चन्दन सा बदन
इस बात को पूरे पचास साल गुजर गए | आधी शताब्दी पहले बालकों की शाला में पिटाई आम बात थी | पहली और दूसरी के बच्चों के बास्ते में स्लेट पट्टी भी होती थी | साहू सर जैसे शिक्षक साइकिलों में आते थे तो शिक्षिकाएं या तो पैदल आती थीं या रिक्शे में | तब ऑफिसर का लड़का अशोक भोपले, बहन जी का लड़का नवनीत दवे , २४ यूनिट में रहने वाले निहायत सामान्य कामगार का लड़का भोला गिरी ,सेक्टर २ के बाजार के पान वाले पंडित का लड़का और उसका चचेरा भाई , रेल पटरी के उस पार सुपेला से आने वाली सब्जी वाले की लड़की चंद्रावती और कल्याण कॉलेज के प्राचार्य का लड़का विजय सिंह - यानी मैं एक ही कक्षा में पढ़ते थे | कक्षा १ 'स' में एक दरी थी जो, इधर उधर से कहीं कटी फटी , कहीं उधड़ी थी - उस पर हम कतार में बैठा करते थे | दो कतारें लड़कों की और दो लड़कियों की |
कुछ याद आया ? या बातें अजीब सी लग रही हैं ? अगर याद आया तो क्या याद आया ? कुछ भी याद न आया हो पर फिर भी कुछ तो याद आया होगा | कोई तो याद आया होगा ? कुछ चेहरे ऐसे होते ही हैं जो कभी भुलाये नहीं भूलते |
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"चन्दन सा बदन , चंचल सी किरण ( चितवन)" ,ईमान से कहूं तो ये गाना मैंने उसको चिढ़ाने के लिए ही गुनगुनाया था |गाना वैसे भी आड़ा तिरछा , कहीं के शब्द कहीं , या 'हूँ हूँ हूँ ' मिश्रित था, पर पूरी तन्मयता और गांवहीरता से गया गया था | और कुछ न हो, उसमें चिढ़ाने के लिए आवश्यक तत्वों का समावेश पर्याप्त मात्रा मैं था | अगर किसी को चिढ़ाना हो तो सामान्य सा नियम है, उसकी और देखे बिना गाओ | अगले ही क्षण मेरी वो पीठ ,, जो उसकी ओर थी, अचानक गरम हो गयी | मैंने पीछे मुड़कर देखा, उसका सांवला सा चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था | पतले दुबले उस लड़के की मुट्ठी , जो मुक्के के रूप में मेरी पीठ पर दनदना के पड़ी थी , अभी भी भींजी हुई थी | आँखों से मानो अंगारे टपक रहे थे | वह शायद मेरे जितना ही दुबला पतला था, लेकिन उस दमदार मुक्के से ही पता चल गया था की उसकी हड्डियों में कितनी ताकत है |
मैं तो दर्द के मारे धनुष बन गया था, पर आधी छुट्टी के समय आस पास चुहलबाजी करते लड़के ठठाकर हँस रहे थे | अब लोगों ने चन्दन की दुखती राग पकड़ ली |
"चन्दन सा बदन", दवे बहन जी के लड़के नवनीत दवे ने सुरक्षित दूरी बनाकर वही तान छेड़ी | आ बैल मुझे भी मार |
""चंचल चितवन |" पीछे से लंगड़ू विवेक चिल्लाया ,"धीरे से तेरा ये मुस्काना" | अब कोरस शुरू हो गया |
चन्दन आगे पीछे मुड़कर सबको देख रहा था | शायद सबसे कमजोर शिकार खोज रहा था जो सरपट भाग न सके |
"पर चन्दन तो सफ़ेद होता है बे |" राजू (राजीव) सिंह ने अपनी विद्वता जाहिर कर दी | चन्दन का गुस्सा चरम सीमा पर पहुँच चुका था | शायद उसके सोचने-समझने की शक्ति लेशमात्र भी बाकि रहती तो ...
पलक झपकते मानो बिजली सी चमकी और अगले ही क्षण , हम सब से हट्टा कट्टा राजीव सिंह नाक पकड़ कर बैठा हुआ था |
उसकी नाक से खून बह रहा था |
चन्दन वहां से भाग खड़ा हुआ | बहन जी के लड़के को पीटने के बाद, वो भी खून निकलने के बाद - देखा जाए तो उसके पास और कोई चारा ही क्या था ?
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राजू सिंह के नाक में फिनाइल की बदबू वाली अजीब सी दवाई लगी थी | रुक रुक कर वह अब भी सिसक रहा था | अफ़सोस मुझे हो रहा था कि जो चिंगारी मैंने सुलगाई थी, वह केवल न आग में परिवर्तित हो गयी, बल्कि भयंकर विस्फोट भी हो गया | सिंह बहन जी अभी एक शिक्षिका के रूप में नहीं, बल्कि माँ की भूमिका में थीं |
"सुबह से मेरे बच्चे ने कुछ नहीं खाया |" आँचल से राजू सिंह के आंसू पोंछते हुए वे साहू सर से कह रही थीं , "सिर्फ दो ब्रेड के टुकड़े ...- दूध भी नहीं पिया |"
साहू सर की चिंता कुछ और थी |
"तुम लोगों ने देखा, चन्दन किस और भागा ? मंदिर की तरफ ? रेल पटरी की तरफ ?"
"जी सर जी |" जीवन लाल बोला ," उस तरफ |"
"तब ठीक है | " साहू सर ने राहत की साँस ली | जीवन ने जिस और इशारा किया था, वह न तो रेल पटरी की और जाता था, न मंदिर की ओर | साहू सर ने उस दिशा से चन्दन को कई बार आते देखा था | फिर भी तसल्ली के लिए उन्होंने सिंह बहन जी से पूछा ,"पुलिस में रिपोर्ट की जाए?"
पुलिस का नाम सुनते ही हम सब सकते में आ गए | क्या बात इतनी आगे बढ़ गयी थी ? सिंह बहन जी ने भी वही समझा |
"नहीं मास्टर जी |" सिंह बहन जी बोली, " बच्चे तो हैं | थोड़ी बहुत लड़ाई , मर पीट तो चलते रहती है |"
राजीव सिंह को अपनी माँ का यह शिक्षिका स्वरुप शायद अच्छा नहीं लगा | वह और जोर से सिसका |
"नहीं | वो बात नहीं है |" साहू सर बोले,"अगर वो घर भाग गया है तो ठीक ही है | मगर अगर कहीं भटक गया तो - आजकल बांगला देश से आये बच्चा चुराने वाले लोग घूम रहे हैं | "
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अब कुछ लोगों के मन में जरूर जिज्ञासा होगी कि भानुमति के उस पिटारे के रत्नों में से एक - आखिर चन्दन की पृष्ठभूमि क्या थी ? सेक्टर २ में, मुझे मालूम था - सड़क २२, २१, २०, १९, १८, १७ के बाद जो सड़क थी, वो बहुत दूर दूर तक जाती थी | बड़ा अजीब था उसका नाम - अबे नु (एवेन्यू ) कुछ कुछ | उसके आगे एक दूसरी दुनिया शुरू हो जाती थी जिसमें टीन की छत वाले घर थे | गर्मी के दिन में भट्टी की तरह तपने वाले उन घरों में भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए खून पसीना एक करके , अदम्य शारीरिक कार्य करने वाले मेहनतकश कामगार रहते थे | वहीँ धमनभट्टी में काम करने वाले चन्दन के पिताजी रहते थे |
चन्दन के दो भाई भी तो थे - उसी, शाला क्रमांक ८ में |
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"आम या इमली ?" मोटा दलपत जोर से चिल्लाया |
दलपत कंचे के खेल में जिसे पदा रहा था, उसकी शकल चन्दन से काफी मिलती जुलती थी - क्योंकि वह चन्दन का भाई ही था - दीपक |
"आम" - दीपक बोला |
दलपत झल्ला गया | वो काफी देर से दीपक को पदा रहा था | कंचे के प्रहार करते करते उसकी बीच की उंगली में शायद दर्द होने लगा था | यानी पढ़ाने का मज़ा जा चुका था और अब सिर्फ जिद ही बची हुई थी |
"तू एक बार इमली कह दे तो तुझे अभी छोड़ दूंगा |" दलपत चिल्लाया |
"तू चाहे दिन भर पदा , मैं इमली नहीं बोलूंगा |"
मेरे पल्ले कुछ नहीं पद रहा था | हिंदी वर्णमाला की पुस्तक में आम की फोटो भी बनी थी और इमली की भी | क्या फर्क पड़ता है ?
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तीन दिन गुजर गए थे | साहू सर ने "क" वर्ग के सारे अक्षर सिखा दिए थे और अब "च" वर्ग चल रहा था | किन्तु चन्दन, जो भागा था, वह आज भी नहीं आया था | शनिवार को आधा दिन था और बड़ी बहन जी के दफ्तर के बाहर पहली से लेकर पांचवी तक के बच्चे 'बाल सभा' के लिए बैठते थे | चन्दन के भाई दीपक ने उस बाल सभा में एक चुटकुला भी सुनाया | सब खूब हँसे |
चन्दन का अपेक्षाकृत शांत- दूसरा भाई विजन, अक्सर वाचाल दीपक के आसपास ही रहता था |इसके आगे उनके बारे में हम लोग कुछ जानते भी तो नहीं थे | कहाँ हम लोग पहली में और कहाँ वे पांचवीं में |
शायद उनका ही प्रयास था कि सोमवार को भोला गिरी ने आधी छुट्टी के समय मानो भूत देख लिया |
आधी छुट्टी के समय जो वर्जित था, वह था, तार के बाहर जाना | शाला की सीमा पर कांटेदार तार के बाड़ लगे थे जो समय के साथ गिरकर ज़मीन चूम रहे थे | उसके बाहर जाने अलावा कुछ भी किया सकता था - शाला के लोहे के फाटक पर चढ़ कर झूले का मज़ा भी | भोला गिरी वही कर रहा था | वह सब से ऊपर चढ़ गया था और प्रमोद मिश्रा धक्के दे रहा था | अचानक वह ऊपर से नीचे कूद पड़ा |
"च.. च.. चन्दन आ रहा है |"
जैसे ही उसके पाँव जमीन पर पड़े, वह कक्षा की और सरपट भागा |
सब सकते में थे | तभी अचानक आधी छुट्टी ख़तम होने का घंटा बजा और हम अपनी अपनी कक्षाओं की और भागे|
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आधी छुट्टी के पंद्रह बीस मिनट तक साहू सर कक्षा में नहीं आये | दबी जुबान में हम लोग बातें करते रहे कि बड़ी बहनजी के ऑफिस में चन्दन को लड्डू मिल रहे हैं | जिनके कानों में रोज रात को सोने से पहले एक दो बून्द सरसों का तेल डाला जाता था, वे 'सड़' 'सड़' , 'फड़ -फड़' की आवाजें सुन रहे थे | सामान्यतः शिक्षिकाएं बच्चों को खड़ी स्केल से मारती थी पर बड़ी बहनजी के ऑफिस में एक लम्बा, मोटा रुलर था- जो खास इसी काम के लिए रखा गया था |
अंततः साहू सर आये और उन्होंने पढ़ाना शुरू किया , "'च' से चरखा, 'छ' से छतरी, 'ज'' से जहाज , 'झ ' से झरना | " वे एक-एक अक्षर बोलते गये और विद्यार्थी दोहराते चले गये | फिर उन्होंने छड़ी 'च' पर वापिस रखी ,"'च' से ....|"
दरवाजे पर चन्दन दास खड़ा था |
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वो अब कोई दूसरा चन्दन था | नहीं , अंदर से शायद वही चन्दन था | अब वह भीड़ का हिस्सा था, पर अंदर से अब भी बिलकुल अकेला था | अब वह अपने भाई दीपक की तरह हँसी - ठिठोली करता था, लेकिन उसके अंदर आक्रोश कूट-कूट कर भरा था | हँसते हुए चन्दन की मुट्ठियाँ कब तन जाए, कह पाना बड़ा मुश्किल था | वह शायद और सब लोगों के लिए 'कुछ' था, लेकिन मेरे लिए एक पहेली था | बरसों तक सोचने के बाद यही निष्कर्ष निकाला कि वह एक स्वतंत्र था | कोई रिश्ता , कोई दोस्ती, कोई भाईचारा उसे बांध नहीं सकता था |जिनसे वह स्नेह परता था, बेपनाह करता था | लेकिन उनकी जो बातें बुरी लगती थी, मुंह पर कह देता था | जिनसे वह कट जाता था, उनके लिए उसके दरवाजे बंद हो जाते थे | फिर अचानक कोई खिड़की खुलती और चन्दन का हँसता हुआ चेहरा निकलता -"हा ", "हा ", "हा " | जब उसे लगता कि उसके हृदय के पास रखी तस्वीरों पर किसी ने खरोंच लगाई हो तो ज्वालामुखी फट जाता था |
विनोद धर भी एक अजूबा था | अब वो सेक्टर ६ से आता था| सेक्टर ६ के सारे लोग संयोगवश प्रातः पाली में थे | राजू सिंह भी वैसे त्तो सेक्टर ६ से ही आता था, पर वह अपनी माँ के साथ ही आता था -कम से कम पहली कक्षा में | तो विनोद धर गजब का गपोड़ी था | उसकी बातें ;फोक' होते हुए भी इतने आत्मविश्वास से कही जाती थी कि लोग मुंह खोले सुनते रहते थे | शक की गुंजाईश ही कहाँ थी मेरे भाई ?
शाला में लकड़ी के कुछ डेस्क आये थे जो ऊँची कक्षा को पहले दिए गए | फिर भी कुछ डेस्क बच गए , तो हमारी कक्षा में पूर्वी कोने में डेस्क की एक कतार लगाई गयी -केवल एक ही कतार | अनार सीमित थे और दरी पर महीनों से बैठने वाले बीमार तो सारे ही लोग थे | फल यह हुआ कि लोग एक दूसरे तो धकियाते हुए टूट पड़े और बेंचों पर जम गए | विनोद धर ने इतना सुनिश्चित किया कि एक सीट राजू सिंह को मिल जाए -मुझे लगा , वो उसका सेक्टर भाई जो ठहरा | पर एक कारण और भी था | अब जब राजू सिंह बेंच पर बैठा तो उसके बगल में दूसरे बहन जी का लड़का नवनीत बैठा | विनोद धर और गपोड़ी नंबर दो - भोला गिरी उसके पीछे बैठे | मुझे न तो सीट मिलनी थी और ना ही मिली | मैं यथावत दरी में ही विराजमान था |
विनोद धर ने आज एक नयी कला सीखी थी - हाथ देखने की कला | उसने राजू सिंह का हाथ पकड़ कर गौर से देखा और बोला ,"तू राम है | "
अब सारे लोग विनोद धर के इर्द गिर्द जमा हो गए थे | सब अपना अपना हाथ विनोद धर को दिखाने के लिए आतुर थे | उसने नवनीत का हाथ देखा और कहा, "तू भरत है |" फिर उसने सूर्य प्रकाश का हाथ देखा और कहा,"तू सुग्रीव है |"
अजीब बंदरबांट थी | उसने भोला गिरी का हाथ देखकर घोषणा की,"तू जटायु है |"
"फिर हनुमान कौन है?" प्रमोद मिश्रा ने पूछा | उसको विभीषण की पदवी मिल ही चुकी थी |
विनोद धर के मुंह पर मुस्कान चौड़ी हो गयी | और चौड़ी और गहरी | जब उसने गोल-गोल आँखें घुमाई और मुंह फुग्गे की तरह फुलाया तो सब समझ गए- हनुमान कौन है ?
"और मैं क्या हूँ?" मैंने अपना हाथ आगे किया |
"तू कृष्ण है |"
"कृष्ण ?" यानी कि मैं रामायण से ही बाहर हो गया | मुझे बड़ी निराशा हुई | मैंने कहा,"ठीक से देख | मैं लक्ष्मण हूँ |"
" लक्ष्मण अशोक है |" उसके आत्मविश्वास की कोई सीमा ही नहीं थी |
"नहीं | मुझे लगता है, मैं लक्ष्मण हूँ |"
उसने मेरी और देखा, मनो कह रहा हो, तेरे चाहने से क्या होता है बे? फिर भी उसने धीरज से कहा, "अशोक के हाथ में चक्र है|"
"कहाँ है चक्र?" मैं नहीं, मेरी निराशा बोल रही थी |
"अशोक हाथ दिखा बे |" अशोक भोपले ने हाथ आगे कर दिया |
"देख |" मेरे साथ उसने सबको अशोक की उंगली दिखाई| उसकी उंगली के सिरे पर वह अपनी ऊँगली फिर कर बोला ,"देख, ये है चक्र |"
मैंने अपने हाथ की उंगली देखी | मेरी उंगली में भी चक्र था ,"मेरी उंगली में भी चक्र है |"
चक्र किसकी उंगली में नहीं होता?
उसने बात अनसुनी कर दी,"तू कृष्ण है यार |"
अब लड़कियों के हाथ देखना वर्जित था - उस पचास साल पहले के जीवन में | वरना लोग पूछते,"कौशल्या कौन है? कैकयी कौन है ?" सुमित्रा तो थी ही क्लास में | सीता के सम्बन्ध में कोई विवाद ही नहीं था | भारती अग्रवाल के सिवाय भला सीता कौन हो सकती थी? वही भारती अग्रवाल , जो तिमाही में राजू सिंह और मेरे बाद तीसरे नंबर पर आयी थी | जब दरी पर बैठते थे तो लड़कों की आखिरी कतार में सबसे आगे राजू सिंह और लड़कियों की पहली कतार में सबसे आगे भारती बैठा करती थी - यानी करीब अगल बगल |
एक दिन राजू सिंह ने अपना पाँव हवा मैं लहराया और जूता दिखाकर हँसते हुए बोला ,"मेरे जू जू जूते का हाल देखो |" उसके जूते का तलवा जूते का साथ छोड़ चुका था | भारती ने भी पाँव ऊपर कर अपना जूता हवा में लहराया ,"ओ ओ ओ , मेरे जूते का हाल देखो |" उसका जूता भी तलहटी छोड़ रहा था | दोनों की खिलखिलाहट से सारे लोग चौंक पड़े |
अरे मैं कहाँ भटक गया यार?
अभी तो विनोद धर का हाथ देखना ख़तम नहीं हुआ था | अब चन्दन दास ने अपना हाथ दिखाया | सबकी जिज्ञासा बढ़ गयी - चन्दन क्या है ?
विनोद धर की आँखें चन्दन का पूर्णतः श्याम हाथ अपने भूरे हाथ में लेने से पहले ही मुस्कुरा उठी | अब हाथ देखते ही वह बिना कुछ बोले जोर से हँसा | उसके साथ के सारे लोग ठठाकर हँस पड़े मानो बिना कुछ कहे ही सब कुछ समझ गए | अगर अब तक न समझा हो तो अब उनकी हँसी देखकर चन्दन के मस्तिष्क तक भी सन्देश पहुँच गया |
मामला फिर से गरमा जाता और शायद एटम बम भी फ़ूट जाता - अगर भोला गिरी ने तुरंत मामले को भटका नहीं दिया होता ,"बेल्ट लड़ायेगा बे?"
चन्दन चमड़े की मोटी बेल्ट पहन कर आता था | भोला गिरी भी बेल्ट पहनता था |
"ठीक है |" चन्दन मान गया ,"पूरी छुट्टी के बाद |"
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जिस समय चन्दन और भोला गिरी बेल्ट भांज रहे थे , उस समय मैं और सतीश खैरे पेटी से लड़ाई कर रहे थे | वह शायद पहला वर्ष था, जब बस्ते की जगह एल्युमिनियम की पेटियां लोकप्रिय हो गयी थी | चन्दन और भोला गिरी की ओर सतीश खैरे की पीठ थी , पर वे मेरे दृष्टि परास में पूर्णतः आ रहे थे | भोला गिरी और चन्दन के हाथ में बेल्ट सर्पिणी की तरह लपलपा रही थी | शुरू में चन्दन ने बेल्ट की पूंछ पकड़कर धातु वाला बकल हवा में लहराना शुरू किया |
भोला गिरी चिल्लाया ,"अबे, बेल्ट उल्टा पकड़ | लोहे वाली चीज हाथ में | सर फोड़ेगा क्या?"
आखिर बेल्ट लड़ाई के भी नियम तो थे ही -अलिखित ही सही | "चटाक" - चन्दन का एक वार सीधे भोला गिरी की पीठ पर पड़ा | अब भोला भी तैश में आ गया और तेजी से बेल्ट घुमाने लगा |
मेरी तन्द्रा जब भंग हुई तो बहुत देर हो चुकी थी | मौका देखकर सतीश खैरे ने मेरी पेटी के ढक्कन पर वो करारा वार किया कि ढक्कन में एक गहरा पिचकाव आ गया | वो निशान पूरे पांचवी तक पेटी के ढक्कन पर बना रहा |
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साहू सर को ये बिलकुल रास नहीं आ रहा था कि कुछ लड़के बेंच पर बैठें और बाकी दरी पर | फल यह हुआ कि बेंचे तो रही, पर अब उनमें कोई बैठता नहीं था | साहू सर का मन तो यहाँ तक था कि बारिश ख़तम होने के बाद उन्हें बाहर रख दिया जाए |
एक बार १ 'द' की पशीने बहनजी ने कक्षा में झांक कर देखा | उनका अचम्भा अस्वाभाविक नहीं था |
"मास्साब, इन डेस्कों पर कोई बैठता नहीं ?" उन्होंने साहू सर से पूछा |
"अब क्या बताएं बहनजी ?" साहू सर बोले, " बड़ी क्लास के बड़े बड़े डेस्क दे दिया और बालक हैं छोटे- छोटे से | डेस्क पर पुस्तक रखते हैं तो उनकी नाक तक पहुँचती है | हाथ पूरा ऊपर उठा कर लिखना पड़ता है | आपको चाहिए तो आप ले जाइए |"
पशीने बहनजी खिसयानी हंसी हँसते हुए बोली,"सर , हमारे यहॉँ भी कुछ पड़े हुए हैं | वैसे आप ठीक कहते हैं |
पर हमारे लिए वो बेंच बड़े ही काम के थे | आधी छुट्टी में समय, जब बारिश हो रही हो और बाहर निकलना मुमकिन न हो , वो नदी पहाड़ खेलने के काम आते थे |
विनोद धऱ , चन्दन , भोला उनको खिड़की के पास से बेंचों पर छलांग मारने , एक ही छलांग में डेस्क के ऊपर चढ़ जाने , एक डेस्क से उछलकर दूसरे डेसक, दूसरे से तीसरे में जाने में कोई डर नहीं लगता था | शिवशंकर, खेमचंद , गोपाल और लंगड़ू विवेक भी उन कारनामों को दोहराने की कोशिशें करते थे | लेकिन किसी की ऊंचाई कम थी, कोई उतना फुर्तीला नहीं था, किसी के मन में शंका थी और विवेक तो लंगड़ाकर चलता था |
एक दिन अचानक हमें अनायास ही डेस्क के नए उपयोग का पता चला |
आधी छुट्टी में तीसरी कक्षा का कोई लड़का तेजी से आया और डेस्क की कुर्सी के नीचे छिप गया | हमें तो कुछ पल्ले नहीं पड़ा | अब तीसरी का लड़का था | गुस्सा आने पर मार भी सकता था | अचानक, तीसरी का कोई और छात्र आया | उसके कदमों में सतर्कता थी | वह बड़ी सावधानी से इधर उधर देख रहा था | अचानक डेस्क की कुर्सी के नीचे से वह लड़का तेजी से निकला और उस लड़के की पीठ पर धौल जमाकर बोलै "रेस" |
ओह हो | तो ये 'रेस-टीप' यानी लुका छिपी का खेल खेल रहे थे | धन्यवाद - जो आपने हमें एक 'छिपने' की जगह बता दी |
पता नहीं, क्या हुआ? साहू सर , जो नियमित रूप से आते थे, अचानक उनकी निरंतरता भंग होनी शुरू हो गयी | वे बीच बीच में एकाध दिन के लिए गायब हो जाते थे और तब पूरी कक्षा में मानो दहशत छा जाती थी | कारण यह था की हमें बगल वाली पशीने बहन जी की कक्षा में जाना पड़ता था | तब हमें युद्ध बंदी की परिभाषा मालुम नहीं थी | अब साहू सर बच्चों से जितने सहज थे, पशीने बहन जी उतनी ही सख्त थी | उस कक्षा में बैठने की कोई जगह मिलती नहीं थी | दरी के बाहर , इधर उधर , कुछ सिमटकर, कुछ चिपककर धूल भरी जमीन पर बैठना पड़ता था
अब हम कक्षा में सर झुकाये उस होनी की प्रतीक्षा कर रहे थे जो कभी भी टपक सकती थी | १ 'द ' की 'मॉनिटर' मीनू या निहायत गोरी चिट्टी भारतीय-रुसी लड़की हेलन कभी भी टपक सकती थी |
मीनू ने कक्षा में झाँका और वह भयानक संदेसा सुना दिया,"पशीने बहनजी तुम लोग को बुला रही है | ऐसे नहीं, सब लाइन से आओ |"
आँख बचाकर चन्दन और विनोद धर खिड़की के बाहर कूद गये | मैं और सूर्य प्रकाश डेस्क की कुर्सी के नीचे दुबक गए | ठीक वैसे ही, जैसे उस दिन 'रेस -टीप' वाला लड़का दुबका था | अब पशीने बहनजी को थोड़ी आशंका हुई कि सारे बच्चे शायद नहीं आये हैं | वह खुद खाली कक्षा में आयी | सूर्य प्रकाश ने अपने मुंह पर उंगली रख कर मुझे चुप रहने का इशारा किया | पशीने बहन जी ने शिवशंकर को दरवाजे के पीछे छिपे देखा और उसका कान पकड़कर वो उसे धकियाते हुए ले गयी | वो ठीक हमारे उस डेस्क के पास से गुजरी | मेरे दिल की धड़कने इतनी तेज़ हो गयी थी कि अगर पशीने बहनजी एकाध क्षण रूकती तो उन्हें 'धक्-धक्' साफ सुनाई देती | नतीजा ये हुआ कि जैसे ही बहन जी शिवशंकर को लेकर अगले दरवाजे और बढ़ी, मैं पिछले दरवाजे से भाग कर १ 'ड' के पिछले दरवाजे से ही अंदर घुस गया |
खेमचंद्र प्रकाश के बगल में एकाध फुट की जगह खाली थी | मैं वहीँ फिट हो गया | इधर पशीने बहनजी पढ़ा रहीं थी ," 'क' कमल का, 'ख' खरगोष का , 'ग' गमले का...|
अरे वाह , 'ग' गमले का पहली बार सुना था | अब तक तो 'ग' गन्ने का, 'ग' गधे का या 'ग' गणेश का सुना या देखा था | वैसे नवनीत के पास एक पुस्तक थी , जिसमें 'क' कबूतर का था | उसमें एक कबूतर की तसवीर भी थी , जो एक गाँव में किसी झोपड़ी के पास बैठा था | मेरे दिमाग मैं यही कुछ चल रहा था | खेमचंद की नज़रें बाहर ही लगी हुई थी | अचानक खेमचंद ने मुझे झकझोरा ,"देख, देख साहू सर आ गए हैं |"
शायद उसने बात कुछ जोर से कह दी थी | तुरंत हमारी कक्षा के बच्चों की निगाहें दरवाजे के बाहर देखने लगी | साहू सर गलियारे से रजिस्टर लेकर आ रहे थे | फिर अचानक वे रुक कर किसी बहन जी से बात करने लगे लगे | मानो उनको अपने देर से आने का कारण समझा रहे हों | कक्षा में किसी का भी ध्यान नहीं रहा | सब एक एक पल गिन रहे थे |
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जैसे - जैसे दिन बीतते गए, चन्दन खुलते चले गया | अब उसका जो स्वरुप सामने आया , वो उसके गरमा-गरम लोहे वाली छवि के एकदम विपरीत था | उसमें उसके हँसमुख भाई दीपक की छवि दिखती थी - शांत विजन की नहीं | न ही लड़कियों से बात करने से वह कभी कतराता था | साहू सर मुक्ता मिश्रा को स्नेह से 'शक्कर मिश्री' कहते थे | चन्दन ने भी उसे 'शक्कर मिश्री' कहना शुरू कर दिया |
प्राथमिक शाला की सबसे खराब बात यह थी कि वहां के मूत्रालय काफी गंदे होते थे | फल ये होता था कि लड़के तो बाहर , इधर-उधर जहाँ एकांत दिखे, या दीवार की आड़ हो (जैसे कक्षा १ ड के पीछे की दीवार) या हैज़ की झाड़ियां हो, वहां नज़र बचाकर धार छोड़ देते थे पर लड़कियों की बड़ी मुश्किल होती थी | पता नहीं, शायद उन्होंने पांच घंटे अपने आप को रोक रखने आदत बना ली हो |
अब पेशाब की छुट्टी मांगने के लिए लड़के किस ऊँगली का इशारा करते थे और लड़किया किन उँगलियों को आगे करती थी, मैं इस विषय में ज्यादा नहीं कहूंगा - आपको याद ही होगा | जैसा मैंने कहा, लड़कियां , एक शैतान कलवंत कौर को छोड़कर, शायद ही कभी साहू सर के सामने अपनी उँगलियाँ सामने करती थी | लड़के तो जब घूमने का मन करे, साहू सर के आगे छोटी उंगली तान देते थे | मुझे याद है, दूसरी कक्षा में इन सब से निजात पाने के लिए बडी बहनजी, गाँधी बहन जी ने एक पांच मिनट के लघु अवकाश भी लागू करने की घोषणा की जो दो पीरियड के बाद मिलती थी | पीरियड - पहली कक्षा में - हा... हा.. हा...|
उस दिन चन्दन तो पानी पीने का बहाना बनाकर कक्षा से बाहर निकल गया | उद्देश्य साफ था - शाला प्रांगण की एक परिक्रमा करना | सबके साथ शायद साहू सर को भी आश्चर्य हुआ होगा, जब पतली-दुबली, गोरी चिट्टी भूरे काले आँखों वाली मुक्ता मिश्रा ने दो उंगली आगे कर दी |
"जाओ|" साहू सर ने कहा |
अगले ही क्षण कलवंत कौर भी स्कर्ट समेटे, बुरा सा मुंह बनाये साहू सर के सामने दो उंगली करके खड़ी हो गई |
"एक-एक करके जाओ |" साहू सर भन्नाये |
तभी चन्दन दास दौड़ते हुए अंदर आया ," सर शक्कर मिश्री रो रही है |"
"क्या हुआ ?" साहू सर झट से अपनी कुर्सी से उठे |
शायद वह संडास की गन्दगी या बदबू थी कि मुक्ता मिश्रा ने संडास के बाहर ही उलटी कर दी थी और सफाई कर्मचारी कोंडैय्या , जो हरदम खाकी कमीज पहने, सर पर साफा बंधे घुमा करता था, मुक्त मिश्रा को डाँट रहा था | साहू सर को बताने के पहले चन्दन ने मुक्ता मिश्रा का पक्ष लेने की कोशिश की तो उसने चन्दन को ही घुड़क दिया |
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अब तस्वीर थोड़ी- थोड़ी बनने लगी थी | सुरेश बोपचे , चन्दन दास , विनोद धर और भोला गिरी की चौकड़ी धीरे धीरे आकार लेने लगी थी | चारों के चारों किसी भी भिड़ जाने वाले, उछल कूद में तेज़, गली गलौच से न कतराने वाले थे | हालाँकि उन समान विचारधारा के सहपाठियों अगर कोई थोड़ा बहुत अलग था तो वह चन्दन था | उसे पुस्तकों से उतना परहेज नहीं था | उसे अपनी सीधी बात मेज पर पटकने में कोई परहेज नहीं था - भले वह किसी के भी विरद्ध जाए | साथ ही कुछ और था, जो अक्सर कभी न कभी, किसी न किसी प्रसंग के रूप में सामने आ जाता था | जिसके कारण चंदन अपने आप को अकेला महसूस करने लगता था | जिसका निवारण काफी हद तक दो साल बाद कालकर बहनजी ने किया था | अक्सर वह प्रसंग कहीं और से नहीं, पुस्तकों से ही बाहर टपक पड़ता था | सब से पहले विनोद धर हँसता था और फिर दबे रूप से या खुलकर और लोगों की हंसी छूट जाती थी |
अब बाल भारती में एक कहानी थी , जिसमें विपरीत दिशा से आते दो बकरे नदी पार करना चाहते थे और नदी पर लकड़ी का एक संकरा पुल था | अब कहानी में बकरों के नाम कुछ भी हो सकते थे - चक्खन , मक्खन, सोहन मोहन, राम श्याम - कुछ भी |
फिर उनका नाम लालू और कालू रखने का क्या तुक था ?
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चन्दन चाचा के बाड़े में -
३० अप्रैल को रिजल्ट निकला और भारती अग्रवाल, जो तिमाही में तीसरे और छमाही में दूसरे नंबर पर आयी थी - वह वार्षिक में पहले नंबर पर पहुँच गयी | वो राजू (राजीव) सिंह, जो तिमाही और छमाही में शीर्ष स्थान पर था, वार्षिक में तीसरे स्थान पर खिसक गया | मैं तिमाही में दूसरे स्थान पर था और छमाही में तीसरे स्थान पर लुढ़क गया | उसके बाद जिन लोगों ने वार्षिक में भारती के पहले आने की भविष्यवाणी की थी, उन्हीं लोगों ने यह आशंका जताई थी कि उसी तर्ज़ पर मैं चौथे स्थान पर खिसक जाऊंगा | मेरी मां ने कहा, तू सेक्टर दो वाले हनुमान जी से 'सच्चे मन' से प्रार्थना कर | अब मैं वापिस दूसरे स्थान पर तो आ गया पर यह जानकर बड़ा क्षोभ हुआ कि भारती ने हम दोनों -मुझे और राजीव - को पीछे धकेल दिया था |
चन्दन कोई ऊपर की श्रेणी में तो कहीं नहीं था पर वह इस बात से बड़ा प्रसन्न था कि वह भोला गिरी, सुरेश बोपचे और विनोद धर से ऊपर आया है |
अब प्रतिशोध की जो ज्वाला हृदय में भभकी, उसके प्रतिकार का कोई अवसर नहीं प्राप्त हुआ, क्योंकि जुलाई में जब स्कूल खुला तो भारती अग्रवाल गायब थी | पता नहीं कहाँ चले गयी | अब साहू सर भी शाला में नहीं थे | कक्षा अध्यापक की भूमिका बिजोरिया बहनजी ने सम्हाल ली जिन्हें बड़ी कक्षा के शरारती छात्र मोटी बहनजी कहते थे | अब जब कहते थे तो कोई न कोई कारण तो होगा ही |
तो दरी में बैठने की अवधि भी संपन्न हो गयी, क्योंकि नए कक्ष में डेस्कों की चार कतारें थी | मनमोहन, जो कि एक साल पहले तक आर्यसमाज शाला में पढता था, वो हमारी शाला में और हमारी कक्षा में ही आ गया | पहले दिन उसे पहचानना मुश्किल नहीं था | क्योंकि, सारे बच्चे यूनिफार्म वाली आसमानी कमीज पहने थे और वह हरी कमीज , जिसकी जेब में तितली बानी हुई थी - पहन कर आया था |
"क्या हुआ मनमोहन ? " बिजोरिया बहनजी ने पूछा |
"जी बहन जी , जी, दरजी ने अभी तक पोशाक सिल कर नहीं दी है जी |"
बिलकुल हु-ब-हु यही उन दिनों हम लोगों के बात करने का तरीका था | शिक्षकों से वार्तालाप करते समय किसी भी वाक्य में चार से कम 'जी' लगाना बे-अदबी मानी जाती थी |
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भिलाई में सब्जी के दो बड़े बाजार लगते थे - बोरिया और सुपेला | सुपेला तो घर ज्यादा दूर नहीं था | मार्केट भी रविवार को भरता था | इसलिए वह ज्यादा सुना हुआ था | लेकिन बोरिया तो अच्छा खासा दूर था | बावजूद इसके वहां से भी लम्बा लक्ष्मण यादव और रवींद्र पढ़ने के लिए पैदल चलकर शाला क्रमणक ८ आएं - आज ये सोचकर हैरानी होती है |
एक तरफ वे दो थे तो दूसरी तरफ ठेकेदार का लड़का मोटू प्रदीप अग्रवाल था | वो और उसका बड़ा भाई अनूप, जो पांचवी में आया - कोहका से आया करता था जिसके बारे में तो कभी सुना भी नहीं था | प्रदीप ने ही बताया था कि सुपेला के भी आगे था - कोहका | मगर दोनों भाई अलग अलग साइकिलों पर आया करते थे |
क्या तुमने हाथी के बच्चे को साइकिल चलाते देखा है ?
समझ रहे हैं, मैं क्या बोल रहा हूँ ? जाहिर है, जब कोई इतना मोटा हो तो मित्रों को चिढ़ाने के लिए एक नया लक्ष्य मिल गया था | पर चन्दन की तरह प्रदीप मोटे को गुस्सा नहीं आता था - कभी नहीं | वह हरदम हँसते रहता था |
अब चन्दन और उसकी गाढ़ी छनने लगी |
बिजोरिया बहन जी को पान कहने का बहुत शौक था | जाहिर है, उसके लिए वो पान वाले पंडित जी के बेटे या उसके चचेरे भाई को ही भेजता थी | अब पंडित के दोनों लड़के शाला में अनियमित होने लगे थे | तब वो पान लाने के लिए भोला गिरी को भेजती थी |
"जी बहन जी, मैं भी जाऊँ ?" चन्दन दास पूछता |
"हाँ, जाओ |" बिजोरिया बहनजी पान का विवरण कागज़ पर लिखते हुए कहती | संभव है, पान बहुत भारी होते थे, शायद एक बच्चा उठा न पाए | या एक बच्चा विवरण का कागज़ सम्हाले और दूसरा पैसे या पान | बहन जी को उनकी ईमानदारी पर पूर्ण विश्वास था | वैसे भी बच्चे ईमानदार होते ही हैं | शैतानी को ईमानदारी से नहीं जोड़ा जा सकता |
बहन जी को आलू गुंडे खाने का भी बहुत शौक था | उसके लिए वह सुरेश बोपचे को भी भेज देती थी, क्योंकि आलू गुंडे वो अपने लिए ही नहीं, एकाध और बहन जी के लिए भी मंगाती थी | इस कार्य के लिए चन्दन का सहायक की भूमिका के लिए अनुमति लेना आसान था | मुझे लगता था, शाला की चहरदीवारी में चन्दन का दम घुटता था | जब मुंह में पानी लाने वाली खुशबू फैलाते हुए आलू गुंडे आते, बिजोरिया बहनजी हमें शुद्धलेख या कोई लम्बा सा काम पकड़ा देती और फिर दो या तीन (चटोरी) बहन जी घर परिवार की बातें करते | आराम से आलू गुंडा खाते | इस बात का मुझे हरदम मलाल रहा कि बहन जी ने कभी मुझे आलू गुंडा लाने नहीं भेजा | मुझे भी खुली हवा का झोंका अच्छा लगता था | शायद उन्हें मेरे पैसों के लेनदेन पर मुझ पर भरोसा नहीं था | शायद उन्हें लगता था कि मैं गरमागरम आलू गुंडा नीचे गिरा दूंगा | शायद दुकानदार मुझे ठंडा और बासी आलू गुंडा पकड़ा देगा और मैं चुपचाप ले आऊंगा | ऐसे कार्यों के लिए तो दबंग लड़कों की आवश्यकता पड़ती है | |
एक दिन बहन जी अपनी छोटी सी बच्ची को कक्षा में ले आयी |
काफी छोटी सी बच्ची, जो घुटनों के बल ही चल सकती थी | अब मैं कामकाजी शिक्षिकाओं की परेशानी समझ सकता हूँ | हो सकता है, घर में कोई आया या भृत्य हो - जो आज छुट्टी पर हो | हो सकता है, सास बच्ची को सम्हालती रही हो जो आज खुद बीमार पड़ गयी हो | जो भी हो - कक्षा के सारे बच्चे उस छोटी सी बच्ची को देखकर खुश हो गए- खासकर लड़कियां | अब बच्ची एक हाथ से दूसरे हाथ किसी गुड़िया की तरह लड़कियों की पंक्ति में घूमती रही |
चन्दन को यह सब बिलकुल रास नहीं आ रहा था | बिजोरिया बहनजी की कक्षा में उपस्थिति उसने ख़ारिज कर दी | एक नन्ही सी बच्ची पर अत्याचार ?
उसने वहीँ खड़े खड़े लड़कियों को हिदायत दी, "ठीक से पकड़ो | अरे बच्ची को चोट लग सकती है | जुमा, ऐसे मत पकड़ो | रेजीना , नाख़ूग से खरोच लग जाएगी | " फिर उसने सरिता को डाँटा ,"गर्दन मुड़ जाएगी | सम्हाल के पकड़ो |" जब भी वह कुछ कहता ,वह बच्ची गर्दन घुमाकर उसकी ओर ध्यान से देखने लगती | शायद चन्दन भी वही चाहता था | जब बच्ची उसकी और देखती तो वह अजीब सी 'टी ट ट " आवाज़ निकालता | फिर वह बच्ची उसकी और देखकर मुस्कुराने भी लगी |
छोटे बच्चों की मुस्कान कितनी निश्छल और निर्मल होती है, मैं पहली बार देख रहा था | थोड़ी बहुत चन्दन से ईर्ष्या भी हो रही थी, लेकिन आश्चर्य तो कई गुना ज्यादा हो रहा था | चन्दन का ये मैं एक नया ही रूप देख रहा था | उसके शुष्क ह्रदय में वात्सल्य का ऐसा भाव छिपा होगा, मैंने सोचा भी नहीं था || हालाँकि उसके निर्देश पूर्णतः व्यावहारिक थे, लेकिन लड़कियां तो लड़कियाँ , खुद बिजोरिया बहनजी एक बार सहम सी गयी | चन्दन ठीक ही तो कह रहा था | इन अति उत्साही नादान बच्चियों का क्या भरोसा ? शायद कोई जोर से पकडे और बच्ची की त्वचा लाल हो जाये | शायद कोई सम्हाल न पाए और बच्ची गिर पड़े |
दूसरा कारण यह था कि कक्षा तो आखिर चल ही रही थी | बच्चों को कुछ पढ़ाना भी तो था | बिजोरिया बहन जी ने बच्ची को अपनी बड़ी सी मेज के बीचों बीच लिटा दिया और वह श्याम पट की और बढ़ गई - तीन अंकों का गुणा भाग सिखाने लगी | पूरी कक्षा का ध्यान शायद श्याम पर ही लगा था | बच्ची कब उठकर डेस्क में ही इधर उधर चलने लगी, किसी को कोई पता ही नहीं चला |
अचानक बिजोरिया बहनजी को लगा कि आसपास कोई हलचल हुई है | अगले ही क्षण चन्दन दास डेस्क के नीचे से निकला ," जी बहन जी , जी ये छुटकी की पायल | " उसके हाथों में बच्ची की चाँदी की पायल थी |
वो बच्ची बीच से, घिसट घिसट कर घुटनों के बल चलती हुई मेज के एक छोर तक पहुँच चुकी थी | उसने वहां से नीचे झाँका और शायद ऊंचाई या गहराई का अन्दाजा लगते ही वह रोने लगी |
अगले ही क्षण वह चन्दन की गोद में थी | बहन जी की अनुमति लिए बिना वह उस रोती हुई बच्ची को कक्षा से बाहर ले गया | जैसी अस्पष्ट आवाज़ आ रही थी , उससे इतना तो स्पष्ट था कि बच्ची का रोना बंद हो गया था और चन्दन उसे शाला के पीतल के बड़े घंटे के पास बनी छोटी सी वाटिका में फ़ूल दिखा रहा था |
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राजीव सिंह का "मेरे जू जू जू जूते का हाल देखो" तो याद ही होगा | और मनमोहन की हरी कमीज और "जी बहन जी, जी दरजी ने सिलकर नहीं दिए जी |" तो याद होगा | भिलाई इस्पात संयंत्र यानी 'बी. एस. पी. को ऐसे बच्चों का काफी ख्याल था | इसीलिये तो वे हर साल बच्चों को नए जूते और नए कपडे बाँटा करते थे |
अब कोई पूछे कि १९७१ में , यानी जब हम पहली में थे, क्यों नहीं बाँटे ? जाहिर सी बात है, बांगला देश से शरणार्थी आये थे | अब दूसरी में एक दिन बिजोरिया बहनजी ने पूछा, "विजय , (साहू सर विजय सिंह से बिजोरिया बहनजी ने मुझे काट छांट कर विजय बना दिया था |), तुम ( यानी बाबूजी) नाम बी एस पी (नॉन बी एस पी ) हो या ऑफिसर ?
बड़ा दुविधाजनक प्रश्न था | ऑफिसर तो सारे डबल स्टोरी में रहते थे - जैसे कि अशोक भोपले के पिताजी या फिर बड़ी बहनजी खुद | अब मैं "नाम बी एस पी " भी नहीं हो सकता | क्यों ? ये उद्बोधन मैंने पहले कहीं सुना था | हाँ, घर में बिसाहू आया था और वो सर पर रूमाल बांधे था | वो दिहाड़ी मज़दूर था और क्रेन चलाता था | रामनाथ ने उससे पूछा तो उसने बताया था कि वो "नाम बी एस पी " था | अब बाबूजी तो कभी सर पर रुमाल बांधते नहीं थे |
"ऑफिसर" मैंने कुछ सोचकर जवाब दिया लेकिंन बिजोरिया बहनजी मेरे जवाब से संतुष्ट नहीं हुई |
"घर से पूछ कर आना |" उन्होंने मुझसे कहा |
घर में बड़ों में शशि दीदी ही घर पर थी | मैंने उनसे पूछा,"हम लोग ऑफिसर हैं या नाम बी एस पी ?
मेरी आशाओं पर सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया | "नाम बी एस पी |" उन्होंने और बेबी ने एक साथ जवाब दिया |
"नाम बी एस पी?" मुझे सहसा विश्वास बही हुआ |
"नाम नहीं | नॉन .. नॉन बी एस पी |"
"हाँ वही | नान बी एस पी |"
उस दिन से 'नाम बी एस पी ' का वो ठप्पा मेरी पीठ पर पूरे शालेय जीवन में चिपका रहा | कहीं न कहीं, कभी न कभी, किसी न किसी रूप में वह बेशर्मों जैसे "हें ", "हें", "हें" करता हुआ प्रकट हो ही जाता था |
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तो फिर परिणाम क्या हुआ ?
कपडे की खेप बड़े बड़े कार्डबोर्ड के भूरे डिब्बों में आयी थी | कपडे बाँटने वाले तीन लोग उन कपड़ों के साथ बड़ी बहनजी के कार्यालय के पास खड़े थे | हमारी कक्षा के छात्र फूले नहीं समा रहे थे ,"आज कपडा मिलेगा |" सेक्टर ५ में 'महिला समाज' था | मनमोहन की सुचना के आधार ये कपडे वहीँ से सिलकर आते थे |
यह तय हुआ कि सारे बच्चों को एक साथ न बुलाया जाये | अनुक्रमांक के हिसाब से तीन तीन बच्चों को कक्षा से भेजा जाना था | बिजोरिया बहनजी कपड़ों के ढेर के पास कुर्सी में जम गयी |
चन्दन का रोल नंबर था - १२, मेरा १३ और जे मोहन राव (वल्द जे टाटा ) का १४ |
सबको धनुष से निकले तीर की तरह भागने की जल्दी पड़ी थी | जिन तीन बच्चों का अनुक्रमांक पुकारा जाने वाला था, वे बेंच से बाहर निकलकर डेस्क की दो कतारों के बीच के गलियारे में खड़े रहते, थोड़ा आगे झुके , एक पांव आगे , घुटने मुड़े हुए | वैसे हमारे रजिस्टर का क्रमांक तीन से शुरू होता था, जो विष्णु का था | रोल नंबर एक पर बाबा सिंह था , जिसका नाम पहली कक्षा में ही कट गया था - शायद चोरी के इल्जाम में - वो बाल सुधार गृह {नाबालिग जेल) में था | दो पर शायद कोटि था, जिसने कुछ दिनों में ही शाला छोड़ दी थी |
कहने का तात्पर्य यह, कि चन्दन (१२), मैं (१३) और जे मोहन राव (१४) और बच्चों की तरह आगे झुके, घुटने मोड़े तैयार खड़े थे |
"रोल नंबर १२" और चन्दन ऐसे सरपट भागा जैसे बहनजी ने सौ मीटर की दौड़ शुरू होने की सीटी बजाई हो |
अब आप मेरे दिल की धड़कन सुन सकते थे | कक्षा में अब गिनती के लोग बाकी बचे थे अगर मैं मुड़कर देखता तो मुझे प्रदीप अग्रवाल दिख जाता जो हाथ बांधे शांति से बैठा था | लेकिन मैं तो आगे देख रहा था |
लिस्ट देखकर, दरवाजे पर खड़ा 'कपडे वाला' आदमी चीखा,"रोल नंबर १४"| और मेरे पीछे से जे. मोहन राव, मुझे धकियाते हुए, बेंचों से टकराते हुए, उड़न छू हो गया | वैसे भी "छुआ छुई" के खेल में जे. मोहन सबसे फुर्तीला था |
मुझे काटो तो खून नहीं | मैं कुछ देर तक घुटने पर हाथ रखे खड़े रहा | फिर जाकर 'कपड़े वाले' आदमी से पूछा ,"मेरा रोल नंबर नहीं बुलाया ?"
"क्या नंबर है ? "
"तेरह |"
"तुम्हारा नंबर नहीं है | " उसने सूचित किया |
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गिनती के तो लड़के बचे थे | एक अशोक भोपले , जो दूसरी बेंच पर बैठा था | और सबसे पिछली कुरसी पर प्रदीप अग्रवाल शांति से हाथ बंधे बैठा था | मैं तो रुआंसा हो गया था | आंसू बस अब टपके, तब टपके मगर प्रदीप के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी |
"मेरा नाम नहीं बुलाया प्रदीप ?"
कोई तो था, जिससे मैं दुःख बाँट सकता था | अब अशोक भोपले भी आ गया | खेमचंद बिहारीलाल खिड़की के पास खड़े होकर बाहर, दूर रेल पटरी की और देख रहा था |
"तू नहीं गया प्रदीप ?"
मेरे इस प्रश्न को पूछने के पीछे उद्देश्य यह था कि वह कहे, तू भी तो नहीं गया | फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हो |
"मैं तो नॉन बी एस पी हूँ |" प्रदीप ने शांत स्वर में कहा |
ओह | अब राज़ खुल गया कि मेरा नाम क्यों नहीं बुलाया गया |
"और मेरे पिताजी ऑफिसर हैं | " अशोक भोपले ने अपनी सफाई दी |
बड़े आश्चर्य की बात थी | उनको कैसे मालूम हुआ ये सब ? यानी जो उनको मालूम था, मुझे क्यों मालूम नहीं था ?
"तो तुम्हे मालूम था ? कैसे ?" मैंने पूछा |
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उनको मालूम था, क्योंकि उनके बड़े भाई और बहन ऊँची कक्षाओं में पढ़ते थे |
थोड़ी देर में ही बच्चे वापिस आने शुरू हुए | किसी के चेहरे पर ख़ुशी थी | किसी के चहरे पर गम | प्रमोद मिश्रा ख़ुशी से फुला नहीं समा रहा था | राजीव सिंह , मिश्री लाल, खेमचंद प्रकाश , सब दो दो जोड़ी कपडो के बण्डल उठाये "हा हा ही ही" कर रहे थे |
मैंने कहा , कुछ बच्चे दुखी थे | और चन्दन का मुंह तो एकदम फूला हुआ था |
और इधर उधर कहीं ना रुक कर वह सीधे प्रदीप अग्रवाल के बेंच पर गया और उसने कपड़ों का बण्डल उसके टेबल पर पटक दिया |
प्रदीप सबसे पीछे बैठा करता था | उसकी डेस्क की टेबल और कुर्सी आपस में जुडी हुई नहीं थी | मेज भी नत समतल होने के बजाए सपाट थी | प्रदीप लम्बा तगड़ा कम, मोटा ताज़ा ज्यादा था | उसके पांव और बच्चों के मुकाबले लम्बे और मोटे थे | देखा जाए तो वह जुडी टेबल कुर्सी पर फिट भी नहीं हो पाता - के कॉर्क की तरह उसका फंस जाना निश्चित था | संबसे पीछे बैठकर इस बेंच को वह सुविधानुसार आगे पीछे खिसका सकता था और साँस ले सकता था |
"ये कपडे तू ले ले बे |" चन्दन ने कपडे उसकी मेज पर पटककर कहा |
"क्या हुआ? " प्रदीप मुस्कुराया |
"खोल इसका साइज देख | मैं दसवीं में भी पहुँच जाऊंगा तो इन कपड़ों में फिट नहीं हो पाऊंगा | तू रख ले | " चन्दन गुस्से से उबल रहा था |
"मेरे पास वैसे ही बहुत कपडे हैं भाई |"
"तो साइकिल पोंछने का कपड़ा बना लेना |"
प्रदीप और उसका बड़ा भाई अनूप दोनों कोहका से साइकिल चलाकर आते थे |
ठीक उसी समय बिजोरिया बहनजी ने कक्षा में प्रवेश किया | शायद उन्होंने चन्दन की बात सुन ली थी |
"सब लोग अपनी जगह पर जाओ |" अगर वे आदेश नहीं भी देती तो भी लोग भागकर अपनी डेस्क पर जाकर बैठ जाते और अच्छे बच्चों की तरह मुंह में उंगली रख लेते |
क्रोधी चन्दन भी बेमन से अपनी जगह पर जाकर बैठ गया |
"किन किन बच्चों को अपने साइज़ का कपडा नहीं मिला ?"
दान की बछिया के दांत गिनने वालों की संख्या काफी थी |
इस देश में बहुत से लोगों को पहनने के लिए कपड़ा नहीं मिलता ...|" बहन जी के कहने का आशय कुछ ऐसा था कि - भई , इन कपड़ों को पहनकर तो तुम्हें स्कूल आना है, फैशन परेड में तो जाना नहीं है | फिर झोला हो या लंगोटी , क्या फरक पड़ता है ? ज्यादा हो तो दरजी तो है ही | दो चार हाथ लगा देगा |
चन्दन फिर भी नहीं माना | अंततः बहनजी को कहना पड़ा,"ठीक है | सुबह की पाली वाले बच्चों को कपड़ा नहीं मिला है | जब उनका डब्बा खुलेगा तो सबसे पहले , जिन बच्चों का साइज़ गड़बड़ है, उनके कपडे बदल देंगे | तब तक बण्डल खोलना मत | कल सुबह नौ बजे ...|"
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वैसे चन्दन से मिलने के लिए स्कूल का इंतज़ार नहीं करना पड़ता था | इधर-उधर, कहीं से भी जानी पहचानी आवाज़ सुनाई देती, "विजय सिंह" | पीछे मुड़कर देखो तो चन्दन का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिख जाता | उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी | आश्चर्य की बात तो यह थी कि वो बाड़े के उस पार था और मैं इस पार | भूरी हरी चमचमाती नयी कमीज पहने - वो अंदर कैसे पहुँच गया ?
गणेश भगवान की मूर्ति तो गणेश पूजा के समय सेक्टर २ बाजार मैं बैठाई जाती थी लेकिन दुर्गा पूजा में मूर्ति सेक्टर २ मंदिर के प्रांगण में (मंदिर परिसर में नहीं ) प्रतिस्थापित की जाती थी | मंदिर परिसर में घुसने के पहले दो तीन कमरे बने थे | एक में संध्या के समय वर्षों से कोई होम्योपैथिक चिकित्सक बैठा करते थे | एक मंच के लिए जगह थी , जहाँ गर्मियों में राम लीला होती थी | वहीँ पर अभी दुर्गा की मूर्ति विराजमान थी | लेकिन स्टेज के चारों तरफ बाड़ा लगा दिया जाता था ताकि लोग माँ दुर्गा के दर्शन के दूरी से करें |
तो प्रश्न ये था, कि चन्दन बाड़े के अंदर कैसे पहुँच गया ?
"तू अंदर अंदर कैसे पहुंचा बे ?" मैंने पूछा |
"क्यों ? क्या हुआ ? जिसको माँ चाहती है, बुला लेती है | " उसने सहजता से जवाब दिया |
"मतलब दुर्गा माँ हम लोगों को नहीं चाहती ?" मेरे साथ में सड़क के बचपन का दोस्त मुन्ना था | वो भी एक नंबर का मुंहफट था ," केवल बंगाली लोग को चाहती है | अबे हम लोगों ने भी चंदा दिया है | "
मुझे लगा, अभी चन्दन फट जायेगा और बाड़े से कूदकर बाहर आ जायेगा | लेकिन वह सिर्फ मुस्कुरा दिया | शायद मूड अच्छा था | मुन्ना ने फिर पूछा,"तो तुम लोग कोई ओर्केस्ट्रा वगैरह करवा रहे हो या ...|"
"हम लोग का जात्रा होता है न |"
तभी किसी ने चन्दन को अंदर से आवाज़ दी और चन्दन अंतर्ध्यान हो गया | बात अधूरी रह गयी | सामने केवल माँ की प्रतिमा ही रह गयी थी |
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"खड़े हो |"
"नमस्ते |"
"बैठ जाओ |"
"थैन्चू |"
धत तेरे की | कालकर बहनजी ने फिर सर पकड़ लिया | उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इन बच्चों को अच्छे गुण कैसे सिखाये जाये , जो कि अति आवश्यक थे |
आखिरी का जुमला ही सारा खेल बिगाड़ रहा था |
पहले उन्होंने 'खड़े हो, जय हिन्द, बैठ जाओ " और "धन्यवाद" की कोशिश की | लेकिन "धन्यवाद" के बदले बच्चों में मुंह से "धनबाद" ही निकल रहा था |
"तुम लोग धन्यवाद बोलना चाहोगे या 'थैंक यू' बोलोगे?" उन्होंने पूछा | चलो, 'थैंक यू ' की कोशिश करते हैं |"
जब "थैंक यू " कोशिश की तो चन्दन दास की ऊँची आवाज़ ने सबकी आवाज़ दबा दी ,"थैन्चु" |
तीन सालों में ये हमारी तीसरी शिक्षक/शिक्षिका थी | लेकिन अगले तीन वर्षों तक वो हमारे साथ रही |
अब विद्यार्थियों का समूह भी तो बदल गया था | प्रदीप पता नहीं, कहाँ चले गया | पंडित के दोनों लड़के अंतर्ध्यान हो गए | कोई कहता था, फ़ैल हो गए, पर उसकी सम्भावना कम थी | क्योंकि दूसरी तक अगर कोई बच्चा फ़ैल होता भी था, तो भी उसे ऊपर की कक्षा में चढ़ा दिया जाता था | चंद्रावती नहीं दिखी तो लोगो ने (लड़कियों ने) दबी जुबान में कहना शुरू किया कि उसकी शादी हो गयी है |साइकिल दुकान वाले की लड़की नसीम नहीं थी और डाकिये की बेटी लीलावती भी नज़र नहीं आयी , हालाँकि कलावती अब भी क्लास में थी | जीवन गायब था | तालाब के किनारे महुआ के पेड़ों पर अचूक निशाना लगाकर फल तोड़ने वाला खेमचंद बिहारीलाल गायब था |
बहुत ही जल्दी कालकर बहनजी ने पहचान लिया था कि कक्षा के सबसे उधमी बच्चे कौन से हैं और उन चौगड्डे में सबसे अलग कौन है ? जाहिर है, चन्दन ही सबसे अलग था | कहने को तो राजीव सिंह कक्षा का कप्तान था - पहिली कक्षा से ही - क्योंकि वही प्रथम आता था | लेकिन पहले दिन से ही बहन जी ने देख लिया था कि वह कितना निष्क्रिय है | बहन जी कक्षा के बाहर गयी नहीं कि दे हल्ला गुल्ला, धौल धप्पड़, छुआ छुई धड़ल्ले से चालू हो जाता था |
एक दिन पता नहीं, क्या सोचकर, कालकर बहनजी ने झल्लाकर कह दिया ,"अगर चन्दन पढ़ाई में थोड़ा और अच्छा होता, तो मैं उसे ही मॉनिटर बनाती |"
इसमें चन्दन का जितना सम्मान छुपा था, उससे ज्यादा राजीव सिंह के लिए आँख खोलने की हिदायत छिपी थी | इसका दूसरा अर्थ ये निकiला जा सकता है कि कप्तान बनने के लिए तुम्हें कक्षा में अव्वल आना पड़ेगा |
तो "खड़े हो" , यह हिस्सा राजीव सिंह को बोलना था | "नमस्ते" - सारे सुर में सुर मिलाकर कहते | "बैठ जाओ " ये हिस्सा आगंतुक को कहना था | मुश्किल यह थी कि अगर वो न कहे तो ? फिर कब तक खड़े रहना है?
और बैठने वाले हिस्से का जो चन्दन की ऊँची आवाज़ में "थैन्चू" था, उसमें कालकर बहनजी को अपनी भद्द पिटती नज़र आयी |
बहनजी ने श्याम पट पर 'धन्य' लिखा | फिर 'अलग से 'वाद' लिखा |
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"एक पहलवान अम्बाले का,
एक पहलवान पटियाले का |
दोनों दूर विदेशों में, लड़ आये हैं परदेशों में ...|"
कालकर बहनजी ने काव्यांश का ये हिस्सा मुझे पढ़ने सौंप दिया और खुद दरवाजे पर खड़े होकर 'ड' वर्ग की शाह बहनजी से बातचीत में मशगूल हो गयी | उन्हें मेरी परेशानी का जरा भी अंदाजा नहीं था | मैं बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोक पा रहा था | कारन यह था कि मेरे एक एक वाक्यांश पर सुरेश बोपचे और भोला गिरी डेस्कों की दो कतार के बीच 'मूक अभिनय' कर रहे थे | जब पहलवानों का ज़िक्र आता तो मूछों पर ताव देते | जब अखाड़े पर उतरने का जिक्र आता तो ताल ठोंकते | हद तो तब हो गयी , जब मैंने कहा,"चन्दन चाचा के बाड़े में |"
यकीन मानिये, कक्षा में शोर मच गया , जबकि कालकर बहनजी दरवाजे पर ही खड़ी थी | वह तुरंत उलटे पांव अंदर आयी और सब शांत | मैं भी शांत | आप सोच सकते हैं, उनका डायलॉग क्या होगा ? हर प्राथमिक शाला की शिक्षिका के तरकश में यह तीर जरूर होता था |
"मच्छी बाजार है क्या ये ?"
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क्या चन्दन को अब गुस्सा नहीं आता था ? जरूर आता था | उसके दिल के करीब कुछ तस्वीरें थी | कोई भी उन्हें छूता तो चन्दन का पारा थर्मामीटर फोड़ देता था | लेकिन अब उसके सामने होते कौन थे ? वे ही लोग जिनसे वह खुद को अलग भी नहीं कर पाता था | और बाकी लोगों को भी चन्दन को पिनकाने में खास मज़ा आता था
इन सब मामलों में विनोद धर बहुत शरारती था |
वैसे शाला की पुस्तकें भी कहीं न कहींसे कोई मौका जरूर दे देती थी | एक दिन कक्षा में गुरु नानक जी पर एक पाठ पढ़ाया जा रहा था | अभी पाठ शुरू ही हुआ था | प्रमोद मिश्र पढ़ रहा था "...और उनके पिता का नाम .." अगले ही क्षण रोकते रोकते भी विनोद धर की हंसी छूट ही गयी |
"रुको | " कालकर बहनजी ने हँसते हुए विनोद धर को खड़ा किया। "क्यों हंस रहे विनोद ?"
विनोद धर के पास कोई जवाब हो तो दे | वो बेचारा तो अब भी अपनी हंसी रोकने की कोशिश कर रहा था | दूसरी ओर बहन जी ने चन्दन का तमतमाया चेहरा देख लिया था |
एक क्षण तो बहनजी को शायद कुछ समझ में नहीं आया कि क्या कहे ? लेकिन अब करीब करीब सब बच्चों के दूध के दांत गिर चुके थे | यह बिलकुल उपयुक्त समय था बच्चों को सिखाने का कि उन्हें किस बात पर हंसना चाहिए और किस बात पर नहीं |
"क्या कोई आदमी अगर काला है तो हमें उस पर हॅंसना चाहिए ? क्यों हॅंसना चाहिए ? क्या काला इंसान मूर्ख होता है ? क्या वो कमजोर होता है ? कौन कहता है वो बदसूरत होता है ? वैसे तो किसी मूर्ख , कमजोर या बदसूरत पर हॅंसना अपने आप में ही सबसे बड़ी बेवकूफी है |
सब सर झुकाये सुन रहे थे |
"रंग और रूप तो भगवान् का दिया हुआ है | इसका मतलब तुम भगवान् पर हॅंस रहे हो | जिसने सारी दुनिया बनाई , उस पर हँस रहे हो ? तुमने राम और कृष्ण की तो बहुत कहानियां पढ़ी हैं | राम का रंग क्या था ?"
मनमोहन ने दबी जुबान में उत्तर दिया ,"सांवला" |
बहनजी ने उसकी बात सुनी अनसुनी कर दी ,"काला | राम जी का रंग काला था | और कृष्ण जी का रंग ?"
कक्षा में सन्नाटा था ,"कृष्ण जी का रंग भी काला था | अब वे तो भगवान् के अवतार थे | चाहते तो उनका रंग गोरा चिट्टा भी हो सकता था | फिर क्यों उनका रंग काला था ?"
सच कहा जाये तो उस दिन तक मैंने राम या कृष्ण की कोई भी ऐसी फोटो या प्रतिमा नहीं देखी थी जिनमें उनको काला दिखाया गया हो | और तो और, चंदामामा की कहानियों में भी उनका रंग नीला ही दिखाया गया था | कालकर बहनजी की ये बात गले नहीं उतर रही थी | लेकिन सच्चाई ये भी तो थी कि कभी नीले रंग का इंसान नहीं देखा था |
उस समय कालकर बहनजी बहुत क्रोधित थी | ये सवाल जरूर मन में कौंधा , कि अगर वे काले थे तो उनको नीला क्यों दिखाया जाता है ? क्या चित्रकार् को उन्हें काला दिखाने में शर्म आती है ? बहनजी का गुस्सा देखकर ये सवाल मैंने भविष्य के गर्भ में दबा दिया जो वहीँ दबा रह गया | न तो कभी कोई प्रसंग उठा और ना ही अगले अढ़ाई सालों में मुझे कभी याद आया |
कायदे से चन्दन को चिढ़ाना इस घटना के बाद एकदम बंद हो जाना चाहिए था | वह काम जरूर हुआ लेकिन पूर्ण विराम नहीं लगा | वही लोग चन्दन को पिनकाते और चन्दन उनसे अलग नहीं हो पाता |
तभी तो चौथी कक्षा में जब बम फूटा और चन्दन बाल-बाल बच गया तो कालकर बहन जी के मुंह से बरबस निकल पड़ा ,"चन्दन होता तो वो भी जरूर होता |"
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( क्रमशः )
काल - १९७१ -७६
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