ऐसा होना लाजिमी था | कोई आश्चर्य को बात नहीं थी !
शायद मुझे लगा माँ का व्यवहार एकदम बदल गया |
शायद मुझे लगा ....! शायद ...!!
उस दिन के बाद से माँ ने सौंफ की उस ट्रे के बारे में कोई बात नहीं की | ना तो मुझसे और ना ही किसी और से उसका कोई जिक्र किया | घर में मेहमान आते रहे | और वो सौंफ की ट्रे पंखाखड़ में तख़्त के नीचे, तीने की पेटी के ऊपर रखी धूल चाटते रही !
"माँ " दोपहर के समय घर में कोई भी नहीं था | सब विद्यालय गए थे | संजीवनी भी फूफू के साथ व्यास के घर गयी थी | परछी में लगे झूले में झूलते झूलते सो गया | जब आँखें खुली, तो घर में सन्नाटा छाया था |
"माँ" , मैंने एक बार फिर आवाज़ दी | कोई जवाब नहीं |
चलते - चलते मैं बैठक में आया | दरवाजा बंद था और ऊपर की चिटखनी लगी थी | इपर की चिटखनी, जहाँ तक मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता था | मैं केवल अख़बार रखने वाली छोटी टेबल ही सरका सकता था या टीन की कुर्सी खोल कर दरवाजे पर लगा सकता था | मगर उनके ऊपर भी मैं चढ़ जाऊं और पंजे के बल खड़े भी हो जाऊं तो भी मेरा हाथ ऊपर की चिटखनी तक नहीं पहुँच सकता था |
"माँ", मैं गला फाड़कर चिल्लाया |
कोई आवाज़ नहीं | कोई प्रतिक्रिया नहीं |
अब अकेले, खाली सूने घर में मुझे थोडा डर लगने लगा | कहाँ चले गए सब लोग ? कम से कम माँ तो रहती थी | वो तो मुझे छोड़कर नहीं जाती थी | कहीं ऐसा तो नहीं , माँ मुझसे गुस्सा होकर चले गयी ?
मैं चलते चलते परछी के छोर तक पहुंचा , जहाँ आँगन में जाने का दरवाजा था | मैंने उसे खींच कर देखा , वो भी बंद था |
अब मैं फँस गया | मैं कहीं नहीं जा सकता था | फिर भी अगर परछी का दरवाजा लगा हो तो माँ या तो बाथरूम में होगी या नहानी में कपडे धो रही होगी | पर मुझे कपडे की छपक छपक तो सुनाई नहीं दी | अगर माँ आँगन में बड़ी बना रही हो तो ,,, पर माँ आंगन में कोई काम करते समय तो परछी का दरवाजा बंद नहीं करती थी |
"माँ, माँ, माँ " मैं चीखा | साथ ही मैं परछी का दरवाजा पकड़ कर जोर जोर से हिलाने लगा |
अब मुझे भय के साथ-साथ गुस्सा आने लगा , जो शनैः-शनैः ग्लानि में बदल गया | लगता है , माँ के मन में गुस्सा भरा हुआ है और आज उसने म्ह्झे सजा देने का निश्चय किया है |
"माँ, माँ माँ, ओ माँ , माँ वो , माँ कहाँ हो माँ ? " अब मेरी पुकार ने कुछ कुछ भिखारियों की गुहार का सा रूप ले लिया था | दरवाजा हिलाते हिलाते हाथ दुखने लगा और आंसू निकल आये |
थक कर मैं परछी के पास वाले दरवाजे पर बैठ गया | आंसू बह बह कर सूख गए थे |तब कहीं जाकर मुझे आँगन का दरवाजा खुलने आवाज़ सुनाई दी - या वो मेरा वहम था ? नहीं , ये माँ के क़दमों की आहट ही थी | जैसे किसी प्यासे को पानी नज़र आये , मैं फिर पुकारने लगा ," माँ , माँ |"
परछी का दरवाजा खुला और माँ नज़र आई | मेरी जान में जान तो आई , पर माँ का रौद्र रूप देखकर मैं सहम गया |
"चिल्ला | और जोर से चिल्ला | क्या हो गया ? घर में कोई चोर आया है या साँप घुस गया ? तेरी आवाज़ गुड्डा के घर तक आ रही थी | दो मिनट सब्र नहीं हो सकता तुझसे ? पिछवाड़े में ही तो है गुड्डा का घर ? बड़ी ताकत आ गयी है | दरवाजा चौखट से उखाड़ देगा क्या ?"
उसके अगले ही दिन - दोपहर के समय माँ कपडे धो रही थी | मैं माँ के सामने जाकर खड़ा हो गया |
"क्या है ?" माँ ने पूछा |
"मैं आ गया हूँ |"
"तो ?" माँ ने अनमने ढंग से पूछा |
" तो , आज मुझे नहलाओगी नहीं ?"
"देख नहीं रहा , मैं कपडे धो रही हूँ ?" मैं वहीँ खड़े रहा |
"अब तू बड़ा हो गया है | जा नहानी में जाकर खुद नहा ले |"
मैं वहीँ का वहीँ खड़े रहा |
"जा न ?"
"मुझे नहाना नहीं आता |"
"कुछ नहीं , साबुन लगाओ और पानी डालो | उसके लिए कौन सा भला पंडित का पोथा पढने की जरुरत है ?"
मैं घिसटते हुए नहानी गया और फिर वापिस आ गया |
"अब क्या हुआ ?"
"साबुन रोशनदान के पास रखा है | मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता |"
माँ झल्ला कर उठी | नहानी के रोशनदान से जाकर बड़ी सी जाली वाली साबुनदानी निकाली और ज़मीन पर पटक दी | फिर वापिस आँगन चले गयी |
साबुन दानी में तीन साबुन रखे थे | हरे रंग की हमाम , गहरे लाल रंग की लाइफबॉय और मोटर साइकिल छाप साबुन की बट्टी |
किससे नहाया जाये ? हरे रंग का हमाम घुल कर छोटा सा रह गया था | लाल रंग का लाइफबॉय गीला और लिजलिजा लग रहा था | हाँ, मोटर साइकिल छाप साबुन की बट्टी बहुत बड़ी थी | उसे धागे से काटकर आधा किया गया था, फिर भी बहुत बड़ी थी | मैंने उठा कर देखा, पत्थर की तरह भारी थी | बहरहाल, पीले मक्खन की साबुन की बट्टी लेकर मैंने मलना शुरू किया | पहले पाँव ... | ओह, पाँव जलने लगे ....|
"माँ , माँ |" मैं चिल्लाया | पाँव जल रहे हैं |"
पहले तो माँ को लगा मैं बहाने बना रहा हूँ | मैंने तुरंत दो मग पानी उड़ेल दिया | फिर भी पाँव जल रहे थे |
"माँ , मेरे पाँव |"
माँ भागकर आई ," क्या कर रहा था ? कौन सा साबुन लगा रहा था ?"
"मोटर साइकिल छाप |" मैंने कहा |
"वाह रे टूरा ! वो तो कपडे धोने का साबुन है |"
अब माँ ने साबुन लगाना चालू किया | लाइफबॉय मेरे चेहरे पर इतनी तेजी से मला की आँख में साबुन चले गया |
"माँ , आँख में साबुन चले गया | आँख जल रही है माँ |"
इस बार माँ ने मेरी गुहार अनसुनी कर दी | पानी तभी डाला , जब साबुन लगाना ख़तम हुआ |
माँ गुस्सा थी .... शायद ....|
***********
"मेरी बिल्ली बड़ी चिबिल्ली,
घर घर में घुस जाती है |
घूम घूम कर सूंघ सूंघ कर,
सब कुछ चट कर जाती है |"
"हा, हा, हा |' रामनाथ हँसा ,"शाबास | शाबास | बहुत अच्छे | " उसने पहली कक्षा की "बाल भारती" बंद की और कहा ," अब सुनाओ |"
"मेरी बिल्ली बड़ी चिबिल्ली ...घर घर में घुस जाती है ....|"
बिसाहू पास में ही बैठा हुआ था | बरामदे में केवल हम तीन लोग ही बैठे थे| मैं समकोण बनाते हुए खोखले चबूतरे में बैठा था | मेरे बगल में ही बिसाहू बैठा था और रामनाथ कुर्सी पर बैठा था |
"अब ये पढो | "रामनाथ ने दूसरा पन्ना खोला |
ना जाने क्यों, आजकल वह कविता मुझे अच्छी नहीं लग रही थी |
"बड़ी भली है अम्मा मेरी |
ताज़ा दूध पिलाती है |
मीठे मीठे फल ले लेकर ,
मुझको रोज़ खिलाती है |"
बिसाहू खुश हो गया ,"किस कक्षा में पढ़ते हो ?"
"मैं शाला थोड़ी जाता हूँ |" मैंने कहा |
रामनाथ ने मेरी बात का अनुमोदन किया ,"अभी स्कूल नहीं जाता | इस साल जाएगा |" फिर उसने बिसाहू से पूछा, "और आपका काम कैसे चल रहा है ?"
एकदम फस्ट किलास भैया | बिसाहू बोला ,"बड़े मज़े का काम है | क्या है कि पर छज्जे में बैठे रहो | मशीन नीचे लगी है |"
कितनी बड़ी मशीन है ? " रामनाथ ने पूछा |
"बहुत बड़ी मशीन है |मैं छज्जे पर बैठता हूँ तो नीचे आदमी चिरई (चिड़िया) जैसे दीखता है | अरे, पत्थर को पूरा चूरा चूरा करके पिसान (आटा ) बना देती है | काम क्या है ? नीचे से सुपरवाइजर चिल्लाएगा ,"मशीन चालू करो जी | " एक हत्था नीचे करो और दो बटन दबा दो | बटन नीचे मशीन चालू ...| फिर टीने की कुर्सी पर बैठ के सो जाजो ....| फिर नीचे से कोई चिल्लाएगा ,"मशीन बंद कर दो जी ...मशीन बंद कर दो ...| " उठ के बटन दबाओ और फिर सो जाओ | जब तक वो लोग ' डिराम ' (ड्रम) से चूरा निकालेंगे , सोते रहो |
फिर बोलेंगे ,"मशीन चालू करो हो .... | फिर से बटन दबा दो ...और सो जाओ | फिर बोलेंगे ,"बंद करो जी ... | बटन दबा के मशीन बंद कर दो | क्या हुआ ? खाने की छुट्टी हो गयी |
खाना खाने जाओ, ताश पत्ती खेलो | घंटे भर बाद वापिस आ जाओ | दो बार और मशीन चालू बंद करो | दिन ख़तम | साइकिल उठा के घर चलो | ऐसा आराम गाँव की खेती किसानी में कहाँ भैया ?"
बिसाहू ने कुछ दिन पहले ही सर मुडवाया था | अब उसने गंजे सर पर छोटे छोटे बालों में, जो गर्मी के पसीने से भींग गए थे, हाथ फेरा और सर पर फिर रुमाल बाँध लिया |
जब तक बिसाहू को व्याख्यान जारी था, मुझे पढने से एक तरह से छुट्टी मिल गयी थी | मेरी आँखों के सामने वह कविता घूम रही थी | "बड़ी भली है अम्मा मेरी " - फिर उस दिन माँ को क्या हो गया था , जब संजीवनी और बेबी के नाक कान छिदा रहे थे ?माँ उस दिन बिलकुल निष्ठुर हो गयी थी | "ताज़ा दूध पिलाती है |" दूध नहीं , चाय - डेरी के दूध की चाय ....| "मीठे मीठे फल ले लेकर ...|" हाँ, केले वाली से केला या "पूना का मुसाम्मी , मुसम्मी माँ मुसम्मी ..." मुसम्मी वाली से मुसम्मी जरुर लेती है , फिर लकड़ी के लाल हत्थे वाले रस निकालने वाले से रस निकाल कर देती है | कब ? जब कोई बीमार पड़ता है -तब | हालाँकि रोज़ तो नहीं, पर वो मुसम्मी वाली या केले वाली रोज़ घर के सामने आकर रूकती थी और पूछती थी ," मुसम्मी माँ , मुसम्मी |" या "केला , बाई केला ...|" और माँ मना भी करती थी तो उनसे दो बातें करने के बाद ....|
पर अब जो भी हो - मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा - माँ मुझसे गुस्सा है | मुझे अभी वो कविता वाली भोली माँ नहीं, तलवार वाली दुर्गा माँ दिख रही थी | क्या किया जाए ?
तभी मेरी तन्द्रा भंग हुई | अचानक रामनाथ ने एक सवाल पूछ डाला ," बी. एस. पी . या नाम ( नॉन) बी एस पी . ?"
बिसाहू के चेहरे की मुस्कान अचानक काफूर हो गयी ," नाम बी. एस. पी. भैया | अपनी किस्मत कहाँ ? भैया से इसीलिए बात करने आया हूँ | पर आजकल बी एस पी में मेट्रिक पास ही ले रहे हैं | आठवीं पास को कौन पूछता है ?"
यानी भिलाई में उन दिनों नॉन बी एस पी हो एक अभिशाप से कम नहीं था | ऐसा अभिशाप, जो मेरे मन में वर्षों बैठा रहा | कई बार अभी भी कचोटता है |
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"कुकड़ूकू ....| कुकड़ूकू .... |"
सोगा के घर की मुर्गियां माँ क सर दर्द थी - जबरदस्त सर दर्द ...| वो मुर्गियां सोगा के घर तो रहती थी नहीं, क्योंकि सोगा के घर में कोई वनस्पति उगती नहीं थी | वो अक्सर बीच के हैज़ की बाद लांघकर हमारे घर आ जाया करती थी और क्यारी में जो कुछ भी उगा रहता, चोच मारकर, पांवों से खोदकर सब कुछ बराबर कर देती | माँ की बड़ी इच्छा थी कि घर में धनिया , मेथी या पालक लगाए, पर ये मुर्गियां कुछ उगने दें तब न | मैं कई बार मुर्गियों के पीछे भागता, पर मुर्गियां तो मुर्गियां, चूजे भी बड़े फुर्तीले होते | कभी हाथ में आते ही नहीं थे |
"कुकड़ूकू ....| कुकड़ूकू .... |"
"सोगा , अपनी मुर्गियों को समझा दे ...| " एक दिन तैश में आकर मैंने सोगा को धमकाया |
"क्या समझा दूँ ?" मगिंदर बीच में कूद पडा |
मैं निरुत्तर हो गया | भैसों के तबेले में बीन बजाने का कोई फायदा तो था नहीं |
गाय हो तो उसको रोकने के लिए घर के चारों और घेरा होता है | भला मुर्गियों को कैसे रोका जाए ? वो तो हैज के नीचे नीचे से अपना शारीर सिकोड़ कर छोटी सी जगह से भी अन्दर घुस जाते थे | और घुसते थे तो सीधे क्यारियों में धावा बोलते थे | अब उनकी हिम्मत यहाँ तक बढ़ गयी थी कि वे घर के सामने से होते हुए पीछे के घेरे में घुस जाया करते थे | नज़र चुकी नहीं, कि वे घेरे में नज़र आते थे |
और एक दिन उन्हें भगाते -भगाते मैंने देखा, घेरे में एक झाड़ी के पास दो मुर्गी के अंडे पड़े हुए हैं |
उन अण्डों को उठाकर मैं सीधे माँ के पास लेकर गया |
"अंडे ? कहाँ से मिले तुझे ?" माँ ने पूछा |
"सोगा की मुर्गियों ने घेरे में दिए हैं |"
"उनकी मुर्गियाँ घेरे में ? तूने भगाया नहीं ? "
"भगा रहा था, तभी ये अंडे दिखे | वापिस कर दें ?"
"वापिस ? " माँ भड़क उठी ,"दिन भर क्यारियों का सत्यानाश करते रहते हैं तो कुछ नहीं | अपने घर में तो बबूल की एक झाडी नहीं लगाईं है और हमारे घर की क्यारियों को चारागाह बना रखा है | अंडा इधर ला |"
मैंने डरते डरते अंडा माँ को दिया | कहीं गुस्से में मुझे फेंक कर मत मारे |
माँ ने एक गिलास लिया , उसमें पहला और फिर दूसरा अंडा फोड़ा | फिर दूध डाला और एक चम्मच शक्कर | फिर मुझे देकर कहा , "पी जा इसे |"
मैं कभी माँ की और देखता, कभी गिलास की ओर |
माँ गुस्से से बोली," देख क्या रहा है ? आँख बंद कर और गटागट चुपचाप पी जा |"
मैंने माँ की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया | आँखें बंद की और 'गट - गट ' की आवाज़ निकालते पी गया |
माँ बोली," अब जा और सोगा को बोलकर आ | तेरी मुर्गी ने हमारी क्यारियां उजाड़ी | धनिये के बीज का चारा बनाकर खा गयी | उससे जो अंडा पैदा हुआ , मैंने दूध में घोंटकर पी
लिया | जा, अभी बोलकर आ |"
इस बार बार माँ की आज्ञा का मैं पालन नहीं कर पाया | सन्देश ही इतना बड़ा और भरी भरकम था कि घर से बाहर निकलते - निकलते मैं सब कुछ भूल चुका था |
माँ क्या अभी भी मुझसे गुस्सा है ? शायद हाँ | शायद नहीं ...|
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दुर्गा माँ के एक हाथ में तलवार थी | दुर्गा माँ शेर पर सवार थी | शेर कि आँखें चमकीली और दांत बड़े बड़े और नुकीले थे | उसके पंजे से उस राक्षस का खून टपक रहा था जिस पर उसने अभी अभी वर किया था और जिसकी छाती पर दुर्गा माँ का त्रिशूल टिका हुआ था |
उन दिनों मंदिर जाना कम से कम बच्चों के लिए एक तीर्थ से कम नहीं था | शाला नंबर आठ के पीछे एक बहुत बड़ा रामलीला मैदान था इतना बड़ा कि उसका और छोर ही दिखाई नहीं देता था | न तो कोई चाहर दीवारी थी और न ही उच्चार माध्यमिक कन्या शाला उन दिनों बनी थी | उस मैदान में राम लीला होती थी और रावण जलाया जाता था | कभी - कभार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ क़ी शाखा लगती थी , कभी पहलवानों क़ी कुश्तियाँ होती थी | उस मैदान के दूसरी ओर था - मंदिर | उन दिनों केवल दो ही मंदिर थे - हनुमान जी का ओर दुर्गा माता का | मंदिर जाने के लिए कई बार माताओं का पूरा दल निकलता था ओर बच्चे साथ हो लेते थे | जैसे, दीपक, गिरीश , छोटा ओर अनिल क़ी माँ | ओर फिर उनके साथ बच्चे - उछलते - कूदते हुए | कभी दौड़कर बहुत आगे निकल जाते , फिर वापिस दौड़कर अपने दल में मिल जाते |
"या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण ...... नमस्तस्यै नमो नमः ...|"
कान का कच्चा बटुक पंडित मन्त्र पढ़े जा रहा था | जिन्हें प्रार्थना आती थी, वे साथ में गा रहे थे | जिन्हें नहीं आती थी, वे हाथ जोड़े आँख मूंदकर खड़े हुए थे | मैं बीच बीच में आँखें खोलकर देखता तो निगाहें सीधे दुर्गा माँ से टकराती ओर मुझे तुरंत उस भीड़ में कहीं खड़ी माँ का ख्याल आ जाता | भीड़ इतनी ज्यादा थी कि माँ मुझे दिखाई नहीं दे रही थी | इतना पक्का था कि दुर्गा माँ जरुर माँ को मेरी बेअदबी के बारे में बताएंगी | ये ख्याल आते ही मैं आँखें ओर कस कर मूंद लेता | माँ वैसे ही गुस्सा है |
आरती अंततः समाप्त हुई | अब बच्चे प्रसाद के लिए टूट पड़े | प्रसाद क्या होता था | नारियल के गीर को जितना महीन से महीन कटा जा सके - वो टुकड़ा ओर फिर एक चम्मच नारियल के पानी का ही बनाया चरणामृत | जो भी हो - बच्चे प्रसाद के लिए झूम ज्जाते थे ओर बच्चों कि धक्का मुक्की , बेताबी से बटुक का पारा चढ़ जाता था |
ऊपर से दीपक क़ी धृष्टता देखो | एक बार, दो बार नहीं, तीन बार उसने प्रसाद लिया | धक्का मुक्की में अक्सर मैं पीछे चले जाता था | ओर जब भी मेरा नंबर आता, या तो मोटा गिरीश या दीपक एक बार फिर हाजिर हो जाता |
जब मेरा नंबर आया तो बटुक बौखला गया |
"कितने बार प्रसाद लोगे बचुआ ?" उसने मेरा गला पकड़ लिया |
मैं हडबडा गया ये सच था क़ी मैं बहुत देर से कोशिश कर रहा था, पर प्रसाद मुझे मिला नहीं था | ऊपर से ये इलज़ाम, वो भी गला पकद्पर ...|
...और माँ एक सिंहनी क़ी तरह गरज उठी |
"पंडित जी, छोडो उसको | " माँ आक्रोश से चिल्लाई | बटुक ने सहम कर मेरा गला छोड़ दिया |
"क्या हुआ , मुझे बताओ |"
"क.. कुछ नहीं माता जी | बच्चे तो शरारत करते हैं ...|
माँ क्या अभी भी मुझसे गुस्सा है ? शायद हाँ | शायद नहीं ...|
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"पोशम्पा भई पोशम्पा |
डाक खिलौने क्या क्या ?
सौ रुपये की घडी चुराई |
अब तो चोर पकड़ा गया |"
ज़रा इन पंक्तियों पर गौर फरमाइए |
तब लोग डाक से भी खिलौने मंगाते थे |
तब घडी काफी महँगी आती थी | उन दिनों के सौ रूपये की कीमत का अंदाजा है आपको ? थोडा तो लग ही गया होगा , जब मैंने कहा - पोस्टकार्ड पांच पैसा ,अंतर्देशीय दस पैसा और लिफाफा पंद्रह पैसे ... नमक - आधा किलो का पेकेट - दस पैसे, माचिस पांच पैसे आदि आदि | उस हिसाब से घडी की कीमत, वह भी टेबल घडी - जो ठण्ड में तेज और गर्मियों में सुस्त हो जाती थी - पेंडुलम के न होने के बावजूद ... जिसका टिर्र्रर्र्र का अलार्म पूरी तरह से चाभी एँठने के बाद भी बमुश्किल आधा मिनट बजता था - उसकी कीमत सौ रूपये थी |
और तब चोरों को घड़ियाँ चुराने में शर्म नहीं आती थी | महँगी चीज़ जो ठहरी | और तो और, उन दिनों चोर पकडे भी जाते थे |
हालाँकि चोरों को पकड़ना तो ये महज लड़कियों क खेल नहीं था , जिसमे दो लड़कियां दोनों हाथ पकड़कर हवा में वह फंदा उठाये कड़ी रहती थी | बाकी लड़कियां ये पंक्तियाँ लयबद्ध दोहराते हुए उस हाथ के फंदे के नीचे से गुजराती थी | जैसे ही ये पंक्तियाँ ख़तम होती, हवलदार लड़कियां फंदा नीचे करती थी और कोई ना कोई लड़की उसमें फँस जाती थी |
पर अभी बात चोरों की नहीं, घडी की हो रही थी | और मैं और कौशल भैया घडी खरीदने सुपेला बाज़ार में व्येंकेटेश्वर टाकीज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे की नीलामी की दुकान के पास खड़े थे |
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हे भगवान्, वहां तो अंजर पंजर सामान ज़मीन पर बिखरा पड़ा था | टेबल लैम्प , स्टोव , फूलदानी , मच्छरदानी, एक नहीं , पांच पांच रेडियो , चाकू का सेट , खिलौने की बन्दूक ,मछली पकड़ने का कांटा , छोटा गलीचा, पानी का जग ....|
"तुझे अलार्म घडी दिखी ? वो रही ....|" कौशल भैया ने कहा |
लाइन से तीन चार अलार्म घडी दिख रही थी | और ये चमत्कार से कम नहीं था कि सभी घड़ियाँ समान समय बता रही थी और चल भी रही थी |
"ज़रा उस अंकल से टाइम पूछना ...|" कौशल ने मुझे चुपके से हिदायत दी |
आप पास के खड़े लोगों में कम के हाथ में ही कलाई घडी थी | कलाई घडी तो और भी महँगी आती थी - शायद चार सौ या पांच सौ रूपये में | कौशल भैया ने वह अंकल इस लिए चुना शायद कि वे थोड़े उदार नज़र आ रहे थे |
"टाइम कितना हुआ अंकल ?" मैंने पास जाकर पूछा |
" चार रुपया एक .. चार रुपया दो ......| " नीलामी वाला तन्मयता और लगन से अपना काम कर रहा था | वो लकड़ी की मोड़ने वाली आराम कुर्सी - आराम कुर्सी ही कहते हैं न उसे, जिसमें पीठ टिकाने और बैठने की जगह पर पटिया की जगह ढीला, मजबूत कपड़ा लगा होता था - हवा में उठाकर एलान किये जा रहा था |
"साढ़े चार रुपया ...|" पीछे से किसी ने आवाज़ दी |
"साढ़े चार रुपया एक , साढ़े चार रुपया दो ... |" नीलामी वाले ने बोली का अनुमोदन किया |
"अंकल टाइम ...| " मैंने दोहराया |
"अरे हाँ | टाइम ? पौने बारह ...|"
"पौने बारह ...| " मैंने कौशल भैया के पास जाकर दोहराया |
कौशल भैया ने अलार्म घड़ियों पर निगाह डाली ,"तब तो ठीक ही हैं ...| तीनों की तीनों ...|"
अब मुझे नीलामी का दस्तूर समझ में आने लगा था | तो नीलामी वाला एक एक सामन उठाता , कोई सस्ता दाम बताता और फिर खड़े लोगो में से कोई एक उसका दाम बढ़ा देता |
नीलामी वाला कई बार " एक" और उससे भी अनेकों बार " दो" दोहराता | लोग दम साढ़े उसके तीन बोलने इंतज़ार करते | जैसे ही वह तीन कहता , बोली लगाने वाला फूल कर कुप्पा हो जाता और लपककर सामान उठा लेता | नीलामी वाले को याद दिलाना पड़ता क़ि उसे पैसे भी देना है |
खिलौने की बन्दूक देखकर मेरा मन ललचा रहा था | बबलू भैया मेले से एक बन्दूक खरीद कर लाये थे , जिसका प्लास्टिक का हत्था निकालकर पीछे लकड़ी का हत्था लगा दिया गया था | ये खिलौने की बन्दूक उससे कहीं ज्यादा बड़ी और अच्छी भी थी | नीलामी पांच पैसे से शुरू हुई | यह तो दौलत की दुकान से भी ज्यादा ललचाने वाली थी | नीलामी वाले ने उसमें दीवाली की टिकली लगाकर कर फोड़ा भी और दुनाली से ढेर सारा धुआं निकलने लगा | और धुआं बंद होते होते वह दुनाली बन्दूक चवन्नी में बिक भी गयी | मेरा दिल बैठ गया |
आखिकार नीलामी वाले ने एक अलार्म घडी उठाई | उसमें बारह बजे का अलार्म लगाया और जोर से चिल्लाया ," बारह बज गए |" देखते ही देखते घडी का अलार्म बजने लगा |
सरदारजी के चेहरे पर मुस्कराहट गयी |
"एक रुपया ...|" पहला आदमी चिल्लाया |
"बस एक रुपया ?" नीलामी वाला बोला,"सरकार का माल है |"
"पांच रुपया ..| " दूसरा आदमी चिल्लाया |
" पाँच रुपया एक ... |"
"सात रुपया ...|"
"दस रुपया...|"
देखते ही देखते घडी का दाम बढ़ने लगा | ऐसे लगा क़ि रमा दीदी क़ी तरह घडी क़ी जरुरत सभी को है |
फिर भी तीस रूपये पार करने के बाद बोली लगाने वालों की गुहार मद्धिम पड़ गयी | अब नीलामी वाले को "पैंतीस रुपया एक, पैतीस रुपया दो, पैंतीस रुपया दो, ..." और ये दो दो कई बार दोहराना पड़ता | कौशल भैया फिर भी चुपचाप ही खड़े थे | एक बोली भी नहीं लगाईं उन्होंने | मैंने उनके पैरों में एक दो बार कोहनी से मारा भी |
"चुप ....|" उन्होंने मुझे संकेत किया |
किसी तरह घिसटते घिसटते कीमत ने पचास पार किया और अन्ठावन रूपये में घडी बिक गयी | अन्ठावन - साथ से भी दो कम ....|
नीलामी वाले ने दूसरी घडी उठाई ,"यह घडी पहली घडी की जुड़वाँ बहन है |"
"पांच रुपया ...." एक ग्राहक चिल्लाया |
"पच्चीस रुपया ....|"
सीधे बीस रूपये की छलांग देखकर बाकी ग्राहक तो एक तरफ, खुद एक बारगी तो नीलामी वाला सकते में आ गया ,"हाँ भाई, खरीदना है ना ? मजाक तो नहीं है ? पच्चीस रूपया एक ... पच्चीस रुपया दो ...|"
इतनी लम्बी छलांग देखकर लोगों को भी सम्हलने में समय लगा |
पहली घडी तो अन्ठावन रूपये में बिकी थी | दूसरी घडी सिर्फ पच्चीस रूपये में ? कौशल भैया चुप क्यों बैठे है ? क्या उन्हें रमा दीदी के लिए घडी नहीं खरीदनी है ?
"सत्ताईस रुपया ....|" अचानक मेरे मुंह से निकल गया -वो भी जोर से ....| इतने जोर से कि सबने स्पष्ट सुन लिया ... | नीलामी वाले ने भी |
इस बार सन्न रहने की बारी कौशल भैया क़ी थी | किसी तरह दांत पीसकर वे बडबडाये ,"गधे ...."
ज़ाहिर था, वे खुश तो नहीं हुए - पर पैसे तो उनके ही पास थे |
"सत्ताइस रुपया एक ... सत्ताइस रुपया दो ... |" कीमत सत्ताइस रूपये पर क्या अटकी , मेरी सांस ही अटक गयी | दिल जोर जोर से धड़क रहा था | और ग्राहकों के विपरीत मैं भगवान् से दुसरी ही प्रार्थना कर रहा था ,"हे भगवान्, मुझे इस मुसीबत से निकाल ...|"
"तीस रुपया ...|" भगवान् ने मेरी सुन ली और मेरी जान में जान आई |
दूसरी घडी ने पचपन रूपये में दम तोड़ दिया | कौशल भैया को क्या हो गया ? एक बोली भी नहीं लगाईं उन्होंने तो ...|
दूसरी घडी की कीमत और भी कम होने के बाद नीलामी वाले ने वस्तु ही बदल दिया | तीसरी नीलामी घडी वहीँ की वहीँ पड़ी थी और नीलामी वाले ने ट्रांसिस्टर रडियो उठा लिया ,"हाँ तो साहेबान |ये पाच बंद का ट्रांजिस्टर है ...| चार बैटरी वाला ...|"
"बैटरी फ़ोकट में ?" एक ग्राहक चिल्लाया |
"हाँ , सरकारी माल है | बिल्ली छाप लाल लाल चार एवरेडी बैटरी फ़ोकट में ....|"
"रेडियो सीलोन लगाओ |" एक ग्राहक चिल्लाया |
ट्रांजिस्टर तो बिक गया | उसके बाद हवा भरने वाला स्टोव भी बिक गया | भीड़ अब छंटने लगी थी | चूँकि दोपहर और गरम हो चली थी, नए ग्राहक भी इक्का दुक्का ही जुड़ रहे थे |
नीलामी वाले की आवाज़ में भी थकावट झलकने लगी थी |
"लगता है , घडी आज नहीं मिलेगी |" कौशल भैया अपने आप से बोले |
मैं उलझन में पड़ गया | घडी तो तभी मिलेगी , जब आप बोली लगायेंगे | बगैर मुंह खोले तो कुछ मिलने से रहा |
अंततः नीलामी में ढील आते देख नीलामी वाले ने फिर एक बार अलार्म घडी उठा ली |
अब ग्राहक भी कम हो गए थे | कीमत को पच्चीस पार करने में ही सदियाँ गुजर गयी और तभी वह हुआ , जिसकी इतनी देर से मैं प्रतीक्षा कर रहा था |
"तीस रुपया |" कौशल भैया ने आवाज़ लगाईं |
"तीस रुपया एक... तीस रुपया दो ....|"
"बत्तीस रूपया ...|" एक और ग्रह चिल्लाया |
"पैतीस रुपया |" नीलामी वाले को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर कौशल भैया ने आवाज़ लगाईं |
"हाँ तो साहेबान, पैतीस रूपया एक .. पैतीस रुपया दो ...|"
"सैतीस रुपया |" वही ग्राहक , जिसने बत्तीस की आवाज़ लगाईं थी , नीलामी वाले के दो तीन बार दोहराने के बाद बोला |
"चालीस रुपया |" कौशल भैया छूटते ही हुंकार उठे |
अब इस घुडदौड में दो ही घोड़े रह गए थे और अड़तालीस रूपये में घडी हमारी झोली में आ गयी थी ....|
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शायद उस दिन मैं काफी कुछ सीख गया होता - अलार्म घडी क़ी सम्बन्ध में | अगर मैं भी वहाँ बैठा होता तो | मैं केवल आवाज़ सुन सकता था | आँखों के सामने तो एक मोटा पर्दा था | यानी मैं परदे के पीछे खड़ा था | दिल आज भी उसी तेज़ी से धड़क रहा था , जैसे उस थीं अचानक धड़का था |
कौशल भैया रमा को समझाए जा रहे थे ,"दो तरह क़ी चाभी है | देखो, इस चाभी के बगल में घंटी क़ी फोटो बनी है | मतलब ये अलार्म क़ी चाभी है | और ये दूसरी चाभी घडी क़ी चाभी है |"
रमा ने पूछा," ये तीर का निशान कैसा है ?"
"जिस दिशा में तीर का निशाना है, उसी दिशा में चाभी घुमाना है ...| और ये टाइम ठीक करने क़ी घुंडी है ...| कई बार गर्मी में घडी धीमे चलने लगेगी औत ठण्ड में तेज़, तो ये जो सबसे नीचे नुक्की है, उसे इधर घुमाओ तो घडी तेज़ चलने लगेगी और उधर ...|"
अचानक परदे के उस पार से माँ पर्दा हटाकर तेज़ी से आई और मुझसे टकरा गयी | मेरे हाथ में कस कर पकड़ी ट्रे छूटकर गिरते - गिरते बची ...|
"तू यहाँ क्या कर रहा है ?" वह बौखला गयी ...| फिर उसकी नज़र मेरे हाथ पर पड़ी जिसमें वो लॉटरी वाली ट्रे, वो बेल बूटे वाली खूबसूरत सी ट्रे थी | माँ समझ गयी सब बात |
"ला, मैं इसकी धूल साफ़ कर दूँ |"
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"और क्या - क्या मिलता है भाई नीलामी में ?" रमा काफी उत्साहित थी |
" काफी कुछ | टेबल लेम्प, अटैची, रेडियो ...|"
"रेडियो भी ?"
"हाँ | ट्रांजिस्टर रेडियो | तीन बैंड वाला चार बैंड वाला ...|"
"...अगली बार ट्रांजिस्टर ले आना भाई ...|"
मेरे दिल पर रखा एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया था |
रमा जब घर से निकली तो उसकी ख़ुशी जरुर दो गुनी हो गयी होगी | वो तीन गुनी होती , अगर मैं झिझकता नहीं ...| माँ गेट पर कड़ी उसे जाते हुए देख रही थी | मैंने माँ क़ी साडी खिंची ," माँ, माँ ...|"
"क्या ?"
"क्यों न हम सिगरेटदानी भी रमा को दे दें ? हमारे घर में कोई सिगरेट नहीं पीता | लेकिन भांटों तो ....|"
"पहले क्यों नहीं याद दिलाया ?" फिर माँ ने वहीँ से हांक लगाईं ,"रमा , रमा हो ...|"
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गाँव से जो मेहमान आते थे , वे सारे के सारे नौकरी क़ी तलाश में नहीं आते थे | कुछ सामाजिक जिम्मेदारियाँ भी होती थी | जैसे कि - शादी |
हाँ, काफी लोग अपने जवान लड़के या लड़कियों की शादी लगाने आया करते थे | ऐसा नहीं था कि बाबूजी को इन मामलों के लिए उनके जैसे फुर्सत हो | ज्यादा से ज्यादा वे राय दे सकते थे और उनकी राय काफी मायने रखती थी, क्योंकि वे काफी पढ़े लिखे थे और महाविद्यालय के प्राचार्य थे | गाँव से निकलकर रायपुर या बिलासपुर आना आसान था, क्योंकि वहां हमारे काफी रिश्तेदार थे | पर भिलाई में आकर भाग्य आजमाना, बसना और अपनी एक छवि बनाना बहुत बड़ी बात थी | उन दिनों छत्तीसगढ़ियों के लिए भिलाई एक तरह से एक अजूबे से कम नहीं था , जहाँ दैत्याकार चिमनियाँ धुआं उगलती थी | नल खोलो तो पानी आता था | सडकों पर बिजली के खम्बों पर बत्तियां लगी थी | मैत्री बाग़ में बड़ा सा चिड़ियाघर था |बड़ी बात तो ये थी कि वहाँ लोग छत्तीसगढ़ी बोल या समझ नहीं पाते थे |
दूसरी बात , बाबूजी राय दें या न दें, दोनों पक्षों के लिए मिलने के लिए, भिलाई और हमारा घर काफी सुगम जान पड़ता था | अक्सर ऐसा होता था कि कोई धोती कुरता पहने छत्तीसगढ़ी बोलता देहाती रह भटक जाता था तो लोग उसके हाथ का तुड़ा मुड़ा पुर्जा पढ़े बिना ही उसे हमारे घर ले आते थे | उसकी बांछें खिल जाती थी, क्योंकि यही तो उनकी मंजिल होती थी |
"माँ , ये कौन हैं ?" मैंने माँ से चुपके से पूछा |
"गंगाराम |"
"गंगा राम ? यानी कि गंगा रा म ?"
"हाँ|"
मैं गुनगुनाने लगा ,"एक खबर आई सुनो एक खबर आई | होने वाली है , गंगा राम की सगाई |"
माँ वैसे ही जब तब अनपेक्षित काम बढ़ जाने से झल्ला जाती थी | अब उसे शरारत सूझी |
"तू और जोर से नहीं गा सकता ?"
"और जोर से ?"मैंने गला फाड़ा ,"एक खबर आई ...|"
"अरे , मैंने गला फाड़ने को नहीं कहा | जा, रंधनीखड़ (किचन ) से बाहर निकल और बैठक में गा ...|"
बैठक में ही वो सज्जन बैठे थे | मैंने परछी से गाना शुरू किया ,"एक खबर आई सुनो एक खबर आई | क्या ?"
फिर तेज क़दमों से बैठक से गुजरा ,"होने वाली है गंगा राम की सगाई |"
मैंने इस बात का ख्याल रखा कि ये लाइन बैठक से बाहर निकलने के पहले पूरी हो जाए और मैं उन सज्जन को ना देखूं |
जब उनकी और से कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी , तो मुझे थोड़ी सी निराशा जरुर हुई | कहीं ऐसा तो नहीं क़ी उन्होंने कुछ सुना ही ना हो | थोड़ी देर बार मैंने धड़कते दिल को थामा और फिर यही गाना गाते हुए , इस बार थोडा धीरे क़दमों से अन्दर घुसा |
इस बार मिसाइल ने लक्ष्य को भेद ही दिया |
"सुनना बेटा जरा ....|"
इसका ही तो मुझे इंतज़ार था | मैं थोडा ठिठक गया |
" तुम तो अच्छा गाते हो | ये गाना कहाँ से सीखा ?"
"रेडियो से |" मैंने जवाब दिया |
"अच्छा ? और भी गाना आता होगा तुमको ?"
"हाँ,, आता तो है ...|"
"तो एक काम करो बेटा | ये गाना मत गाना | कोई और गाना गाओ तो अच्छा रहेगा |"
बड़ों से जुबान लड़ाना बुरी बात है | सो मैंने पूछा तो नहीं कि यह गाना नहीं तो क्यों नहीं ? क्या खराबी है इस गाने में ?
मैंने एक शरीफ बच्चे की तरह सर हिलाया और उनकी बात मान ली |
अब शादी ब्याह का मामला भला एक मुलाकात में तो तय होता नहीं | कई बार अलग अलग लोगों से मिलना पड़ता है |उनका लड़का हुलास दुर्ग के पालीटेक्निक में पढ़ रहा था | लक्ष्मी भैया के अनुसार वो थोडा नादान था |
"सुनो क्या बोल रहा था ? अगर पाकिस्तान से लड़ाई हुई तो ये पुलिस वाले लड़ने जायेंगे ... | हा .. हा.. हा... | पुलिस और सेना में फर्क नहीं मालूम ... | हां ... ह़ा ... हा... |" लक्ष्मी भैया की हँसी रुक नहीं रही थी |
फर्क तो मुझे भी नहीं मालूम था , पर लक्ष्मी भैया का साथ देने मैं भी हँसा , "हा.., हा.. ,हा...|"
एक शाम को मैं सड़क से घूम- घाम के आया और बरामदे में मोंगरे के पास बैठकर झूम झूम के गाने लगा |
"वो परी कहाँ से लाऊं ? तेरी दुल्हन जिसे बनाऊं ...| ... ये गंगाराम क़ी समझ में ना आये ... |"
अन्दर से बाबूजी ने आवाज़ लगाईं , "टुल्लू , बेटा ... |"
मैं अन्दर गया और भौंचक रह गया | बाबूजी के साथ वही सज्जन - माँ के गंगाराम काका - बैठे मुस्कुरा रहे थे |
"इन्हें जानते हो ? नहीं जानते ? चलो पाँव छुओ और बाहर दूर जाकर खेलो ....|"
मन ही मन मुझे हँसी आ रही थी | मन में आया कि उन्हें बोलूं कि वो 'पुराना' गाना नहीं, वादे के मुताबिक दूसरा गाना गा रहा था | और जो गा रहा था , वह महज़ संयोग ही था ....
संयोग , और कुछ भी नहीं - ईमान से ....|
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"चारू चन्द्र की चंचल किरणे , खेल रही थी जल थल में ...|"
अपनी कुटिया में , ज़मीन पर गद्दा बिछाए, मच्छरदानी लगाए, कौशल भैया बैठे थे | भिलाई विद्यालय से आकर, वे सीधा वहीँ चले जाते थे | घर में लोग जब ज्यादा हो जाते, तो शांति की तलाश में मैं वहीँ चले जाता | मैं वहाँ गया, तो उन्होंने मुझे बुला लिया |
पुस्तक के ऊपर लिखा था, "मधु संचय"|
"चारू याने साफ़ ...|" फिर अचानक उनकी नज़र मेरे पाँव पर पड़ी ,"तेरे पाँव साफ़ हैं ?"
"खेल कर आने के बाद मैंने पाँव तो धोये थे |" मैं कुछ समझा नहीं |
"ठीक है, दिखा जरा ...|"
मैंने अपने पांव दिखाए |
"बाहर ही नहीं, घर में भी धूल रहती है |"
"माँ झाड़ू तो लगाती है ...|"
"झाड़ू क्या दिन भर लगाती है ? खिड़की दरवाजे तो दिन भर खुले रहते हैं बिस्तर में घुसने के पहले पाँव झाड़ लेना चाहिए ...|"
मैं अपराधी भाव से पांव मच्छरदानी के बाहर निकालकर झाड़ने लगा |
"पाँव ऐसे साफ़ होना चाहिए, जैसे दर्पण ...|"
मैं काफी देर तक तलुआ झाड़ते रहा ...|
"चेहरा दिख रहा है ?"
"नहीं |" मैं अभी भी पांव झाड़ रहा था |
"चल , ठीक है | अब पांव अन्दर कर ले ...| तो चारू यानी साफ, चन्द्र याने चाँद, चंचल यानी ... मतलब उछल कूद मचाने वाली ...| किरणे यानी ... |" फिर उन्हें लगा , मानो मैं बोर हो रहा हूँ | वो बोले, "बाहर जाकर देख | चन्द्रमा निकला है या नहीं ? "
मैंने कुटिया के बाहर जाकर देखा, बड़ा स, गोल चन्द्रमा आकाश पर मुस्करा रहा था |
" हाँ निकला तो है |" मैंने कहा |
"वैसे ये कविता थोड़ी मुश्किल है ... | चलो , दूसरी कविता पढ़ते हैं ...| " उन्होंने पन्ने उलटे और एक और कविता निकाली ,"मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों | देखो, कृष्ण जी जब छोटे
थे , तो एक दिन वो अपनी माँ यशोदा से जिद करने लगे - माँ मुझे तो चन्द्रमा ही चाहिए ...|"
"पर चन्द्रमा तो ऊपर आकाश में होता है ...|"
"तो यशोदा ने मनाने की कोशिश की , पर कृष्ण जी ने जिद पकड़ ली | तब यशोदा ने एक थाली में पानी भरा तो चन्द्रमा की परछाईं उस पर पड़ने लगी | तब यशोदा मैया बोली,
लल्ला, यह है चन्द्रमा | कृष्ण जी ने हाथ से उसे पकड़ने की कोशिश की | चन्द्रमा की परछाई हिलने लगी | यशोदा बोली, लल्ला, ये चाँद तुझसे डर रहा है ....|"
मैं चुपचाप सब सुन रहा था |
"क्या सोच रहे हो ?"
"ट्रांजिस्टर लेने कब चलेंगे ?" मैंने पूछा |
**********
व्यास का गुस्सा बड़ा ही खतरनाक था भाई |
अक्सर ऐसा होता कि परछी पर दरी बिछाकर वे लक्ष्मी भैया को पढाते थे | कई बार में दूर से उन्हें देखता था | सच तो ये था कि मैं देखना नहीं चाहता था | पढ़ाते पढ़ाते किसी न किसी बात वे लक्ष्मी भैया भड़कते रहते थे | काफी कष्टप्रद था यह देखना, क्योंकि लक्ष्मी भैया ऐसे थे जिनसे मैं कोई भी बात कभी भी पूछ सकता था | वे जवाब भी सोच समझ कर मुझे अच्छे से समझाकर देते थे | कोई उन्हें डांटे , यह मैं देख नहीं सकता था | पर कर भी क्या सकता था ? बैठक में तो बाबूजी किसी मेहमान के साथ बैठे बातें कर रहे हैं | रात हो गयी है और सब लोग घर चले गए हैं - इस लिए बहार जाकर खेल भी नहीं सकता | पंखाखड में शशि दीदी एटलस से नक्शा ट्रेस कर रही है | रसोई घर में माँ खाना बना रही है | कहाँ जाऊं ? वहां खड़े रहना मज़बूरी थी |
"तुझसे से ये भी नहीं बनता ,ढपोर शंख, गोबर ...|" और गुस्से में व्यास ने लक्ष्मी भैया को तड़ाक से एक झापड़ जड़ दिया |
उसकी गूंज इतनी थी कि बाबूजी बैठक से उठकर चले आये |
"क्या बात है व्यास ? क्यों मार रहे हो ?"
" नहीं मामा जी | कुछ नहीं ...|"
"मैंने झापड़ की आवाज़ सुनी |"
"अरे नहीं मामा | यहाँ मच्छड बैठा था | उसको मारा | क्यों लक्ष्मी ?" उन्होंने लक्ष्मी भैया से पूछा |
सकपकाए चेहरे से लक्ष्मी ने आज्ञाकारी की तरह सर हिलाया |
"ठीक है | मच्छर दानी लगाकर उसके अन्दर बैठो |" जाते - जाते बाबूजी बोले ," पर उसे मारो मत |"
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थोड़े दिनों पहले ही तो मैं कला स्टूडियो आया था | मेरे बाल काफी बड़े बड़े हो गए थे और मुझे सरदारों की तरह जूड़ा बनाना पड़ता था | झालर उतरवाने के पहले रामलाल मामा को पता नहीं क्या सुझा ,"टुल्लू क़ी एक फोटो खिंचवा लेते हैं ...|"
कला स्टूडियो वाले ने मेरे हाथ में प्लास्टिक के फुल पकड़ा दिए और मुझे एक लंबी सी बेंच पर, जिसमें बड़े बड़े फूलों वाली चादर बिछी थी, बैठा दिया | अगल बगल की दो बड़ी बड़ी लाइटें जला दी | इतनी तेज रौशनी थी कि मेरा सर गरम हो गया | एक बड़े से कैमरे में , जिस पर चादर बिछी थी , फोटोग्राफर ने शुतुरमुर्ग क़ी तरह अपना सर घुसा लिया और फिर कहा,"मुन्ना इधर देखो ....| हुर्र ...."
चिड़िया विडिया तो कुछ निकली नहीं, मेरी फोटो जरुर खिंच गयी | जिसे लकड़ी के छोटे फ्रेम में मढ़ा कर बैठक में टांग दिया गया ....|
उन्हें तो कोई "इधर देखो ...हुर्र वगैरह कहने वाला नहीं था | उस दिन मुझे लगा था कि परदे के सामने बैठने के लिए इतनी बड़ी बेंच रखने क़ी क्या जरुरत थी ? जब उनकी फोटो खींच कर आई तो लगा क़ी वो बेंच छोटी पड़ गयी है और एक लड़की को तो खड़ा होना पड़ गया है |
शशि दीदी , शकुन, शशि दीदी की कुछ अन्य सहेलियाँ जिनमें शैल भी शामिल थी , हाँ बातूनी शैल भी उस फोटो में थी |
पता नहीं, उन दिनों शायद दाँत निकाल कर हँसना लड़कियों के लिए बेशर्मी मानी जाती थी | सब केवल मुस्कुरा रहे थे |
उन दिनों फोटो किसी प्रयोजन के लिए खिंचवाई जाती थी | फोटोग्राफी महँगी जो थी | उद्देश्य कुछ भी हो सकते थे | यादें संजोने से लेकर शादी ब्याह लगाने तक ...|
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तो नीलामी में खरीदे ट्रांजिस्टर को लेकर कौशल और मैं रमा के घर गए | कौशल भाई ने नया नया स्कूटर सीखा था | उन्हें पसंद नहीं था कि कोई स्कूटर पर सामने खड़े हो | सो
मुझे पीछे ही बैठना पड़ा |शाम करीब करीब रात में बदल गयी थी | फिर भी रमा के घर में अँधेरा छाया था |
"ये है ट्रांजिस्टर | पांच बैंड वाला |"
"पांच बैंड वाला ?"
"हाँ पाँच बैंड वाला | सेल से भी चलेगा और बिजली से भी | सेल डालना हो तो चार सेल डालो | या तो बिजली से जोड़ दो | चलाकर देखें ?"
"लाईट नहीं है |" रंजना बोली |
"अरे | क्या हुआ ? कब से लाईट गयी है ?"
"सुबह से | 'पूछताछ दफ्तर' में इसके पापा रिपोर्ट करने गए थे तो दफ्तर खुला ही नहीं था | उसके बाद पता नहीं | 'मूड' होगा तो फिर गए होंगे | रमा शिकायत के स्वर में बोली |
"एक मिनट देखूं जरा ?"
कौशल भैया टीन क़ी कुर्सी पर चढ़ गए | 'फ्यूज़ बॉक्स' खोलकर एक फ्यूज़ निकाला |
"अरे, ये तो 'फ्यूज़' उड़ा हुआ है | हीटर वगैरह तो नहीं जलाया था ? एक वायर देना जरा |"
वायर के अन्दर से कौशल भैया ने एक पतला सा तार निकाला और घिस कर एक दम महीन कर दिया |
"जब तक इलेक्ट्रिशियन आता है , ऐसे ही काम चलाओ | अँधेरे में कहाँ बैठे रहोगे ?"
और अगले ही पल कमरे में उजाला हो गया ...|
कौशल भैया ने ट्रांजिस्टर जोड़ा, बैंड बदले | काँटा इधर उधर घुमाया |
सब कुछ काफी अच्छा था | ट्रांजिस्टर ने रमा के घर क़ी काफी लम्बी सेवा क़ी | गाना सुनाया , भांटो को चुनाव के नतीजे सुनाये | जसदेव सिंह क़ी आवाज़ में कमेंट्री सुनाई | १९७२-७३ में इंग्लॅण्ड पर भारत को जीत दिलाई |
फिर एक सुखद सपने क़ी तरह उसका भी स्वाभाविक अंत हुआ | १९७४ में इंग्लैण्ड के खिलाफ भारत क़ी टीम ४२ रन पर लुढ़क गयी | कई भावुक खेल प्रेमियों ने इमारतों से कूदकर जान दे दी | भांटो ने ट्रांजिस्टर ज़मीन पर दे मारा |
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शायद मुझे लगा माँ का व्यवहार एकदम बदल गया |
शायद मुझे लगा ....! शायद ...!!
उस दिन के बाद से माँ ने सौंफ की उस ट्रे के बारे में कोई बात नहीं की | ना तो मुझसे और ना ही किसी और से उसका कोई जिक्र किया | घर में मेहमान आते रहे | और वो सौंफ की ट्रे पंखाखड़ में तख़्त के नीचे, तीने की पेटी के ऊपर रखी धूल चाटते रही !
"माँ " दोपहर के समय घर में कोई भी नहीं था | सब विद्यालय गए थे | संजीवनी भी फूफू के साथ व्यास के घर गयी थी | परछी में लगे झूले में झूलते झूलते सो गया | जब आँखें खुली, तो घर में सन्नाटा छाया था |
"माँ" , मैंने एक बार फिर आवाज़ दी | कोई जवाब नहीं |
चलते - चलते मैं बैठक में आया | दरवाजा बंद था और ऊपर की चिटखनी लगी थी | इपर की चिटखनी, जहाँ तक मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता था | मैं केवल अख़बार रखने वाली छोटी टेबल ही सरका सकता था या टीन की कुर्सी खोल कर दरवाजे पर लगा सकता था | मगर उनके ऊपर भी मैं चढ़ जाऊं और पंजे के बल खड़े भी हो जाऊं तो भी मेरा हाथ ऊपर की चिटखनी तक नहीं पहुँच सकता था |
"माँ", मैं गला फाड़कर चिल्लाया |
कोई आवाज़ नहीं | कोई प्रतिक्रिया नहीं |
अब अकेले, खाली सूने घर में मुझे थोडा डर लगने लगा | कहाँ चले गए सब लोग ? कम से कम माँ तो रहती थी | वो तो मुझे छोड़कर नहीं जाती थी | कहीं ऐसा तो नहीं , माँ मुझसे गुस्सा होकर चले गयी ?
मैं चलते चलते परछी के छोर तक पहुंचा , जहाँ आँगन में जाने का दरवाजा था | मैंने उसे खींच कर देखा , वो भी बंद था |
अब मैं फँस गया | मैं कहीं नहीं जा सकता था | फिर भी अगर परछी का दरवाजा लगा हो तो माँ या तो बाथरूम में होगी या नहानी में कपडे धो रही होगी | पर मुझे कपडे की छपक छपक तो सुनाई नहीं दी | अगर माँ आँगन में बड़ी बना रही हो तो ,,, पर माँ आंगन में कोई काम करते समय तो परछी का दरवाजा बंद नहीं करती थी |
"माँ, माँ, माँ " मैं चीखा | साथ ही मैं परछी का दरवाजा पकड़ कर जोर जोर से हिलाने लगा |
अब मुझे भय के साथ-साथ गुस्सा आने लगा , जो शनैः-शनैः ग्लानि में बदल गया | लगता है , माँ के मन में गुस्सा भरा हुआ है और आज उसने म्ह्झे सजा देने का निश्चय किया है |
"माँ, माँ माँ, ओ माँ , माँ वो , माँ कहाँ हो माँ ? " अब मेरी पुकार ने कुछ कुछ भिखारियों की गुहार का सा रूप ले लिया था | दरवाजा हिलाते हिलाते हाथ दुखने लगा और आंसू निकल आये |
थक कर मैं परछी के पास वाले दरवाजे पर बैठ गया | आंसू बह बह कर सूख गए थे |तब कहीं जाकर मुझे आँगन का दरवाजा खुलने आवाज़ सुनाई दी - या वो मेरा वहम था ? नहीं , ये माँ के क़दमों की आहट ही थी | जैसे किसी प्यासे को पानी नज़र आये , मैं फिर पुकारने लगा ," माँ , माँ |"
परछी का दरवाजा खुला और माँ नज़र आई | मेरी जान में जान तो आई , पर माँ का रौद्र रूप देखकर मैं सहम गया |
"चिल्ला | और जोर से चिल्ला | क्या हो गया ? घर में कोई चोर आया है या साँप घुस गया ? तेरी आवाज़ गुड्डा के घर तक आ रही थी | दो मिनट सब्र नहीं हो सकता तुझसे ? पिछवाड़े में ही तो है गुड्डा का घर ? बड़ी ताकत आ गयी है | दरवाजा चौखट से उखाड़ देगा क्या ?"
उसके अगले ही दिन - दोपहर के समय माँ कपडे धो रही थी | मैं माँ के सामने जाकर खड़ा हो गया |
"क्या है ?" माँ ने पूछा |
"मैं आ गया हूँ |"
"तो ?" माँ ने अनमने ढंग से पूछा |
" तो , आज मुझे नहलाओगी नहीं ?"
"देख नहीं रहा , मैं कपडे धो रही हूँ ?" मैं वहीँ खड़े रहा |
"अब तू बड़ा हो गया है | जा नहानी में जाकर खुद नहा ले |"
मैं वहीँ का वहीँ खड़े रहा |
"जा न ?"
"मुझे नहाना नहीं आता |"
"कुछ नहीं , साबुन लगाओ और पानी डालो | उसके लिए कौन सा भला पंडित का पोथा पढने की जरुरत है ?"
मैं घिसटते हुए नहानी गया और फिर वापिस आ गया |
"अब क्या हुआ ?"
"साबुन रोशनदान के पास रखा है | मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता |"
माँ झल्ला कर उठी | नहानी के रोशनदान से जाकर बड़ी सी जाली वाली साबुनदानी निकाली और ज़मीन पर पटक दी | फिर वापिस आँगन चले गयी |
साबुन दानी में तीन साबुन रखे थे | हरे रंग की हमाम , गहरे लाल रंग की लाइफबॉय और मोटर साइकिल छाप साबुन की बट्टी |
किससे नहाया जाये ? हरे रंग का हमाम घुल कर छोटा सा रह गया था | लाल रंग का लाइफबॉय गीला और लिजलिजा लग रहा था | हाँ, मोटर साइकिल छाप साबुन की बट्टी बहुत बड़ी थी | उसे धागे से काटकर आधा किया गया था, फिर भी बहुत बड़ी थी | मैंने उठा कर देखा, पत्थर की तरह भारी थी | बहरहाल, पीले मक्खन की साबुन की बट्टी लेकर मैंने मलना शुरू किया | पहले पाँव ... | ओह, पाँव जलने लगे ....|
"माँ , माँ |" मैं चिल्लाया | पाँव जल रहे हैं |"
पहले तो माँ को लगा मैं बहाने बना रहा हूँ | मैंने तुरंत दो मग पानी उड़ेल दिया | फिर भी पाँव जल रहे थे |
"माँ , मेरे पाँव |"
माँ भागकर आई ," क्या कर रहा था ? कौन सा साबुन लगा रहा था ?"
"मोटर साइकिल छाप |" मैंने कहा |
"वाह रे टूरा ! वो तो कपडे धोने का साबुन है |"
अब माँ ने साबुन लगाना चालू किया | लाइफबॉय मेरे चेहरे पर इतनी तेजी से मला की आँख में साबुन चले गया |
"माँ , आँख में साबुन चले गया | आँख जल रही है माँ |"
इस बार माँ ने मेरी गुहार अनसुनी कर दी | पानी तभी डाला , जब साबुन लगाना ख़तम हुआ |
माँ गुस्सा थी .... शायद ....|
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"मेरी बिल्ली बड़ी चिबिल्ली,
घर घर में घुस जाती है |
घूम घूम कर सूंघ सूंघ कर,
सब कुछ चट कर जाती है |"
"हा, हा, हा |' रामनाथ हँसा ,"शाबास | शाबास | बहुत अच्छे | " उसने पहली कक्षा की "बाल भारती" बंद की और कहा ," अब सुनाओ |"
"मेरी बिल्ली बड़ी चिबिल्ली ...घर घर में घुस जाती है ....|"
बिसाहू पास में ही बैठा हुआ था | बरामदे में केवल हम तीन लोग ही बैठे थे| मैं समकोण बनाते हुए खोखले चबूतरे में बैठा था | मेरे बगल में ही बिसाहू बैठा था और रामनाथ कुर्सी पर बैठा था |
"अब ये पढो | "रामनाथ ने दूसरा पन्ना खोला |
ना जाने क्यों, आजकल वह कविता मुझे अच्छी नहीं लग रही थी |
"बड़ी भली है अम्मा मेरी |
ताज़ा दूध पिलाती है |
मीठे मीठे फल ले लेकर ,
मुझको रोज़ खिलाती है |"
बिसाहू खुश हो गया ,"किस कक्षा में पढ़ते हो ?"
"मैं शाला थोड़ी जाता हूँ |" मैंने कहा |
रामनाथ ने मेरी बात का अनुमोदन किया ,"अभी स्कूल नहीं जाता | इस साल जाएगा |" फिर उसने बिसाहू से पूछा, "और आपका काम कैसे चल रहा है ?"
एकदम फस्ट किलास भैया | बिसाहू बोला ,"बड़े मज़े का काम है | क्या है कि पर छज्जे में बैठे रहो | मशीन नीचे लगी है |"
कितनी बड़ी मशीन है ? " रामनाथ ने पूछा |
"बहुत बड़ी मशीन है |मैं छज्जे पर बैठता हूँ तो नीचे आदमी चिरई (चिड़िया) जैसे दीखता है | अरे, पत्थर को पूरा चूरा चूरा करके पिसान (आटा ) बना देती है | काम क्या है ? नीचे से सुपरवाइजर चिल्लाएगा ,"मशीन चालू करो जी | " एक हत्था नीचे करो और दो बटन दबा दो | बटन नीचे मशीन चालू ...| फिर टीने की कुर्सी पर बैठ के सो जाजो ....| फिर नीचे से कोई चिल्लाएगा ,"मशीन बंद कर दो जी ...मशीन बंद कर दो ...| " उठ के बटन दबाओ और फिर सो जाओ | जब तक वो लोग ' डिराम ' (ड्रम) से चूरा निकालेंगे , सोते रहो |
फिर बोलेंगे ,"मशीन चालू करो हो .... | फिर से बटन दबा दो ...और सो जाओ | फिर बोलेंगे ,"बंद करो जी ... | बटन दबा के मशीन बंद कर दो | क्या हुआ ? खाने की छुट्टी हो गयी |
खाना खाने जाओ, ताश पत्ती खेलो | घंटे भर बाद वापिस आ जाओ | दो बार और मशीन चालू बंद करो | दिन ख़तम | साइकिल उठा के घर चलो | ऐसा आराम गाँव की खेती किसानी में कहाँ भैया ?"
बिसाहू ने कुछ दिन पहले ही सर मुडवाया था | अब उसने गंजे सर पर छोटे छोटे बालों में, जो गर्मी के पसीने से भींग गए थे, हाथ फेरा और सर पर फिर रुमाल बाँध लिया |
जब तक बिसाहू को व्याख्यान जारी था, मुझे पढने से एक तरह से छुट्टी मिल गयी थी | मेरी आँखों के सामने वह कविता घूम रही थी | "बड़ी भली है अम्मा मेरी " - फिर उस दिन माँ को क्या हो गया था , जब संजीवनी और बेबी के नाक कान छिदा रहे थे ?माँ उस दिन बिलकुल निष्ठुर हो गयी थी | "ताज़ा दूध पिलाती है |" दूध नहीं , चाय - डेरी के दूध की चाय ....| "मीठे मीठे फल ले लेकर ...|" हाँ, केले वाली से केला या "पूना का मुसाम्मी , मुसम्मी माँ मुसम्मी ..." मुसम्मी वाली से मुसम्मी जरुर लेती है , फिर लकड़ी के लाल हत्थे वाले रस निकालने वाले से रस निकाल कर देती है | कब ? जब कोई बीमार पड़ता है -तब | हालाँकि रोज़ तो नहीं, पर वो मुसम्मी वाली या केले वाली रोज़ घर के सामने आकर रूकती थी और पूछती थी ," मुसम्मी माँ , मुसम्मी |" या "केला , बाई केला ...|" और माँ मना भी करती थी तो उनसे दो बातें करने के बाद ....|
पर अब जो भी हो - मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा - माँ मुझसे गुस्सा है | मुझे अभी वो कविता वाली भोली माँ नहीं, तलवार वाली दुर्गा माँ दिख रही थी | क्या किया जाए ?
तभी मेरी तन्द्रा भंग हुई | अचानक रामनाथ ने एक सवाल पूछ डाला ," बी. एस. पी . या नाम ( नॉन) बी एस पी . ?"
बिसाहू के चेहरे की मुस्कान अचानक काफूर हो गयी ," नाम बी. एस. पी. भैया | अपनी किस्मत कहाँ ? भैया से इसीलिए बात करने आया हूँ | पर आजकल बी एस पी में मेट्रिक पास ही ले रहे हैं | आठवीं पास को कौन पूछता है ?"
यानी भिलाई में उन दिनों नॉन बी एस पी हो एक अभिशाप से कम नहीं था | ऐसा अभिशाप, जो मेरे मन में वर्षों बैठा रहा | कई बार अभी भी कचोटता है |
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"कुकड़ूकू ....| कुकड़ूकू .... |"
सोगा के घर की मुर्गियां माँ क सर दर्द थी - जबरदस्त सर दर्द ...| वो मुर्गियां सोगा के घर तो रहती थी नहीं, क्योंकि सोगा के घर में कोई वनस्पति उगती नहीं थी | वो अक्सर बीच के हैज़ की बाद लांघकर हमारे घर आ जाया करती थी और क्यारी में जो कुछ भी उगा रहता, चोच मारकर, पांवों से खोदकर सब कुछ बराबर कर देती | माँ की बड़ी इच्छा थी कि घर में धनिया , मेथी या पालक लगाए, पर ये मुर्गियां कुछ उगने दें तब न | मैं कई बार मुर्गियों के पीछे भागता, पर मुर्गियां तो मुर्गियां, चूजे भी बड़े फुर्तीले होते | कभी हाथ में आते ही नहीं थे |
"कुकड़ूकू ....| कुकड़ूकू .... |"
"सोगा , अपनी मुर्गियों को समझा दे ...| " एक दिन तैश में आकर मैंने सोगा को धमकाया |
"क्या समझा दूँ ?" मगिंदर बीच में कूद पडा |
मैं निरुत्तर हो गया | भैसों के तबेले में बीन बजाने का कोई फायदा तो था नहीं |
गाय हो तो उसको रोकने के लिए घर के चारों और घेरा होता है | भला मुर्गियों को कैसे रोका जाए ? वो तो हैज के नीचे नीचे से अपना शारीर सिकोड़ कर छोटी सी जगह से भी अन्दर घुस जाते थे | और घुसते थे तो सीधे क्यारियों में धावा बोलते थे | अब उनकी हिम्मत यहाँ तक बढ़ गयी थी कि वे घर के सामने से होते हुए पीछे के घेरे में घुस जाया करते थे | नज़र चुकी नहीं, कि वे घेरे में नज़र आते थे |
और एक दिन उन्हें भगाते -भगाते मैंने देखा, घेरे में एक झाड़ी के पास दो मुर्गी के अंडे पड़े हुए हैं |
उन अण्डों को उठाकर मैं सीधे माँ के पास लेकर गया |
"अंडे ? कहाँ से मिले तुझे ?" माँ ने पूछा |
"सोगा की मुर्गियों ने घेरे में दिए हैं |"
"उनकी मुर्गियाँ घेरे में ? तूने भगाया नहीं ? "
"भगा रहा था, तभी ये अंडे दिखे | वापिस कर दें ?"
"वापिस ? " माँ भड़क उठी ,"दिन भर क्यारियों का सत्यानाश करते रहते हैं तो कुछ नहीं | अपने घर में तो बबूल की एक झाडी नहीं लगाईं है और हमारे घर की क्यारियों को चारागाह बना रखा है | अंडा इधर ला |"
मैंने डरते डरते अंडा माँ को दिया | कहीं गुस्से में मुझे फेंक कर मत मारे |
माँ ने एक गिलास लिया , उसमें पहला और फिर दूसरा अंडा फोड़ा | फिर दूध डाला और एक चम्मच शक्कर | फिर मुझे देकर कहा , "पी जा इसे |"
मैं कभी माँ की और देखता, कभी गिलास की ओर |
माँ गुस्से से बोली," देख क्या रहा है ? आँख बंद कर और गटागट चुपचाप पी जा |"
मैंने माँ की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया | आँखें बंद की और 'गट - गट ' की आवाज़ निकालते पी गया |
माँ बोली," अब जा और सोगा को बोलकर आ | तेरी मुर्गी ने हमारी क्यारियां उजाड़ी | धनिये के बीज का चारा बनाकर खा गयी | उससे जो अंडा पैदा हुआ , मैंने दूध में घोंटकर पी
लिया | जा, अभी बोलकर आ |"
इस बार बार माँ की आज्ञा का मैं पालन नहीं कर पाया | सन्देश ही इतना बड़ा और भरी भरकम था कि घर से बाहर निकलते - निकलते मैं सब कुछ भूल चुका था |
माँ क्या अभी भी मुझसे गुस्सा है ? शायद हाँ | शायद नहीं ...|
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दुर्गा माँ के एक हाथ में तलवार थी | दुर्गा माँ शेर पर सवार थी | शेर कि आँखें चमकीली और दांत बड़े बड़े और नुकीले थे | उसके पंजे से उस राक्षस का खून टपक रहा था जिस पर उसने अभी अभी वर किया था और जिसकी छाती पर दुर्गा माँ का त्रिशूल टिका हुआ था |
उन दिनों मंदिर जाना कम से कम बच्चों के लिए एक तीर्थ से कम नहीं था | शाला नंबर आठ के पीछे एक बहुत बड़ा रामलीला मैदान था इतना बड़ा कि उसका और छोर ही दिखाई नहीं देता था | न तो कोई चाहर दीवारी थी और न ही उच्चार माध्यमिक कन्या शाला उन दिनों बनी थी | उस मैदान में राम लीला होती थी और रावण जलाया जाता था | कभी - कभार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ क़ी शाखा लगती थी , कभी पहलवानों क़ी कुश्तियाँ होती थी | उस मैदान के दूसरी ओर था - मंदिर | उन दिनों केवल दो ही मंदिर थे - हनुमान जी का ओर दुर्गा माता का | मंदिर जाने के लिए कई बार माताओं का पूरा दल निकलता था ओर बच्चे साथ हो लेते थे | जैसे, दीपक, गिरीश , छोटा ओर अनिल क़ी माँ | ओर फिर उनके साथ बच्चे - उछलते - कूदते हुए | कभी दौड़कर बहुत आगे निकल जाते , फिर वापिस दौड़कर अपने दल में मिल जाते |
"या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण ...... नमस्तस्यै नमो नमः ...|"
कान का कच्चा बटुक पंडित मन्त्र पढ़े जा रहा था | जिन्हें प्रार्थना आती थी, वे साथ में गा रहे थे | जिन्हें नहीं आती थी, वे हाथ जोड़े आँख मूंदकर खड़े हुए थे | मैं बीच बीच में आँखें खोलकर देखता तो निगाहें सीधे दुर्गा माँ से टकराती ओर मुझे तुरंत उस भीड़ में कहीं खड़ी माँ का ख्याल आ जाता | भीड़ इतनी ज्यादा थी कि माँ मुझे दिखाई नहीं दे रही थी | इतना पक्का था कि दुर्गा माँ जरुर माँ को मेरी बेअदबी के बारे में बताएंगी | ये ख्याल आते ही मैं आँखें ओर कस कर मूंद लेता | माँ वैसे ही गुस्सा है |
आरती अंततः समाप्त हुई | अब बच्चे प्रसाद के लिए टूट पड़े | प्रसाद क्या होता था | नारियल के गीर को जितना महीन से महीन कटा जा सके - वो टुकड़ा ओर फिर एक चम्मच नारियल के पानी का ही बनाया चरणामृत | जो भी हो - बच्चे प्रसाद के लिए झूम ज्जाते थे ओर बच्चों कि धक्का मुक्की , बेताबी से बटुक का पारा चढ़ जाता था |
ऊपर से दीपक क़ी धृष्टता देखो | एक बार, दो बार नहीं, तीन बार उसने प्रसाद लिया | धक्का मुक्की में अक्सर मैं पीछे चले जाता था | ओर जब भी मेरा नंबर आता, या तो मोटा गिरीश या दीपक एक बार फिर हाजिर हो जाता |
जब मेरा नंबर आया तो बटुक बौखला गया |
"कितने बार प्रसाद लोगे बचुआ ?" उसने मेरा गला पकड़ लिया |
मैं हडबडा गया ये सच था क़ी मैं बहुत देर से कोशिश कर रहा था, पर प्रसाद मुझे मिला नहीं था | ऊपर से ये इलज़ाम, वो भी गला पकद्पर ...|
...और माँ एक सिंहनी क़ी तरह गरज उठी |
"पंडित जी, छोडो उसको | " माँ आक्रोश से चिल्लाई | बटुक ने सहम कर मेरा गला छोड़ दिया |
"क्या हुआ , मुझे बताओ |"
"क.. कुछ नहीं माता जी | बच्चे तो शरारत करते हैं ...|
माँ क्या अभी भी मुझसे गुस्सा है ? शायद हाँ | शायद नहीं ...|
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"पोशम्पा भई पोशम्पा |
डाक खिलौने क्या क्या ?
सौ रुपये की घडी चुराई |
अब तो चोर पकड़ा गया |"
ज़रा इन पंक्तियों पर गौर फरमाइए |
तब लोग डाक से भी खिलौने मंगाते थे |
तब घडी काफी महँगी आती थी | उन दिनों के सौ रूपये की कीमत का अंदाजा है आपको ? थोडा तो लग ही गया होगा , जब मैंने कहा - पोस्टकार्ड पांच पैसा ,अंतर्देशीय दस पैसा और लिफाफा पंद्रह पैसे ... नमक - आधा किलो का पेकेट - दस पैसे, माचिस पांच पैसे आदि आदि | उस हिसाब से घडी की कीमत, वह भी टेबल घडी - जो ठण्ड में तेज और गर्मियों में सुस्त हो जाती थी - पेंडुलम के न होने के बावजूद ... जिसका टिर्र्रर्र्र का अलार्म पूरी तरह से चाभी एँठने के बाद भी बमुश्किल आधा मिनट बजता था - उसकी कीमत सौ रूपये थी |
और तब चोरों को घड़ियाँ चुराने में शर्म नहीं आती थी | महँगी चीज़ जो ठहरी | और तो और, उन दिनों चोर पकडे भी जाते थे |
हालाँकि चोरों को पकड़ना तो ये महज लड़कियों क खेल नहीं था , जिसमे दो लड़कियां दोनों हाथ पकड़कर हवा में वह फंदा उठाये कड़ी रहती थी | बाकी लड़कियां ये पंक्तियाँ लयबद्ध दोहराते हुए उस हाथ के फंदे के नीचे से गुजराती थी | जैसे ही ये पंक्तियाँ ख़तम होती, हवलदार लड़कियां फंदा नीचे करती थी और कोई ना कोई लड़की उसमें फँस जाती थी |
पर अभी बात चोरों की नहीं, घडी की हो रही थी | और मैं और कौशल भैया घडी खरीदने सुपेला बाज़ार में व्येंकेटेश्वर टाकीज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे की नीलामी की दुकान के पास खड़े थे |
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हे भगवान्, वहां तो अंजर पंजर सामान ज़मीन पर बिखरा पड़ा था | टेबल लैम्प , स्टोव , फूलदानी , मच्छरदानी, एक नहीं , पांच पांच रेडियो , चाकू का सेट , खिलौने की बन्दूक ,मछली पकड़ने का कांटा , छोटा गलीचा, पानी का जग ....|
"तुझे अलार्म घडी दिखी ? वो रही ....|" कौशल भैया ने कहा |
लाइन से तीन चार अलार्म घडी दिख रही थी | और ये चमत्कार से कम नहीं था कि सभी घड़ियाँ समान समय बता रही थी और चल भी रही थी |
"ज़रा उस अंकल से टाइम पूछना ...|" कौशल ने मुझे चुपके से हिदायत दी |
आप पास के खड़े लोगों में कम के हाथ में ही कलाई घडी थी | कलाई घडी तो और भी महँगी आती थी - शायद चार सौ या पांच सौ रूपये में | कौशल भैया ने वह अंकल इस लिए चुना शायद कि वे थोड़े उदार नज़र आ रहे थे |
"टाइम कितना हुआ अंकल ?" मैंने पास जाकर पूछा |
" चार रुपया एक .. चार रुपया दो ......| " नीलामी वाला तन्मयता और लगन से अपना काम कर रहा था | वो लकड़ी की मोड़ने वाली आराम कुर्सी - आराम कुर्सी ही कहते हैं न उसे, जिसमें पीठ टिकाने और बैठने की जगह पर पटिया की जगह ढीला, मजबूत कपड़ा लगा होता था - हवा में उठाकर एलान किये जा रहा था |
"साढ़े चार रुपया ...|" पीछे से किसी ने आवाज़ दी |
"साढ़े चार रुपया एक , साढ़े चार रुपया दो ... |" नीलामी वाले ने बोली का अनुमोदन किया |
"अंकल टाइम ...| " मैंने दोहराया |
"अरे हाँ | टाइम ? पौने बारह ...|"
"पौने बारह ...| " मैंने कौशल भैया के पास जाकर दोहराया |
कौशल भैया ने अलार्म घड़ियों पर निगाह डाली ,"तब तो ठीक ही हैं ...| तीनों की तीनों ...|"
अब मुझे नीलामी का दस्तूर समझ में आने लगा था | तो नीलामी वाला एक एक सामन उठाता , कोई सस्ता दाम बताता और फिर खड़े लोगो में से कोई एक उसका दाम बढ़ा देता |
नीलामी वाला कई बार " एक" और उससे भी अनेकों बार " दो" दोहराता | लोग दम साढ़े उसके तीन बोलने इंतज़ार करते | जैसे ही वह तीन कहता , बोली लगाने वाला फूल कर कुप्पा हो जाता और लपककर सामान उठा लेता | नीलामी वाले को याद दिलाना पड़ता क़ि उसे पैसे भी देना है |
खिलौने की बन्दूक देखकर मेरा मन ललचा रहा था | बबलू भैया मेले से एक बन्दूक खरीद कर लाये थे , जिसका प्लास्टिक का हत्था निकालकर पीछे लकड़ी का हत्था लगा दिया गया था | ये खिलौने की बन्दूक उससे कहीं ज्यादा बड़ी और अच्छी भी थी | नीलामी पांच पैसे से शुरू हुई | यह तो दौलत की दुकान से भी ज्यादा ललचाने वाली थी | नीलामी वाले ने उसमें दीवाली की टिकली लगाकर कर फोड़ा भी और दुनाली से ढेर सारा धुआं निकलने लगा | और धुआं बंद होते होते वह दुनाली बन्दूक चवन्नी में बिक भी गयी | मेरा दिल बैठ गया |
आखिकार नीलामी वाले ने एक अलार्म घडी उठाई | उसमें बारह बजे का अलार्म लगाया और जोर से चिल्लाया ," बारह बज गए |" देखते ही देखते घडी का अलार्म बजने लगा |
सरदारजी के चेहरे पर मुस्कराहट गयी |
"एक रुपया ...|" पहला आदमी चिल्लाया |
"बस एक रुपया ?" नीलामी वाला बोला,"सरकार का माल है |"
"पांच रुपया ..| " दूसरा आदमी चिल्लाया |
" पाँच रुपया एक ... |"
"सात रुपया ...|"
"दस रुपया...|"
देखते ही देखते घडी का दाम बढ़ने लगा | ऐसे लगा क़ि रमा दीदी क़ी तरह घडी क़ी जरुरत सभी को है |
फिर भी तीस रूपये पार करने के बाद बोली लगाने वालों की गुहार मद्धिम पड़ गयी | अब नीलामी वाले को "पैंतीस रुपया एक, पैतीस रुपया दो, पैंतीस रुपया दो, ..." और ये दो दो कई बार दोहराना पड़ता | कौशल भैया फिर भी चुपचाप ही खड़े थे | एक बोली भी नहीं लगाईं उन्होंने | मैंने उनके पैरों में एक दो बार कोहनी से मारा भी |
"चुप ....|" उन्होंने मुझे संकेत किया |
किसी तरह घिसटते घिसटते कीमत ने पचास पार किया और अन्ठावन रूपये में घडी बिक गयी | अन्ठावन - साथ से भी दो कम ....|
नीलामी वाले ने दूसरी घडी उठाई ,"यह घडी पहली घडी की जुड़वाँ बहन है |"
"पांच रुपया ...." एक ग्राहक चिल्लाया |
"पच्चीस रुपया ....|"
सीधे बीस रूपये की छलांग देखकर बाकी ग्राहक तो एक तरफ, खुद एक बारगी तो नीलामी वाला सकते में आ गया ,"हाँ भाई, खरीदना है ना ? मजाक तो नहीं है ? पच्चीस रूपया एक ... पच्चीस रुपया दो ...|"
इतनी लम्बी छलांग देखकर लोगों को भी सम्हलने में समय लगा |
पहली घडी तो अन्ठावन रूपये में बिकी थी | दूसरी घडी सिर्फ पच्चीस रूपये में ? कौशल भैया चुप क्यों बैठे है ? क्या उन्हें रमा दीदी के लिए घडी नहीं खरीदनी है ?
"सत्ताईस रुपया ....|" अचानक मेरे मुंह से निकल गया -वो भी जोर से ....| इतने जोर से कि सबने स्पष्ट सुन लिया ... | नीलामी वाले ने भी |
इस बार सन्न रहने की बारी कौशल भैया क़ी थी | किसी तरह दांत पीसकर वे बडबडाये ,"गधे ...."
ज़ाहिर था, वे खुश तो नहीं हुए - पर पैसे तो उनके ही पास थे |
"सत्ताइस रुपया एक ... सत्ताइस रुपया दो ... |" कीमत सत्ताइस रूपये पर क्या अटकी , मेरी सांस ही अटक गयी | दिल जोर जोर से धड़क रहा था | और ग्राहकों के विपरीत मैं भगवान् से दुसरी ही प्रार्थना कर रहा था ,"हे भगवान्, मुझे इस मुसीबत से निकाल ...|"
"तीस रुपया ...|" भगवान् ने मेरी सुन ली और मेरी जान में जान आई |
दूसरी घडी ने पचपन रूपये में दम तोड़ दिया | कौशल भैया को क्या हो गया ? एक बोली भी नहीं लगाईं उन्होंने तो ...|
दूसरी घडी की कीमत और भी कम होने के बाद नीलामी वाले ने वस्तु ही बदल दिया | तीसरी नीलामी घडी वहीँ की वहीँ पड़ी थी और नीलामी वाले ने ट्रांसिस्टर रडियो उठा लिया ,"हाँ तो साहेबान |ये पाच बंद का ट्रांजिस्टर है ...| चार बैटरी वाला ...|"
"बैटरी फ़ोकट में ?" एक ग्राहक चिल्लाया |
"हाँ , सरकारी माल है | बिल्ली छाप लाल लाल चार एवरेडी बैटरी फ़ोकट में ....|"
"रेडियो सीलोन लगाओ |" एक ग्राहक चिल्लाया |
ट्रांजिस्टर तो बिक गया | उसके बाद हवा भरने वाला स्टोव भी बिक गया | भीड़ अब छंटने लगी थी | चूँकि दोपहर और गरम हो चली थी, नए ग्राहक भी इक्का दुक्का ही जुड़ रहे थे |
नीलामी वाले की आवाज़ में भी थकावट झलकने लगी थी |
"लगता है , घडी आज नहीं मिलेगी |" कौशल भैया अपने आप से बोले |
मैं उलझन में पड़ गया | घडी तो तभी मिलेगी , जब आप बोली लगायेंगे | बगैर मुंह खोले तो कुछ मिलने से रहा |
अंततः नीलामी में ढील आते देख नीलामी वाले ने फिर एक बार अलार्म घडी उठा ली |
अब ग्राहक भी कम हो गए थे | कीमत को पच्चीस पार करने में ही सदियाँ गुजर गयी और तभी वह हुआ , जिसकी इतनी देर से मैं प्रतीक्षा कर रहा था |
"तीस रुपया |" कौशल भैया ने आवाज़ लगाईं |
"तीस रुपया एक... तीस रुपया दो ....|"
"बत्तीस रूपया ...|" एक और ग्रह चिल्लाया |
"पैतीस रुपया |" नीलामी वाले को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर कौशल भैया ने आवाज़ लगाईं |
"हाँ तो साहेबान, पैतीस रूपया एक .. पैतीस रुपया दो ...|"
"सैतीस रुपया |" वही ग्राहक , जिसने बत्तीस की आवाज़ लगाईं थी , नीलामी वाले के दो तीन बार दोहराने के बाद बोला |
"चालीस रुपया |" कौशल भैया छूटते ही हुंकार उठे |
अब इस घुडदौड में दो ही घोड़े रह गए थे और अड़तालीस रूपये में घडी हमारी झोली में आ गयी थी ....|
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शायद उस दिन मैं काफी कुछ सीख गया होता - अलार्म घडी क़ी सम्बन्ध में | अगर मैं भी वहाँ बैठा होता तो | मैं केवल आवाज़ सुन सकता था | आँखों के सामने तो एक मोटा पर्दा था | यानी मैं परदे के पीछे खड़ा था | दिल आज भी उसी तेज़ी से धड़क रहा था , जैसे उस थीं अचानक धड़का था |
कौशल भैया रमा को समझाए जा रहे थे ,"दो तरह क़ी चाभी है | देखो, इस चाभी के बगल में घंटी क़ी फोटो बनी है | मतलब ये अलार्म क़ी चाभी है | और ये दूसरी चाभी घडी क़ी चाभी है |"
रमा ने पूछा," ये तीर का निशान कैसा है ?"
"जिस दिशा में तीर का निशाना है, उसी दिशा में चाभी घुमाना है ...| और ये टाइम ठीक करने क़ी घुंडी है ...| कई बार गर्मी में घडी धीमे चलने लगेगी औत ठण्ड में तेज़, तो ये जो सबसे नीचे नुक्की है, उसे इधर घुमाओ तो घडी तेज़ चलने लगेगी और उधर ...|"
अचानक परदे के उस पार से माँ पर्दा हटाकर तेज़ी से आई और मुझसे टकरा गयी | मेरे हाथ में कस कर पकड़ी ट्रे छूटकर गिरते - गिरते बची ...|
"तू यहाँ क्या कर रहा है ?" वह बौखला गयी ...| फिर उसकी नज़र मेरे हाथ पर पड़ी जिसमें वो लॉटरी वाली ट्रे, वो बेल बूटे वाली खूबसूरत सी ट्रे थी | माँ समझ गयी सब बात |
"ला, मैं इसकी धूल साफ़ कर दूँ |"
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"और क्या - क्या मिलता है भाई नीलामी में ?" रमा काफी उत्साहित थी |
" काफी कुछ | टेबल लेम्प, अटैची, रेडियो ...|"
"रेडियो भी ?"
"हाँ | ट्रांजिस्टर रेडियो | तीन बैंड वाला चार बैंड वाला ...|"
"...अगली बार ट्रांजिस्टर ले आना भाई ...|"
मेरे दिल पर रखा एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया था |
रमा जब घर से निकली तो उसकी ख़ुशी जरुर दो गुनी हो गयी होगी | वो तीन गुनी होती , अगर मैं झिझकता नहीं ...| माँ गेट पर कड़ी उसे जाते हुए देख रही थी | मैंने माँ क़ी साडी खिंची ," माँ, माँ ...|"
"क्या ?"
"क्यों न हम सिगरेटदानी भी रमा को दे दें ? हमारे घर में कोई सिगरेट नहीं पीता | लेकिन भांटों तो ....|"
"पहले क्यों नहीं याद दिलाया ?" फिर माँ ने वहीँ से हांक लगाईं ,"रमा , रमा हो ...|"
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गाँव से जो मेहमान आते थे , वे सारे के सारे नौकरी क़ी तलाश में नहीं आते थे | कुछ सामाजिक जिम्मेदारियाँ भी होती थी | जैसे कि - शादी |
हाँ, काफी लोग अपने जवान लड़के या लड़कियों की शादी लगाने आया करते थे | ऐसा नहीं था कि बाबूजी को इन मामलों के लिए उनके जैसे फुर्सत हो | ज्यादा से ज्यादा वे राय दे सकते थे और उनकी राय काफी मायने रखती थी, क्योंकि वे काफी पढ़े लिखे थे और महाविद्यालय के प्राचार्य थे | गाँव से निकलकर रायपुर या बिलासपुर आना आसान था, क्योंकि वहां हमारे काफी रिश्तेदार थे | पर भिलाई में आकर भाग्य आजमाना, बसना और अपनी एक छवि बनाना बहुत बड़ी बात थी | उन दिनों छत्तीसगढ़ियों के लिए भिलाई एक तरह से एक अजूबे से कम नहीं था , जहाँ दैत्याकार चिमनियाँ धुआं उगलती थी | नल खोलो तो पानी आता था | सडकों पर बिजली के खम्बों पर बत्तियां लगी थी | मैत्री बाग़ में बड़ा सा चिड़ियाघर था |बड़ी बात तो ये थी कि वहाँ लोग छत्तीसगढ़ी बोल या समझ नहीं पाते थे |
दूसरी बात , बाबूजी राय दें या न दें, दोनों पक्षों के लिए मिलने के लिए, भिलाई और हमारा घर काफी सुगम जान पड़ता था | अक्सर ऐसा होता था कि कोई धोती कुरता पहने छत्तीसगढ़ी बोलता देहाती रह भटक जाता था तो लोग उसके हाथ का तुड़ा मुड़ा पुर्जा पढ़े बिना ही उसे हमारे घर ले आते थे | उसकी बांछें खिल जाती थी, क्योंकि यही तो उनकी मंजिल होती थी |
"माँ , ये कौन हैं ?" मैंने माँ से चुपके से पूछा |
"गंगाराम |"
"गंगा राम ? यानी कि गंगा रा म ?"
"हाँ|"
मैं गुनगुनाने लगा ,"एक खबर आई सुनो एक खबर आई | होने वाली है , गंगा राम की सगाई |"
माँ वैसे ही जब तब अनपेक्षित काम बढ़ जाने से झल्ला जाती थी | अब उसे शरारत सूझी |
"तू और जोर से नहीं गा सकता ?"
"और जोर से ?"मैंने गला फाड़ा ,"एक खबर आई ...|"
"अरे , मैंने गला फाड़ने को नहीं कहा | जा, रंधनीखड़ (किचन ) से बाहर निकल और बैठक में गा ...|"
बैठक में ही वो सज्जन बैठे थे | मैंने परछी से गाना शुरू किया ,"एक खबर आई सुनो एक खबर आई | क्या ?"
फिर तेज क़दमों से बैठक से गुजरा ,"होने वाली है गंगा राम की सगाई |"
मैंने इस बात का ख्याल रखा कि ये लाइन बैठक से बाहर निकलने के पहले पूरी हो जाए और मैं उन सज्जन को ना देखूं |
जब उनकी और से कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी , तो मुझे थोड़ी सी निराशा जरुर हुई | कहीं ऐसा तो नहीं क़ी उन्होंने कुछ सुना ही ना हो | थोड़ी देर बार मैंने धड़कते दिल को थामा और फिर यही गाना गाते हुए , इस बार थोडा धीरे क़दमों से अन्दर घुसा |
इस बार मिसाइल ने लक्ष्य को भेद ही दिया |
"सुनना बेटा जरा ....|"
इसका ही तो मुझे इंतज़ार था | मैं थोडा ठिठक गया |
" तुम तो अच्छा गाते हो | ये गाना कहाँ से सीखा ?"
"रेडियो से |" मैंने जवाब दिया |
"अच्छा ? और भी गाना आता होगा तुमको ?"
"हाँ,, आता तो है ...|"
"तो एक काम करो बेटा | ये गाना मत गाना | कोई और गाना गाओ तो अच्छा रहेगा |"
बड़ों से जुबान लड़ाना बुरी बात है | सो मैंने पूछा तो नहीं कि यह गाना नहीं तो क्यों नहीं ? क्या खराबी है इस गाने में ?
मैंने एक शरीफ बच्चे की तरह सर हिलाया और उनकी बात मान ली |
अब शादी ब्याह का मामला भला एक मुलाकात में तो तय होता नहीं | कई बार अलग अलग लोगों से मिलना पड़ता है |उनका लड़का हुलास दुर्ग के पालीटेक्निक में पढ़ रहा था | लक्ष्मी भैया के अनुसार वो थोडा नादान था |
"सुनो क्या बोल रहा था ? अगर पाकिस्तान से लड़ाई हुई तो ये पुलिस वाले लड़ने जायेंगे ... | हा .. हा.. हा... | पुलिस और सेना में फर्क नहीं मालूम ... | हां ... ह़ा ... हा... |" लक्ष्मी भैया की हँसी रुक नहीं रही थी |
फर्क तो मुझे भी नहीं मालूम था , पर लक्ष्मी भैया का साथ देने मैं भी हँसा , "हा.., हा.. ,हा...|"
एक शाम को मैं सड़क से घूम- घाम के आया और बरामदे में मोंगरे के पास बैठकर झूम झूम के गाने लगा |
"वो परी कहाँ से लाऊं ? तेरी दुल्हन जिसे बनाऊं ...| ... ये गंगाराम क़ी समझ में ना आये ... |"
अन्दर से बाबूजी ने आवाज़ लगाईं , "टुल्लू , बेटा ... |"
मैं अन्दर गया और भौंचक रह गया | बाबूजी के साथ वही सज्जन - माँ के गंगाराम काका - बैठे मुस्कुरा रहे थे |
"इन्हें जानते हो ? नहीं जानते ? चलो पाँव छुओ और बाहर दूर जाकर खेलो ....|"
मन ही मन मुझे हँसी आ रही थी | मन में आया कि उन्हें बोलूं कि वो 'पुराना' गाना नहीं, वादे के मुताबिक दूसरा गाना गा रहा था | और जो गा रहा था , वह महज़ संयोग ही था ....
संयोग , और कुछ भी नहीं - ईमान से ....|
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"चारू चन्द्र की चंचल किरणे , खेल रही थी जल थल में ...|"
अपनी कुटिया में , ज़मीन पर गद्दा बिछाए, मच्छरदानी लगाए, कौशल भैया बैठे थे | भिलाई विद्यालय से आकर, वे सीधा वहीँ चले जाते थे | घर में लोग जब ज्यादा हो जाते, तो शांति की तलाश में मैं वहीँ चले जाता | मैं वहाँ गया, तो उन्होंने मुझे बुला लिया |
पुस्तक के ऊपर लिखा था, "मधु संचय"|
"चारू याने साफ़ ...|" फिर अचानक उनकी नज़र मेरे पाँव पर पड़ी ,"तेरे पाँव साफ़ हैं ?"
"खेल कर आने के बाद मैंने पाँव तो धोये थे |" मैं कुछ समझा नहीं |
"ठीक है, दिखा जरा ...|"
मैंने अपने पांव दिखाए |
"बाहर ही नहीं, घर में भी धूल रहती है |"
"माँ झाड़ू तो लगाती है ...|"
"झाड़ू क्या दिन भर लगाती है ? खिड़की दरवाजे तो दिन भर खुले रहते हैं बिस्तर में घुसने के पहले पाँव झाड़ लेना चाहिए ...|"
मैं अपराधी भाव से पांव मच्छरदानी के बाहर निकालकर झाड़ने लगा |
"पाँव ऐसे साफ़ होना चाहिए, जैसे दर्पण ...|"
मैं काफी देर तक तलुआ झाड़ते रहा ...|
"चेहरा दिख रहा है ?"
"नहीं |" मैं अभी भी पांव झाड़ रहा था |
"चल , ठीक है | अब पांव अन्दर कर ले ...| तो चारू यानी साफ, चन्द्र याने चाँद, चंचल यानी ... मतलब उछल कूद मचाने वाली ...| किरणे यानी ... |" फिर उन्हें लगा , मानो मैं बोर हो रहा हूँ | वो बोले, "बाहर जाकर देख | चन्द्रमा निकला है या नहीं ? "
मैंने कुटिया के बाहर जाकर देखा, बड़ा स, गोल चन्द्रमा आकाश पर मुस्करा रहा था |
" हाँ निकला तो है |" मैंने कहा |
"वैसे ये कविता थोड़ी मुश्किल है ... | चलो , दूसरी कविता पढ़ते हैं ...| " उन्होंने पन्ने उलटे और एक और कविता निकाली ,"मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों | देखो, कृष्ण जी जब छोटे
थे , तो एक दिन वो अपनी माँ यशोदा से जिद करने लगे - माँ मुझे तो चन्द्रमा ही चाहिए ...|"
"पर चन्द्रमा तो ऊपर आकाश में होता है ...|"
"तो यशोदा ने मनाने की कोशिश की , पर कृष्ण जी ने जिद पकड़ ली | तब यशोदा ने एक थाली में पानी भरा तो चन्द्रमा की परछाईं उस पर पड़ने लगी | तब यशोदा मैया बोली,
लल्ला, यह है चन्द्रमा | कृष्ण जी ने हाथ से उसे पकड़ने की कोशिश की | चन्द्रमा की परछाई हिलने लगी | यशोदा बोली, लल्ला, ये चाँद तुझसे डर रहा है ....|"
मैं चुपचाप सब सुन रहा था |
"क्या सोच रहे हो ?"
"ट्रांजिस्टर लेने कब चलेंगे ?" मैंने पूछा |
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व्यास का गुस्सा बड़ा ही खतरनाक था भाई |
अक्सर ऐसा होता कि परछी पर दरी बिछाकर वे लक्ष्मी भैया को पढाते थे | कई बार में दूर से उन्हें देखता था | सच तो ये था कि मैं देखना नहीं चाहता था | पढ़ाते पढ़ाते किसी न किसी बात वे लक्ष्मी भैया भड़कते रहते थे | काफी कष्टप्रद था यह देखना, क्योंकि लक्ष्मी भैया ऐसे थे जिनसे मैं कोई भी बात कभी भी पूछ सकता था | वे जवाब भी सोच समझ कर मुझे अच्छे से समझाकर देते थे | कोई उन्हें डांटे , यह मैं देख नहीं सकता था | पर कर भी क्या सकता था ? बैठक में तो बाबूजी किसी मेहमान के साथ बैठे बातें कर रहे हैं | रात हो गयी है और सब लोग घर चले गए हैं - इस लिए बहार जाकर खेल भी नहीं सकता | पंखाखड में शशि दीदी एटलस से नक्शा ट्रेस कर रही है | रसोई घर में माँ खाना बना रही है | कहाँ जाऊं ? वहां खड़े रहना मज़बूरी थी |
"तुझसे से ये भी नहीं बनता ,ढपोर शंख, गोबर ...|" और गुस्से में व्यास ने लक्ष्मी भैया को तड़ाक से एक झापड़ जड़ दिया |
उसकी गूंज इतनी थी कि बाबूजी बैठक से उठकर चले आये |
"क्या बात है व्यास ? क्यों मार रहे हो ?"
" नहीं मामा जी | कुछ नहीं ...|"
"मैंने झापड़ की आवाज़ सुनी |"
"अरे नहीं मामा | यहाँ मच्छड बैठा था | उसको मारा | क्यों लक्ष्मी ?" उन्होंने लक्ष्मी भैया से पूछा |
सकपकाए चेहरे से लक्ष्मी ने आज्ञाकारी की तरह सर हिलाया |
"ठीक है | मच्छर दानी लगाकर उसके अन्दर बैठो |" जाते - जाते बाबूजी बोले ," पर उसे मारो मत |"
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थोड़े दिनों पहले ही तो मैं कला स्टूडियो आया था | मेरे बाल काफी बड़े बड़े हो गए थे और मुझे सरदारों की तरह जूड़ा बनाना पड़ता था | झालर उतरवाने के पहले रामलाल मामा को पता नहीं क्या सुझा ,"टुल्लू क़ी एक फोटो खिंचवा लेते हैं ...|"
कला स्टूडियो वाले ने मेरे हाथ में प्लास्टिक के फुल पकड़ा दिए और मुझे एक लंबी सी बेंच पर, जिसमें बड़े बड़े फूलों वाली चादर बिछी थी, बैठा दिया | अगल बगल की दो बड़ी बड़ी लाइटें जला दी | इतनी तेज रौशनी थी कि मेरा सर गरम हो गया | एक बड़े से कैमरे में , जिस पर चादर बिछी थी , फोटोग्राफर ने शुतुरमुर्ग क़ी तरह अपना सर घुसा लिया और फिर कहा,"मुन्ना इधर देखो ....| हुर्र ...."
चिड़िया विडिया तो कुछ निकली नहीं, मेरी फोटो जरुर खिंच गयी | जिसे लकड़ी के छोटे फ्रेम में मढ़ा कर बैठक में टांग दिया गया ....|
उन्हें तो कोई "इधर देखो ...हुर्र वगैरह कहने वाला नहीं था | उस दिन मुझे लगा था कि परदे के सामने बैठने के लिए इतनी बड़ी बेंच रखने क़ी क्या जरुरत थी ? जब उनकी फोटो खींच कर आई तो लगा क़ी वो बेंच छोटी पड़ गयी है और एक लड़की को तो खड़ा होना पड़ गया है |
शशि दीदी , शकुन, शशि दीदी की कुछ अन्य सहेलियाँ जिनमें शैल भी शामिल थी , हाँ बातूनी शैल भी उस फोटो में थी |
पता नहीं, उन दिनों शायद दाँत निकाल कर हँसना लड़कियों के लिए बेशर्मी मानी जाती थी | सब केवल मुस्कुरा रहे थे |
उन दिनों फोटो किसी प्रयोजन के लिए खिंचवाई जाती थी | फोटोग्राफी महँगी जो थी | उद्देश्य कुछ भी हो सकते थे | यादें संजोने से लेकर शादी ब्याह लगाने तक ...|
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तो नीलामी में खरीदे ट्रांजिस्टर को लेकर कौशल और मैं रमा के घर गए | कौशल भाई ने नया नया स्कूटर सीखा था | उन्हें पसंद नहीं था कि कोई स्कूटर पर सामने खड़े हो | सो
मुझे पीछे ही बैठना पड़ा |शाम करीब करीब रात में बदल गयी थी | फिर भी रमा के घर में अँधेरा छाया था |
"ये है ट्रांजिस्टर | पांच बैंड वाला |"
"पांच बैंड वाला ?"
"हाँ पाँच बैंड वाला | सेल से भी चलेगा और बिजली से भी | सेल डालना हो तो चार सेल डालो | या तो बिजली से जोड़ दो | चलाकर देखें ?"
"लाईट नहीं है |" रंजना बोली |
"अरे | क्या हुआ ? कब से लाईट गयी है ?"
"सुबह से | 'पूछताछ दफ्तर' में इसके पापा रिपोर्ट करने गए थे तो दफ्तर खुला ही नहीं था | उसके बाद पता नहीं | 'मूड' होगा तो फिर गए होंगे | रमा शिकायत के स्वर में बोली |
"एक मिनट देखूं जरा ?"
कौशल भैया टीन क़ी कुर्सी पर चढ़ गए | 'फ्यूज़ बॉक्स' खोलकर एक फ्यूज़ निकाला |
"अरे, ये तो 'फ्यूज़' उड़ा हुआ है | हीटर वगैरह तो नहीं जलाया था ? एक वायर देना जरा |"
वायर के अन्दर से कौशल भैया ने एक पतला सा तार निकाला और घिस कर एक दम महीन कर दिया |
"जब तक इलेक्ट्रिशियन आता है , ऐसे ही काम चलाओ | अँधेरे में कहाँ बैठे रहोगे ?"
और अगले ही पल कमरे में उजाला हो गया ...|
कौशल भैया ने ट्रांजिस्टर जोड़ा, बैंड बदले | काँटा इधर उधर घुमाया |
सब कुछ काफी अच्छा था | ट्रांजिस्टर ने रमा के घर क़ी काफी लम्बी सेवा क़ी | गाना सुनाया , भांटो को चुनाव के नतीजे सुनाये | जसदेव सिंह क़ी आवाज़ में कमेंट्री सुनाई | १९७२-७३ में इंग्लॅण्ड पर भारत को जीत दिलाई |
फिर एक सुखद सपने क़ी तरह उसका भी स्वाभाविक अंत हुआ | १९७४ में इंग्लैण्ड के खिलाफ भारत क़ी टीम ४२ रन पर लुढ़क गयी | कई भावुक खेल प्रेमियों ने इमारतों से कूदकर जान दे दी | भांटो ने ट्रांजिस्टर ज़मीन पर दे मारा |
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 12 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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