर छोड़ दूँ | राजू रिंकी - चलो तुम भी हमारे साथ चलो बेटे | "

फिर अचानक पता नहीं उनके मन में क्या आया ; वे मुझसे बोले ," बेटा तुम यहाँ से इन दोनों को लेकर अकेले घर जा सकते हो ? देखो बेटा,  ये मैदान है न ? इसको पार करोगे तो सड़क तीन आएगा |"
"
"हाँ बाबूजी | उसके बाद बिजली का ट्रांसफोर्मर आयेगा वहीँ बाईस सड़क है अपनी |"

"हाँ बेटा, तुम जाओ राजू और रिंकी को भी ले जाओ |" बाबूजी फिर तेजी से हमें वही छोड़कर ऊपर चले गए | 

दो कदम चलते ही मैंने देखा कि मेरे पांव में सेंडल नहीं है |आनन फानन में मैं फिर ऊपर की ओर दौडा | घर का दरवाजा बंद था , पर आवाज़ से लग रहा था कि काफी लोग इधर उधर दौड़ रहे हैं | और अफरा-तफरी मची है | मुझे लगा कि मुझे वहाँ नहीं रुकना चाहिए | मैं सेंडल हाथ में ही लेकर नीचे आ गया |

सड़क दो और तीन के बीच के उबड़-खाबड़ मैदान में हम तीनों चल रहे थे | रिंकी बीच में थी | हम दोनों उसका हाथ पकड़ कर चाभी वाले खिलौनों की तरह चल रहे थे | कोई किसी से बात नहीं कर रहा था | अचानक मुझे लगा कि मेरे हाथ से कुछ छूट गया | वह रिंकी का हाथ था |

चलते-चलते रिंकी अचानक खड़ी  हो गयी थी | 

"रिंकी " राजू ने हलके से खींचा ,"चल रिंकी |"

रिंकी अपनी जगह ही खड़ी रही | ना हिली ना डुली | सुबह से गुमसुम , चुपचाप रहने वाली लड़की के ओंठ से अचानक पहली बार एक शब्द फूटा ," मम्मी ..."

अचानक वह पीछे मुडी और डगमगाते क़दमों से तेजी से अपने घर की आर भागी |

"रिंकी रुक " राजू उसके पीछे भागा |

मेरे क़दमों में मानो कील ठुक गयी थी | बेबस होकर मैंने आवाज दी ,"राजू , रिंकी वापिस आ जाओ |"

पर ना जाने कहाँ से रिंकी के पाँव में इतनी शक्ति आ गयी थी | उसकी सिसकियाँ और आर्त पुकार हवा में गूंज रही थी ,"मम्मी......,मम्मी ......, मम्मी ...."

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"अस्सी प्रतिशत जलने के बाद कोई आदमी बच सकता है ?" व्यास कौशल को समझा रहे थे | राजू की मम्मी ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था | अब लोग उनके जलने के बारे में बात कर रहे थे | अक्सर ऐसा होता था - मैंने बाद में जाना कि - ऐसे वार्तालाप बच्चों के सामने नहीं किये जाते | माँ ने मुझसे कहा था , कि मैं बाहर जाकर खेलूं | मैंने खुद अपनी तरफ से कारण जानने की कोशिश नहीं की |

"अगर वो हवा वाला स्टोव है ," मुन्ना ने एक दिन मुझे बताया था ," तो ज्यादा हवा भरने से स्टोव फट जाता है |"अगर स्टोव फूटा होता तो कोई आवाज़ भी आती | पर मुझे तो कोई आवाज़ नहीं आई |

कई बार लगता ,मिट्टी तेल का डब्बा ऊपर की रेक से लुढ़क गया होगा |

राजू और रिंकी कहाँ हैं , किसके घर में हैं , मुझे कुछ पता नहीं चला | फिर पता चला, कि रिंकी को तेज बुखार है |  काफी तेजा बुखार ....

"उसका तापमान लेना ही एक समस्या है |" व्यास भैया समझा रहे थे, "आम तौर पर तापमान लेने के लिए थर्मामीटर जीभ के नीचे रखा जाता है | पर वह बच्ची है |  क्या भरोसा, दांत से काट ले |बगल में दबा कर रखने से सही तापमान नहीं आता |"

 फिर शाम तक पता चला कि रिंकी को  १०४ डिग्री बुखार है |

बाबूजी कहाँ थे, कोई खबर नहीं  | वे देर रात कितने बजे आते थे - कोई कह नहीं सकता था | अस्पताल से रिंकी के लिए दवाई लेने व्यास भइया बाबूजी का स्कूटर लेकर निकले | चलाना आता नहीं था | अच्छा यह हुआ कि किसी को टक्कर मारने के बजाय स्कूटर नाली में घुसा दिया |

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हफ्ते भर बाद मेहतर आग जला रहा था | इस बार बी. एस. पी. की कचरा गाडी में कुछ बेशरम काटने वाले लोग आये थे जो सोग के घर के पीछे का बेशरम काट रहे थे | "साँप साँप  साँप " सोगा चिल्लाया | बेशरम काटते - काटते एक साँप भी कट गया था | बेशरम काटकर उन लोगों ने उसमें आग लगा दी और कटे हुए साँप को भी आग में झोंक दिया | बबन, मुन्ना, छोटा, सोगा , शशांक - सब खडे होकर आग में जलता हुआ साँप देख रहे थे |  साँप को आग की लपटों में बदलते मैं थोड़े दिन पहले ही देख चुका था |

सब की नज़रें आग की लपटों में लुप्त होते साँप पर टिकी थी | किसी को भान नहीं था कि आग में कुछ और भी जल रहा था | केवल मेरी नज़र उस चाभी छाप माचिस की डिब्बी पर टिकी थी जिससे लपटों में हलकी सी पुट पुट की आवाज़ आ रही थी | अगर उसमें केवल दो  टिप्पी और होती तो पूरी डब्बी भर गयी होती | धुएँ की पृष्ठभूमि में दूर भिलाई इस्पात संयंत्र के चिमनियों का धुआँ आकाश की ओर बढ़ रहा था |