यकीन मानिये, पाठशाला परिसर काफी बड़ा था - आधिकारिक और अनधिकृत - दोनों ही दृष्टिकोण से |
आधिकारिक रूप से तार का एक घेरा था | किसी ज़माने में कंक्रीट के उन छोटे स्तम्भों में तार ऊपर तक तने हुए थे जो उसे एक घेरे का रूप देते रहे होंगे | लेकिन हमने उन्हें हमेशा ज़मीन चूमते हो देखा था | यानी वो ज़मीन पर शाला परिसर का सीमांकन जरूर करती थीं , किन्तु सीमा का निर्धारण नहीं | पूर्व में रामलीला मैदान था और दक्षिण में एक तालाब, जिसके आगे बाज़ार था | उत्तर की सीमा, बिजली के ट्रांसफॉर्मर कक्ष तक फैली थी| यानी वे तार करीब करीब सड़क तीन को छूते थे |
'अनधिकृत' इसलिए, क्योंकि शाला के समय वैसे तो हमें तार के बाहर जाना मना था | लेकिन चना मुर्रा वाली बाई, खोमचे वाला दौलत और आइसक्रीम के दो तीन ठेले , रेवड़ी और मूंगफल्ली वाले तार के बाहर ही बैठे रहते थे और आधी छुट्टी में हमें आशा भरी नज़रों से देखते थे | आधी छुट्टी को इस नियम का उल्लंघन करने वालों की कमी नहीं थी | जैसे खेमचंद बिहारीलाल - जो अपनी अचूक निशानेबाजी का कमाल दिखाकर तालाब के किनारे के वृक्षों से हर्रा तोडकर लाता था |
तालाब के किनारे आम के पेड़ों पर लगे मौर छोटे छोटे अमियों में क्या तब्दील होते थे कि लड़कों के झुण्ड पत्थर हाथ में लेकर चांदमारी पर उतर आते थे | 'तार के बाहर' वाले नियम अब भी थे | राजीव सिंह सहित कक्षा के कप्तानों को हिदायत थी कि नियम का उल्लंघन करने वाले बच्चों की सूची बनाकर नियमित रूप से बड़ी बहनजी को दें | मुश्किल ये थी कि सब तो गलबहियाँ यार थे | चना मुर्रा , रबड़ी या मूंगफली बांट कर खाते थे | और इसके बावजूद कोई क़ानूनची कप्तान निकलता था तो पूरी छुट्टी के बाद उसे पीटकर हिसाब चुकता कर लिया जाता था |
शायद यही सब भांप कर शाह बहनजी ने चुगलखोर लड़कियों की फ़ौज बनाई थी | अब भला लड़कियों से कौन उलझे ? लेकिन 'स' वर्ग कप्तान , राजीव सिंह , प्यारा दोस्त था और आप लोगों को याद होगा ही कि ,उसकी वानर सेना का हनुमान कौन था ('च' से चन्दन - भाग १)?
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परिवर्तन प्रकृति का नियम है | लेकिन जो बदलाव हमारी आँखों के सामने होना शुरू हुआ, वह सखदायी हरगिज नहीं था | दक्षिणी सीमा पर पत्थर की एक दीवार बनने लगी | और बड़े बड़े पत्थरों के ढेर हमारे उन खेल के मैदान में लगने लगे, जहाँ हम रशियन फुटबॉल को ठोकरें मारा करते थे | उड़ती सी खबर आने लगी कि दक्षिणी छोर पर तालाब के आसपास एक उद्यान बनने वाला है | पूर्वी छोर पर आधिकारिक सीमा में कोई परिवर्तन तो नहीं था था, मगर हाँ - रामलीला मैदान की सीमा पर भी पत्थरों का ढेर स्पष्ट दिख रहा था |
उत्तरी छोर की सीमा , तो सड़क तीन तक फैली हुई थी , अचानक सिमटने लगी | हवा में यह समाचार उड़ने लगा कि वहाँ एक कन्या शाला बनने जा रही है | हमने आँखें मल मल कर देखा - कंक्रीट के वे छोटे खम्बे अब शाळा की खिड़कियों के बिलकुल पास आ गए थे |
और रोष, खिन्नता, क्रोध, विद्रोह की भावना की चिंगारी वहीँ से ही पनप उठी |
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ऐसा नहीं था, लड़के ही नए आते थे | अब कक्षा में लीलावती और नसीम गयी तो एक नयी चंचल लड़की आयी - किरण | शैतानी में तो वो कलवंत से भी दो कदम आगे थी | उसके चेहरे पर हर समय शरारत भरी मुस्कान छायी रहती थी | जहाँ बाकी लड़कियां दो चोटी कर के आती थी (मुक्ता मिश्रा को छोड़कर, जिसकी एक बीमारी के कारण सारे बाल झाड़ गए थे और वह सर पर रुमाल बांधकर आती थी | अपवादस्वरूप कलावती के भी शुरू से छोटे छोटे बाल थे |), वहीँ किरण के बाल 'बॉब कट'नहीं, बल्कि 'बॉय कट' थे | अगर वो लड़का होती तो जरूर विनोद धर गैंग का पाँचवाँ सदस्य होती, पर लड़की होकर भी लड़कों के वो कान काटती थी | विनोद धर और उसके बीच जबरदस्त छींटाकशी होती थी | विनोद धर ने उसका नाम 'नाक चपटी ' रख छोड़ा था |
किरण काफी बेबाक थी | दो साल बाद, जब हम लोग पांचवीं में थे - तब एक बार सड़क छह में मेरी साइकिल पंचर हो गयी थी | मैं साइकिल लुढ़काते हुए पंचर दुकान खोज ही रहा था कि किसी ने मुझे आवाज़ दी ,"विजय सिंह" | मैंने देखा तो अपने घर के गेट पर किरण खड़ी मुस्कुरा रही थी | उसकी मां बरामदे में बैठी गेहूं साफ़ कर रही थी | आज ये बातें सामान्य सी लग सकती हैं, पर उन दिनों जब किसी लड़की से बात करना ही बहुत बड़ी बात मानी जाती थी - अपनी मां की नाक के नीचे किरण ने ही मुझे बताया कि साइकिल की दूकान कहाँ पर है |
एक दिन विनोद धर को न जाने क्या सूझा , उसने किरण के जूते के अंदरूनी हिस्से में लगा सोल का लाइनर निकाल कर छुपा दिया | इस कारस्तानी को कार्यरूप देने के लिए विनोद धर कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा | आधी छुट्टी में हम लोग जूते उतार कर नंगे पाँव ही दौड़ भाग करते थे | छोटी मुरम वाले में मैदान में चमड़े के जूते पहन कर भाग दौड़ना , यानी चोट लगने को दावत देने जैसे था | फिसले तो घुटना फ़ूट जाता था, कोहनी छील जाती थी , कमीज भी फट जाती थी |
किरण जब वापिस आयी तो परेशान | जूते का लाइनर कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी | परेशानी की वज़ह ये थी कि शरारत आख़िर किसने की ? उसे जो अंदेशा था, उसकी पुष्टि होने में ज्यादा समय नहीं लगा | आधी छुट्टी ख़तम होने के बाद विनोद धर कक्षा में आया , अपने डेस्क के खोके से उसने लाइनर निकाला और बुरा सा मुंह बनाकर जोर से चिल्लाया,"किसका है ये ?"
दो उँगलियों से पकड़कर लाइनर हवा में कहराते हुए वो बोला ,"किसका है ये ? ले जाओ | बदबू मार रहा है | "
फिर जानबूझकर किरण से पूछा ,"नाक चपटी , तेरा है ?"
"नहीं तो |" किरण भी भोलेपन से बोली |
"अपना जूता उतार के देख |" इंदिरा उसके बगल में बैठी थी | "इंदिरा, उसके जूते में देख तो |"
अब किरण को हार मानने के सिवाय कोई चारा नहीं था |
"ठीक है | मेरा है |"
"तो आकर ले जा |" विनोद धर ने उसे डेस्क में पटक दिया |
"तू दे दे |"
"तू ले जा |"
दो तीन बार ऐसी "तू -तू " के बाद अंततः विनोद धर ने कहा,"ठीक है | ले पकड |" उसने लाइनर इस तरह उछाल के फेंका मानो मरा हुआ चूहा फेंका हो |
"तुझे कैसे मालूम ये मेरा था ?" किरण को अब भी संदेह था |
"बाप रे बाप ! क्या जोर से बदबू मार रहा था |" विनोद धर ने उसकी शंका का निवारण किया |
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"बहनजी , मैं 'नॉन बी. एस. पी. हूँ |" ये मेरे लिए तिनके का सहारा था | लेकिन कालकर बहनजी ने बड़ी निष्ठुरता से वह तिनका छीन लिया ,"बी.सी.जी. का टीका बी. एस. पी.,, नॉन बी. एस. पी., ऑफिसर सब को लगेगा | चलो, लाइन में खड़े हो जाओ | "
मन मारकर मैं भी लाइन में खड़े हो गया | सबके चेहरे लटके हुए थे | बहन जी के पीछे पीछे वे चींटी की चाल से चलते हुए मानो मौत के मुंह की और बढ़ रहे थे | छुट्टी के घंटे के पास से होते हुए सब बहनजी के दफ्तर के पास पहुंचे वहीं पक्के घाघ की तरह मुंह में कपडे बांधे हुए कम्पाउण्डर और डॉक्टर खौलते हुए पानी के पास खड़े थे, जिसमें इंजेक्शन गरम हो रहे थे |
लड़कियों की कतार में सबसे आगे राजकुमारी खड़ी थी और लड़कों की कतार में सबसे आगे उदास मुंह वाला लम्बा विष्णु खड़ा था | उसके ठीक पीछे चन्दन था जो बार- बार विष्णु के पीछे से उबलती हुई देगची में झांककर देख रहा था | राजकुमारी ने अपनी बांह आगे की और आँख मूंद ली | अगले ही क्षण वो जोर से चिल्लाई | दहशत के वो बादल दस गुने ज्यादा घने हो गए |
विष्णु न चीखा, न चिल्लाया | लेकिन वो तो वैसे ही सुख-दुःख से ऊपर उठ चुका प्राणी था |
विनोद धर का चेहरा देखकर बगल में लड़कियों की लाइन में खड़ी किरण की मुस्कान और चौड़ी हो गयी | उन दोनों लाइनों में केवल किरण ही मुस्कुरा रही थी |
"डर लग रहा है ?" उसने विनोद धर से अनावश्यक प्रश्न पूछा |
"मुझे इंजेक्शन से हमेशा डर लगता है |" विनोद धर थूक निगलते हुए बोला |
अगला नंबर चन्दन का था | विष्णु के निर्विकार मुख से कुछ पता नहीं चला था | दर्द का परीक्षण चन्दन के अनुभव से ही होने वाला था | चन्दन दूसरी और देख रहा था | वह न चीखा , न चिल्लाया | डॉक्टर ने सुई निकालकर उसकी बांह में रूई का फोहा लगाया और कहा,"जाओ |"
"हो गया ?" चन्दन को सहसा विश्वास नहीं हुआ |
"हाँ | अब जाओ |" डॉक्टर ने उसके पीछे खड़े जीवन लाल की बांह थाम ली |
"देखा?" किरण बोली," नर्स लोग इतने आराम से इंजेक्शन लगाते हैं कि पता भी नहीं चलता |"
चन्दन बगल से गुजर रहा था | विनोद धर को देखकर रुक गया ,"डर क्यों रहा है बे ?"
"दर्द हुआ?" विनोद धर ने पूछा | चन्दन बोला ,"ऐसे लगा, जैसे लाल चींटी काटी हो |"
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घर में परछी में बाबूजी ने एक बोर्ड लगा रखा था , जिस पर लिखा था,"सदा सच बोलो |"बस, केवल एक ही वाक्य !
भाषा , गणित भूगोल और विज्ञानं - ये तो मुख्य विषय थे | इसके अलावा दो दो विषय और पढ़ाये जाते थे - स्वास्थ्य शिक्षा और नीति शिक्षा | जहाँ स्वास्थ्य शिक्षा विद्यार्थियों के बाह्य स्वास्थ्य के लिए आवश्यक थी, वहीँ नीति शिक्षा आतंरिक स्वास्थ्य के लिए | नीति शिक्षा का मुख्यपृष्ठ कुछ ऐसा था - मानो दिवाली के दिन कोई चकरी चल रही हो | नीति शिक्षा कहानियों का संग्रह हुआ करती थी | तीसरी से लेकर आठवीं तक हमें नीति शिक्षा पढाई जाती थी | हर वर्ष विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास के साथ साथ कहानियों की जटिलता भी बढ़ते जाती थी |
किन्तु हर कहानी में एक प्रश्न जरूर होता था - इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
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शाम ढल चुकी थी | अब प्राथमिक शाला नंबर आठ का परिसर उत्तरी सीमा पर सिकुड़ चुका था | उस खाली जगह नयी दीवारें, इमारत खड़ी हो रही थी | जगह जगह ईंट, रेत , गिट्टी , सीमेंट का ढेर लगा रहता था | लोहे की मोटी , पतली छड़ें भी इधर उधर पड़ी थी | हम लोग नंगे पॉव ही खेलने जाते थे, क्योंकि रामलीला मैदान छोटी मुरम वाला मैदान था | कई बार हमारे पैरों से लोहे की छड़ के छोटे छोटे, चार छह इंच के, टुकड़े टकराते जो कि किसी काम के नहीं थे | उलटे अगर उनका वो सिरा, जो छैनी से काटा जाता था , किसी के पांव में चुभ जाय तो भयंकर दुष्परिणाम हो सकते थे |
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आगे बढ़ने से पहले कुछ बातों पर एक बार फिर नज़र दौड़ा लें |
पाठशाला में परिसर के बाहर चने मूंगफली, रबड़ी , खोमचे और आइसक्रीम वाले बैठे रहते थे | वो हमें आशा भरी नज़रों से देखते थे और हम इनके डब्बों को ललचाई नज़रों से |
उत्तरी सीमा सिकुड़ गयी थी, क्योंकि एक भवन का निर्माण प्रारम्भ हो गया था |
तार के बाहर जाना मना था |
हालाँकि इस नियम का उल्लंघन काफी कुछ मान्य हो चूका था, क्योकि यह भारत था | फिर भी नियम तो नियम था | ये बात अलग है कि अच्छे बच्चे, जो अधिक की संख्या में थे, (जिनमें मैं भी एक था), इस नियम का अक्षरशः पालन करते थे | बाहर जाने की आवश्यकता ही क्या थी ? जेब में पैसे तो थे नहीं - किसी के भी जेब में नहीं | पांच दस पैसे भी बड़ी रकम थी हमारे लिए | कटे-फटे अमरुद, मक्खी भिनभिनाते हुए मुर्रे के लड्डू, पता नहीं, कहाँ के गंदे पानी से बनी आइसक्रीम खाकर बीमार पड़ने से तो अच्छा था कि उस और झाँका ही न जाए |
बात ये थी कि अंगूर खट्टे थे |
सबसे पहले सुरेश बोपचे ने इसका तोड़ खोजा |
एक दिन वह बड़ी शांति से आइसक्रीम चूसते मिला |
"आइसक्रीम ?" विनोद धर ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा |
"अबे, बहुत आसान है | आइसक्रीम वाले को लोहे की 'रॉड' का टुकड़ा दे दे | जितनी बड़ी रॉड होगी, उतनी आइसक्रीम |"
यानी उसके कहने का तात्पर्य यह था कि अगर एक बित्ता लोहे का टुकड़ा मिल जाए तो एक आइसक्रीम |
फिर क्या था ?
अगले दिन से चन्दन, विनोद धर , भोला गिरी और कुछ और लड़को का ये शगल बन गया | अब आधी छुट्टी में खेल कूद सब बंद | करीब करीब पूरी आधी छुट्टी में वे लोहे के टुकड़े की तलाश में परिसर की सीमा लाँघ कर उत्तरी छोर पर निकल जाते, जहाँ भवन निर्माण का कार्य चल रहा था | कहीं न कहीं से लोहे का कोई न कोई टुकड़ा तो मिल ही जाता था | भोला गिरी को जब आइसक्रीम मिलती तो वह जान बूझकर 'ड' कक्षा की लड़कियों को दिखा दिखाकर खाता - जो करना है, कर लो | हम आशिक हैं, हम नहीं सुधरेंगे |
जब इन्हें लोहे का अतिरिक्त टुकड़ा मिलता, तो वे अतिरिक्त आइसक्रीम सबसे पहले राजीव सिंह को देते | रिश्वत? अरे नहीं, उन दिनों रिश्वत वगैरह की बात दिमाग में आती ही कहाँ थी ? यह विशुद्ध प्रेम था | राजीव सिंह कक्षा में अव्वल आता था और वह सबसे लोकप्रिय था | घमंड उसे छू तक नहीं गया था | दूसरी आइसक्रीम लोग श्रद्धानुसार कभी मनमोहन, कभी अशोक या कभी मुझे भी दे देते थे | उसके बाद भी लोहे का कोई और टुकड़ा मिल जाता तो सूर्य, प्रमोद, विवेक, सुबोध - कितने सारे दोस्त थे | कई बार ऐसा भी होता कि एक ही लोहे का टुकड़ा मिलता और फिर लोग आइसक्रीम को नुकीले पत्थर से तोड़कर आपस में बाँट लेते |
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अजीब सा संयोग था कि उस दिन चन्दन आधी छुट्टी का घंटा बजते ही घर के लिए निकल गया | कारण मुझे याद नहीं , पर शायद उसके घर में कोई पूजा थी | अर्थात संयोग दैवयोग में बदल गया |
वह तस्वीर भूले नहीं भूलती | उत्तर पश्चिमी सीमा, जहाँ शाला के भवन की आखिरी कक्षा, पांचवी 'स' का कमरा था, उसके बगल से विनोद धार की नाटी लेकिन बलिष्ट काया प्रगट हुई | चेहरे पर शरारत भरी कम, सफलता की द्योतक ज्यादा, चौड़ी मुस्कान, बेतरतीब बाल, कमीज के सामने का वह हिस्सा तो पोशाक के नियमानुसार पैंट में खोंसे होना चाहिए, आधा अंदर और आधा बाहर , दौड़ते हुए क़दमों में चपलता .. !
... और दोनों हाथों से कार के स्टीयरिंग की तरह झूलाते हुए एक लोहे की छड़ साफ़ परिलक्षित हो रही थी | छड़ करीब करीब विनोद धर की कुल ऊंचाई के आधे से भी ज्यादा थी | यानी करीब साढ़े तीन फुट !!
वह दृश्य विस्मयकारी, आल्हादकारी, लोमहर्षक होने के साथ साथ काफी भयावह भी था | इतनी बड़ी रॉड पर 'चोरी' का ठप्पा साफ़ साफ़ लगा था | लेकिन शाला परिसर के संकुचित होने का जो आक्रोश सबके दिल में समाया था, उसने उस गुनाह को मानो धो डाला |
अब समस्या उस लोहे की छड़ को आइसक्रीम वाले तक ले जाने की थी जो पूर्वी छोर पर बैठे रहते थे | शाला भवन अंग्रेजी के 'एफ' अक्षर की तरह था | यदि भवन के पीछे से पूर्वी छोर पर जाएँ तो उन लोगों की नज़र अवश्य उस छड़ पर पड़ेगी, जहाँ से विनोद धर उसे उठा कर लाया था | यदि भवन के सामने जाएँ तो निश्चित रूप से आधी छुट्टी के समय बाहर खेलते कूदते शोर मचाते बच्चों के बीच से जाना पड़ेगा | छड़ इतनी बड़ी थी कि उसे सूर्य की तरह छिपाया नहीं जा सकता था | ना केवल बच्चों का समूह कौतहालवश पीछे लग सकता था, अपितु वह शिक्षकों का भी ध्यान आकृष्ट कर सकता था |
चन्दन था नहीं | भोला गिरी पहले ही छिटक चुका था | अब लोहे की छड़ को आइसक्रीम में परिवर्तित करने की जिम्मेदारी विनोद धर और सुरेश बोपचे के हाथ में थी | खतरा दोनों और से था, लेकिन फिर उन लोगों ने सामने से ही जाना पसंद किया |
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एक दो नहीं, पूरी आठ आइसक्रीम .. | सुरेश बोपचे ने लड़ झगड़कर एक आइसक्रीम और भी ले ली | वे सारे दोस्त, जो नुकीले पत्थर से एक आइसक्रीम के चार टुकड़े करके खाते थे, अब एक-एक पूरी आइसक्रीम हाथ में पकडे थे | लाल, पीली, हरी आइसक्रीम ! वैसे आइसक्रीम हाथ में आई ही थी कि आधी छुट्टी के ख़तम होने का घंटा बज गया | यानी लुत्फ़ उठाने का समय ही नहीं बचा | मैंने ठंडी ठंडी आइसक्रीम दांत से काटी, किसी तरह निगला और कक्षा के अंदर सरक गया |
पर सारे ऐसे नहीं थे | सुरेश बोपचे तो इतमिनान से आइसक्रीम चूसते हुए कक्षा की और बढ़ा | फल यह हुआ कि एक तरफ से वह कक्षा की और बढ़ रहा था और दूसरी तरफ- सामने से कालकर बहनजी आ रही थी | पता नहीं, आइसक्रीम में ऐसा क्या स्वाद था कि उसने आइसक्रीम फेंकी भी नहीं, बस चूसते रहा | यहाँ तक कि कक्षा के बाहर खड़े होकर भी चूसते रहा | जब आइसक्रीम ख़तम हुई तब वह कक्षा के अंदर घुसा |
कालकर बहनजी उसी का इंतज़ार कर रही थी |
"तुमने आइसक्रीम खाई ?"
"जी बहन जी |" उसने बिना किसी लाग लपेटे के स्वीकार कर लिया |
"यहाँ खड़े हो जाओ | " कालकर बहनजी ने शिक्षिका के डेस्क के बगल में इशारा किया |
"और जिन-जिन लोगों ने आइसक्रीम खाई, सब यहाँ आ जाओ |" कालकर बहनजी ने आदेश दिया |
इतना कहकर कालकर बहन जी तो कक्षा के बाहर चले गयी, लेकिन इस ब्रह्म वाक्य ने मुझे बहुत बड़े धर्मसंकट में डाल दिया |
हमें नीति शिक्षा क्यों पढ़ाई जाती है ?
बाबू जी ने बोर्ड पर क्यों लिखा था- सदा सच बोलो ?
जब सत्य की ही विजय होती है और 'साँच को आंच नहीं तो सत्य से रु-ब-रु होने से घबराना कैसा ?
अगर सच की जीत होगी तो किस रूप में होगी ? क्या कालकर बहनजी हमारी ईमानदारी से खुश होकर हमें माफ़ कर देंगी ?
और अगर सजा मिली तो भी जिन दोस्तों ने कार्य को अंजाम दिया था, उनको ही क्यों सज़ा मिले ? उन्होंने निःस्वार्थ भाव से सबको आइसक्रीम बांटी तो थी | अगर इन्हें मार भी पड़ेगी तो भी ये कभी हम लोगों का नाम नहीं बताएँगे | तो क्या नैतिकता का तकाज़ा नहीं है ये कि मार और अपमान का दर्द सहने में उनका भागीदार बना जाये ?
सतत और पैने विचार की इन तेज़ धाराओं में मैं ऐसे बह गया कि मेरे कदम मुझे वहाँ ले गए, जहाँ सुरेश बोपचे खड़ा था | झेंपती मुस्कान के साथ मैं इधर-उधर देखते, कभी हाथ बांधकर, कभी स्वेटर खींचते खड़े रहा |
विनोद धर को आना ही था और अगले ही क्षण वो आकर मेरे बगल में खड़े हो गया |
मुझे ऐसी कोई भी आशंका नहीं थी कि मेरी ईमानदारी कोई दूरगामी असर छोड़ेगी | पर अगले ही क्षण राजीव सिंह और फिर मनमोहन मेरे साथ आकर खड़े हो गए | राजीव सिंह का आना जो हुआ, फिर तो कतार सी लग गयी | आइसक्रीम खाने वाले जो लोग हिचकिचा रहे थे , उन सबको अंतरात्मा की आवाज़ कचोटने लगी | वे स्वतः उस छोटी भीड़ का हिस्सा बन गए | आधे से ज्यादा लड़के कालकर बहनजी की डेस्क के पास खड़े थे | जो लोग नहीं थे, उनमें थे, भोला गिरी , दिलीप, अशोक भोपले और एकाध अन्य |
लड़कियों के पल्ले कुछ पड़ा, कुछ नहीं |
तभी कालकर बहनजी ने कक्षा में प्रवेश किया | पहले तो उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया कि इतने लोग उनकी मेज के पास क्यों खड़े है ! और कौन हैं वे सब ? कक्षा के कप्तान , उपकप्तान , ज्ञानी, ईमानदार, बदमाश ,फिसड्डी - सब कंधे से कंधा मिलाये | फिर सुरेश बोपचे को देखकर उन्हें सब याद आ गया |
"अरे भगवान् |" उनका वक्तव्य एक बुदबुदाहट से शुरू हुआ | उनको अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था | "तो तुम सब लोगों ने आइसक्रीम खाई |" उन्होंने अपने आप को संयत किया ,"तुम लोगों को मालूम है ना कि जब स्कूल चल रहा हो तो तार के बाहर जाना मना है ? और खोमचेवालों से खरीदकर खाने में पूरी तरह पाबन्दी है | क्यों राजीव सिंह ? तुम तो कक्षा के कप्तान हो , तुम्हें तो पता होना चाहिए | अरे, तुम्हारा तो काम था, ऐसे लोगों की लिस्ट बनाते |" फिर वे एक क्षण के लिए रुकी , मानो इतने लड़कों की भीड़ से संतुष्ट नहीं थी। "और कौन कौन था ? '"
विनोद धर बोला ,"अशोक तू भी तो था|"
अशोक भोपले ने साफ़ मना कर दिया,"मैंने आइसक्रीम वापिस तो कर दी थी | याद है? सुरेश बोप्चे को पकड़ाया था ?"
कालकर बहनजी की आवाज़ फिर धीमी हुई "आइसक्रीम के लिए तुम लोग को पैसे कौन देता है ? तुम्हारे माँ बाप ? पालक-शिक्षक समिति की मीटिंग में तो सब अभिभावकों को कह दिया गया था - बच्चों के हाथ पैसे मत भेजो | और किसने आइसक्रीम खाई ?"
दिलीप की मुस्कान कभी चौड़ी होती, कभी सिमटती | बीच बीच में वो भोलेपन से लड़कियों की और देखता | भोला गिरी आराम से बैठा था | अचानक सुरेश बोपचे बोल पड़ा, "भोला गिरी, तूने भी तो ..| "
भोला उसकी बात काटकर बोला ,"मैं अपनी 'रॉड' खुद लेकर आया था |"
स्वावलम्बी और स्वाभिमानी भोला के इस वाक्य ने इस पूरी घटना की दिशा और दशा ही बदल दी |
अब तक की सूचना के आधार पर मामला कुछ इस प्रकार बन रहा था -
(१ ) कुछ या सारे लड़के शाला के नियम का उल्लंघन करके तार के बाहर गए थे |
संभव है , राजीव सिंह जैसे अच्छे लड़के इसमें शामिल न हों | विनोद धर या सुरेश बोपचे जैसे शरारती लोगों ने यह भूमिका निभाई हो |
(२) खोमचे वालों से सामान खरीद कर खाना वर्जित था | इसके बावजूद इन लड़कों ने आइसक्रीम खाई |
ये अपराध कोई बहुत संगीन नहीं थे | और इसमें शामिल लड़कों की संख्या और गुणवत्ता देखते हुए इसकी गंभीरता और भी कम हो जाती थी | यह एक अनुशासनहीनता का मामला ज्यादा था | कालकर बहनजी सबको एक-एक दो-दो लड्डू और सख्त चेतावनी देकर अपने स्तर पर ही इसे निपटा सकती थी | कक्षा का मामला कक्षा में ही दफ़न हो जाता |
लेकिन भोला गिरी का उत्तर सुनकर कालकर बहनजी के कान खड़े हो गए |
कैसी छड़ ? कौन सी छड़? भोला कहाँ से छड़ लाने की बात कर रहा था ? उसका आइसक्रीम से क्या सम्बन्ध था ? भोला अपनी छड़ खुद लेकर आया था तो बाकी लोगों की छड़ कौन लेकर आया था ?
कालकर बहनजी को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी | अगले दस मिनटों में जब भांडा फूटा तो कालकर बहनजी सकते में आ गयी |
सरासर चोरी थी वो !
मामला इतना भारी भरकम था कि कालकर बहनजी खुद नहीं सम्हाल पायी | वर्ग 'ड' से वह शाह बहनजी को बुला लाई |
"मैंने सिर्फ पूछा", कालकर बहनजी शाह बहनजी को शांत स्वर में बता रही थी," और किसने किसने आईस्क्रीन खाई | और ...", बात अधूरी छोड़कर उन्होंने हमारी और इशारा किया |
"लड़कों की संख्या और गुणवत्ता" एक तरफ और मामले की भयावहता दूसरी तरफ - शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि लड़कों को कूटने के काम में शाह बहनजी उनकी मदद करेगी | शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि शाह बहनजी उन्हें सलाह दे कि आगे क्या किया जाए ? लेकिन शाह बहनजी ने धुलाई करके अपने हाथ गंदे नहीं किये | बल्कि ऐसे तीखे व्यंग्य बाण छोड़े कि कम से कम मैं तो मानो ज़मीन में गड गया | कैसी जीत थी ये सच्चाई और ईमानदारी की !
लेकिन अब जो कुछ हुआ था उसका खामयाज़ा तो भुगतना ही था |
"इनको बड़ी बहनजी के पास ले जाओ |" सलाह के नाम पर शाह बहनजी ने कालकर बहनजी को यही सुझाया |
तो मामला अब कक्षा के बाहर निकल चुका था | सारे के सारे अभियुक्त लड़के कक्षा से निकलकर कालकर बहनजी के साथ बरामदे से गुजरे | 'ड' वर्ग के सामने से गुजरते समय शाह बहनजी ने जले पर नमक छिड़का ,"ऐ शूरवीरों, कतार बनाकर जाओ | "
मेरी और राजीव सिंह की बहनें निचली कक्षाओं में थीं | क्या उन्होंने देखा था कि उनके अपराधी भाई किस तरह बड़ी बहनजी के कक्ष की और जा रहे हैं ? क्या राजीव सिंह की मां सिंह बहनजी को इसकी खबर मिल चुकी है ?
हमारे पक्ष में शायद जोई तर्क नहीं था | यह भी नहीं कि हमें मालूम नहीं था कि वो चोरी है | मैंने पहले ही लिखा था, शाम को रामलीला मैदान में हॉकी या क्रिकेट खेलने जाते समय कई बार वे लोहे की छोटी छड़ें, जो 'स्क्रैप' से ज्यादा कुछ नहीं थे, हमारे पाँव से टकराते | एक बार मिंटू ने छोटे भाई निक्कू के पांव से तो खून ही निकल गया था, क्योंकि हम लोग नंगे पाँव खेलने जाते थे | इस तर्क का भी कोई सर-पैर नहीं था कि हमारे मन में आक्रोश था कि हमारी शाला की सीमा सिकुड़ रही थी |
अगर कोई तर्क होता भी तो किसमें हिम्मत होती कि बड़ी बहनजी के सामने उसे प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके | और बड़ी बहनजी भला क्यों सुनती ? फैसला तो आ ही चुका था , केवल उसे सजा में परिणित करना ही शेष था |
ये वही बड़ी बहनजी थी, जिसने दाखिले के समय घडी दिखाकर मुझसे समय पूछा था और पांच के पहाड़े के सहारे मैंने उन्हें सही समय बता दिया था | उसके बाद ये किन परिस्थितियों में दूसरी बार आमना सामना हो रहा था | बड़ी बहन जी के मोटे रूलर के बारे में बहुत सुना था | उससे सब से पहले उन्होंने मुख्य अभियुक्त विनोद धर की जमकर धुलाई की | उसकी उसकी विरल विकराल और दर्दनाक पिटाई देखकर सबके कलेजे दहल उठे |
सजा देने का उनका तरीका अनूठा था | पूरी पिटाई की दौरान उन्होंने एक शब्द नहीं कहा | सिर्फ रूलर से वे इशारा करती थीं कि कौनसा हाथ आगे करना है या पीछे मुड़ना है और फिर "सड़ाक ,सड़ाक... |
मुझे लगा कि कालकर बहनजी ने जान बूझकर गुणवत्ता के हिसाब से कतार बनाई थी | राजीव सिंह और मनमोहन सबसे पीछे खड़े थे | मैं भी कतार में काफी पीछे था | जब तक मेरा नंबर आया, बड़ी बहनजी कुछ हद तक थक चुकी थीं | उन्होंने रूलर से पहले मेरे बांये हाथ की और इशारा किया | और फिर दाहिने हाथ की तरफ - मैं तो
दोनोँ हाथ में एक-एक लड्डू लेकर बगल में हट गया | हथेली पर मानों जलते अंगारे रख दिए गए थे |
जब सब को पीट दिया गया - राजीब सिंह और मनमोहन को भी - तब बड़ी बहनजी दहाडी,"अपने गार्जियन (अभिभावक) को बुला कर लाना - तब तक कक्षा में मत घुसना |"
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सब की आँखों से आंसू निकल रहे थे | और विषय क्या था - नीति शिक्षा | हमेशा कालकर बहनजी किसी को खड़ा करके पाठ पढ़ने कहती थी | लेकिन उस दिन किसी लड़के की मनःस्थिति ऐसी नहीं थी कि वे खड़े होकर पाठ पढ़ सकें | फलतः उस दिन लड़कियों को अतिरिक्त भार उठाना पड़ा | पहले मिथिला ने एक पैराग्राफ पढ़ा | फिर अनु गुप्ता ने | उसके बाद कौन पढ़े ? फिर बारी आयी इंदिरा और सरिता की | फिर कालकर बहनजी ने किरण को पकड़ा | किरण की आवाज़ भी भर्राई हुई थी | ऐसे लग रहा था कि कहीं दूर से कोई कुछ कह रहा है,
"फांसी के तख्ते पर चढ़ने से पहले उसकी माँ उसे मिलने आगे आगे बढ़ी, पर वह पीछे हटा ,"माँ , तुमने ही मुझे चोर बनाया है | अगर उस दिन तू ...."
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वातावरण काफी भारी हो गया | अब कालकर बहनजी ने किरण को बैठ जाने के लिए इशारा किया | वे कुछ सोची, फिर कहना शुरू किया ,"गलती हर इंसान से होती है और हुई है | गलतियाँ एक सबक तो सिखाती ही हैं | बड़े बड़े महापुरुष। जिनके पाठ हम किताबों में पढ़ते हैं, सबने अपने बचपन मेँ , या उसके बाद कुछ न कुछ गलती की | पर क्या वे रुक गए? क्या उनके लिए जीवन ठहर गया ...... ?
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एक लड़का जरूर था, जिसके लिए ज़िन्दगी थम बल्कि जम गयी थी - विनोद धर | उस दिन की मार-कुटाई के बाद कालकर बहनजी के सामने सबने विनोद धर के सर पर ही ठीकड़ा फोड़ दिया | लोगों ने कालकर बहनजी से यहाँ तक कहा कि उनके आइसक्रीम खाने की कोई इच्छा नहीं थी | विनोद धर ने जबरदस्ती उनके हाथ में आइसक्रीम पकड़ाई | ज्यादा परेशान वे लोग थे, जिनकी अभी तक साफ़ सुथरी छवि थी | मगर उन लोगों को भी, जो आये दिन मार खाते थे, इतना बड़ा झटका कभी नहीं लगा था | किसी के पिताजी को बुलाने की नौबत - मेरे ख्याल से न तो पहले और न ही बाद में कभी - आयी थी |
उस दिन के बाद से हमने विनोद धर की छाया ही देखी -विनोद धर नहीं | अब विनोद धर से खुद लोग कतराते थे और विनोद धर खुद अपने आप को औरों से दूर रखता था | सुरेश बोप्चे अब भी उसके साथ बैठता था | चन्दन अभी भी उससे बात करता था , पर अब वह पहले जैसी गर्मजोशी नहीं थी |
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मुझे महसूस हुआ कि किसी भी बच्चे के लिए अपने माता पिता से यह कहना कि उसके अपराध के लिए शाला में उन्हें शिक्षक ने बुलाया है - कितना कठिन होता है |
सबसे पहले तो उचित वक्त का इंतज़ार करना पड़ता है | जब पिताजी अच्छे मूड में हों | जब उनके आसपास घर का कोई सदस्य न हो | फिर यह भी सुनिश्चित करना होता था कि उनके पास पर्याप्त समय हो, ताकि वे धैर्यपूर्वक बात सुनें और भविष्य में ऐसा न होने के संकल्प को सुनिश्चित कर सकें |
उस दिन शाम को मैंने उनसे कोई चर्चा नहीं की | क्योंकि शाम और रात का समय ही वैसा होता है, जब सब लोग घर में रहते हैं | कोई न कोई कुछ न कुछ उनसे बात करते ही रहता है | अगले दिन माँ नहा रही थी , बबलू और बेबी स्कूल जा चुके थे
बाबूजी पूजा कर रहे थे | उनसे ज्यादा तन्मयता से भगवान् से प्रार्थना मैं कर रहा था | किसी तरह बात बन जाए | उनकी पूजा ख़तम होते ही मैं बोलै ," बाबूजी|"
"क्या है ? उन्होंने मुझसे पूछा | अब मुश्किल यही थी कि संबाद की कठिनाई का वह तीसरा पक्ष - पर्याप्त समय - उनके पास नहीं था | उन्हें जल्दी कॉलेज जाना था | फल यह हुआ कि बातचीत का वह क्रम , जो मैंने एक दिन पूर्व रात में सोच रखा था, बेतरतीब हो गया | कम समय में अपनी बात रखने के चक्कर में सब गड्ड -मड्ड हो गया | मैंने संकल्प पहले उड़ेल दिया |
फिर पूरी बात सुनाई | अपनी तरफ से कोशिश की कि मैं निर्दोष हूँ | बाबूजी को कुछ समझ में आया, कुछ नहीं || बाबूजी ने दो तीन संक्षिप्त प्रश्न पूछे |
"तो वह छड़ चोरी की गई थी ?"
"बाबूजी, मैंने चोरी नहीं की थी |"
"तुमने आइसक्रीम खाई थी ? हाँ या नहीं ?"
"हाँ, बाबूजी | मगर वो चोरी नहीं थी | ऐसी छड़ों के टुकड़े ... |"
"अगर रास्ते में यूँ ही पड़े रहते हैं तो आइसक्रीमवाले खुद क्यों नहीं उठा लेते? तुम बच्चों से क्यों ये सब काम करवाते हैं ?"
"बाबूजी, हमारे स्कूल का मैदान छोटा हो रहा है |"
"तुम्हें उस बात का गुस्सा है ? पर इससे तो इस कार्य को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता | कितनी कीमत होगी आइसक्रीम की ?"
"पांच पैसे|"
"तो ठीक है | अगर अपने ऊपर संयम नहीं रख सकते तो मुझसे पांच पैसे ले लिया करो | " वे कागज़ के टुकड़े पर कुछ लिखते लिखते बोले ,"ये गलत है बेटे | अपने दोस्तों को भी कहो | बहुत गलत है | "
वे कागज़ का टुकड़ा मेरे हाथ में देकर बोले,"बेटे, मैं तो आज रायपुर जा रहा हूँ | युनिवेर्सिटी में मीटिंग है | ये चिट्ठी बहनजी को दे देना |"
"पर बाबूजी, उनका कहना है कि जब तक आप उनसे नहीं मिलेंगे, वे मुझे कक्षा में नहीं बैठने देंगे |"
"तो मत जाना कक्षा में | " वे ठण्डे लहजे में बोले | उनके कहने का यही मतलव था, अगर यही सब सीखना है तो फर्क क्या पड़ता है ? वे घर से निकलने लगे | मैं पीछे पीछे गया | स्कूटर में किक मारते मारते वे बोले "ठीक है, अगर आज कक्षा में नहीं बैठने देंगे तो कल देखेंगे | "
सामान्य सा वार्तालाप, कोई नाटकीयता नहीं | फिर भी इतना स्पष्ट हो गया कि मामला जितना मैं समझता था ,बाबूजी के लिए उससे ज्यादा गंभीर था | मैं कभी उनको जाते हुए देखता तो कभी कागज़ की ओर |
उस दिन मैं डर के मारे मनमोहन के घर शतरंज खेलने भी नहीं गया | यह निश्चित था कि अगर उसके पिताजी घर में होंगे तो मुझसे वही , वैसे ही सवाल पूछेंगे |
स्कूल में प्रार्थना के बाद, जब विद्यार्थियों की कतार अंदर जाने लगी तो कालकर बहनजी ने उन सबको रोक लिया जिनके पिताजी मिलने नहीं आये थे | केवल तीन ही लोग थे | दो के पिताजी "फर्स्ट शिफ्ट" गए थे , इसलिए दो बजे के बाद आने वाले थे | तीसरा मैं था | मैंने कागज़ का टुकड़ा आगे किया तो कालकर बहनजी ने पूछा,"ये क्या है ?"
"जी बहनजी ,जी , मेरे पिताजी जरुरी काम से रायपुर जाने वाले थे जी | उन्होंने ये चिट्ठी भेजी है जी |"
"बड़ी बहनजी से बात करो |" कालकर बहनजी ने मुझे बड़ी बहनजी के दफ्तर का रास्ता दिखा दिया |
ऑफिस के दरवाज़े पर मैं बांया हाथ आगे करके खड़ा हो गया |
बड़ी बहनजी सर झुकाये कुछ लिख रही थी | जब दो मिनट तक उन्होंने नहीं देखा तो मैंने पूछा ,"जी बहनजी , जी मैं अंदर आ सकता हूँ क्या जी ?"
बड़ी बहनजी ने अंदर आने का इशारा किया |
मैंने वह चिट्ठी उनके सामने रख दी | उन्होंने गोल ढांचे वाले चश्मे के पीछे से प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी और देखा |
"जी बहन जी, जी, पिताजी नहीं आ सकते हैं जी | उन्होंने ये चिट्ठी भेजी है जी |"
बड़ी बहनजी ने चिट्ठी खोली | मुझे लगता है, बाबूजी ने जान बूझकर चिट्ठी अंग्रेजी में लिखी थी | शायद दो कारण थे | पहला - इस शक की कोई गुंजाइश न रह जाए कि चिट्ठी मैंने अपने हाथ से लिखी थी , क्योंकि हमें तो अंग्रेजी ही छठवीं से पढ़ाई जाती थी | दूसरा, उसमें क्या लिखा है - वो मैं न समझ सकूँ |
वैसे इस विश्वास की सामान्यतः कोई जरुरत नहीं पड़नी चाहिए थी | हर साल बड़ी बहनजी पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर आने वाले विद्यार्थियों को पारितोषिक देती थी | इसलिए शायद उन्हें मुझे पहचान तो जाना चाहिए था और मान लेना चाहिए था कि फर्जी चिट्ठी लिखने का काम मैं नहीं करूँगा | पर यह भी कटु सत्य था कि कल की घटना के बाद बड़े बड़े विश्वास धराशायी हो चुके थे | बड़ी बहनजी और पिताजी खुद प्राचार्य थे | उन्हें ज्ञात था कि विसयार्थियों को बदलते देर नहीं लगती है |
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जब मैं कक्षा में घुसा तो कालकर बहनजी ने हाज़िरी के रजिस्टर में मेरे नाम के आगे लिखे "ए" (अनुपस्थित) को कलम से दो तीन बार दोहराकर "पी " (उपस्थित) किया |
फिर बोली,"ठीक है | बड़ी बहनजी ने कहा है तो बैठ जाओ | " फिर सब लड़कों पर निगाह डालकर बोली,"चन्दन, कल कहां थे ?"
"जी बहनजी जी मेरे घर में पूजा थी जी |" चन्दन खड़े होकर अपनी हाफ पेण्ट खींचता हुआ बोला |
"अगर चन्दन होता तो वो भी इसमें होता | " पूरी तरह से आश्वस्त, कुछ नैराश्य , कुछ परिहास से कालकर बहनजी ने कहा |
....क्यों.....?
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सारी दुनिया में ढिंढोरा पीट दिया गया था और लोगों ने मान भी लिया था कि विनोद धर ही दोषी है | आखिर फंसे हुए सारे विद्यार्थियों ने ठीकरा उसके सर पर ही फोड़ा था | उसने जबरदस्ती एक एक का कॉलर पकड़कर आइसक्रीम उनके मुंह में ठूंसी जो थी |
केवल एक ही लड़का था, जिसकी राय सबसे जुदा थी |
तो चन्दन ही था जिसकी नज़रों में इस मामले का दोषी विनोद धर नहीं, बल्कि सुरेश बोपचे था | वैसे अगर उसे दोषी नम्बर दो ठहराना होता तो वह मुझे ही ठहराता क्योंकि मैं ही वह उत्प्रेरक था, जिसने सायकिल स्टैंड में खड़ी साइकिलों को लात मारी थी और श्रृंखला अभिक्रिया का श्रीगणेश कर दिया था |
आधी छुट्टी का घंटा बजते ही कक्षा के बाहर आकर चन्दन ने सुरेश बोपचे का कॉलर पकड़ लिया ,"क्यों बे ? कालकर बहनजी के सामने तेरे को आइसक्रीम खाने की क्या पड़ी थी ?"
"चन्दन, सुन तो यार | अबे सुन तो | आधी छुट्टी ख़तम होने की घंटी बज गयी थी यार और आइसक्रीम ख़तम नहीं हुई थी |"
"तो फेंक नहीं सकता था साले ?" चन्दन आग बबूला था |
सुरेश बोपचे बस मुस्कुरा रहा था | विनोद धर सर दूर देखते चुपचाप खड़ा था |
चन्दन को इस बात पर गुस्सा था कि अच्छे अच्छे लड़के भी इसमें फंसे थे और कक्षा की अच्छी खासी छीछालेदर हुई थी | इस सब के लिए सुरेश बोपचे का बेवकूफाना कार्य ही जिम्मेदार था |
"अकल है कि नहीं बे तेरे पास ? कि घास चरने गयी थी बे ? ?"
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विनोद धर को लापता हुए पूरे डेढ़ साल गुज़र गए | उसका साया कक्षा में आते रहा और सारा दिन सबसे अलग-थलग रह कर वापिस घऱ चले जाता था | पांचवी में ढेरों नए लड़के आये और सब से घुल मिल गए - विजय पशीने, रमेश मिश्रा, महेंद्र सिंह , सुबोध नंबर २, कालकर बहनजी का ही लड़का संदीप कालकर, सत्यव्रत, रवींद्र मुंशी | राजीव जावले चौथी में इस घटना के बाद ही आया था | कोई भी विनोद धर को अपना अंतरंग मित्र नहीं बना पाया | बहनजी का लड़का नवनीत दवे, जब पांचवीं में वापिस आया तो उसने मुझसे दबे स्वर में पूछा ,"ये विनोद धर है न?"
पांचवीं के दूसरे हिस्से में कक्षा में आशिकी का जो तूफान उठा , उसमें विनोद धर अछूता ही रह गया | इस घटना के बाद वो सेक्टर ६ के अन्य लड़कों के साथ नहीं आता था | न ही सुबह वाले लड़कों के साथ रोज़ की गाली गलौच और कभी कभार की पत्थरबाज़ी में उसकी कोई भूमिका होती थी | चन्दन के मज़ाक पर भी वह कभी कभार ही हँसता था |
तो डेढ़ साल बाद वह दिन आ ही गया जिस दिन हमें प्राथमिक शाला नंबर ८ को 'सलाम' कह देना था | उस एक दिन में बहुत कुछ घटित हो गया | मेरे, मनमोहन और राजीव सिंह के लिए तो काफी कुछ |
ऐसी पहली खबरें छन कर बाहर आयी थी और हमारी सड़क बाइस में फ़ैल गयी थी कि मनमोहन और राजीव सिंह शाला में प्रथम आये हैं और मैं दूसरे नंबर पर था | मेरे घर वाले मेरी घर से घंटों बाहर रहने की आदत से परेशान थे | उन्हें मेरी परेशानी का अंदाज़ नहीं था जो कक्षा में मेरे साथ हो रहा था | मुझे तो लगता था राजीव सिंह ने बचपन का दोस्त, मनमोहन मुझसे 'छीन' लिया है | साथ ही 'आशिकी' के उस माहौलमें न शामिल होने की सज़ा मुझे 'मखौल' के रूप में मिल रही थी | कुछ जुमले, कुछ फिकरे - जिनके स्त्रोत राजीव सिंह की बेंच के इर्द गिर्द ही होते थे , रोज़ मेरा पीछा करते | घर से दूर रहने की वजह यह भी थी कि 'ट्रिपल टेस्ट' चॉकलेट के अल्बम में १८० खाने थे , जिसमें से १७९ तो कब के भर गए थे, पर १५३ नंबर, "गननचुम्बी इमारत", की पन्नी अभी तक नहीं मिली थी | उसकी खोज में मैं न जाने किन किन लोगों से मिलता - दोस्त के दोस्त के दोस्त के दोस्त - पर कहीं भी वह नहीं मिली | तो परिणाम निकलने के एक दिन पहले निकले परिणाम ने घर में मेरी हवा निकाल दी थी | इसके पहले के वर्षों की वार्षिक परीक्षा में भी प्रथम तो मैं कभी भी नहीं आया था - दूसरे नंबर पर ही था | बल्कि दूसरी में तो तीसरे स्थान पर था | लेकिन उन दिनों वे सब आदतें मेरे साथ नहीं जुडी थी |
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कौन कहता है, चमत्कार नहीं होते | चमत्कार तो दूर, ये तो हिंदी फिल्मों के सुखद अंत जैसा ही था |
अगले दिन वही हुआ | मेरे लिए जो खबर एक दिन पहले शाम को उडी थी, वह गलत साबित हुई | मैं और मनमोहन दोनों संयुक्त रूप से प्रथम आये थे और राजीव सिंह दूसरे स्थान पर सरक गया था | देखा जाए तो पिछले तीन वर्षों से हम तीनों में से ही कोई प्रथम द्वितीय या तृतीय आते रहा था | छ महीने पहले ही अर्धवार्षिक परीक्षा में मनमोहन और राजीव सिंह संयुक्त रूप से प्रथम आये थे और मैं दूसरे नंबर पर था | ( बल्कि मैं तो तीसरे नंबर पर लुढ़क गया था | दूसरे नंबर पर संयुक्त रूप से अनु गुप्ता और मिथिला थे | लेकिन जब मैंने उत्तर पुस्तिका देखी तो पता चला, एक प्रश्न का उत्तर कालकर बहनजी ने जांचा ही नहीं था | जब मैंने उन्हें दिखाया और उन्होंने अंक दिए, तब मैं दूसरे नंबर पर आ गया })
लेकिन राजीव सिंह को अचानक ना जाने क्या हुआ, वो रो पड़ा | सबके सामने, बड़ी बहनजी के पास जब हम तीनों जिला शिक्षा अधिकारी, जिसे हम "टी टी गार्ड का तोतला " कहते थे, के साथ खड़े थे, तो राजीव सिंह की रुलाई फूट पड़ी |
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......स्कूल ख़तम | अब हम सबको कहीं और जाना था | सामने वह मंच था जहाँ वार्षिकोत्सव होते थे | मंच के उस पार ही तो थी हमारी कक्षा पहली वर्ग 'स' | कैसे गुजर गए पांच साल ?
दरवाजे पर अभी ताला लटक रहा था | मैंने अंदर झांक कर देखा ,"मुझे आवाज़ सुनाई दी, जो अभी भी कमरे में गूँज रही थी |
"हम हैं नन्हे, नन्हे सैनिक छोटे और मटोले |
इसी भारत माँ के हम गोद में ही खेलें |"
पांच साल पहले - वो भारत पाकिस्तान की लड़ाई के दिन थे | छोटी बड़ी कक्षा के कुछ बच्चों को लेकर इस कोरस की पूर्वाभ्यास कराया जाता था , जिसे चंद्रावती ने गौर से देखा था | जब कक्षा में साहू सर नहीं होते , तो चंद्रावती कुछ बच्चों को पकड़कर वह रिहर्सल करवाती | उनमें राजीव सिंह भी एक था |
राजीव सिंह, जो चन्दन का मुक्का खाकर कक्षा एक में रोया था | आज आखिरी दिन फिर एक बार उसकी रुलाई वापस आ गयी | मेरा मन खिन्न हो गया |
नहीं, राजीव सिंह एक बहुत अच्छा मित्र था | आखिरी दिन उससे इस तरह अलग होना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था |
केवल एक ही शख्स मेरी मदद कर सकता था - राजीव सिंह का हनुमान | अरे हाँ, विनोद धर | उसे कैसे भूल गए ? उससे मिलकर एक बार तो कह लें कि गिले शिकवे भूल जा ऐ मित्र | फिर राजीव सिंह की बात करके उसको मनाने की रणनीति बनाई जाए |
पर मन मैं अभी भी एक हिचक थी |
राजीव सिंह को बड़ी बहनजी ने एक संतरा दिया था | संतरा हाथ में लेकर, वह रोते - रोते घर जा चुका था | "टी टी गार्ड का तोतला" अभी भी मनमोहन से घुल मिलकर बातें कर रहा था मानो वे लंगोटिया यार हों | लोग तीन तीन चार चार के ग्रुप में बातचीत में मशगूल थे |
पर विनोद धर कहाँ था ?
विनोद धर से बात करने के लिएए मेरे मन में भले ही अभी भी हिचक रही हो, पर उसके मन में कोई हिचक नहीं थी | मैंने देखा, किरण और विनोद धर बातें कर रहे थे | मैंने कुछ क्षण दूसरी कक्षा के पास खड़े होकर इंतज़ार किया, पर मुझे लगता था , वह इंतज़ार काफी लम्बा हो सकता है |
तो वो दूसरी कक्षा का कमरा था | एक बार पंखों से चट-चट की आवाज़ के साथ चिंगारियां निकलने लगी थी और बिजोरिया बहनजी घबरा गयी थी | वही तो वह कक्षा थी, जब विनोद धार एक दिन कक्षा में ही लट्टू लेकर आ गया था | कारण यह था कि उसने भोला गिरी से शर्त लगाई थी कि वह "ऊपरी-ऊपर " कर सकता है | आधी छुट्टी में सबको वह खेल के मैदान में ले गया, लट्टू में रस्सी बाँधी और जोर से खींचा | भनभनाहट के साथ लट्टू हवा में तीव्र गति से घुमा | विनोद धर ने हथेली बधाई और वह लट्टू एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसकी हतेली में घूमने लगा |
मैंने पीछे मुड़कर देखा, विनोद धर और किरण अभी भी बातें कर रहे थे | मैं तीसरी कक्षा के कमरे की और बढ़ा | अंदर झांककर देखा | विनोद धर के बेंच बजाने की आवाज़ सुनाई दे रही थी | उसकी पसंदीदा धुन होती थी, बेंच पर रेलगाड़ी की अलग-अलग धुन निकलना | जब रेलगाड़ी स्टेशन से चलती है, जब गति पकड़ती है, जब पटरी बदलती है , जब पुल के ऊपर से गुजरती है |
मैंने पीछे मुड़कर देखा | विनोद धर अभी भी किरण से बातें कर रहा था | लगता था, मानो उनकी बात कभी ख़तम नहीं होगी | भीड़ अब तक काफी छंट चुकी थी | मनमोहन भी घर जा चुका था | मैं चौथी कक्षा के कमरे की और बढ़ गया |
यही तो वह वर्ष था जब सुबोध जोशी और राजीव जावले आये थे | पर रह रह कर वही घटना याद आ जाती थी | और वही घटना फिर मेरे मन में घूम गयी | वही तो है, कालकर बहनजी तो टेबल , जिसके बांयी और हम सब लड़के खड़े थे | नज़रें नीचे, शाह बहनजी के व्यंग्य बाण छूट रहे थे | बस, और मैं ज्यादा सोच नहीं सका |
मैंने पीछे मुड़कर देखा, विनोद धर अब गायब हो चुका था |
विनोद धर तो उसी दिन गायब हो गया था | मैं किसका इंतज़ार कर रहा था ?
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भिलाई विद्यालय में जाने के बाद सारे दोस्त मिले | चौकड़ी के तीन सदस्य तो थे ही- विनोद धर का पता नहीं था |
चन्दन तो खैर चन्दन था | अगर तुम उसे नहीं खोज पाते तो वह तुम्हें खोज लेता | ज्यादा दूर नहीं, कक्षा छठवीं 'बी' में ही वह था |
सुरेश बोपचे भी मुस्कुराते हुए दिख ही जाता था |
भोला गिरी ने तो कमाल ही कर दिया | छठवीं में नाट्य स्पर्धा में उनके 'डी' वर्ग ने एक नाटक किया था,"भक्त और भगवान् " | उसमें भोला गिरी ने भक्त की ऐसी सजीव भूमिका की कि न केवल वह नाटक प्रथम आया , बल्कि भोला गिरी को श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिल गया |
पर विनोद धर कहाँ छुपा था ?
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एक दिन अचानक बिजली कड़की और विनोद धर दिख गया |
वही पुराना विनोद धर !!
अब भिलाई विद्यालय में भला बोरा दौड़ जलेबी दौड़ कुर्सी दौड़ होते तो क्यों होते | वहाँ वही प्रतिस्पर्धाएं होती थी , जो ओलिंपिक में शामिल होती थीं | 'खो खो' और कबड्डी तो वैसे हमेशा से अपवाद रहे हैं |
कक्षा सातवीं में थे तब हम लोग |
ऐसी ही एक दौड़ थी - ११० मीटर बाधा दौड़ | भिलाई विद्यालय के पास शायद बाधाओं की ( यानी उन स्टेण्ड की, जिनके ऊपर से कूद कर जाना पड़ता था) की संख्या सीमित थी | इसलिए और दौड़ीं की तरह अगल-बगल कई ट्रैक बनाने के बजाय , ताकि सभी प्रतिस्पर्धी एक साथ भाग सकें, एक ही ट्रैक बनाया जाता था | सारे प्रतिस्पर्धी का एक एक करके नाम पुकारा जाता था | जिसका नाम पुकारा जाता था, वो स्टार्टिंग लाइन पर आकर खड़ा होता था | बंदूक दागी जाती थी | विराम घडी का बटन दबाया जाता था और वह धावक दौड़ प्रारम्भ करता था |
उद्घोषणा की माइक पर झा सर बैठे थे | वे एक एक नाम पुकारते और प्रतिस्पर्धी प्रारंभिक बिंदु पर आकर खड़ा होता था |
मैदान काफी बड़ा था उसके समानांतर उस वक्त और भी प्रतिस्पर्धाएं जारी थी | तब गोला फेंक चल रहा था और मैं वही देख रहा था |
अचानक बाधा दौड़ के एक नाम ने मेरे दिमाग में घंटियां बजा दी, "विनोद धर द्विवेदी"|
नाम वही था | ऐसा नाम किसी और का हो ही नहीं सकता - ये केवल मेरा ही मानना नहीं था | मैं तुरंत गोला फेंक छोड़ कर बाधा दौड़ की ओर लपका |
हाँ, वही था | ठिंगना लेकिन मज़बूत कद, तेज़ आँखें, सुदृढ़ मांसपेशियों वाले पाँव |
लेकिन सामने जो बाधाये थी, वे तो काफी ऊंचाई पर थी | धावक की ऊंचाई के हिसाब से बाधाओं को समायोजित करने का कोई नियम तो था नहीं | वे विनोद धर के सीने से थोड़ी सी नीचे थी | कहा जाए तो विनोद धर के लिए ऊँची कूद के लक्ष्य की तरह थी |
किन्तु ऊँची कूद में तो एक ही बाधा होती थी | यहाँ तो बाधाओं की कतार सी लगी थी - हर दस मीटर में एक नयी बाधा | विनोद धर क्या कर पायेगा ?
लेकिन वह पुराबा विनोद धर था - पहली कक्षा वाला विनोद धर | जब वे एक ओर रखे बेंचों पर एक बेंच से दूसरी बेंच पर छलांग मारते थे |
बंदूक दगी , विराम घडी का बटन दबा और विनोद धर ने दौड़ना शुरू किया | एक बाधा उसने आसानी से पार की, दूसरी बाधा , तीसरी बाधा ... | सब चकित थे | माइक पर झा सर कह रहे थे , "इस बालक के लिए ये बाधाएं कोई बाधाएं नहीं, केवल उम्र ही एक बाधा है .. |" झा सर की बात से असहमत होने की कोई वजह नहीं थी | उम्र के साथ विनोद धर की ऊंचाई बढ़ेगी ही | तब इन बाधाओं के ऊपर से छलांगें भरने में उसे कोई मुश्किल नहीं होगी |
लेकिन इतना स्पष्ट था कि विनोद धर की गति एक के बाद एक बाधाएं पार करने पर कुछ धीमी हो रही है |
अचानक किसी ने आवाज़ दी , "नीचे से निकल जा ओये |" स्पष्टतः विनोद धर इस नियम से अनभिज्ञ था और आठवीं बाधा पर वह नीचे से निकला |
"ये नियम विरुद्ध है बेटे|" झा सर की आवाज़ गूँजी |
विनोद धर ने अपनी गलती सुधारी और अगली दो बाधाओं के ऊपर से उसने छलांग भर कर कर दौड़ पूरी की | शिक्षक , विद्यार्थी, कर्मचारी - सब तालियाँ बजाने पर विवश थे |
जब वह इतनी बाधाएं पार कर सकता था , तो वह एक बाधा क्यों नहीं पार कर सकता ? जो उसके मन में बैठी है ?
अच्छे समय के बावजूद विनोद धर की दौड़ अमान्य गयी क्योकि वह एक बाधा के नीचे से जो गुजरा था, जो कि नियम विरुद्ध था | मेरे ख्याल से उसे ज्ञात नहीं था कि ऐसा करना नियम विरुद्ध है | ज्ञात तो मुझे भी नहीं था |
क्या उसे उस दिन ज्ञात था , कि वह जो कर रहा है , वह जियम विरुद्ध था ?
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एक झलक दिखलाकर विनोद धर फिर से गायब हो गया |
समय का पहिया घूमते रहा | कई वर्ष गुजर गए | भिलाई विद्यालय से बाहर निकलते समय मुझे ये तो मालूम था कि चन्दन कहाँ जा रहा है - क्योंकि चन्दन छुपाये नहीं छुपता था | सुरेश बोपचे का भी थोड़ा बहुत आभास था | भोला गिरी कहाँ था, पता नहीं और विनोद धर की खबर तो किसी के पास नहीं थी |
इंजीनियरिंग कॉलेज की 'मिड सेमेस्टर' छुट्टियां थी | जब भी मैं उन दिनों भिलाई आता, साइकिल लेकर नगर घूमने निकल जाता था | देखता, इन चंद महीनों में ये शहर कितना और बदल गया है | वही पुराने पार्क, मैदान, मंदिर - सिविक सेंटर | जहाँ किसी मैदान में क्रिकेट का मैच चलते रहता , मैं वहीँ ठहर जाता |
सेक्टर १ में नेहरू सांस्कृतिक भवन के पास एक मैच चल रहा था | मैं वहीँ खड़े होकर मैच देखने लगा | दूरदर्शन पर मैच देखकर मन में बार बार ये ख्याल आता था - आखिर क्या है, उन खिलाड़ियों में और भिलाई के इन खिलाड़ियों में जो वे तो भारत की ओर से खेलते हैं और ये अभी भी गुमनामी के अँधेरे में रास्ता तलाश रहे हैं | तकनीक वही , शारीरिक डील डॉल वही |
पिच को छोड़कर पूरा मैदान छोटी मुरम का बना हुआ था जो भिलाई के अधिकतर मैदानों की खासियत थी | उसमें भी ये देखकर अच्छा लगता था कि फिर भी क्षेत्ररक्षक कलाबाजियां खाने से हिचकिचा नहीं रहे थे | मैदान के बीच में एक बिजली का खम्बा भी था | अगर कोई क्षेत्ररक्षक उसे टकरा जाए तो ?
"विजय सिंह |" किसी ने मुझे आवाज़ दी | मैंने पीछे मुड़ कर देखा, विनोद धर खड़ा था |
मैं उसकी और बढ़ा और उसके आसपास रोकती हुई अदृश्य दीवारों से टकरा गया | इतने वर्षों बाद भी वह दीवार पूरी तरह से से ढह नहीं पायी थी | लेकिन एक शक्तिशाली चुम्बक भी तो था, जो मुझे उससे दूर जाने नहीं दे रहा था | बचपन की दोस्ती के अदृश्य तार रास्ता खोज रहे थे |
परिणामस्वरूप हमारा वार्तालाप कुछ इस तरह का था -
"उस लड़के को देख रहा है ?" विनोद धर ने एक क्षेत्ररक्षक की और इशारा किया जो बिजली के खम्बे के पास मोर्चा सम्हाले था |
"हाँ", मैंने कहा |
"वो सैय्यद है | याद है, भिलाई विद्यालय वाला सैय्यद |"
तभी संयोग से एक कैच उड़ता हुआ सैय्यद के पास आया | तेज़ी से बॉल सैय्यद से दूर जा रही थी | भागकर सैय्यद ने पकड़ने की कोशिश की | अंतिम क्षणों में छलांग भी लगाईं, पर कैच कर नहीं पाया |
"कैच छोड़ दिया यार |" विनोद धर ने सर पीटा , "और बोलेंगे, हमें बी. एस. पी. में खेलना है |"
"कोशिश तो अच्छी की यार |" मैंने कहा |
तो जिस वार्तालाप को जो गर्मजोशी से हाथ मिलकर, "तू कहाँ है, क्या कर रहा है, ये कैसा है, वो कैसा है, इतने साल क्या किया", उस दिशा में जाना चाहिए था, वह किसी और दिशा में बढ़ गयी थी |
"एल.बी. डब्ल्यू. का नया रूल जनता है ?" अचानक वह बोला ," अब अगर बॉल लेग स्टम्प के बाहर टप्पा खायेगी तो अम्पायर 'एल. बी.' दे नहीं सकता | अपने बॉलर मनिंदर और शिवराम कृष्णन तो वहीँ कट गए |"
"यार, ये रूल तो पहले भी था | नहीं ?" मैंने पूछा |
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जीवन काफी आगे निकल आया था | एक दो नहीं, पूरे तीस साल वर्ष और गुजर गए |
पर इस बार जो विनोद धर मिला, वो पुराना विनोद धर निकला | भिलाई विद्यालय में भोला गिरी , चन्दन दास, सुरेश बोपचे और विनोद धर फिर एक बार इकठ्ठा हुए | भिलाई विद्यालय के उच्चतर माध्यमिक के साथी बरसों बाद मिल रहे थे | सुरेख बोपचे के एक हाथ में प्लास्टर चढ़ा था | चन्दन और मोटा हो गया था | और विनोद धर? हाँ, वही पुराना विनोद धर , जिसने चन्दन को चिढ़ाना शुरू किया | मनमोहन से वह भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रबंधन को लेकर लम्बी बहस में उलझ गया |बिलकुल वही पुराना विनोद धर था वह | अब न तो कोई अदृश्य दीवार थी और न कोई हिचकिचाहट | पुरानी गप्पेबाजी का नया सिलसिला चालू हो गया |
देखकर काफी अच्छा लगा कि पुराना विनोद धर अंततः लौट आया |
सुबोध जोशी, प्रमोद मिश्रा , मनमोहन , सूर्य प्रकाश , सत्यव्रत, चौगड्डे के वे सारे सदस्य, जिनके लिए बरसों पहले जिस विनोद धर ने आइसक्रीम का इंतज़ाम किया था , शाला क्रमांक आठ के उन दोस्तों के लिए शाम को "भिलाई क्लब" में उसी विनोद धर ने पार्टी रख दी |
"मैं नहीं आ सकता यार |" मैंने कहा |
"क्यों नहीं आ सकता ?"
"मेरे पास वाहन नहीं है |"
"मैं आ रहा हूँ तुझे लेने |" पुराना विनोद धर छोड़ने वाला नहीं था |
घर में बैठकर शाम होने से पहले मैं यही सोचते रहा | पुराना विनोद धार लौट आया | पर यह सम्पूर्ण , आमूलचूल रूपांतरण हुआ कैसे ?
क्या कमी थी विनोद धर के पास अब ? इस्पात संयंत्रों के लिए भट्टियों के अंदर रिफ्रैक्टरी लाइनिंग बनाने वाली एक एक बड़ी सी कंपनी का वह सेल्स का बड़ा अधिकारी था | उसका अधिकतर समय विभिन्न ग्राहकों के पास यात्रा में ही गुजरता था - भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, केन्या, कज़ाकिस्तान के ग्राहकों को उसे ही सम्हालना पड़ता था |
शाम को विनोद धर की कार से हम लोग भिलाई क्लब के लिए निकले | पुराने मित्र, पुराने संस्मरणों का पिटारा एक बार फिर खुला | अचानक विनोद धर ने पूछा ,"विजय, तुझे, किरण याद है ?"
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जिस पद पर विनोद धर था, वैसे लोगों का रक्तचाप ऊपर नीचे होना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है | भिलाई के सबसे बड़े अस्पताल, सेक्टर ९ के अस्पताल के एक केबिन में विनोद धर बिस्तर पर लेते थे |
दरवाजा खुला और नर्स अंदर आयी | विनोद धर ने चैन की सांस ली क्योंकि वो कोई युवा नर्स नहीं थी जो आनन्-फानन में फुर्ती से काम निपटा कर आंधी तूफान की तरह निकल जाए | बालों में कहीं इधर उधर से हलकी फुलकी सफेदी जरूर झांक रही थी पर वह नर्स किसी एयर होस्टेस से ज्यादा फिट लग रही थी |
न जाने क्यों वह नर्स उसे जानी पहचानी लग रही थी | नर्स ने टेबल पर रखा उसका रिकॉर्ड उठाया और देखने लगी | अचानक उसने विनोद धर को गौर से देखा | फिर इंजेक्शन तैयार करने लगी |
"एक इंजेक्शन लगाना है |" वह बोली और विनोद धर की बांह से कमीज हटाने लगी |
"इंजेक्शन ? मुझे इंजेक्शन से डर लगता है |"
"अब भी डर लगता है ?"
विनोद धर चौंक पड़ा और नर्स की और गौर से देखने लगा |
" तुम कितने भी बड़े हो जाओ, मैं तो देखते ही पहचान गयी थी |" नर्स बोली, "और जब नाम देखा तो अंदेशा पूरे विश्वास में बदल गया } दुनिया में ऐसा नाम किसी और का हो ही नहीं सकता - विनोद धर द्विवेदी | चिंता मत करो | ऐसे इंजेक्शन लगाऊँगी कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा | "
वह विनोद धर की बांह में रुई मलने लगी |
इतने वर्षों से खड़ी हुई समय की वह दीवार भरभरा कर गिरने लगी | विनोद धर के मुंह से अस्फुट स्वर निकला , "क ... क.... कि... "
"क्या शाहरुख़ खान की तरह क... क .. कर रहे हो ?" उसकी चंचल शरारती मुस्कान वैसी ही थी जैसे, चालीस साल पहले थी,"हाँ बाबा | मैं किरण हूँ |"
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वर्ष - १९७४, १९७८, १९८६, २०१५
स्थान - भिलाई
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