रविवार, 5 जुलाई 2009

छत्तीसगढिया बत्तीस दाँत

"पर इसकी उमर तो साढ़े पाँच साल है ठाकुर साहब |", बड़ी बहनजी ने पहले मेरी ओर गौर से देखा, फ़िर बाबूजी से यह बात कही |
"क्या फर्क पड़ता है , बहन जी उन्नीस बीस ही तो है ...| " , बाबूजी बोले ,"इसे सौ तक गिनती ...|"
""नही ठाकुर साहब, फर्क पड़ता है | हमें ऊपर से हिदायत है , सख्त हिदायत है | छः साल से कम के बच्चे हम स्कूल में नही ले सकते |"
"क्या किसी भी स्कूल में नही ?"
"आप शाला नंबर १५ में कोशिश कर सकते हैं ; पर वो भी यही कहेंगे | बी एस पी का नियम है सर |"
बाबूजी ने शाला नंबर १५ में कोशिश नही की या तो उन्हें बड़ी बहन जी की बात पर यकीन हो गया या वो सोचने लगे की शाला नंबर १५ दूर, बहुत दूर पड़ता था | शाला नंबर ८ की अपेक्षा उतनी दूर मुझे छोड़ने और लेने कौन जाएगा ? बाबूजी कल्याण कॉलेज के लिए काफी व्यस्त थे | माँ की अपनी सीमायें थी और उन्हें घर में रहने वालों का ख्याल रखना पड़ता था ( देखें - "किसका घर ?") |
"तो बाबूजी फ़िर मैं स्कूल नहीं जा सकता ?"
"नहीं बेटा, अगले साल तक रुकना पड़ेगा |"
"फ़िर ?"
"कुछ नहीं खेलो |"
.... और खेलते ही खेलते टुल्लू आवारा हो गया ....|
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"पंखा खंड" में एक कोने में एक 'मचोली' थी - एक छोटी सी खाट जो कि मेरे मामा श्याम लाल ने मेरे लिए बुनी थी | बेबी, शशि, बबलू का स्कूल सुबह ही था | उनके तैयार होने की खटपट से मेरी नींद खुल जाती थी | उन दिनों गर्ल्स हाई स्कूल वृत्तखंड २ की ऊँची इमारत भी नहीं थी ; और न ही ऊँची ऊँची दीवार , जो पूर्व से निकलने वाले सूर्य की किरणे रोक सके | लाल लाल सूरज, जिसे कभी हनुमान जी ने निगल लिया था, सेक्टर २ के मन्दिर के पीछे से आसमान में चढ़ते स्पष्ट दीखता था |
चलते हुए मैं छोटी पुलिया के पास पहुँचता , जहाँ स्कूल बस आती और रूकती | उसमें एक बस शशि दीदी की भी होती -| पर अब शशि दीदी बस से नहीं जाती |थोड़े दिन पहले बाबूजी ने एक नई हीरो लेडीज साइकिल उनके लिए खरीदी थी , जिसमें वो अपनी २१ सड़क की सहेलियों, लता और दिशो के साथ निकल जाती |
पर मुझे तो इंतज़ार होता एम् जी एम् की बस का | मेरे घर के सामने घर में रहती थी वो छोटी सी लड़की - जिसका नाम था किकी | वह सफ़ेद ब्लाउज और हरी स्कर्ट में , सर पर एक नया सफ़ेद रुमाल बाँधकर , अपनी मम्मी की उंगली पकड़कर आते दिखती |
दक्षिण दिशा से दूर से हरे रंग की, पीली छत वाली बस आते दिखती , रूकती , वह लड़की चढ़ती और ...|
...एक , दो, तीन ...|
"इंग्लिश मीडियम चाय गरम पीने वाला बेशरम | "
मैं अकेला नहीं होता, मेरे साथ और भी दोस्त होते - बबन और मुन्ना | जोर से नारा उछालने के बाद हम तीनों उड़न छू ....|
थोड़े दिनों में मुन्ना ने हमारा साथ छोड़ दिया , क्योंकि उसकी माँ ने उसे एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में डाल दिया था | पर ओर भी नए दोस्त जुड़ते गए | सोगा और मगेंद्रा तो कहीं गए नहीं थे |
जब मैं घर आता तो घर काफी कुछ खाली हो चुका होता जिन्हें स्कूल जाना था, वे जा चुके होते | जिन्हें काम पर जाना होता, वे काम पर जा चुके होते | जिन्हें काम की तलाश में जाना होता , वे भी बाबूजी से मार्ग निर्देशन लेकर जा चुके होते | जो कुछ महिलाएं बाकी होती , वो या तो अपने छोटे बच्चों को नहलाती या माँ की रसोई में मदद करती | आँगन में कौशल भइया के लिए एक छोटा सा कमरा था, जहाँ वे बैठे पढ़ाई या 'तपस्या' करते रहते | वे ग्यारहवीं में थे - मेट्रिक - स्कूल की पढ़ाई का आखरी साल - बाबूजी के माथे की एक शिकन !
मैं जल्दी जल्दी ब्रश करता |
और संजीवनी तब तक सोते रहती ...|
धन्य थे वे लोग जो सुबह की पाली में खाली पेट स्कूल जाते थे | मुझे तो नाश्ता बदस्तूर मिलता था | नाश्ते मैं या चावल के आटे का चीला होता या पोहा या भजिया या तो फरा होता , या अंगाकर रोटी - रात के चावल की मोटी रोटी | डेरी के पतले से दूध की चाय में मैं जल्दी जल्दी रात की बची हुई रोटी टुकड़े टुकड़े कर के डालता | जब तक मैं अंगाकर रोटी या फरा खाता, वे रोटी के टुकड़े चाय से फ़ूल जाते मैं फटाफट खा पीकर घर के बाहर आ जाता |
आपने बच्चों की तिपहिया साईकिल ही देखी होगी | मेरी साईकिल, नहीं, नहीं कार के चार चक्के थे | दरअसल वह बाज़ार से खरीदी नहीं गई थी घर में पुरानी , कौशल भइया के ज़माने से शायद, या बेबी बबलू के समय से, दो टूटी तिपहिया साईकिल थी | यह रामलाल मामा का आईडिया था या कौशल भइया का - उन्होंने एक साईकिल के पीछे के दो चक्के अक्ष के साथ निकाले और दूसरी साईकिल में आगे जोड़ दिए | सायकल ठीक चलती थी, सिर्फ़ मोड़ने में थोडी परेशानी होती थी | बरसों बाद आर ई सी कुरुक्षेत्र में मेकनिकल इंजीनियरिंग की कक्षा में मुझे पता चला उसमें क्या परेशानी थी ?
सड़क पर, छोटे बच्चे , उज्जवल या बबली धूल मिट्टी में बैठे होते |
"उज्जू , बैठेगा साईकिल में ?"
उज्जू को साईकिल में बिठाकर मैं इक्कीस और बाईस सड़क के बीच के मैदान में आता | सोगा और मगिंदर लोगों के घर से लगी हुई बेशरम की झाड़ी थी | उसके पास में एक गड्ढा था | हमारे देखते देखते बी एस पी की गाड़ी आती | उसमें से मोटा सा मेहतर निकलता दक्षिण भारतीय 'मद्रासी' - घुटनों तक नीली हाफ पेंट , हलकी नीली आधी बांह की कमीज़ , जिसके दो तीन बटन गायब रहते , सर पर बेतरतीब ढंग से लपेटी पगड़ी , हाथ में सींक वाली 'खरारा' झाडू | वह सड़क की नालियों में झाडू लगाकर सूखे पत्ते बटोरता | वैसे तो उसके कार्य सूची में घर के बाथरूम की सफाई भी थी, पर वह उसके लिए कभी कभी आता | उसमें उसकी कोई गलती नही थी | घर का पानी ही नौ बजे बंद हो जाता | बेचारा कितने घरों की सफाई कर पाता | ऊपर से लोग उसे पीछे के दरवाजे से घर के अन्दर आने देते ताकि घर अपवित्र न हो | वैसे भी बाथरूम घर के पिछवाडे में, आँगन के बगल मैं ही होता | तो वह हर रोज एक ही काम करता सड़क मैं झाडू देकर सूखे पत्ते बटोरता और मैदान में लाकर आग लगा देता |
गीले सूखे पत्तों में आग कम होती धुआं ज्यादा निकलता |
वह सफ़ेद धुआं हम आकाश में जाता देखते | पृष्टभूमि में दूर भिलाई इस्पात संयंत्र की चिमनियों से सफ़ेद लाल धुआं नियंत्रित ढंग से आसमान की और बढ़ते रहता |
तभी कोई कंधे पर हाथ मारता वो बबन या शशांक होते |
"यह क्या बच्चों की साईकिल चला रहा है ? शर्म नही आती ? अब तो तू बड़ा हो गया है | तेरे पाँव पैडल मारने के समय हेंडल में नही अटकते ?"
सच्चाई तो ये थी कि उस चार पहिये मैं पैडल था ही कहाँ ?तब तक उज्जवल की माँ , किकी की माँ से, दोनों के घर की चाहरदीवार के पास खड़े होकर गप मारते रहती |
उनकी बातों का पिटारा मानो ख़त्म ही नही होता | थोड़ा बहुत व्यवधान तब पड़ता, जब प्रेशर कूकर की सीटी बजती |
तो उज्जवल को उसकी माँ के हवाले कर अब "बड़े बच्चों" का खेल चालू होता | चक्का - यानि साईकिल का टायर | सभी बच्चों के पास साईकिल का घिसा हुआ 'रिटायर्ड' टायर होता | एक हाथ में बेशरम की डंडी से हम टायर संचालित करते | 'सञ्चालन' में केवल 'हांकना' ही नहीं, टायर के साइड में , डंडे की मदद से, उसका दिशा निर्धारण करना भी शामिल था | केवल शशांक ही ऐसा था, जिसके पास स्कूटर का टायर था, क्योंकि उसके पापा के पास 'फेंटा विलास' स्कूटर, जो कि बैटरी से चलती थी - थी | जाहिर है, वह रेस हार जाता |
"चक्का ? ये भी क्या छोटे बच्चों का खेल है ?" वह इतनी जोर से नाक भों सिकोड़ता कि अगले ही पल उसे चश्मा ठीक करना पड़ता |
तो ?
अब ?
वह बीच सड़क मुरम की थी | उसके दोनों ओर , करीब दस प्रतिशत चौडाई में , घास की पट्टी थी | उसके बाद दोनो ओर नालियां थी जो कि बारिश में मौसम को छोड़कर हरदम सूखी रहती थी | कभी उसमे थोडा पानी आता , तब , जब कोई गटर चोक हो जाता | वह घास, जिसकी न कोई रख रखाव करता था, न पानी देता था , कभी हरी, भरी कभी सूखी होती ;पर उसका अस्तिव हरदम रहता | वहां टिड्डे उड़ते रहते दो तरह के टिड्डे होते - हरे रंग के और आसमानी नीले रंग के | हम चुपके से, दबे पांव टिड्डे के पीछे जाते, अंगूठे और पहली उंगली से उसकी पूंछ के आकार से थोडी बड़ी चिमटी बनाते और फिर झपटकर उसकी पूंछ पकड़ लेते | टिड्डा दोहरा होकर हमें काटने की कोशिश करता पर हमारी पकड़ और सख्त हो जाती |
टिड्डा पकड़ना इतना मुश्किल नहीं थां जितना मक्खी पकड़ना होता है ; पर वह उतना आसान भी नहीं था जितना आपको पढने में लग रहा होगा | टिड्डे की बड़ी बड़ी बिल्लौरी आँखें लगातार घूमते रहती थी | खासकर नीले टिड्डे थोड़े से चालाक होते थे | हरे टिड्डे उतने सजग नहीं थे | तो नीले टिड्डे पकड़ना अपने आप में एक चुनौती थी | कभी कभी हम घर जाते और चुपके मुट्ठी में सौंफ लेकर आते | उन्हें टिड्डों के सामने फेंककर ललचाते | जब ढेर सारे टिड्डे आते तो एक नहीं तो दूसरा तो पकड़ में आ ही जाता |
नीले टिड्डे तो कुछ नहीं, शाम के समय , पता नहीं कहाँ से, मैदान में लाल टिड्डे आ जाते | ना केवल उनका शारीर, किन्तु उनके पंख भी लाल होते | वे काफी तेजी से उड़ते थे काफी सजग भी होते | अगर गलती से पकड़ में आ जाते तो काफी जोर से काटते थे | मुझे याद नहीं पड़ता कि आवारगी के उन दिनों में किसी ने एक भी लाल टिड्डा पकडा होगा | हाँ, हमने कोशिश जरुर पूरी ईमानदारी से की|

तो टिड्डे पकड़ कर हम क्या करते ? उन दिनों किराने का सामान कागज की पुडिया या थैली मेँ मिलता था, जिसमें दुकानदार चारों ओर से धागा लपेटकर बाँध देता | उसे हम 'किराने का धागा' कहते | दूसरे किस्म का धागा सिलाई का पतला धागा होता | किराने का धागा काफी काम आता - चकरी बनाने से लेकर पतंग उडाने तक | उसका एक उपयोग ये होता कि हम उसे उपने अपने टिड्डे की पूंछ में बाँध देते और उसके पीछे कागज या पत्ता या कोई और हलकी फुलकी चींजें बाँधकर प्रतियोगिता करते कि किसका टिड्डा ज्यादा भार लेकर उड़ सकता है |
घर में बरामदे के बगल में साईकिल रखने के लिए एक छोटा सा गेरेज था | वहाँ मैं अपने पकडे गए टिड्डों को रख देता | वैसे ही, जैसे हवाई जहाज का हंगर या घोडों का घुड़साल होता है | उसमें अक्सर शाम तक कोई ना कोई टिड्डा मर जाता था और जब तक मैं देखता , चीटियों का झुंड मरे टिड्डे को खींचकर ले जाता दीखता |
टिड्डे के मरने से मुझे बहुत दुःख होता | लेकिन मुन्ना या बबन को टिड्डे की आँखें बड़ी पसंद आती चमकदार, बिल्लौरी, बड़ी बड़ी | उनके लिए मरा हाथी भी सवा लाख का होता |
टिड्डे से भी ज्यादा मज़ा तितलियाँ पकड़ने में आता | तकनीक वही थी | मेरे घर मदार के फूलों का एक पेड़ था | बबन के घर गुलाब थे जहाँ तितली पकड़ना थोडा खतरनाक था पर होश किसे होता था ? तितली का पीछा करते, दौड़ते भागते, गिरते पड़ते - अक्सर हम कोई न कोई गमला तोड़ देते और फिर भाग खड़े होते | वैसे हैज़ की झाडियाँ कहीं गयी नहीं थी, जिसमें सफ़ेद सफ़ेद , शहनाई के आकार के फूल खिलते | ढेर सारी तितलियाँ होती | छोटी बड़ी खासकर काले रंग की, पीले पीले छींट के धब्बे वाली तितली काफी खुबसूरत होती और उसे पकड़ना भी बहुत आसान होता | उससे थोडा सा मुश्किल पीली तितली पकड़ना होता और लाल तितली, जिस पर काले काले धब्बे होते , उसे पकड़ना तो असंभव सा होता |
हम सूखी नाली मैं, दौड़ते हुए , हैज़ के फ़ूल पर बैठने वाली तितलियाँ पकड़ रहे थे |
"यार, ये तितलियाँ फूलों मैं क्या करती हैं ?" मैंने पूछा |
"क्या करती हैं ? रस चूसती हैं यही उनका खाना है " हममें से सबसे बड़े ज्ञानी , शशांक ने कहा |
"रस ? जैसे रसगुल्ले का रस ? वो तो मीठा होता है |"
"फ़ूल का रस भी मीठा होता है |" शशांक ने एक एक हैज़ का फ़ूल तोड़कर पीछे से उसकी टोपी निकाली और चूसकर बोला ,"तू भी चूसकर देख | "
मैंने भी एक हैज़ का फ़ूल तोडा और चूसकर देखा थोडा मीठा लगा | तभी एक छोटा सा लड़का हमारे पास आकार खडा हो गया | बाद में वही मेरा अच्छा दोस्त, प्रतिस्पर्धी, सलाहकार - न केवल सड़क के दोस्तों मैं बल्कि स्कूल मैं भी - बन गया |
वह हमारे पास ही खडा रहा |
"क्या नाम है तेरा ?"
"मुना" उसने कहा |
"मुन्ना ?" मुन्ना यानी कि रजनीश बोला ,"ये तो मेरा नाम है ]"
"यह तो बहुत छोटा है " शशांक बोला "इसका नाम छोटा रखते हैं ]"मुन्ना हंसा
"छोटा , छोटा ", बबन ने साथ दिया |
"छोटा , छोटा" , हम सारे चिल्लाये और उसका नामकरण छोटा हो गया|
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"खींचो, और जोर से, अबे जोर लगा " बबन के बड़े भाई मनोज ने मेरे पीठ पर धौल जमाया | मनोज आटा चक्की से गेहूं का एक बड़ा टीन पिसवाकर लाया था, जो साईकिल के करियर मैं दबा था |वह टिन इतना भारी था कि उससे साईकिल का स्टैंड नहीं लग रहा था | उसने सारे मुस्टंडों को बुला लिया | उसने एक पोंव् से साईकिल का स्टैंड दबाया और एक हाथ से हेंडल पकडा | हम बच्चे साईकिल का करियर पकड़ कर खींच रहे थे | मनोज दूसरा हाथ हिला हिला कर हमारा उकसा रहा था | आखिर किसी तरह स्टैंड लग गया |
सामने संजीवनी खडी थी |
"माँ बलावत हे " उसने कहा |
दोपहर के भोजन का समय जो हो गया था |
"माँ बलावत हे ? अबे तू छत्तीसगढिया है ? तू बबलू का भाई है ना ?"
"हाँ " मैंने कहा |
सारे के सारे हतप्रभ थे | मानो मैं एक भागा हुआ कैदी हूँ | किसी के मुंह से कोई बोल नहीं फूटा |
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माँ मिटटी के दिए से मेरे हाथ पोंव् रगड़ रही थी | काला मैल निकल रहा था | इसे वह "लगर लगर के नहाना" कहती थी | साथ ही वह बडबडाते जा रही थी ,"पता नहीं, कहाँ कहाँ से क्या क्या खेल के आया है | कितना मैल जमा है ]"
मेरा मन घूम रहा था | मुझे संजीवनी पर गुस्सा आ रहा था | वह हिंदी मैं नहीं बोल सकती थी अब अगर बबलू को मनोज बता दे तो वो तो मेरी पिटाई कर देंगे |
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"बोल साले , छत्तीसगढिया बत्तीस दांत " दीपक ने मुझे एक मुक्का जमाकर कहा |
मेरे सारे दोस्त, इक्कीस सड़क के अंकू, मीटू - सब तमाशा देख रहे थे | इक्कीस सड़क का ही सजू,बदमाश संजू, लय में बोले जा रहा था ,"छत्तीसगढिया बत्तीस दांत , छत्ता ले के जल्दी नाच |":
"मुझे छोड़ दो |" मैं रुआंसा हो गया ,शायद सुबक भी रहा था |
"हाँ , हाँ , छोड़ देंगे |" दीपक ने फिर मुक्का जमाया ,"बोल, छत्तीसगढिया बत्तीस दांत |"
दीपक ने मुझे धक्का दिया और मैं जमीन पर गिर पडा |
बाइस और इक्कीस सड़क के बीच का मैदान था वो महिलाएं घूम रही थी | कौशल की उम्र के बड़े लोग - सप्पन , तमाल, प्रभात आदि एक कोने में कबड्डी खेल रहे थे | मेरी आँखों के सामने आसमान था ..|

तभी अचानक सब शांत हो गया | एक ही झटके में सब कुछ शांत ...|
सब कुछ शांत ...|
अगले ही क्षण सब बच्चे भाग गए|
एक बड़ा सा हाथ मेरी ओर बढा जब मैं उसका सहारा लेकर खडा हुआ , तो सामने टिंकू का बड़ा भाई गुड्डा था |
"तोला माँरत रिहिन साले मन (तुझे मार रहे थे साले )| " घृणा से उसका चेहरा तमतमा रहा था |
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नेहरु जी के 'मिनी भारत ' में वह सेक्टर २ था जहाँ सड़क १६ से पच्चीस तक, हर सड़क में करीब बाइस परिवार रहते थे | मेरी जानकारी में उन दिनों उन सारे परिवारों में केवल तीन ही परिवार छत्तीसगढिया थे | एक - सड़क उन्नीस के बंछोर साहब, एक सड़क इक्कीस में गुड्डा लोग और एक हम लोग ...

यह सन् १९७०-७१ की बात है |

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