दक्षिण अफ्रीका से तीसरे टेस्ट हारने की टीस क्रिकेट प्रेमियों के मन से हटी ही नहीं थी कि कोहली के कप्तान पद त्याग देने का समाचार आ गया | कोई और मौका होता तो शायद उनके इस निर्णय को दक्षिण अफ्रीका से मिली हार से जोड़कर देखा जाता | लेकिन इस अवसर पर किसी को कई बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ | अगर भारत ये टेस्ट और श्रृंखला जीत भी जाता तो भी कोहली कप्तानी छोड़ ही देते | आखिर एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं ? हाँ, जीत के बाद पद त्याग से उनके मन में परम संतोष अवश्य होता | लेकिन यह करीब करीब तय था कि अगर कोहली ऊँगली ना दिखाते तो अगला जरूर ऊँगली उठा देता |
बात जब तलवारों की ही निकली है तो बाइबिल में प्रभु ईसा ने कहा ही है - "जो तलवारों से जीता है, उसे तलवारों से ही मरना पड़ता है | " अपने खेल जीवन में मैदान के अंदर और मैदान के बाहर भी कोहली काफी आक्रामक रहे हैं | उनके इस आक्रामक रवैये की तुलना केवल एक ही पूर्व खिलाडी से की जा सकती है | संयोग से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की बागडोर उसी के हाथ में है | वे हैं - सौरव गांगुली | भारत में प्रधानमंत्री के बाद कोई और पद अगर बहुचर्चित और शक्ति, गरिमा और दायित्व का प्रतीक होता है तो वह है भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान | ऐसा नहीं कि दोनों सर्वोच्च पद हैं | लेकिन जहाँ राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को किसी भी तरह नियंत्रित करने में अक्षम हैं वहीँ क्रिकेट कट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष , क्रिकेट टीम के कप्तान को पूरी तरह कंट्रोल करते हैं | ये अलग बात है कि राष्ट्रपति की ही तरह वे भी विरले ही कप्तान के कामकाज में दखल करते हैं | उसके बावजूद समय समय पर कुछ ऐसे अप्रिय और विवादस्पद निर्णय से बोर्ड क्रिकेट खिलाडियों को यह अवगत कराते रहता है कि भले वे कितने भी महान क्यों न हो , उन्हें किसी और के सामने सर झुकाना ही पड़ता है | उदाहरण के बहुत दूर, बिशन सिंह बेदी तक जाने की जरुरत नहीं है - जब १९७४ में अनुशासनहीनता के मामले में उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया था | खुद भारतीय क्रिकेट बोर्ड के सर्वेसर्वा सौरव गांगुली एक खिलाडी के बतौर इसे झेल चुके हैं |
मैदान के बाहर कोहली की आक्रामकता , जो कभी अनुशासनहीनता के रूप में झलकती है , पीढ़ियों के अंतर से स्पष्ट समझी जा सकती है | जीवन के हर पहलू में यह अंतर स्पष्ट देखा जाता है | पहले जहाँ लोग बुजुर्गों का सम्मान उनके अनुभव से अर्जित ज्ञान और सलाह के लिए करते थे, आज के इस गूगल दौर में उनकी कोई अहमियत नहीं रह गयी है | बल्कि नयी पीढ़ी बुजुर्गों किसी भी ऐसी सलाह को पहले खुद सूचना माध्यम की कसौटी पर परखती है | क्रिकेट भी इससे अछूता नहीं रहा है | आविष्कार और अन्वेषण ने भी क्रिकेट को कहाँ से कहाँ तक पहुंचा दिया है | आजकल बल्लेबाज़ ऐसे शॉट खेलकर रन बटोरते हैं, दस पंद्रह साल पहले उनकी कल्पना ही की जा सकती है | गेंदबाज़ ऐसी गेंदें फेंकते हैं, उनकी गेंदबाजी में इतनी विविधता होती है , जो पहले कभी देखी नहीं गयी | और तो और, आज के खिलाड़ी क्षेत्ररक्षण के लिए मैदान में कहीं ज्यादा फिट है | आज अगर कोई कैच छूटता भी है तो बात बहुत दूर तक निकल जाती है |
क्या कमी है नयी पीढ़ी के खिलाडियों के पास? पैसा, शोहरत , हर तरह के मनोरंजन, चाहने वालों की भीड़ सब कुछ तो है | जो थोड़ी बहुत कसर थी वो आई. पी. एल. जैसी प्रतिस्पर्धाओं ने पूरी कर दी | फिर भला वे बुजुर्गों का सम्मान क्यों करें ? आखिर उन्होंने देश को मान सम्मान दिलाने में कोई कमी नहीं रखी | फिर थोड़ा बहुत अनुशासनहीन होने में क्या बुराई है ?
कोहली इसी पीढ़ी के प्रतीक हैं | जो मैदान के अंदर जान लगा देता है , पर मैदान के बाहर आज़ादी चाहता है | लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि ऐसा करके वे एक बड़े वर्ग की सहानुभूति खो देते हैं जो उनकी तब सहायता कर सकते हैं, जब उनको उसकी सख्त जरुरत हो | आज हरेक पद के लिए एक एक नहीं कई दावेदार हैं | होड़ लगी है | ऐसे में जब प्रदर्शन थोड़ा भी ढीला होता है तो लोग ऐसी हर गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित कर देते हैं, जिसका खेल से कोई लेना-देना नहीं होता | फिर भी लोग समीकरण बिठा बिठाकर ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि स्तर में गिरावट की असली वजह क्या है ?
कोहली का बल्ला अभी खामोश नहीं हुआ है | कल के एक दिवसीय मैच मैं उन्होंने ५१ रन की महत्वपूर्ण पारी खेली है | वे थोड़े भावुक भी हैं और पूरे दिल से, पूरी लगन से खेलते हैं | कप्तान के रूप में उन्होंने भारत को अगले स्तर पर पहुंचा दिया है | बतौर कप्तान उनका कोई विकल्प निकट भविष्य में नहीं दिखता | या तो लोग काफी युवा हैं, या काफी पुराने | फिर टीम में उस खिलाड़ी की जगह स्थायी भी तो होनी चाहिए | उसे अपने खुद के प्रदर्शन से लोगों को उत्साहित करने की क्षमता तो होनी चाहिए | माइक ब्रेयरली का ज़माना तो है नहीं |
ऐसे मैं कोहली विवादों से दूर, एक खिलाड़ी के रूप में पूरी सक्षमता के साथ टीम को संकट से उबारते रहें तो उनकी छवि और भी निखर जायेगी | कोई जरूरी नहीं कि हर कोई राम हो | टीम में हनुमान की भी जरुरत होती है | ख़ामोशी से यह कार्य तेंदुलकर वर्षों से करते आये थे |
आप कितने भी महान और प्रतिभाशाली क्यों न हो, बदतमीज़ी हमेशा आपको माकूल सम्मान से दूर रखती है। मैदान में कई बार ऐसे अवसर आते है, जब आप स्फूर्त प्रतिक्रया देते हो, चाहे वो कितनी भी भद्दी क्यों न हो, परंतु यही व्यवहार खेल के बाद सार्वजनिक टिप्पणी के समय हार का ठीकरा साथी खिलाड़ियों पर फोड़ते हुए दर्शाया जाए, तब आम जनमानस उसे आपकी अपरिपक्वता के तौर पर आंकता है। यही कोहली विषय मे साबित होता है। चाहे क्रिकेट कितना ही आक्रामक क्यों न हो गया हो, आज भी उसे शिष्टाचार के लिए जाना जाता है। इसी वजह से कोहली और तेंदुलकर में अंतर कर पाते है। इस लिए हिंदी में कहा जाता है "अध जल गगरी छलकत जाए भरी जल गगरी चुप्पे जाए"। समय के साथ शायद कोहली भी इसे समझ जाएंगे।
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