शनिवार, 3 सितंबर 2011

हप्पू की बम-बम ४

मेरे पास लट्टू आ ही  गया |

आप ने ठीक अनुमान लगाया | श्यामलाल मामा के सिवाय भला और कौन लट्टू ला सकते थे |

माँ ने कहा था , 'चंद्राकर किराना स्टोर' से लट्टू लेने के लिए | मेरी इच्छा थी, सरदार क़ी दुकान से लट्टू लेने क़ी |

 जब मैंने श्यामलाल मामा को इच्छा बताई तो उन्होंने पूछा ,"क्यों ?"

"क्योंकि उसकी दुकान में बोरा भर के लट्टू है | मैंने देखा है |"

बोरा भर के हो या दो बोरा - मुझे तो  एक ही लट्टू मिलना था | श्यामलाल मामा ने साइकिल वहीँ मोड़ ली | पर सरदार क़ी दुकान बंद थी | दूसरा विकल्प यही था कि जानकी , यानी  कि मोटे चश्मे वाले सिन्धी क़ी  दुकान  "राजेश ट्रेडर्स " से लट्टू ख़रीदा जाए |
 
" नहीं, वो ठग्गू है | " मैंने कहा |

"अरे मैं हूँ न | " श्यामलाल मामा बोले |

वो दुकान भी बंद थी |
 
"क्या बात है ? आज सब दुकानें बंद है | " उन्होंने दुकान पर लगी तख्ती पढ़ी ,"मंगलवार बंद ? आज कौन सा दिन है ? मंगलवार ? टुल्लू - अरे आज मंगलवार है | आज तो  दुकान बंद रहेगी | चल, कल आयेंगे |"

मेरा दिल बैठ गया | मैं छोटा जरुर था, पर 'कल' का मतलब जानता था | दूर दूर तक सारी दुकानों क़ी बत्तियाँ  बंद थी | कहीं रौशनी  क़ी हलकी किरण भी नहीं दिख रही थी | अरे हाँ, उधर रौशनी थी |

'गोयल किराना स्टोर' वाला दुकानदार रिक्शे से कुछ सामान उतरवा रहा था |

बनियान पायजामा पहने , हलकी सी गंजी खोपड़ी, उसने भी पहले मना कर दिया ,"आज दुकान बंद है | कल आइये |"

हम दुकान के बाहर आ रहे थे कि उसने पूछा ,"वैसे क्या चाहिए ?"

"हम कल आ जायेंगे | " श्यामलाल मामा बोले ," कोई जरुरी सामान नहीं ...|"

:लट्टू" उनकी बात काटकर मैं बोला "बस एक लट्टू |"

गोयल क़ी दुकान वाले ने मुस्कुरा कर हमें अन्दर बुला लिया | एक दराज खोली और आठ दस लट्टू सामने टेबल पर फेंक दिये ,"बस, मेरे पास इतने ही लट्टू हैं |"

वाह , क्या प्यारे प्यारे लट्टू थे | मन तो कर रहा था , सारे लट्टू बटोर लूँ |
 
तो जो लट्टू मैंने लिया वह गहरे हरे रंग का था | बीच में हलके गुलाबी रंग क़ी एक पट्टी थी | और जहाँ पर उपरी सतह एक ढलान में बदलती थी, वहां पीले रंग क़ी एक पट्टी थी | लगे हाथों उसके साथ में आधे मीटर क़ी एक लट्टू की रस्सी भी ले ली |

घर में बबलू भैया ने सबसे पहले उसे चलाकर देखा |

एक बार नहीं, दो बार नहीं, पूरे  पांच बार ...|

"बैलेंस ठीक है |" उन्होंने घोषणा कर दी |

"परछी" ही मेरा अभ्यास प्रांगण ' बन गया | सबसे पहले कौशल भैया ने लट्टू में रस्सी लपेटना सिखाया | ढीली ढाली रस्सी बाँधने  से काम नहीं चलेगा | हर लपेट को खीँच कर बाँधना पड़ता है | 'भुसक' बाँधने से काम नहीं चलेगा |

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सिल-बट्टे के सिल से रस्सी का एक छोर कुचल-कुचल कर "घोड़े क़ी पूंछ' निकाली गयी और वहां एक गाँठ बाँध दी गयी | रस्सी के दूसरे छोर पर दो बड़ी गांठ बाँधी गयी | जब कोका कोला या गोल्ड स्पोट का ढक्कन मिल जाये तो  उसे वहाँ फँसा देना था |

जब रस्सी बंध जाए तो उसे झटके से खींचना पड़ता है जितने जल्दी खिंचोगे , उतना ही अच्छा लट्टू चलेगा | यह पहला गुरुमंत्र था | 

यत्र-तत्र कतिपय कुछ और गुरुमन्त्रों  के साथ मैंने लट्टू चलाना सीखना शुरू किया | एकलव्य क़ी तरह 'लड़की छाप' चलाने का सतत अभ्यास करता रहा | आखिर एक-डेढ़ घंटे के बाद पहली बार लट्टू पूरे दो चक्कर घुमा | मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा |

"चल गया ?" कौशल भैया आँगन की  कुटिया से आकर बोले ," चल , अभी लोगों को खाना खाने दे | फिर बाद  में चलाते रहना |"

मुझे होश आया कि 'परछी' न केवल मेरा मेरा अभ्यास प्रांगण था, अपितु  भोजन कक्ष भी था | शशि दीदी ने  पहले वहां झाड़ू लगाया और फिर पीढ़े रख दिए  ताकि लोग बैठकर खाना खा सकें |

खाना खाने के बाद मेरा अभ्यास सतत जारी था | अब लट्टू करीब हर बार चलने लगा था | कई बार कम , कई बार ज्यादा | माँ और शशि दीदी ने बर्तन माँज लिए थे और अब लोग सोने की तैयारी कर रहे थे | आखिर वे कब तक इंतज़ार करते | उन्हें बताना पड़ा कि परछी मेरा अभ्यास प्रांगण ही नहीं, बल्कि, कुछ मेहमानों के शयन का स्थल भी है |

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घर के अन्दर चिकने फर्श पर लट्टू चलाना एक बात है और मुरम की उबड़ खाबड़ सड़क पर ? वह एक दूसरा ही अनुभव था  |

मैं परछी के फर्श पर तो अच्छे से लड़की छाप चला लेता था, किन्तु  बाहर उबड़ खाबड़ सड़क पर ? ऐसा लग रहा था, मानो लट्टू की नोक सड़क छूते ही बिदक जाती थी  |

"टुल्लू , मैं बताऊँ ?" मुझे पता ही नहीं था क़ि सोगा  अपने घर के गेट से देख रहा था  |

क्या ये मेरा भ्रम था ? हाँ , मेरे कान बज रहे थे शायद | या कमाल हो गया - क्योंकि  सोगा मेरी ओर ही देख रहा था |
 चलो, किसी ने तो बात क़ी |

मैंने लट्टू और रस्सी दोनों उसके हवाले कर दी |
 
रस्सी बांधकर उसने कहा ,"जोर से फेंक और जोर से खींच |" उसने वही किया और लट्टू चल पड़ा |

मैंने रस्सी बाधी |
 
"जोर से फेंकूं ?"

"हाँ | और रस्सी जोर से खीच |"

मैंने इतने जोर से लट्टू फेंका कि वह सड़क पार करके मुन्ना की नाली में जा धुसा |

धोखा - मेरी नज़रों का धोखा था ये | नहीं, मैंने नम आँखों से देखा |

लट्टू उठाकर मुझे देने वाला और कोई नहीं मुन्ना था |

लेकिन उसने लट्टू वैसे नहीं दिया | पहले उलट पुलट कर देखा परखा ,"एक भी गूच नहीं, एक भी खरोंच नहीं ....|"

"नया लट्टू है |" मैंने गर्व से कहा |

मुन्ना ने दूसरा गुरुमंत्र दिया ,"अबे, जोर से लट्टू फेंकने के पहले रस्सी कस के बाँध | लुंज पुंज रस्सी से काम नहीं चलेगा | ताकत लगा के बाँध ....|"

क्या ये चमत्कार  नहीं था ?

मैं तो उनके पुकार की कितने दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था | एक निर्जीव लट्टू ने उनको ही पुकार कर बुला लिया और टूटे धागे फिर से जोड़ दिए |

बचपन की दोस्ती के धागे ना जाने कितनी बार टूटे और कितनी बार जुड़े | कभी कोई गाँठ ही नहीं पड़ी ...|

सामने की दो उंगलियाँ फैलाये छोटा सुरेश खड़ा था | मैंने भी अपनी दो उंगलियाँ निकाली |

उसकी दो उंगुलियों से अपनी दो उंगलियाँ छुवाई और कहा ,"मिट्ठी"|

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जब लट्टू चलाना , हप्पू करना और हाथ में लेना सीख ही लिया था तो बचा क्या था ?

वो हम सब की ज़िन्दगी का पहला 'हप्पू की बम बम' था |

"देखो भाई | जो हारेगा , उसकी लट्टू में गूच मारे जायेंगे | रोना मत |" बबन ने निर्धारित किया |

"दो दो गूच ...|"  सोगा बोला |

लेकिन खेल हो ही नहीं पाया | किसी कारणवश नहीं, एक ही, केवल एक ही, एकमात्र कारण से |

"मैं भी खेलूँगा लट्टू |"मुसीबत की जड़ शशांक कहाँ से टपक गया ?

"तेरा लट्टू कहाँ है ?"

ये है न ?" उसके हाथ में प्लास्टिक का कोई फ्रेम था |

"ये क्या है ? " सब अचम्भे में पड गए |

"मेरा टॉप ... मेरा लट्टू ...|" वो बोला |

"चलाकर दिखा ?"

उसने जेब से प्लास्टिक का ही लट्टू टिकाने का ढांचा निकाला | प्लास्टिक की एक दांतेदार डंडी निकाली | वो लट्टू ऐसा आकर्षक था कि सब देखते रहे | उसने लट्टू को फ्रेम में रखा, दांतेदार डंडी फंसकर जोर से खींचा | लट्टू अपने आप फ्रेम से उड़ा , थोड़ी देर हवा में लहराया और तेजी से ज़मीन में घूमने लगा | क्या लट्टू था ? ना तो कोई अभ्यास , न किसी साधना की जरुरत |

हम सब देखते रह गए |

अब सब  अपना खेल छोड़कर उसके पीछे पड़  गए |

"दिखा , एक बार दिखा | मुझे चलाने दे ... |"

मैं थोड़ी दूर खड़ा लोगों को उसकी चिरौरी करते देखता रहा | मुझे तो अपना रस्सी वाला, लकड़ी का लट्टू ही अच्छा लगा | किसी ने उससे नहीं पूछा , किसी ने नहीं, कि उसका 'हप्पू' वो कैसे लेगा ! उस लट्टू को छूकर देखने और चलाने के लालच में बबन ये भी बताना भूल गया कि हारने वाले की लट्टू में दो दो गूच मारे जायेंगे |

"दिखा..., मुझे दिखा...., शशांक मुझे चलाने दे .....| नहीं मैं पहले बोला था ...| तेरे बाद मेरा नंबर ....|"

मेरे कदम मुझे घर की ओर ले जा रहे थे, पर वे आवाजें मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी |

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उन दिनों कभी-कभी लाइट चले जाया करती थी | हर दिन नहीं, आये दिन नहीं, कभी कभी, बिना बताये  या पूर्व सूचना के | जब भी ऐसा होता  तो मुझे सोगा के घर की ओर दौड़ाया जाता ,"जा पूछकर आ | उनके घर लाइट है क्या ?" अगर रात का समय होता तो यह काम बिना पूछे हो जाता | बाहर निकल कर देख लो | अगर दिन होता , तो पूछना पड़ता | तब सोगा अपने घर की लाइट जला कर देखता | कई बार ऐसा होता कि मैं जब पूछने उसके घर   भागकर जा रहा होता तो वह वही सवाल पूछने मेरे घर क़ी ओर आ रहा होता | फिर दोनों के मुंह  से एक ही सवाल बरबस फूट पड़ता,"तेरे घर में लाइट है ?" अगर दोनों के घर में लाइट नहीं होती तो हमारा अगला पडाव मुन्ना का घर होता | फिर अगला कदम होता , बबलू या कौशल पूछताछ दफ्तर में जाकर रिपोर्ट लिखाते और हम इलेक्ट्रिशियन के आने क़ी प्रतीक्षा करते |

लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता, जब पूरे सड़क या पूरे सेक्टर  या जहाँ तक निगाह जाए, दूर दूर तक लाइट चले जाती थी और हमें तुरंत पता लग जाता था |

इस तरह जैसे ही लाइट जाती, सड़क में हल्ला मच जाता " हो SSS " | और सुर में सुर मिलाकर "हो SSS " चिल्लाते हम भी  बाहर आ जाते | तब सड़क पर कितना प्रकाश होता, यह चाँद और उसकी कला पर निर्भर करता था | ऐसे अँधेरे में माएँ भी घर से बाहर निकल कर सड़क में चहलकदमी करती थी और एक दूसरे से उस दिन बनाई गयी सब्जियों से चर्चा प्रारंभ  होकर 'कौन कितनी रोटी खाता है ' से होते हुए दूर, कहीं दूर दूर तक निकल जाती थी | वैसे जाये भले ही कितनी दूर,  दायरा हनेशा घर परिवार का ही होता था |

लड़कियां  घेरा बनाकर बात करते रहती थी |
 
और हम लोग ?
 
अँधेरे में चोर पुलिस खेलने का मज़ा ही कुछ और था |

तो बत्ती गुल हुई और हम "हो SSS " चिल्लाते हुए सड़क पर भागे | सारी दिशाएं मैदान क़ी ओर मुड़ गयी | अँधेरे में चेहरे पहचान पाने के लिए आँखें अभ्यस्त नहीं हो पायी थी पर   "हो sss " से आवाजें तो पहचान में आ रही थी |
लेकिन शशांक के घर में सामने वाले कमरे में मोमबत्ती जल रही थी | साफ़ दिख रहा था कि खिड़की के पास बैठा वह पढ़ाई कर रहा था | वह खुली किताब देखता और एक कॉपी  में कुछ लिखते जाता | बबन ने सीटी बजाई ,"फुर्र्र"|

"अबे चुप |"  मुन्ना ने उसे घुड़की दी |

शशांक ने एक पल बाहर नज़र दौड़ाई , फिर वह एक बार फिर किताबों में खो गया |

अभी हम  देख ही रहे थे कि मोमबत्ती के  प्रकाश  में एक और साया नज़र  आया | वो साया, जो शशांक का  ही साया था | जब  वह चलता, साया , साथ  चलता | अगर  साया  साथ  नहीं  होता  तो विश्वास मानिये , उसकी आँखें जरुर कहीं आसपास होती और शशांक की  निगरानी  करती  |

शशांक ने कुछ पूछा और लगता तो यही था कि उसकी मम्मी ने उसे झिड़कते हुए कुछ समझाया | एक समझदार बच्चे की तरह उसने सर हिलाया | उधर हम लोगों ने 'पुगना' चालू किया | हम लोग टोटल सात  थे | कायदे से देखा जाए तो आधे चोर बनते और आधे पुलिस ; पर सब के सब चोर बनना चाहते थे | इसमें 'नैतिकता' , 'कलियुग', 'ज़माना', 'चारित्रिक पतन' , 'रसातल  में जाती दिग्ब्रमित पीढ़ी ' जैसी कोई बात नहीं थी | ये एक खेल था और चोर बनने का अलग ही मज़ा था | किसी को छकाने की अपेक्षा पकड़ना कहीं ज्यादा मुश्किल काम था | और पकड़ कर चोर को घसीट कर खम्बे तक लाकर खम्बा छुआना होता था | तभी वह 'आउट' माना जाता था और चोर से पुलिस बनकर बाकी पुलिस वालों की मदद करता था | यह 'छुआ छुई' नहीं था कि छू लिया और काम ख़तम | ये 'रेस टीप' भी नहीं था कि देख लिया और हाथ साफ कर लो | पकड़ कर घसीट कर लाने के लिए अनिल जैसे कद्दावर लड़के क़ी जरुरत पड़ती थी | और अगर अनिल खुद चोर बन जाए तो पुलिस वालों के दांतों तले पसीना आता था |
तो हम 'पुग़' रहे थे | तीन तीन करके बच्चे अपनी एक एक हथेली एक के ऊपर एक रखकर हवा में उछालते | उसके बाद हम अपनी मर्जी के मुताबिक या तो हथेली पलट कर 'सफ़ेद' सामने  करते या  त्वचा वाला 'काला'  हिस्सा | अगर दो 'काले' और एक सफ़ेद होता , तो सफ़ेद वाला 'निकल' जाता और फिर उसकी मर्जी होती क़ि वह चोर बने या पुलिस | अगर एक काला और दो सफ़ेद होते तो 'काला' निकल जाता | यह हमने तय किया था , क़ि चूँकि सात लोग हैं और सब के सब चोर बनना चाहते हैं, पुलिस केवल तीन रहेंगे - यानी तीन बदकिस्मत , जो अंत तक बच जाएँ |

अभी हम 'पुग़' ही रहे थे क़ि खींसे निपोरते हुए शशांक आ गया |

ज़रा उसकी बत्तीसी तो देखो | अँधेरे में केवल उसके दांत और चश्मा चमक रहे थे  | इलास्टिक वाली पेंट ऊपर खींचकर उसने मानो ऐलान कर दिया ,"मैं भी चोर बनूँगा  |"

किसने मना किया है मेरे भाई ...| चोर बनना है तो 'पुगो' और निकलो ...| उसकी तकदीर ऐसी कि पहली बार में ही वह निकल गया ...| अब उसकी किलकारियां देखो और अपना सर घुनो ...|

चोर पुलिस का खेल अभी शुरू होता इससे पहले ही लाइट आ गयी |

"हो SSS " , जैसे बच्चे , जिस आवाज़ में चिल्लाते  हुए लाइट जाने पर आये थे , लगभग उसी आवाज़ में चिल्लाते हुए अपने अपने घरों की ओर भागे | क्या  चोर, कौन पुलिस, सब कुछ धुल गया |

केवल एक ही बच्चा था, जिसके पाँव में स्प्रिंग नहीं फिट थी | वह धीरे-धीरे, बल्कि ठिठक-ठिठक कर मंथर गति से घर की  ओर बढ़ रहा था | उसके घर के बरामदे की लाइट बंद थी पर ध्यान से देखने से साफ़ पता चल रहा था कि उसका साया उसका इंतज़ार कर रहा था  |

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हम सब सकते में आ गए | सहसा हमें विश्वास नहीं हुआ पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था | आखिर उसके पडोसी बबन के घर की एक दीवार साझे की थी | ठीक वैसे ही, जैसे हमारी और सोगा लोगों के घर की एक दीवार साझे की थी | भले ही वह बिना मिलावट के सीमेंट की बनी थी , पर जब भी मगिंदर को झापड़ पड़ता, उसकी गूंज  दीवार फांदकर हम तक पहुँच जाती थी |

"क्या सचमुच ?" हमने पूछा |

"मैं झूठ क्यों बोलूँ ?" बबन ने तटस्थता से  कहा |

"माँ कसम खा |" मुन्ना पक्का कर लेना चाहता था |

"माँ कसम ...|"

"क्यों मारा होगा बेचारे को छड़ी से , यार ? वो रो रहा था ?"

"तुझे छड़ी से सडासड़ मार पड़ेगी तो तू नहीं रोयेगा ?"

उन दिनों बच्चों को मारना पीटना कोई बड़ी बात नहीं थी | हम सब मार खा खाकर ही तो बड़े हुए थे | पर हर मार के पीछे कोई न कोई सबक होता था, कोई न कोई कारण होता था |
 
"क्या कारण था यार ?"

कारण जानने का यह सबसे सामान्य प्रश्न बिला वजह नहीं  था | सबक सीखने के लिए खुद गलती करना जरुरी नहीं था, दूसरे को मार खाते देख, उसकी गलतियों से हम भी सबक सीख जाते थे | दीपक एक ज्वलंत उदाहरण था |
 
"पता नहीं | लगता है, उसकी मम्मी ने उसे 'होम-वर्क' करके जाने को कहा था और वो बिना 'होम वर्क' किये खेलने भाग आया था |"

"पर बिचारा मोम बत्ती में बैठकर कर तो रहा था | लाइट तो चले गयी थी | सब तो खेल रहे थे | लाइट आने पर भी तो वो 'होम वर्क' कर लेता ...|"

हौवा कौन सा बड़ा था ? 'होम वर्क' का या उसकी मम्मी का ? मुझे सचमुच 'होम वर्क' से डर लगने लगा | मुन्ना की माँ भी अक्सर उसे 'होम वर्क' के लिए बैठा देती थी| छोटा सुरेश, बड़ा सुरेश सभी 'होम वर्क' को लेकर परेशान रहते थे |
 
फिर अचानक मुझे लगा कि बात शायद 'होम वर्क' नहीं कुछ और है, जिसके लिए उसकी मम्मी परेशान है ......| पर क्या ?

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गुबरैला पकड़ना ? पकड़ के माचिस क़ी डिब्बी में डालना ? कहाँ से टपका यह शौक  ?

पता नहीं कैसे शुरू हुआ - पर जिसे देखो, सभी वही कर रहे थे |

मुन्ना हमें सोगा मगिंदर  के घर के पीछे क़ी बेशरम क़ी झाड़ी में ले गया  - अन्दर - और अन्दर ... |

"देख|" उसने उंगली से इशारा किया |

हमारी आँखें फटी क़ी फटी रह गयी |

डाल पर ढेर सारे गुबरैले बैठे हुए थे | कोई भी हिल नहीं रहा था | कितने खुबसूरत लग रहे थे | मानो बेशरम क़ी डाल में बिल्लोर के छोटे छोटे टुकड़े टंगे हों | ज्यादातर  गुबरैले लाल रंग के थे, जिन पर काले काले बिंदु थे | कुछ हलके हरे भी थे और कुछ हरे नीले |
 
"तुझे पता कैसे चला ?" बबन ने अविश्वास से  पूछा |

"मैंने इक्कीस सडक के सुनील को यहाँ घुसते देखा था | जब वह गया तो मैंने जाकर देखा | यहाँ तो भण्डार  है |"
तात्पर्य यह कि बडे हों या छोटे , सब के सब को शौक चर्राया था- गुबरैले पकड्ने का | गुबरैलों की खोज में लोग बेशरम या हैज की झाड़ी या कोइ अन्य , आवारा झाड़ियों में बेधड़क घुसकर ध्यान से देखते  थे |

लोग  गुबरैलों का संकलन अपने जेव में रख्कर घूमते थे और गर्व से एक दूसरे को दिखाते थे | वे आपस में आदान प्रदान भी करते थे ," तू मुझे एक हरा वाला दे दे, मैं तुझे नीला वाला देता हूँ |"

जिन्हें गुबरैलों  का संकलन करने  में कोइ दिलचस्पी नहीं थी, वह या तो दुल्लु था या शशांक जैस लड़का  |

"अबे छू के तो देख | " बबन ने माचिस की डिब्बी सामने कर दी,"काटेंगे नहीं |"

शशांक अभी भी हिचकिचा रहा था |

"अबे छू ले | तेरे हाथ गन्दे नहीं होंगे |" मुन्ना बोल़ा |

" छू ले | तेरी मम्मी को नही पता चलेगा |"

... और शशांक गम्भीर हो गया | उसने कुछ कहा नहीं | शायद उसे ठेस पहुंची थी | वह पीछे मुडा और चलने लगा | ना तो किसी ने उसे रोकने के लिए पुकार और ना ही उसने पीछे मुड़ कर देखा |

उसका हमारे साथ् वह आखिरी दिन था | उसके बाद वह कभी हमारे साथ खेलने नहीं आया | कभी नहीं ...|

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मौसम बदलने लगा | देखते ही देखते आँगन के आम के पेड़ पर मौर लगने लगे | एक दिन माँ के अनुदेश पर छत पर चढ़कर कौशल भैया ने एक नयी 'खरारा बहिरी' (मोटे सींक वाली झाड़ू ) आम के पेड़ के एक डाल पर बाँध दी | बस , फिर क्या था ? देखते ही देखते पूरा पेड़ आम के मौरों से भर गया | गर्मी बढ़ने  लगी थी | कुछ ही दिन पहले तो माँ कभी-कभी बाहर धूप  में घेरे की लकड़ियाँ बटोर कर चूल्हा जलाती थी | तापक्रम बढ़ने के साथ ही अब वह सब बंद हो गया |

मच्छर भी, अचानक पता नहीं कहाँ से , भिनभिनाने लग गए | होली के बाद तो गर्मी और भी बढ़ गयी |

रीटू के घर के पीछे, शाला नंबर ८ के सामने से जाने वाली सड़क के बगल में एक पानी का एक डबरा था | देखा जाये तो किसी काम का नहीं था | न तो उसमें लोग कपड़े धोते या धो सकते थे | नहाने का तो सवाल ही नहीं था | इतना गन्दा पानी आदमी तो क्या, जानवर भी नहीं पी सकते थे |

उसमें मछली भी तो नहीं थी | कीचड़ ही कीचड़ था |

उसमें हम पत्थर फेंक रहे थे - मैं और मुन्ना |

' देख तो तेरा पत्थर पानी से टकराकर डूबना नहीं चाहिए |एक बार टकरा के उछलना चाहिए ? समझे ? चल फिर कोशिश कर }"

अभी वहां बी. एस. पी. की गाड़ी रुकी } मुँह में कपड़ा बाँधे कुछ लोग कूदकर बाहर आये |

सबसे पहले उन्होंने  हमें इशारों से दूर जाने को कहा | फिर बंदूक क़ी तरह एक मशीन निकाली और डबरे क़ी तरह मुँह करके  मानो गोलियाँ दागने लगे | आवाज़ कुछ वैसे ही थी पर गोलियों के बजाय  बदबूदार धुआं निकल रहा था | फिर उन लोगों ने एक बड़ी सी बोतल निकालकर उसका द्रव पानी में मिला दिया  | अगले ही मिनट वे जैसे आये  थे वैसे ही चले गए |

सूरज क़ी किरणे पड़ने से डबरे का पानी बहुरंगी दिखने लगा |
 
"फिनाइल डाला है न टुल्लू ? देख फिनाइल क़ी बदबू आ रही है ...|"

बदबू इतनी जोरदार  थी क़ि वहाँ ठहरना दूभर हो गया था | सारे के सारे मच्छर भिनभिनाते हुए भागे | अपना हाथ पांव खुजलाते  हुए हम भी भागे |

अभी शाला नंबर आठ के पास पहुंचे ही थे क़ि ,"फट ..." आवाज़ आई और एक चिड़िया ज़मीन पर आ कर गिरी | साथ में दुल्लू के हँसने की  आवाज़ आई |

"देखा तूने ... | देखा न मेरे गुलेल का निशाना ....| " वह अपनी गुलेल फटकारता हुआ दौड़े -दौड़े आया ... | साथ में मंजीत ....| मंजीत ने उस मासूम सी चिड़िया को  हाथ में उठा लिया ...|

"देख बे , देख ! कैसे देख रही है बेचारी ...|" दुल्लू का प्यार उमड़ आया |

"पानी पिला बे इसको पानी पिला .. | " उसने उसके सर में प्यार से हाथ फेरा ,"पानी पिला दे बे इसको ..| मरने मत दे ...|"

वे उसे लेकर डबरे के पास जा ही रहे थे कि मुन्ना ने चिल्लाकर कहा ," नहीं  , डबरे का पानी मत पिलाओ | उसमें दवाई डाली है ...| ये मर जायेगी ... |"

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गुबरैले पकड़ने और पालने का शौक जैसे हवा में उड़कर आसमान छू रहा था, वैसे ही फुस्स होकर सिकुड़ गया और धरती चाटने लगा |

पाटिल साब की छोटी लड़की- वही बाहर निकले दांत वाली छोटी - हाथ नचाकर कह रही थी , "सेक्टर नाइन के अस्पताल में तीन बच्चे भरती हो गए | एक , दो नहीं, तीन - तीन बच्चे ...| डाक्टर जैन बोल रहे थे , गुबरैले पकड़ने से बीमारी फ़ैल रही है | जो- जो बच्चे गुबरैले पकड़ने जा रहे हैं, सब के सब बीमार पड़ेंगे | सब के सब ....|"

बच्चों में बीमारी वाकई में फ़ैल रही थी |
 
गर्मी इतनी पड़ रही थी कि अब मदार के फूल की झाड़ी  के पास जाकर तितली पकड़ना भी मुश्किल सा हो गया | पता नहीं क्यों, उस दिन पीली वाली सदा से फुर्तीली तितली तो दूर की बात, मैं काले पंख में पीले पीले छींटे वाली तितली भी नहीं पकड़ पा रहा था | प्यास लग रही थी | जब मैं घर के अन्दर  घुसा तो ढेर सारे बच्चे हाथ फैलाकर घूम रहे थे ...|

"अब रुको ..|" शशि दीदी ने कहा ...| संजीवनी, किकी, गुड्डी , पिकलू - सब रुक गए ... | मैं भी उनमें शामिल हो गया ...|

"अब घूमो ...|" सब हाथ फैलाये घूमने लगे ...| थोड़ी ही देर में मुझे लगा, मेरे पांव के नीचे जमीन घूम रही है ... |

"अब रुको ...| वो बोली ...|

सब रुक गए | हे भगवान्, ज़मीन अभी भी घूम रही थी ....|

"अब  घूमो... |" सब फिर घूमने लगे ...| पांव ने नीचे जमीन भी घूमने लगी ... फिर पांव के नीचे जमीन इतने जोर से घूमने लगी कि मुझे जाड़ा लगने लगा | ठण्ड से मैं कापने लगा था ...| ज़मीन और तेजी से  घूमने लगी और अगले ही पल मैं धडाम से ज़मीन पर गिरा ...| ठण्ड से मैं अब भी कांप रहा था |

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बुखार में मेरा यह पाँचवां  दिन था  शायद | पाँच दिनों से माँ मेरे लिए जब तब बार्ली और कभी ग्लूकोस का पानी बनाती थी |
 
जब कभी रसोई घर में घुसता, इधर उधर बार्ली के अनेक डिब्बे  दिखते | टीन के डिब्बे होते थे | बार्ली ख़तम होने के बाद माँ कभी भी उन डिब्बों को फेंकती नहीं थी | किसी में हींग, किसी में  जीरा , किसी में हल्दी तो किसी में मिर्ची का  पाउडर डाल देती | किन डिब्बों में क्या है, केवल माँ को ही पता था | मैं तो वैसे भी खाना नहीं बनाता था, लेकिन जो सहायक थे , जैसे शशि या शकुन या बेबी, उनको भी बड़ी मुश्किल होती थी | एक बार माँ अपने मायके यानी बिदबिदा गाँव गयी थी और खाना बनाने की जिम्मेदारी शशि पर आ गयी थी | तब जरुरत का मसाला खोजने पर भी नहीं मिला | दाल गल गयी और बिना घोंटे ठंडी भी हो गयी , पर हल्दी नहीं दिख रही ...| सारे  तो बार्ली के पीले या अमूल दूध पाउडर के नीले डिब्बे थे | बाबूजी काफी भन्नाए और फिर सारे डिब्बों पर कागज़ के छोटे छोटे नामांकित लेबल  लगा दिये गए -'हींग', 'हल्दी', 'अजवाइन', 'मिर्ची' - और न जाने क्या क्या ? | जब माँ वापिस आई तो उनकी हँसी छूट गयी| उन्हें लेबल वगैरह से कोई खास सरोकार नहीं था | जब महीने का समान चंद्राकर किराना  स्टोर से आता तो जो भी डिब्बा खाली होता  उसमें मसाला डाल दिया जाता | फल यह हुआ कि दो तीन महीनों बाद फिर से ढाक के टीन पात | जिन डब्बों में हींग लिखा था, केवल माँ को पता था कि उसमें जीरा है |

उस दिन मैं बिस्तर से उठकर किसी तरह चलते हुए आधी नींद में रसोईघर पहुंचा | माँ पीढ़े पर बैठी रोटी बेल रही थी | ऐसी शांति थी घर में, मानो कानों में 'भाँय-भाँय' सीटियां बज रही हों  | मेरे और माँ के सिवाय कोई भी नहीं था |

"बार्ली बना दूँ ?" माँ ने पूछा |

मुझे ऐसा लगा, मानो माँ की आवाज़ बहुत दूर से आ रही है |

"बार्ली पिएगा ?" माँ ने फिर पूछा | 

माँ क़ी बात सुनकर मेरी नज़र बार्ली के डिब्बे पर पड़ी | पीले नारंगी   रंग का  डिब्बा - एक माँ अपने छोटे से नंग धडंग बच्चे को पुचकार रही थी | उस  फोटो में ही माँ और बेटे के बगल में एक बार्ली का डिब्बा रखा था | उस  तस्वीर के अन्दर के डिब्बे के में भी वैसे ही एक माँ और बेटे क़ी तस्वीर बनी थी और बगल में एक बार्ली का डिब्बा रखा था | तस्वीर के अन्दर क़ी तस्वीर के अन्दर के बार्ली के डिब्बे में भी माँ और बेटे क़ी तस्वीर ... और हाँ... वहाँ  एक बार्ली का डिब्बा रखा था , जिस पर ....| .... मेर सर घूमने लगा |

"बार्ली  बना दूँ ?" दूर कहीं बहुत दूर से माँ क़ी फिर आवाज़ आई |

"नहीं माँ, कुछ और है खाना कहने के लिए ?" मुझे लगा मेरी भी आवाज़ कुछ उतनी ही दूरी से आ रही   है |

"खिचड़ी बना दूँ ?" माँ ने पूछा ,"गरम गरम खिचड़ी और आम का अचार ...?"

"माँ , भूख लगी है ...| कुछ और नहीं है ..?"

"दूध रोटी खायेगा ...?"

दूध रोटी का मैंने दो कौर ही खाया होगा कि पेट में जोर से उधर पुथल मची और मैंने उलटी कर दी |

पानी से भींगा ठंडा कपड़ा मेरे सर पर ठोंकते हुए माँ बड़बड़ा रही थी ,"जरहा (बुखार) का मुँह, सब कुछ कड़ुवा  कड़ुवा लगता है | है न ?"  

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मलेरिया के उस बुखार में रोज बारह से एक बजे के बीच मुझे जोरसे कंपकपी होती थी |

कभी मुझे लगता ये मलेरिया नहीं कुछ और है | कभी लगता, शायद मैं कभी ठीक नहीं हो पाऊँगा | पता नहीं नींद कब आती थी और मैं कब जागते रहता था |मुझे कभी मोटी बिल्ली दिखती तो कभी मुन्ना के भाई का मुस्कुराता हुआ चेहरा नज़र आ जाता था |

उस दिन मेरीं नींद शायद दोपहर को खुली | करवट बदल कर मैंने देखा - बाबूजी मेरे पास चिंतित मुद्रा में बैठे थे |
मुझे जागते देखकर उन्होंने लकड़ी के खोल से तापमापी निकाला और उसे झटक कर उसमें अटका हुआ पारा सामान्य करने लगे | इससे पहले कि तापक्रम लेने वे उसे मेरी जीभ के नीचे रखते , मैंने पूछ ही लिया |

"बाबूजी, नरक में हरदम आग जलते रहती है न ? वहाँ सब को कोड़े से मारा जाता है न ?"

"हाँ बेटा |" बाबूजी धीरे से बोले |

" बाबूजी, वो मोटी बिल्ली - जो रोज दूध पी जाती थी - वो क्या नरक गयी होगी ? छोटे बच्चे क्या मरने के बाद सीधे स्वर्ग जाते हैं ? क्या मैं भी स्वर्ग  जाऊंगा ? बाबूजी, मैं मर जाऊंगा न ?"

"नहीं बेटे, ऐसा नहीं कहते |" बाबूजी बोले ,"तुम कहीं नहीं जाओगे  तुम यहीं रहोगे | तुम जल्दी अच्छे हो जाओगे ...|"

पता नहीं, कितनी सुबहों और कितनी रातों के बाद , न जाने कितनी गोलियाँ  खाने के बाद  मुझे कुछ अच्छा लगने लगा | फिर भी मैं कुछ खा नहीं पाता था | माँ ठीक ही कहती थी ,"' जरहा मुंह (बुखार का मुंह ) कडवा होता है |" कौशल भैया अलग झल्लाते रहते थे ,"घर में आलसी जैसे पड़े रहोगे तो कभी ठीक नहीं होगे | खुली हवा में सुबह शाम घुमो फिरो | ये क्या दिन भर घर में घुसे रहते हो ?"

मैं घर के बाहर निकला, गेट के पास मेहंदी के पेड़ के नीचे खड़े रहा | लड़कियों का 'आमलेट चाकलेट" का खेल देखते रहा | मेरा कोई भी दोस्त नहीं नज़र आ रहा था | क्या गुबरैला पकड़ने के कारण सब बीमार पड़ गए थे ? अपने घर के बाहर छोटा और दीपक प्लास्टिक के बेडमिन्टन से खेल रहे थे | उन्हें देखकर मन और खिन्न हो गया | अब छोटा वह सीधा सादा छोटा नहीं रह गया था | अब उसे दीपक ने बातें बनाना , बातें छिपाना , घमंड करना - सब कुछ सिखा दिया था ,"मेरे घर में मेरा भाई नया 'लोटपोट' लाया है | क्या अच्छी अच्छी कहानियाँ है, मोटू पतलू, चाचा चौधरी , दीपू ....| 'पराग' और 'चंदामामा' से दस गुना अच्छी |  जा जा, तुझे कौन दिखायेगा ? मेरा भाई नया 'व्यापार' लाया है | 'व्यापार' मालूम है ? 'सांप सीढ़ी'  , 'लूडो' से भी अच्छा खेल | जा जा , मुंह धो के आ |  तुझे कौन खिलायेगा ?"

यह सब दीपक क़ी भाषा थी, जो अब वह भी बोलने लग गया था | 'पराग' और 'चंदामामा' तो घर में पेपर वाला डाल जाता था | कौशल भैया 'नंदन' भी ले आते थे | कभी बेबी तो कभी लक्ष्मी  भैया मुझे कहानियाँ पढ़कर सुना देते थे | अब मुझे लगने लगा, जिसने  'लोटपोट' नहीं पढ़ा , उसने तो कुछ भी नहीं पढ़ा | मेरे घर में 'सांप सीढ़ी' और 'लूडो' एक ही बोर्ड में थे | अब तक मुझे मालूम था कि 'सांप सीढ़ी' सबसे अच्छा खेल है | अब लगने लगा ,"व्यापार" "व्यापार" "व्यापार" - पता नहीं कैसे  खेलते हैं - 'सांप सीढ़ी' से लाख गुना अच्छा है |

मैं बिस्तर में लेटा छत पर घूमते हुए पंखे की ओर देख रहा था | बाबूजी ने पूछा ," क्या चाहिए बेटा ?"

"लोटपोट " मैं बोला |

"लोटपोट ?"

"हाँ लोटपोट |"

बाबूजी ने कौशल को आवाज़ दी, उसे पैसे थमाकर बोले ,"लोटपोट ले आना भाई |"

ये तो शाम की बात थी | सुबह तक इरादा बदल गया था |

सुबह जब मैं उठा तो बाबूजी कोलेज जाने के लिए स्कूटर निकाल रहे थे | ना जाने मुझमें कहाँ से फुर्ती आ गयी | मैं दौड़कर उनके पास पहुंचा  ,"बाबूजी , मुझे 'व्यापार' चाहिए |"

"लोटपोट नहीं ?"

मैं फिर असमंजस में पड़ गया | वो बोले,"ठीक है, जो तुम्हें चाहिए , कौशल से बोल दो |"

कौशल ने मुझसे पूछा ,"तुझे 'लोटपोट' चाहिए या 'व्यापार' ?"

कोई जवाब नहीं .... |

"अरे कुछ तो बोल | दोनों में से एक चुनना पड़ेगा |ठीक है, मैं सेक्टर चार 'ए'-बाज़ार शाम को जाऊंगा | तब तक सोच लेना |"

शाम को भी स्थिति वही थी , जो सुबह ही थी | पर कौशल भैया ने मुझे दुविधा में नहीं डाला | कुछ पूछा ही नहीं |

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जब मेरी नींद खुली तो कमरे में अँधेरा छाया था |

क्या अभी रात है ? मैंने दिमाग पर जोर डाला ....| कहाँ हूँ मैं ? अरे हाँ | ये तो बिस्तर नहीं है | मैं तो लकड़ी के सोफे पर लेटा  हूँ | अरे हाँ, यह तो बैठक है ....| पर अँधेरा कैसा ? जब मैं लेटा था .... मैंने याद किया ... तब तो दोपहर थी ...| अगर अभी रात है तो ..... बाबूजी तो यहीं सोते हैं ...|
 
"खड़ खड़ खड़  खड़ ... छः और छः - बारह .... फिर से चल ....|" किसी ने कुछ कहा ...|
 
शरीर बुरी तरह दुःख रहा था | मैंने सावधानी से करवट बदली, ताकि नीचे न गिर पडूँ ...| सोफे की चौड़ाई कम ही थी ....| नीचे ज़मीन पर बबलू, बेबी , कौशल और शशि कुछ खेल रहे थे ...| वे एक नहीं, दो -दो पांसे एक साथ फेंक रहे थे ....| उनके सामने एक मोम बत्ती जल रही थी | मतलब कि लाइट गयी हुई थी ...| पर ये इतनी एकाग्रता से क्या खेल रहे हैं ? रौशनी बोर्ड के ऊपर झिलमिलाई ...  बीच में एक पानी का जहाज धुआं उड़ाते जा रहा था और कुछ लिखा था  ...  "हिंद का व्यापार ...|"

अच्छा , तो यह लोग 'व्यापार' खेल रहे हैं |

"'व्यापार' आ गया ....|" मैं जोश में उछलकर उठ बैठा ....|

किसी ने मेरे उत्साह क़ी ओर  ध्यान ही नहीं दिया ...| सबका चित्त तो व्यापार ने हर लिया था |

"हाँ , आ गया ...|" कौशल भैया ने तटस्थ भाव से जवाब दिया ,"और 'लोटपोट' भी ...|"

"कहाँ है लोटपोट ?" मैंने पूछा |

"टेबल पर रखा है ....|"

मैं अँधेरे में ही टेबल क़ी ओर लपका | ध्यान ही नहीं रहा कि ज़मीन पर व्यापार के कार्ड और बैंकर के नोट रखे हैं ...| एक ठोकर में सब बिखर गए ...|

ख़ुशी ही नहीं, दुगनी ख़ुशी ...| मैं सड़क में ढिंढोरा पीटने बाहर भागा ... | खासकर छोटे को बताने ....|

खिलाड़ी ज्यों के त्यों सर झुकाए जमे हुए थे | छोटा सच कहता था ....| 'लूडो' और 'सांप सीढ़ी' से बढ़कर था ये खेल ...|

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हम नंगे पाँव ही चल रहे थे | क्या गर्मी के दिन में ज़मीन पर अंगारे बिछ जाते हैं   ?  पता नहीं | क्या सूरज आग बरसाने लगता है ? शायद - हो सकता है | 'लू' लग सकती है ... | 'लू' क्या होती है ?

यही मेरा प्रश्न था |

कहाँ जा रहे थे हम ? निरुद्देश्य से ...| पता नहीं, बस, चले जा रहे थे | गर्मी क़ी दोपहर में सब झपकी ले रहे थे और मैं दबे पाँव - किसी के टोकने के पहले ही - बाहर निकल गया |

सरे राह में चलते चलते मुन्ना मिल ही गया | बस, फिर क्या था - एक से दो भले | मैदान पार करके हम इक्कीस सड़क में घुस गए और चलते रहे |

बीच बीच में मुन्ना जेब से कुछ  निकाल कर खाए जा रहा था |

"क्या खा रहा है , मुन्ना ?" मैंने पूछा |

"प्याज़ | प्याज़ खाने से लू नहीं लगती |"

"'लू' क्या होती है ?"

शाला नंबर आठ के पास पहुँच कर उसने टेलेफोन निकाला | टेलेफोन क्या था ? सामान का मोटा धागा , जितना लम्बे से लम्बा हो सके - उसके एक छोर में माचिस क़ी तीली वाला डिब्बा और दूसरे छोर में वही माचिस क़ी तीली वाला दूसरा डिब्बा -जो चोंगे का काम करता था | अब भला सामान का धागा कितना लम्बा हो सकता है | नहीं , नहीं, ऐसा नहीं  था कि हम धागा जोड़ जोड़ कर, टेलेफोन का लम्बा 'वायर' बना लेते | गठान बाँधने से आवाज़ 'कट' जाती थी | हमने "वायर" को जितना तान सकते थे , उतना तान दिया |
 
पहले मेरे बोलने क़ी बारी थी | मैंने कहा ,"ट्रिंग ट्रिंग | हेलो, में टुल्लू बोल रहा हूँ | सड़क में लोगों के क्या हाल चाल हैं | हेल्लो ...|"

फिर में मुन्ना को आवाज़ देकर  पूछ लिया , "कुछ सुनाई दिया ?"

"हाँ बिलकुल |" वह बोला |

"भगवान् कसम ?"
 
"भगवान् कसम | तू पूछ रहा था , सड़क में लोगों के क्या हाल चाल हैं?"

"अरे वाह | ये तो सच्ची मुच का काम  कर रहा है | अब तू बोल, मैं सुनता हूँ |"

मैंने अपने सिरे का माचिस का डिब्बा कान में लगाया | मुन्ना ने बोलना शुरू किया ,"बबन लोग सड़क छोड़कर जा रहे हैं |"

"क्या?" टेलीफोन या बिना टेलीफोन, मुन्ना ने जो बोला वो मुझे साफ़ सुनाई दिया | टेलीफोन का खेल वहीँ खतम हो गया | मैंने पूछा ," बबन  लोग सड़क  छोड़कर जा रहे हैं | मतलब ?"

"मतलब उनका घर बदली हो रहा है | "

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मंजा धागा ऐसे बनता है ?

"अंडे को फोड़कर एक कप में डालते हैं | जितने भी फ्यूज बल्ब हैं, सब को फोड़कर चूरा- चूरा कर लेते हैं ...| उस कांच के चूरे को अंडे के घोल में तीन दिन तक डूबा कर रखते हैं |"

"तीन दिन ?"

"हाँ | तीन दिन | फिर दो दिन तक धूप में सुखाते हैं | तब मंजा धागा बनता है |"

सब कुछ ठीक था | सामान का धागा काफी था | फ्यूज बल्ब भी मिल जायेगा | दुल्लू का गुलेल का शौक परवान चढ़ा था | वो जब तब सड़क के खम्बों के बिजली के बल्ब तोड़ा करता था | केवल जाकर बल्ब के टुकड़े उठाना भर था | मुन्ना ने दो -तीन फूटे बल्ब सम्हाल कर भी रख लिए थे |

समस्या थी तो केवल अंडे क़ी | सोगा को पटा रहे थे और वो बात नहीं मान रहा था | आखिर उसके घर क़ी मुर्गियाँ  रोज अंडा दे ही रही थीं | एक नहीं, तीन मुर्गियाँ | उसे केवल यह करना था , कि अपनी माँ और बड़ी बहन सारसा  की नज़र बचाकर एक अंडा जेब में डालना था और हमारे हवाले करना था |

बिना मंजे धागे के हम पतंग ज्यादा ऊपर भी उड़ा नहीं सकते थे ...| कोई भी हमारी पतंग काट सकता था |
सबकी परीक्षाएं हो चुकी थी | शाम होते होते  सड़क इक्कीस और बाइस के बीच का मैदान पतंग और पतंगबाजों से भर जाता था |
 
बबलू के कहने पर व्यास ने बी. टी. आई. की वर्कशॉप में एक स्क्रैप पाइप ली और दो लोहे की चादर के छोटे छोटे टुकड़ों को बगल में वेल्ड करके एक चरखी तैयार कर दी | मैदान में वो अकेला ही लोहे की चरखी वाला था |
हम बच्चों को भला कौन पूछता था | हमारे पास तो चरखी भी नहीं थी |

फिर भी हमने हौसला नहीं छोड़ा | छोटे सुरेश ने अखबार के एक टुकड़े और बाँस की दो सींक से , भात के कुछ दानों से चिपका कर हमें एक पतंग बना कर दी | हमने उसके पीछे एक लम्बी सी पूंछ लगाकर और सामान के धागे जोड़कर एक पतंग तैयार कर ली |
 
सामान के धागे से ही सुरेश ने कन्नी बाँध ली | कन्नी उठाकर हम तीनों ने बारी बारी से पतंग का संतुलन देखा | ठीक वैसे ही , जैसे हमने सप्पन , राजकुमार,  शरद या प्रभात जैसे बड़े खिलाडियों को करते देखा था |

पर बबन था कहाँ ?
 
मैं पतंग पकड़कर दूर तो जा रहा था, निगाहें बबन के घर की ओर लगी थी |

"अबे रुक |" मुन्ना डोर के दूसरे छोर को पकड़कर चिल्लाया ,"अब छोड़ |"

मैंने पतंग हवा में उछाली और फिर बबन के घर की ओर देखने लगा | पतंग ने हवा में दो तीन बार गोता  खाया और नाक के बल ज़मीन पर गिरी |

सोगा के घर में रेडियो सीलोन पर "आप ही के गीत" में गाना बज रहा था, "मेरी ज़िन्दगी है क्या - इक कटी पतंग है ...|"

मैंने राहत की सांस ली | चलो , अब जब तक पतंग की मरम्मत होगी  फिर से संतुलन परखा जाएगा, तब तक छुट्टी | मैं बबन के घर की ओर चल पड़ा |

बी. एस. पी. का ट्रक बबन के घर के सामने खड़ा था | यह तो तीसरा ट्रिप था और घर से सामान निकलते ही जा रहा था | शायद उनको भी नहीं मालूम होगा क़ी घर में इतना सामान होगा | दो लड़के और दो बड़ी लड़कियां - सामान तो होगा ही | जाना कहाँ था ? क्या बहुत दूर ? नहीं, अगली ही सड़क पार - सड़क नंबर २३ ... आज कई बार मैं सोचता हूँ तो समझ नहीं पता क़ी आखिर घर बदलने क़ी वज़ह क्या थी ? बाइस और तेइस सड़क में केवल नंबर का ही अंतर था | घर तो उतना ही बड़ा था | फिर आखिर गृह-परिवर्तन क्यों ?

वैसे समय बीतने के साथ साथ वह घर अभिशप्त ही सिद्ध हुआ | कोई भी परिवार वहाँ लम्बे समय तक टिक ही नहीं पाया | एक परिवार आया , जिसकी दोनों लड़कियां गूंगी थी | दूसरा परिवार पांच महीने में ही चले गया और घर लम्बे समय तक खाली रहा | तीसरा परिवार आया | घर के पीछे आम का पेड़ था | अंकल जी पेड़ में चढ़ कर आम तोड़ रहे थे | पाँव फिसला और नीचे आँगन के पक्के  फर्श पर गिर पड़े | वहीँ प्राण पखेरू उड़ गए | | भरा-पूरा परिवार उजड़ गया .....|
 
जीवन क़ी क्षण भंगुरता ही तो थी वो ...|

उस समय बबन ट्रक के पास खड़े होकर सामान चढ़ते देख रहा था | हम लोग भी उदास नज़रों से अपने एक दोस्त, एक अच्छे दोस्त को जाते देख रहे थे | लेकिन बबन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा | यहाँ तक कि मुन्ना ने उससे पूछा,"बबन, यार, सड़क तेइस तो बगल में है  |तू यहाँ हम लोग के साथ खेलने तो आएगा ...|"

उसका जवाब मुझे आज तक याद है ,"पता नहीं |"
 
इतनी छोटी सी उम्र के बच्चे के मुंह से ऐसा कूटनीतिक जवाब मैंने बहुत कम सुना है | सच्चाई तो यह थी कि गलियारा बदलते ही बबन भी बदल गया | ना केवल वह हमारी दोस्ती भूल गया , बल्कि उसने हमारा अस्तित्व ही नकार दिया | आगे मैं फिर किसी स्मृति में बताऊंगा कि हमें क्यों और कैसे उसके घर से बेर चोरी करने को बाध्य होना  पड़ा था | उसकी बहनें जरुर शशि दीदी और अपनी हम उम्र सहेलियों से मिलने आते रहीं | बड़ा भाई मनोज बाद के वर्षों में कई बार हमारे साथ क्रिकेट खेलने आया | पर बबन ? वह तो खो गया |

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बबन का परिवार तो चले गया  था और पीछे वो छोड़ गया था, ढेर सारी यादें | उस जमाने में लोग जाते - जाते गेट निकाल कर ले जाते थे और घर को गायों, 'रेस- टीप' खेलते बच्चों और वर्षा के समय राह चलते फेरीवालों , भिखारियों के लिए खुला छोड़ जाते थे |

ऐसे ही उस दिन 'रेस-टीप' हो रही थी और मैं भागकर बबन के खाली घर में घुस गया | थोडा सा मैंने बुद्धिमानी का काम किया | मुझे मालूम था, अनिल, जो दाम दे रहा था , वो अगर खोजते हुए यहाँ आया भी तो बरामदे के आसपास ही खोजेगा | शर्मा  आंटी के घर के साथ वाली सीमा में हैज़ नहीं लगी थी | मैं शशांक के घर के साथ वाले घेरे की दीवार में, जहाँ ऊँची ऊँची हैज़ लगी थी, जाकर छिप गया | अब बबुआ खोज के दिखाए |

हैज़ में मुझे दो चीजें दिख गयी | एक पुराना सब्जी काटने का चाक़ू था | उसके फलक में जंग तो नहीं लगी थी, पर हत्था कुछ टूटा हुआ था | मैंने सबकी माँ को चाक़ू से सब्जी काटते देखा था | केवल मेरी एक माँ थी, जो फरसुल से सब्जी काटती  थी | पर इस चाक़ू का मैं क्या करूँगा ? ज्यादा से ज्यादा बेशरम की डंडी काट सकता हूँ |
 
मेने उसे सम्हाल कर उसी हैज़ की झाड़ी में रख दिया जहाँ औरों की नज़र न  पड़े | दूसरी चीज़ जरुर मेरे काम की थी | वह क्या था ? चाभी वाली रेल के इंजन का अंजर पंजर ...| मेने तो कभी बबन के पास चाभी वाली रेल नहीं देखी थी |  हो सकता है, किसी ज़माने में कोई बहुत पुरानी रेल गाड़ी होगी, जब शायद संध्या सुषमा या मनोज बच्चे रहे होंगे | उसके चाभी वाले हत्थे को मैंने हाथ से मरोड़ कर देखा - अच्छा , इसका स्प्रिंग ख़राब हो गया है ...... कोई बात नहीं , दाँते तो ठीक ठाक दिख रहे थे | और शाम की किरणों में कितने चमक रहे थे ....| वाह, मैं किसी को बताऊंगा नहीं, ईंट से तोड़ के साइड का कवर निकाल लूँगा | सारे दाँते निकल जायेंगे | फिर उनकी अच्छी चकरी बन जायेगी |

मैं ये भी भूल गया कि मैं कहाँ हूँ और रेस टीप खेल रहा हूँ |
 
मेरी विचारधारा को एक आवाज़ ने भंग किया | एक महिला की कर्कश सी आवाज़ - अरे ये तो पड़ोस के शशांक के घर से आ रही है | शशांक की मम्मी - दूसरे जिस पुरुष की दबी-दबी आवाज़ थी , वो शशांक के पापा थे | मैं हर बार सोचा करता था , शशांक आखिर है क्या ? मद्रासी, पंजाबी, बंगाली मराठी या सिन्धी ? हर बार मेरे अनुमान को उसने हवा में उडा दिया था | कौतूहलवश मैं कान लगा कर सुनने लगा , आखिर भाषा तो पता लगे | वह हिंदी ही तो थी पर उसकी मम्मी  जिस तरह हिंदी बोल रही थी, वो सोगा -मगिंदर की माँ के लहजे से काफी मिलता जुलता था | लेकिन उसके पापा का ज़वाब तो ठीक हिंदी में था | हर एक दो वाक्य के बाद उसकी मम्मी अंग्रेजी में उतर जाती थी | उनकी बातचीत का विषय शशांक ही था | लेकिन एक मिनट - केवल शशांक ही नहीं, उस विषय में मैं, हम , हम सब शामिल थे |

"मैं पूछती हूँ, हम यहाँ से कब जायेंगे ? आप को तो कोई परवाह ही नहीं है |"

"कोशिश तो मैं कर ही रहा हूँ |"

"क्या कोशिश कर रहे हैं ? कितने दिन से कोशिश कर रहे है ? मेरी तो सकझ में नहीं आता | लड़का बिगड़ गया है | कभी सर फूटता है तो कभी हाथ से खून निकलता है | जब भी खेल के आता है, कपड़े से कीचड़, कचरे , गोबर की बदबू आते रहती है |"

"बच्चे तो खेलते ही हैं |"

"खेलते हैं ? कोई ढंग का खेल खेलें तो समझ में भी आता है | कभी किसी को पकड़ के पीट रहे हैं तो कभी बेशरम की झाड़ी में  घुस कर कीड़े पकड़ रहे हैं | किसी दिन साँप काटेगा किसी को | "

"हाँ, मैं बात करूँगा कुछ बड़े लोगों से ...|"

"किससे बात करोगे ? क्या बात करोगे ? कर चुके आप बात | अरे उनके माँ बाप को चिंता होती तो बच्चे भाग कर छोटा मैत्री बाग नहीं जाते ... | भागकर सर्कस नहीं जाते ...| कपडे देखे हैं उन बच्चों के ? किसी  का कोई बटन टूटा है तो किसी की पेंट पीछे से सिली है | हाथ पांव ऐसे गंदे कि देखकर उलटी आती  है | टेढ़े मेढे पीले पीले दांत |  दिन भर खेलना, दिन भर ... | और बात सुनो उनकी ,'बे', 'साले' के बिना तो एक वाक्य नहीं बोल सकते | बड़े होकर आवारा बनेंगे सारे ....|"

"मेरी बात तो सुनो | मैं कोशिश तो कर रहा हूँ  ....| सेक्टर नौ या दस में नया घर नहीं मिलेगा तो डबल स्टोरी में तो मिल ही जाना चाहिए | थोड़े दिनों क़ी तो बात है |"

"हुंह | हर बार वही बात | आप तो चाहते हैं ना आपका लाडला आवारा बने ....|"

बस, और मुझसे नहीं सुना गया | मैं उस जगह से बाहर आ गया मानो वहां ढेर सारी लाल चीटियाँ हैं और मेरे हाथ पांव , कपड़ों में रँग रही हैं | दिमाग में वही बात घूम रही थी - आवारा बनेंगे सारे ... | आवारा क्या होता है ? कई बार बड़े लोग जैसे दीपक के बब्बा सप्पन, मंजीत को आवारा कहते थे | पर हर बार तो नहीं, कभी कभी ही - वो भी गुस्से में ....| पर वो लोग अच्छे भी तो हैं ...|
 
नहीं नहीं, वो लोग बहुत बुरे हैं | अच्छे बुरे ..., आवारा..., तो क्या हम सब लोग आवारा बनेंगे ? 'बे', 'अबे' ', 'साले' का मतलब क्या होता है ? क्या ये बोलना बुरी बात है ? हम लोग अकेले  सर्कस चले गए थे , ये खराब बात थी ? मतलब मैं अभी से गन्दा बच्चा बन गया हूँ | मतलब अगर मर गया तो नरक में जाऊंगा ...|
 
मन खिन्न हो गया था ...| मैं सड़क पर चल रहा था | ख्याल ही नहीं रहा कि मैं रेस टीप  खेल रहा हूँ | विचारों की तन्द्रा तब टूटी जब अनिल ने मुझे फर्स्ट टीप कर दिया | मेरी खेल में अब कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी थी | मैंने सोच लिया था , मैं और नहीं खेलूँगा , भले दाम न देने के बदले में मुझे हरेक से बारह मुक्के खाना पड़े |

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जैसे जैसे गर्मी बढती गयी, मेरे शारीर पर धमोरी भी बढ़ते चली गयी |

दिन भर तो खेल कूद में कुछ ख्याल नहीं रहता, पर शाम होते होते खुजलाहट बढ़ जाती थी | रात को घर लौटने के बाद घड़े के पानी से नहाने के बाद माँ पाउडर लगा देती थी | पर घमौरियां ज्यो की त्यों थी | रात को बाहर मच्छरदानी लगाकर खुले में सोते थे | जब भी नींद खुलती तो खुजलाहट के मारे मैं परेशान हो जाता | गला छाती, पेट पीठ , सब जगह लाल लाल दाने निकल गए थे |
 
"ठाकुर साहब, एक बात बताऊँ ", एक दिन अनिल के पिताजी श्रीवास्तव जी बोले," इसे बरफ के पानी से नहला दो | यह बिलकुल ठीक हो जायेगा |"

बरफ कहाँ से मिलेगा ? रेल पटरी के पास के चौक पर ढेर सारे गन्ना रस वाले बैठते थे | उनके पास बोरे में धान का खोल  भरा होता था और उसमें बरफ की सिल्लियाँ  रखी रहती थी | गन्ने के रस के गिलास में वे पहले चाकू से काटकर ढेर सारा बरफ डालते थे और फिर गन्ने का रस ...|

"शाम को दुकान बंद होने के बाद आना |" कौशल भैया को उन्होंने टरका दिया |

सुपेला में रेल पटरी के उस पार बरफ की फैक्ट्री थी | एक दिन रामलाल मामा बोरे में बाँधकर बरफ ले  आये | मेरा ख्याल था, आधी बर्फ तो रास्ते में पिघल गयी होगी | पर जितनी थी उसे एक बाल्टी में डाला गया | मेरे सारे कपड़े  उतारे गए और माँ ने बेरहमी से बर्फ का पानी शरीर में डाला |
 
बाप रे बाप ... मुझे दिन में तारे दिखाई देने लगे | क्या ठंडा पानी था ...| मेरे दाँत बज रहे थे ...|

वाकई में जब माँ ने तौलिये  से शरीर पोंछा तो घमोरियां गायब हो गयी थी |

पर यह केवल दो ही दिन की बात थी | तीसरे दिन घमोरियां वापिस आ गयी |

रामलाल मामा बोले, "टुल्लू, बारिश होने दे | एक बार बारिश  के पानी में नहा ले | सब ठीक हो जायेगा |"

टुल्लू ... बारिश का इंतज़ार कर ....|

और एक किसान की तरह, मैं भी खुले नीले आसमान में काले बादल खोजने लगा ...शाम , सबेरे ...|

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शशांक लोगों का जाना भी तय ही था | उस दिन उसके मम्मी और पापा की बातचीत से मेरे नन्हे से दिमाग में  जो कुछ समझ में आया वह यही था कि इस धरती पर कुछ और लोग रहते हैं जो हमसे बहुत अच्छे हैं | उनके बच्चे भी अच्छे हैं | क्योंकि वो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते है | क्योंकि वो साफ़ सुथरे कपडे पहनते हैं | क्योंकि वो गालियाँ नहीं बकते -"बे" , "अबे" ,"साले" गालियाँ ही तो थी | क्योंकि वे मारा-पीटी नहीं करते | क्योंकि वे बड़े होकर आवारा  नहीं बनेंगे |
 
सच था - शशांक हम सब से समझदार था | जब भी हम किसी बात को लेकर उलझ  जाते , दोनों ही पक्ष शशांक के सम्मुख अपना पक्ष रखते और उसकी बात ध्यान से सुनते | अक्सर कोई नयी बात कहते समय हम क्यों चाहते थे कि शशांक उन बातों की पुष्टि करे ? वह तो ठीक से लट्टू नहीं चला सकता ? वह तो माचिस से आग नहीं जला सकता था ? चक्का चलाने में वह हार जाता था | फिर क्या था उसमें ?

आखिर झूम के बारिश आ ही गयी | मोटी  मोटी बूंदें पड़ने  लगी | सिर्फ नीले रंग की हाफ पेंट पहन कर मैं  अमरुद के पेड़ के नीचे खड़ा हो गया |जैसे जैसे पानी की बूंदें पड़ने लगी, घमौरियाँ धुलने लगी |
 
नीले रंग का एक ट्रक मंथर गति से सड़क से गुजर रहा था | उसके साइड के पल्लों पर लिखा था - "बी. एस. पी." यही ट्रक तो कुछ दिन पहले आया था | तब उसे तीन परिक्रमा करनी पड़ी थी | किन्तु इस बार उसे एक ही फेरा करना था | आखिर परिवार भी तो छोटा ही था | कितने सदस्य थे ? जितने भी थे, वे ट्रक के पीछे पीछे अपने खुद के वाहन में चल रहे थे | उन्होंने बरसाती की टोपियाँ भी लगा रखी थी, पर पहचानना मुश्किल नहीं था | फेंटा विलास उनके ही तो पास थी | दोनों ही पड़ोसी एक महीने के अंतराल में बाइस सड़क को अलविदा कह चुके थे | जिस बिरादरी की शशांक की मम्मी की अपेक्षा थी, वह उन्हें मिल चुकी थी | वह ना केवल इस धरती पर मौजूद थी, बल्कि उसके लिए उन्हें कोई बहुत दूर भी नहीं जाना पड़ा था | सेक्टर दो में ही डबल स्टोरी  थी , जहाँ बी. एस. पी. के अफसर श्रेणी के लोग रहते थे | जिनके बच्चे वहीँ पहले बाल मंदिर में 'ए','बी','सी','डी' पढ़ते थे फिर कतिपय अंग्रेजी माध्यम की शालाओं में चले जाते थे |

बबन तो कभी कभी दिखता था,क्योंकि वह भी शाला नंबर आठ में पढता था - प्रातः पाली में, जबकि मैं दोपहर की पाली में था |

पर शशांक ?  वो  अंतर्ध्यान हो गया , हालाँकि बाद के वर्षों में अपने कई मित्रों से मैं गाहे बगाहे उसका जिक्र जरुर सुनता था | किन्तु आमने-सामने की मुलाकात कभी हो नहीं पायी | 

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देखते ही देखते समय का पहिया पूरे ग्यारह साल घूम गया | 'पूर्व - इंजिनीयरिंग' की प्रतियोगी परीक्षा  की ऊंचाइयों की बाधा लांघकर लोग भोपाल में एकत्र हुए थे - क्षेत्रीय अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में प्रविष्टि की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए |

शशांक से वहीँ अगली रू-बरू मुलाकात हुई - ज़िन्दगी की 'हप्पू की बम-बम' में ...!

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(समाप्त )
स्थान - भिलाई
समय - १९७०-७१







हप्पू की बम-बम ३

घर के उत्तर पूर्वी  कोने में गन्नों का झुरमुट  था | सुबह सुबह वहां खुबसूरत रंगी बिरंगी चिड़िया दिख जाती थी | देखो जरा - लाल नारंगी रंग की, छोटी छोटी चिड़िया, जिनकी गर्दन या तो सफ़ेद होती थी या काली | काली चिड़िया के सर पर काले रंग क़ी कलगी होती थी | पता नहीं, गन्नों के झुरमुट के अन्दर कहाँ उनका घोसला होता था |

वे  गौरैया  के  आकार से  कुछ  छोटे होते थे और इधर से उधर फुदकते रहते थे |
 
तो गन्ने के झुरमुट के पीछे  कनेर के फूलों के पौधे थे, जिनमें रोज  तो नहीं पर अक्सर कनेर के फूल लगते थे | लाबी रंग के, मुलायम पंखुड़ियों वाले कनेर के फूल, जो जल्दी मुरझाते नहीं थे |

मैंने कनेर के पौधे  से दो पत्तियां तोड़ी | उनके डंठल से थोडा चिपचिपा दूध निकला , जिसे कमीज़ के छोर से पोंछा | दोनों पत्तों को आपस में जोड़ा और "फड़-फड़ " की आवाज़  की |

आज स्कूल में छुट्टी थी शायद | मतलब मुन्ना तो घर में होगा | कौशल भैया के उम्र के बड़े लड़के - सप्पन, तमाल, मुन्ना का राजा चाचा , गुड्डू, पप्पी , बिमल , राजकुमार , प्रभात और कई अन्य लोग  मैदान में कबड्डी खेल रहे  थे -"छल मार  - कबड्डी, कबड्डी ... " यह सप्पन की आवाज़ गूंज रही थी | रमेश के घर के सामने बबलू भैया  की उमर के लोग - विनोद , छोटा का भाई रमेश - जिसे लोग 'काके' कहते थे , शंकर, राजू, गुड्डा, टीटू, मंजीत का भाई गोगे, बबन का भाई मनोज , बंडू लट्टू खेल रहे थे ...|

लट्टू - कहानी की शुरुवात लट्टू से ही तो हुई थी ... | कहाँ से कहाँ भटक गए हम  ...|

तो कुछ लोग लट्टू खेल रहे थे और कुछ और लोग - जो क़ि उमर में छोटे थे - जो लट्टू सिर्फ घुमा सकते थे, पर खेलने से डरते थे - खासकर बड़े लोग से - जैसे मैं, छोटा, मुन्ना , सोंगा , गिरीश, बबन - थोड़ी दूर खड़े मंत्र मुग्ध से वो खेल देख रहे थे |

सब लोग लट्टू में रस्सी लपेटे, हथेली में लट्टू पकड़े  - दो उँगलियों के बीच रस्सी की गांठ फंसाए दम साधे 'हप्पू की बम बम' के लिए तैयार खड़े थे ...|

एक मिनट, क्या कहा मैंने - दो उँगलियों के बीच फँसी  - लट्टू की रस्सी  की गाँठ ! गाँठ  अकेली नहीं थी  | उसके साथ फँसा था कोका कोला, गोल्ड स्पॉट या फेंटा  का ढक्कन ! याद आया मैं क्या कह रहा था ? कोका कोला का बेशकीमती ढक्कन - सरदार की दुकान के बाहर - यह उसका एक और उपयोग था |लट्टू के रस्सी के छोर की गाँठ में ढक्कन लगा देने से रस्सी ऊँगली में अच्छे से फँस जाती थी |

शंकर ने कहा ," एक दो तीन..." मेरी आँखें बबलू भैया के हाथ पर टिकी थी | वैसे ही - जैसे बबन की आँखें मनोज के हाथ पर,छोटे की आँखे काके के हाथ पर , मीटू की आँखें टीटू के हाथ पर , अंकू की आँखें शंकर के हाथ पर या टिंकू की आँखें गुड्डा के हाथ पर जमी होंगी | सभी मन ही मन प्रार्थना कर रहे होंगे क़ि उनके भाई 'हप्पू की बम बम' में ना पकडे जाएँ  | सबने अपना अपना लट्टू चलाया | घूमते हुए लट्टू के गिर्द लट्टू की रस्सी से दायरा बनाया, दायरा छोटा किया ,नाचते  हुए लट्टू को हवा में उछाला और झट से लपक लिया |

मैं तों बबलू के लट्टू की ओर देख रहा था | औरों ने क्या किया - पता नहीं | तों 'हप्पू' में कौन सबसे फिसड्डी निकला ? निर्विवाद रूप से वह बंडू था |लट्टू चलाते वक्त उसने आनन् फानन में इतने जोर से लट्टू चलाया कि वह 'कतरी' चलता हुआ   नाली में जा घुसा |  जब उसने लपक कर लट्टू उठाया और दुबारा चलाने की कोशिश की, तब तक काफी देर हो चुकी थी | सब लोग 'हप्पू' ले चुके थे | बीच के गोल घेरे में उसे अपना लट्टू रखना पड़ा |

अब सब लोग को बारी -बारी से लट्टू इस तरह चलाना था क़ि वह बंडू के लट्टू को, जो क़ि घेरे के अन्दर था, छूते हुए चले और चल कर घेरे से बाहर निकले | अगर वह घेरे के अन्दर ही चलते रह जाता तों बंडू उसे लपककर दबा सकता था | तब उस खिलाडी का लट्टू भी बीच के दायरे में आ जाता | अगर उस खिलाडी का लट्टू बंडू के लट्टू को छू न पाए और दायरे के बाहर ही रहे तों चलते ही चलते वह खिलाडी अपने लट्टू को 'हप्पू' लेकर जान बचा सकता था | अगर वह ऐसा न कर पाए, तब उसका लट्टू भी दायरे के अन्दर बंडू के लट्टू से गलबहियां डाले  नज़र आता |

अरे हाँ | जैसे एक टुल्लू था, वैसे ही उससे चार साल बड़ा, उसके ठीक विपरीत स्वाभाव का दुल्लू  भी था | 

अभी खेल   शुरू ही हुआ था क़ि बंडू का तारणहार बनकर दुल्लू आ गया | दुल्लू ? हाँ, सप्पन का सबसे छोटा भाई - तीन बदमाश भाइयों में सबसे छोटा - दुल्लू | और उसके पीछे - पीछे उसका 'लटकनिया' - चमचा - दीपक |
उसे पता चला क़ि खेल अभी अभी शुरू हुआ है |

"फिर से शुरू करो बे|" उसने आदेश दिया |

भला किसकी मजाल होती क़ि 'संकेतात्मक प्रतिवाद भी कर सके |

जहाँ एक नया खिलाडी आया , वहीँ एक नया दर्शक भी आ गया | हमें पता ही नहीं चला क़ि कब शशांक  बगल में आकर खड़ा हो गया |
 
लेकिन इस बार 'हप्पू की बम बम ' में दर्शकों की निगाहें अपने भाइयों पर नहीं, दुल्लू के हाथ की ओर लगी थी |

 सबने जल्दी जल्दी रस्सी अपने लट्टू के इर्द गिर्द लपेटी |शंकर ने जैसे ही ' एक दो तीन '  कहा, सबने अपना लट्टू चलाया | लेकिन दुल्लू ? उसके लट्टू ने जमीन ही नहीं छुआ |उसने जैसे ही रस्सी खिंची, 'सर्र' से लट्टू हवा में लहराया और एक शिकारी बाज की तरह अपने मालिक की फैली हुई हथेली , यानी वापस दुल्लू के हाथ में घूमने लगा |

" ...उपरी - ऊपर ..." हाँ, यह 'उपरी ऊपर ' था | मतलब लट्टू के बिना जमीन में घूमे  ही 'हप्पू' ....| सबके बस का नहीं था ये | काफी मेहनत करनी पड़ती थी |दीपक तो जैसे दीवाना हुआ उसके आगे पीछे नाच रहा था |

लेकिन दुबारा हुई 'हप्पू  की बम बम' का वही नतीजा निकला | बंडू एक बार फिर पकड़ा गया | उसका लट्टू चला जरुर , लेकिन हप्पू लेते समय रस्सी से उलझ गया |

तों खेल शुरू हुआ | सब दम साधे देख रहे थे |

सबसे पहले एक टांग उठाकर , गोले के अन्दर  रखे लट्टू को निशान बनाकर विनोद ने लट्टू चलाया | लट्टू चला क्या, वह तो दुल्लू क़ी काली कोल्हापुरी चप्पल को छूते हुए निकल गया |या यूँ कहा जाये क़ि दुल्लू ने फुर्ती  से पाँव  खींच लिया वर्ना अनर्थ हो गया होता |

"अबे भोंदू |" दुल्लू जोर से चींखा |

उस दिन से , हाँ, उस दिन से विनोद का प्यार का नाम "भोंदू" हो गया | हम बच्चों  के लिए नहीं, बल्कि उसके हम उम्र दोस्तों के लिए | जब उससे लड़ाई होती थी, तों "भोंदू" शब्द को और भी विकृत करके, एक गाली का रूप दे दिया जाता |

खींसें निपोरते हुए विनोद ने लट्टू नाली से निकाला और चुपचाप गोले के बीच रख दिया |

गोगे की बारी आई | अपने जूडे में फंसी कंघी ठीक करके उसने लट्टू चलाया | उसके लट्टू ने बंडू के लट्टू को हल्का सा छुआ | इतना हल्का सा, मनो उसकी हवा लगी हो |

"हिलचुल | हिलचुल भाई |" वह जोर से चिल्लाया |

"अबे सरदार, कोई हिलचुल नहीं, चुपचाप लट्टू बीच में रख दे |" राजू चीखा |

"चुप बे , सिन्धी |" गोगे अकड़ गया |

हम लोग इंतज़ार कर रहे थे क़ि "सरदार जी क़ी खोपड़ी में बारह अंडे थे ..|" या "चार चवन्नी थाली में, सिन्धी बाबा नाली में ..|" वाला जूमला अब उछला, तब  उछला - पर कुछ हुआ नहीं | मामला दुल्लू क़ी अदालत में था | सब दुल्लू क़ी ओर  देख रहे थे |

"चलने दे बे, चलने दे |"  दुल्लू ने फैसला सुनाया |

बबलू का नंबर जब आया तो लम्बी नुक्की वाला लट्टू एक पतंगे क़ी तरह फड़फड़ाया और दोनों लट्टुओं को छूता हुआ गोले के बाहर निकल गया | किसी भी क्षण वह रुक सकता था | पर दुल्लू को वह लट्टू बहुत पसंद आया |
 
"दिखा, दिखा |" वह बोला | लट्टू पकड़ कर वह ध्यान से देखने लगा , "वाह बेटा, गूच मारने के लिए अच्छा है |"

गुड्डा और राजू उतने भाग्यशाली नहीं रहे | उनके लट्टू बीच गोले में आ गए |

अब बारी थी - दुल्लू क़ी | जब उसका लट्टू मुरम क़ी सड़क को चूमा, वह बाग़ में गुनगुनाते भंवरे की तरह 'भन्न' कर रहा था इतने इतनी तेजी से वह घूम रहा था, मानो लग रहा  था  क़ि अपनी जगह स्थिर हो |नीचे झुककर दुल्लू ने दो उंगलियाँ फैलाई और झटके से हथेली लट्टू के नीचे घुसा दी | अगले ही पल लट्टू उसकी हथेली में नाच रहा था , एक आज्ञाकारी बन्दर की तरह |दीये की लौ की तरह नाचते हुए लट्टू को लेकर वह फुर्ती से दायरे में रखे लट्टुओं की ओर बढ़ा | उसके लट्टू ने  झुण्ड में रखे लट्टुओं को इतने जोर से टक्कर मारी क़ि सारे के सारे लट्टू दायरे के बाहर आ गए |

घेरे में एक भी लट्टू नहीं बचा |

"हप्पू की बम बम |" शंकर ने किलकारी भरते हुए घोषणा कर दी | सारे के सारे अपने लट्टू में जल्दी जल्दी रस्सी  लपेटने लगे |

इस बार "हप्पू की बम बम " में दुल्लू खुद फँस गया | एक बार फिर "उपरी ऊपर" लेने की कोशिश में उसने लट्टू इतने जोर से घुमाया कि वह हमारे  सर के उपर से होता हुआ  नाली में जा घुसा | नाली में भी 'घूं' करते हुए उसने हैज़ के कई सूखे पत्तों का कचूमर निकाल दिया | उसका चमचा दीपक तुरंत लट्टू उठाने हमरे बीच से भागा |
अब दुल्लू की निगाह हम पर पड़ी |

"क्या देख रहे हो बे ? यहाँ लड्डू बँट रहा है क्या ? अपना रास्ता नापो |"

थोडा इधर उधर हिलने के बाद हम फिर वहीँ जम गए |खेल तों अभी शुरू हुआ था | दुल्लू का लट्टू अभी गोले के अन्दर था | देखना यह था कि उसे गोले से निकालता कौन है | देखा जाए तों साँप छछूंदर की सी स्थिति थी | अगर उसके लट्टू को निशाना साधकर लट्टू चलाया जाये, तों उसके लट्टू में 'गुच' लगने आशंका थी | उससे बिगाड़  कौन मोल ले ? अगर उसके लट्टू को छुआ ना जाये तों अपना खुद का लट्टू गोले में फँस जाता | और देखते ही देखते तीन और लट्टू गोले में फँस गए |चार के बाद में पाँचवे लट्टू को गोले के अन्दर रखने क़ी जगह ही न थी | अगर सारे के सारे लट्टू गोले में इकठ्ठा हो जाते तों एक बार फिर "हप्पू क़ी बम बम" होती |

...और जिसकी आशंका थी ,वह  कमाल हो ही गया || सबके सब लट्टू बीच के गोल घेरे में आ गए - सिवाय बंडू के लट्टू को छोड़कर | यह महज़ संयोग ही नहीं था, वह दुविधा , जिसका मैंने जिक्र किया था , भी खिलाडियों के दिमाग में छाई थी | बीच का गोला और भी बड़ा किया गया , ताकि सारे लट्टू समां सकें | बंडू ने लट्टू चलाया ,लेकिन वो गोले से दूर चला | अब उसे लट्टू पास लाकर या तो सारे लट्टुओं में से किसी एक से छुआना था, या फिर हप्पू लेना था | सारे गोले तक लाना उसके लिए टेढ़ी खीर थी | लट्टू नाली के कगार पर चल रहा था | उसने बंद होते हुए लट्टू के गिर्द रस्सी का फंदा डाला ही था कि लट्टू फिसल कर नाली में घुस गया |

"हप्पू की बम बम ....|" शंकर गला फाड़कर चिल्लाया |
 
भन्न ..., भन्न... , भन्न .... तरकश से निकले तीर की तरह लट्टू एक बार फिर जमीन में घूमने लगे और उनके मालिक आनन् फानन में हप्पू लेने लगे |
 
इस बार छोटे का भाई रमेश पकड़ा गया | उसने लट्टू गोले में रख दी और बगल में हाथ बांधे मुस्कुराता हुआ खड़ा था | वो तो मुस्कुरा रहा था , लेकिन छोटे का चेहरा उतर गया था | पहली बारी बंडू की थी | उसने रमेश के लट्टू को तानकर अपना लट्टू छोड़ा |
 
उसका लट्टू गोले के अन्दर ही था क़ि रमेश ने लपक कर उसका लट्टू गोले में दबा दिया |
 
बंडू वैसे भी फिसड्डी ही था -इस खेल में | फिर अपना लट्टू बीच गोले में आना उससे सहन नहीं हुआ |
 
"तूने मेरा लट्टू क्यों दबाया ?" वो बिफर गया |
 
"क्योंकि वो गोले के अन्दर था |" रमेश ने शांति से जवाब दिया |
 
"वो अन्दर नहीं था | वो बौंडरी में था |"
 
"नहीं | अन्दर था |"
 
"पिछले गेम में तुम लोगों ने गोला बड़ा किया था | इसलिए ....|"
 
"तो वो तुझे 'हप्पू की बम-बम' के पहले बोलना था | "
 
"मैं नहीं खेलता, तुम लोग चिडिंग खाते हो |"
 
"कौन चिडिंग खा रहा है बे ?" रमेश को तैश आ गया ,"मैंने गोला बड़ा किया था क्या ?"
 
दुल्लू अब तक मुस्कुराता हुआ नमक मिर्ची का वार्तालाप सुन रहा था | अब उसके बीच में कूदने का समय आ गया था | वो बोला ,"कढीचट , लट्टू बीच में रख दे बे |" 

"मैं नहीं खेलता |" बंडू लट्टू उठाकर जाने लगा |
 
"अबे रुक |" दुल्लू गरजा | बंडू के कदम ठिठक गए , ,"इधर आ .... इधर आ | ऐसे कैसे जा रहा है ? दाम देकर जा |"
 
"काके का लट्टू भी तो है गोले में |"
 
"में तो नहीं जा रहा |" रमेश बोला |
 
"इस तरह बीच में जाना है तो सब दो दो गूच मारेंगे तेरे लट्टू में | मंजूर है ?" दुल्लू ने फैसला सुनाया |
 
बंडू रुआंसा हो गया था | थोड़ी ना नुकुर के बाद वो मान गया | नाली में एक डंडी से छोटा सा गड्ढा खोदा गया और उसमें बंडू का लट्टू टिकाया गया | सारे दर्शकों की सहानुभूति बंडू के साथ थी | कुछ खिलाडियों ने भी कहा, "जाने दे बे |"
 
"कैसे जाने दे|" दुल्लू दहाडा ,"तुम लोगों को गूच नहीं मारना है , मत मारो | मैं तो मारूँगा |"
 
"मैं भी मारूंगा |" काके बोला |
 
"तू क्यों मारेगा ?" लगभग सिसकते बंडू बोला ,"तेरा लट्टू तो गोले में था |"
 
"अबे रोंदू | लट्टू इधर दे | अभी दो फांक करता हूँ |" दुल्लू बोला |
 
उसने लट्टू को नाली के गड्ढे में रखकर अपने लट्टू की नोक से एक करारा प्रहार किया | बंडू के लट्टू से लकड़ी का एक छोटा सा टुकड़ा उछल कर बाहर गिरा |
 
"छिलपट |" दुल्लू ने युद्ध घोष किया ,"छिलपट | हा .. हा .. हा... |"
 
बंडू लट्टू उठाकर जाने लगा कि दुल्लू ने उसका कलर पकड़ लिया |
 
सब लोग सन्न रह गए |
 
"अभी एक गूच और बाकी है | अभी तो दो फांक करना है |" उसने निर्दयता से कहा |
 
उसने दूसरा प्रहार किया और बड़ा 'छिलपट' निकाला | दुल्लू ने पहले से भी बड़ा युद्ध घोष किया | बंडू रो पड़ा |
वह लट्टू उठाकर जाने लगा | सब खिलाड़ी खड़े होकर देखते रहे | किसी ने और कोई गूच मारने क़ी जिद नहीं क़ी | रमेश ने भी नहीं ....|
 
जब बंडू घर जा रहा था , तो मैंने देखा , शशांक भी घर जा रहा था - उससे कुछ ही कदम आगे | शशांक के घर के गेट पर उसकी माँ खड़ी थी | शायद इस हल्ले गुल्ले में हमने उनकी पुकार सुनी नहीं थी | पता नहीं, उन्होंने पुकारा भी था या नहीं , या शशांक यूँ ही स्वतः चल पड़ा था |

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तो  यह तय हुआ क़ि छोटे को पीटा जाए | देखा जाये तों छोटे ने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा था |

हुआ ये क़ि हम लोग कागज़ का हवाई जहाज उड़ा रहे थे और उसका पीछा कर रहे थे |

अचानक सड़क की  छोटी पुलिया के पास वह अवतरित  हुआ | कौन ? वो ...अरे वो ...|

अब क्या कहूँ ? कैसे उसका परिचय दिया जाये ?अगर मैं कहूँ ,"बाइस्कोप वाला " तों आजकल के बच्चे पूछेंगे, " बाइस्कोप ? वो क्या होता है ?"

अब कैसे बताया जाए, बाइस्कोप क्या होता है ?

"ऐ शहर के रहने वालों " , वह मूछों वाला , धोती वाला बुड्ढा , देसी घी से बना बदन, लम्बा कद, चौड़ा सीना, पहरावा - धोती कुरता , सर पर गांधी टोपी , डोक्टर राजेन्द्र प्रसाद की तरह करारी मूंछें ...| एक हाथ में बड़ा सा चोंगा, जिसमें वह घोषणा करता ,"आ गया, आपका मनोरंजन करने , आपको घर बैठे दुनिया का सनीमा दिखाने ...| पाँच  पाँच  पैसे में ... | दारा सिंग की कुश्ती , चाँद पर आदमी,इंदिरा गाँधी का भाषण ... सब देखो ... | पाँच  पाँच  पैसे में ...| पाँच नए पैसे ... "

वह छोटी पुलिया पार करके, थोड़ी ही दूर में ही ठहर गया था | दीपक के घर के पास भी नहीं पहुंचा  था | उतना ही उसके लिए काफी था | ये नहीं क़ि भारी भरकम बाइस्कोप का बोझ कंधे पर उठाये उसे सड़क के एक सिरे से दूसरे सिरे जाना पड़ता | अपितु  कारण यह था क़ि इतनी ही दूरी उसके लिए काफी थी | इतनी ही दूरी और देरी में वह बच्चों से घिर जाता था |

तों हम लोग छुआ छुई ही खेल रहे थे और छोटा दाम दे रहा था |जैसे  ही यह आवाज़ कानों में पड़ी, सब छोड़-छाड़ के वह भाग खड़ा हुआ |

उसके पीछे पीछे हम लोग भी भागे| जहाँ उसे जाना था, वहां हमें भी जाना था | यह दीगर बात है क़ि किसी की भी जेब में पैसे नहीं थे |

बाइस्कोप क्या था ?

एक हरे रंग का पाँच कोने वाला बक्सा  था , जिसमें हीरो , हिरोइन, ताजमहल, कुतुबमीनार, हवाई जहाज , परेड करती  भारतीय सेना  की तस्वीरें चिपकी थी | पाँच कोने यानी कि पाँच साइड | पीछे के छोर में तों वह बुड्ढा ही खड़ा था | बाकी हर साइड में एक- एक या दो दो अल्युमिनियम के टिफिन के डिब्बे जड़े थे | जी हाँ, वो टिफिन के डिब्बे ही थे | वह बुड्ढा हर बच्चे से पाँच पाँच पैसे वसूलता और एक टिफिन का डिब्बा खोल देता | वह बच्चा डिब्बे के दोनों तरफ हथेलियों से दृश्य छिपाकर अपना सर तिलस्मी दुनिया में घुसा देता था | जो कोई छोटा बच्चा वह नहीं कर पाता तों वह बुढ़ऊ  उसे हथेलियों से दृश्य छुपाने में मदद करता | तात्पर्य यह, कि वह ये सुनिश्चत करता कि उसके पास जितने पाँच के सिक्के हैं, उतने ही दर्शक हों |इसके बाद वह ग्रामोफोन पर एक पुराना घिसा हुआ रिकॉर्ड लगा देता और ऊपर लगा हुआ हँडल एक समान गति से घुमाते रहता |
 
मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी बाइस्कोप का कोई  पूरा शो देखा हो | बाइस्कोप एक तरह से सिनेमा समझा जाता था और सिनेमा देखना उन दिनों लोग बुरी बात मानते थे |कतिपय सिनेमा, जो कि बड़े बुजुर्ग आपस में बात करके तय करते थे , कि बच्चों के देखने लायक है, को छोड़कर बाकी सारे सिनेमा वाहियात क़ी निशानी माने जाते थे | भद्दे भद्दे नाच गाने, बेशरम हीरोइने , चाक़ू , बंदूक और खून खराबा, आवारागर्दी करते हीरो - अरे ये तो बच्चों क़ी पीढ़ी को बर्बाद करने क़ी साजिश है | राम , राम .... तो ऐसे में घर से पैसे मिलने  की गुंजाइश ही कहाँ थी ? | हाँ ताक़ -झाँक करके जरुर मैंने कुछ दृश्य देखे थे | एक अजूबा ही था | एक छोटे से बक्से के अन्दर एक पूरा संसार दिखता था |
 
तों हम भागते हुए बाइस्कोप के पास पहुंचे |

हमारे वहां तक पहुँचते-पहुँचते अच्छी खासी भीड़ इकठ्ठा हो गयी थी | सड़क में छोटे बच्चों की कमी तो थी नहीं | दीपक की दादी "अम्मा" दीपक के छोटे भाई बंटी का हाथ पकड़े खड़ी थी | सड़क के पहले मकान यानी १"अ" में कोई बंगाली परिवार रहता था, जिसके घर मैंने चाभी से, पटरी पर चलने वाली रेल देखी थी | वह आंटी उनींदी सी बच्ची को लिए खड़ी थी | किकी की माँ भी किकी को लिए दूर से आ रही थी | रीटू और संजीव का छोटा भाई इक्कीस सड़क से, अपनी मम्मी के साथ आया था |

अचानक मुन्ना को क्या सूझा, वह बोला  , "देख बे, देख | काला तोता  - डिब्बे के पीछे बैठा है |"

काला तोता ? आप कहेंगे, तोता भी कहीं काला होता है ? पर मुन्ना ने इतने विश्वसनीय तरीके से संजीदा होकर कहा था कि मन में कौतूहल जग ही गया | पर फिर भी , कदम ज़रा से ठिठके ही थे | जिसके क़दमों पर अंकुश नहीं लगा, वह छोटा ही था | वह काला तोता देखने बाइस्कोप के पीछे चला गया | मुन्ना ताली मारकर हँसा ,"बुद्धू बनाया , लड्डू खिलाया, " असली जुमला होता था, "खड़े खड़े सात जनों को छुओ |" मुन्ना ने उसे मरोड़ कर कहा ," बैठे बैठे सात जनों को छुओ |"

छोटे को गलती का अहसास हो गया | वो उल्लू बन गया था | अब सामान्य जुमले के अनुसार उसे "खड़े खड़े " सात जनों को छूना था | वह बाइस्कोप देखने आये लोगों की ओर लपका ,"एक .. दो.."

मुन्ना बोला, " अबे खड़े खड़े नहीं, बैठे बैठे सात जनों को छुओ |"

भला बाइस्कोप देखने वालों में आपको कौन बैठा हुआ नज़र आएगा ? उस समय तो छोटी पुलिया में भी कोई बैठा नहीं था |
 
और छोटा वहां से भाग खड़ा हुआ |

"पकड़ो, पकड़ो साले को | भाग रहा है |"

सामने से शशांक अपनी  माँ के साथ आ रहा था | छोटा सीधे शशांक से टकराया | दोनों की खोपड़ी 'टन्न' से बज उठी | बदहवासी में भी छोटे ने होश हवास नहीं खोये और झट से रुक कर अपना सर एक बार फिर से शशांक के सर से टकराया - इस बार धीरे से |

क्यों ? अगर वो ऐसा नहीं करता, तों उनके सर में सींग उग जाते !

वो फिर भागा | उसके पीछे भागता मगिंदर तो शशांक की मम्मी से टकराते-टकराते बचा | शशांक की मम्मी की आग्नेय दृष्टि से हम सब सहम से गए और सर झुकाकर खिसक गए |

तुरंत आनन्-फानन में पंचायत बैठी और छोटे के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया गया |

" वो हरदम ऐसा  ही करता है | "

"छुआ छुई हो या रेस टीप |जब दाम देने की  बारी आती है , वो घर भाग जाता है |"

"अगर दाम नहीं दे सकते , तो बारह मुक्के खा लो | बात ख़तम ...|"

बदला लेने का सबसे सहज और सुगम तरीका था कि उसके घर के सामने के  हैज की झाड़ी में रात के समय चुपके से "अमर बेल" फेंक दी जाए |

"अमर बेल ?" हाँ - अमर बेल | वह बेल, जो कभी मरती नहीं, चाहे जितने टुकड़े कर दो | कभी सूखती नहीं, बल्कि जिस झाडी या पौधे पर ड़ाल दी जाए, उसका रस चूस कर उसे ही सुखा देती है | अगर उसे हैज में फेंक दो , तो वह हैज में फैलती ही जाती थी और हैज थोड़े ही दिनों में सुखकर  पत्तों से रहित हो जाता था | अमर बेल खोजना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था | जिसका भी घर खाली होता था , एकाध महीने तक कोई आता नहीं था | उतना समय काफी होता था, अमर बेल के लिये  , कहीं से भी प्रकट होने और पनपने के लिए | अनिल ने बताया कि उसके बाजू वाले , यानी कि सड़क के अंतिम छोर पर बड़ी पुलिया के पास वाला घर खाली हुआ था |

छोटे के पीटने की मूल योजना में मैं भी शामिल था | गुस्सा मुझे भी था | फिर पता नहीं , क्या हुआ , मैं पीछे हट गया | |

"क्या  हुआ बे ?" बबन ने पूछा |

"मुझे अच्छा नहीं लग रहा है | क्यों पीटना किसी को ? लड़ाई झगडा बंद करो | गाँधी जी को याद करो |" मैंने कहा |

बबन थोड़ी देर तक मुझे घूरते रहा | फिर बोला ," तू साले डरपोक है |"

उसके शब्दों में ललकार छुपी हुई थी | शायद में तैश में भी आ जाता | तभी शशांक बोला ," चार लड़के मिलकर एक को पीट रहे हैं | उसमें कौन सी बहादुरी है ?"

"चुप बे चश्मुद्दीन |" बबन बोला ,"उसने उस दिन तेरा चश्मा तोड़ा | मैं होता तो घुमा के एक हाथ देता |"

"तोड़ा नहीं, चश्मा थोड़ा सा टेढ़ा हुआ था | तुम लोग तो उसे दौड़ा रहे थे |"

बबन कुछ नहीं बोला | लेकिन अगले ही पल उसने छोटी ऊँगली दिखाई | मैंने भी अपनी छोटी ऊँगली निकाली | हम दोनों ने एक दूसरे की छोटी ऊँगलियों को तीन बार टकराया और अब हम "खट्टी" हो गए | यानी हमारी दोस्ती टूट गयी | उसने शशांक से भी "खट्टी" कर ली |

अगले ही क्षण मुन्ना ने भी अपने हाथ की छोटी ऊँगली मेरी ओर बढ़ा दी .... |

बबन से " खट्टी" करते समय मुझे थोड़ा दुःख तों जरुर हुआ था , पर मुन्ना से "खट्टी" करते समय बहुत ज्यादा दुःख हुआ | जी कड़ा करके मैंने उससे भी "खट्टी" कर ली | उससे तीन बार ऊँगली टकराई ही थी, क़ि मैंने देखा सोगा और मगिंदर  भी छोटी ऊँगली निकाले खड़े थे |

भारी मन से मैं बाहर आ गया | उस भीड़ से अलग हटकर पत्थर को   ठोकर मारने लगा |

हाथ में एक डंडी लेकर उसे गाड़ी की स्टीरिंग की तरह घुमाते अनिल आया | उनकी भीड़ में घुसकर उसने उनसे थोड़ी बहुत बात क़ी होगी | फिर अगले पल वह मेरे पास आया और उसने अपनी छोटी उंगली मेरी ओर बढ़ा दी |
अब मेरे साथ शशांक ही बच गया था | सबने उससे भी "खट्टी" कर ली थी |
 
"चल अपन दोनों खेलते हैं |" शशांक ने कहा | उसने मेरे गले में बाहें डाल दी ," अपन दोनों दोस्त | चल पकाएं ग़ोश्त | ग़ोश्त में डाला आलू | अपन दोनों भालू |"

पिछले कई दिनों से पता नहीं क्यों, मुझे शशांक अच्छा नहीं लग रहा था |जब भी उससे बातें करता , तो लगता क़ि दूर कहीं से दो जोड़ी आँखें मुझे घूर रही हैं |

"शशांक...|" दूर से किसी ने उसे पुकारा और मैं छिटक कर अलग  हो गया |

*************

ठीक है, ठीक है | गुस्सा मुझे भी आया था, पर ईमान से कहूँ तो छोटे से मेरी कोई दुश्मनी तो थी नहीं |
 
"छोटा |" उसके घर के सामने क़ी पटरी पर खड़े होकर मैंने पुकारा |

तीन बार आवाज़ लगाने के बाद छोटा सहमता  हुआ बाहर आया |

"चल, चक्का चलाते हैं |" मैंने कहा |

उसने ना में सर हिलाया | उसे घर के अन्दर ही रहना सुरक्षित लग रहा था |

किसी के घर जाकर खेलना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा | छींको तो मुसीबत , खांसो तो मुसीबत, सोफे में बैठो तो 'सम्हालकर बैठो', पांव गंदे तो समस्या, पेंट से धागा निकल रहा हो तो मुश्किल .... | लेकिन छोटे की हालत देखकर कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था | हाथ से बाल संवारते हुए मैं अन्दर घुस गया |

तुझे पंखा बनाना आता है ?" मैंने पूछा |

अगले ही क्षण मैंने एक किराने का सामान  बाँधने के लिफाफे से कागज की तीन पतली पतली पट्टियाँ काटी , उन्हें बीच से मोड़ा, छोरों को फाड़कर उनके आकार  को थोडा छोटा किया  | उन्हें एक दूसरे में फंसाया  और खींचते गया }

"एक झाड़ू क़ी डंडी ले आ |" मैंने फुसफुसा कर कहा | उसकी माँ ना सुन ले |

छोटा चुपके से बांस के झाड़ू से एक सींक निकाल ले आया |

मैंने सींक में पंखे क़ी नोक फंसाई ओर दौड़ा | अगले ही पल पंखा घूमने लगा |

"मुझे दिखा, मुझे दिखा | मेरा पंखा है |" छोटा खुशी से उत्तेजित होकर मेरे पीछे दौड़ा | 

" हाँ बे | तेरा पंखा है | ले ...|" मैंने उसे थमा दिया |

उसके घर में कोई नहीं था | न तो काके, ना आशा ओर ना ही पढ़ाकू भाई विजय - जिसे मैंने हमेशा आँगन के पास वाली परछाही में कुर्सी लगाकर पढ़ते देखा था |

"तुझे चकमक पत्थर से आग जला के दिखाऊं  ?" उसने पूछा |

"क्या ? आग ?" मेरे कान खड़े हो गए | आँखों के सामने फिर अस्पताल के बच्चे क़ी तस्वीर घूम  गयी ," चकमक पत्थर ?"
 
" हाँ , चकमक पत्थर से आग ...| आजा मेरे साथ ...|"  उसने मेरा हाथ पकड़ कर एक ओर खींचा | 

वह मुझे अपने  घर के शयन कक्ष , यानि "पंखा खड" , यानी वो कमरा जहाँ छत से लटका पंखा लगा होता है , वहाँ  ले गया | वो लकड़ी के तख़्त के नीचे घुस गया ओर फिर मुझे आवाज़ दी , "तू भी आ जा |"

मेरा दिल धड़क रहा था | कहीं उसने सचमुच पत्थर से आग जला दी तों ? सारा बिस्तर जल जायेगा | फिर भी , कौतूहलवश  मैं अन्दर चले गया | मैंने माचिस क़ी तीली से आग जलती देखी थी | लक्ष्मी भैया ने मुझे "पावर कांच" ( आवर्धक लैंस ) से कागज़ जलाकर दिखाया था |अब छोटा पत्थर से आग जला रहा है .. | 

उसके हाथ में दो छोटे 'चकमक' पत्थर थे | बाद में जब मैदान में घर बनने शुरू हुए तो उसमें लगने वाले रेत के ढेर में हमें अनेकों 'चकमक' पत्थर मिले | किन्तु उस समय तो वे मेरे लिए एक अजूबा ही थे | क्या इन सफ़ेद, भूरे, मटमैले और थोड़े चमकदार पत्थरों में वाकई आग भरी है ?

मैं दिल थामकर तख़्त के नीचे अन्दर घुस गया | उसने दोनों पत्थरों को आपस में रगड़ा  | एक बार ..., दो बार..., तीसरी बार में एक चिंगारी  निकली |

"देखा तूने ?" वह उत्साह से बोला |

ठीक है , वह आग तों नहीं थी, केवल चिंगारी थी | फिर भी यह एक नयी बात थी |

मैंने भी अँधेरे में चकमक पत्थरों को आपस में  दो - तीन बार रगड़ा | एक जोर से चिंगारी निकली और थोडा धुआं भी निकला |

" अरे वाह", बरबस उसके मुंह से निकला,"देखा, थोडा धुआं भी निकला ना |"

सामने आले में टीन का एक रंग बिरंगा सूअर रखा था | इतना प्यारा सा खिलौना था कि मैंने पूछ ही लिया , "यह किसका खिलौना है ?"

"ये खिलौना थोड़ी है |" वह बोला , "यह एक बैंक है |"

"बैंक ?"

"हाँ, , बैंक | बैंक, जिसमें पैसा जमा करते हैं  |"

"तुझे कहाँ से मिला ?" मैंने पूछा |

"पिता मुझे एक बैंक में ले गए थे | क्या नाम था उसका ? पंजाब ... पंजाब नेशनल बैंक | वहां से मुझे मिला है |"

मैंने उसे  हिलाकर देखा, 'छन छन " कर रहा था |
 
उसके पीठ में एक छेद था , जिसमें वह पैसे डालता होगा | मैंने अन्दर झाँक कर देखा, मुझे कुछ भी नहीं दिखाई दिया |

"कितना पैसा है - खोलकर दिखायेगा ?"

"मैं खोल नहीं सकता | कोई भी खोल नहीं सकता - पिता भी नहीं | चाभी एक सरदार जी के पास है | वो एक महीने में एक बार आते हैं और पैसे निकाल कर ले जाते हैं |"

"कहाँ ? "

"बड़े बैंक में | वहां एक कमरे में बहुत पैसा भरा रहता है | वहीँ डाल देते हैं |"

"पर पैसा तों तेरा है | तुझे क्या मिलता है ?"

उसे क्या मिलता है, उसे खुद पता नहीं था | इतना पता था क़ि जब वो बड़ा हो जायेगा तों उस पैसे से एक साइकिल खरीद सकता है , या एक घडी खरीद सकता है | अगर पैसे ज्यादा हो गए तों शायद एक स्कूटर भी खरीद सकता है |

*************

"हाँ बेटा, पैसे जमा करना चाहिए |" मैंने बाबूजी को बताया  तों बाबूजी बोले |

घर में इतने मेहमान आते थे | कभी कोई जाते समय पांच  पैसे दे देता था तों कोई दस पैसे - "खाई - खजाना" के लिए | वो पैसे मैं कभी माँ को दे देता था , कभी-कभार चॉकलेट या चूरन की गोली में उड़ जाते थे | कई बार यूँ ही खेलते - खेलते सुबह होते-होते ही गायब हो जाते थे | एक बार मेने और मुन्ना ने पैसे का पेड़ उगाने की कोशिश भी की | पैसा पिछवाड़े में , एक कोने में गाड़ दिया | शाम को जब माँ पाइप से पौधों को पानी देती थी, तो चुपके  से वह जगह मैं भी सींच देता था | पर कोई पेड़ नहीं उगा | बबलू भैया खुशकिस्मत थे | उनको डोक्टर धोटे ने एल्युमिनियम का, दवाई का एक बेलनाकार डिब्बा दिया था | उसमें ही वो सिक्का डाल देते थे |

अगली बार जब श्यामलाल मामा सुपेला बाज़ार गए तों मेरे लिए मिट्टी का बना , ईंट के रंग का , बेडौल सा गुल्लक ले आये |

"यह क्या है ?"

"पोरहा }" माँ ने बताया |

"क्या ?"

"पोरहा | तू अपने चिल्हर पैसे इसमें ही डालते जाना |"

"पर इससे पैसे कैसे बाहर निकालेंगे ?"

जब भर जाएगा , तों फोड़ देंगे |"

मेरा दिल बैठ गया | छोटे के पास रंग बिरंगा गुल्लक था और मेरे पास ये बेगढ़ा मिट्टी का पोरहा |  छोटे के सूअर से समानता ये थी क़ि दोनों में पैसे डालने के लिए एक झिर्री बनी थी | बस - उसके आगे समानता का अंत हो जाता था | जो भी हो, अब मेरे पास ये बैंक था |

*************

"अपन दोनों दोस्त, चल पकाएं गोश्त, गोश्त में डाला आलू, अपन दोनों भालू  ....|"
 
शशांक ने कहा था न ये ... | और मैं शशांक के घर जा पहुंचा |

वैसे शशांक के घर जाना थोडा सा ज्यादा मुश्किल था | छोटे के घर तो पास में था | शशांक के घर तक पहुँचते हुए आधी सड़क पार करना पड़ता था, जिसमें मुन्ना , सोगा मगिन्द्र और बबन के घर शामिल थे | वे अक्सर खेलते रहते थे और उनके ताने और व्यंग्य बाण चलते रहते थे | छोटे सुरेश का घर भी था, पर वह अपेक्षाकृत शांत था | खट्टी उसने भी कर ली थी , पर उसे सिवाय मुस्कुराने या न मुस्कुराने के, कोई सरोकार नहीं था |

आधी सड़क पार भी कर लो तो शशांक के घर की दहलीज लांघना उससे कम बड़ी समस्या  नहीं थी | बल्कि आकार में वह उससे कहीं बहुत ज्यादा बड़ी थी | या यूँ कहा जाए कि असली परीक्षा तो यहीं से शुरू होती थी | छोटे के लिए तो उसके घर की पटरी पर खड़े होकर आवाज़ लगाओ, वह  आ जाता था | शशांक के लिए आज तक मैंने किसी को आवाज़ लगाकर बुलाते नहीं देखा था | वह स्वयं चलकर हमारे साथ खेलने आता था |

मैंने हिम्मत करके शशांक की पटरी पर खड़े होकर आवाज़ लगाईं ,"शशांक ...|"

दोबार आवाज़ लगाने के बाद दरवाजा खुला | मेरा दिल जोर से धड़कने लगा | हे भगवान् , अब भी मौका है ... | क्या भाग जाऊं ?
 
पर पैर मानो पटरी में जम गए थे |
 
"क्या  चाहिए ?" उसकी मम्मी ने पूछा |

"आंटी, शशांक है क्या ?"

घर में होगा नहीं तो कहाँ जायेगा ? सड़क में तो सबने खट्टी कर ली  है |

"तुम्हारा नाम क्या है ?"
 
"टुल्लू |"

शशांक की मम्मी पता नहीं, किस भाषा में कुछ बोली | अन्दर से  शशांक ने कुछ जवाब दिया और वह खुद दरवाजे पर आ गया |

"अन्दर आ जाओ |" उसकी मम्मी बोली |

"टुल्लू, अन्दर आ जा |"मम्मी की अनुमति पर शशांक ने मुहर लगा दी |

मैं तो शशांक को घर से बाहर निकालने आया था | उसने मुझे ही अन्दर बुला लिया ... | जैसे जैसे मैं अन्दर घुसा, ऐसा लगा मानो हर एक कदम के साथ किले का एक और दरवाजा बंद होते जा रहा है | मुझे अब सिर्फ शशांक दिखाई दे रहा था |

"शशांक, बाहर  खेलने चलें ?" मैंने एक आखिरी कोशिश की |

कई कारण थे -ऐसा महसूस होने के | अगर दिन भर धूल मिट्टी  में नंगे पाँव खेला जाए तो पांव तो गंदे होंगे ही | ऐसे गंदे पाँव लेकर छोटे के घर में घुसना अपेक्षाकृत आसान था |ज्यादा से ज्यादा छोटे की माँ डांट डपट देती और फिर मेरे अन्दर आने के बजाय छोटे को बाहर भेज देती | बात वहीँ ख़तम हो जाती | पर यहाँ ? कभी मैं अपने पाँव की ओर देखता, कभी कमीज, जिसका बटन टूटा था और उस जगह एक सेफ्टी  पिन लगा था | फिर मुझे याद आया कि कंघी तो मैंने सुबह की थी शायद |

फल यह हुआ कि मैं बरामदे में ही ठिठक गया |

"अन्दर आ न ?" शशांक ने आग्रह किया ,"कुछ नहीं होता |" 

"कुछ नहीं होता ? क्या हो सकता था ? पर क्यों ? कैसे ?" कुछ सोचता हुआ मैं वहीँ खड़े  रहा | कुछ सोचकर बोला, "यहीं ठीक है |"

वह बाहर आया | मैंने अपने हाथ पीछे कर लिए  थे |

"क्या  है तेरे हाथ में ?" उसने पूछा |

"कुछ नहीं |" मैंने कहा | मेरी मुट्ठी और सख्त हो गयी |

"दिखा तो  |" वह मेरे पीछे आया | शुक्र है, घर से निकल कर बरामदे तक तो आया |

"कुछ नहीं बे |" मैंने कहा , "टिकटिकिया  है |"
 
"टिक क्या ? टिक ... टिक .."

"टिकटिकिया |" मैंने कहा |

"वो क्या होता है ?"

मैंने झिझकते हुए उसे 'टिकटिकिया' दिखाया | कोका कोला क़ी ढक्कन  को चपटा करके बीच क हिस्से को पीट पीट  कर  थोडा उभर दिया था | जब उसे दबाते थे , तो वह जोर से 'टिक टिक ' करता था | मैंने उसे 'टिक टिक' करके सुनाया |

उसकी बत्तीसी निकल गयी ,"में बजा कर देखूं ?" उसने 'टिक टिक ' फिर 'टिक  टिक ' बजाया |

"अबे, जल्दी जल्दी बजा |" उसने जल्दी करने क़ी कोशिश क़ी ,"और जल्दी | और जल्दी ...|"

"ऐसी 'टिकटिकिया' मैंने फेरी वालों के पास देखी है | "

"फेरी वालों के पास तो बहुत कुछ होता है | यह मैने खुद बनाया है | कोका कोला के ढक्कन को ईंट से पीट पीट के |"

"कोका कोला का ढक्कन तुझे कहाँ से मिला ?"

"कहीं से मिल जाता है बे | बाज़ार जा | हर दुकान के पास कचरे में कितने ढक्कन पड़े रहते हैं | एक उठा ले |"

बात फिर से फेरी वालों पर आ गयी |

"तू फिरकी बना सकता है ?" उसने पूछा |

"फिरकी ? क्या ?"

"वही जो हवा के साथ गोल गोल घूमती है | मुझे बहुत अच्छी लगती है |"

"अच्छा | वो वाला पंखा ? हाँ, मैं भी बना सकता हूँ | पर उसके लिए आल पिन चाहिए | और कागज अच्छे से काटने के लिए कैंची भी चाहिए | "

"आल पिन ? अभी लेकर आता हूँ |" वह अन्दर गया | उसने अपनी मम्मी से कुछ बात क़ी , फिर बाहर आकर बोला ," पर आल पिन मेरे पापा ने कहीं रख दी है | थोड़ी देर रुक , वो अभी आ जायेंगे |"

"आल पिन छोड़, मैं तुझे अच्छा पंखा बना कर देता हूँ |  तू कागज़ और बांस क़ी एक डंडी के आ |"

"कागज़ ? कैसा कागज़ ?"

"कुछ भी | सामान बाँधने वाला कागज़, नहीं तो सिनेमा के 'फारम', तेरे पास होंगे कि नहीं, नहीं तो पुरानी कॉपी के पन्ने ..."

ना तो उसके पास सामान बाँधने का कागज़ था, न सिनेमा का 'फारम' |  ना तो उसका बबलू, बेबी जैसे भाई बहन थे, जिनकी पुरानी कॉपी होती | उसने फिर से अपनी मम्मी से बात की | जब वह लौटा तो उसके हाथ में तीन-चार 'फॉर्म' थे , पता नहीं किस  के | पर हमें आम खाने से मतलब था |

मैंने कागज़ की तीन पतली पतली पट्टियाँ बनाई, बीच से मोड़ा , आपस में फंसा कर खींचा,  छोरों को फाड़कर छोटा किया और पंखा तैयार |

"मैं दो पंख और चार पंख वाला भी पंखा बना सकता हूँ |"

उसे ज़मीन पर नोक के बल  रखकर मैने फूंक मारी | पखा ज़मीन पर ही घूम  पड़ा |

"ही .. ही .. ही .. |इसे उड़ायेंगे कैसे ?"

"अबे, उसके लिए डंडी चाहिए होगी | तेरे घर 'खरारा बहिरी' है ?? बांस वाली झाड़ू , जिससे आँगन साफ करते हैं ?"

"पता नहीं, आंगन तो नौकरानी आकर साफ़ करती है |"

"जाकर उसकी झाड़ू देख | वो बांस वाली झाड़ू होगी | जा उसकी एक सींक निकाल कर ले आ |" मैंने उसमें थोड़ी सी चाबी भरी |

वह झाड़ू देखने अन्दर क्या गया , अगले ही पल मानो भूचाल आ गया |

उसकी मम्मी उस पर जम कर बरस पड़ी | कौन सी भाषा थी, मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ी | एक पल तो मुझे लगा मैं यहाँ चुपके से खिसक जाऊं | पर यह तो गलत होता | मैं भी झाड़ खाने के लिए तैयार  हो गया | फिर शशांक बाहर आया |

"यार वो झाड़ू तो गन्दी है | उसमें कीड़े होंगे | आँगन साफ़ करते है न उससे |"

"चल, हैज की लकड़ी तोड़ते हैं |"

हम उसके घर की हैज के पास पहुंचे ही थे कि उसकी माँ ने फिर से आवाज दी और फिर झिड़कियाँ  |

शशांक बोला,"टुल्लू | शाम हो गयी है | हैज में बहुत सारे कीड़े होते हैं | छोड़ यार , पंखी नहीं उड़ाते | कुछ और बनाते हैं |"

"एक काम करते हैं बे  | तेरे पास पेन्सिल होगी ? पेन्सिल की नोक में फंसा कर उड़ाते हैं |"

दो बार झिड़कियाँ खाकर शशांक पस्त हो गया था | वह बोला, "पंखा छोड़ दे , टुल्लू | मैं तुझे एक चकरी बनाकर दिखाता हूँ |"

एक भीषण अनिच्छा का बोझ उठाये मैं उसके साथ बैठ गया | उसने कागज मोड़कर एक वर्गाकार टुकड़ा बनाया | फिर उसे  बीच से दो बार मोड़ा |पेन्सिल से निशान लगाकर उसे फाड़ा जब उसने कागज़ के मोड़ खोले तो वह करीब गोलाकार टुकड़ा था | उस गोलाकार टुकड़े के किनारे किनारे वह थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हल्का सा फाड़ता और नए खंड को एक दूसरे के विपरीत दिशा में मोड़ देता | थोड़ी ही देर में एक चक्का तैयार हो गया | अभी उसने ज़मीन  पर रखा ही था कि हवा का एक झोंका आया और चक्का अपने आप तेजी से चल पड़ा |

"अबे, ये तो भाग रहा है | पकड़ उसको |" हम दोनों उसके पीछे भागे |

वह कागज़ का चक्का जहाँ जहाँ जाता, हम उसके पीछे पीछे भागते | न तो उसकी किलकारी रुक रही थी, न मेरी हँसी | अब वह रुका एक साड़ी से टकराकर |

सामने चश्मा लगाए शशांक की मम्मी गंभीर मुद्रा में खड़ा थी | हम दोनों ठिठक गए |

"तो तेरा नाम टुल्लू है ?" उन्होंने पूछा |

"हाँ , आंटी   |"  पर नाम तो मैंने पहले ही बताया था |

"तू भागकर सर्कस गया था ?"

बात गलत थी | मैं भागकर नहीं चलकर गया था | या चलते भागते गया था | पर बड़ों को जवाब देना गलत बात होती है | मैं चुप रहा |

मैं ज़मीन क़ी ओर देख रहा था | ज़मीन फट जाती और मैं अन्दर समां जाता |

"तू सर्कस क्यों गया था ?"

"देखने ....| सर्कस देखने ...|"
 
"सर्कस देखने ?"

"नहीं, सर्कस देखने नहीं ...| सर्कस 'देखने'| " हे भगवान , इस सवाल का कितने बार मैंने खुलासा किया था |

 समझाना कितना मुश्किल था |

तुझे मालूम है, सर्कस  कितनी दूर था ?"

"नहीं |"

"अकेले गया था ?"

"नहीं , मुन्ना भी था |"

"मुन्ना कौन ?"

"मेरा दोस्त | पर अभी दोस्त नहीं है | खट्टी हो गयी |"

"क्या हो गयी ? क्यों ?"

"खट्टी हो गयी आंटी |"

"क्यों ?"

मैं काफी देर तक चुप रहा | फिर हिम्मत करके बोला ,"वो लोग छोटे को पीटने का 'पिलान' बना रहे थे |"

उसकी मम्मी को कुछ समझ में आया , कुछ नहीं | फिर उसने शशांक से उड़म -गुडम  में कुछ बातें क़ी फिर बोली ,"तूने उसकी मम्मी को बताया ?"

"नहीं |" इस बात का औचित्य ही मेरे पल्ले नहीं पड़ा |

"तू 'अबे' तुबे, बे, साले क्यों बोलते रहता है ? कहाँ से सीखा तूने ?"

"पता नहीं |" मैंने कहा |

"तुझे मालूम है , ये सब गन्दी बात है ?"

मैं फिर चुप रहा | मुझे लग रहा था, किसी भी क्षण मेरी आँखों से आंसू टपक जायेंगे |

.....भगवान्, मुझे छुटकारा दिला दो प्रभु |
 
सच्चे दिल से प्रार्थना करो तो भगवान जरुर मदद करते हैं | खास कर छोटे बच्चे क़ी |
 
... और तभी शशांक के पापा अपनी फेंटा विलास पर ऑफिस से आ गए |

घनी काली मूछें , सर पर पीले रंग का हेलमेट .... | फेंटा विलास की आवाज़ सुनते ही शशांक के कान खड़े हो गए थे | जैसे ही फेंटा विलास रुका, वह गेट की ओर दौड़ा  |
 
"पापा आ गए | पापा आ गए |"

सबके चेहरे पर ख़ुशी थी | शशांक के, उसके पापा के, उसकी मम्मी  के ... और मेरे भी ...|

मेने ठान लिया था कि जब तक ये पारिवारिक प्रसन्नता का माहौल वातावरण में छाया है , चुपके से खिसक लिया जाये | मैं दबे पाँव गेट क़ी ओर बढ़ा | शिष्टाचार, अच्छे बालक के आचरण जाये भाड़ में ... फंसी  गर्दन निकालकर भागो |  उसके बाद सपने में भी कभी इधर रुख करने की जरुरत नहीं | शशांक अभी भी अपने पापा से अडम-गडम करके कुछ पूछ रहा था | मैंने इतने हलके से गेट खोला कि आवाज़ भी नहीं हुई | एक बार सड़क पर पहुँचते ही मेरे क़दमों में तेज़ी आ गयी |

अचानक उन क़दमों पर मानों बेड़ियाँ पड़ गयी |

"टुल्लू" शशांक ने आवाज़ दी |

इस पुकार की दो प्रतिक्रया हो सकती थी | या तो उस पुकार को अनसुनी कर दिया जाए और क़दमों की रफ़्तार और तेज़ हो जाए |
 
या तो फिर कदम ठिठकें और थम जाएँ |फिर पीछे मुड़ें औऱ  वापिस चले जाएँ |

हे भगवान | आखिर ऐसा क्यों हुआ ? मेरे कदम वापिस हो गए और मैं फिर शशांक की ओर खिंचा चला आया , पर एक अपराधी भाव लिए.... |

"टुल्लू | कहाँ जा रहा है ?"

"घर जाना है यार | देख , अँधेरा हो रहा है | "

"बस दो मिनट रुक जा | मेरे पापा आल पिन दे रहे हैं | तू फिरकी  बनाकर दे दे | फिर चले जाना |"

कोई चारा भी नहीं था |
 
कागज़ के उस फार्म से मैंने वर्गाकार काटने के लिए हाशिये को अच्छे से मोड़ा और नाख़ून से दबाकर वह उंगली हाशिये में फेरी |
 
फिर कागज़ फाड़ने लगा |

"अरे भाई | हाथ से क्यों फाड़ रहे हो ? टेढ़ा-मेढ़ा फट जायेगा | कैंची से काट लो |" मुझे क्या मालूम था, उसके पापा भी हमारी गतिविधियाँ देख रहे हैं |

"नहीं अंकल , ऐसे ही ठीक है |" मैंने कहा और चर्र से कागज़ फाड़कर वर्गाकार टुकड़ा तैयार कर लिया |

तब तक उसके पापा एक छोटी कैंची लेकर हाजिर हो गए |

यह एक तरह से अच्छा ही हुआ | अब इस वर्गाकार कागज़ के कर्ण पर, चारों ओर , कुछ दुरी तक काटना था  | शशांक और उसके पापा दोनों देख रहे थे | मैंने कागज़ मोड़ा और कर्ण पर दोनों ओर से दो चीरे लगाए | फिर दूसरे कर्ण पर कागज़ मोड़ा और दोनों ओर से दो चीरे लगाये | कागज़ के चारों खण्डों का एक एक सिरा केंद्र की ओर मोड़ा और पिन घुसा दिया | फिरकी तैयार थी |मैंने आल पिन अपने हाथ में पकड़कर अपनी ही जगह पर जोर से घुमा | फिरकी घूमने  लगी |

"इसके हेंडल के लिए क्या करोगे ? " शशांक के पापा ने पूछा |

" पता नहीं |" फर अचानक मेरे मुंह से बात टपक गयी ,"हम लोग तो सींक वाली झाड़ू की सींक ले लेते हैं | पर वो तो ....|"

"अरे वाह | अच्छा आइडिया है | " मेरी बात के आखिरी हिस्से को अनसुना कर वे आँगन में गए और जब लौटे तो उनके हाथ में बांस की झाड़ू की मोटी सी सींक थी ....|

शशांक की मम्मी चाय लेकर आई | शशाक के पाप ने चाय का प्याला लिया | उसकी मम्मी ने शशांक से कुछ कहा |

 शशांक के कुछ बोलने से पहले ही उसके पापा बोले ,"चाय पिएगा ?"

"नहीं अंकल  |" ये न केवल शिष्टाचार का तकाजा था, बल्कि ये इंकार मेरे दिल के तह से आई थी |

"क्या बात है ? अच्छा , अच्छे बच्चे चाय नहीं पीते | क्यों ? चाय पीने से कान काले हो जाते हैं | फिर क्या पिएगा ?"

थोड़ी देर सोचकर मैंने कहा , "एक गिलास पानी |"
 
अगले घंटे भर तक हम कागजों से खेलते रहे | उल्टा सीधा , उल्टा सीधा - मोड़कर मोर का पंख बनाना तो सबको आता था | मैंने कागज़ का मच्छर बनाकर दिखाया , जिसकी दुम  पकड़कर खींचने से पंख हिलते थे | शशांक के पापा खुश हो गए | उन्होंने जेब से पेन निकाली और मच्छर के मोटे मोटे आँख बना दिए | फिर कागज़ को मोड़कर उन्होंने एक गुब्बारा बना दिया | नाव बनाना भी सब को आता था |
 
"अंकल , मैं चक्कू  वाली नाव बनाऊं ?"

"चक्कू वाली नाव ? "

"हाँ उसके नीचे में चाकू लगे रहती है |"

"मैंने चाकू वाली नाव बनाई | जहाज बनाने में मेरा आत्मविश्वास कुछ कम था , क्योंकि  उसमें बहुत से मोड़ आते थे और मेरा अभ्यास कुछ कम था | फिर भी मैंने कोशिश करके जहाज बना ही दिया |

"तुम कौन से स्कूल में पढ़ते हो भाई ?"  उन्होंने पूछा |

"मैं स्कूल नहीं जाता अंकल |" मैंने मद्धिम आवाज़ में कहा ,"अगले साल जाऊँगा |"

 *************

छोटे का डर थोड़ा कम हो गया था | अब  वह मेरे साथ खेलने बाहर भी आने लगा |
 
सुबह की धूप में मैं , छोटा और शशांक खेल रहे थे | तभी पता नहीं कहाँ से , सोगा और मगिंदर छोटे पर झपट पड़े | हैज के झुरमुट  से लपक कर बाहर आ गए | | मुझे और शशांक का अस्तित्व ही उन्होंने नकार दिया | उनका लक्ष्य छोटा ही था | छोटे ने मगिंदर का हाथ काट खाया | उसकी पकड़ ढीली होते ही वो घर क़ी ओर भागा | हरे रंग कमीज़, जिसके छाती पर कुराशिये से एक कीड़े क़ी डिज़ाइन बनी थी , मुन्ना के हाथ लगी और 'चर्र ..' | शायद उसके एक या दो चिपी बटन भी टूट गए |सब कुछ इतने जल्दी हुआ कि एक पल तो मैं और शशांक हतप्रभ रह गए |आवाज़ ही लुप्त हो गयी | हाथों को लकवा मार गया | पाँवों में कील ठुक गयी उस क्षण | अगले ही क्षण पता चला कि मगिंदर अपना हाथ झटक रहा था ,"साले ने काट लिया बे | देख खून निकल रहा है ...| दाँत का छप्पा बन गया है ...|"

"चूस ले बे ... चूस ले ...|" जाते-जाते बबन बोल रहा था |

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इस घटना ने छोटे को अब बिलकुल अलग थलग कर दिया | अब बुलाने से भी वह आता नहीं था | जब वह बाहर आया तो उसे एक बिलकुल नया दोस्त मिल गया था |

इस घटना के बाद शशांक भी गायब हो गया | अब वो कभी घर से बाहर खेलने आता नहीं था | कई बार उसके घर के दालान में, माँ और बेटा - दो चश्मे वाले बैडमिंटन खेलते दिख जाते थे |

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दीपक तो था दुल्लू का चमचा ... और दुल्लू था लफंगा, बदमाश , बदतमीज़  ....दीपक के बब्बा के शब्दों में "आवारा " .. | घर वालों की मार पीट का उस पर विपरीत असर पड़ता था और वह दिन पर दिन ढीढ होते जा रहा था | यहाँ तक कि एक दिन उनके सब से बड़े भाई तपन ने उसे नंगा करके बारिश  में बाहर खड़ा कर दिया , फिर भी उस पर असर नहीं हुआ |

दीपक था दुल्लू का लटकन | एक दिन दीपक की दादी 'अम्मा' दीपक को खोजते  मैदान में आई | वैसे कोई नयी बात नहीं थी | बच्चे अगर 'खो' जाते तो माता पिता को मालूम था कि वे मैदान में खेल कूद में 'खोये' हुए हैं | मैदान में उन्हें एक नज़र डालने भर की देर होती, वे कहीं न कहीं , किसी कोने में मिल जाते | या तो फिर किसी के घर किसी और बच्चे के साथ खेल रहे होते और सिर्फ एक या अधिक से अधिक दो बार पुकारने की जरूरत पड़ती और बच्चे गिरते पड़ते अपने घर की ओर दौड़ पड़ते | उस दिन दीपक के बब्बा ने हाथ में टॉर्च लेकर मैदान का चक्कर लगाया | दीपक की मम्मी ने कई बार हांक लगाईं | दीपक की अम्मा ने सड़क का चक्कर लगाया | जब बाइस सड़क में वह नहीं मिला और मैदान के दूसरी ओर के इक्कीस सड़क में उसे खोजा गया तो राजी के भाई  संजू ने बताया कि उसने उसे शाम को दुल्लू के साथ कहीं जाते देखा था |

'कहीं' यानी कि दुल्लू के साथ वह नेहरु हाउस के पास के बाग़, जिसे लोग 'छोटा मैत्री बाग़' कहते थे , वहां गया था | कुछ लोग कहते थे कि वे नेहरु हॉउस में पिक्चर देखने घुस गए थे | बहरहाल , जब वह घर आया तो उसको घर में घुसने नहीं दिया गया |
 
दुल्लू ने उसे खाना जरुर खिलाया लेकिन उसके बाद? मध्य रात्रि के अँधेरे में किसी तरह अपने घर के गेट से वह छलांग मारकर अन्दर घुसा और बरामदे में जाकर सो गया |

यह घटना सड़क में सब ओर आग की तरह फ़ैल गयी | सब को पता चल गया ...| सब को ....|

दीपक के मम्मी पापा को लगा कि इसका मूल कारण ये था कि दीपक अपनी उम्र से बड़े बच्चों के साथ , यानी दुल्लू  की सोहबत में बुरी आदतें सीख रहा  था |
 
तो इस तरह छोटे को अनायास ही एक दोस्त मिल गया , क्योंकि छोटा ही उसका निकटतम पड़ोसी था | देखा जाए तों छोटे को भी वैसे एक दोस्त की ही  तलाश थी | लोग दीपक से खार खाते थे  और अब सड़क के बाहर छोटा दीपक के साथ कभी रबर की बैट बॉल खेलता तों कभी बैडमिंटन  |

में नितांत अकेला ही रह गया |

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 मैं अपने घर की पटरी के पास उदास बैठा था | कभी पश्चिम के डूबता सूरज को देखता, कभी आकाश में उड़ते पक्षियों के झुण्ड को |
 
कान हमेशा कोई पुकार सुनने को आतुर थे | कोई तो पुकार ले |
 
"तो तू खेलने नहीं गया ?" शशि दीदी ने पूछा |
 
"किसके साथ खेलूं ? मैंने कहा | कोई मेरे साथ नहीं खेलता |"
 
"ठीक है | मैं तेरे साथ खेलूंगी | क्या खेलना है ?"
 
"छुआ छुई |"
 
"अरे वाह  ! ठीक है | मुझे छू के बताओ |"
 
मैं अनिच्छा से उठा | शशि दीदी पास में ही खड़ी थी | हाथ बढ़ा के देखा | नहीं | नहीं पुहुँच सकता | हाथ झटक के देखा | नहीं...| अब मैं तेजी से लपका और हाथ झटका | ये क्या ? मेरे हाथ में हवा ही लगी | शशि दीदी फुर्ती से पीछे हट गयी | मैं फिर तेजी से लपका | मुझे लगा कि मैं  पास पहुँच गया हूँ | फिर हाथ बढाकर छूने की कोशिश की |
 
मगर इस बार भी मेरे हाथ हवा ही लगी |  यह क्या बात हुई ? मैं तैश में आ गया | उनकी और फिर लपका | हाथ बढाया - मगर ....ढाक तीन पात ....|
 
ताज्जुब की बात क़ि शशि दीदी भाग नहीं रही थी | वो पीछे भी नहीं मुड़ी | एक हाथ से स्कर्ट सम्हाले, सिर्फ फुर्ती से इधर या उधर हट रही थी और मैं इधर उधर भाग रहा था |

"थक गए ?" मुझे हांफते देखकर उन्होंने पूछा |

इन शब्दों में छिपी ललकार ने उत्प्रेरक का काम किया | मैं उन्हें छूने फिर लपका | आखिर मैंने स्कर्ट का एक कोना कहीं से छू लिया |

मैं घुटने हाथ रखकर हांफ रहा था | अब उनकी बारी थी , मुझे छूने की |

"तैयार ?"

"हफ़ ... हफ़ .. |" एक मिनट ठहरो  | हफ़ ... हफ़ ....|"

"वाह | लड़के होकर इतनी जल्दी थक गए ?"

इन शब्दों ने फिर उत्प्रेरक का काम किया | और मैं तैयार हो गया | मैं उन से शुरु में ही करीब पाँच मीटर की दूरी पर खड़ा  था |
 
फिर भी मैं मुश्किल से दस मीटर दूर अमरुद के पेड़ के पास ही पहुंचा होऊंगा क़ि मैं पकड़ में आ गया | अब बारी तो मेरी थी, पर बड़े लोग अक्सर बड़ा दिल दिखाते हैं | 

"चल , एक बार और भाग ...|" ..... मैं फिर पकड़ा गया |

"अच्छा, चल एक बार और ...| और तू सीधे सीधे क्यों भागता है ? तेजी से इधर उधर मुड़ना सीख ...|"

ओह हो ... | ये तो गुर किसी  ने नहीं बताया ....|

और कितनी जल्दी अँधेरा हो गया ... | माँ ने उन्हें काम करने बुला लिया | खाना बनाने का वक्त हो गया था |

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(क्रमशः )