शनिवार, 18 अगस्त 2012

बिलसपुरिहा करिया मोटर में भरा के ..... - ३


अच्छी आदतें सीखने में थोड़ी परेशानी होती है | लोग बुरी आदतें जल्दी सीख लेते हैं |

व्यास के घर जाना काफी आसान था | सेक्टर २  और सेक्टर ६ के बीच "सात वृक्ष" (सेवन ट्रीस)  सड़क थी | अब वह "सात वृक्ष" क्यों , ये तो यही जाने , जिसने यह नाम दिया , क्योंकि वृक्षों की संख्या कहीं ज्यादा ही थी | एस "सात वृक्ष " सड़क सेक्टर दो को सेक्टर छः से अलग करती थी - इस चौराहे से उस चौराहे तक | जब कभी फूफा आते , तो वो तो किसी साइकिल के ख़ाली होने का इन्जार करते , यो तो फिर बाबूजी या कौशल, कोई उन्हें व्यास के घर छोड़ आते | पर फूफू (बुआ)  से कभी इन्जार नहीं होता था |

"ले थोडा आराम कर | फिर चले जाना |" माँ खाना खाने के बाद उन्हें हमेशा कहती | तात्पर्य यही होता कि तब तक बाबूजी आ जायेंगे और उन्हें स्कूटर में छोड़ देंगे | पर फूफू क़ी बेचैनी शांत नहीं होती थी |

"नंदू से मिलना है |" हमेशा उनकी रट होती थी |

नंदू यानी लक्ष्मी भैया | तब माँ कई बार खुद , कई बार किसी और को उनके साथ कर देती | अगर मैं खेलते रहता तो मैं दौड़ कर आता ,"फूफू,व्यास के घर जा रही हो ? मैं भी चलूँ  ?"

तब माँ कहती ,"जा तो बेटा | इनको छोड़ आ | " फिर फूफू से कहती ," इसको रास्ता मालूम है |" रास्ता भला कौनसा कठिन था | सड़क के अंत तक जाजो | सड़क ख़तम भी हो जाये तो भी चलते रहो | बीच का मैदान पर करो | "सात वृक्ष" सड़क आएगी | उसके साथ साथ चलते रहो , सेक्टर पांच की और - जब तक चौराहा ना आ जाये | चौराहा आने के बाद भी उस सड़क पर चलते रहो, अस्पताल पार करो | फिर दाहिने सड़क पर मुड़ो
 , अस्पताल के पीछे जाओ ....|

 .. और मेरे पाँव में पंख लग जाते | मैं दौड़कर आगे निकल जाता और फिर रूककर उनकी प्रतीक्षा करता | जब वो पास आते तो फिर दौड़कर जाता और फिर रूककर उनकी प्रतीक्षा करता |

यहाँ तक सब कुछ ठीक था |

फिर आती सात वृक्ष रोड | चाहें तो उसके बाएं और चलते  रहें चाहे दाहिनी ओर ....| दूर तक वैसे ही चलते जाना था | चप्पल न मेरे पांव में होती और न फूफू के | माँ जरुर चप्पल पहन कर चलती - खटर खटर खटर ...|  बीच बीच में हांक लगाती ,"बेटा, सड़क पर मोटर गाड़ी चल रही है | दौड़ो मत ....|" या जैसे ही कोई ट्रक गुजरता , माँ लपक कर मेरा हाथ पकड़ लेती ओर मैं फिर उनके साथ चलने लगता ....|

यहाँ तक भी सब कुछ ठीक था ....|

सात वृक्ष सड़क के चाहे दाहिनी ओर चलो या बांयी ओर ... सड़क के किनारे दूर तक चले जाओ |
पर कभी तो सड़क पार करना होता | व्यास का घर सड़क के दाहिनी ओर था |

...बस यहीं कुछ गड़बड़ था |

माँ सबको रोकती, पहले दाहिनी और देखती, फिर बांयी और ... | कोई मोटर साईकिल, या कर या स्कूटर आता देखती तो सबको हाथ फैलाकर रोकती |

यहीं सब गड़बड़ था |... | इधर माँ हाथ फैलाकर रोकती और मैं फैले हाथ के नीचे से सरपट भागकर सड़क पार कर लेता ....|

...पता नहीं , कार या मोटर साइकिल के और मेरे बीच कितना फासला रहता ...| मैं तो देखता नहीं था | बस अंधाधुंध दौड़ पड़ता ....| पर जब हांफते हुए माँ और फूफू सड़क पार करते तो उनका कलेजा मुंह में आ चूका होता ...|
"तू ठीक तो है न बेटा ...| हे राम... | मेरा  बेटा  कितने तेज भागता है ....| मैं तो डर ही गयी थी ....| ठीक तो है न ... | राम राम राम ...|"

आने के समय फिर उनकी चेतावनी सुनकर अनसुनी करते हुए मैं दौड़कर सड़क पार कर लेता ....|

.. और घर आने के बाद फूफू यह कारनामा घर में सबको सुना देती ,"मेरी तो जान ही निकल गयी थी ...| कितने तेज भागता है ...| गाड़ियों के आने के पहले ही उस पार ....|"

यहाँ तक सब ठीक था , पर  मुझे क्या पता था कि मेरे कारनामों ने किसी और को भी प्रोत्साहित किया है ....|

तो उस दिन व्यास लोगों को फिल्म 'आराधना'  दिखाने ले जाने वाले थे कोई रोक टोक नहीं थी | शर्त यही थी कि जिन्हें फिल्म देखना हो वो व्यास के घर दो बजे के आसपास एकत्र हों ताकि चित्रमंदिर   सिनेमाघर में तीन से छः का शो देखा जा सके | जिनका  दोपहर का स्कूल था, उनका जाना संभव नहीं था | थोड़े दिन पहले मैं व्यास , माँ और अन्य लोगों के साथ चित्र मंदिर में 'आन मिलो सजना' देखकर आया था | ज्यादा फ़िल्में देखने से बच्चों की आँखें खराब होती हैं - इसलिए मेरा पत्ता कट गया |
फूफू , शकुन और संजीवनी उसी 'सेवन ट्रीज़ ' के किनारे किनारे चलते हुए व्यास के घर जा रहे थे | एक जगह रुक कर लोग हाथ पकडे, सड़क पार करने केलिए इधर उधर देख रहे थे  कि अचानक हाथ छुड़ाकर संजीवनी अंधाधुंध सड़क पार करने भाग खड़ी हुई  | तेज़ रफ़्तार से आती मोटर साईकिल के चालक ने होर्न बजाय तो वह और घबरा गयी | ब्रेक मारते मारते और मोटर साईकिल का हेंडल मोड़ते मोड़ते भी आखिर ठोकर लग ही गयी |

डामर की पक्की सड़क पर संजीवनी गिर पड़ी |

"फूफू " संजीवनी रोये जा रही थी | सर से खून निकल रहा था |

मोटर साईकिल वाले ने तुरंत मोटर साईकिल रोकी और संजीवनी को गोद  में उठा लिया ," नहीं बच्ची, सड़क पर ऐसे  नहीं दौड़ते |" आनन् फानन में उसने जेब से रुमाल निकाला और संजीवनी के सर पर बांध दिया |

"मैं इसको सेक्टर पांच के अस्पताल ले जा रहा हूँ , माई |" वह फूफू से बोला , "आप चलेंगे तो अच्छा रहेगा | नहीं तो मैं वहीँ इन्जार करूँगा |"

************

"आपको देखकर मोटर साइकिल चलाना चाहिए | ऐसा थोड़े कि गद्दी पर बैठे और 'भों' अंधाधुंध एकसीलेटर  घुमा दिया | आंये - बाएं  घोड़े दौड़ाये जा रहे हैं ...|" व्यास मोटर साईकिल वाले पर बरसते रहे  और मोटर साईकिल वाला सर झुकाए उसके शांत होने का इंतज़ार करते रहा | ज्यादा गहरी चोट नहीं लगी थी | डाक्टर ने सर पर पट्टी बाँध दी थी | जब व्यास के शब्दों क़ी बौछार शांत हुई तो मोटर साइकिल वाले ने कहा ,"ठीक है भाई | मुझसे गलती हो गई | पर बच्ची को भी ऐसे नहीं दौड़ना चाहिए ...| आप  उसे सिखा दो |"
"क्या सिखा दूँ ? क्या गलती है इसकी ? आपको देखकर मोटर साइकिल चलाना चाहिए | बच्ची को क्या मालूम है, सड़क पर क्या आ रहा है क्या नहीं ?"

लोग चलते चलते बाहर आने लगे | मोटर साइकिल वाला पान क़ी दुकान के पास रुका |
"हाँ, आप ठीक कह रहे हैं | पान खायेंगे   आप ?"
पान खाते खाते उसने एक कागज़ पर अपना पता लिख कर   दिया ,"ये मेरा पता है ..| कोई ऐसी वैसी बात हो तो खबर कर दीजिये |" फिर फूफू क़ी और इशारा करके पूछा ,"ये आपकी ...|"
"माता जी ...|" व्यास ने कहा |
"माता जी प्रणाम |" वह बोला , "और ये बच्ची आपकी ..."
"बहन ..." व्यास ने जवाब दिया |

",ममेरी बहन ? है न ? " व्यास को उलझन में पड़े देखकर वह बोला, "दरअसल जब ये गिरी तो इसने आवाज़ दी 'फूफू ' ....|"

*************

घर में अफरा तफरी मची थी | कोई तैयार हो रहा था, कोई तैयार होने में मदद कर रहा था | कोई इसलिए मुंह फुलाए बैठा था कि उसे जाने के लिए मौका नहीं मिल रहा था | कारण  यह था कि परीक्षा सर पर थी | न तो मुझे परीक्षा देनी थी, न संजीवनी को | शायद हम जा सकते थे |

"माँ , मैं जा रहा हूँ ?" मैंने पूछा |

"हाँ |" अलमारी से  अपना भारी भरकम करधन निकालते माँ बोली |
"और संजीवनी ?"
"क्या भीड़ बटोरकर ले जा रहे हो मामी ?" व्यास झुझलाते हुए बोले ,"और जाने का फायदा ही क्या है ?"

व्यास सर  पर भुनभुनाते हुए खड़े थे | फूफू अलग तैयार हो रही थी |

मैं बैठक में गया, जहाँ एक कोने पर शकुन चुपचाप बैठी हुई थी |
"तुम भी चल रही हो नंदिनी ?" मैंने धीमे आवाज़ में पूछा |
"नहीं |" वैसे पूछना बेमानी था - वर्ना शकुन भी तैयार होने वालों क़ी कतार में शामिल होती |
"क्यों ? परीक्षा है क्या ?" मैंने माँ  को बेबी को मना करते समय परीक्षा क़ी गुहार लगाते सुना था |
शकुन कुछ नहीं बोली |

*********

पावर हाउस से नंदिनी तक जाने वाली   बस में जबरदस्त भीड़ थी | हम  लोग खड़े रहे | व्यास का सर करीब करीब बस की छत  को छू रहा था  | बस डगमगाते  हुए बढ़ी  और थोड़ी ही दूर  पर एक जोर  क़ी छींक  मारी | मैं माँ क़ी साडी पकडे हुए खड़ा था | पर कब तक ?  पाँव  जवाब  देने  लगे  और मैं जमीन  पर बैठ  गया |

एक सज्जन  ने तरस खाकर सीट छोड़ी  और अपनी धर्म पत्नी के बगल में माँ को बैठने का इशारा किया | अगर माँ बैठती तो मुझे  फायदा ये होता कि  मैं माँ क़ी गोद में बैठ जाता | पर माँ ने फूफू क़ी ओर देखा | फूफू भी न नुकर  करते रही | सज्जन बेचारे असमंजस  खड़े के खड़े रहे |

खैर  , थोड़ी ही दूर चलने  के बाद एक तीन  लोगों  क़ी लम्बी सीट खाली हुई | शशि दीदी खिड़की के पास वाली  सीट पर बैठी , फिर माँ और फिर फूफू | मैं माँ क़ी गोद में बैठकर इधर उधर देखने लगा | कंडक्टर पास आया |

"कितने लोग हैं ?" कंडक्टर ने पूछा |
"चार |" व्यास ने बटुए से पाँच का नोट निकालते हुए कहा |
"चार या साढ़े चार ? ये बच्चा कितने साल का है ? "
"पाँच ....| " बस में लिखा था, पाँच से बड़े बच्चे का आधा टिकट  लगेगा |
"पांच ? ये तो बड़ा लगता है ...|"
" तो गोद में भी तो बैठा है ...|" व्यास ने अपना सारा गुस्सा कंडक्टर के सर पर उड़ेल दिया |

पता नहीं  कब तक मैं सोते रहा | बस तो चलते ही रही - शाम रात में बदल गयी |
माँ ने मुझे झकझोरा |
"ट्रिंग " शशि दीदी ने रस्सी खींचकर घंटी बजाई |
थोड़ी देर चलने के बाद  बस रुक गयी |

जहाँ बस रुकी , घुप्प अंधकार छाया था | फूफू, जो बस में भी व्यास को समझाते आई थी, अभी भी रुक रुक कर उन्हें कुछ न कुछ हिदायत देते जा रही थी |

गाँव था या क़स्बा या शहर - कुछ भी पता नहीं | सड़क थी या नहीं, पता नहीं - बस, हम लोग सम्हल-सम्हल
 कर चल रहे थे |
"ये ही घर होना चाहिए |" व्यास ने कहा |
वही घर था - एक अधेड़ उम्र के सज्जन हमारे  स्वागत के लिए घर के बाहर तैयार खड़े थे | माथे पर तिलक, होठों पर व्यापारिक  मुस्कान ... |

***************

नंदिनी की जामुल यात्रा के बाद सबने शकुन की शादी के लिए हामी भर दी | सबने -केवल व्यास को छोड़कर |
"मामा , वो मेरी सगी बहन है ...|" व्यास ने मानो ब्रह्मास्त्र चलाया | बाबूजी के भरसक समझाने पर भी व्यास टस से मस नहीं हो रहे थे |
"तो हम लोग दुश्मन थोड़ी हैं  भाई | समझो बातों को |"  बाबूजी ने फिर समझाया
  फूफा और फूफू ने मनाया | रमा ने समझाया |
"ठीक है, अगर आप लोग ने निर्णय ले ही लिया है , तो .....|" व्यास के दिल में आग सुलगते ही रही |

***********

'टूटी फ्रूटी' - एक  स्वादिष्ट  चॉकलेट   थी |  चॉकलेट  के ऊपर में पीले रंग की पन्नी लगी होती थी - प्लास्टिक की नहीं कागज़ की | पन्नी बड़ी ही सावधानी से खोलना पड़ता था | नहीं , नहीं -  चॉकलेट  खाकर पन्नी तो वैसे भी हम लोग सहेज कार ही रखत थे - फेंकते नहीं थे | पर 'टूटी फ्रूटी' की पन्नी अलग होती थी | उसके पीछे एक अंक लिखा होता था और डायनोसौर   की फोटो बनी होती थी |  चॉकलेट  थोड़ी महँगी थी - दस पैसे की एक | फोटो एक अल्बम में लगाना पड़ता था | कौशल भैया एक एक करके फोटो जोड़ते जा रहे थे | कुल नव्वे फोटो चिपकाने थे | अब उनके इस प्रोजेक्ट में बबलू भैया भी जुड़ गए थे | दोनों अक्सर मिल क़र अल्बम देखते रहते - कितनी तस्वीर और बाकी रह गयी है ...| कई बार एक नंबर कई कई बार निकल जाता - कई बार लड़के एक विशेष  नंबर के लिए तरस जाते |

"अडतीस नंबर बहुत मुश्किल से निकलता है |" बबलू भैया बोले | उनके अल्बम में अडतीस नंबर की जगह अभी भी खाली थी |
"तुझे किसने कहा ?" कौशल ने पूछा |
"शंकर कह रहा था |"
"वो ? सड़ा दाँत ? उसके पास अडतीस नंबर भर - भर के होगा | इसलिए सबको उल्लू बना रहा है , ताकि लोग हडबडा कर उससे अडतीस नंबर बदली क़र लें |"

कौशल भैया ने मेज की दराज खोली और "डुप्लीकेट" की गड्डी निकाली जिसे वे प्लास्टिक के रबर बेन्ड में करीने से लगाकर रखे हुए थे |

"इतने सारे डुप्लीकेट ...? देख जरा तिरसठ नंबर कितना सारा है - एक, दो तीन , चार ... |तीन सैंतीस नंबर, बीस - दो... अठारह - दो ..  आठ, सतहत्तर , उन्सठ - सब डुप्लीकेट ... | क्यों न एक अल्बम और शुरू क़र दें ? " कौशल भैया बोले |
"लकी नंबर निकलना तो चाहिए |" 'लकी नंबर ' को सेक्टर छह  की  एक दूकान में अल्बम में बदला जा सकता था |

"इससे अच्छा तो चिकलेट च्विंगम के झंडे जमा करना है |" बबलू भैया बोले ," केवल पैंतालिस देशों के झंडे...|"
"तुझे करना हो तो कर | मुझे नहीं करना ...| कौन खाए च्विंगम  ? पहले मीठा मीठा लगता है, फिर चबाते रहो रबड़ को | सब बकवास है |"

एक-एक करके वे तस्वीरें इकठ्ठा क़र रहे थे | फिर किसी छुट्टी के दिन बैठकर आटे क़ी लेई बनाते और फोटो के चरों कोने पर सावधानी से लेई लगाकर चिपका देते |

मैं गोंद लाऊं ?" एक दिन मैंने   बुद्धिमानी दिखाई |
"गधे | कितनी गोंद खर्चा करेगा | पता है, गोंद क़ी बोतल कितने क़ी आती है ?"
"फोटो के केवल कोने में गोंद क्यों लगाते हो ? " मैंने पूछा |
"ताकि निकालने में आसानी रहे |"
"मतलब, अगर गलत नंबर पर गलत फोटो लगा दी तो ?" मुझे तो वही सूझा |
"और भी कई  कारण  है | कई बार साफ़ फोटो मिल जाती है, वो चिपका दो |" डुप्लीकेट की अदला बदली में - जो कि किसी से भी हो सकती थी, दोस्त, दोस्त के दोस्त , दोस्त के दोस्त के दोस्त या किसी अजनबी से भी - अक्सर गन्दी , तुड़ी मुड़ी फोटो मिलती थी |

"पूरी फोटो में गोंद लगाओ तो पृष्ठ  मुड़  जाता है | " बबलू ने समझाया |

"ऐसे जानवर - कहाँ रहते हैं ?"

"ये डायनोसौर थे | सब चले गए , इस संसार से | इस धरती पर मेहमान बनकर आये थे | थे तो लम्बे चौड़े, पर मेहमान चाहे कितना बड़ा क्यों ना हो, एक दिन उसे जाना ही पड़ता है |"


घर में मेहमानों कि संख्या में अचानक बढ़ोत्तरी हो गयी थी - काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी ... | अक्सर कई लोग बाहर सोते थे | माँ ने अलमारी,  अटैची   से ऐसी -ऐसी चादरें और दरियाँ निकाली, जो  मैंने  कभी देखी न थी | हो सकता है - मेरे जन्म  से  पहले की हों | उन प्रगैतेहसिक काल के बिछौनों के बावजूद बिछौने कम ही पड़ जाते थे |
उन मेहमानों से कौशल , बबलू या मुझे कोई परेशानी नहीं थी | जाते- जाते वे मुझे दस पैसे ,  बबलू   को चवन्नी और कौशल को अठन्नी या रुपया पकड़ा कर जाते | कई बार ये रकम - कम से कम - मेरे लिए थोड़ी ज्यादा हो जाती |
"क्यों न हम एक और अल्बम शुरू कर दें |" कौशल भैया हरदम सलाह देते |
'लकी नंबर ' पाने का एक अच्छा तरीका ये था कि 'टूटी-फ्रूटी' का एक बक्सा ही खरीद लिया जाये | बक्से में पच्चीस 'टूटी फ्रूटी ' होते थे और वो दो रूपये का आता था | बक्से में ढेर सारे डुप्लीकेट तो होते थे, पर एक और कई बार दो दो लकी नंबर निकल आते थे |
बबलू भैया अपने  सिक्के डॉक्टर धोते के दिए अल्युमिनियम के डिब्बे में डाल देते | मैं अपने पोरहे की झिर्री से उसे अन्दर घुसा देता | मेहमानों के जाने के बाद वे हर बार सिक्के गिनते |
"बस पच्चीस पैसे और ....|" एक दिन कौशल भैया ने कहा ,"फिर एक बक्सा खरीद कर लायेंगे ...|"
"एक चवन्नी ... |" अब मुझसे रहा नहीं गया | मैंने अपने पोरहे की झिर्री से झाँका | उसे उल्टा किया | ढेरों सिक्के नज़र आये | कई बार उल्टा - पलटा | छन..  छन  ..  सिक्के बजते रहे | काश, मेहमानों के जाने के बाद मैं तुरंत सिक्के पोरहे में न डाले होते ....|
क्या जैसे सिक्के अन्दर घुसे, वैसे बाहर नहीं निकल सकते ?
मुझे एक तरकीब सूझी | मैंने माँ के स्वेटर बुनने की सलाइयाँ ली और पोरहे को उल्टा करके सिक्के जिर्री में सिलाई डालकर सिक्के निकालने की कोशिश करने लगा | काफी मशक्कत के बाद एक चाचा नेहरु छाप बीस पैसे का सिक्का निकल ही गया | चलो, कम से कम इतना सही, मैं पैसे लेकर कौशल भैया की कुटिया में गया |

"ये सिक्का ?" वो कुछ समझे नहीं |
"टूटी फ्रूटी का बक्सा खरीदने के लिए ....|" मैंने थूक निगलते हुए कहा |
"तुझे टूटी फ्रूटी अच्छी लगाती है ? ज्यादा चॉकलेट मत खाया कर | दांत  सड़  जायेंगे |"
"नहीं, मैंने सोचा, लक्की नंबर निक्ल ....|"
"तुझे लक्की नंबर की पड़ी है ?" कौशल भैया बोले ,"कहाँ से लाया पैसे ?"
"पोरहे से |"
कौशल भैया हतप्रभ ... ," जा वापिस पोरहे में डाल दे | अरे जा न भोकवा ... | तू तो डांट खिलवाएगा बाबूजी से ...| "


****************************


देर रात मेरी नींद खुली | गला सूख गया था | सावधानी से चलते हुए मैं उठा | परछी में अँधेरे में टटोल टटोल कर गया - लोग दरी में सोये होते हैं - किसी  को ठोकर न लगे |

टटोलकर स्टोर रूम के दरवाजे के पास पहुंचा और पंजे के बल खड़े होकर सावधानी से परछी की लाइट जलाई |
परछी तो सूनी थी - कोई भी नहीं था |
लक्ष्मी भैया तो अब व्यास के साथ सेक्टर ५ के घर में रहने लगे थे | और शकुन ?

"महलों का राजा मिला, रानी बेटी राज करेगी |
ख़ुशी - ख़ुशी कर दो बिदा , तुम्हारी बेटी राज करेगी |"

शकुन की शादी हो गयी थी | | रानी बेटी का महल कितना भव्य था , वह  हमने उस दिन की अपनी नंदिनी बस यात्रा पर देखा ही था |  | राजा - याने रामानुज - जामुल की सीमेंट फैक्टरी में निहायत सामान्य कामगार थे | चेहरे पर चेचक के दाग, काली  मूछें - गठा हुआ शरीर ....| व्यास को तो वो फूटी आँखों ना सुहाए | तिस पर शादी के समय  और फिर बाद में विदाई के वक्त - दूल्हे के तेवर - जो अक्सर भारत में देखने को मिल जाते हैं | ना भी हो - तो भी पूर्वाभास जो मन में समाया रहता है , उससे सामान्य सी हरकतें भी नखरा लगने  लगती हैं | ऊपर से आग  में घी का का कर रही थी , ससुर जी का व्यवहार ....|  पर अब वही शकुन का घर था  - सास , ससुर, देवर , ननद -   यही तो शकुन का संसार था | वही उसकी अब ज़िन्दगी थी |

दूर सुपेला में ग्रामोफोन में टूटती आवाज़ में गाना अब भी बज रहा था -

बेटी तो है, धन ही पराया , पास अपने कोई कब   रख पाया |
भारी करना न अपना जिया , तुम्हारी बेटी राज करेगी |

*********

मुन्ना, क्या टेम्पो चार पैसे का आता है ?" मैंने मुन्ना से पूछा |

"भग बे ... | चार पैसे में तो उसकी फोटो भी नहीं मिलेगी |" मुन्ना ठहाका लगा कर हँसा |

शकुन और व्यास की शादी आगे पीछे ही हुई - उन  में थोडा बहुत ही अंतराल रहा होगा, ज्यादा नहीं |

मुझे तो  व्यास की शादी में जाने का मौका नहीं मिला  , लेकिन  जो लोग गए, वो अपने साथ ढेर सारी कहानियां लेकर आये | जैसे, औरतों की  उलाहना भरी 'गारी' या 'गाना' ,"चार पइसा के टेम्पो लाने , जर गे तोरे नाक हो ..." या "लडुआ पप्ची ' इतने कड़े कि उन्हें खाने के लिए लोगों को हथौड़ी से फोड़ना पड़ा | कहानियाँ सुन कर हँसते हँसते हम लोगों के तो पेट में बल पड़ गया |

किन्तु जो नहीं हँसे , वो शख्स और कोई नहीं खुद व्यास थे |

 व्यास बहुत ज्यादा गंभीर हो गए | वैसे भी व्यास के गुस्से से हम सब को काफी डर लगता था | शादी को लेकर व्यास थोड़े ज्यादा तनाव ग्रस्त हो गए थे | और पता नहीं क्यों, लोगों को ये लगा कि वो शादी से नाखुश हैं |

जब वो गुस्से में होते थे तो या तो माँ बात कर सकती थी, या बाबूजी | दोनों के बात करने का अंदाज़ अलग था | माँ का अंदाज़ थोडा छेड़छाड़ वाला था | वो छेड़छाड़ का अंदाज़ आग में घी डालने का  नहीं, बल्कि ठंडी फुहार का काम करता था |

" तो कब ला रहे हो अपनी दुल्हन को ?" माँ ने उन्हें छेड़ते हुए कहा |
" मत याद दिला मामी | एकदम बेंदरी ( बंदरिया ) है वो |" व्यास खीजकर बोले |

व्यास को गुस्से में देखकर मैं खिसक जाने में ही अपनी भलाई समझता था | खिसक के कहीं दूर भाग जाओ | पर 'बेंदरी' सुनकर मेरे कदम थम गए | मुझे मदारी और बंदरों का नाच याद आया |

"वाह भाई वाह | " माँ बोली ,"सुन्दर तो है | और परियाँ तो आसमान में रहती हैं | नाक नक्श तो अच्छे हैं | क्या खराबी है भला ?"
" मामी | मैं चेहरे मुहरे की बात नहीं कर रहा | बेहद जिद्दी है | पता नहीं, कितने बड़े घर के बेटी है | बस, मुझे अपने साथ लेकर चलो | साथ लेकर चलो .. साथ लेकर चलो ..|"
"तो ठीक ही तो है | 'पठौनी' करवा के यहाँ ले आओ | यहाँ आकर खाना बनाएगी | कपडे धो देगी | "
"मामी, तुमको समझाना ही मुश्किल है | मुझे थोडा बड़ा घर तो मिलने दो | उस छोटे घर में लक्ष्मी कहाँ रहेगा और हम लोग कहाँ रहेंगे ?"
"इतनी सी बात ? लक्ष्मी को यहीं छोड़ दो |"
" इतने दिन से तो यहीं, इसी घर में था मामी | नहीं, अब मेरे साथ रहेगा | मेरा भाई है - सगा भाई |"

माँ निरुत्तर हो गयी | फिर बोली ," हाँ बेटा | तुम लोग पढ़ लिख गए |  अब कमाने वाले हो गए हो | मुझे ज्यादा तो समझ में आता नहीं | बस इतना जानती हूँ कि शादी के बाद लड़की के लिए घर बदल जाता है | उसे ले आओ , जल्दी ...|"
"अरे मामी, मैं घर खोज ही रहा हूँ |तब तक सब्र करना चाहिए या नहीं ? घर मिलने तो दो |   फिर जब वो आएगी तो आप सब को खाने पर बुलाऊंगा ...|"

********************

परछी दिन में कई रूप बदलती थी | खाने के समय वह एक भोजन गृह बन जाता था - जहाँ जगह जगह लोग पीढ़े में बैठकर बातें करते हुए या रेडियो सुनते हुए खाना खाते थे | रात को किसी न किसी आगंतुक के लिए खाट लग जाती थी | दिन में माँ कभी मसाला कूटती थी तो कभी चावल चुनती थी | लेकिन जब सब कुछ खाली हो जाता था , मैं और संजीवनी माँ से चिरौरी करते थे और माँ ऊपर से लोहे की छड़ों से बने हुक निकालकर  लकड़ी का झूला लगा देती | खासकर, जब कोई मेहमान सपरिवार आता , यानी जिसमें छोटे बच्चे भी होते
तो हमारी दरख्वास्त का वज़न बढ़ जाता था ," माँ, मनोज को झुलना झूला दें ? " झूला काफी बड़ा था, जिसमें कम से कम चार छोटे बच्चे आसानी से बैठ सकते थे |
पर मैंने कहा "छोटे बच्चे " - मैं भला छोटा बच्चा थोड़ी था | जैसे - जैसे बड़ा होते जा रहा था , मेरी शैतानियाँ बढ़ते जा रही थीं | झूले की लकड़ी की चहर दीवारी के अन्दर  शराफत से बैठना मुझे पसंद नहीं था | मैं  झूले में खड़े होकर, इधर उधर लटक कर झुलाने का काम किया करता था | कभी चहर दीवारी के पटर में खड़ा हो जाता था, कभी लोहे की छड पर ही लटक जाता था | कभी सीधे दोलन करते झूले को इधर उधर डगमगा देता था, तो कभी चक्कर खिला देता था |
उस दिन मैं जोश में आकर पटरे  पर चढ़कर लोहे की छड पकड़कर झूला जोर से झूला रहा था | अचानक लोहे की छड के हुक झूले से खुल गया और मैं औंधे मुंह गिरा | लेकिन लोहे की छड  मैं  कस  कर  पकडे था | डगमगाता हुआ लकड़ी का झूला मेरे माथे से टकराया और जोर से कडकडाते हुए एक और झुक गया |
माँ रंधनी खड़ से भन्नाते हुए आई |
"हाँ, हाँ टुरा , अउ सत्ती जा ( हाँ छोकरे, और बदमाशी कर) | " माँ गुस्से  से चिल्लाई | शायद एक झापड़ भी जड़ देती, पर रुक गयी |
"माँ, इसके सर से खून निकल रहा है |" संजीवनी बोली |
माँ साडी से खून रोकने की कोशिश कररही थी , पर खून की  धारा  बहते ही जा रही थी .. |

"मामी, मैं घुठिया जा रहा हूँ | कुछ कहना है ?"कोई  दरवाजे पर खड़ा था ... व्यास ... | अचानक - इस समय ...?
मगर जब उन्होंने  माँ   को मेरे माथे का खून रोकते देखा तो वह यात्रा तत्काल रद्द हो गयी |
इसे तो अस्पताल ले जाना पड़ेगा ...| जल्दी ...|

********

झूलना के झूल , कदम के फूल ,
नवा कोठी उठत हे , जुन्ना कोठी फूटत हे ...|

....तड, तड तड ... धडाम ....|
मेरे कान में अभी भी वह कर्कश स्वर गूंज रहा था | मैं एक बेंच पर लेता हुआ था और कमरे में तेज रौशनी हो रही थी |
"तुम उठ गए ? क्यों उठ गए ? चुपचाप लेते रहो ...| " मोटे चश्मे वालेडॉक्टर   ने हिदायत दी |
मैं चुपचाप आँखें बंद किये लेटे रहा |

मुझे डॉक्टर के क़दमों की आवाज़ बाहर जाते सुनाई दी |
" हड्डी तो नहीं टूटी | पर टांका लगाना पड़ेगा |"
"ठीक है | " ये शायद व्यास की आवाज़ थी | शायद नहीं, उनकी ही आवाज़ थी | वही तो मुझे लेकर आये थे | हाँ, याद आया |

"टांका - याने टंकी, जिसमें हम लोग पानी भरते है ? " मैंने सोचा |
अरे, मैंने चोरी चोरी , जरा सी आँखें खोली | उसके हाथ में तो सुई और धागा है | अच्छा ठीक है - कपड़ा सिलने वाली सुई नहीं है तो बोरा सिलने वाला सूजा है | अच्छा ठीक है - बोरा सिलने वाला सूजा नहीं तो जूता सिलाई वाली सुई है - पक्का | कुछ तो है ...|

उसने धातु की चिमटी से चोट कुरेदी और तेज़ दर्द की टीस उठी |
"चिल्लाओ मत | स्कूल जाते हो ? नहीं जाते ? कमाल है | इतने बड़े बच्चे हो ...|"
दर्द के मारे मेरी आवाज़ भी नहीं निकल रही थी |
"अच्छा, दो और दो कितने होते हैं ....|" उसने सुई त्वचा में घुसा दी ....|
"अआह .... चार ....|"
"शाबास | और चार और दो .....?"

*******

कायदे से तो पहले पर्ची कटवाना चाहिए था , तभी हम डॉक्टर से मिलने जा सकते थे | लेकिन मेरे सर से इतनी तेज़ी से खून निकल रहा था की नर्स मेरी बांह पकड़ कर सीधे डॉक्टर के पास ले गयी थी | पर अब पर्ची तो कटवानी थी |

पर्ची काटने वाला शकल से ही घाघ लग रहा था |
"तुम बी. एस. पी में काम करते हो ?' उसने बिना किसी लाग लपेट के,  व्यास से सीधे मतलब की बात पूछी |
"हाँ| " व्यास ने जवाब दिया |
"ये कौन है ?" उसने कियां नज़रों से मुझे घूरा |
"ये मेरा भाई  है |" व्यास ने कहा |
"तुम्हारा अपना भाई है ?"

गनीमत तो ये थी कि लाइन में तीन या चार लोग ही पीछे खड़े थे | वर्ना 'हो, हो' का शोर मच गया होता |

"हाँ |" व्यास ने कहा |
"मेडिकल कार्ड दिखाओ|"
"मेडिकल कार्ड अभी तो है नहीं | घर में है |"
"बिना मेडिकल कार्ड के पर्ची कैसे काटूँ बाबू साहेब ?  तुम्हारा भाई है | चोट घर में लगी थी | कार्ड घर में है | कार्ड लेकर आना चाहिए |" तीन चार वाक्य वह लगातार बोल गया
|उसने फिर पूछा , "तुम्हाहरा भाई है न ? अपना भाई ?' इस बार उसने 'अपना' शब्द पर जोर दिया |
"हाँ , मेरा भाई है |" व्यास को अब तक तो गुस्सा आ जाना चाहिए था , पर वे शांत ही रहे |
"मतलब कि, कार्ड पर इसका नाम है न ?"
व्यास ने कोई जवाब नहीं दिया |
"कार्ड पर इसका नाम है ना ? तुम्हारा सगा भाई है तो नाम तो होना चाहिए | जरुर होना चाहिए |"
"नहीं, मेरा सगा भाई नहीं, मामा का लड़का है |"

"वही तो हम इतनी देर से पूछ रहे थे बाबू साहेब |" ज़रा उसकी चौड़ी मुस्कान तो देखो | मानो, उसने हवलदार ने किसी चोर को पकड़ा हो ." हम पूछ रहे थे न | अपना भाई - अपना याने सगा भाई ...| इतनी हिंदी आती ना है आपको ? तो क्या आपके मामा बी. एस. पी. में हैं ?"
बी .एस  पी . याने  भिलाई  स्टील  प्लांट - जिसकी चिमनियाँ  अहर्निश धुआं उगलते रहती हैं  |  अस्पताल, विद्यालय, घर ,सड़कें - सब बी एस पी की ही तो हैं | व्यास तो बी. एस. पी में थे मगर बाबूजी नहीं ... |

*******

वह संदूक अपेक्षकृत कुछ भारी था | इतना भारी कि सेक्टर   ५ के चौक तक पहुंचते - पहुँचते आधी दूरी श्यामलाल ने साइकिल चलाई और व्यास पीछे संदूक पकड़कर बैठे | फिर व्यास ने   साइकिल   चलाई और श्यामलाल पीछे संदूक पकड़कर बैठे | उस टीन के संदूक में व्यास का अंजार पंज़र सामान , जो उन दिनों से सेक्टर २ के घर में पड़ा  था , जब से वे वहां रहते थे - पुस्तकें, कपडे , कम्बल और न जाने क्या-क्या ..... | अब शायद उन्हें गलती का अहसास हो गया होगा कि मुझ लटकन को उन्होंने क्यों साथ ले लिया होगा | मैं किसी काम का तो था नहीं, बस साइकिल के आगे के डंडे पर बैठा हुआ था | मैं बस, लक्ष्मी भैया से एकाध कहानी सुनने के लोभ से चले आया था | कई दिनों से वे सेक्टर २ के घर में आये नहीं थे |

सेक्टर   ५ के चौक के पास पहुँच कर दोनों का दम फूल गया | दोनों  साइकिल  से उतर गए | अब घर वैसे भी पास में ही था |संदूक को केरियर पर रखा और तीनों पैदल चलने लगे |
अब अँधेरा हो चुका था | दूर दूर लगी सड़कों क़ी बत्तियां जल रही थी | सेंट्रल एवेन्यू के ट्यूब लेत पर बड़े बड़े पतंगे खेल रहे थे |
साइकिल एक और हम तीन ... ! लेकिन तीनों पैदल चल रहे थे और संदूक साइकिल के  केरियर पर रखा था |   व्यास और श्यामलाल हाल के दिनों की घटनाओं की चर्चा कर रहे थे और मैं बोर हो रहा था , क्योंकि न तो मुझे कोई सरोकार था और न ही मेरे पल्ले कुछ पड़ रहा था | अचानक श्यामलाल ने पूछा  ," और शकुन ? ठीक लग रहा है नया घर ?"

श्यामलाल ने जान बूझकर या अनजाने में , मानो व्यास की दुखती रग पर हाथ रख दिया  | शादी के बाद से, बल्कि शादी के पहले से,  कोई न कोई बात को लेकर अनबन बनी ही थी | अगर व्यास गुस्से वाला था तो वे
  तो लड़के वाले थे | उनकी अकड़ स्वाभाविक थी |

"रामानुज ? अरे, क्या कहूँ ? एकदम बेंदरा (बन्दर)  है ....|"
रामानुज थोड़े दिन पहले साइकिल के करियर पर ढेर साड़ी मूली भाजी  लेकर आये थे - माँ को देने | तब मैंने पहली बार देखा था | चहरे पर हलके चेचक के दाग, गांठ हुआ शरीर ,चेहरे पर मुस्कान ...| उसके जाने के बाद माँ ने बताया था कि वो शकुन के 'घरवाले' हैं |

'बन्दर' तो वो किसी दृष्टिकोण से नहीं नज़र आये  पर व्यास क़ी परिभाषा कुछ अलग ही होती थी | मैं ठहाका लगा कर हँसा ,"हा .., हा... , हा...!
अब शायद उनको ध्यान आया कि मैं भी उनके साथ चल रहा हूँ |

"क्या हुआ टुल्लू ?" श्यामलाल मामा बोले, "बड़े जोर से हँसी आ रही है |"
"कुछ नहीं ...ही ही ही ... |" मेरी हँसी नहीं रुक  रही थी ,"  बेंदरा , बेंदरी ....|"
"बेंदरा ? कौन बेंदरा ?"  श्यामलाल ने लीपापोती के लिहाज़ से पूछा |
"बेंदरा यानी रामानुज - शकुन के घरवाला | है न ?"
"और बेंदरी ?"
" व्यास की  घरवाली |"
और व्यास सन्न रह गए | मानो गुस्से में उन्होंने जो पत्थर फेंका था, वह अचानक वापिस मुड़कर उन्हें लगा हो |
"तुझे किसने बताया मटमटहा ?" श्यामलाल मामा ने पूछा |
"उस दिन व्यास माँ से बात कर रहे थे ....|"

"वाह !" श्यामलाल मामा बोले ," बच्चों के सामने बातें करना बड़ा खतरनाक है भाई | अच्छा टुल्लू, चल एक गाना सुना ...|"
"कौन सा ?"
"कोई भी, जो घर के आने तक चले ...|"

मैंने कुछ सोचा फिर गाना शुरू किया ,
" इकतारा बोले तुन तुन ... | इकतारा बोले , क्या कहे वो तुमसे , तुन तुन तुन .. |
बात है लम्बी मतलब गोल , खोल न दे कोई इसकी पोल | तो फिर उसके बात | उ हूँ , हूँ हूँ ... !"


******

रामलाल मामा की मांढर  सीमेंट प्लांट में नौकरी लगी और वो   हमेशा के लिए भिलाई छोड़कर चले गए |
वैसे भी रामलाल मामा की शादी हो गयी थी | अब वो हमारे घर में नहीं रहते थे | रेल पटरी के उस पार , सुपेला में कहीं झोंपड़ी किराए में लेकर रहते थे | जिस छोटी सी फैक्टरी  में वे काम करते थे , वह भी सुपेला में ही थी | फिर भी उनका घर आना जाना लगा ही रहता था | खासकर रविवार के दिन तो बदस्तूर आया करते थे |
वही किस्सा  व्यास का था | अब वो सेक्टर ५ में एक छोटा घर किराए में लेकर रहते  थे | घर निहायत ही छोटा था , फिर भी इतना बड़ा जरुर था  -की वो और लक्ष्मी  भैया वहां रह सकें | फिर भी वे रविवार को जरुर कभी लक्ष्मी भैया को लेकर कभी घर में छोड़कर - हमारे घर आया करते थे |

दोनों के रविवार आगमन का एक उद्देश्य जरुर होता | वे माँ से उन सब्जियों की लिस्ट मांगते, जो हफ्ते भर की जरुरत के लिए पूरी होती | या यूँ कहें कि पूरी होनी चाहिए थे, पर अक्सर किसी न किसी मेहमान के अकस्मात् आगमन से गड़बड़ा जाती थी |
लेकिन उनके वहां रहने का एक फायदा यह हुआ कि एकाध  मेहमान वहां भी टिक सकता था |

कभी फूफू (बुआ) गाँव से आती थी तो मैं या संजीवनी  उन्हें व्यास के घर छोड़ देते थे | रास्ते में एक मेन रोड पड़ती थी - वही 'सेवन ट्रीस '(सात वृक्ष)|| मेन रोड इस लिए कि उसमें स्कूटर, मोटर या मोटर साईकिल चलती थी | और हाँ, टेम्पो - टेम्पो जरुर चलते थे |

रामलाल मामा के भिलाई  से जाने के बाद समय का एक टुकड़ा यादों के गर्त में समा गया |

अब श्यामलाल मामा थोड़े हताश से हो गए | वो मुंह अँधेरे घर से निकल जाते और देर रात गए आते | बाबूजी ने उन्हें एकाध बार समझाया कि देर सबेर   नौकरी   तो लगेगी ही | निराशा क़ी क्या बात है ?

और एक दिन वो अखबार वाले पर ही बरस पड़े |

घर में तीन पेपर आते थे - "नव भारत" - जो व्यास भैया के हिसाब से कांग्रेसी पेपर था, "युगधर्म" - जो जनसंघी था और 'नई दुनिया " - जो बेपेंदी का लोटा था | 'बेपेंदी का लोटा' - याने जब जहाँ कहीं लुढ़क जाए | ये तीन पेपर वर्षों से आते थे | शायद बाबूजी संतुलित विचारधारा के पक्षधर थे - पता नहीं |

जो भी हो - 'नई दुनिया' के पेपर बांटने वाले को बड़ी जल्दी पड़ी रहती थी | अक्सर वह चलती साइकिल से ही - बड़ी अदा से पेपर घुमाकर फेंका करता था | साइकिल क़ी रफ़्तार में रत्ती भर का फरक नहीं पड़ता था |

एक दिन उसने घुमाकर पेपर फेंका और वह श्यामलाल मामा क़ी खोपड़ी से टकराया | गनीमत थी कि अखबार कागज में छपते थे , पत्थर पर नहीं |

"हाँ , हाँ ," श्यामलाल मामा चिल्लाकर बोले , "अपने दूकान से फेंक दिया करो | घर में पहुँच जाएगा |"
... और पेप्पर वाला ऐसा शर्मिंदा हुआ , ऐसा शर्मिंदा हुआ कि अगले दिन से साइकिल रोककर, पेपर करियर से निकल कर, गेट खोलकर, दस कदम चल कर, पञ्च सीढियां चढ़कर, घर
के अन्दर आता और पेपर करीने से टेबल पर सजाकर रख देता ...|

***************

एक -एक तिनका, एक एक तिनका, एक एक तिनका .....
न जाने कितने बार मैंने कितनी सारी चिड़ियों को घोंसला  बनाते देखा था | और तो और, ज्यादा दूर जाने की जरुरत भी नहीं , घर में ही ढीढ  गौरय्या , न जाने कब , कहाँ से सबकी नज़रें बचाकर तिनके बटोर लाती थी और गांधीजी की तस्वीर , जो दीवार पर एक कोण बनाते तंगी थी, उसके पीछे घोसला बना लेती |
और देखते ही देखते एक जोर क़ी आंधी आई और सारे के सारे तिनके बिखर गए | मानो  एक वज्रपात हुआ और घर  बसने के पहले ही उजड़ गया  |जन्म जन्मान्तरों का नहीं - चार महीने, केवल चार महीने का ही साथ था वह |
शादी के बाद, व्यास अक्सर घुठिया चक्कर लगा लिया करते थे | ज़िन्दगी के संतुलन बनाने का यह एक रास्ता था | जब भी कभी दो तीन दिन किछुत्तियां हो, छुट्टी अगर न भी हो तो भी छुट्टी लेकर वो गाँव चले जाते थे | वैसे भी भिलाई से  घुठिया जाने में बमुश्किल चार पांच घंटे  लगते थे - बशर्ते लगी लगाईं बस या रेल मिल जाए |

एक दिन वो गाँव गए और अगले ही दिन एक तार वाला टेलीग्राम पकड़ा गया | बाबूजी घर में थे नहीं | स्कूल से आकर जब कौशल ने एक पंक्ति का तार बांचा तो मानो गाज गिर पड़ी |

कुछ दिन पहले, केवल कुछ ही दिन पाले तो लोग शादी में गए थे | शादी की हल्दी अभी छूटी भी नहीं होगी और अब सब लोग फिर एक बार सफ़र की तयारी करने लगे - अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए ....|

अचानक कैसे हो गया यह सब ?
फूफा खेत गए थे | फूफू मंदिर गयी थी | व्यास नहाने के लिए तालाब की और जा रहे थे | अभी वो तालाब के पास पहुंचे ही थे कि पीछे से कोई आदमी दौड़ते दौड़ते आया |

"जल्दी ... जल्दी ... |" वह हांफते हुए बोला ,"जल्दी घर जाओ | तुम्हारी घरवाली आग में जल रही है ...|"
व्यास तुरंत दौड़ते हुए घर गए | घर के सामने भीड़ लगी थी |  वे भीड़ चीरते हुए अन्दर घुसे |उनकी आँखों के सामने सब कुछ भस्म हो चुका था - सब कुछ .... |  सब कुछ समाप्त हो चुका था |

**********

नाम रखना तो कोई बबलू से सीखे |
जैसे कि माँ के शत्रुघ्न कका (काका) गाँव से नौकरी क़ी तलाश में भिलाई आये | काफी जवान थे | अगर चेहरे से थोड़े बहुत चेचक के दाग हटा दिए जाएँ और सांवले रंग में थोडा सा पानी मिला दिया जाए तो शकल सूरत भी अच्छी थी - राजेश खन्ना से मिलती जुलती   | बहुत थोडा सा - कभी कभी हकलाते भी थे | उनकी छत्तीसगढ़ी पर, जो कि अपने आप में एक आंचलिक बोली थी, पर भी स्थानीय प्रभाव था | उनकी छत्तीसगढ़ी को शब्दावली में 'मोका' (मुझे) , 'तोका' ( तुम्हें ) जैसे शब्द थे | पत्नी क़ी अकस्मात् मृत्यु से व्यास थोड़े से खिन्न रहते  थे | उन्होंने व्यास के घर को ही अपना डेरा बना लिया |
थोडा अजीब नहीं लगता, कि उम्र में वे माँ से छोटे थे , फिर भी रिश्ते में माँ से बड़े थे ! हिंदुस्तान में ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी | देखा जाए तो रिश्ते में मैं भी तो रंजना का मामा लगता था , पर उनसे उम्र में छोटा था |

जब व्यास कभी घुठिया जाते थे तो  साइकिल शत्रुघ्न काका के पास होती थी | तब कपडे धोने का सोडा मिलता था - लोग उसे बायसठ  कहते थे | ठीक वैसे ही , जैसे लोग लोकल ट्रेन को 'चार डबिया' कहते थे, क्योंकि उसमें चार डिब्बे होते थे | एक दिन शत्रुघ्न काका ने व्यास की साइकिल को बायसठ से धो डाला |

और बबलू ने उनका नाम बायसठ रख डाला | बायसठ  से धुलने के बाद जैसे साइकिल चमचमा गयी  , ठीक वैसे ही ये नाम भी चमक उठा  | पता नहीं क्यों, ये नाम इतना लोकप्रिय हो गया कि बरसों लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे |

वैसे नाम में क्या रखा है | उनके खुशमिजाज स्वभाव से एक फायदा यह हुआ कि व्यास का सदमा, उनकी मायूसी काफी हद तक दूर हो गयी | दोनों ही हमउम्र नौजवान थे और कुछ हद  तक फिल्मों के शौकीन थे |
हालाँकि उनके साथ लक्ष्मी भैया रहते थे, जो अक्सर उनके किस्से सुनाया करते थे |

उन दिनों लोग फोटो - फोटो स्टुडियो   में खिंचाया करते थे | श्वेत-श्याम फोटो का ज़माना था | फोटो खींचने के पहले फोटोग्राफर पूछ लिया करता था ," कितनी कॉपी  चाहिए ?"

पासपोर्ट फोटो की लोग चार, आठ या सोलह फोटो मांगते थे | उतनी संख्या  में फोटो बनाकर थमा देने के बाद फोटोग्राफर का कार्य संपन्न हो जाता था | फोटो लेते समय आपके पास एक मौका और होता था | अगर आपको अपना चौखटा पसंद आया तो आप चार या आठ फोटो और बनाने का आर्डर दे सकते थे | उतनी और प्रतियाँ बनाने के बाद फोटो स्टुडियो वाले उस फोटो के 'निगेटिव' का क्या करते थे ? कुछ 'स्टुडियो' वाले - जैसे कला स्टुडियो वाला, उसे चार छह महीने, या साल भर तक सम्हाल के रखता था - ताकि इस बीच आपको और प्रतियों की जरुरत पड़े तो आप बिना फोटो खिंचवाए बना सकें | इस तरह उसका धंधा भी चलता था और आपका भी काम सस्ते में निपट जाता था | कुछ -"कौन सरदर्द मोल ले " कहकर उन निगेटिव को कचरे के डिब्बे में फेंक देते थे | वे क्या करते थे , यह निर्णय नितांत उनका हुआ करता था | बुद्धिमानी इसी में होती थी, और बुद्धिमान लोग वही किया करते थे, कि फोटो लेते समय वे फोटो की नेगेटिव भी मांग लेते थे , ताकि भविष्य में किसी भी स्टुडियो से फोटो बनवा सकें | शुरू में तो फोटोग्राफर सहर्ष मुफ्त ही  वो निगेटिव दे देते थे |
फिर जब बुद्धिमानों की संख्या बढ़ने लगी और अप्रत्यक्ष रूप से फोटोग्राफरों के धंधे को चोट पहुँचने लगी तो उन्होंने निगेटिव के भी चवन्नी या अठन्नी मांगने शुरू कर दिए |

अब काम की तलाश में आवेदन करते समय सब से जरुरी चीज फोटो ही थी | शत्रुघ्न काका ने सुपेला में किसी स्टुडियो में फोटो खिचाई और फिर एक सामान्य बुद्धिमान की तरह उन्होंने निगेटिव की मांग कर डाली | अब वे गाँव से नए नए आये थे | फोटो लेने और पैसे देने के बाद वे इंतज़ार करते खड़े रहे |

"अब क्या चाहिए ?" दाढ़ी वाले दक्षिण भारतीय फोटोग्राफर ने पूछा |
"नेगोटी " शत्रुघ्न काका ने जवाब दिया |
"लंगोटी ?" दक्षिण भारतीय फोटोग्राफर कुछ समझा नहीं ," हम कपड़ा नाहीं बेचता |"
"कपड़ा नहीं चाहिए|" शत्रुघ्न काका बोले ,"निगोटी  दे दो |"
कुल गर्मागर्म आधा घंटा लग गया शत्रुघ्न काका को अपनी बात समझा पाने में |

**************

श्यामलाल ने माँ के पाँव छुए और कहा ,"दीदी , मैं जा रहा हूँ |"

माँ कुछ नहीं बोली | चुपचाप खड़े रही | श्यामलाल ने फिर कहा ," दीदी , मैं भी मांढर  ही जा रहा हूँ | "

रामलाल मामा की कुछ दिन पूर्व मांढर के सीमेंट फैक्टरी में लोको मेकेनिक  की नौकरी लगी थी | वो भिलाई छोड़कर, यानी सुपेला के घर को छोड़कर जा चुके थे | "मैं भी" से श्यामलाल का यही तात्पर्य था |

श्याम लाल ने फिर पूछा," चलूँ दीदी ? लोकल   का टाइम हो रहा है  | कल से नौकरी पकड़नी है |"

कई दिनों से मामा लोग नौकरी की तलाश कर रहे थे | नौकरी मिली भी तो कहाँ - मांढर में, जहाँ सीमेंट कारपोरेशन का  नया सीमेंट प्लांट खुला था | जब तक वे नौकरी खोज रहे थे , माँ उनकी नौकरी को लेकर दुखी रहती थी | अब जब उन्हें नौकरी मिली, तो माँ .....|

"तीजा पोरा में आओगे न ? " माँ के मुंह से यही बोल फूटा |

"कैसी बात कर रहे तो दीदी ? तीजा , पोरा या राखी तो बहुत दूर है | तो क्या मैं त्यौहार में ही आऊंगा ? चार डबिया तो सीधे चलते रहती है, यहाँ से मांढर  | है कि नहीं ? मैं तो जब माँ करेगा आते रहूँगा | क्यों टुल्लू ?"

*********

नन्हा मनोज और उसकी माँ ही आखिरी मेहमान बचे थे - घर में | वे दोपहर का खाना खा चुके थे और बाहर बरामदे में बैठे इंतज़ार कर रहे थे | मनोज की माँ बार - बार आभार व्यक्त कर रही थी  कि  वे इतने दिन आराम से रहे और माँ को काफी तकलीफ दी | और माँ कह रही थी कि उसमें तकलीफ कैसे - ये तो उनका कर्तव्य था | यानी बातें काफी औपचारिक दौर से गुजर रही थी |
आकाश में बादल छाये थे और बारिश होने क़ी आशंका थी | फिर भी बरिश तुरंत हो, ऐसा नहीं लग रहा था |

आखिरकार  बलदाऊ आये - माँ के बलदाऊ काका  | हमेश मुस्कुराने वाले और "कैसे टुल्लू , क्या चल रहा है ?" करके बात शुरू करने वाले | माँ ने उन्हें भी 'दो कौर' खाने के लिए आमंत्रित किया | वे भी बोले कि वे भोजन करके आये हैं और पेट में थोड़ी भी जगह नहीं है | यानी बातें फिर एक बार औपचारिक दौर से गुजरीं |

"अच्छा पार्वती | मैं चलूँ |" महिला ने विदाई ली | किसने किसके पाँव छुए , ये तो याद नहीं है - हाँ , इतना याद है कि मनोज अपने माँ की साडी चबाने लगा | साडी चबाता मनोज बड़ा प्यारा लग रहा था |

"देखो इसे | " मनोज की माँ बोली |
"शायद इसके दांत निकल रहे हैं | इसलिए मुंह में खुजली हो रही है | " माँ बोली |

आखिर नन्हे मनोज को लेकर उसकी माँ और बलदाऊ काका पावर हॉउस स्टेशन की ओर चल पड़े |

माँ उन्हें जाते हुए देखते रही | फिर अचानक उन्हें लगा , मैं क्या कर रहा हूँ ? मनोज की स्टाइल में मैं भी माँ की साड़ी चबा रहा था | वह तो बड़ा प्यारा लग   रहा था | मुझे लगा, माँ हँसेगी, पर हुआ कुछ उल्टा |

" हाँ, हाँ | ओर आदतें सीख | " माँ साडी छुड़ाती हुई बोली ,"तू क्या दूध पीता छोटा बच्चा है ?"

झेंपकर में वापिस स्कूटर के घर में चले गया , जहाँ पकडे गए पतंगों के अस्तबल में एक पतंगा बिलकुल हिलडुल नहीं रहा था - शायद मर गया था |

*********

छोटे मनोज और उसकी माँ के जाने के बाद ?
तो अब घर में हम छः भाई बहन ही बचे थे  - माँ रसोई में थी और बाबूजी ? कभी भी आ सकते थे |
'नयी पीढ़ी की मासिक पत्रिका ' - 'नन्दन' कौशल भैया के हाथ में थी  | एक तरफ बेबी और दूसरी तरफ बबलू दोनों उन दो  तस्वीरों को ध्यान से देख रहे थे |

"इस फोटो में इसकी नाक नुकीली है और इसमें  चपटी |" बेबी ने एक गलती और खोजी |
"हाँ, ये तो गलती है |" सामने से शशि देख रही थी |

"चार |" कौशल भैया बोले , "अभी छः और बाकी है |"
मैं भी उन तस्वीरों को देखने की कोशिश कर रहा था और संजीवनी भी | लक्ष्मी भैया ने मुझे बताया था कि गलती खोजना बहुत मुश्किल है | बड़े बड़े लोग गलती नहीं खोज पाते | मैं किसी तरह इधर उधर से उछल उछल कर दोनों तस्वीर देख रहा था | कम से कम एक गलती तो मिल जाए |

 फिर मैंने पढना शुरू किया |
"आप कितने बू बू बुध बुद्ध ..."
"बुद्धिमान ... " शशि दीदी बोली |

"आप कितने बुद्धिमान हैं ....| हू ब हू तस्वीर बनाते समय चित्रकार   ने कुछ गलतियाँ कर दी हैं | कुल दस गलतियाँ | ... दस गलतियाँ खोजने वाला जिन्सन |"

"जिन्सन नहीं जीनियस ...|" बेबी बोली |

"दस गलतियाँ खोजने वाला जीनियस ... सात  से नौ गलतियाँ   खोजने वाला बुद्धिमान ... चार से छः गलतियाँ खोजने वाला - औसत बुद्धि - और चार से कम गलतियाँ खोजने वाला - आप खुद ही फैसला करें उसे क्या कहा जाए ?"

"मन में पढ़ ...|" बबलू भैया झल्लाए |

बहुत मुश्किल था भाई गलतियाँ खोजना - बच्चों के बस का तो हरगिज नहीं था ... |

मैं विचारों में खो गया | अचानक लगा , दो तो तस्वीरें हैं , सगे और गैर -सगों की | कितनी समानता है - एकदम हू बी हू तस्वीरें ... |

 फिर भी अंतर है | और अंतर खोज पाना ?

... शैल निर्विवाद रूप से जीनियस है |

 वो डाकिया और कंपाउंडर .... ?   वो  बुद्धिमान थे |

 वो मोटर साइकिल   वाला - .... शायद औसत बुद्धि ....|

पर कुछ लोग तो ऐसे थे जो सगों और गैर सगों की  उन तस्वीरों में कभी अंतर नहीं कर पाए .... | चार गलतियाँ खोजना तो दूर की बात , अगर वो अंडा भी फोड़ दें तो बहुत बड़ी बात होगी |

ऐसे लोगों को भला आप क्या कहेंगे ?

***********

(समाप्त)

काल - १९७०-७१
स्थान - भिलाई


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें