"क्या तूने 'शोले' देखी है? नहीं देखी ? अबे साले, इसने 'शोले' नहीं देखी |"
पूरे भारत की तरह 'शोले' भिलाई में भी दबे पाँव आयी और फिर जान मानस पर छा गयी | उन दिनों कोई भी फिल्म पूरे भारत में एक साथ प्रदर्शित होती नहीं थी | पहले महानगरों और कुछ गिने चुने बड़े शहरों में इसे प्रदर्शित करके लोगों का मन टटोला जाता था | अगर चलचित्र डब्बा है तो बात वहीँ ख़तम हो जाती थी वर्ना दे दनादन प्रतिलिपियां बनाकर छोटे शहर में बड़े दामों में बेचा जाता था | इस तरह भिलाई जैसे शहर की बारी दो-तीन सप्ताह बाद आती थी |
हमारी सड़क में फिल्मों का एकमात्र समालोचक और ज्ञानी मनमोहन का पडोसी दीपक नायक था | जब हम पांचवीं पहुंचे तो वह शाला क्रमांक आठ छोड़कर भिलाई विद्यालय चले गया था, वर्ना शाला आते जाते वो हमारे ज्ञान में वृद्धि करता था | वैसे घर से शाला नंबर आठ का रास्ता ही कितना था | अब वह खेल के मैदान में ही मिला करता था | फिल्म में भिलाई के आने के पूर्व उसके हिसाब से 'शोले' धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की एक और फिल्म थी, जिसमें संजीव कुमार भी था | यानी 'सीता और गीता' जैसा कुछ | और अमिताभ बच्चन को तो बड़ी फिल्मों में कहीं भी फिट किया जा सकता है - जैसे 'रोटी कपडा और मकान' में चिपकाया गया था | उसकी इस विवेचना पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं था, क्योकि वह वैसे भी धर्मेंद्र का सच्चा भक्त था |
हमारे बीच फिल्मों का दूसरा बड़ा जानकार हमारी कक्षा का सूर्य प्रकाश था जो रहता तो मंदिर वाली सड़क चार में था, पर शाम को खेलता हमारे साथ था | इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी | मंदिर के आसपास की सड़कों (३,४,५,६) के बच्चे परंपरागत रूप से फिल्मों के जानकार होते थे | परिवेश ही कुछ वैसा था |
तो एक दिन सूर्य प्रकाश खेलने नहीं आया | दूसरे दिन जब वह आया तो दीपक के आते ही उसने घोषणा कर दी कि वह 'शोले' देख कर आया है | और दीपक की विवेचना के अनुसार वो बेशक धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की एक और फिल्म थी, पर बात उससे कहीं आगे थी | बस फिर क्या था ? उस दिन खेल के पूरे समय दीपक और उसके बीच 'शोले' की ही चर्चा चलते रही | मैं सी टीम ने कितने रन बनाये, कौन आउट हुआ, किसका ओवर ख़तम हुआ, सब बातें गौण हो गयी | अपनी गेंदबाज़ी करते समय सूर्य दो गेंदों के बीच में 'शोले' से सम्बन्धित किसी प्रश्न का उत्तर देता या कहानी आगे बढ़ाता | कई बार एक-एक ओवर में वो आठ या नौ गेंद भी दाल देता | तब सुबोध और मिलिंद को शक होता कि ओवर कुछ लम्बा खिंच गया है | (अम्पायर तो थे नहीं | फील्डिंग भी कॉमन फील्डिंग होती थी |), खलनायक कौन है, उसे पता नहीं था - उसका नाम गब्बर सिंह था |
संयोग की बात ये कि अगले एक साल तक सारे भारत में लोग उस अभिनेता को गब्बर सिंह के नाम से ही जानते थे | ---------------
लड़कियों का तो पता नहीं, लेकिन लड़कों में मैं , मेरा मेज सहभागी प्रमोद मिश्रा और रमेश मिश्रा - कक्षा में केवल हम तीन ही थे, जिन्होंने 'शोले' नहीं देखी थी | वैसे मुझे 'शोले' देखने का मौका जरूर मिला था | मेरे सामने नारियल फोड़े गए थे, मिन्नतें की गयी थी - लेकिन मैं 'शोले' देखने नहीं गया |
सेक्टर २ का , हमारी शाला का पार्क उन दिनों नया नया ही बना था | कहने का मतलब, फव्वारे तोड़े नहीं गए थे | बैठने की, पत्थर की बानी हलकी गुलाबी कुर्सियां ज्यों की त्यों थी | फव्वारे के हौज़ के चारों तरफ लगाईं गई फूलों की क्यारियां रौंदी नहीं गयी थी | सी-सा झूले की कुर्सियां पटक-पटक कर तोड़ी नहीं गयी थी | फिसल पट्टी के ऊपर के प्लेटफार्म की लकड़ी की पट्टियां हटाई नहीं गयी थी | यानि वो अभी तक अक्षुण्ण ऐसा उद्यान था जहाँ जाकर मन प्रफुल्लित हो जाता था | कई बार शाला छूटने के बाद, कई बार खेल ख़तम होने के पश्चात्, मैं उस उद्यान में जाकर यूँ ही बैठे रहता था | उस दिन भी वही हुआ | शाम को जब घर पहुंचा तो घर में कोई भी नहीं था और माँ के साथ जीजाजी बैठे मेरा इंतज़ार कर रहे थे |
कहाँ गए सब लोग ?
"अरे विजय बाबू | कहाँ चले गए थे ? संजीवनी रामलीला मैदान में देखकर आयी | तुम वहां नहीं थे | "
जीजाजी कब आये ?
"चलो, जल्दी करो | फिल्म शुरू होने वाली है |"
" कहाँ ?"
"सब लोग नई बसंत में तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे हैं | "
अच्छा.... 'शोले' |... अब समझा |
"नहीं | मैं नहीं जाऊंगा |" मैंने कहा |
'क्या हुआ ?"
"बस | नहीं जाना है |"
"अरे चलो भी | टिकट कट चुकी है |"
उस समय घर में केवल मैं और माँ ही बैठे थे बाकी घर के सारे सदस्य जीजाजी के साथ छह से नौ 'न्यू बसंत' में 'शोले' देख रहे थे | माँ को तो वैसे भी नहीं जाना था - वर्ना खाना कौन बनाता ? आजकल के फैशन के विपरीत उन दिनों बाहर खाना खाना सख्त वर्जित था | माँ तो आज भी - भले भूखे रह ले, पर बाहर का खाना नहीं खाती | लेकिन मेरे न जाने से माँ को अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए कोई तो मिल गया था |
हुआ यह था कि बाबूजी और माँ के अच्छे पारिवारिक मित्र के घर एक हादसा हो गया था | उनके घर गाँव से बहुत से मेहमान आये थे | हमारे ही घर की तरह सारे लोग और मेहमान 'शोले' देखने गए थे | घर में केवल दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की ही थी | जब वे फिल्म देखकर तीन घंटे बाद लौटे तो पाया कि उनकी किशोर बालिका ने आग के शोलों में आत्मदाह कर लिया है | सारा शरीर जल गया था |
माँ को 'शोले' का अर्थ मालूम था या नहीं, पर वे मेरे सामने बड़बड़ाते रही ,"अच्छा किया बेटा | तू देखने नहीं गया | बड़ी ही दुष्ट फिल्म है | लोग जल जाते हैं | फूल सी बेटी ... उसका भी नाम सुधा था - तेरी बहन (बेबी) की तरह ... | और ये लोग कुछ समझते ही नहीं | अरे आधी रात को नाचने गाने का शौक है तो सिविक सेंटर चले जाओ | कोई और फिल्म नहीं मिली" ..... आदि इत्यादि |
मेरे ना-नुकर का कारण लोगों ने उस समय पूछा | मैंने आज तक किसी को नहीं बताया | आज आपके सामने राज़ खोल रहा हूँ |
दरअसल बचपन से सुनते आये थे, फ़िल्में देखना बुरी बात है | बच्चे बिगड़ जाते हैं | पिछले साल यानी १९७४ में मैंने 'रोटी, कपड़ा और मकान' देखी थी | उसको एक साल पूरा होने में दो सप्ताह बचे थे | मैंने निश्चय किया था कि एक साल का रिकॉर्ड किसी हालत में बना ही लिया जाए |
क्या ये संयम की परीक्षा थी ? मुझे तो नहीं लगता | दरअसल 'शोले' के संवाद, कहानी, गाने इस कदर हवा में तैर रहे थे कि रहस्य रोमांच कुछ भी बाकी नहीं रह गया था | गणेश पूजा के समय मंदिर वालों की गणेश पूजा कमेटी ने भोंपू पर पूर्ण ध्वनि-सामर्थ्य के साथ एल. पी. में 'शोले' के संवाद सुना ही दिए थे | राम लीला के मैदान में क्रिकेट खेलते समय बस कान उधर लगाने की आवश्यकता थी | फिर हर जगह जहाँ देखो वहां , गब्बर सिंह के संवाद की चर्चा होती | यहाँ तक कि दिलीप ने भी उसे अपनी 'मिमिक्री' में अपना लिया -"ये हाथ नहीं बिल्ली का बच्चा है" |
प्रमोद मिश्रा का किस्सा दूसरा था | वह अपनी माँ के साथ 'जय संतोषी माँ' देखकर आया था और उसके ही रंग में रँग गया था | जहाँ राजीव जावले रमेश मिश्रा को 'शोले' की गौराव गाथा सुना रहा होता ,"अबे, अमिताभ बच्चन का क्या 'नेम' (निशाना) दिखाया गया है| एक डाकू पुल के नीचे से झांकता है | बस, इत्तु सा छेदा होगा | और अमिताभ बच्चन की गोली सीधे टन्न से उसकी खोपड़ी में लगती है |" वहीँ प्रमोद मिश्रा संतोषी माता के चमत्कारों से मुझे अवगत कराता | संतोषी माता का व्रत - सोलह शुक्रवार वाला - अक्सर कोई न कोई रखता ही था | मेरी माँ ने भी एक ज़माने में रखा ही था और कई बार वो मुझसे कथा बाँचने भी कहती थी - इसलिए प्रमोद मिश्रा का महात्म्य वर्णन मुझे कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगता था |
वैसे ये मैं अभी तक अपनी बातें कर रहा था - राजीव सिंह की नहीं | कुछ लोगों के दिलो-दिमाग पर 'शोले' ने जबरदस्त प्रभाव डाला था | राजीव सिंह उनमें से एक था | उसने स्वतः की काल्पनिक 'शोले' की दुनिया रच ली थी और बीरु का किरदार आत्मसात कर लिया था | एक दिन आधी छुट्टी में उसने बड़ी बहनजी की खिड़की के पीछे स्थित सूखी पानी की टंकी पर चढ़ने की कोशिश की | मुश्किल यह थी कि वह रवींद्र मुंशी की तरह छरहरा नहीं , बल्कि थोड़ा सा स्थूलकाय था | फलतः सफल नहीं हो पाया | तब उसने प्रार्थना स्थल पर लगे झंडोत्तोलन के मंच से ही संतोष किया और ऊपर चढ़ कर चिल्लाया,"कूद जाऊंगा, फांद जाऊँगा, मर जाऊँगा |"
जय के रूप में मनमोहन था ही , हालाँकि लम्बाई की हिसाब से उन दिनों वह लम्बा नहीं छोटा था | उसका घर का नाम ही 'छोटा' था | उसके गले पर हाथ डालकर वह गाना गाता,"ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे |" एक दिन कक्षा में ही वह अनमोहन के गले में हाथ डालकर बैठा था | व्याख्यान बीच में रोककर कालकर बहनजी बोली,"बहुत प्यार आ रहा है |"
मेरे नाम के कारण उसकी नज़र में लिए केवल एक ही रोल था | राजीव जावले को असरानी का रोल पसंद था और रवींद्र मुंशी सांभा बनकर पाठशाला के मुख्यद्वार के पास बने सीमेंट के बुर्ज पर चढ़ने को राजी था |
गब्बर के रोल के लिए तो इतने लोग एक पांव पर ऐसे खड़े कि राजीव सिंह के लिए सरदर्द पैदा हो गया कि कौन इस पात्र का हकदार होगा |
इंतज़ार, कमी, तलाश थी तो बस, एक अदद बसंती की |
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'शोले' नयो बसंत में चल रही थी | उससे ही लोगों का मन नहीं भरा था | मैंने बताया कि गणेश पूजा के दौरान मंदिर वाले भोंपू पर 'शोले' के संवाद वाले एल. पी. लगा देते थे | तैंतीस मिनट की उस एल. पी. में साढ़े तीन घंटे की कहानी सिमटी हुई थी | क्या कहा मैंने ? साढ़े तीन घंटे ? शुरू से ही 'शोले' को लेकर ये विवाद रहा कि 'शोले' कितने रील की फिल्म थी | मनमोहन का भाई रमेश और दीपक नायक झगड़ा करते कि 'शोले' इक्कीस रील की है या चौबीस रील की | दीपक नायक दवा ठोंकता कि बम्बई में चौबीस रील की शोले दिखाई जा रही है और उसने वो खबर 'स्क्रीन' में पढ़ी है | रमेश कहता, 'शोले' इक्कीस रील की फिल्म है | वैसे न्यू बसंत में काट पीट और खींच तान कर सत्रह रील की फिल्म दिखाई जा रही थी |
तो उस दिन मिलिंद को खेलने के लिए बुलाने उसके घर गए |
"एक मिनट | अभी धर्मेंद्र गब्बर के अड्डे पर पहुंचा है | अभी आता हूँ |" यह कहकर वह फिर अंदर चले गया |
स्पीकर की आवाज़ बाहर तक आ रही थी | हम सब समझ गए, अंदर क्या चल रहा है ?
सब मन्त्र मुग्ध से अंदर चले गए | ग्रामोफ़ोन के टर्न टेबल पर एक थाली के आकार का एल.पी. घूम रहा था |
"वो वादा मेरे दोस्त ने किया था | मैं करता तो तोड़ देता |"
मिलिन्द के सामने वाले कमरे में बहुत से लोग पहले ही विराजमान थे | मिलिंद के चाचा, धनञ्जय के पिताजी, और कई लोग - सब पूरी तन्मयता से संवाद सुन रहे थे | हमारी भीड़ के अंदर घुसने में किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई | किसी के हाथ में बात, किसी की हाथ में विकेट, किसी के हाथ में बॉल |
मिलिंद सच कह रहा था | फिल्म का अंत नज़दीक आ रहा था | एल. पी. की सुई का दायरा छोटा और छोटा होते जा रहा था | अंत में पुलिस भी पहुंची और -
"बीरु, मैं तुम्हारा दर्द बाँट तो नहीं सकता, पर समझ जरूर सकता हूँ |"
रेलगाड़ी की आवाज़ और 'शोले' की सांकेतिक धुन .. | रिकॉर्ड ख़तम हुआ |
"अंकल, शुरुर से एक बार और लगाएंगे क्या ?" ऐसा कहने की हिम्मत दीपक ही कर सकता था |
"पहले खेल कर आओ |" और मिलिंद के पिताजी ने हम सबको मैदान की राह दिखा दी |
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बोर्ड परीक्षा का अजीब सा हौव्वा था | प्रश्न पत्र बाहर से बन कर आएंगे | परीक्षक भी बाहर से ही आएंगे और उत्तरपुस्तिका की जांच भी बाहर की किसी शाला में होगी | मेरी समझ में नहीं आता था कि फिर इसमें इतना हाय तौबा मचाने वाली क्या बात है ? अव्वल तो मुझे उस दिन तक पता नहीं था कि प्रश्नपत्र कहाँ से बन कर आते हैं ! कहीं से भी बन कर आएं, फर्क क्या पड़ता है | पाठ्य पुस्तक तो वही थी | परीक्षक बाहर से आएंगे तो क्या उखड जायेगा ? ऐसा नहीं कि हमारी कक्षा के शिक्षक परीक्षा में हमें नक़ल करने देते थे या खुद प्रश्न पत्र हल करते थे | और बाहर के शिक्षक प्रश्न पत्र की जांच करेंगे तो क्या उनके लिए २+२= ५ होगा? कालकर बहनजी को उन छात्रों की चिंता थोड़ी ज्यादा थी जो पढ़ाई में कमजोर थे | इसलिए उन्होंने सीटों की व्यवस्था में फेरबदल किया | जो थोड़े से सुस्त और फिसड्डी छात्र थे, उनको भी आगे बैठने का मौका दिया | वैसे एक कतार में राजीव सिंह और मनमोहन पहली सीट पर कायम रहे, पर मैं चौथी सीट पर सरक गया | मुझे उससे कोई फरक नहीं पड़ता था | बाद में धीरे धीरे ये दूरी पहले एक दरार और फिर एक खाई में तब्दील होने लगी |
उसी के साथ अचानक हमें अहसास होने लगा कि अब हमें इस शाला को छोड़कर जाना पड़ेगा | ये हमारा आखिरी साल है |
चन्दन कहता ,"यार, हम लोग इतने छोटे-छोटे हैं कि भिलाई विद्यालय वाले लड़के बोलेंगे कि ये लोग तो अपने जूतों के नीचे दब जाएंगे | "
रवीन्द्र मुंशी तुरंत बोला ,"तो क्या भिलाई विद्यालय में राक्षस पढ़ते हैं ?"
चन्दन का जवाब हाज़िर था ,"निप्पल चूसने वाले बच्चों के लिए तो सेक्टर छह स्कूल बना है |"
यह तो सिर्फ मुख्यपृष्ठ था| आने वाले कुछ दिनों में यह विषय एक गंभीर बहस में बदलने वाला था |
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ईमानदारी से कहूं तो मुझे याद नहीं पड़ता कि भिलाई में 'शोले' की पहली पारी में टेम्पू लेकर कोई भी प्रचार किया गया | ( दूसरी पारी पांच साल बाद श्री वेंकटेश्वर में खेली गयी, जब टाकीज के मालिक ने चार महीने तक शोले चलाई और जीर्ण- शीर्ण पड़ी श्री वेंकटेश्वर टॉकीज की काया पलट हो गयी |) ना ही सुपेला चौक , जिसे आजकल हम लोग घडी चौक कहते हैं, में 'शोले' के विशालकाय पोस्टर लगाए गए | उससे बड़े पोस्टर तो 'गीत गाता चल' या 'ज़ख़्मी' के होते थे | लेकिन जंगल के आग की तरह 'शोले' ने भिलाई के लोगों के मन मस्तिष्क को जकड लिया | और भिलाई ही क्यों, पूरे भारत ने 'शोले' की आंच महसूस की | सुबह शाम अल्युमिनियम की पेटी उठाकर शाला क्रमांक आठ जाने वाले 'आपके आज्ञाकारी' को ये कैसे पता चला ?
भिलाई में हॉकी की एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता होती थी - 'मोहन कुमार मंगलम हॉकी टूर्नामेंट' | इस प्रतियोगिता के बारे में विस्तार से फिर कभी - लेकिन यहाँ ये कह दूँ कि इसमें भाग लेने पूरे भारत के कोने कोने से टीमें आती थी - बिहार रेजिमेंट सेण्टर, दानापुर, सिख रेजिमेंट सेण्टर, रामगढ़ , सदर्न रेलवे मद्रास, इंडियन नेवी बॉम्बे, एम. पी. पोलिस, भोपाल - यानी समझ लीजिये भारत के हर कोने कोने से टीम पहुंचा करती थी |
उस दिन कॉर्प्स ऑफ सिग्नल जालंधर और विदर्भ हॉकी असोसिएशियन , नागपुर के बीच मुकाबला था |
शाम को जिनके साथ हॉकी खेलते थे, इक्कीस और बाइस सड़क के उन लड़कों के साथ मैं भी था - अजय कौशल का भाई संजू, शंकर, गुड्डा, मनमोहन का भाई रमेश - हम सब पंत स्टेडियम के सामने की सड़क से स्टेडियम की ओर जा रहे थे | भिलाई इस्पात संयंत्र की हरे रंग की चमचमाती बस से जालंधर के खिलाडी उतर रहे थे | मेरे पास तो दो रूपये वाला सीजन पास था | बाकी लोगों को लाइन में लग कर टिकट लेना था | इसलिए हम टिकट खिड़की की ओर बढ़ रहे थे | मैदान के अंदर भोंपू में 'शोले' का गण बज रहा था -
"तूने ये क्या किया ... बेवफा बन गया .. "
हमारा जत्था करीब करीब खिलाडियों के साथ ही चल रहा था | जालंधर के एक खिलाड़ी ने भावुक होकर कहा,"यार, बड़ा अच्छा गण है |"
"हाँ , हाँ |" शंकर बोला |
अपनी ही धुन में खोया खिलाडी बोले जा रहा था ,"यार | जब वो मर जाता यही तो आँख में आंसू आ जाते हैं |"
"हाँ, हाँ |" शंकर फिर बोला |
अब खिलाडी की तन्द्रा भंग हुई | उसे महसूस हुआ कि वह किस्से बातें कर रहा है | वह झेंपकर तेज़ क़दमों से चलता हुआ अपने साथी खिलाडियों के दाल में जा घुसा और शंकर हमारे साथ आ गया |
"क्या बोल रहा था बे सरदार तेरे साथ ?"
"कुछ नहीं | 'शोले' की तारीफ कर रहा था |"
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अब तक कक्षा में एकमात्र प्रामाणिक आशिक था - दिलीप ; जिसे शाह बहनजी ने एक साल पहले बड़ी तबीयत से पीटा था (देखें - 'च' से चन्दन - भाग २) | दिसंबर के अंत में एक नयी लड़की ने कक्षा में कदम क्या रखा , आधे से ज्यादा लड़कों पर आशिकी का भूत सवार हो गया | ऐसा भूकंप आया कि राजीव सिंह की आँखें खुल गयी |
अगर माला खूबसूरत थी तो उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी | वह रंग रूप तो उसे भगवान ने दिया था | संयोग ऐसा कि उसी भगवान् ने उसे बाइस सड़क में भेजा, जिसमें मैं, मनमोहन और सुबोध जोशी रहते थे और उसी शाला के उसी वर्ग में भेजा, जहाँ हम तीनों पढ़ते थे |
ऐसा नहीं था कि सिर्फ हमारी कक्षा में ही लड़कों पर दीवानगी का सुरूर छाया था | उसके आते ही सड़क में उसके पीछे एक हंगामा हो गया, जिसमें मेरा पडोसी, सोगन , जो पांचवी 'ड' में था, उसका भी नाम आ गया | उसके बाद सड़क के हम सब लड़कों को बुलाकर दीपक नायक की माँ ने एक लम्बा लेक्चर पिलाया | वो कहानी फिर कभी | अभी कक्षा पांचवीं 'स' की ओर वापिस लौटते हैं |
अभी तक केवल दिलीप और भोला ही सांकेतिक भाषा में बातें करते थे | या यूँ कहें, उनकी शब्दावली ही अलग थी| रातों रात पूरी कक्षा ने उस शब्दावली को मानो आत्मसात कर लिया | अब ऐसी शेरोशायरी हवा में उड़ने लगी, जो कभी कभार आते जाते प्रातः पाली के कुछ छात्रों के मुखारविंद से सुनने को मिल जाती थी | पिछले साल चन्दन दिलीप पर बौखलाया था | अब तो सभी उस धारा में बह चले थे | दूसरे, अब राजीव सिंह, जो पहली कक्षा से ही सबका प्रिय था, खुद नेतृत्व की भूमिका में था | लगता था, चन्दन ने उस ओर कुछ सोचना ही छोड़ दिया था | शायद बोर्ड परीक्षा का जो डरावना खाका कालकर बहनजी ने खींचा था, उसी दिशा में उसका दिमाग व्यस्त था |
राजीव सिंह तो पूरी तरह से पक्के रंग से सराबोर हो गया था | एक साल पूर्व राजीव जावले सेक्टर एक के उसी स्कूल से आया था, जहाँ से माला स्थानांतरित होकर आयी थी | राजीव सिंह के लिए इतना ही काफी था | अपने ठीक पीछे वाली सीट, जिसमें कालकर बहनजी ने सुबोध नंबर दो और महेंद्र को बिठाया था, राजीव सिंह ने खाली करवा ली और और रवींद्र मुंशी और राजीव जावले वहाँ चौकड़ी जमा कर बैठ गए |
अब तक मैं अछूता था | हालाँकि ये सब बातें मुझे भी थोड़ी परेशान जरूर करती थी, फिर लोगों की दीवानगी पर थोड़ी हँसी आती थी | चंद महीने तो रह गए हैं इस शाला में | उसके बाद तो लड़कियाँ बगल वाली उच्चतर माध्यमिक कन्या शाला में चले जाएँगी और हम कहीं और |
करीब करीब यही बातें मैं बगल में बैठे प्रमोद मिश्रा से कहा रहा था कि हवा में तैरता हुआ एक कागज़ का गोला मेरे डेस्क पर आकर गिरा | आजकल गोपनीय बातें ऐसे ही होती थी | मैं कागज़ के गोले के आने की दिशा में देख रहा था | मेरे आगे संदीप कालकर और नवनीत दवे, बहनजी के दो लड़के बैठते थे | उसके आगे राजीव जावले और रवींद्र मुंशी | ये चारों तो सामने देख रहे थे \ सबसे आगे राजीव सिंह और मनमोहन बैठते थे | उसमें राजीव सिंह ही पीछे देख रहा था |
तो ठीक है | ये राजीव सिंह का सन्देश था | कालकर बहनजी कक्षा में थी नहीं | इसलिए तो इतना शोर गुल हो रहा था | मैंने पीछे जाकर कागज़ खोल कर देखा | उसमें लिखा था -
"डिपार्टमेंट नंबर १ - राजीव + माला
डिपार्टमेंट नंबर २ - मनमोहन + .....
डिपार्टमेंट नंबर ३ - विजय + ......"
मुझे एक झटका सा लगा | कहाँ तक पहुँच गयी है ये बात ? उसने बसंती के साथ साथ जय के लिए राधा भी खोज ली | इतना ही नहीं, मुझे भी लपेटे में ले लिया |
तभी आधी छुट्टी का घंटा टनटनाया | राजीव सिंह मुझे लेकर खेल के मैदान की और बढ़ गया | मैंने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया | उससे दो-टूक बात करना बेहद जरूरी था |
"ठीक है न ? " उसने पूछा |
मुझे लगा , इस अच्छे दोस्त से सीधे पंगा न लेकर क्यों न लोकतंत्र का सहारा लिया जाए | मुझे पक्का यकीन था कि मनमोहन इसे साफ़ नकार देगा और मैं और मनमोहन उसे समझा-बुझा सकते हैं |
"मनमोहन से बात करें ?" मैंने कहा |
"उसके साथ ही बैठकर तो ये लिस्ट बनाई है |" राजीव सिंह ने मेरे विश्वास के दो टुकड़े कर दिए | मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ | क्या उसने वाकई मनमोहन से बात की है ? अभी प्रतिवाद का समय नहीं था |
मुझे सोच में पड़ा देखकर उसने फिर पूछा ,"ठीक है न ?"
क्या हो गया था राजीव सिंह को आज ? क्या वह उस दिन की घटना भूल गया जब शाह बहनजी ने दिलीप को पीटा था ?क्या उसे ये पता भी है कि जिसको लेकर उसने डिपार्टमेंट एक बनाया है, हमारी सड़क में उसको लेकर एक हंगामा हो ही चुका है ? पिछले बार "चोरी में साझेदारी" मामले में मैंने निश्चय किया था कि ऐसा कोई काम नहीं करूँगा जिससे बाबूजी को परेशानी हो | पिछले एक साल से परिवार बहुत ही परेशानी भरे दौर से गुजर रहा है | क्या उनकी परेशानी और बढ़ाना जायज है ?
"क्यों? ठीक है न ?" उसने तीसरी बार ये सवाल दोहराया |
"नहीं | ये ठीक नहीं है |"
राजीव सिंह कुछ और सोच रहा था,"देख यार | उससे अच्छी लड़की कक्षा में नहीं है | तुझे भी मालूम है | और वो तेरे डिपार्टमेंट वाली छत्तीसगढ़िया भी है | तेरे लिए ..|"
अगर मैं चन्दन होता तो अब तक उलटे हाथ का दोहत्थड़ दे चुका होता |
अब मैंने इस अच्छे मित्र को दूसरे तरीके से समझाने की कोशिश की |
"मेरी छोटी बहन भी यहाँ पढ़ती है यार | " मैंने शांति से कहा |
मेरी बात काटकर वह बोला ,"मेरी भी छोटी बहन यहाँ पढ़ती है |"
"मगर मेरी छोटी बहन तेरे डिपार्टमेंट नंबर १ की सहेली भी है | उसके साथ स्कूल आती जाती है |"
मेरी बात सुने बिना अपनी रौ में वो बोले जा रहा था ," मेरा छोटा भाई भी पढ़ता है | मेरी माँ भी यहाँ पढ़ाती है |"
कक्षा एक से साथ पढ़े इस अच्छे दोस्त की आँखों में ये कैसा चश्मा चढ़ गया था | आज तो यह कुछ सुन ही नहीं रहा है | इतने वषों में हम कई बार किसी बात पर राजी हुए, कई बार नहीं - पर ऐसा धर्मसंकट , ऐसे अप्रिय निर्णय लेने का क्षण कभी नहीं आया था |
"मुझे इससे अलग रखो यार |" मेंसे साफ़ कह दिया |
"तू साले डरपोक है |" ताना मारकर उकसाने का ये बहुत पुराना हथियार था | वह उग्र हो उठा |
"मुझे माफ़ कर यार | मुझे लफूटगिरी नहीं करना है |"
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कभी मैं सोचता हूँ कि अगर मैं 'हाँ' भी कर देता तो भला क्या फर्क पड़ जाता ? क्या हम तीनों लड़कियों के सामने नाचते, जैसे दिलीप नाचता था ? या वह ये सिध्द करना चाहता था कि वह अकेला नहीं है | उस हमाम में सब नंगे हैं | राजीव सिंह आखिर चाहता क्या था ? लेकिन उस 'न' की मुझे आने वाले दिनों में बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी |
रोज कुछ न कुछ ताने मेरी ओर उछाले जाते थे | कुछ का मतलब समझ में आता और कुछ का नहीं | जिनका मतलब समझ में नहीं आता, वे कहीं ज्यादा चुभते थे | उनके अर्थ की खोज में मेरे मन में मंथन चलते रहता | घर क्रमांक से लेकर अक्षर विज्ञानं तक - सब कुछ चलता था | कई बार तो ऐसा भी होता कि पहली बेंच से राजीव सिंह पीछे मुड़कर रवींद्र मुंशी और राजीव जावले से कुछ कहता और वे दोनों मेरी ओर देखकर मुस्कुराने लगते | उधर मेरे मन में उधेड़-बन शुरू हो जाती - न जाने कौन स बात है !
इन सब से ज्यादा आहत करने वाली बात तो यह थी कि राजीव सिंह और मनमोहन की दोस्ती और प्रगाढ़ होती चली गयी | मैं और मनमोहन तब के मित्र थे जब हम शाला नंबर ८ में पढ़ते भी नहीं थे | मैं स्पष्ट देख रहा था कि नौनिहाल के समय का मेरा मित्र अब मुझसे छिना जा रहा है | इतना सब चलते रहने के बाद भी मैं और मनमोहन रोज सुबह शतरंज की एक बाजी खेलते थे | शाम को अन्य सब मित्रों के साथ मिलकर रामलीला मैदान में हॉकी या क्रिकेट खेलते थे | लेकिन शाला में वे पांच घंटे बिताना मेरे लिए इतना दुष्कर हो चला था कि एक बार तो मैं शाला क्रमांक १५ जाने की सोचने लगा | फिर खुद ही अपने आप को सांत्वना देता कि ये कुछ दिनों की ही तो बात है | मैंने मनमोहन से कभी भी "डिपार्टमेंट" वाली बात का उल्लेख नहीं किया | हो सकता है, वो बात झूठ हो - जैसा मैं मान कर कर चल रहा था | मगर वो बात सच हुई तो ?
अब तक मैं और मनमोहन साथ साथ शाला आते थे | अब राजीव सिंह बजाये सड़क इक्कीस के, हमारी सड़क यानी सड़क बाइस से शाला आता , सुरेश के घर से मुन्ना के घर तक "बांये देख" करता और फिर मनमोहन के घर चले जाता , जहाँ से वे दोनों साथ शाला आते थे |
घर जाने के समय रवींद्र मुंशी, राजीव जावले, राजीव सिंह और मनमोहन साथ ही, समय और अवसर देखकर निकलते | मैं जान बूझकर थोड़ी देर के लिए बगल के नवनिर्मित पार्क में चले जाता ताकि उनकी जुमलों और निगाहों के व्यंग्य से बच सकूँ | किसी बेंच पर बैठकर तालाब में छूटते फव्वारे की ओर देखा करता | उस समय मेरे कानों में राज कपूर की हाल में रिलीज़ हुई फिल्म "धरम करम" के गाने की पंक्तियाँ गूंजती ,"अनहोनी पथ में कांटे लाख बिछाए, होनी तो फिर भी बिछड़ा यार मिलाये|" मेरी आँखों में आंसू आ जाते |
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खेल के मैदान में जाते समय रोज एक न एक नयो बात का पता चलता |
"ये सेवेंटी एम. एम क्या होता है ?" मैंने एक दिन सूर्य से पूछ ही लिया | वो हर एक बात का धैर्यपूर्वक जवाब दिया करता था |
"समझ ले कि जैसे माचिस का डिब्बा है |"
"ठीक"
"और एक सिगरेट का डिब्बा है | माचिस का डिब्बा , ३५ एम्. एम्. और सिगरेट का डिब्बा सत्तर एम्.एम्. | मतलब फिल्म की रील ज्यादा बड़ी होती है | "
" तो पर्दा भी ज्यादा बड़ा होगा | ने बसंत में है इतना बड़ा पर्दा ? आधी पिक्चर तो छत पर दिखती होगी |
दीपक नायक को मुझ परतरस आया , "सब फिट हो जाता है यार |"
जब हम खेल के मैदान में पहुंचे तो इक्कीस सड़क वाले पहले ही खेल रहे थे | चौका मारकर निशिकांत इतना खुश हो गया कि बैट को ही गिटार की तरह बजाकर गाने लगा ,"मेहबूबा, मेहबूबा .. |" अब उसकी खैर नहीं | किसी भी वक्त उस पर हेलन का लेबल चिपक सकता है | साथ में राजू गाने लगा ,"फूल बहारों से निकला। .. चाँद सितारों से निकला ...|"
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हर गुजरने वाले दिन के साथ लोगों को यह अहसास होने लगा था कि उस शाला में , जहाँ उन्होंने एक एक अक्षर पर उंगली रखकर शब्द ज्ञान लिया था, अब गिनती के दिन रह गए हैं| यह बहस दिनोंदिन तूल पकड़ते जा रही थी कि भिलाई विद्यालय अच्छा है या सेक्टर ६ की उच्चतर माध्यमिक शाला |
"भिलाई विद्यालय? सड़ा स्कूल | " रवींद्र मुंशी हाथ झटककर कहता |
क्या खासियत है सेक्टर ६ स्कूल में ?
"वहां पढ़ाई अच्छी होती है |" ये उसका पहला और अक्सर आखिरी तर्क होता | वह तर्क जिसका कोई आधार नहीं था | जिसको खरोंच कर देखो तो अंदर कुछ है भी या नहीं - पता नहीं |
मैं भिलाई विद्यालय के सम्बन्ध में तब से सुन रहा था, जब मैंने किसी शाला में कदम भी नहीं रखा था | मेरा सबसे बड़ा भाई वहीँ पढता था | उन दिनों भिलाई विद्यालय के प्राचार्य, बाबाजी का पूरे भिलाई में दबदबा था ((देखें -"बोला पकड़, बोला पकड़ टंगस्टन की तार") | मंझला भाई बबलू अभी वहां पढ़ ही रहा था और प्रतिदिन कोई न कोई रोचक किस्सा सुनने को मिलता ही था | इसलिए मेरे मन में यही तरंग हिलोरे भर रही थी कि मुझे भिलाई विद्यालय ही जाना है |
मेरे लिए स्वाभाविक था कि मैं भी इस बहस में कभी न कभी कूद ही पड़ता |
"अच्छा ?" मैंने पूछा, "हर साल कितने लोग मेरिट में आते हैं ?"
राजीव सिंह ने मेरे व्यंग्य को मेरा अज्ञान समझा ,"अरे यार, अभी तो ग्यारहवीं की कक्षा शुरू नहीं हुई है | अभी तो स्कूल बना है |"
"ओह | अभी स्कूल बना है और पढ़ाई अच्छी होने लगी |" यानी पूत के पाँव लोगों ने पालने में ही देख लिए थे |
"हाँ | अच्छी होती है |" रवींद्र मुंशी ताल ठोंककर बोला,"
चन्दन के घर के सामने से नाला बहता था | नाले के ही उस पार भिलाई विद्यालय था |
"भिलाई विद्यालय के खेल का मैदान देखा है ? हॉकी का अलग, फुटबॉल का अलग | बास्केटबॉल व्हालीबॉल - सब है |"
रवींद्र मुंशी बोला ,"क्रिकेट है ?"
"हॉकी और फुटबॉल का मैदान मिलाकर क्रिकेट का मैदान बन जाता है | और लगता क्या है बे ?"
"बहुत कुछ लगता है | तेरे को मालूम है, पिच क्या होती है ? है क्रिकेट का मैदान ?"
इस प्रश्न का उत्तर प्रश्न से ही दिया जा सकता था | मैं बीच में कूद पड़ा,"सेक्टर ६ में है क्रिकेट का मैदान ?"
मुंशी निरुत्तर हो गया | मैंने हमला जारी रखा ,"भिलाई विद्यालय में एन. सी. सी. है | सेक्टर ६ में है एन. सी.सी. ?"
राजीव सिंह ने प्रतिवाद किया ,"हाँ, है |" शायद उसने आते जाते विद्यालय के बाहर एन. सी.सी. का बोर्ड लगा देखा होगा |
"एयर विंग है?" , मैंने फौलादी घूँसा मारा |
इस सवाल का कोई जवाब नहीं था | जब जवाब नहीं सूझता तो लोग व्यंग्य पर उतर आते हैं | रवीन्द्र मुंशी बोलै ,"ओह | तो तू हवाई जहाज उड़ाएगा | अच्छाSSS |"
राजीव सिंह ने उसके कान में कुछ कहा और दोनों हँसने लगे | मुंशी जोर से बोला, "वो भी नीचे से हिलायेगी - हाथ |"
इस सब नोक-झोंक के बीच मनमोहन हरदम शांत रहकर सुनते भर रहता था | उसका भी सबसे बड़ा भाई -विजय- भिलाई विद्यालय से निकला था | बल्कि हायर सेकेंडरी में उसे अच्छे अंक लाने के लिए स्वर्ण पदक भी मिला था | उसका भी मंझला भाई, रमेश , अभी भिलाई विद्यालय में पढ़ रहा था | पता नहीं, मनमोहन के मन में क्या था ?
एक दिन शतरंज खेलते-खेलते मैंने उसका मन टटोला ,"पता नहीं यार, भिलाई विद्यालय में जाने के बाद क्या होगा? क्या हम लोगों को कभी शतरंज खेलने का मौका मिलेगा ?"
ऊँट को आगे सरकाते हुए वह बोला ,"सेक्टर ६ में पढ़ाई अच्छी होती है यार |"
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'और सिनेमास्कोप क्या होता है ?" विकेट गाड़ते गाड़ते मैंने दीपक से पूछा |
"'शोले' सिनेमास्कोप नहीं है |" दीपक ने कुछ दूसरा ही जवाब दिया |
"है | सिनेमास्कोप |" मनमोहन का भाई रमेश बोला |
"नहीं है | लगी पांच पांच की शर्त (पैसे नहीं, रूपये) ?" दीपक पूरे आत्मविश्वास के साथ बोल रहा था ,"जी.पी. सिप्पी ने अमीन सायनी पर मुकदमा ठोंक दिया है |"
बात किसी और दिशा में मुद गयी और मेरा प्रश्न गौण हो गया |
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परिणाम के एक दिन पहले शाम को जो खबर उडी, उसके सम्बन्ध में आप "चोरी में भागेदारी" में पढ़ ही चुके हैं | मनमोहन के घर के पड़ोस में दीपक नायक रहता था | उसकी मम्मी खुद एक शिक्षिका थीं और हमारी शाला के बगल में उसी कन्या शाला में पढ़ाती थीं जो हमारी नज़रों के सामने, हमारी ही प्राथमिक शाला की जमीन काटकर बनाई गयी थी |
"हमें पता चला है कि छोटा (मनमोहन) और राजीव सिंह - दोनों प्रथम आये हैं और टुल्लू (यानी मैं ) दूसरा |"
वे किसी से भी बातें कर रही हों, लेकिन उनकी आवाज़ इतनी ऊँची थी कि अपने घर दोपहर में ऊँघने वाले, मेरे कान में पड़ गयी | तो ये तो निश्चित था कि मेरे घर वलों को तो पता चल ही जाता |
ये कोई नयी बात नहीं थी | पहली से लेकर अब तक वार्षिक में मैं द्वितीय ही आया था और दूसरी में तो तीसरे नंबर पर खिसक गया था | लेकिन मेरे घर वाले मेरे पिछले छह आठ महीनों की हरकतों से परेशान थे | मैं घर से बाहर जाता तो घंटों बाहर रहता | घर में भी रहता तो खोया ही रहता |
घर वालों ने मुझे इस बात को लेकर ऐसा सुनाया कि मेरी आँखों में आंसू आ गए |
परिणाम वाले दिन मेरा शाला जाने का कोई मन नहीं था | वहाँ मुझे "ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे" वाला दृश्य फिर से देखने को मिलेगा | मनमोहन और राजीव सिंह गले में हाथ डालकर मेरी ओर देखकर ये गाना जाएंगे | अफ़सोस कि मुझे हिसाब चुकता करने का कोई अवसर नहीं मिलेगा , क्योंकि मनमोहन और राजीव सिंह दोनों गले में हाथ डालकर सेक्टर ६ स्कूल जाने वाले थे |
काफी अनिच्छा से मैं घर से बाहर निकला |
मनमोहन अपने घर के घर के बाहर फाटक के पास खड़ा था |
"राजीव सिंह नहीं आया अब तक ?" मैंने पूछा |
मनमोहन मेरे साथ हो लिया , "रमेश ने उसको सड़क बाइस में घुसने के लिए मना कर दिया है |"
मैं हतप्रभ रह गया |
"क्या? क्यों? कब?" इसमें से शायद 'क्यों' ज्यादा महत्वपूर्ण था | लेकिन मनमोहन ने 'कब' का जवाब दिया ,"थोड़ी देर पहले | मेरे घर आया था | "
"क्यों?" मैंने पूछा |
"तुझे तो मालूम ही है |" उसने कहा | यह जवाब जवाब न होते हुए भी सब कुछ कह रहा था |
"हाँ यार | मुझे लगता है, कुछ ज्यादा हो रहा था |" मैंने कहा |
ये वो ज़माना था जब सड़क के बड़े लड़के सड़क की लड़कियों की हिफाजत अपनी जिम्मेदारी समझते थे | आँखें बंद करके याद कीजिये | आपके भी सड़क में , आस-पास कोई न कोई लड़ाई झगड़ा, मार पीट जरूर हुई होगी जिसमें आपके सड़क के लड़कों ने बाहर के किसी लड़के को सड़क की किसी लड़की के लिए चक्कर लगाते देखा होगा और घमासान छिड़ गया होगा |
अगर रमेश ये काम नहीं करता तो शायद मेरा भाई बबलू कर देता | या सुमित्रा का बड़ा भाई गौतम ये प्रतिबंध लगा देता | देर सबेर ये होना ही था |
हम दोनों काफी महीनों बाद और आखिरी बार एक साथ तार लॉंघकर शाला क्रमांक आठ की परिसर के अंदर घुसे | ----------------
राजीव सिंह मुझे खींचकर कक्षा के बाहर एक ओर ले गया |
"एक बात करना था यार |" राजीव सिंह बोला |
"ठीक है |"
"तू मेरा दोस्त बनेगा ?"
में समझा नहीं ,"मैं तो तेरा दोस्त हूँ यार | पहली कक्षा से तेरा दोस्त हूँ | सब तो तेरे दोस्त हैं |"
"वैसे नहीं | दोस्त ... पक्का दोस्त |"
"पक्का दोस्त मतलब ?"
राजीव सिंह अब थोड़ा सा उदास सा हो गया थोड़ा सोचते हुए बोला ,"पक्का दोस्त मतलब ... मतलब...."
"'ये दोस्ती' वाला दोस्त ?" मैंने उसकी मदद की |
"हाँ | 'ये दोस्ती' वाला दोस्त |" राजीव सिंह ने तत्काल मेरी बात का अनुमोदन किया |
"वो तो मनमोहन है ही ?" मैंने कहा ,"तुम दोनों एक दूसरे के गले में बाहें डालकर गाना गाते थे ,'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे' |"
"यार मनमोहन के भाई ने तुम्हारी सड़क में मुझे आने से मना कर दिया | मैं भी देख लूँगा | सेक्टर ६ वाले लड़कों से पिटवाता हूँ उसको |"राजीव सिंह के नथुने फड़क उठे |
"क्यों मना किया ?" मैंने पूछा |
"पता नहीं यार | उसके बाप की सड़क है क्या ? "
"बिलकुल | पर तू हमारी सड़क आता क्यों था ? मतलब सेक्टर ६ के सारे लड़के तो सड़क इक्कीस से कर आते जाते हैं | विनोद धर, सतीश खैरे , जे. मोहन... |"
"नहीं यार | सड़क बाइस में ही तो अपनी क्लास के सारे दोस्त है - तू है, मनमोहन है। ... |" वह कुछ सोचा | मैंने उसकी सहायता की,"सुबोध जोशी है |"
"हाँ, सुबोध जोशी है |"
"वैसे सुमित्रा भी तो हमारे ही सड़क में है |" मैंने कहा ,"और ......|" मैंने बात अधूरी छोड़ी | आगे मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था , जिसके कारण उस पर सड़क में प्रवेश के लिए प्रतिबन्ध लगाया गया था | वह अभी भी नहीं बोल रहा था | मैंने उसे कोंचा,"वो डिपार्टमेंट नंबर १?'
"हाँ यार |" वो थोड़ा सा झेंपा ,"शायद ये बात उसके भाई को बुरी लगी |"
अब मैं समझ गया कि वह मुझे अपना पक्का दोस्त क्यों बनाना चाहता है ? ताकि मुझसे मिलने के लिए उसका सड़क में आना बदस्तूर जारी रहे | वह मेरे लिए तो नहीं आना चाहता था , किसी और के लिए ... | परिणाम ? रमेश, मनमोहन के साथ साथ सड़क के सब लड़के मेरे ही दुश्मन हो जायेंगे |
".... तेरे लिए ले लेंगे .. . सब से दुश्मनी ... "
"बोल , बनेगा यार मेरा पक्का दोस्त ?" उसकी आवाज़ में दर्द टपक रहा था |
"तू एक काम कर | तुझे सड़क बाइस में हम लोगों से मिलने आना ही है तो डिपार्टमेंट १ वाली को ही पक्का दोस्त बना ले | बात ख़तम | " आज मेरा दिन हो ना हो, यह मौका जरूर मेरा था |
गुस्से से उसका चेहरा लाल भभूका हो गया हो गया ,"कैसी बातें कर रहा है बे ?'
"ऐसी ही तो बातें तुम लोग मेरे लिए छह महीनों से कर रहे हो |" मेर अंदर इतने दिनों का जमा हुआ आक्रोश फट पड़ा |
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आज शाला का आखिरी दिन था | चारों वर्ग वाले, सुबह वाले और दोपहर वाले भी - कतार बना कर बड़ी बहनजी के कार्यालय के सामने वाली जगह पर बैठे थे | जो कुछ मैंने थोड़ी देर पहले राजीव सिंह को कहा था, उसका मुझे दुख हो रहा था | लेकिन अभी स्थिति बदलने वाली थी | प्रथम आते ही वह वापस गौरवान्वित महसूस करेगा |
बड़ी बहनजी हाथ में फाइलें लेकर आयी \ पता नहीं कहाँ से चलते हुए जिला शिक्षा अधिकारी, जिसे हम "टी.टी. गार्ड का तोतला" कहते थे, आ गया था | ये वही अधिकारी था जिसने हमें थोड़े दिनों पहले "एक लड़की जो प्रधानमन्त्री बनी" पर निबंध लिखने कहा था |
बड़ी बहनजी ने चश्मा सम्हालकर एक छोटा सा भाषण दिया | अगर महिमा मंडान और चापलूसी भरे शब्दों को छोड़ दिया जाए तो सार ये था कि इस वर्ष पांचवीं बोर्ड की परीक्षा में कोई अनुत्तीर्ण नहीं हुआ है | मेरे लिए यह एक सुखद बात थी | वर्ना मैं सोच रहा था, अगर हममें से कोई फेल हो जाए तो उसे कितना बुरा लगेगा | उसके सारे साथी तो शाला छोड़कर जा चुके होंगे उस पर क्या बीतेगी ? | वो फिसड्डी लड़की मीना , वो बड़े सर वाला बुड्ढा राजेश - सब पास हो गए थे |
फिर प्रधानाध्यापिका ने घोषणा की ,"इस बार हमारी शाला से दो लोग प्रथम आये हैं |" फिर उन्होंने मनमोहन का नाम लिया | मनमोहन सबके बीच से उठकर बड़ी बहनजी के पास गया | "टी.टी. गार्ड का तोतला' मानो उसका ही इंतज़ार कर रहा था | उसने पहले ही मनमोहन के बारे में घोषणा कर दी थी,"लम्बी नाक वाले लोग बुद्धिमान होते हैं |" मनमोहन के पहुँचते ही उसने उससे तपाक से हाथ मिलाया |
"और विजय सिंह ...|"
मैं बड़े आराम से बैठा था | मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ | पीछे से जे. मोहनराव ने कोंचा | सामने से चन्दन ने झकझोरा | कालकर बहनजी ने पुकारा | असमंजस में पड़ा मैं खड़ा होकर किसी तरह लड़खड़ाते हुए सामने पहुंचा |
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच क्या किसी ने सिसकियों की आवाज़ सुनी ?
"..और दूसरे स्थान पर राजीव सिंह. .... |"
राजीव सिंह जब खड़ा हुआ तो उसकी आँखों से आंसू निकल रहे थे | वह बड़ी बहनजी के पास पहुंचा | बड़ी बहनजी ने सहानुभूति से उसके कंधे पर हाथ रखा ही था कि राजीव सिंह रो पड़ा |
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सारा माहौल ग़मगीन हो गया | कालकर बहनजी और बड़ी बहनजी राजीव सिंह को बड़ी बहनजी के दफ्तर में गए | उसके बाद बड़ी बहनजी तो लौटी नहीं, लेकिन कालकर बहनजी थोड़ी देर बाद सभी वर्गों के परिणाम की फाइलें लेकर लौटी और उन्होंने सभी शिक्षिकाओं को वे फाइलें थमा दी | मेरे और मनमोहन के अठ्यासी प्रतिशत अंक थे और राजीव सिंह के छयासी प्रतिशत | शाह बहनजी की चहेती माधुरी वैद्य को ८४% अंक मिले थे |
अब अंग्रेजी वर्णमाला के नाम के हिसाब से कालकर बहनजी ने नाम पुकारना शुरू किया | प्रत्येक से वह एक-एक दो-दो मिनट बातें करतीं | लगता था, वक्त ठहर सा गया हो |
राजीव सिंह बड़ी बहनजी के कार्यालय से हाथ में परिणाम पत्रक और एक संतरा लेकर निकला | बजाय सामने से जाने के, वह बड़ी बहनजी के दफ्तर के पीछे से निकला और पानी की सूखी टंकी के बगल से होते हुए लम्बी राह पर निकल गया | अब उसकी पीठ ही दिख रही थी | जब तक वह आँखों से ओझल न हो गया , हम उसे जाते देखते रहे |
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गर्मी की छुट्टियों के वे सुनहरे दिन | शाम के चार बजते बजते ढलती हुई धूप में हम निकल पड़ते और तब तक खेलते रहते, जब तक बॉल दिखनी बंद न हो जाए | अभी हम लोग छोटी पुलिया के पास से सड़क पार कर ही रहे थे कि बहुत बुरी खबर लेकर चन्दन आ गया |
"पर ऐसा हो कैसे सकता है ?" मुझे यकीन नहीं आ रहा था |
"माँ कसम |" चन्दन बोला |
"तुझे किसने बताया बे ?" सूर्य प्रकाश ने पूछा | वैसे वह रहता तो था मंदिर के पास सड़क चार में, पर अब वह सड़क बाइस की हमारी टीम का स्थायी सदस्य बन गया था | हुआ यह कि पिछले वर्ष हमने डबल स्टोरी वालों से मैच लिया था और उसे "उधारी" खिलाया था | सूर्य तब तक क्रिकेट में पूरे सेक्टर २ में नाम कमा चुका था | डबल स्टोरी वालों ने हो-हल्ला मचाया | उसके बाद हम लोगो ने उसे अपनी सड़क में प्रतिदिन आकर खेलने की बात कही और उसने स्वीकार भी कर लिया |
चन्दन के बुरे समाचार से हम चारों प्रभावित थे मैं , मनमोहन, सूर्य और सुबोध |
"चन्दन, तू खुद सोच | भिलाई विद्यालय सेक्टर २ में है कि नहीं | ऐसा कैसे हो सकता है कि सेक्टर २ के लड़कों को वहाँ एडमिशन नहीं मिले ?"
"मुझे नहीं मालूम यार |" चन्दन बोला,"जसवंत खुद देखकर आया | वहां के क्लर्क से मिलकर आया |"
"और वो कह रहे थे, शाला नंबर आठ के लड़कों को भिलाई विद्यालय में प्रवेश नहीं मिलेगा? एक नंबर का गपोड़ा है यार जसवंत भी |" मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं हो रहा था |
"तो सेक्टर २ के लड़के किस स्कूल में जाएंगे ?"
"सेक्टर ६ |" अपने इस जवाब से चन्दन खुद काफी निराश था |
"सेक्टर ६ " सुनते ही मुझे ४४० वोल्ट का करंट लगा | सेक्टर ६ मतलब फिर राजीव सिंह | देर-सबेर राजीव सिंह से सुलह होगी ही और फिर से वही नौटंकी शुरू होगी जो पिछले छह महीनों से मेरे साथ चल रही थी |
अगले दिन खुद सच्चाई का पता लगाने मैं भिलाई विद्यालय चले गया | एक लम्बी सी कतार लगी थी, जो प्राचार्य के कक्ष के पास से होकर बगल के कमरे मैं अस्थायी बने कार्यालय में जाती थी | प्राचार्य कक्ष के पास रखे सूचना पट पर साफ़ साफ़ उन शालाओं के नाम लिखे थे, जिनके लड़कों को प्रवेश दिया जा रहा था | मैंने तीन बार ऊपर से लेकर नीचे तक सारी शालाओं की सूची पढ़ डाली जिन्हें प्रवेश दिया जा रहा था | अगर मैं दस बार भी पढता तो भी नतीजा वही रहता | प्राथमिक शाला क्रमांक आठ का नाम नदारद था | फिर भी मैं मंथर गति से चलती उस कतार में खड़े रहा | क्या पता, भूल-चूक से मुझे प्रवेश दे दें |
लेकिन लिपिक वर्ग को तो दस्तावेज देखने के ही पैसे मिलते हैं | मेरा स्थानांतरण पात्र देखते ही वह बोला ,"बाहर लगा बोर्ड नहीं पढ़ा ?"
"कौन सा बोर्ड?" मैंने अनभिज्ञ होकर पूछा | उसने बात को ज्यादा बढ़ाना उचित नहीं समझा और मुझसे बोला ,"सेक्टर ६ के स्कूल जाओ |"
अब क्या होगा ? मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा |
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क्या राजीव सिंह से बात करनी पड़ेगी ? जिस तरह वह शाला क्रमांक आठ से निकला , यह निश्चित था, उसके मन में बदले की भावना धधक रही होगी | उससे संवाद कैसे स्थापित किया जाए ? मेरा स्वाभिमान अभी भी ये स्वीकार करने को तैयार नहीं था | क्या गलती थी मेरी ?
ये सब बातें चन्दन से कही जा सकती हैं, पर भला वह भी क्या कर सकता था ? ज्यादा से ज्यादा राजीव सिंह से बात कर सकता था | पर रवींद्र मुंशी वहां होगा और बाकी सब उसके अनुचर भी वहीँ होंगे |
दूसरी तरफ भिलाई विद्यालय के गौरवशाली अतीत के सम्बन्ध में मैं अपने बड़े भाई कौशल के समय से सुन रहा था | मंझले भाई बबलू से साथ ऐसी कहानियों में इज़ाफ़ा भी हुआ | मनमोहन का भाई रमेश , इक्कीस सड़क के शंकर, राजू , गुड्डा- सब तो यही बात करते रहते थे |
अफ़सोस कि उन कहानियों का मैं हिस्सा नहीं बन पाउँगा |
और जल्दबाज़ लोगों ने तो दाखिला लेना शुरू भी कर दिया था |
सड़क तीन के शुरू में , जहाँ कभी बेबी की सहेली अंजलि रहती थी, अब रमेश मिश्रा रहता था | एक दिन वह अपने घर के बाहर गेट पर ही खड़ा मिल गया |
"क्यों रमेश मिश्रा?" मैंने पूछा ,"दाखिले के बारे में क्या सोचा है ?"
"सोचना क्या है ? मैंने तो सेक्टर छह में एडमिशन भी ले लिया |"
"क्या?" मुझे झटका लगा ,"कब?"
दो दिन पहले | पहले भैया भिलाई विद्यालय गए | पर भिलाई विद्यालय वाले तो सेक्टर दो वालों को प्रवेश दे नहीं रहे हैं | भैया ने सोचा, कहीं सेक्टर छह का एडमिशन भी ख़तम मत हो जाए |"
और यही जवाब विजय पशीने का भी था | सेक्टर छह में दाखिला लेने के पीछे उसका भी यही तर्क था, "कहीं दाखिला ख़तम न हो जाए |"
लड्डू बँट रहे थे | लपक लो |
एक तरीका था - क्यों न बाबूजी से बात की जाये ?
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मुश्किल यही थी कि सारी बातें बाबूजी को बताई भी नहीं जा सकती थी | मैंने गौरवशाली अतीत का हवाला दिया | नेहरू जी ने भिलाई विद्यालय का उद्घाटन किया था | बाबाजी को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था | बाबूजी सुनते रहे | फिर बोले, "इतनी सी बात है या और कुछ है ?"\
"और कुछ नहीं | भिलाई विद्यालय में एन. सी. सी. है |"
"एन. सी.सी. तो मेरे ख्याल से हर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में होगा |"
"पर एयर विंग नहीं है | भिलाई विद्यालय में खेल के अच्छे मैदान हैं |"
बाबूजी कुछ सोच कर बोले ,"ठीक है | ऐसा करो , तुम अपना स्थानांतरण प्रमाणपत्र और परिणाम पत्र की एक प्रति मुझे दे दो | मैं पटेरिया सर से बात करता हूँ | एक आवेदन पत्र भी लिख देना | "
उन दिनों सहाय सर ग्रेट ब्रिटैन की यात्रा पर थे | पटेरिया सर भिलाई विद्यालय के प्प्रभारी प्राचार्य थे | बाबूजी ने "प्रति" कहा था, 'सत्य प्रतिलिपि' नहीं | इसलिए "अनिल डेरी " के बगल वाली ताइपिंग शॉप से टाइप कराने से ही काम चल गया | हालाँकि बाद में उन्हीं प्रतियों को 'सत्य प्रतिलिपि' बनाने मुझे सेक्टर १ डाक घर जाकर मुख्य डाक अधिकारी के हस्ताक्षर लेने पड़े थे | ऐसे पापड़ सब को बेलने पड़े थे |
वैसे बाबूजी को अब भी संदेह था कि कुछ तो कारण जरूर है, जिसकी वजह से मैं किसी हालत में सेक्टर ६ की शाला में नहीं जाना चाहता था | शाम कोउन्होंने कहा,"मैंने तुम्हारे स्थानांतरण प्रमाणपत्र और परिणाम की प्रति पटेरिया सर को दे दी है | तुम अकेले जाना चाहते हो या कोई और दोस्त भी भिलाई विद्यालय में जाने के इच्छुक हैं ?"
"शायद कुछ और लोग भी होंगे |" (पहले मेरा तो हो जाये |
"ठीक है | उनके नामों की एक सूची बनाकर मुझे दो |" उनसे कहो कि स्थानांतरण प्रमाणपत्र कहीं और जमा न कराएं | वार्ना मुश्किल हो जायेगी |"
बाकी सब दोस्त तो शाम को खेल के मैदान में मिलते ही थे , पर चन्दन ? उससे बात करने तो उसके घर जाना पड़ेगा | वैसे बाबूजी की बातों में आश्वस्ति झलक रही थी | लग रहा था, ये कोई बड़ी बात नहीं है |
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जिस नाटक का पर्दा चंदन के उठाया था, उसने ही उसका पटाक्षेप भी किया |
गर्मी में दिन वैसे भी लम्बे होते हैं | जैसा मैंने ऊपर लिखा है, खेल के मैदान में हम तब तक डटे रहते थे, जब तब गेंद दिखनी बंद न हो जाए | थक कर चूर हो जाते थे | गला सूख जाता था | तब सेक्टर २ के पश्चिमी-उत्तर कोने पर, चौराहे के पास प्याऊ में पानी पीने जाया करते थे | गुरुद्वारा समिति द्वारा हर वर्ष गर्मी के दिनों में उस जगह स्टाल लगाकर पानी पिलाया जाता था | सूखे गले में घड़े के ठन्डे पानी का संगम किसी अलौकिक अनुभव से कम नहीं था |
उस दिन जा ही रहे थे कि पीछे से चन्दन अकस्मात् टपक पड़ा |
"भिलाई विद्यालय में अपने को एडमिशन मिल रहा है | जाओ, जाओ | जल्दी करो |" उत्तेजना से भरी उसकी आवाज़ ही ऐसी थी कि भोंपू ही जरुरत नहीं थी |
उसके उत्साह का कोई पार नहीं था | हम सब ये भी भूल गए कि इस समय तो दुनिया का कोई दफ्तर खुला नहीं होगा |
"क्या? हमारे स्कूल वालों को एडमिशन मिल रहा है ?" सूर्य ने पूछा |
"हाँ | सेक्टर २ वालों को एडमिशन मिल रहा है |"
रातों-रात अचानक ये उलटफेर कैसे हो गया ? निर्णय बदल कैसे गए ?
अगले दिन सुबह से, मेरे सिवाय सारे के सारे दोस्त प्रवेश लेने भिलाई विद्यालय के दफ्तर के बाहर लगी कतार में खड़े हो गए | आश्चर्य, घोर आश्चर्य ..... वहां उन्हें राजीव जावले भी मिल गया |
"तू भिलाई विद्यालय में ?" सुबोध के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा ,"सेक्टर ६ स्कूल ..?"
"चुप बे | सेक्टर ६ स्कूल कोई स्कूल है ?" तो राजीव सिंह के खेमे में राजीव जावले कभी था ही नहीं ?
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कैसे बयान करूँ कि मैं किस मुसीबत में फंस गया था |
मेरा स्थानांतरण प्रमाणपत्र बाबूजी ने पटेरिया सर को दे दिया था | जब मैंने बाबूजी को बताया कि भिलाई विद्यालय में अब सेक्टर २ वालों को दाखिला मिल रहा है | अब पटेरिया सर के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं रही | क्या मुझे मेरा स्थानांतरण प्रमाणपत्र मिल सकता है ?
बाबूजी और सब कामों में व्यस्त रहे | उस दिन वो भूल गए |
दूसरे दिन पटेरिया सर मिले नहीं |
तीसरे दिन जाकर मुझे स्थानांतरण प्रमाणपत्रमिला, तब तक प्रवेश कार्यालय बंद हो चुका था |
चौथे दिन जाकर मुझे प्रवेश मिला , लेकिन इस गलती की सज़ा मुझे मिली |
सारे के सारे मित्र, एक चन्दन को छोड़कर, वर्ग 'स' में थे | देरी की वजह से मुझे वर्ग 'द' मिला | वर्ग 'द' से 'स' में जाने के लिए मुझे बाबूजी के सामने मिन्नतें करनी पड़ीं | किस तरह वर्ग 'स' में आया तो उस वक्त तक मैं वर्ग 'द' में नए दोस्त बना चुका था |
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जिन्हें भिलाई विद्यालय चाहिए था, उन्हें भिलाई विद्यालय मिल गया | जिन्हें सेक्टर ६ जाना था, उनके साथ भी कोई जोर जबरदस्ती नहीं हुई | शाला क्रमांक आठ की पुस्तक हमारे लिए बंद हो चुकी थी, किन्तु अंतिम पृष्ठ पर एक बड़ा दाग लग गया था | नया विद्यालय था , नए मित्र थे , नयी चुनौतियां थीं | किन्तु राजीव सिंह की याद हरदम आते रहती थी | सप्त वृक्ष सड़क, जो वृत्तखंड २ को वृत्तखंड ६ से अलग करती थी, मानो अंतर्राष्ट्रीय सीमारेखा बन गयी, जिसके एक ओर राजीव सिंह का देश था और दूसरी ओर हमारा | जिस तरह सेक्टर २ के लड़के- मुंशी अशफाक , विजय पशीने , रमेश मिश्र सेक्टर ६ के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने उसी तरह सेक्टर ६ के छात्र - विनोद धर , मनोज , गणेश, राकेश, रविकांत - सेक्टर ६ से भिलाई विद्यालय में पढ़ने आते थे | जब भी नए विद्यालय में नए मित्र और नयी चुनौतियाँ दिखती, राजीव सिंह की याद हरदम आती थी |
हिम्मत जुटाने में पूरा एक साल लग गया | जिस चुनाव का मुंह हमने शाला क्रमांक आठ में प्रवेश के पूर्व १९७१ में देखा था, छह साल बाद वही लोकसभा के आम चुनाव १९७७ में संपन्न हुए | जब हमारी छठवीं की परीक्षा का आखिरी परचा था, उस दिन चुनाव के परिणाम आने शुरू हुए | उन दिनों वोटों की गिनती मानवीय तरीक से होती थी और उसमें समय तो लगता ही था | परिणाम आने में करीब तीन दिन लगे | उस ऐतिहासिक और अप्रत्याशित चुनाव परिणाम ने कांग्रेस की चूलें हिला दी | प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी और उनके पुत्र संजय गाँधी सहित कांग्रेस के बड़े- बड़े दिग्गज धराशयी हो गए |
ऐसे में लाजिमी था कि सभी प्रमुख पात्र पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर चुनाव की ही ख़बरें छपती | और वह घटना कोई सामान्य घटना तो थी नहीं | धीरे धीरे आपातकाल की ज्यादतियां बाहर आने लगी | सत्तारूढ़ होने के कुछ ही दिन बाद जनता पार्टी ने नौ राज्यों की विधानसभा बंग कर दी | कारण ? कांग्रेस शासित वे सरकारें जनता का विश्वास खो चुकी थी |
ऐसे में सारा देश राजनीति की चर्चा में डूब गया | अगले कई हफ़्तों तक समाचारों पर आधारित साप्ताहिक के मुख्य पृष्ठ पर राजनीतिक सुर्खिया ही छाई रहीं |
ऐसे माहौल में जहाँ भी मैं किताबों और पत्रिकओं की दुकानें देखता, मेरे कदम ठिठक जाते | काम से काम सुर्खियां तो पढ़ ही सकते थे | सेक्टर २ में ऐसे पुस्तकों या पत्रिकाओं की कोई दुकान नहीं थी | उसके लिए या तो सेक्टर ४ जाना पड़ता था या सेक्योर ६ | ऐसे में उन्हीं दिनों सेक्टर २ के बाजार में सर्वोदय बुक डेपो खुली |
जेब में इतने पैसे थे नहीं कि मैं सर्वोदय की दुकान से रस्सी पर टंगी धर्मयुग खरीद सकूँ | फिर भी मैं उसका मुख्यपृष्ठ देख रहा था जिस्मने मोरारजी देसाई के मंत्री राजघाट पर शपथ ले रहे थे | मुझे मालूम था कि किसी भी वक्त सर्वोदय का मोटू मालिक मुझे खिसकने का संकेत देने वाला सन्देश देगा,"क्या चाहिए?" उसका सन्देश तो आया नहीं, लेकिन दूकान में शाह बहनजी आ गयी |
अब मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम | काश वे पांच सेकंड बाद आती , तब तक मुझे खिसकने का सिग्नल मिल गया होता | काश मैं दूकान में रुकता ही नहीं | अब मैं आँख बचाकर सरकने ही वाला था कि शाह बहनजी ने मुझे पुकार लिया ,"विजय" |
रुकने के सिवाय कोई चारा नहीं था | किसी तरह मैंने हाथ जोड़े पर मुंह से एक शब्द नहीं निकला |
शाह बहनजी ने मुझसे कुछ प्रश्न पूछे | वो क्या पूछ रही थी, मुझे कुछ पता नहीं चल रहा था | बस, मेरे दिमाग के सामने से शाला क्रमांक आठ की स्मृतियों पर डाला हुआ पर्दा अचानक तेज़ हवा के झोंके के साथ उड़ गया | मैं अपने आप को रोक बहिन पाया | राजीव सिंह के घर जाना ही होगा |
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उस शाम को नौ राज्यों की विधानसभा के परिणामों की घोषणा हो रही थी | राजीव् सिंह सेक्टर छह सड़क पांच के एक तल्ले पर रहता था | अँधेरी सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मैं दूसती मंजिल पर पहुंचा |
सेक्टर छह के घर कितने बड़े होते हैं, आपसे कुछ छिपा नहीं है | राजीव सिंह के घर का दरवाजा तो खुला था | उसके घर मैं कई बार आ चुका था | उन दिनों लगभग सभी के घर में पहले कमरे के बाद, जिसे हम लोग हमारे घर में 'बैठक' कहते थे, के बाद कपडे का एक पर्दा लगा होता था जिसके आगे जाना वर्जित था | मेहमान आते और पहले कमरे में ही बैठते थे | परदे की लक्ष्मण रेखा अलंघ्य थी इसलिए उसके अंदर क्या है - मुझे पता नहीं था |
मैं पहचानने की कोशिश कर रहा था कि राजीव सिंह के घर में मेरी पिछली उपस्थिति के बाद अब तक बदला क्या है ? वो सोफा सेट, जिसके जादुई प्रभाव से भोला गिरी हतप्रभ हो गया था, वो ज्यों का त्यों था | भला क्या था जादुई प्रभाव ? जब हम तीसरी में थे तो एक बार भोला गिरी राजीव सिंह के घर गया था | जीवन में पहली बार वह स्प्रिंग वाले सोफे पर बैठा था |
"अरे बाप रे !" वह कक्षा में उत्तेजित शब्दों में बयान कर रहा था ,"जैसे ही मैं गद्दे वाली कुर्सी पर बैठा, ऊपर उछाल गया | मेरा सर पंखे से टकराते टकराते बचा | फिर वापिस सोफे पर गिरा, फिर उछल गया | फिर नीचे आया तो राजू सिंह ने बड़ी मुश्किल से पकड़ा | मैं फिर भी उसको लेकर उछला। ...|
साड़ी कक्षा हँसते-हँसते लोटपोट हो गयी थी | वो भी क्या दिन थे !
बचपन में हम लोग 'पराग', 'नंदन', 'चंदामामा' जैसी पत्रिकाएं पढ़ते थे तो राजीव सिंह 'शावक' नाम की पत्रिका पढता था | पता नहीं, कहाँ से लाता था | क्योंकि बाजार, रैलवे स्टेशन, बस स्टैंड पर 'चम्पक', 'लोटपोट', 'पराग', 'नंदन', 'चंदामामा' जैसी बच्चों की पत्रिकाएं जरूर दिखती थी पर 'शावक' कहीं नहीं मिलती थी | तो भोला गिरी के जादुई उछाल और 'शावक' की जिज्ञासा मुझे पहली बार राजीव सिंह के घर खींच लाई |
मैं दरवाजे पर खड़ा ही था कि वह हो गया, जिसके लिए सामान्य दिनों में मैं मैं मन ही मन न होने की फ़रियाद करता था, पर आज जब वह हुआ तो एक तरह से उसने मेरे मन से बड़ा सा बोझ उतार दिया |
राजीव सिंह से मिलने से पहले मेरा सामना उसकी माँ से हो गया |
"नमस्ते बहनजी |" मैंने हाथ जोड़कर कहा | वैसे भिलाई विद्यालय में जाने के पश्चात बहनजी कहना करीब करीब छूट चुका था | अब हम शिक्षिकाओं को 'मैडम' कहते थे |
मोठे तगड़े राजीव सिंह की पतली दुबली मां ने मुझे फ़ौरन पहचान लिया ,"विजय सिंह, बाहर क्यों खड़े हो ? अंदर आओ | "
"कुछ नहीं बहनजी | राजीव सिंह से मिलना था | घर में यही क्या ?"
"अरे | अंदर तो आओ |" फिर उन्होंने राजीव सिंह के छोटे भाई को आवाज़ दी ,"जा तो बेटा गुल्लू | मुन्ना को बुला ला | बोलना विजय सिंह आया है |"
"रहने दो बहनजी | मैं फिर कभी आ जाऊंगा |" मैंने पिंड छुड़ाने का भरसक प्रयास किया | सिंह बहनजी के सामने एक एक पल भारी हो रहा था | खासकर, यह निश्चित था कि जब तक राजीव सिंह नहीं आता , तब तक उनके सामने बैठना पड़ेगा | उसमें से अधिकतर पल बोझिल खामोश पल होंगे | यादों की पार्टी खुलते जाएँगी और जिस तरह मैं शाह बहनजी की किसी भी बात को सुनकर या बिना सुने कोई जवाब नहीं दे पाया था, शायद कुछ वैसा ही सिंह बहनजी के सामने भी होने वाला था |
"वैसे तुम भिलाई विद्यालय में पढ़ते हो ?" राजीव सिंह की मान ने पूछा |
"हाँ बहन जी |" मैंने कहा |
"रिजल्ट निकल गया ?"
सारे जहान में परिणाम तीस अप्रैल को ही निकल जाता है यार |
"हाँ बहन जी | निकल गया | मैं पास हो गया | "
तब तक राजीव सिंह आ गया | मोटा, थोड़ा और मोटा हो गया था |
"कैसा रहा रिजल्ट?" राजीव सिंह ने पूछा ,"मनमोहन?"
"मनमोहन पूरे स्कूल में दूसरा आया है |"
"शाबास | बहुत अच्छे |" राजीव सिंह की मां बोली |
"और तू?" राजीव सिंह ने पूछा |
"मैं पहला आया हूँ |"
अब राजीव सिंह की माँ बिफर गयी | उलाहना देते हुए बोली,"फर्स्ट आये हो और क्या बड़े बूढ़े जैसे बातें कर रहे हो ? 'मैं पास हो गया' |"
"तू भी तो सेक्टर ६ में फर्स्ट आया होगा |" मैंने राजीव सिंह को हलके से घूँसा मारा |
तभी राजीव सिंह के घर कुछ मेहमान आ गए | राजीव सिंह की माँ अंदर चले गयी |
जाते- जाते उन्होंने रेडियो में समाचार लगा दिया | विधान सभा के चनाव परिणाम आ रहे थे | जनता पार्टी तेजी से बहुमत की ओर बढ़ रही थी | जादुई आंकड़ा फिर भी बहुत पीछे था | राजीव सिंह की माँ मिठाई लेकर आयी |
"सकलेचा बन गया मुख्यमंत्री |" राजीव सिंह की माँ बोली | मेहमानों ने तुरंत अनुमोदन कर दिया | उन्होंने मेरी ओर भी मिठाई की प्लेट बढ़ाई लेकिन मैंने मना कर दिया | एक मेहमान थोड़ा रुष्ट होकर मुझसे बोलै,"जब कोई प्यार से मिठाई दे तो ले लेना चाहिए |"
यानी वो 'न नुकर' जो चम्पक के 'अच्छे बच्चे, प्यारे बच्चे' में शिष्टाचार के रूप में सिखाया गया था , यहाँ एक अशिष्ट नखरे से बढ़कर ज्यादा कुछ नहीं था |
उससे भी ज्यादा अफ़सोस मुझे इस बात के लिए हो रहा था कि वीरेंद्र कुमार सकलेचा कौन थे, कहाँ से टपके थे - मुझे कतई पता नहीं था | अखबार पढ़ने के आधार पर मेरे राडार में कैलाश जोशी और सिर्फ कैलाश जोशी थे | ज्यादा से ज्यादा कुशाभाऊ ठाकरे और सुंदरलाल पटवा के बारे में थोड़ा बहुत जनता था और बाकी मेरा ज्ञान स्थानीय नेताओं, पवन दीवान , दिनकर डांगे जैसे लोगों तक सीमित था | अपने अज्ञान पर मुझे हीनता का बोध हो रहा था | ऐसा क्या हुआ कि सकलेचा जैसे नेता मेरे राडार में नहीं थे और इस ग्रुप के हिसाब से वही मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे |
राजीव सिंह सिंह ने कुछ दूसरा राग छेड़ा,"जनता पार्टी को अभी बहुमत नहीं मिला है | कांग्रेस वापिस आ जाएगी |"
सभी लोगों ने उसे बालक का अति आशावाद समझ कर हवा में उदा दिया | मेरे मुंह से निकला ,"यार शाला नंबर ८ में तू तो जयप्रकाश नारायण का भक्त था |"
"नहीं यार |" वो हंसा, "जो विपक्ष में होता है, हम उसी का साथ देते हैं |"
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ये तो निश्चित था कि बड़ों के बीच , उस छोटे से घर में, वह भी चुनाव नतीजों के उस माहौल में, हम अपने दिल की बात नहीं कर सकते थे | जितनी देर मैं राजीव सिंह के घर के अंदर रुका, उससे कहीं ज्यादा देर , हम उसके घर के बाहर, जब वो मुझे छोड़ने नीछे आया था, तब बात करते रहे | बिजली के जलते बुझते बल्ब के पास, जहाँ मेरी साइकिल कड़ी थी, हम बातें ही करते रहे | बिजली का बल्ब जब जगता, उसके आँखों की चमक बताती कि वे गीले शिकवे धुल रहे हैं | अगले ही क्षण हम दोनों अँधेरे अँधेरे में डूब जाते |
"और मुंशी? कैसा ही है ? विजय पशीने ?"
जब लोगों की बात निकलनी थी तो यह तय था की उसकी बात भी होती | पर मेरे पास कोई जवाब तो था नहीं | वो चाहे लाख आरोप लगाए कि मैं बहाने बना रहा हूँ, पर वही सच्चाई थी |
फिर बातें किसी और दिशा की ओर मुड़ी | कुछ पल हम खामोश रहे |
"यार, एक बात कहूं ? मैं भी भिलाई विद्यालय में आ जॉन क्या ?" अचानक उसने वह प्रश्न दागा |
मैं स्तब्ध रह गया | काटो तो खून नहीं | इस प्रश्न की मैंने सपने में भी अपेक्षा नहीं की थी | लगा कि गिले शिकवे कुछ कुछ ज्यादा ही धुल गए हैं | मेरी आँखों के सामने पांचवी के वे दिन तैरने लगे जब मेरे और मनमोहन के बीच में दूरियां काफी बढ़ गयी थी | कह दूँ 'ना'?
"बोल आऊं क्या ?"
मेरे मन में विचार कौंधा,"और ये दोस्ती.... गाना गाऊं क्या ?"
"नहीं यार, तू मत आ |" मैंने कह हिम्मत कर के कह ही दिया |
"क्यों?" उसने सवाल किया |
जवाब ये था कि तू मेरे और मनमोहन के बीच फिर से दरार डालेगा | जवाब ये था कि तू हमारी सड़क में आएगा और वही कहानी आगे बढ़ेगी जो पांचवीं के रिजल्ट के दिन किसी तरह थम गयी थी | उसे फिर हमारी सड़क में आने से कोई कब तक रोकेगा ?
"नहीं यार | तू मत आ | सेक्टर ६ स्कूल भी तो अच्छा स्कूल है | वहां पढ़ाई अच्छी होती है |" मेरे हिम्मत की सीमा वहीँ तक थी | वो गिले - शिकवे, जिसने मुझे पिछले साल परेशान किये थे और जिन्हें धोने के लिए ही मैं आया था , लग रहा था, कुछ ज्यादा ही धुल गए थे | इतने ज्यादा कि उलझन मेरे लिए पैदा हो गयी थी | फिर भी दो टूक जवाब देकर हमारी ये मुलाकात मैं निरर्थक नहीं करना चाहता था | अगर मेरे जवाब से फिर उसी जगह दुबारा चोट लगी तो वह घाव पिछले घाव से भी भयंकर होगा |
"क्यों? तेरा पहला नंबर चले जाएगा - इसलिए ? है न ? ऐसा बोल ना बे |"
इस तोहमत से मुझे पीड़ा तो हुई, जो अँधेरे में डूबे रहने के कारण राजीव सिंह देख नहीं सका | मैंने कोई जवाब नहीं दिया | लेकिन यह दर्द उस टीस से काफी कम था, जो सही जवाब देकर हम दोनों को मिलता |
राजीव सिंह के शोले बुझ तो गए थे , लेकिन वक्त की राख के नीचे अंगार अब तक सुलग रही थी |
वर्ष - १९७५-७७
स्थान - भिलाई