कभी चमकी फिर हुई लुप्त,
स्मृति पटल से वह गाथा ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[1] कारुण्य
बीत गए कई युग ,
लौ रही अब थरथरा |
डूबी आकंठ निराशा में ,
आत्मा थामे तृण आसरा |
पीढ़ियाँ आये गुजर जाये ,
हर यत्न हो चला भोथरा |
बूंद को तरसे भगीरथ ,
कब लाओगे तुम जल धारा ?
आती जाती पवन कह रही ,
तप हो गया तुम्हारा सफल |
यूँ तो कट गए वर्ष कोटि -कोटि ,
भारी हो गया एक पल |
मुक्ति द्वार अब भी अवरुद्ध ,
आत्मा हो चली विकल |
अब विलम्ब क्यों हे प्रौपुत्र ,
ले आओ अंजुरी भर जल |
आशा किरण कभी थिरकती ,
कभी नैराश्य मेघ छा जाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[2] अनिश्चितता
धधक रही ज्वाला ह्रदय में,
पुरखों की हो कैसे मुक्ति ।
चले हिमालय त्याग राजसुख,
घोर तपस्या ही थी युक्ति ।
पत्ते, भस्म, जल , पवन,
सूर्य किरणे - यही था खान ।
वर्ष सहस्त्र घोर तप नंतर ,
प्राप्त हुआ ब्रम्ह वरदान ।
अमृत जल राशि से पूर्ण,
गंगा जब हो अवतरित ।
नर्क से मुक्ति सहज मिले,
पुरखे हो तब पाप रहित ।
पर गंगा ठहरी स्वर्ग नदी ,
मृत्यु लोक से क्या प्रयोजन ?
करें कैसे प्रोत्साहित चंचला को,
सृष्टि निर्माता यही करें चिंतन ।
अठखेलियां करे चपला से,
नव नृत्य हो अप्सराओं संग ।
विसरित स्मृति की,
स्वर्गिक आमोद के विविध रंग |
अक्षरशः उतरी आशंका,
रोष, कोप, पुरजोर प्रतिरोध ।
अंतिम शस्त्र परिजन स्मृति
मानो शांत हुआ तब क्रोध ।
गंगा मनुहार हुआ सफल,
हटी बाधा , पर मार्ग नहीं प्रशस्त ।
हुई अनावृत्त बड़ी चुनौती,
सिहर उठा ब्रह्माण्ड समस्त |
गंगा वेग पर कौन संभाले,
संकेत मात्र करें सृष्टि निर्माता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[3] आक्रांत
किसके रोके रुका समय,
शीतल रात्रि या धूप कड़ी ।
गिरते पड़ते चलते रुकते ,
आ ही गयी विपद घडी |
चारण , सिद्ध देवगण, ऋषि
अस्पष्ट शब्द, अव्यवस्थित आवृति,
कांपे चरण अष्ट दिग्पालों के ,
ओंठों पर थी वही स्तुति |
कार्तिक , बाल गणपति थामे आँचल ,
पूछे माँ गौरी से पल पल ,
क्लिष्ट है उत्तर , बाल सुलभ प्रश्न सरल ,
क्या धरा चली आज रसातल ?
प्रचंड प्रलय पवन सम प्रश्न ,
होता प्रतिध्वनित पग पग ,
सुर असुर यक्ष ,गण , बलिष्ठ नाग ,
गन्धर्व वानर , मानव खग मृग |
पखारती चरण लक्ष्मी उद्धिग्न,
हुआ प्रश्न मुखरित अनायास,
करती व्यक्त वही आशंका,
उत्तर पाने का विफल प्रयास |
विश्राम मुद्रा में लीन जगदीश
काश - लेती पढ़ वह मन्दहास |
सरल प्रश्न , तो सहज ही उत्तर ,
आस न निराश, गूढ़ न उपहास |
हो प्रलय आसन्न तब ,
नाम एक ही मुख पर आता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[3] अभ्युदय
किया सहज ही गरल पान ,
जिसने तब तारी थी सृष्टि ,
सहेज पाएंगे क्या अमृत प्रवाह ,
उन पर है आज सर्व दृष्टि |
होता दीप्तमान कैलाश शिखर ,
प्रदीप्त हो जाता मान सरोवर ,
जटा जूट भी स्वर्णमय होता ,
सुशोभित करता जो शिव शंकर |
पर रश्मिरथी रवि कहाँ
हो चला रहस्मयी ढंग से लोप,
अपरान्ह की उस कठिन बेला
में छाया तिलस्मयी घटाटोप |
मेघ आवरण से आच्छादित आकाश,
करें पृथक भुवन से भूतल |,
पृथ्वी रक्षा का बाल प्रयास,
पर हुई अगोचर अंतरिक्ष हलचल |
नंदी और मरुद्गण संग ,
लिए हाथ त्रिशूल और दंड,
प्रतीक्षारत शम्भू निहारे ,
मेघाच्छादित आकाश खंड |
प्रति क्षण तीव्र कर्कश ध्वनि,
मानो शिलाएँ होती चूर ।
अगले क्षण क्षीण हो जाती ।
मानो अश्व दल जाए दूर |
आशाओं के केंद्र बिंदु पर,
बने कैलाशपति भाग्य विधाता,
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[4] पराकाष्ठा
नीरवता सर्वत्र विराजित ,
जमी वायु है शांत गगन,
न हलचल , न कोई ध्वनि ,
क्या चंचल गंगा का लड़कपन ?
प्रतीक्षारत पथराई आँखें,
उहापोह और तर्क वितर्क
कहाँ हो बेटी गंगा ?
शंकर करें मानसिक संपर्क |
वेग सहेजो बेटी गंगा ,
क्षुब्ध शम्भो की हुंकार क्रुद्ध,
मृत्यु लोक यह ,देवलोक नहीं ,
बसते यहाँ मानव क्षुद्र |
लघु जीवन ,त्रुटि की मूर्तियां ,
निर्बल मन पाप संलिप्त ,
पुरखों को दें तर्पण ,
आशा है उनकी संक्षिप्त |
स्नान करें तेरे जल से
हो पाप मुक्त अनायास ,
कृषक सींचें खेत धारा से ,
बुझाएं वनचर अपनी प्यास |
हो तू सुगम यातायात साधन ,
पाएं जलचर तुझमें निवास |
माँ की ममता पाकर तुझसे ,
करें समृद्धि और विकास |
हो कल्याण तेरा गंगे ,
हो जीवन दायिनी पतित पावन | .
मृत्युलोक की मरुभूमि में,
कर दे तू नव जीवन सृजन |
आशा दीप कर दे प्रज्ज्वलित,
शिव विमर्श गगन गुंजाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
*******************
अकस्मात् गिरी उल्काएं,
गुंजायमान तड़ित अगणित ।
तिरस्कारिणी, इतराती ,
गंगा वाणी हुई प्रतिध्वनित ।
प्रकृति से बंधी हूँ मैं,
क्षमा करें मुझको त्रिपुरारी
नियम बंधन के सृजनकर्ता ,
विपरीत अनुदेश क्यों अपरम्पारी ?
न कोई आरोह अवरोह स्वर्ग में ,
न कोई पापी संसारी ।
न कृषक करें मार्ग अवरुद्ध ,
न प्यासे वनचारी जलचारी ।
हूँ उन्मुक्त स्वच्छंद अबला,
प्रकृति नियम से बेबस नारी ।
युगों से विलग मैं परिजन से ,
विरह अग्नि समझें हे त्रिपुरारी |
उच्छृंखलता मेरी क्षमा करें प्रभो
इन लहरों पर कैसा बंधन |
हो सके सम्भालो वेग मेरा,
प्रतीक्षारत हैं मेरे स्वजन |
हुआ कोलाहल क्रमशः तीव्र
छोड़ा गगन पथ , चली द्रुत गति । ,
ज्यों ज्यों आवर्धित प्रचंड शब्द ,
त्यों त्यों प्रखर हुई स्तुति |
तुषारापात गंगा का यह ,
शिव शक्ति का उपहास उड़ाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[5] संघर्ष
मेघाच्छादित सा निस्तब्ध नभ ,
ध्वनि दिलाये अस्पष्ट आभास ।
शम्भू करें स्थिति संवरण,
क्षीण त्रुटि हो भीषण विनाश ।
हुआ प्रचंड घोर शब्द ,
तब देखा जगत ने अकस्मात् ।
प्रकट हुआ मेघ मध्य ,
भीषण श्वेत प्रलय सा प्रपात |
नारी का अभिमान था वह,
या चिर विरह की पीड़ा ।
देव नदी का प्रबल आवेग ,
या थी उच्छृंखल क्रीड़ा |
छोड़ चली गंगा देवलोक ,
श्वेत शक्ति पुंज सी जलधार |
त्वरित गति , अथाह जल ,
त्रिभुवन कर उठा हाहाकार |
स्तुति शब्द मध्य अमृत
जल मृत्यु राग सुनाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
*************
आँखें मीचे होड़ लगाए ,
लहरें शिखर पर उतर पड़े ,
सतह स्पर्श होते ही दर्प से
चूर, मोती जैसे बिखर पड़े |
था नहीं वह कठोर धरातल ,
मखमली बिछौने सा सौम्य |
तीव्र जल राशि दबाव के सम्मुख,
श्याम सघन वन हो चला नम्य ।
शक्ति विकट लहरों पर लहरें,
तलहीन कुण्ड में जाए धंसती ।
श्याम रज्जु के जाल में
,निमिष मात्र में जाएँ फंसती ।
अकस्मात् खो बैठी नियंत्रण,
मानो यंत्रवत कठपुतलियां
संचालक खींचे अब डोर,
बंधी समस्त मुक्त अठखेलियाँ ।
मजबूत वृक्ष सघन वन,
हर धारा सहस्त्र धारा में विभक्त ।
गति मंद बल हुआ क्षीण,
विकराल लहरें हुईं अशक्त ।
नीलकंठ का जटाजूट वह,
तिलस्म और रहस्य से पूर्ण ।
भूलभुलैया, अगणित कंदराएँ ,
विस्तृत निकास कहीं, कहीं संकीर्ण ।
कहीं आरोह, कहीं अवरोह ।
कहीं घुमाव, क्षणिक कहीं ठहराव |
भंवर पार कहीं लहरें मिलतीं,
पल भर में पुनः अलगाव ।
तलहीन ताल हैं यत्र तंत्र ,
जिसमें सम्पूर्ण नीर समाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[6] समर्पण
अंतहीन दुर्गम सुरंगमयी पथ ,
अतिकाय लहरों ने ठानी ।
स्वर्गिक लहरें , ये दुर्गति ,
करें इतिश्री यह कहानी |
बूँद बूँद में नयी स्फूर्ति,
संयोजा लहरों ने शेष बल ।
किया संकल्प बहा दें बाधाएं,
कर दें इस वन को समतल ।
लहरों ने थामा लहरों को,
बना संगठन हुआ विलय,
चट्टान भेदी प्रहार पर प्रहार,
जागृह हुआ प्रसुप्त प्रलय |
शालीन श्याम वृक्ष हुए नम्य ,
गहरी जमी रही , पर जड़ ।
अगले क्षण फिर खड़े हो गए,
पड़ी लहरों को उलटी थपड ।
होश खो बैठी लहरें,
हुआ संगठन पल में विघटित ।
करने लगे प्रहार अंधाधुंध,
दर्प होने लगा कुछ खंडित |
जटाजूट जल द्वंद्व मध्य ,
शिव स्तुति जाप प्रभाव जमाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
समतल करने की कौन कहे ,
सरपट भागने का खोजें मार्ग ।
वही तिलस्म , और भूलभलैया,
मुंह से निकलने लगी अब झाग |
होने लगी लहरें अब पस्त
यत्न निष्फल , नैराश्य ह्रदय |
ओंठों पर आई वही स्तुति ,
समर्पण भाव का हुआ उदय |
ले लो मुझे छत्रछाया में ,
हुई प्रभु मैं शरणागत ।
करो मुक्त इस जंजाल से,
रहूँ सदा आपसे सहमत |
हुई परिवर्तित कातरता हर्ष में ,
शब्द वही पृथक भाव दर्शाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[6] प्रयाण
स्तुति से गुंजायमान व्योम,
पिछले पैरों पर नंदी खड़े।
यक्ष, देव ऋषि गन्धर्व,
करें स्तुति हाथ जोड़े ।
शंख ध्वनि , पुष्प वृष्टि चहुँ ओर ।
स्वर्ग नदी अब हुई समर्पित ।
छोड़ी तब एक धार शम्भू ने,
किया उसे धरा को अर्पित |
स्वागत स्वागतम् सुस्वागतम ,
हे नन्ही बालिका सुस्वागतम,
तैयार खड़े श्वेत अश्व , कांतिमय स्वर्ण रथ,
मृत्यु लोक की अनजान डगर अनजान पथ,
मार्ग प्रशस्त को तत्पर भगीरथ,
ऋषि मुनि राजा रंक - सब हैं प्रतीक्षारत
हर वाद्य पर एक ही सरगम ।
स्वागत स्वागतम् सुस्वागतम |
पाँव थिरक थिरक जाये रे मितवा ।
मन मुदित भरमाये रे मितवा ।
तन पुलकित हर्षाये रे मितवा ।
लहर लहर जहाँ लहराए रे मितवा ।
नर नारी तहँ तहँ गाये रे मितवा ।
क्यारी फुलवारी मुस्काये रे मितवा |
अगणित दीप जगमगाये रे मितवा |
[7]भरतवाक्य
साठ सहस्त्र सुत सगर के ,
हुए दग्ध कपिल कोप दृष्टि से ।
अस्थिर आत्माएं, अतृप्त पिपासा ,
न हो शांत किसी वृष्टि से |
स्थित पाताल में भस्म अवशेष ,
उद्विग्न हो उठे भगीरथ.|
स्वर्ग से धरती से पाताल ,
गंगा चलती रही अविरत ।
मृतप्राय पक्षी समूह मरू भूमि में,
झुलसे पंख मूँदते नेत्र ।
जलती भूमि , धूल भरे बवंडर ,
सदियों से शापित शुष्क क्षेत्र ।
पड़ी शीतल फुहार, अकस्मात ,
दृश्य सम्पूर्ण परिवर्तित पल में ।
करे किल्लोल आल्हादित खग दल,
भस्म अवशेष समाहित जल में ।
नूतन पंख, परिपूर्ण उमंग ,
नील गगन का खुला आमंत्रण ।
होते ओझल देखें निर्निमेष
भरी आँखें खो बैठी नियंत्रण |
छलके आंसू विलीन हुए,
निर्झर निर्मल जल धार में ।
देते तर्पण भार मुक्त भगीरथ,
लौट आये तिलस्मी संसार में |
कभी देखें मुड़ भगीरथ प्रयत्न,
अथाह मनोबल की गौरव गाथा ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
स्मृति पटल से वह गाथा ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[1] कारुण्य
बीत गए कई युग ,
लौ रही अब थरथरा |
डूबी आकंठ निराशा में ,
आत्मा थामे तृण आसरा |
पीढ़ियाँ आये गुजर जाये ,
हर यत्न हो चला भोथरा |
बूंद को तरसे भगीरथ ,
कब लाओगे तुम जल धारा ?
आती जाती पवन कह रही ,
तप हो गया तुम्हारा सफल |
यूँ तो कट गए वर्ष कोटि -कोटि ,
भारी हो गया एक पल |
मुक्ति द्वार अब भी अवरुद्ध ,
आत्मा हो चली विकल |
अब विलम्ब क्यों हे प्रौपुत्र ,
ले आओ अंजुरी भर जल |
आशा किरण कभी थिरकती ,
कभी नैराश्य मेघ छा जाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[2] अनिश्चितता
धधक रही ज्वाला ह्रदय में,
पुरखों की हो कैसे मुक्ति ।
चले हिमालय त्याग राजसुख,
घोर तपस्या ही थी युक्ति ।
पत्ते, भस्म, जल , पवन,
सूर्य किरणे - यही था खान ।
वर्ष सहस्त्र घोर तप नंतर ,
प्राप्त हुआ ब्रम्ह वरदान ।
अमृत जल राशि से पूर्ण,
गंगा जब हो अवतरित ।
नर्क से मुक्ति सहज मिले,
पुरखे हो तब पाप रहित ।
पर गंगा ठहरी स्वर्ग नदी ,
मृत्यु लोक से क्या प्रयोजन ?
करें कैसे प्रोत्साहित चंचला को,
सृष्टि निर्माता यही करें चिंतन ।
अठखेलियां करे चपला से,
नव नृत्य हो अप्सराओं संग ।
विसरित स्मृति की,
स्वर्गिक आमोद के विविध रंग |
अक्षरशः उतरी आशंका,
रोष, कोप, पुरजोर प्रतिरोध ।
अंतिम शस्त्र परिजन स्मृति
मानो शांत हुआ तब क्रोध ।
गंगा मनुहार हुआ सफल,
हटी बाधा , पर मार्ग नहीं प्रशस्त ।
हुई अनावृत्त बड़ी चुनौती,
सिहर उठा ब्रह्माण्ड समस्त |
गंगा वेग पर कौन संभाले,
संकेत मात्र करें सृष्टि निर्माता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[3] आक्रांत
किसके रोके रुका समय,
शीतल रात्रि या धूप कड़ी ।
गिरते पड़ते चलते रुकते ,
आ ही गयी विपद घडी |
चारण , सिद्ध देवगण, ऋषि
अस्पष्ट शब्द, अव्यवस्थित आवृति,
कांपे चरण अष्ट दिग्पालों के ,
ओंठों पर थी वही स्तुति |
कार्तिक , बाल गणपति थामे आँचल ,
पूछे माँ गौरी से पल पल ,
क्लिष्ट है उत्तर , बाल सुलभ प्रश्न सरल ,
क्या धरा चली आज रसातल ?
प्रचंड प्रलय पवन सम प्रश्न ,
होता प्रतिध्वनित पग पग ,
सुर असुर यक्ष ,गण , बलिष्ठ नाग ,
गन्धर्व वानर , मानव खग मृग |
पखारती चरण लक्ष्मी उद्धिग्न,
हुआ प्रश्न मुखरित अनायास,
करती व्यक्त वही आशंका,
उत्तर पाने का विफल प्रयास |
विश्राम मुद्रा में लीन जगदीश
काश - लेती पढ़ वह मन्दहास |
सरल प्रश्न , तो सहज ही उत्तर ,
आस न निराश, गूढ़ न उपहास |
हो प्रलय आसन्न तब ,
नाम एक ही मुख पर आता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[3] अभ्युदय
किया सहज ही गरल पान ,
जिसने तब तारी थी सृष्टि ,
सहेज पाएंगे क्या अमृत प्रवाह ,
उन पर है आज सर्व दृष्टि |
होता दीप्तमान कैलाश शिखर ,
प्रदीप्त हो जाता मान सरोवर ,
जटा जूट भी स्वर्णमय होता ,
सुशोभित करता जो शिव शंकर |
पर रश्मिरथी रवि कहाँ
हो चला रहस्मयी ढंग से लोप,
अपरान्ह की उस कठिन बेला
में छाया तिलस्मयी घटाटोप |
मेघ आवरण से आच्छादित आकाश,
करें पृथक भुवन से भूतल |,
पृथ्वी रक्षा का बाल प्रयास,
पर हुई अगोचर अंतरिक्ष हलचल |
नंदी और मरुद्गण संग ,
लिए हाथ त्रिशूल और दंड,
प्रतीक्षारत शम्भू निहारे ,
मेघाच्छादित आकाश खंड |
प्रति क्षण तीव्र कर्कश ध्वनि,
मानो शिलाएँ होती चूर ।
अगले क्षण क्षीण हो जाती ।
मानो अश्व दल जाए दूर |
आशाओं के केंद्र बिंदु पर,
बने कैलाशपति भाग्य विधाता,
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[4] पराकाष्ठा
नीरवता सर्वत्र विराजित ,
जमी वायु है शांत गगन,
न हलचल , न कोई ध्वनि ,
क्या चंचल गंगा का लड़कपन ?
प्रतीक्षारत पथराई आँखें,
उहापोह और तर्क वितर्क
कहाँ हो बेटी गंगा ?
शंकर करें मानसिक संपर्क |
वेग सहेजो बेटी गंगा ,
क्षुब्ध शम्भो की हुंकार क्रुद्ध,
मृत्यु लोक यह ,देवलोक नहीं ,
बसते यहाँ मानव क्षुद्र |
लघु जीवन ,त्रुटि की मूर्तियां ,
निर्बल मन पाप संलिप्त ,
पुरखों को दें तर्पण ,
आशा है उनकी संक्षिप्त |
स्नान करें तेरे जल से
हो पाप मुक्त अनायास ,
कृषक सींचें खेत धारा से ,
बुझाएं वनचर अपनी प्यास |
हो तू सुगम यातायात साधन ,
पाएं जलचर तुझमें निवास |
माँ की ममता पाकर तुझसे ,
करें समृद्धि और विकास |
हो कल्याण तेरा गंगे ,
हो जीवन दायिनी पतित पावन | .
मृत्युलोक की मरुभूमि में,
कर दे तू नव जीवन सृजन |
आशा दीप कर दे प्रज्ज्वलित,
शिव विमर्श गगन गुंजाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
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अकस्मात् गिरी उल्काएं,
गुंजायमान तड़ित अगणित ।
तिरस्कारिणी, इतराती ,
गंगा वाणी हुई प्रतिध्वनित ।
प्रकृति से बंधी हूँ मैं,
क्षमा करें मुझको त्रिपुरारी
नियम बंधन के सृजनकर्ता ,
विपरीत अनुदेश क्यों अपरम्पारी ?
न कोई आरोह अवरोह स्वर्ग में ,
न कोई पापी संसारी ।
न कृषक करें मार्ग अवरुद्ध ,
न प्यासे वनचारी जलचारी ।
हूँ उन्मुक्त स्वच्छंद अबला,
प्रकृति नियम से बेबस नारी ।
युगों से विलग मैं परिजन से ,
विरह अग्नि समझें हे त्रिपुरारी |
उच्छृंखलता मेरी क्षमा करें प्रभो
इन लहरों पर कैसा बंधन |
हो सके सम्भालो वेग मेरा,
प्रतीक्षारत हैं मेरे स्वजन |
हुआ कोलाहल क्रमशः तीव्र
छोड़ा गगन पथ , चली द्रुत गति । ,
ज्यों ज्यों आवर्धित प्रचंड शब्द ,
त्यों त्यों प्रखर हुई स्तुति |
तुषारापात गंगा का यह ,
शिव शक्ति का उपहास उड़ाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[5] संघर्ष
मेघाच्छादित सा निस्तब्ध नभ ,
ध्वनि दिलाये अस्पष्ट आभास ।
शम्भू करें स्थिति संवरण,
क्षीण त्रुटि हो भीषण विनाश ।
हुआ प्रचंड घोर शब्द ,
तब देखा जगत ने अकस्मात् ।
प्रकट हुआ मेघ मध्य ,
भीषण श्वेत प्रलय सा प्रपात |
नारी का अभिमान था वह,
या चिर विरह की पीड़ा ।
देव नदी का प्रबल आवेग ,
या थी उच्छृंखल क्रीड़ा |
छोड़ चली गंगा देवलोक ,
श्वेत शक्ति पुंज सी जलधार |
त्वरित गति , अथाह जल ,
त्रिभुवन कर उठा हाहाकार |
स्तुति शब्द मध्य अमृत
जल मृत्यु राग सुनाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
*************
आँखें मीचे होड़ लगाए ,
लहरें शिखर पर उतर पड़े ,
सतह स्पर्श होते ही दर्प से
चूर, मोती जैसे बिखर पड़े |
था नहीं वह कठोर धरातल ,
मखमली बिछौने सा सौम्य |
तीव्र जल राशि दबाव के सम्मुख,
श्याम सघन वन हो चला नम्य ।
शक्ति विकट लहरों पर लहरें,
तलहीन कुण्ड में जाए धंसती ।
श्याम रज्जु के जाल में
,निमिष मात्र में जाएँ फंसती ।
अकस्मात् खो बैठी नियंत्रण,
मानो यंत्रवत कठपुतलियां
संचालक खींचे अब डोर,
बंधी समस्त मुक्त अठखेलियाँ ।
मजबूत वृक्ष सघन वन,
हर धारा सहस्त्र धारा में विभक्त ।
गति मंद बल हुआ क्षीण,
विकराल लहरें हुईं अशक्त ।
नीलकंठ का जटाजूट वह,
तिलस्म और रहस्य से पूर्ण ।
भूलभुलैया, अगणित कंदराएँ ,
विस्तृत निकास कहीं, कहीं संकीर्ण ।
कहीं आरोह, कहीं अवरोह ।
कहीं घुमाव, क्षणिक कहीं ठहराव |
भंवर पार कहीं लहरें मिलतीं,
पल भर में पुनः अलगाव ।
तलहीन ताल हैं यत्र तंत्र ,
जिसमें सम्पूर्ण नीर समाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[6] समर्पण
अंतहीन दुर्गम सुरंगमयी पथ ,
अतिकाय लहरों ने ठानी ।
स्वर्गिक लहरें , ये दुर्गति ,
करें इतिश्री यह कहानी |
बूँद बूँद में नयी स्फूर्ति,
संयोजा लहरों ने शेष बल ।
किया संकल्प बहा दें बाधाएं,
कर दें इस वन को समतल ।
लहरों ने थामा लहरों को,
बना संगठन हुआ विलय,
चट्टान भेदी प्रहार पर प्रहार,
जागृह हुआ प्रसुप्त प्रलय |
शालीन श्याम वृक्ष हुए नम्य ,
गहरी जमी रही , पर जड़ ।
अगले क्षण फिर खड़े हो गए,
पड़ी लहरों को उलटी थपड ।
होश खो बैठी लहरें,
हुआ संगठन पल में विघटित ।
करने लगे प्रहार अंधाधुंध,
दर्प होने लगा कुछ खंडित |
जटाजूट जल द्वंद्व मध्य ,
शिव स्तुति जाप प्रभाव जमाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
समतल करने की कौन कहे ,
सरपट भागने का खोजें मार्ग ।
वही तिलस्म , और भूलभलैया,
मुंह से निकलने लगी अब झाग |
होने लगी लहरें अब पस्त
यत्न निष्फल , नैराश्य ह्रदय |
ओंठों पर आई वही स्तुति ,
समर्पण भाव का हुआ उदय |
ले लो मुझे छत्रछाया में ,
हुई प्रभु मैं शरणागत ।
करो मुक्त इस जंजाल से,
रहूँ सदा आपसे सहमत |
हुई परिवर्तित कातरता हर्ष में ,
शब्द वही पृथक भाव दर्शाता ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।
[6] प्रयाण
स्तुति से गुंजायमान व्योम,
पिछले पैरों पर नंदी खड़े।
यक्ष, देव ऋषि गन्धर्व,
करें स्तुति हाथ जोड़े ।
शंख ध्वनि , पुष्प वृष्टि चहुँ ओर ।
स्वर्ग नदी अब हुई समर्पित ।
छोड़ी तब एक धार शम्भू ने,
किया उसे धरा को अर्पित |
स्वागत स्वागतम् सुस्वागतम ,
हे नन्ही बालिका सुस्वागतम,
तैयार खड़े श्वेत अश्व , कांतिमय स्वर्ण रथ,
मृत्यु लोक की अनजान डगर अनजान पथ,
मार्ग प्रशस्त को तत्पर भगीरथ,
ऋषि मुनि राजा रंक - सब हैं प्रतीक्षारत
हर वाद्य पर एक ही सरगम ।
स्वागत स्वागतम् सुस्वागतम |
पाँव थिरक थिरक जाये रे मितवा ।
मन मुदित भरमाये रे मितवा ।
तन पुलकित हर्षाये रे मितवा ।
लहर लहर जहाँ लहराए रे मितवा ।
नर नारी तहँ तहँ गाये रे मितवा ।
क्यारी फुलवारी मुस्काये रे मितवा |
अगणित दीप जगमगाये रे मितवा |
[7]भरतवाक्य
साठ सहस्त्र सुत सगर के ,
हुए दग्ध कपिल कोप दृष्टि से ।
अस्थिर आत्माएं, अतृप्त पिपासा ,
न हो शांत किसी वृष्टि से |
स्थित पाताल में भस्म अवशेष ,
उद्विग्न हो उठे भगीरथ.|
स्वर्ग से धरती से पाताल ,
गंगा चलती रही अविरत ।
मृतप्राय पक्षी समूह मरू भूमि में,
झुलसे पंख मूँदते नेत्र ।
जलती भूमि , धूल भरे बवंडर ,
सदियों से शापित शुष्क क्षेत्र ।
पड़ी शीतल फुहार, अकस्मात ,
दृश्य सम्पूर्ण परिवर्तित पल में ।
करे किल्लोल आल्हादित खग दल,
भस्म अवशेष समाहित जल में ।
नूतन पंख, परिपूर्ण उमंग ,
नील गगन का खुला आमंत्रण ।
होते ओझल देखें निर्निमेष
भरी आँखें खो बैठी नियंत्रण |
छलके आंसू विलीन हुए,
निर्झर निर्मल जल धार में ।
देते तर्पण भार मुक्त भगीरथ,
लौट आये तिलस्मी संसार में |
कभी देखें मुड़ भगीरथ प्रयत्न,
अथाह मनोबल की गौरव गाथा ।
करो स्पष्ट धुंधला चित्र, भरो
गागर में सागर हे ज्ञाता ।