शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के .... -१


शक की दवा तो हाकिम लुकमान के पास भी नहीं थी | मैं तो साढ़े पांच साल का बच्चा था !
चंद्राकर किराना स्टोर के सामने की सड़क से चलते जाओ तो वह सेक्टर दो की एवेन्यू बी से मिल जाती थी | भिलाई के भूगोल की परिभाषा के अनुसार 'एवेन्यू' याने लम्बी सड़क जो सेक्टर के आर पार जाती हो | खैर, तो जहाँ पर मार्केट की वह सड़क एवेन्यू बी से मिलती थी, वहाँ एक बस का स्टॉप था | किस बस के लिए - मुझे नहीं मालूम - क्योंकि भिलाई शहर में बसें या तो स्कूल की होती थी या भिलाई इस्पात संयंत्र की | जो भी हो - सायेदान जरुर गर्मी से राहत देता था | और वहीँ तो उसके ही एक स्तम्भ पर लाल डिब्बा टंगा था |
सर्दी, गर्मी, बरसात - सब सहते बरसों से टंगा था और बरसों तक टंगे रहा |
" मैं डालूं चिट्ठी ?" मैंने पूछा |
"तेरा हाथ नहीं पहुंचेगा |" बेबी ने कहा |
फिर पता नहीं, उसे क्या सूझा , उसने मुझे चिट्ठी पकड़ाई और हवा में उठा लिया |
"वो जो सामने का ढक्कन है ...?"
"कौन सा ढक्कन ?" पता नहीं, बेबी क्या कह रही थी? ढक्कन तो डब्बे के ऊपर लगा होता है |
"अरे वही जो हिल रहा है | उसे उठा और चिट्ठी अन्दर डाल दे |"
अच्छा , सामने की झिर्री पर एक जंग खाया ढक्कन झूल रहा था | मैंने उसे उठाया तो दरार स्पष्ट नज़र आई | मैंने झिर्री में चिट्ठी अन्दर डाल दी |
बेबी ने मुझे नीचे उतारा | फिर डिब्बे को इधर उधर हिलाया |
"ऐसे क्यों हिला रहे हो ? " मैंने पूछा |
"ताकि चिट्ठी कहीं डिब्बे में फँस न जाए |"

देखा - शक महाशय झटपट, बिना बताये मेरे नन्हे से दिमाग में घुस गए |

"ये भी तो हो सकता है कि फूफा ने चिट्ठी डालने के बाद डिब्बा नहीं हिलाया हो ?" मैंने पूछा |
"पता नहीं, पर उनके बाद जो चिट्ठी डालने गया होगा , उसने तो डिब्बा हिलाया होगा | कुछ नहीं, ये पोस्टमैन बड़े बदमाश होते हैं |"

लाल डिब्बे को देखते हुए मैं सोचने लगा - पोस्टमैन बड़े बदमाश होते हैं | लाल डिब्बे के नीचे लगे एक दरवाजे पर एक ताला नज़र आया |
"हो सकता है, कोई ताला खोलकर चिट्ठी निकाल कर ले गया हो ?"
"कैसे ले जाएगा ? चाभी तो पोस्टमैन के पास होती है |"

शक अब विश्वास में बदलने लगा था कि पोस्टमैन बड़े ही बदमाश होते हैं | फिर भी, ये तो जानना जरुरी था कि कहाँ के पोस्टमैन ने ये काम किया |

" तो फूफा ने घुठिया के लाल डिब्बे में चिट्ठी डाली होगी | फिर ?"
" घुठिया का पोस्टमैन उसे लेकर बैतालपुर आया होगा |"
"फिर ?"
"बैतालपुर के डाकघर में डाकिये ने मुहर मारी होगी , फिर उसे गाड़ी में भरकर बिलासपुर लाया होगा |"
"बिलासपुर ? फिर ?"
"बिलासपुर के पोस्टमैन ने उसे डाक वाली रेलगाड़ी में डाला होगा |"
"फिर ? क्या रेलगाड़ी में भी पोस्टमैन बैठा होगा ?"
"फिर दुर्ग में जब गाड़ी रुकी होगी तो दुर्ग का पोस्टमैन उसे भिलाई के डाकघर लाया होगा | वहाँ फिर डाकिये ने एक और मुहर मारी होगी |"
"फिर वहाँ से एक पोस्टमैन हमारे घर लेकर आया होगा ...|" मैंने जोड़ा |
"वही तो नहीं लाया | यही तो गड़बड़ है | अब इतने सारे पोस्टमैन में से किसने बदमाशी क़ी , क्या मालूम ?"
एक डाकिये से दूसरा डाकिया ....दूसरे से तीसरा ...

मैं फिर सोचने लगा | थोड़े दिन पहले , मैंने चंदामामा से एक शब्द सीखा था - 'डाकू' | अब मुझे 'डाकू' और 'डाकिया' भाई भाई लगने लगे |

तभी डाक की गाडी आ गयी | आनन् फानन में लोग एक कतार में खड़े हो गए | कौन पहले आया था, कौन नहीं - पता नहीं | किसी को उतनी जल्दी भी नहीं थी - सिवाय मेरे | डाक वैन की खिड़की खुली और खाकी कपडा पहने पोस्टमैन ने खोल के अन्दर कछुए की तरह अपना सर बाहर निकाला ,"मनी ऑर्डर फोरम ख़तम हो गया भाई | "
ऐसा लगा, जैसे कोई बम गिरा हो | लाइन में लगे कई लोग कानाफूसी करने लगे | कुछ लोग तो वापिस जाने लगे |
"क्या ? तो हम लोग पैसे कैसे भेजेंगे ?" लाइन में खड़े एक सज्जन ने हुँकार भरी |
"बड़े पोस्ट ऑफिस में ही ख़तम हो गया , साहब |" पोस्टमैन ने लाचारी भरे स्वर में तटस्थता का पुट मिलाते हुए कहा |
"मालूम है न , राखी के दिन हैं | सरकार को ज्यादा मनी ऑर्डर फोरम छापना चाहिए |"
"आप ठीक कहते हैं | " पोस्टमैन ने हाँ में हाँ मिलाई | उसी में उसकी भलाई थी | वह मामले को तूल पकड़ने से बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा था |
"तो हम लोग पैसे कैसे भेजें ? लिफाफे में डालकर ?"
"ऐसा मत कीजिये साहब | पोस्टमैन लोग चोर होते हैं | " एक दूसरे सज्जन ने उसे शांत करने की कोशिश की |

मैं उसकी बात से सहमत था |
तैश में आने के बजाय डाक गाड़ी के अन्दर बैठे पोस्टमैन ने बात अनसुनी करना ही बेहतर समझा ," साहब, लिफ़ाफ़े में पैसे भेजना गैर कानूनी है |"
"तो क्या करें - हम लोग ?" सज्जन ने अपनी आस्तीन चढ़ाई |
डाकिया कुछ देर सोचता रहा , फिर मरी आवाज़ में उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया ,"इंतज़ार |"
उस ज़माने में लोग चिट्ठियां लिखा करते थे | वही तो संचार का सबसे सुलभ साधन था | डाकघर दूर दूर होते थे | जैसे, एक बड़ा डाकघर सेक्टर एक में था | सबके लिए, हर एक दिन डाकघर जाना संभव भी नहीं था | इसलिए, वैसी डाक गाड़ी सप्ताह में तीन दिन शाम को विभिन्न स्थानों पर आती - ताकि लोग डाक सामग्री खरीद सकें ...|

,,, और अपने दिल की भड़ास निकाल सकें |

जैसी कि आशंका थी - बेबी पोस्टमैन से लड़ पड़ी |
"नहीं बेबी .... | " आखिर उसे बेबी का नाम कैसे पता चला ? " नहीं, ऐसा मत सोचो | पोस्टमैन लोग जान बूझकर कोई चिट्ठी गायब नहीं करते |"
"तो ऐसा कैसे हो सकता है ?" बेबी बोली ," जो चिट्ठी सेक्टर ५ के पते मर भेजी, वो तीन दिन पहले मिल गयी | और उसी व्यक्ति ने ने उसी दिन उसी समय जो चिट्ठी सेक्टर दो के पते पर भेजी , वो आ तक नहीं मिली | सरे आम बदमाशी है ये |"
"चिट्ठी में क्या राखी आने वाली थी ?"
"हाँ |" बेबी बोली |
"अच्छा , ये बोलो | सेक्टर पांच में उनके ... मेरा मतलब है ... सगे लोग रहते हैं ?"
"हाँ | तो फिर ?"
"यही तो बात है बेबी |" पोस्टमैन ने मानो गुत्थी सुलझा ली ," एक बात कहूँ - राखी के दिनों में सगों क़ी चिट्ठी समय पर पहुँच जाती है | बाकि रिश्तेदारों को थोडा इंतज़ार करना पड़ता है ...बस थोडा सा | " बात टालने के बाद बात पलटते हुए उसने कहा ," और कुछ लेना है आपको ?"
वापिस आते आते मेरे मन में सवाल घूम रहा था - सगा या साग - 'सगे' शब्द से मेरे आँखों के सामने 'साग' क़ी तस्वीर बन रही थी | बेबी से मैंने पूछा ," साग खाने वाले लोग सगे होते हैं क्या ? साग तो हम लोग भी ....|"
बेबी अलग भुनभुना रही थी ," पोस्टमैन को भला कैसे मालूम चलेगा कि चिट्ठी सगे क़ी है या ...| जब तक वो खोल के ना पढ़े ...| ,,, और फूफू तो बाबूजी क़ी सगी बहन है ...!

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कई दिनों बाद, उस घटना के कई महीनों बाद मुझे उसका नाम पता चला - जब मुझे प्राथमिक शाला क्रमांक आठ में दाखिला मिल गया था |

"वो ? वो तो दौलत है | चलना है उसके पास ?" दीपक मुझे करीब करीब खींचते हुए शाला नंबर आठ के तार के पास ले गया | तार, जो कि शाला नंबर आठ की चहर-दीवारी निर्धारित करती थी | उसे लांघना वर्जित था |

तार के बाहर , उस पार, दौलत मुस्कुरा रहा था - मानो लड़कों को लक्ष्मण रेखा लांघने के लिए आमंत्रित कर रहा हो , या ललकार रहा हो | दौलत तो हरदम मुस्कुराते रहता था , पर ना जाने क्यों, उस दिन की घटना के बाद , मुझे लगता था कि मुझे देखकर उसकी मुस्कान और चौड़ी हो जाती थी |


मगर वह घटना तो तब हुई थी जब मैं शाला जाता भी नहीं था | जब भी माँ मुझे कोई छोटी मोटी चीज, नमक या माचिस लेने बाज़ार भेजती, मैं हमेशा तालाब के किनारे से जाता जो कि शाला के दक्षिणी छोर पर पड़ता था | जहाँ दौलत अपना ठेला लगाकर सुबह से शाम तक शाला के बच्चों क़ी प्रतीक्षा करते रहता था | सांवला सा चेरा, पतला दुबला शरीर , दो अंगुल क़ी दाढ़ी जो घनी नहीं हुई थी | उसके ठेले में ढेर साड़ी चीजें होती थी | चना, मटर, रेवड़ी और मूंगफली तो हर ठेले वाले के पास होती थी | उसके पास और कुछ भी था | रंग बिरंगी प्लास्टिक क़ी छोटी छोटी चकरी, तुतरू, सीटी - इतना ही नहीं, मैंने लूडो का बोर्ड, रेल का इंजन भी उसके पास देखा |कौन खरीदता होगा उन्हें ? वे सब तो महंगे आते हैं |

जल्दी ही वह राज खुल गया |

उस दिन मेरी लॉटरी निकल गयी |
सचमुच ? ... हाँ सच्ची मुच |

जब भी मैं बाज़ार से माँ के लिए कभी नमक , कभी माचिस तो कभी जीरा लेकर जाता , तो मेरी जेब में कभी पाँच तो कभी दस पैसे होते | तब मेरे पाँव दौलत के ठेले के पास से गुजरते समय अक्सर धीमे हो जाते मैं हर बार असमंजस में रहता कि कांच के जार में बंद चूरन क़ी खट्टी मीठी गोलियां लूँ या पीपरमेंट क़ी संतरे के फांक के आकर वाली नारंगी चूसनी | दोनों ही पाँच पैसे क़ी पाँच मिलती थी | फिर माँ का गुस्से से भरा चेहरा ख्याल आते ही मैं आगे बढ़ जाता था |

उस दिन दो विद्यार्थी उसके पास खड़े थे |
"आज लॉटरी निकलेगी |" एक लड़का बोला ,"लूडो का चार नंबर है न ?"
अब मैं थोड़ी दूरी पर खड़ा होकर देखने लगा |
एक लड़के ने पाँच पैसे का चौकोर सिक्का दौलत को पकडाया |
दौलत ने उसे रंग बिरंगे कागज क़ी चौकोर पुडिया पकडाई | उस लड़के ने धीरे से पुडिया फाड़ी | उसका दोस्त नज़रें गडाए देख रहा था उसने नंबर देखा ,"बारह ...|" उसके मुंह से निकला , "धत तेरे क़ी .... |"
दौलत उसे प्लास्टिक क़ी एक हरे रंग क़ी गुडिया पकड़ा रहा था |
गुडिया उसके दोस्त ने ली | छोटी सी गुडिया के पाँव के पास सीटी लगी थी | उसके दोस्त ने सीटी बजाई ,"सीं , सूँ , सीं |"
"तू रख ले बे | " उसका मन खिन्न हो गया था ," लीला को दे देना | खुश हो जाएगी | मेरी तो कोई बहन नहीं है |"
उसने चूरन क़ी पुडिया से चूरन मुंह में उड़ेल लिया |

उसकी हो ना हो - मेरी तो बहनें थी | बड़ी भी और छोटी भी | पर मेरा मन रेल के इंजन के लिए ललचा गया | राग बिरंगा, छोटा सा, चाभी वाला इंजन ...| उसका नंबर सात था ...|

"लॉटरी कितने क़ी है ?" मैंने पूछा | हालाँकि उस लड़के को मैंने पाँच पैसे देते देखा था, फिर भी, कहीं वो ठग ना ले }
"पंजी |" दौलत ने कहा |
मैंने उसे पाँच का सिक्का पकडाया | उसने मुझे वैसे ही कागज़ क़ी एक चौकोर पुडिया पकड़ाई | धड़कते दिल से मैंने पुडिया खोली |
"आठ नंबर |" मैंने थूक निगलते हुए कहा | वह नंबर मुझे आज तक याद है |
आठ नंबर कुछ खिलौनों के और पिपरमेंट के जार के पीछे छिपा था | दौलत ने मुझे चमचमाती हुई पीतल क़ी सौफ क़ी ट्रे पकड़ा दी |
एक पल तो मैं सकपका गया | इतनी सुन्दर ट्रे - किनारे किनारे हरे और लाल रंग के बेल बूटे बने हुए थे | बीच में गोल - गोल, कुछ नक्काशी उकेरी गयी थी | घर के सौफ के ट्रे से वह छोटी जरुर थी , पर उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत थी |
सिर्फ पाँच पैसे में .... लॉटरी इसी का तो नाम है ....|

पर अब मुझे पसीना आने लगा | जितना सोचता, घबराहट उतनी ही बढती जाती | | अगर माँ ने पूछा, बेटा, मैंने तुझे दस पैसे देकर भेजा था | नमक तो पाँच पैसे का था | बाकी पाँच पैसे कहाँ हैं , तो फिर क्या जवाब दूंगा ? नहीं, इस ट्रे को छुपाना फ़िज़ूल है | माँ से कह दूंगा, मैंने पाँच पैसे में ख़रीदा है | पर माँ ने पूछा कि भला पाँच पैसे में कहाँ से ट्रे मिलती है - तो फिर ?

"माँ, आज मेरी लॉटरी निकली है |" मैंने धडकते दिल से आखिरकार सच ही कहा - पूर्ण सत्य था यह - लेशमात्र भी मिलावट नहीं |

"लॉटरी ? मतलब ? " माँ कुछ समझी नहीं |
मैंने माँ को चमचमाती ट्रे दिखाई ,"पाँच पैसे क़ी लॉटरी |"

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हर सड़क में मकानों की आमने - सामने दो कतारें होती थी ( कौन सी बड़ी बात है ?) | एक कतार छोटी और एक बड़ी | पीछे वाली सड़क की छोटी कतार की पीठ, अगली सड़क के छोटी कतार की पीठ से मिलती थी | और इस तरह दो छोटी कतारों की बगल की खाली जगह एक मैदान का रूप धारण कर लेती थी | सब रुसी लोगों के बुद्धि की उपज थी | उन्होंने मैदान के लिए जगह तो दी, पर उससे ज्यादा कुछ नहीं | बाकी लोगों की कल्पना शक्ति पर छोड़ दिया | चाहे फुटबाल खेलो या होंकी | क्रिकेट खेलो या कबड्डी | साइकिल सीखो या पतंग उडाओ | नाव चलाओ या होली जलाओ |
परिणाम ? इक्कीस और बाइस सड़क के लोगों में स्वाभाविक भाईचारा था | रोज सुबह शाम मिलते थे, हंसते खेलते थे, गालियाँ देते , गाना गाते , लड़ाई करते , मजाक उड़ाते | उसके मुकाबले सड़क तेईस, जी हाँ , बाइस सड़क की अगली ही सड़क, एक परदेश की तरह लगती थी |

शैल का घर तेइस सड़क के कोने में था | और शैल शशि दीदी की पक्की सहेली थी | उन दिनों लड़कियों का चश्मा पहनना एक अभिशाप माना जाता था | समझा जाता था कि इससे सुन्दरता घटती है और लड़कियों क़ी सुन्दरता एक अनिवार्य गुण माना जाता था | शैल चश्मा जरुर पहनती थी , वो भी मोटे फ्रेम का चश्मा | पर उसने उसके बातूनीपन पर कोई असर नहीं पडा था |चपड़ - चपड़ बातें करना, छेड़ना उसकी आदत में शुमार था | और इसी बात से मुझे घबराहट होती थी | कई बार वह ऐसी बात पूछ बैठती , जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं होता |फिर या तो शशि दीदी मेरी मदद करती, या मैं धरती फटने का इंतज़ार करता |

राखी का दिन था वो | जो स्कूल जाते थे उनकी छुट्टी थी | जो नहीं जाते थे , उनकी तो ....खैर |
"चल, घूम के आते हैं | " शशि दीदी ने मुझसे कहा |
"पैदल या साइकिल में ? " मैंने पूछा |उनकी लेडीज़ साइकिल में सामने डंडा तो था नहीं , इसलिए पीछे करियर में ही बैठने को मिलता |
"आलसी राम, ज्यादा दूर नहीं , पास में ही जाना है |"
जब हम पुलिया पार करके तेइस सड़क में मुड़े तो मेरा माथा ठनका |
"शैल के घर जा रहे हैं ? " मैंने पूछा |
" हाँ | "
मैं ठिठक गया |
"क्यों ? क्या हुआ ?"
"कुछ नहीं, मुझे नहीं जाना |"
"अरे , चल | " शशि दीदी ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा ,"क्या हुआ ? तुझे क्या करना है ? बस, चुपचाप खड़े रहना |"
वो मुझे चुपचाप खड़े रहने दे तब न | कोई चुपचाप खड़े रहे - ये उसे फूटी आँखों नहीं सुहाता था | उसकी दुनिया में, हर किसी को हर वक्त बोलना चाहिए, चाहे कोई सुनने वाला हो या नहीं | जो भी हो, मैं एक अनुशासित सिपाही की तरह शून्य की ओर निहारते उलटी गिनती गिनते शांत भाव से खड़ा था |
"इतनी सारी राखी ? " उसने पूछ ही लिया |
मेरे दोनों हाथ राखी से भरे हुए थे | अब उन दिनों बड़ी - बड़ी फूल वाली राखियाँ हुआ करती थी | एक से बढ़कर एक, डिजाइन वाली | जब राखियाँ बड़ी हों और हाथ छोटे हों तो जाहिर है , हाथ राखियों से भर जायेंगे | और जब एक हाथ भर जाएँ तो दूसरा हाथ ...|

"तेरी कितनी बहनें हैं ?" भौहें सिकोड़ कर उसने पूछा |
मैंने मन में गिनती शुरू क़ी, "बेबी एक , शशि दो , शकुन तीन , शांता चार , रमा ... फिर मुझे कुछ सूझा | मैंने पहले दाहिना हाथ सामने किया , फिर बांया हाथ | तात्पर्य यह कि गिन लो - जितनी राखी , उतनी बहनें |

"अच्छा ? इतनी सारी बहनें ? तू तो किस्मत वाला है रे | जब तुझे मार पड़ती होगी तो ये बहनें तुझे बचाती होंगी |"
मुझे उम्मीद तो थी कि शशि दीदी मुझे बचाएंगी इस बातूनी अफलातून से , पर वो तो बस मुस्कुरा रही थी |
"और जब तू बड़ा होगा तो फिर तुझे इनको बचाना पड़ेगा | सब क़ी सब तेरी सगी बहनें हैं ?"

"हाँ |" मुझे क्या पता था, सगी याने क्या ? मैंने सोचा , जो साग बना सके वो सगी | साग तो सभी बना सकते हैं - संजीवनी भी सीख जाएगी |
"नहीं , नहीं |" शशि ने तुरंत प्रतिवाद किया ,"नहीं रे, इसे सगी का मतलब नहीं मालूम |"
शैल क़ी मुस्कान और चौड़ी हो गयी | खैर, अब मेरे मन में गुडगुड होने लगी , सगी का मतलब क्या ? कौन सगी है और क्यों ? जो नहीं है, तो क्यों नहीं ? वह सवाल का कीड़ा, जो उस दिन बेबी की डाकिया से लड़ाई के बाद मेरे दिमाग में घुसा था, , अचानक जागकर कुलबुलाने लगा |

"मेरी कितनी सगी बहनें हैं ? " आते समय मैंने पूछ ही लिया |
"तीन | " शशि दीदी ने जवाब दिया |
"कौन ? आप , शकुन और ...."
"नहीं, शकुन नहीं |"
"क्या ? क्यों ? " मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा | शकुन ने भी तो मुझे वी ही राखी बंधी थी, जैसे सबने | ठीक है, रमा और शांता हम लोगों के घर में नहीं रहते , शायद वो सगे नहीं हों | पर शकुन ...|
"सगी मतलब क्या ?"
अब शशि दीदी सोच में पड़ गयी | कैसे समझाया जाये .....|
"तुझे कैसे बताऊँ ? एक तरह से सोच कि जिनके माँ और बाबूजी एक ही हों | वो सगा |"
"पर कैसे पता चलेगा , कि ...शकुन तो ..."
"शकुन बाबूजी को क्या कहती है ? " शशि दीदी झल्ला सी गयी |
"मामा "
"और तू ?"
"मैं ? बाबूजी |"
"और मैं ?"
"बाबूजी |"
"और बेबी ?"
"बाबूजी ....|"

****************-

शैल के घर क़ी घटना मेरे दिमाग के किवाड़ खोल दिए | इसका मतलब हमारे घर में जो लोग हैं, सब के सब सगे नहीं हैं | वो तो एक सामान्य सदस्य की तरह रहते हैं | न तो कभी उनके साथ कोई भेदभाव हुआ, न उन लोगों ने कभी हमारे साथ भेदभाव किया | सब तो एक साथ प्यार से मिलजुल कर रहते थे | इतना ही नहीं, कितने लोग आते थे, कुछ दिन रहते थे और फिर चले जाते थे |कुछ लोग थोडा रुकते थे, कुछ लोग ज्यादा |

मुन्ना के घर में उसके दो चाचा लोग रहते थे , पर वे आँगन में मिटटी क़ी कुटिया में रहते थे | कौशल भैय भी तो आँगन में अपने लकड़ी के कमरे में ही रहते हैं | जबकि व्यास शकुन और लक्ष्मी भैया घर में रहते हैं |

जब व्यास सेक्टर ५ चले गए, तो लक्ष्मी भैया भी उनके साथ ही चले गए | फिर भी, वे अक्सर आते रहते थे - खास कर रविवार के दिन ,"मामी , सुपेला बाज़ार से क्या क्या लाना हैं ?" और वो एक छोटा कागज़ और पेन्सिल लेकर बैठ जाते | जब तक उनके लिए चाय गरम होती, माँ बताते रहती , "आलू ? उस दिन कौशल लाया था | यह सप्ताह भर चल जायेगा |"
कभी कभी वे कौशल या रामलाल या श्यामलाल को लेकर सुपेला बाज़ार जाते |
पर अचानक उनका आना जाना कम तो नहीं, पर अनियमित होने लगा | पता नहीं क्यों ? अक्सर छुट्टी के दिन वो अपने गाँव घुठिया भी जाने लगे | तब सुपेला बाज़ार की ज़िम्मेदारी कौशल निभाते |
तभी कुछ लोग और रायपुर से भिलाई रहने के लिया आये | उनका घर सेक्टर दो में था, पर दूसरे छोर में | पर तब जीवन की एकरसता को एक नया आयाम मिल गया |

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"चलो तो भाई .... चलो तो बेटा ....|" पिताजी कौशल भैया से बोले ,"चलो तुमको रमा का घर दिखा दूँ , फिर अगले बार खाने पर बुलाने के लिए तुम ही जाना ....|"
"सबको खाने के लिए बुलाना ..| सब ...|" माँ कुछ बोल रही थी कि बाबूजी ने उनकी बात बीच में ही काट दी ,"हाँ , हाँ ...| सबको बुलाऊंगा | पर ...| " उनको कुछ सूझा नहीं ,"उसको घर में भी तो ... | " उन स्वर कुछ अस्पष्ट सा था |
मैंने बाबूजी को स्कूटर की किक मारते देखा तो सड़क पर चक्का चलाना छोड़कर दौड़े दौड़े आया ,"कहाँ जा रहे हो बाबूजी ...| मैं भी चलूँ ?"
"ठीक है, ठीक है ...| बाबूजी अनमने ढंग से बोले ,"जा | माँ को बोल कंघी कर दे ...|"
मैं नहानी में गया और जल्दी से चेहरे पर पानी डाला | भय था कि कहीं बाबूजी चल न दें | भागते भागते आया और लपक कर स्कूटर के सामने सवार हो गया |
"अरे मैंने कहा था कंघी करवा के आना | ठीक है, ऐसे ही चल ....|"

बाबूजी रास्ते में कौशल को बोले जा रहे थे ," चलो अच्छा हुआ | रमा लोग भी यहीं आ गए ...| कॉलेज भी यहीं है | फिर व्यास और लक्ष्मी लोग भी यहीं हैं ...|"
बाबूजी कुछ कुछ बोले जा रहे थे | मेरे पल्ले कुछ पड़ रहा था, कुछ नहीं | रमा कौन है ? नाम तो कई बार सुना है ...| हाँ, एक राखी उनकी भी तो आती थी ... | कहीं वही तो नहीं ?
कई सवाल उठ रहे थे , पर पूछने क़ी हिम्मत नहीं हो रही थी ...|
यही तो घर होना चहिये ...| बाबूजी बुदबुदाए ,"पर इतनी भीड़ क्यों लगी है ?"
देखा जाये तो वह सेक्टर २ का सड़क नंबर १ ही था - लेकिन डबल स्टोरी वाला नहीं | सेक्टर दो की दो सड़कें बहुत लम्बी थी १ और २ | इत्तेफाक से एक और दो में ही डबल स्टोरी घर भी थे - पर शुरू के हिस्से में नहीं |

सड़क १ के एक और मैदान भी था | अरे वाह, कितनी अच्छी सड़क है | यह तो रेल पटरी के कितने पास है ...| यहाँ से तो रेलगाड़ी साफ़ दिखाई देती होगी ....|
भीड़ इतनी ज्यादा थी कि बाबूजी को स्कूटर घुमाकर वापिस मोड़ना पड़ा | वे आगे जा ही नहीं सकते थे | वे स्कूटर घुमाकर सड़क के दुसरे छोर से घुसे | किसी तरह वे उनके घर के पास पहुंचे |

घर का दरवाजा तो खुला था , पर कोई था ही नहीं ...|
तभी दो लड़कियां , -एक कोई सात साल साल की और दूसरी चार साल की - भागते हुए आई |
मैंने उन्हें देख हो, याद नहीं पड़ता -|
"रंजना, तुम्हारी माँ कहाँ है ?"
"बगल के घर में ...| बुलाऊं ?"
वो तो चले गयी | दूसरी लड़की - बबली वहीँ खड़े रही |
"अरे मामाजी ...|" जो नाटे कद की महिला जल्दी जल्दी चलते हुए आई , वही रमा थी ....|
"बैठिये न ....|"
घर में एकमात्र आराम कुर्सी रखी हुई थी | आराम कुर्सी, यानी वो कुर्सी, जिसमें सिर्फ एक चादर लगी होती थी | मुझे नहीं लगता, बाबूजी उसमें बैठने के आदी होंगे | वो खड़े ही रहे |
"तुम्हारी मामी ने सबको खाने के लिए बुलाया है ...| 'सबको' ...|" बाबूजी ने 'सबको पर जोर दिया ,"वो कहाँ हैं ?"
"वो ? क्या बताऊँ मामाजी | आज फिर रायपुर निकल गए | उनको तो घर की कोई चिंता है नहीं | फुटबाल मैच था ...|"
अरे ...| तो रात तक आयेंगे ?"
"पता नहीं | बोल रहे थे , टीम हार गयी तो दस बजे तक वापिस आ जायेंगे | जीत गयी तो अगला मैच खेलने वहीँ रुक जायेंगे ... घर से ज्यादा तो वो मैदान में रहते हैं ...|"
" तो चलो मेरे साथ | अकेले यहाँ बच्चों के साथ कैसे होगा ?"
"नहीं मामाजी, रह लेंगे हम लोग | और फिर टीम हार गयी तो वो वापिस आ जायेंगे | चाबी तो उनके पास है नहीं | "
"ठीक है | बाबूजी सोच में पड़ गए ...,"ये बाहर भीड़ कैसे लगी थी ?"
"कुछ नहीं | झगडा हो गया ...|"
"राजदेव के पापा को पुलिस पकड़ कर ले गयी ..|" रंजना बोली |
"धीरे बोल |" रमा ने झिड़का ,"वो हमारे बगल वाले हैं न ...| पडोसी ...| पता नहीं , क्या झगडा हुआ ...| पुलिस आ गयी ....|"
"सब बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के चले गयी ....|" अचानक छोटी लड़की बबली बोल पड़ी ...|
अरे नहीं मामाजी | रमा बोली ," कोई जुर्म नहीं है | ऐसा राजदेव की माँ बोल रही थी | पुलिस वाले बस ऐसे पकड़ के ले गएहैं ...|"

****************

उस रात मैने एक सपना देखा ...|
घर के बाहर मेहंदी के पेड़ के नीचे एक बिलसपुरिहा काली मोटर कड़ी हुई है ...| कतिपय पुलिस वाले कुछ पूछ रहे हैं ... मुझे कुछ खास नहीं सुनाई दे रहा था ... बस यही कि ;"बी. एस.. पी का घर ... सगे रह सकते हैं ...| "

मैं दरवाजे के पीछे छुप रहा था ...| एक पुलिस वाले ने मुझे देख लिया ,"ये ?" पता नहीं , कहाँ से शैल क़ी आवाज़ आई ,"ये तो सगा भाई है ...|" वो भी पलिस क़ी वर्दी में ...? हाथ में डंडा ...| पता नहीं, कौन कौन , किसीका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था ... | एक एक करके पुलिस की बिलसपुरिहा काली मोटर में समाते
गए ...|
"कोई जुर्म नहीं ...|" शैल की आवाज गूंजी,"पुलिस बस ऐसे ही .... |"
जब घरघराते हुए मोटर चले गयी, तो उस घर में हम आठ लोग ही बच गए | छह 'सगे' भाई बहन और माँ और बाबूजी ....|

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माँ ने करीब करीब हर दिन हर आने वाले मेहमानों को वह ट्रे दिखाई |
"टुल्लू को लॉटरी में मिली है |"
उस ट्रे को जिस कोण से देखा जाता, वह उतना ही चमकदार दिखता | वैसे तो ख़ुशी मनचाही वास्तु के मिल जाने पर आधी और कुछ ही दिनों में चौथाई रह जाती है, लेकिन मेरी ख़ुशी को हर बार माँ का नए नए लोगों के सामने बखान करने एक नया जीवन मिल जाता था |

"क्या ?" कल्याणी ने उसे उलट पलट कर देखा ,"पांच पैसे की लॉटरी ?"
"सचमुच ? " कांता बोली ,"वह , टुल्लू की तो किस्मत तेज़ है |"
"कितनी सुन्दर ट्रे है |" गुड्डा की माँ बोली |
मोटी मिसराइन तो कुर्सी से लुढ़कते - लुढ़कते बची ." ऐसी ट्रे ? पांच पैसे में ?"

अभी तो और कई लोग बाकी थे | डाक्टरनी, उर्मिला , बन्छोरिन - पता नहीं वो क्या कहेंगे ?
मुझे गलत मत समझिये , मगर इन तारीफों ने मुझमें वो हवा भर दी कि मैं हवा में उड़ने लगा | गनीमत थी कि मेरी जेब खाली थी - हलाकि मैं अगले मौ के का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था |

कुछ ही दिनों बाद फूफा घर पर आये और जाते- जाते मुझे दस पैसे पकड़ा गए | मेरे क़दमों में मानो पंख लग गए | मैं फिर दौलत के खोमचे की ओर भागा | आशंका यह भी थी कि आज दौलत आया है या नहीं | कहीं ऐसा तो नहीं कि आकर घर चले गया हो | स्कूल में दोपहर की पाली की खाने की छुट्टी अढाई से तीन बजे के बीच होती थी | उसके बाद इक्का दुक्का छात्र ही आते थे और दौलत अक्सर खोमचा समेत कर घर चले जाता था |

दौलत उसी जगह, तालाब के किनारे बैठा उदासीन आँखों से शाला नंबर आठ की ओर टकटकी लगाए देख रहा था | आधी छुट्टी समाप्त हो चुकी थी | दुस्साहसी लड़के उसके खोमचे से खा पीकर जा चुके थे |
मुझे देखकर वह मुस्कुराया |

"एक लॉटरी देना |" मैंने आपराधिक स्वर से कहा | पता नहीं, क्यों मुझे ग्लानि हो रही थी | मन में आशंकाएँ रह-रह कर घुमड़ रही थी कि कहीं कुछ नहीं निकला तो क्या होगा ?
मैंने कांपते हाथों से चूरन की पुडिया खोली और चूरन फांकने के पहले अन्दर की छोटी पुडिया फाड़कर नम्बर निकाला |

"तीन" मैंने धडकते दिल से कहा |
दौलत ने तीन नंबर पर टँगी एक प्लास्टिक की तुतरू मुझे पकड़ा दी |
तुतरू ? मेरा दिल बैठ गया |एक क्षण तो तुतरू हाथ में लिए मैं सोचते रहा | हरे रंग की प्लास्टिक की , बित्ते भर की तुतरू ....|

"बजाकर देखो ...| " दौलत बोला,"नहीं बजी तो बदली कर देंगे ...|"
मैंने हवा अन्दर खिंची, तो भी तुतरू बजी | फिर जब फूंक मारी, तब भी ....| मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा | तुतरू ... पाँच पैसे की ...|
पर हारे हुए जुआरी का वह नशा, जो उसे जेब की आखिरी कौड़ी भी दांव पर लगा देने के लिए प्रेरित करता है , मुझ पर हावी हो गया | वापिसी के मेरे कदम न केवल थम गए, बल्कि विपरीत दिशा में उन्हीं पद चिन्हों पर चल पड़े | मेरी जेब में पाँच पैसे और भी थे |
इस बार छः नंबर ...| और दौलत ने मुझे टीने के डब्बे जैसी एक चमकदार चीज पकड़ा दी, जिसके बीच में एक अँधा छिद्र था |
"यह क्या है ?"
काश, शायद मैं ये सवाल ना पूछता | और अगर पूछता तो वह ना बताता - टाल जाता |
"सिगरेटदानी |" वह ईमानदारी से बोला ,"सिगरेट पीकर उसकी राख इसमें झाड़ते हैं ...|"

*********

जिसका डर था, आखिरकार वही हुआ |
"यह क्या है ?" माँ ने पूछा |
"सिगरेटदानी |" जो दौलत ने कहा , मैंने वही दोहरा दिया |
"क्या ?" माँ कुछ समझी नहीं |
"सिगरेट पीकर राख इसमें झाड़ते हैं | " मैंने अपराधी भाव से कहा और अपना सर सामने कर दिया |

समझदारी भरी इस बात पर मुझे जन्नाटेदार झापड़ की उम्मीद थी ,पर माँ का मिजाज़ अच्छा था |
"इसे क्यों लाया है ? हमारे घर में सिगरेट कौन पीता है ?"
"लॉटरी में यही निकला माँ |"
अब माँ की त्यौरियां चढ़ गयी |
"तूने फिर लॉटरी खरीदी ?"
मैं चुप | क्या जवाब दूँ ?
"क्यों खरीदी ?"
"मुझे लगा सौंप के ट्रे जैसा कुछ निकलेगा |"
"और निकल गया सिगरेटदानी | क्यों ? पता नहीं | लॉटरी वाले का भी दिमाग ख़राब है | बच्चों की लॉटरी में सिगरेटदानी | अरे,कोई खिलौना होता तो भी बात समझ में आती |"
"तुतरू भी निकला है माँ , दूसरी लॉटरी में |"

अब माँ का गुस्सा भड़क उठा |
****************

ऐसे लोग गली कूचों में हाँक लगाते कम ही आते थे | केले वाली , ब्रेड वाले या फेरी वाले तो रोजाना दिख जाते थे , लेकिन ...|
" पार्वती वो ...." वह महिला मेहमान आँगन में जाकर माँ को बोली ," देख तो, वो क्या हाँक लगा रहा है ?"
महिला की गोद में वो अंगूठा चूसती छोटी सी बच्ची थी | आँगन में सिल बट्टे पर गीली उड़द दाल दलती माँ एक पल के लिए रुकी | भला मेहमान की बात कैसे टाल सकती थी | तब तक वे लोग हाँक लगाते हुए थोड़े दूर निकल गए थे | दूसरे ही पल माँ बोली, "टुल्लू, जा तो बेटा | उनको बुला कर ला ...|"

मैं तुरंत सड़क में भागा | वे लोग अभी भी सड़क में ही थे, पर काफी दूर निकल गए थे | पगड़ी पहने एक आदमी, लम्बे लम्बे बालों वाला एक लड़का और एक औरत ... तीनों एक छोटा ठेला धकेलते हुए चले जा रहे थे ... करीब करीब वे लोग सदानंद के घर के पास पहुँच गए थे | ये तो शुक्र था क़ि वे लोग मैदान पार करके इक्कीस सड़क नहीं गए थे | वर्ना उनकी आवाज़ का पीछा कर पाना काफी मुश्किल काम होता ....|

हाँक लगाने का काम महिला और उस लड़के ने सम्हाल रखा था | पगड़ी वाला आदमी बस अपनी धोती सम्हाले आशा से इधर उधर देखते चले जा रहा था |
"हफ़ ... हफ़ .... नाक कान छिदाने वाले ...| माँ बुला रही है |"
"कहाँ है तुम्हारी माँ ?"
"वो उधर ...| वो मेहंदी के पेड़ दिख रहे हैं न ....|"

अब वे 'नाक कान छिदाने ' वाले पलटे |
हे भगवान, वे लोग वापसी में भी हाँक लगाए जा रहे थे |
जैसे - जैसे मैं घर के पास पहुँचते गया,मेरा कौतूहल बढ़ते गया | कौन हैं वे लोग ? माँ उन्हें क्यों बुला रही है ? क्या करेंगे वे लोग ?

जब मुझे मालूम चला कि वे लोग क्या करने वाले हैं - तो रोंगटे खड़े हो गए | फिर जब अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखा तो कलेजा दहल गया |
"का भाव हे भैया ?" माँ ने पूछा |
"किसका नक् कण छिदाना है माई ? बच्चे का कि बड़े का ?" पगड़ी वाले ने पूछा |
"लईका के |" माँ ने कहा |
"बच्चे का - कान आठ आना , नाक एक रुपया |"
"बने बता भैया | " माँ बगैर मोल भाव के मान ले - कदापि संभव नहीं था |
"कितना कान , कितना नाक छिदवाना है माँ ?"
माँ ने महिला की ओर देखा |

"नहीं नौनी छोटे हे | खाली (केवल) कान छिदा दो |"
वो बच्ची अपनी माँ से और चिपट गयी |
"ठीक है | दो नाक और छह कान | ले अब वाजिब बता |"
वह पग्गड़धारी जब तक 'वाजिब' भाव सोचते रहा , मेरा दिमाग दूसरे ख्यालों में खो गया - दो नाक और छह कान ?
"ठीक है माई | पांच रूपया बनता है | आप आठ आना कम दे देना |"
"नहीं चार रुपया ...|"
"दो कान फ़ोकट में ?" उस आदमी ने अपने साथ की स्त्री से बात की ,"ठीक है माई | लकड़ी कोयला आप को देना पड़ेगा |"

लकड़ी कोयला ? क्या वो आग जलाएगा ?

माँ ने मुझे एक बार फिर दौड़ाया ," जा तो बेटा, बेबी को बुलाकर लाना |"
बेबी लंगड़ी-बिल्लस खेल रही थी | जब मैं बेबी को लेकर घर पहुँचा , धौंकनी में लकड़ी का कोयला गरम हो रहा था | एक हाथ में छोटा सा पुट्ठा लेकर लम्बे बालों वाला लड़का बार - बार धौंकनी में हवा करने लगता और लकड़ी कोयले अंगार और दहक जाते | जो मुझे नहीं दिखाई दिया , वो थी दो पतली सुइयों की तरह सलाखें |
जब वो बाहर निकली तो सुर्ख लाल हो गयीं थी |

माँ ने बेबी को क्यों बुलाया था ?
तो सबसे पहले बेबी का ही नंबर आया |
उस औरत ने बेबी का सर पकड़ा - हलके से ...| पगड़ी वाले ने एक शीशी से कुछ द्रव्य निकला और बेबी के कान में दोनों तरफ लगा दिया | लम्बे बाल वाले लड़के ने एक चिमटीनुमा जुगाड़ लिकला , जिसके दोनों पल्लों में कार्क लगा था | उसे बेबी के एक कान में फँसा दिया गया |

अब तक तो सब ठीक था | लोग दम साधे देख रहे थे |
अचानक पगड़ी वाले ने एक पतली सलाख आग से निकाली और एक संड़सी से पकड़कर एक सिरा लोहे के हत्थे में घुसा दिया | फिर तेजी से बेबी के कान में फंसे चिमटे की ओर लाया | बेबी के सर पर उस औरत की पकड़ सख्त हो गयी और अगले ही पल बेबी की चींख हवा में गूंज उठी ....|

दो और लडकियाँ सहमी हुई सी देख रही थी | एक तो नोनी थी | दूसरी ?
दूसरी संजीवनी ... | मुझे थोडा भी भान नहीं था कि माँ के दो नाक और छः कान के हिसाब किताब में एक नाक और दो कान संजीवनी के थे !
दूसरे कान छेदते तक बेबी रोने लगी ,"नहीं न माँ, नहीं न |"
"बस हो गया बेबी |" पगड़ी वाला आदमी बोला ,"बस , चींटी काटी और कुछ नहीं |"
उसे बेबी का नाम कैसे पता चला भला ?

बेबी के कान और नाक से खून निकल रहा था और संजीवनी सहमी सी देख रही थी |अगली बारी उसकी ही थी |
उस औरत ने एक हाथ से संजीवनी का सर पकड़ा कस के | दूसरे हाथ से उसके दोनों छोटे छोटे हाथ पकड़े | जरुरी भी था | सब जानते हैं, जब बच्चों को दर्द महसूस होता है तो उनकी ताकत चार गुना बढ़ जाती है और वे कुछ भी कर बैठते हैं | बेबी अभी भी सिसक रही थी | संजीवनी कातर नज़रों से माँ को देख रही थी | जब लम्बे बाल वाले लड़के ने संजीवनी के एक कान में जुगाड़ फंसाया तो आशंका से संजीवनी छटपटाने लगी लेकिन उस औरत ने संजीवनी को कस कर पकड़ा था |
"माँ , माँ ...| संजीवनी ने आवाज़ लगाईं |
माँ निर्निमेष नेत्रों से सिर्फ देख रही थी | और पगड़ी वाले ने दहकती सलाख संजीवनी के कान की लौ में घुसा दिया ....|
"माँ SSS ....|" पता नहीं, कितने जोर से चीखी संजीवनी ....| इतने जोर से क़ि मैं अन्दर तक दहल गया ....| पर माँ ? उसके चेहरे पर कोई भाव ही नहीं थे | मैंने माँ की साडी खिंची |
"माँ , ओ माँ ...|"
माँ ने कोई जवाब नहीं दिया | मैंने और जोर से साडी खिंची ,"माँ , संजीवनी को छोड़ दो ना माँ | "
और संजीवनी क़ी जोरों क़ी ह्रदयविरादक करुण पुकार फिर हवा में गूंजी ,"माँ SSS ....|"
दूसरी महिला, जिसकी संजीवनी से भी छोटी बच्ची माँ क़ी गोद में चिपटी थी , उसने संजीवनी को दिलासा दी ," बस बेटी बस | घबरा मत | हो गया ...|औरत जात को तो ज़िन्दगी में बहुत दर्द सहना पड़ता है ...| "

माँ उसके जैसे कोई बड़ी दार्शनिक नहीं थी | माँ क़ी साडी हिलाते मैं जो कुछ बोल रहा था, वह शायद संजीवनी के रोने और चीख पुकार में खो गया था | या तो फिर माँ जान बूझकर मेरी विनती पर कोई कान नहीं दे रही थी |

जब संजीवनी के नाक और कान दोनों में छेद हो गए थे तो माँ ने उसे गोदी में लिया |
नोनी के कान में छेद हो जाने के आड़ माँ को पैसे देना था , जो माँ के आँचल को छोर में बंधा था | आँचल क़ी गाँठ खोलने के लिए माँ ने संजीवनी को उतारना चाहा | तब तक संजीवनी माँ क़ी गोद में ही सो गयी | इतने दर्द और शोर गुल के बीच | नाक और कान से बहता खून जम गया था |
"छेद में कोई काँटा दाल देना माई ...| नहीं तो मुंद जाएगा ...| " पैसे लेते - लेते पगड़ी वाला हिदायत दे रहा था |

तो इसमें तो अब शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी कि राखी की पहली परीक्षा में मैं फेल हो गया था |
मुझे क्या मालूम था कि अभी इससे भी कडा इम्तिहान समय के गर्भ में छुपा हुआ है |

***********

'ओ यार धीरे धीरे " "ओ यार होले होले ".....
हरेक घर के गेट के बाहर, गेट से सड़क तक, पानी की नाली के ऊपर, पत्थर की एक पटरी रखी होती थी | उसी पटरी पर मदारी एक छोटी सी छड़ी पीट रहा था और उसके सामने पटरी पर ही एक छोटा स बन्दर नाच रहा था ,"ओ यार धीरे धीरे ... ओ यार होले होले ....|"
बन्दर ने चमकीले हरे रंग की एक जैकेट्नुमा खुली कमीज़ पहन रखी थी और एक लाल रंग की चमकीली लंगोट | छड़ी की ताल पर वह उछल उछल कर थिरक रहा था ....| हम सारे के सारे लोग मदारी को घेरे बन्दर का नाच देख रहे थे | पिछले दस मिनट में कई बार हम वही नाच देख रहे थे , पर अब भी मन नहीं भरा था | मदारी एक घर से दूसरे घर, जिसकी पटरी सपाट और सलामत हो और जहाँ उसे भिक्षा मिलने की उम्मीद हो - जा रहा था
और हम मंत्र मुग्ध से उसके पीछे जा रहे थे |
अब उसने पिंजरे से एक बंदरिया भी निकाली जिसने लाल रंग का लहंगा पहन रखा था | उसके भी नाक में रस्सी बंधी थी | अब उसने दोनों को थोड़ी देर तक नचाया , फिर बंदरिया रूठ कर एक कोने में बैठ गयी |

"यह तो बता तोर घरवाली मनटोरा रिसा (गुस्सा) जाही तो कईसे मनाबे ..." हम लोग ध्यान से देख रहे थे | बन्दर एक लकड़ी पर छोटी सी पोटली बाँध कर बंदरिया के पास गया, पर बंदरिया फिर भी मुंह फेरे बैठे रही | अब बन्दर रोने का नाटक करने लगा | बंदरिया पास आ गयी | और फिर दोनों छड़ी की ले पर नाचने लगे |

फिर उसने बन्दर से कहा ," ये तो बता हनुमान जी समुन्दर ला लाँघ के लंका कईसे कुदिस ?" उसने लकड़ी ऊपर उठाई और बन्दर ने छलांग मारकर लकड़ी पार की |
ये तमाशा तो मैं कई बार देख चूका था, पर अब पता नहीं क्यों, मुझे लगा कि बन्दर उदास से हैं | माँ एक कटोरे में चावल लेकर आई और उसने मदारी क़ी फैली हुई झोली पर चावल डाल दिया | बन्दर ने हाथ माथे रखकर सलामी दी और मदारी सैकड़ों दुआएं देते चले गया | माँ वहीँ खड़ी उन्हें जाते देखती रही | मेरे सारे दोस्त भी मदारी के पीछे पीछे चल दिए | मैं वहीँ माँ के पास खड़े रहा |

"माँ , माँ | बन्दर क्या इतने छोटे होते हैं ? रामायण में तो कितने बड़े बड़े बन्दर थे |"
"कुछ बन्दर छोटे होते हैं बेटा | कुछ बड़े ... | बड़े बन्दर को मदारी थोड़ी पकड़ सकता है ....|"
"और उन्हें नचा भी नहीं सकता ....|" फिर मैंने हिम्मत करके पूछा ," माँ, वो इतने उदास क्यों रहते हैं ?"
"कौन उदास रहते हैं ?"
"बन्दर ...."
"पता नहीं बेटा ..| माँ सोच में पड़ गयी |
उसके बाद यह सवाल मैंने किसी से नहीं पूछा | किसी से भी नहीं | एक बीज की तरह , जो ज़मीन पर कहीं दब जाता है - एक तरह से वह सवाल मैं भूल ही गया था | मगर थोड़ी फुहार पाकर जैसे बीज अंकुरित होकर समय के साथ बढ़कर आँखों के सामने झूमने लगता है - वैसे ही सर्व शक्तिमान समय राज ने वक्त आने पर मुझे इस सवाल का जवाब दे दिया - गिरेबान पकड़कर !

*********************

सारी दुनिया एक तरफ , मामी और भांजी दूसरी तरफ .... |

मामी और भांजी - यानी माँ और रमा में बहुत पटती थी | रमा जब भी घर आती तो दुखड़ों का पिटारा खोलकर बैठ जाती ,"क्या बताऊँ मामी ? उन्हें तो घर क कोई चिंता ही नहीं है | बस , खाली मैच इधर तो मैच उधर - उनके लिए दुनिया नहीं, फुटबाल ही गोल है | बस, चार खिलाडी दोस्त मिल जाएँ - फिर न घर की चिंता और न दुनियादारी से कुछ लेना |"
"ठीक है | " माँ कहती, " मैं तुम्हारे मामा से कहूँगी, वो उनको थोडा समझाए |"
"समझते तो कितना अच्छा होता | अब घर में कुर्सी हो तो आप लोगों को बैठने के लिए बुलाऊं ...|"
माँ ठहाका लगाकर हँसी ,"कुर्सी तो आ ही जाएगी , खैर ...|"

... और सचमुच कुछ दिनों में टीने की कई फोल्डिंग कुर्सियाँ रमा के घर की शोभा बढाने लगी ...|

"... क्या बताऊँ मामी ? हमेशा सोचती हूँ , कभी आप लोग को भी खाने पर बुलाऊं | पर उतने बरनी , बर्तन, थाली , कोपरा हैं कहाँ ?"
"अरे , अभी तो शुरुवात है ...| बर्तन का क्या है ? आते रहेंगे ...|"

**************

फिर एक दिन आ ही गया , मेरी अग्नि परीक्षा का दिन ....|
तो हुआ यह कि .... नहीं , नहीं, कुछ भी असामान्य नहीं वही सामान्य सा दिन था | या हो सकता है , कोई त्यौहार रहा हो - जैसे तीजा | जो भी हो - माँ ने रमा को खाने पर बुलाया था | खाने के बाद पाँव पसारकर गप शप मरना, निंदा या शिकायत करना - सब कुछ सामान्य ही था | खाने के बाद सौंफ पेश करना - ये तो नितांत भारतीय परंपरा है |
माँ ने सौंफ क़ी प्लेट रमा के आगे की |
"क्या बताऊँ मामी, बड़ी शर्म आती है |" रमा बोली , " मेरा भी मन करता है , अपनी मामी को खाना खाने पर बुलाऊं | पर बर्तन तो दूर, एक सौंफ क़ी ट्रे भी नहीं है | घर में कोई मिलने आये तो सौंफ भी नहीं दे सकते |"

अचानक माँ को कुछ याद आया | बात पुरानी होकर भी नयी ही थी |

माँ उठकर पंखा खड़ में आई | जब वह लौटी तो उसके हाथ में चमचमाती हुई सौंफ की ट्रे थी | वही चमकीली सौंफ की ट्रे , जिसमें हरे बेल बूते बने थे | हाँ, वही तो थी, जो ...

"टुल्लू ने लॉटरी में जीती है |" माँ ने गर्व से कहा |
"अरे वाह मामी, कितनी सुन्दर ट्रे है | " रमा ने हाथ में लेकर उलट- पलट कर देखा ,"कितनी अच्छी डिजाइन बनी है | थोड़ी भारी भी है | स्टील की है मामी ?"
"पता नहीं |" माँ बोली , " अच्छी है ? पसंद आई ?"
"बहुत सुन्दर है मामी | बहुत महँगी होगी |" मैं पास में ही खड़ा नज़रें चुरा रहा था ," कितने की है भाई ?"
"पता नहीं |" मैंने कहा, " मेरी पाँच पैसे की लॉटरी लगी थी |"
"पाँच पैसे ?" रमा आश्चर्य चकित रह गयी |
"हाँ, पाँच पैसे की लॉटरी |"
"अरे वाह मामी, मेरा भाई कितना किस्मत वाला है | भारी भी है , मजबूत भी | और कितनी सुन्दर है | दस रूपये से कम में नहीं मिलेगी ऐसी ट्रे |"
"तुझे पसंद है ?" माँ सामान्य भाव से बोली ,"तो तू रख ले | "
"अरे नहीं मामी |" रमा झिझकी ,"इतनी महँगी ट्रे ....|"
"तो क्या हुआ ? रख ले | " माँ बोली , "हमारे घर में वैसे ही एक ट्रे है | ये तो पता नहीं, किस कोने में पड़े रहती है | चलो , कम से कम तुम्हारे काम आयेगी |"
रमा अभी भी असमंजस में पड़ी थी ,"नहीं मामी | टुल्लू की ट्रे है |"
"तो क्या हुआ ?" माँ बड़े विश्वास और गर्व से बोली , "टुल्लू इतनी छोटी सी चीज नहीं देगा अपनी बहन को ?"

हे भगवान्, कितनी बड़ी मुसीबत में डाल दिया तूने ? इसका मतलब, ये ट्रे, ये खुबसूरत ट्रे, अब मेरी नहीं रहेगी ? न तो दान, न बलिदान - मुझे किसी शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं मालूम था ....|
इसका मतलब यही हुआ कि माँ अब किसी से इस ट्रे क़ी तारीफ नहीं कर पाएगी ....|
"क्यों टुल्लू ?" माँ पूछ रही थी |
"टुल्लू ...|" माँ ने फिर पूछा |
"टुल्लू भाई ...|" रमा बोली ...."क्या सोच रहे हो ?"
... पता नहीं मैं क्या सोच रहा था ? मगर मेरा दिल इतने जोर से धड़का कि मैं वहाँ से भाग खडा हुआ ......|

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तीन चार घंटे बाहर यूँ ही चहल कदमी, भाग दौड़ , सुनील के घर में पिछवाड़े के डबरे में यूँ ही पत्थर फेंकने के बाद शाम को मैं दबे पाँव घर लौटा | अब इससे ज्यादा बहर रह भी नहीं सकता था |घर में ना तो माँ दिखी , न रमा | वैसे भी जब रमा आती थी तो माँ उसे रामलीला मैदान के पार, मंदिर तक छोड़ कर आती थी |

पंखाखड़ में तख़्त के नीचे, पेटी के ऊपर - जहाँ वह सौंफ की ट्रे कई दिनों से रखी थी - ताकि माँ को उसे प्रदर्शन के समय निकालने में आसानी रहे - मैंने झाँक कर देखा | सौंफ की ट्रे वैसे ही रखी हुई थी | गर नहीं होती तो मुझे शायद दुःख होता | पर उसे उस जगह में रखे देख कर ख़ुशी नहीं हुई , बल्कि एक टीस सी उठी |

राखी की इस परीक्षा में भी मैं फेल हो गया |

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