जब मैं सिगडी को गौर से देखता , तो मुझे लगता कि सिगडी पानी की बाल्टी से बनती है | नीचे के हिस्से को काट कर एक बड़ा सा छेद बनाओ , बीच के हिस्से में लोहे की कुछ सरिया घुसाओ और अन्दर के हिस्से में मिट्टी की एक परत लगा दो - बन गयी सिगडी |
"माँ सिगडी क्या बाल्टी से बनती है ?"
लोहे की सरिया के ऊपर माँ ने पहले लकडी के कोयले की एक परत लगाई | फिर बी एस पी से को-ओपेराटिव में मिलने वाले कोक कोयले से बाकी हिस्सा भर दिया | कोक कोयला भूल गए आप ?
भिलाई इस्पात संयंत्र में इस्तेमाल हुआ कोयला, जो कि आकार में काफी छोटा हो जाता था और फिर किसी और प्रक्रिया के काबिल नहीं रहता था - को ओपेराटिव के जरिये बंटवा दिया जाता था , ताकि भिलाई वासी उससे अपना खाना बना सकें | वही तो था कोक कोयला ! सो लकडी कोयले के ऊपर कोक कोयले की परत, पहले छोटे कोयले के टुकड़े , फिर बड़े कोयले के टुकड़े | फिर माँ नीचे की सुराख़ में रद्दी काग़ज़ भर देती | रद्दी काग़ज़ , जो ज्यादातर स्कूल जाने वाले बच्चों, बबलू , बेबी या कौशल, शशि के पुराने साल के स्कूल की कॉपी ,घर का किराना सामान खरीदने पर मिले कागज के थैले या टुकड़े , या तो फिर किसी सिनेमा या सर्कस के फार्म, जो मैं विज्ञापन करने वाले टेंपो के पीछे दौड़कर बटोरता था | रद्दी कागज के साथ साथ सूखे पत्ते , पतली पतली लकडी की डालियाँ और टुकड़े, जो कि घर के घेरे (बाड़ी - सच तो यह है कि 'बाड़ी' लोगों ने छोटे के परिवार के आने के बाद उनसे सीख कर इस्तेमाल करना शुरू किया था वर्ना सब 'घेरा' ही कहते थे | ) में बहुतायत मिल जाते थे - क्योंकि घर में पेड़ पौधों की कमी तो थी नहीं |
आने वाले वर्षों में परतें वही रही पर तकनीक थोडी रचनात्मक हो गयी | लकडी के कोयले की खपत कम करने के लिए माँ ने 'गोबर लड्डू' का प्रयोग शुरू किया जो इतना सफल रहा कि देखा देखी अडोस पड़ोस के कई लोगों ने वह तकनीक अपना ली | यह माँ का अपना आविष्कार था | प्रायः एक दो बार इस्तेमाल के बाद एस पी के कोक चूरे चूरे हो जाते थे और किसी काम के नहीं रहते थे | इतना ही नहीं, थोड़े दिनों बाद लोगों को शिकायत होने लगी कि को ओपेराटिव से मिलने वाले कोक का आकार लघु से लघुतर होते जा रहा है | माँ कोक के चूरे को गाय के गोबर में मिलाकर लड्डू बनाकर सुखा लेती थी |
दूसरे, जब लोगों को बी एस पी के कोक से शिकायत होने लगी और हमें तो कोक मिलना ही बंद हो गया | हमें सोगा के मामा की फेक्टरी का पता चला जो केम्प में कहीं थी | वे लोग बी एस पी से मिलने वाले कोक को ब्लेक में खरीद लेते थे और उसे पिघलाकर और कुछ रसायन मिलाकर बेलनाकार सांचे में ढाल देते थे | क्या अच्छी शकल थी उनकी ! बी एस पी का कोयला बे-आकार , बेढंगा , छोटा या बड़ा होता था | वे बेलनाकार कोयले, एक ही सांचे के ढले एक ही आकार के, सुडौल होते | अगर फर्श पर लुढ़का दो तो दूर तक लुढ़कते चले जाते थे | इतना ही नहीं, उनसे कम धुआं निकलता और वे बड़ी आसानी से आग पकड़ लेते | माँ को उतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती |
माँ ने "डब्बी" (माचिस) से तीली निकाली और सिगडी के कागज़ में में आग लगा दी | धुआं निकलने लगा माँ ने एक पुठ्ठे से ऊपर से धौंकना शुरू किया दूसरा पुट्ठा पकड़ कर मैं धौंकने लगा | बारिश के दिन थे | लकडियाँ थोडी गीली थी |धुआं ज्यादा निकल रहा था |
"माँ , सिगडी क्या बाल्टी से बनती है ?"
"हाँ "
देखा, मैंने कहा था न - कितना आसान था ये अनुमान लगाना |
जो आसान नहीं था , वो मैंने पूछ डाला ," माँ, मुझे गणेश जी की आरती सिखाओ ना | "
"अरे, अभी मुझे नहाने जाने दे | तुम्हारे बाबूजी के लिए नाश्ता बनाना है |"
"अभी सिखाओ न |"
"भगवान् की आरती कोई बिना नहाए सिखाता है ? मुझे नहाने जाने दो | तब तक तू सिगडी देखते रह और अगर बुझने लगे तो हवा करते रह |"
माँ नहाने चली गयी | सिगडी का धुआ ख़त्म हुआ और कोयलों ने आग पकड़ ली | "चट चट" की आवाज आने लगी |जब तक माँ नहा कर आती , उपरी परत के कोयले भी लाल होने लगे थे | माँ ने जल्दी से थोड़े और कोयले डाले और सिगडी उठा कर अन्दर ले जाने लगी |
"माँ , मुझे आरती सिखाओ न |"
अभी तेरे बाबूजी के लिए जल्दी नाश्ता बनाना है ..."
अचानक चट की आवाज के साथ एक कोक का टुकडा हवा में उछला और मेरे बगल से निकल गया | बाल बाल बचे |
"अरे, लगी तो नहीं तुझे ?"
"नहीं माँ |"
"लगी हो तो बता बेटा | बरनाल लगा देती हूँ | "
माँ की सारी सहानुभूति रसोई घर मैं घुसते ही बदल गयी |
माँ के पीछे पीछे मैं भी रंधनीखंड़ में घुस गया |
"हाँ हाँ, वहीँ रह | "
हे भगवान्, मैं बिना नहाये अन्दर घुसने की धृष्टता कर रहा था |मैं दहलीज पर ठिठक गया |
"भगवान् की आरती सीखना है तो जा जल्दी नहा कर आ | बिना नहाये कोई आरती सीखता है ?"
"भगवान् की आरती सीखना है तो जा जल्दी नहा कर आ | बिना नहाये कोई आरती सीखता है ?"
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माँ नाश्ता बना चुकी | बाबूजी नाश्ता खा कर कॉलेज जा चुके और मैं नहा चुका |
अब मैं रसोई घर मैं घुस सकता था |
सब की माँओं को मैंने चाकू से सब्जी काटते देखा था | उस समय तक हमारे घर मैं चाकू नहीं था | एक हँसिया था जो प्रायः किसी काम का नहीं था | माँ फरसुल से ही सारी सब्जी काट लेती थी -आलू से लेकर कभी कभार मछली तक | यहाँ तक कि अचार डालने के समय आम भी | पर इसी गर्मियों मैं रामलाल सुपेला बाजार से एक आम काटने का सरौता खरीदकर लाये थे जो कि, गर्मियों में अचार के दिनों में ही एक नेता की तरह दर्शन देता था | बाकी दिनों स्टोर रूम के किसी कोने में सोया रहता था |आम आदमी की तरह पिसने वाला तो बेचारा फरसुल था जो कटहल और गन्ना तो क्या कभी कभी रस्सी भी काटता था | काटने का एक और राजसी औजार सरौता था जो बैठक में सौंफ की ट्रे पर पड़े रहता था और सिर्फ राजसी काम, यानी कि सुपारी काटने का काम करता था |
इस समय माँ अपने काले रंग के पीढे पर बैठी फरसुल से आलू काट रही थी | मोटी लकडी का बना वह पीढा माँ का ही आसन था | रसोई घर में माँ के कई साल , बल्कि दशक इसी पीढे पर बैठकर गुजर गए | माँ पीढे में बैठे या तो कुछ करते रहती या गंज या बटलोही में सब्जी , भात या दाल उबलते देखते रहती और ना जाने क्या सोचते रहती |
"माँ आरती ?"
" हाँ बोल जय गणेश , जय गणेश जय गणेश देवा |"
"जय गणेश , जय गणेश जय गणेश देवा ..."
"माता जाकी पार्वती पिता महादेवा "
"अच्छा ", मैंने सोचा ,"पार्वती गणेश जी की माँ थी | " माँ का नाम भी तो पार्वती था |
"लाडूअन के भोग लगे संत करे सेवा ..."
मेरी आँखों के सामने मार्केट का गणेश और उसके मुहूर्त के समय पंडित जी की लड़ाई का दृश्य घूम गाया |
यहाँ तक तो आसान था , पर आगे की पंक्तियाँ थोडी मुश्किल थी ...
"एक दंत दाया दंत चार भुजाधारी ...
मैं जोश से चिल्लाया , "एक दंत दाया दंत ....", फिर अटक गया," माँ , दंत क्या होता है ?"
"दंत याने दांत ..."
"चार भुजा ..." माँ स्टोर रूम से से खल बट्टा ले आई और गरम मसाला कूटने लगी |
"माँ , भुजा याने क्या ?"
मसाला कूटते कूटते माँ को भी छींकें आने लगी और मुझे भी |माँ भन्ना कर बोली,"बाहर जाकर खेल तो | आज के लिए इतना काफी है |बाकी कल ||"
जाते जाते माँ बोली," भुजा याने हाथ गणेश जी के चार हाथ हैं न ?"
उस दिन जब शाम को आरती हुई तो पहले चार लाइनों में मेरी आवाज सबसे ऊँची थी |
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"ताश के बावन पत्ते , पंजे छक्के सत्ते, सब के सब हरजाई , मैं लुट गया राम दुहाई ..."
ना तो मुझे ये मालूम था कि परदे पर गाने वाला पात्र असीत सेन है और ना ही मुझे कोई दिलचस्पी थी | बोरे में बैठकर मैं ऊँघ रहा था और सामने हिलते परदे पर जो आ रहा था, देख रहा था | पीछे सिनेमा का प्रोजेक्टर 'किर्र - किर्र ' की आवाज करते घूम रहा था |
"तुझे नींद आ रही है ?" बेबी ने पूछा |
"हाँ", मैंने कहा, "घर कब चलेंगे ?"
मुश्किल ये थी कि हम बीच मैं बैठे थे | हमारे आसपास ढेर सारे लोग बोरा बिछाकर दो दो या चार चार के ग्रुप में , या सपरिवार बैठे थे या यूँ कहें कि पसरे हुए थे और उठने के मूड में नहीं थे |
"पिक्चर इतनी बेकार तो नहीं है " बेबी ने कहा |
"हाँ रे", जवाब दिया उसकी पक्की सहेली इंदु ने ,"कम से कम इस बार ईस्टमेन कलर दिखा रहे हैं |"
वह आगे कुछ कहती , इससे पहले पीछे से लोगों ने "श ... श ॥ " की आवाज लगाईं | हमें अहसास दिलाया की हम भारी भीड़ में धंसे हैं और लोगों की तन्मयता में बाधा पड रही है | को ऑपरेटिव के सामने का वह मैदान , जहाँ कोयला बंटता था, इतना भर गया था कि एक कोने में गुपचुप, मूंगफली और कुल्फी वाले भी गैस बत्ती जलाकर ठेला लेकर खड़े थे |
कोई न कोई फिल्म दिखाना गणेश पूजा का अभिन्न अंग था आयोजकों ने पिछले साल प्रदर्शित हुई फिल्म "तमन्ना " को चुना था |
"कब जायेंगे ?" मैंने फुसफुसाकर पूछा |
"बस ये रील ख़तम होने दो " बेबी ने धीमी आवाज में जवाब दिया | मेरा सब्र छलका जा रहा था | इसे रील ख़तम होने का इंतज़ार क्यों है ?
जवाब जल्दी ही मिल गया | एक बच्चा नींद से जागकर रो पड़ा | उसकी माँ उसे चुप कराने लगी |
पहले तो भीड़ ने छोटी "हो", "हो" की आवाज की | पर जब वह महिला बच्चे को लेकर उठी और उसके सर की परछाई परदे पर पड़ी तो वह छोटी "हो, हो" बड़ी "हो, हो" में बदल गयी | पीछे से किसी शरारती ने सीटी भी बजाई | प्रोजेक्टर बंद भी नहीं हो सकता था | जब तक महिला का सर एक अवांछित पात्र की तरह परदे की छवि का अंग बना रहा , "हो, हो" की आवाज पृष्ठभूमि का संगीत देते रही |
राम राम करके रील ख़तम हुई | प्रोजेक्टर एक ही था | जब तक नयी रील लोड होती , इतना तो समय था कि लोग सिगरेट वगैरह पीने या पांव की झुनझुनी ठीक करने उठ कर बाहर जा सकते | हमने भी अपना बोरिया (बिस्तर नहीं ) उठाया और बाहर आ गए |
"पिक्चर उतनी बोर तो नहीं थी| " जाहिर था, इंदु का आने मन नहीं था |
"तुझे देखना है तो देख रे | " बेबी बोली |
"नहीं घर चलते हैं |" वह फिर बोली ,"अब राजेश खन्ना कि पिक्चर तो दिखा नहीं सकते |"
"शायद अगले साल दिखायेंगे | इस साल तो ज्यादा चंदा हुआ नहीं ""फिर भी कम से कम कलर पिक्चर तो थी |" इंदु इस बात से खुश थी ,"कल मेरा फेंसी ड्रेस है तू आएगी देखने ?"
"हाँ रे " बेबी बोली |
उसे तो आना ही था , वरना मुझे लेकर कौन जाता ?
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अगर ड्रेस-रिहर्सल के शब्द जुदा कर दिए जाएँ तो मुझे यही कहना है कि मुझे रिहर्सल पांच बार कराई गयी और मेरी पोशाक ऐन प्रस्थान के पूर्व तीन बार बदली गयी | रिहर्सल की जिम्मेदारी शशि ने अपने ऊपर ली | मुझे "ठक-ठक " हथौडे से पीटने की और फिर थाली से कौर मुंह में ले जाने का कई बार अभ्यास कराया गया | पर हर बार मैं कुछ ना कुछ भूल जाता था - शब्द नहीं, हरकत !
"मुझसे नहीं हो सकता |" मैं निराश हो गया|
"एक बार, सिर्फ एक बार और कोशिश करते हैं |" शशि दीदी ने हिम्मत छोड़ी नहीं थी |
"जाने दो उसे जैसे बोलना है बोलने दो |" कौशल भैया अपने आँगन की कुटिया से चिल्लाये |
"चलो जान छूटी | " मैंने मन ही मन राहत की सांस ली |
तो यह था रिहर्सल का हिस्सा | अब ड्रेस पर आते हैं | यूँ तो बाबूजी ने कुछ ही दिन पहले मेरे लिए सिविक सेंटर से एक "टेरीकाट" की रेडीमेड ड्रेस ली थी, पर धुलाई के वक्त माँ का ऐसा हाथ पडा कि पहली धुलाई में ही वह सिकुड़ गई | एकाध बार मै पहनकर खेलने भी गया - पर छोटी ने "चुस्त पेंट " कहकर चिढाया और फिर मैंने पहनना ही बंद कर दिया |
"इसके तो सारे कपडे छोटे हो गए हैं |" माँ ने अपनी टीने की पेटी खोली, जिसमें वो अपने और बच्चों के अच्छे कपडे रखती थी , जो हम सिर्फ त्योहारों में या किसी उत्सव में पहनते थे |बबलू की आँख बचाकर शशि ने उसका एक पेंट मुझे पहना कर देखा पर वह इतना ढीला था कि बेल्ट का आखिरी छेद भी उसे मेरी कमर में रोक पाने में नाकामयाब था |
कपडे की समस्या किसी तरह सुलझी | मैं बेबी का हाथ थामे घर से निकल ही रहा था कि श्यामलाल मामा ने छींक दिया |
"ये तो पूरा सरदार दीख रहा है | " वे हँस कर बोले |
मेरा झालर नहीं उतरा था | माँ चाहती थी कि और बच्चों की तरह मेरा झालर भी राजिम में उतारा जाए | पर किसी कारणवश, बाबूजी काफी व्यस्त थे | फल यह हुआ कि मेरे बाल इतने बड़े बड़े हो गए थे सरदारों की तरह मुझे जूडा बनाना पड़ता था | तिस पर मेरे दाहिने हाथ में एक कडा था (कड़े की कहानी "अक्षर ज्ञान" में )|
फल यह हुआ कि अगले ही पल मेरे सर पर हरे रंग का, चटाई का बना एक फेल्ट हेट था, जिसे मुन्ना "जानी मेरा नाम" की टोपी कहता था |
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तो स्टेज के पीछे मैं ऊँघ रहा था | मैं अकेला ही नहीं, जितने छोटे बच्चे स्टेज के पीछे अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे , सभी झपकी ले रहे थे | समय नौ से दस, दस से ग्यारह हो चला था | आखिर तभी मुझे किसी ने झकझोरा, और मैं हडबडा कर उठा | सिन्धी आटा चक्की वाला मेरी बांह को कंधे के पास से पकड़कर लगभग धकेलते हुए स्टेज के पास ले गया | फिर उसने माइक का पेंच ढीला करके उसकी ऊंचाई मेरे हिसाब से ठीक की |
"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा ...." मैंने रेलगाडी दौडाई |
"अभी रुको| ", उसने मेरे मुंह पर हाथ रखा ,"अभी पर्दा तो उठने दो |"
फिर उसने मेरा नाम पूछा बेबी ने मुझे बता ही दिया था कि कोई मेरा नाम पूछे तो मुझे स्कूल का नाम बताना है |
"विजय सिंह ठाकुर "
पर्दा उठा , दूसरे माइक से उस युवक ने कहा ," जब तक फेंसी ड्रेस के हमारे अगले प्रतियोगी तैयार होते हैं, आपको विजय सिंह ठाकुर एक कविता सुनायेंगे |"
समझ रहे हैं न आप | बच्चों की प्रतिभा का उपयोग रिक्त स्थान को भरने के लिए किया जा रहा था |
पता नहीं क्या हुआ - मेरी आँखों के सामने इतने सारे सर थे | उसमें बेबी कहाँ है ? बेबी तो नहीं, पर दीपक की दादी जरूर दीख गयी और ? मुन्ना की माँ भी है | सब मेरी ओर देख रहे हैं | जल्दी से भागो यहाँ से |
मुझे कुछ एक्टिंग याद आई, कुछ नहीं, पर शब्द जरुर याद थे -
"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा ,
पतला थाल बनाता है |
जिस थाली मैं खाना
मेरा शाम सबेरे आता है | "
लोग तालियाँ बजाते रहे |
मैं खड़े रहा वहीँ पर |
पर्दा गिर चुका था |
और मैं हीरो बन गया था .....
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मुझे क्या मालूम था कि हीरो बनना इतना आसान है !
बेबी मुझे स्टेज से नीचे ले आई |
स्टेज पर निर्मला छत्तीसगढ़ी की तरह साडी ,करधन और बड़ी बड़ी चांदी की चूडियाँ पहन कर स्टेज पर थी
"हमन छत्तीसगढ़ के हन ..."
बस, फँसी ड्रेस मैं एक या दो लाइने ही तो बोलनी होती है |
पर स्टेज पर क्या चल रहा है, किसी को कोई सरोकार नहीं था | कम से कम इक्कीस और बाइस सड़क वालों को तो बिलकुल नहीं - जो वहां उपस्थित थे | मैं उनसे घिरा हुआ था और उनके उटपटांग प्रश्नों की बौछार का सामना कर रहा था |
"टुल्लू, तुझे डर नहीं लगा ?" मुन्ना की माँ ने पूछा |
"डर ? किससे ? क्यों आंटी ? " यह प्रश्न ही मेरे पल्ले नहीं पडा |
"तुझे ये किसने सिखाया ?" शंकर की बहन डॉली ने पूछा |
"ये तो पच्चीस सड़क की एक बहनजी ने लिखकर दिया था | नाम ? नाम तो पता नहीं | हाथ पांव हिलाना शशि ने आज सिखाया था |"
"तुमने बहुत अच्छा कहा बेटा ! एक हमार मुन्ना हे .... एक बार फिर सुनाई दे हमका ..."दीपक की दादी काला चश्मा ठीक करते हुए बोली |
मंच पर एक मोटा आदमी सिकंदर की वेश भूषा पहन कर कह रहा था ,"भिलाई का लो .... हा हा हा हा ..." वह अट्टाहास कर रहा था | इधर इक्कीस बाइस सड़क के लोगों की ख़ास फरमाइश पर मैं फिर एक बार सुना रहा था ,"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा ..."
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"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा .... ठठेरा का मतलब क्या होता है बे ?"
मैं बबन और मुन्ना बेशरम के झुरमुट मैं घुसे , एक बेशरम की टहनी में बैठकर झूला झूल रहे थे | बबन के इन शब्दों में छिपी ईर्ष्या मैं साफ़ भांप गया था |
"ठठेरा याने ॥ बर्तन बनाने वाला |"
"क्या झोला झक्कड़ गाना है? " बबन बडबडाया |
"गाना नहीं, कविता ..." मैंने टोका |
"हाँ हाँ वही | मैं रहता तो सुनाता -
कल्लू मटल्लू दो भाई थे |
कुत्ते की झोपडी में सो रहे थे |
कुत्ते ने लात मारी , रो रहे थे |
बिल्ली ने 'शू' मारी , धो रहे थे |"
"हा हा हा ..." मुन्ना हंसा ," और मै रहता तो सुनाता ,
"एक दो तीन, दादू की मशीन |
दादू गया दिल्ली, वहां से लाया बिल्ली |
बिल्ली गयी पूना , वहां से लाई चूना |
चूना बड़ा कड़वा , पान वाला भडुआ | "
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इस नौटंकी का अगला दृश्य ये था कि मुझे ईनाम लेना सिखाया गया |
जिन बच्चों ने स्टेज पर थोबडा दिखाया था, सब को ईनाम मिल रहा था | उन दिनों मार्केट का गणेश इसी धूम धाम से मनाया जाता था | अगर सबको ईनाम नहीं भी मिलता, अगर वे केवल प्रथम द्वितीय और तृतीय को ही ईनाम देते , तो भी निश्चित था कि मुझे कोई ना कोई पुरस्कार जरुर मिलता | आखिर ऐसे भी बच्चे थे , जिहोने "मछली जल की रानी ..." सुनाया था | कुछ बच्चे तो भूल भी गए थे और तो और ... कुछ बच्चे तो रोने भी लगे थे ...
जिन बच्चों ने स्टेज पर थोबडा दिखाया था, सब को ईनाम मिल रहा था | उन दिनों मार्केट का गणेश इसी धूम धाम से मनाया जाता था | अगर सबको ईनाम नहीं भी मिलता, अगर वे केवल प्रथम द्वितीय और तृतीय को ही ईनाम देते , तो भी निश्चित था कि मुझे कोई ना कोई पुरस्कार जरुर मिलता | आखिर ऐसे भी बच्चे थे , जिहोने "मछली जल की रानी ..." सुनाया था | कुछ बच्चे तो भूल भी गए थे और तो और ... कुछ बच्चे तो रोने भी लगे थे ...
कुछ भी हो, ये मेरी ज़िन्दगी का प्रथम ईनाम था और मुझे पुरस्कार ग्रहण करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा था |
"पहले जाकर उनके सामने हाथ जोड़ना ..."
"वैसे ही जैसे गणेश भगवान् के सामने जोड़ते हैं ?" मैंने जिज्ञासा की |
"तो ? प्रणाम और कितने प्रकार का होता है ?"
"मंदिर मैं कुछ लोग बजरंगबली के आगे दंडवत भी करते हैं |"
कौशल भैया ने सर पीट लिया ,"तुझे जो मैं बता रहा हूँ वो सुन ... फिर वो जब ईनाम देंगे तो झपट कर मत लेना | आराम से पकड़ना | फिर उनके सामने ईनाम को सर से लगाना | अगर भारी है तो तुम खुद झुक जाना | ऐसे ..."
"भारी क्या होगा ?" बेबी बोली ,"बच्चों को तो कोपी, पेन्सिल और रबर ही मिलता है ..."
कौशल भैया ने बात अनसुनी कर दी, " फिर जो लोग सामने बैठे होंगे ... उनके सामने झुकना | हो सकता है , फोटोग्राफर तुम्हारी फोटो भी खींच दे ... "
... पर फोटोग्राफर ने मेरी फोटो नहीं खिंची | वह कला स्टूडियो वाला ही तो था | जिनकी उसने फोटो खिंची थी , गणेश पूजा के बाद कई दिनों तक उनकी फोटो उसने अपनी दूकान के शो केस में लगाकर रखा |सत्यवती से मिलने जाने के समय, बेबी जब भी उस दूकान के सामने से गुजरती, हर फोटो को ध्यान से देखती | मेरी फोटो उसने वाकई नहीं खिंची थी | आखिर इतने सारे तो बच्चे थे - "मछली जल की रानी" से लेकर रोने वाले तक - वह किस किस की फोटो खींचता ?
पुरस्कार में मुझे कॉपी पेन्सिल और रबर ही मिला | वह दो लाइन की कॉपी थी , जिसके पर हाथी की तस्वीर बनी थी और अंग्रेजी में - जैसा मुझे लक्ष्मी भैया ने बताया - "अलंकार" लिखा था | पर उनका कहना था कि "अलंकार" का "ए" तो "कैपिटल" होना चाहिए, "स्माल" नहीं | हलके हरे पीले रंग की कॉपी अगले एक साल तक इधर या उधर भटकते रही, जब तक कि पहली कक्षा में मेने उसे "शुद्धलेख" की कॉपी ना बना ली |
लाल- काली पट्टियों वाली पेन्सिल और रबर भी अगले साल तक मेरे पास बने रहे | रबर एकदम चौकोर
था , काजू कतली के टुकड़े जैसा और उसमें एक बदक की तस्वीर बनी थी | पर स्कूल में एक दिन वह रबर अचानक ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सर से सींग | या तो मेरे खीसे से खिसक गया, या किसी ने चुरा लिया |
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और वो दिन अचानक आ गया |
शाम को स्कूल से आने के बाद कौशल भैया ने बस्ता एक ओर पटका, स्कूल के कपडे बदले, हाथ मुंह धोया और काम पर लग गए | आँगन में माँ सिगडी जला रही थी | वहां से चुपचाप माचिस की डब्बी उठाकर परछी में आ गए , जहां गणेश भगवन बैठे थे | जिस थाली में गणेश भगवन का दिया रखा था, वहां आखिरी बार दिया जलाया | अगरबत्ती के पाकेट से दो अगरबत्ती निकाल कर संगमरमर के स्टैंड में लगाया | वे इतनी जल्दी में थे कि कोई फूल भी नहीं चढाया |
माँ पीछे पीछे आ गयी | कौशल भैया आरती की तैयारी करते सामान भी समेटते जा रहे थे |
माँ दो मिनट खड़े देखते रही | फिर पूछ ही लिया ,"सब कुछ समेट रहे हो ?"
"हाँ माँ आज गणेश जी को ठंडा करना है | अनंत चतुर्दशी है न ?"
अचानक वातावरण टनों भारी हो गया |
गणेश चतुर्थी की तो स्कूल में छुट्टी होती थी, पर अनंत चतुर्दशी की नहीं | शायद इसलिए माँ को आभास नहीं हुआ |वास्तविकता तो ये थी कि दस दिन किस तरह पंख लगाकर उड़ गए, किसी को पता नहीं चला | माँ लपक कर बैठक में टंगे बाबूलाल चतुर्वेदी का पंचांग उतर लायी और ध्यान से देखने लगी | फिर ज्यादा सूझा नहीं तो बगल में बैठे लक्ष्मी भैया से बोली,"देख तो बेटा आज चतुर्दशी है क्या ?"
"चतुर्दशी" क्या होती है , ये तो मुझे मालूम नहीं था | माँ ने अगर ये प्रश्न मुझसे पूछ होता तो मैं इसका जवाब जानता था - आज गणेश जी की विदाई का दिन है |
दोपहर को ही तो मैं मार्केट के गणेश जी को विदा कर के आया था - पर आते वक्त मेरा मन बार बार कह रहा था - नहीं, घर के गणेश जी को शायद आज विदा नहीं करना है | शायद आज नहीं .... पर मेरा मन आशंका से घिरा हुआ था |
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दोपहर को ,जब लोग या तो नींद की झपकी ले रहे थे , या स्कूल में थे - हमारी नज़रों के सामने मार्केट के गणेश भगवान् को उठाया गया |
मार्केट में ट्रक के पास हम लोग ठगे से खड़े देख रहे थे | लोग नाच रहे थे, गा रहे थे, गुलाल उडा रहे थे | यहाँ तक कि आम के पेड़ के नीचे बरसों से बैठा राजा मोची अपना काम छोड़कर और विनम्र रिक्शे वाला गफूर अपने रिक्शे के साथ आ गया | पान वाले पंडित के हाथ तो चल रहे थे , पर आँखें वहीँ लगी थी | गोप की दुकान वाला बूढा कुरते बनियान में ही अपनी दूकान छोड़कर ट्रक के पास खडा था |
हमारे देखते देखते , वह सिंहासन, जिस पर गणपति पूरे दस दिन विराजमान थे , सूना हो गया | बी एस पी के ट्रक के पीछे का कवर खोलकर लकडी के फट्टों से ढलवा रास्ता बनाया गया था | गणेश जी को तख्त समेत एक ट्राली में बड़ी ही सावधानी से रखा गया | प्रतिस्थापना के समय हुए झगडे को देखकर आयोजकों ने पंडित के पचडे में न पड़ने का निर्णय लिया | अनिल डेरी के मालिक के पिताजी ने ही कुछ मन्त्र पढ़ा , वही काफी था |
बसंत होटल वाला आज फिर बूंदी बाँट रहा था | अपनी तरफ से मैंने मुन्ना , छोटा , बबन और सुरेश को चेतावनी दे दी थी | उसके बावजूद बबन बाज नहीं आया और दोनों हाथ पसारकर लालची जैसे बूंदी का प्रसाद ले आया | मुझे मालूम था कि वो घर पहुँचते पहुँचते "औ औ " करके उलटी करेगा , तब अकल आयेगी कि टुल्लू सच बोल रहा था |
"कहाँ जा रहे हैं गणेश लेकर ?"
"शिवनाथ नदी जा रहे हैं | चलना है ?" ट्रक के ऊपर से बाटा के जूते की दुकान वाले ने कहा |
"हाँ हाँ चलते हैं |" बबन लपका |
"ऐसे नहीं, रस्ते भर नाचना पड़ेगा |आता है नाचना ?"सरकारी आटा चक्की वाली ने पूछा |
"थोडा थोडा आता है| "
"ठीक है, नाच के बताओ |"
बबन ने थोडा आगे पीछे हाथ पांव हिलाके, कमर मटका कर दिखाया |
"ठीक है , आ जाओ ऊपर |" चक्की वाले ने हाथ दिया|
'मत जाओ बे | गुम जायेगा |" मुन्ना वहीँ से चिल्लाया |
"अरे कुछ नहीं | ", साईकिल दूकान वाला बोला ,"शाम को वापिस आ जायेंगे | "
बबन ने उछलकर हाथ थामा और ट्रक के चक्के पर पांव जमाकर दो तीन बार ऊपर चढ़ने की कोशिश की , पर हर बार वह फिसल जाता था | अचानक ट्रक का इंजन भरभराया और ट्रक स्टार्ट हो गया |
"गणपति बाप्पा " अनिल डेरी वाले ने नारा लगाया |
"मोरिया " नारों ने आकाश गूंजा दिया |
अपनी पांच नंबर की कार के पास हाथ बाँधकर खड़े डाक्टर जैन गणेश भगवान् को जाते हुए देखते रहे |
...यह सवाल अब मुंह बाए खडा था - क्या घर के गणेश को भी आज ही विदा करना है ?
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"अभी कोई घर में नहीं है बेटा | थोडी देर रुक जाओ तुम्हारे बाबूजी को आने दो " माँ ने विनती भरे स्वर में कहा |
"नहीं माँ , अँधेरा होने के पहले गणेश जी को ठंडा करना है | सूरज डूब रहा है | वक्त ही कहाँ है ?"
"नहीं माँ , अँधेरा होने के पहले गणेश जी को ठंडा करना है | सूरज डूब रहा है | वक्त ही कहाँ है ?"
इस शाम की आरती में पहली बार कोई बच्चा नहीं था | सब तो बाहर खेल में मशगूल थे | घर लौटती चिडिया की आवाजों के साथ उनके खेलने की किलकारियां हवा में गूंज रही थी |
वह नारियल, जो गणेश भगवान् के सिंहासन के पास पहले दिन रखा गया था , उसे कौशल भैया आँगन में ले गए और संड़सी से उसका जल्दी जल्दी बूच निकाला | माँ ने उसे समेट के आँगन में आम के पेड़ के चबूतरे में राख के ढेर के पास रख दिया | अब ये बर्तन मांजने के काम आएगा | छिला हुआ नारियल कौशल भैया ने एक थैले में रखा |
"मुझे पहले बताना था, मैं कुछ बना देती |" माँ टिन के डब्बे टटोल रही थी, जिसमें उसने बेसन के सेव और गुड के लड्डू बनाकर रखे थे | पता नहीं, कितने लड्डू बाकी थे, क्योंकि माँ की नजर बचाकर हम चोरी चोरी बीच बीच में उसमें हाथ साफ़ कर लेते थे | दूसरे बिस्कुट के डब्बे में कुछ अडिसा जरुर बाकी थे | आनन फानन में माँ ने पंखाखड में जाकर बैंगनी रंग की गोदरेज की अलमारी खोली |
गोदरेज की वह अलमारी हम लोगों के लिए किसी खजाने से कम नहीं थी | उसमें माँ के गहने , कीमती कपडे , बाबूजी के दो तीन कोट, बच्चों को मिले प्रमाणपत्र , पुराने जमाने के - चाँदी और सोने के सिक्के तो थे ही, साथ ही काजू और किशमिश तथा बड़े से डब्बे में एक या दो मिठाई पेड़े, पेठे , काजू कतली - भी होती थी | जब घर में कोई अति विशिष्ठ आगंतुक आता था , तो उससे बाबूजी बैठक में बात करते रहते | फिर बातचीत के बीच मैं चाय बनाती माँ से चुपके से कहते, "शर्मा जी के लिए चाय के साथ मिठाई भी भिजवा देना | "
तब माँ बिस्तर के गद्दे के नीचे से चाबी निकालकर दरवाजा खोलती | मेहमान के साथ साथ सब बच्चों को, अगर वे घर में होते तो - थोडी बहुत मिठाई मिल जाती और थोडी बहुत मशक्क्त के बाद किसी तरह माँ फिर अलमारी में ताला लगाकर चाभी गद्दे के नीचे डाल देती और हम बच्चे फिर किसी ऐसे विशिष्ठ आगंतुक के दुबारा आने का इंतज़ार करते |
आज अनंत चतुर्दशी के दिन- गणेश जी की विदाई के समय वह अलमारी खुल गयी | माँ ने पेड़े का आधा किलो का पूरा भरा डिब्बा - जो कुछ दिन पहले बाबूजी दुर्ग के जलाराम की दुकान से लाये थे , कौशल भैया की उसी झोली में डाल दिया जिसमें नारियल तथा और मिठाइयां थी |
कैसी आरती थी वो ? सफ़ेद शंख बजाने वाला भी कोई नहीं था | ना तो कोई कप के ढक्कन बजा रहा था , ना कोई चम्मच से थाली बजा रहा था | न तो गणेश भगवन का जयघोष हुआ | ना ही आरती के बाद दिए की लौ छूकर मस्तक तक छुआने के लिए बच्चों की धक्का मुक्की हुई |अब तक तो पहले चार लाइनों में मेरी आवाज शायद सबसे ऊँची होती थी, पर आज मानो जीभ तालू से चिपक गयी थी |
बहुत सावधानी से गणेश भगवान के पूजा के अवशिष्ट - अगरबत्ती की राख और डंठल, सूखे, मुरझाये फूल ,बचे हुए पुराने प्रसाद , कौशल भैया ने सावधानी से सामान के एक थैले में डाल दिया | स्टोर रूम में चावल के दो बड़े बड़े टिन के बक्से थे | माँ ने उसमें से थोड़े चावल निकाले फिर मुझे कहा ," जा तो बेटा, घेरे से दूब लेकर आना |"
"दूब ? "
"हाँ, ऐसी घास, जिस पर किसी का पांव ना पड़ा हो | ना आदमी का, न जानवर का |"
"और चिडिया का ?"
कौशल भैया झल्लाकर बोले,"किसे भेज रहे हो माँ ? इसे कुछ समझ भी है ? मैं लेकर आता हूँ |"
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सीढियों से उतारते समय केवल दो ही लोग थे - मैं और कौशल भैया | तालाब के पास पहुँचते पहुँचते ये संख्या बीस तक जा पहुंची थी |
फिर से शुरू करते हैं | कौशल भैया ने सावधानी से गणेश भगवन को पीठे समेत उठाया | सब कुछ सूना सूना लग रहा था | हाथी अभी भी सूँड उठाये खडा था | क्रेप और झिल्ली पेपर की सजावट ज्यों की त्यों थी | कोपरे में फव्व्वारा आज नहीं चला | पीतल के फूलदान में सजावट के प्लास्टिक के फूल वैसे ही रखे थे |
शायद वे सजीव होते तो वे भी चल पड़ते |
शायद वे सजीव होते तो वे भी चल पड़ते |
हाँ, माँ ने चुपचाप शंख उठाकर पंखाखंड में भगवान् के सामने रख दिए (जहाँ अगले साल तक वह यों पड़ा रहा |अगले साल जब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि उसका एक और छोटा भाई वहां पड़ा है , जिस पर 'सुखराम सिंह ठाकुर' लिखा है .... अस्तु ...)
" जा न बेटा, तू भी जा " माँ ने मेरा ध्यान भंग किया |
बबलू मैदान के दूर वाले कोने मैं फुटबाल खेल रहा था | शायद कौशल भैया को इससे कोई सरोकार नहीं था | वे गणेश उठाकर चल ही पड़े थे , पर समस्या उन दो झोलों की थी | एक को तो गणेश जी के साथ ही तिरोहित करना था - उसमें पूजे के अवशिष्ट थे | द्सरे में प्रसाद और पूजा के लिए एक थाली, अगरबत्ती , नारियल , माचिस , गंगाजल और दूब रखे थे | अब मेरी जिम्मदारी थी कि मैं उन झोलों को सवधानी से उठाऊ | कौशल भैया की अनिच्छा चेहरे पर साफ़ झलक रही थी | वे मुझे "जकला" (अनाड़ी ) ही समझाते थे , पर मज़बूरी थी |
"सम्हाल के ले जाना बेटा " ये हिदायत माँ ने मुझे दी या कौशल भैया को - पता नहीं | हाँ, मैंने मुड़ कर देखा, उनकी आँखें जरुर डबडबा आई थी | पीछे लक्ष्मी भैया भी धिसटते घिसटते सीढ़ी के पास तक आ गए थे | उससे आगे वे जा नहीं सकते थे |
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"मुझे भी जाना है " संजीवनी बोली |
"माँ , देख तो ये जाना चाहती है " बेबी ने उसे रोकते हुए कहा |
"नहीं बेटी मत जा लड़कियां नहीं जाती " माँ ने उसे सम्हाला |
बाद में मैं माँ की इन बातों को समझ पाया - जो किसी रुढी या परंपरा की लकीर नहीं, बल्कि यथार्थ से भरा निर्णय होता था ...
घर से छोटी पुलिया के बीच की दूरी कितनी रही होगी - मुश्किल से ७५ मीटर |
जिन बच्चों ने देखा, सभी मन्त्र मुग्ध से खींचे चले आये ...
छह सात बच्चे रेस टीप खेल रहे थे | खंभे में सर छिपाकर छोटा का बड़ा भाई रमेश दाम दे रहा था | बच्चे इधर उधर भाग कर छिप रहे थे | कोई हैज में , कोई सड़क पर खड़ी मुन्ना के पिताजी की जावा के पीछे , कोई गेट की आड़ में .... कौशल को गणेश लेकर जाते देख कर सब अपनी अपनी जगह से बाहर निकल आये | यह बात बेमानी ही थी कि विनोद पहला टीप हुआ और मनोज ने रमेश को 'रेस' कर दिया | सब के सब खेलना भूल गए | अपने घर के बाहर बंडू अकेला लट्टू चला रहा था | लट्टू और रस्सी अपने घर में फेंक कर वह भागता हुआ चला आया | बात फैलते देर नहीं लगी और मैदान के दूसरे छोर में, जहाँ बबलू और दूसरे लड़के फुटबाल खेल रहे थे , खेल वहीँ बंद हो गया |
नहीं आई तो लड़कियां | संध्या, सुषमा ,मीना का "आमलेट - चाकलेट " का लंगडी बिल्लस का खेल जरुर थोडा प्रभावित हुआ | रस्सी कूदती लड़किया जरुर थोडी ठिठकी, पर विसर्जन के उस जलूस में कोई शामिल नहीं हुआ | माँ की बात मानो रेखांकित हो रही थी ," ... लड़कियां नहीं जाती - विसर्जन में |"
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दौड़ते भागते बंडू ने नारा लगाया ," गणपति बब्बा ...."
और बब्बा - यानी कि दीपक के बब्बा हाथ में छड़ी पकड़कर भीड़ को जाते हुए देख रहे थे |
"जल्दी जाओ भैया सूरज डूब रहा है| " वे मुस्कुरा रहे थे|
एक और आदमी मुस्कुरा रहा था | किसी की नज़र उस पर नहीं पड़ी, क्योंकि भीड़ थोडी आगे बढ़ गयी थी |
मैंने पलट कर देखा वह छोटी पुलिया के पास खडा था | सांवला सा चेहरा - पस्सेने से भीगी बालों की एक लट चेहरे पर झूल रही थी | बगल में एक झोला दबाये ठिठक कर वह मुस्कुराते हुए अपनी कृति को जाते हुए देख रहा था |मेरी इच्छा तो हुई कि वह भी शामिल हो जाये, जिसने अपने हाथों से मिट्टी को मूर्त रूप दिया था |
हाँ , वही तो था - कांशी राम |
.... काम ख़तम करके अपने घर सुपेला की ओर जा रहा था | वह मुझे लगा, अभी वह आएगा - आ जायेगा - सब के साथ जयघोष करेगा | मैंने कई बार पीछे मुड़कर देखा पर वह नहीं आया | जहाँ खडा था , वहीँ से उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर मुड़कर अपने घर की ओर चल पड़ा |
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शाला नंबर आठ के पीछे रामलीला मैदान और दाहिनी ओर तालाब था | शाम तो क्या दिन के समय भी तालाब सूना ही रहता था | सबके घर में नल थे , तालाब में कौन नहाये | सत्यवती के पिताजी जरुर सुबह सुबह किनारे के पत्थर पर कपडे पटक पटक कर बटन तोड़ते थे | बाकी जो लोग , जिनके घर गाय या भैस थी , जैसे छोटा और विनोद के घर - उनके चरवाहे जरुर दो तीन दिन में या मालिक की मांग पर - उन्हें तालाब में नहला देते थे | पर घर में गाँव से आने वाले कई मेहमान - जिन्हें बंद कमरे में बाल्टी या नल के पानी से नहाना अच्छा नहीं लगता था - जैसे कि बलराम मामा - वे जरुर तालाब में डुबकी लगाना पसंद करते थे ...
"...जा तो बेटा , इन्हें तरिया (तालाब) दिखा ला |" माँ मुझे निर्देश देती | मुझे ख़ुशी ही होती- उनका मार्गदर्शन करने में | तालाब के किनारे आम ,महुआ , हर्रा और बहेडा के पेड़ थे, जिनके तने से ढेरों गोंद निकलता था | कई बार स्कूल की आधी छुट्टी में शाला नंबर आठ के बच्चे शिक्षक और चुगलखोर लड़कियों की आँख बचाकर आते और पत्थर या गुलेल से या तो उड़ने वाले तोतों को निशाना बनाते या महुआ या हर्रा के हरे गोल -गोल फल तोड़ते , जिनके खोल काफी कड़े होते | फिर वे नुकीले पत्थर से उसका खोल तोड़ते ही रहते कि आधी छुट्टी ख़तम होने की घंटी बज जाती | फिर सारे के सारे सब कुछ छोड़ के स्कूल की ओर दौड़ पड़ते |
एक दिन मैंने मुन्ना को बताया कि बाज़ार से आने के समय मैं बेबी के साथ तालाब के किनारे से आया था |
"क्या बात कर रहा है ?" वह बोला ,"शाम को मत आया कर ऐसे |"
"क्यों ? क्या बात है ?" मैंने पूछा |
"भू भू भूत पकड़ लेगा |"
"क्या ? कौन ?" मैंने पूछा |
उसने कसम खा कर बताया कि एक बार उसके राजा चाचा , जो कभी कभार तालाब के किनारे मछली पकड़ने जाया करते थे , उन्होंने एक दिन शाम को वहां भू भू भूत देखा था |
"भू भू भूत क्या होता है ?" मैंने पूछा |
"अरे बाप रे मुझे डर लगता है |"
और वो भाग गया |
शाम को मैंने बेबी से पूछा ,"भू भू भू क्या होता है ?"
वह चौंक गयी ,"कौन बताता है तुझे ये सब बातें ?"
"कोई नहीं, बस मेरे मन में ऐसे ही आया |"
"ऐसे कैसे आया ? जरुर मुन्ना ने बताया होगा उसकी माँ से बोलना पड़ेगा |"
"नहीं सच्ची, मेरे मन में ऐसे ही आया | मैंने चंदामामा में फोटो देखा था | क्या होता है, भू भू भूत ?"
वह कुछ देर सोचते रही फिर बोली,"मरने के बाद आदमी भूत बन जाता है | "
"पर मरने के बाद तो आदमी भगवान् के पास चले जाता है | " मैं बोला |
"जो लोग भगवान् के पास नहीं पहुँच पाते वो भूत बन जाते हैं |"
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जो लोग भगवान् के पास नहीं पहुँच पाते , वो भूत बन जाते हैं ...
....तालाब के किनारे भूत रहते हैं ....
....हम लोग गणेश भगवान को विदा करने उसी तालाब की ओर बढ़ रहे थे ....
शाला नंबर आठ के पास से गुजरते समय इक्कीस सड़क के भी कुछ लोग जुड़ गए |
बीस सड़क के पास ही वह खडा था - वसंत , कौशल भैया का दोस्त - बंछोर साहब का अर्ध विक्षिप्त भाई
"कौशलेन्द्र, गणपति को लेकर कहाँ जा रहे हो भाई ?"
" आज विसर्जन है न |"
"अरे हाँ मार्केट का गणेश तो चले गया इसे कहाँ डुबाओगे ? "
"डुबाओगे", यह सुनते ही बंडू को तैश आ गया पर बंछोर के उस भाई को सब जानते थे उसकी बहकी बहकी बात को किसी ने बुरा नहीं माना |
"मेरी बात मानो, शिवनाथ नदी मत जाओ बगल में तो अपना तालाब है न " वह अपनी ओर से सलाह दिए जा रहा था|
"वहीँ तो जा रहे हैं " मनोज ने बताया |
" हाँ भाई इसी में समझदारी है मैं भी चलता हूँ तुम्हारे साथ |" और बसंत भी पायजामा सम्हालते हुए हमारे साथ हो लिया |
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अस्ताचलगामी सूरज की अन्तिम रौशनी में तालाब के किनारे , उस समय भी मेला सा लगा था ना जाने कितने लोग अपने अपने गणेश को विदा करने आये थे पर बात क्या थी ? सब के सब चुप क्यों थे ?
??????
॥उसी शाम के धुंधलके में किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया , कस के ....... इतने जोर से कि कलाई के चारों ओर खून जमता महसूस हुआ |
"झोले में क्या है बचुआ ?"
"???"
"छोड़ दो उसे " कौशल भैया बोले |
"आप अपना गणेश पकडे रहिये बाबू साहेब | गिर जायेगा तो टूट जायेगा | " उसका साथी वहीँ से ठहाका लगा कर हंसा | चार छह और साए हमारी ओर बढ़ने लगे | ये तो पूरा ग्रुप था उन गुंडों का ...
"परसाद है ना इसमें ? हमका दई दो " उस मुछ वाले को तो मैंने कभी आस पड़ोस में देखा नहीं था | ये तो पान वाले पंडित की बोली बोल रहा था | सोना चांदी, पैसा कौडी कुछ नही , सिर्फ़ भगवान् के प्रसाद की लूट खसोट ....
"पहले पूजा हो जाने तो दो | फिर प्रसाद भी मिल जायेगा |" कौशल भैया बोले |
"फेर वही बात | हमरे पास टेम नहीं है | आप चार घंटा लगा के पूजा कीजिये पांडे जी | हमका परसाद का झोला दे दो और छुट्टी करो |"
वसंत बीच में आ गया ," देखो भाई मंदिर में भी परसाद तो पूजा के बाद ही मिलता है न | " उसने भोलेपन से हाथ छूकर समझाने की कोशिश की |
"पायजामा लाल पिद्दी ! हट यहाँ से |"उस आदमी के हलके धक्के से ही लड़खड़कर बसंत नीचे गिर पड़ा | चारों ओर सन्नाटा छा गया सुई पटक सन्नाटा ....सबके पावों में कील ठुक गयी | जुबान पर ताला लग गया ......
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....और तभी एक वायुयान आकाश से गुजरा ....
वह ज़माना था, जब भिलाई के आसमान से हवाई जहाज गुजरता, तो ट्रैफिक , जो कि आम तौर पर साईकिल या स्कूटर पर होता, ठहर जाता और सब की निगाहें ऊपर उठ जाती | कई बार, भरी दुपहरी में मैं हवाई जहाज की " घों घों" सुनते ही खाना छोड़कर चिलचिलाती धूप में हवाई जहाज की एक झलक पाने के लिए नंगे पाँव बाहर दौडा था | मैं अकेला नहीं होता | सारे बच्चे सड़क पर होते | बच्चे ही नहीं, बब्बा भी अपनी छड़ी लेकर सड़क पर दिखाई देते | हवाई जहाज देखते ही हम एक दूसरे को दिखाते , "वो जा रहा है ......"
....तो इस समय शाम के धुंधलके में एक हवाई जहाज आसमान से गुजरा, थोड़े पास से... उसकी लाल पीली बत्तियां आकाश में फडफडा रही थी | सबका ध्यान ऊपर की ओर था | मुझे कुछ दिखाई दिया, जो किसी ने नहीं देखा .... पता नहीं क्यों...?
...हवाई जहाज से एक धब्बा प्रकट हुआ ....बिंदु के आकार का धब्बा धीरे धीरे बड़ा होते गया ....... थोडा नीचे आते आते ही वह एक पैराशूट मैं बदल गया ....उस धुंधलके में भी केवल एक ही झलक काफी थी | उस हवाबाज को पहचानने के लिए ... और उस बहु परिचित चेहरे को तो तो मीलों दूर से पहचाना जा सकता था ...
....ओह, एक मिनट | सिर्फ एक मिनट ...मैं कुछ भूल गया था .... तीन शैतान भाइयों के बारे में तो मैंने आपको बताया ही नहीं....
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गणेश विसर्जन का जुलुस पूरा रिवाइन्ड करने की जरुरत नहीं, सिर्फ वही दृश्य देखिये, जब वह इक्कीस सड़क के बगल से गुजरा था | कोने के घर में एक अधेड़ बंगाली औरत अपने घेरे से चिपक कर जूलूस जाते देख रही थी ....वह तीन शैतान भाइयों की माँ थी ...पीछे एक मोटी लड़की बरामदे में बैठी थी, वह इनकी बहन पूर्णिमा थी |
नहीं, वे वे तीन नहीं ,चार भाई थे, पर तपन को हम बाकी तीन के पिंजरे में नहीं डाल सकते थे | तपन एक समझदार , जिम्मेदार, नौकरीपेशा , सिगरेट फूंकने वाले, हमेशा सफ़ेद कपडे पहनने वाले संजीदा युवक थे | पर उनके तीनों छोटे भाई ? दुल्लू की एक झलक तो देखी ही थी आपने.... उससे बढ़कर था उसका बड़ा भाई नुक्कू .... और उन सब का बड़ा भाई था सप्पन ......
...और वही सप्पन था जो आकाश से टपक पड़ा था ..... ! .... एक दम सही समय पर ..... ! शायद उसके टपकने का इससे बेहतर समय हो ही नहीं सकता था ......
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तो मैंने कहा , जब एक वायुयान आसमान में पास से गुजरा तो सबकी निगाहें ऊपर थी ...
"तडाक ....." इस भयंकर शब्द ने उनका ध्यान भंग किया | जब निगाह पंख कटे पंछी की तरह जमीन पर लौटी और उस आवाज़ की ओर घूमी तो गोधूलि बेला की उस आभा में में उन्हें एक सांवला सा चेहरा दिखाई दिया | सबने देखा, सप्पन खडा हुआ था -मुट्ठियाँ भिची हुए, शारीर का वजन दोनों पावों पर बराबर, एक आक्रामक मुक्केबाज की मुद्रा में .... जिसने वसंत को धक्का दिया था , वह मवाली खुद धूल चाट रहा था !
चोट खाए सांप की तरह उसने उठने की कोशिश की | पर इससे पहले कि वह सम्हालता ,, सप्पन ने लपककर उसका कालर पकड़ लिया और धकलेते हुए ले गया | सारे गुंडे सप्पन पर पिल पड़े ,"मारो साले को ....."
सप्पन ने उसी मवाली को आती हुई भीड़ पर ही धकेल दिया |
इस चिंगारी ने मानों सबमें जोश भर दिया | सबकी मुट्ठियों ने मुक्के का रूप ले लिया | अब वहां कौशल और मेरे सिवाय कोई दर्शक था ही नहीं |
ऐसा अंधड़, औघड़ , लेकिन चौतरफा आक्रमण अनपेक्षित था | एक दादा वहां से भाग खडा हुआ | उसको भागते देखकर दूसरो की हिम्मत टूट गयी | दूसरे दादा ने किसी तरह अपने आप को छुडाया और वो भी भागा | सारे के सारे शाला नंबर ८ की इमारत की और भागे और अंतर्ध्यान हो गए | लड़कों ने कुछ दूर तक उनका पीछा किया, फिर वापिस लौट आये | उनको और भी काम करना था |
सप्पन वहीँ मेढ़ पर खड़े होकर चिल्ला चिल्ला कर उहें ललकारते रहा ," साले,भुखमरे ! सुपेला के सूअर !! बच्चों पे दादागिरी झाड़ते हो ? फिर सेक्टर २ में दिखे तो टांग तोड़ दूंगा| "
बरसों हम लोग वहीँ गणेश का विसर्जन करते रहे | किसी न किसी रूप में कोई न कोई आवारा युवकों का ग्रुप आते ही रहा | कभी बोरिया से, कभी सुपेला से, कभी सेक्टर २ की ही नाले के पास वाले २४ यूनिट या ट्यूबलर शेड से | कोई ग्रुप कम उद्दंड होता, कोई ज्यादा | भगवान् कभी किसी सप्पन को भेज देते , कभी हमें ही अपने आप निपटने छोड़ देते | जब विसर्जन की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आई तो मैं मुंह अँधेरे ही अकेले निकल पड़ता था |
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एक साफ़ सुथरा स्थान चुनकर गणेश भगवान् को रख दिया गया | दिए जलाने मैं काफी मुश्किल आई | शाम का मौसम था | ठंडी, तेज हवाएं चल रही थी | कौशल भैया एक एक कर के माचिस की तीली निकालते रहे | आग की लौ दिए तक पहुँचने क़े पहले ही बुझ जाती | अब दो तीन लोगों ने अपने हाथ की आड़ बनाई और हलके अँधेरे को चीरता दीपक जल उठा | शायद एक घंटा पहले उसकी लौ उतनी आभा नहीं बिखेरती, जितनी डूबता सूरज की लालिमा में अब बिखेर रही थी | आम,, महुआ और हर्रा के वृक्षों में लौटती चिडियों का चहचहाना तेज - और तेज होते जा रहा था |
अचानक एक सनसनाता हुआ पत्थर आया और तालाब की मेढ़ से टकरा कर उछला और हमारे सर के ऊपर से होता हुआ तालाब के पानी में जा गिरा |
"....छपाक ....."
थोड़ी ही दूर खडा सप्पन वापिस तालाब की मेढ़ की ओर भागा ...
"तुम लोग तैयारी करो, मैं देखता हूँ सालों को |" वह वहीँ से चिल्लाया | वह मेढ़ पर तिरछा भागकर कुछ दूर निकल गया , हमारी भीड़ से दूर | वैसे भी तालाब की मेढ़ इतनी ऊँची थी कि अगर कोई दूर से देखे तो तालाब के जल के पास खडा व्यक्ति दिखाई नहीं देता था |
खैर , गणेश जी की आखिरी आरती शुरू हुई | वैसे भी मुझे चार लाइनों से ज्यादा आरती आती नहीं थी | मेरी निगाह एक पल गणेश जी के चेहरे पर पड़ती | दिए की फडफडाती लौ में उनके चेहरे पर उदासी के भाव साफ़ झलक रहे थे | फिर मेरी निगाह मुंडेर पर जाती , जहाँ सप्प्नन अकेला पत्थर चला रहा था | पर नहीं, वह अकेला नहीं था | बब्बन और मुन्ना कब भीड़ से गायब हो गए , मुझे पता ही नहीं चला | वे भी सप्पन के दायें बाएं खड़े पत्थर फेंक रहे थे और आने वाले पत्थर से उछल उछल कर बच रहे थे | पर नन्हे हाथों में कितनी जान है, उन्हें शीघ्र पता चल गया | अ़ब वे उसके लिए पत्थरों का ढेर लगाते जा रहे थे |
"कहाँ देख रहा है ?" कौशल भैया बोले , "दिया बुझ जायेगा, जल्दी कर | "
पूजा की थाली मेरे सामने थी | मुझे पूजा की आरती लेनी थी |
दिया गणेश जी के पीढे पर रखकर कौशल भैया सावधानी से पानी में उतरे |
तभी उछालते कूदते , खिलखिलाते मुन्ना और बब्बन वापिस आ गए |
"टुल्लू , टुल्लू, ! सप्पन का एक पत्थर पड़ा साले की खोपडी में ... टनं से आवाज़ आई और भाग गए सूअर !"
ठिठकते क़दमों से अँधेरे में सप्पन भी नीचे आ रहा था , पर उसकी निगाहें बार बार पीछे मुड़कर देख रही थी |
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कौशल भैया पानी में आगे बढ़ते ही जा रहे थे | अब पानी उनकी कमर तक आ गया था |
"आगे मत जाओ कौशलेन्द्र | " वसंत वहीँ से चिल्लाया ,"आगे लद्दी है यार | "
हिलते पानी में दिए के प्रकाश में गणेश भगवान् की छवि दिख रही थी |ऊपर आकाश में बादलों के पीछे से चाँद का छोटा सा टुकडा दिख रहा था | सब तालाब के किनारे दम साधे देख रहे थे | कौशल भैया ने पीढा धीरे धीरे पानी में डुबाया | एक क्षण के लिए जलता दिया पानी में तैरा और अगले ही क्षण घुप्प अन्धकार छा गया | गणेश भगवान् अपने धाम को चले गए |
"गणपति बब्बा ...."बंडू जोर से चीखा |
" मोरिया ...."
"उच्चा वर्षी ...." उसने फिर आवाज़ बुलंद की |
"लोकारिया ...." तालाब के आसपास खड़े वे सारे लोगों ने, जो अपना अपना गणेश ठंडा करने आये थे, एक स्वर मैं हुंकार भरी | जाते जाते गणपति ने उनकी वो आवाज वापिस कर दी जो एक घंटा पहले छिन गयी थी |
दूर हनुमान मंदिर से शाम की आरती की घंटे घड़ियाल और शंख की ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो रहा था |
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( वर्ष - १९७०-७१ , स्थान - भिलाई )